Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 54
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा षद्रव्यों का पारस्परिक सहसम्बन्ध : ___षट् द्रव्यों में जीव, पुद्गल और काल सक्रिय हैं तथा धर्म, अधर्म और आकाश निष्क्रिय हैं, फिर भी ये सक्रिय द्रव्यों के सहयोगी अवश्य हैं / धर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति में सहयोगी है तो अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की अवस्थिति या स्थिरता में सहयोगी है। आकाश का कार्य जीव और पुद्गल को स्थान देना है तो कालद्रव्य का कार्य उनके परिवर्तन में सहयोगी होना है। पुद्गल का कार्य जहाँ एक ओर भौतिक जगत् की सर्जना है तो दूसरी ओर जीव के शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के निर्माण में और अन्य सर्जनात्मक कार्यों में सहयोगी होना है, जब कि जीव द्रव्य का कार्य परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करना है। इसी बात को तत्त्वार्थसूत्र में 'परस्परीग्रहोजीवानाम्' कहकर अभिव्यक्त किया गया है / जड़ और चेतन का पारस्परिक सहयोग : ___ जैनदर्शन की विशेषता यह है कि वह न केवल जड़ और चेतन द्रव्यों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है, अपितु यह भी मानता है कि संसार दशा में जीव और पुद्गल एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं हैं। दूसरे शब्दों में अपनी सत्ता की अपेक्षा वे निरपेक्ष हैं, किन्तु सांसारिक अस्तित्व में वे परस्पर सापेक्ष हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते भी हैं और एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। यही कारण है कि जैनदर्शन में शरीर और चेतना, द्रव्य कर्म और भावकर्म, द्रव्यमन और भावमन, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय का एक-दूसरे से प्रभावित होना और प्रभावित करना माना गया है। ___ संसार-दशा में कोई भी जीव बिना शरीर के नहीं होता है और शरीर किसी भी प्रकार का हो, वह एक पौद्गलिक संरचना है, इसी प्रकार द्रव्येन्द्रियाँ तथा द्रव्यमन भी पौद्गलिक संरचना है। संसार-दशा में जीव जिन कर्मों से बद्ध माना जाता है, वे भी पौद्गलिक संरचनाएँ ही हैं। द्रव्यकर्म और उनसे निर्मित शरीर, द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन हमारे मनोभावों को प्रभावित करते हैं, परिणामतः शारीरिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियाँ, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में 'योग' कहा गया है, जन्म लेती हैं -फिर मनोभावों के कषाय अथवा राग-द्वेष से संश्लिष्ट होने पर नये द्रव्यकर्मों का बन्ध होता है। फिर उन द्रव्यकर्मों की विपाक दशा में मनोभाव बनते हैं और इस प्रकार जीव का संसार-चक्र प्रवाहमान बना रहता है। द्रव्यकर्मजन्य ये मनोभाव ही द्रव्यलेश्याओं की संरचना करते हैं। द्रव्यलेश्या से मनोभाव बनते हैं और मनोभावों से द्रव्यलेश्या बनती है। इसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकर्म का और भावकर्म से द्रव्यकर्म का भी पारस्परिक सहसम्बन्ध है।

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