Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 20
________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा वह अस्तिकाय है। किन्तु यहाँ 'काय' (शरीर) शब्द भौतिक शरीर के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, जैसा कि जन-साधारण समझता है। क्योंकि पंच-अस्तिकायों में पुद्गल को छोड़कर शेष चार तो अमूर्त हैं, अतः यह मानना होगा कि यहाँ काय शब्द का प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में ही हुआ है। पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है- "कायत्वमाख्यं सावयवत्वम्" अर्थात् कायत्व का तात्पर्य सावयवत्व है / जो अवयवी द्रव्य हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरवयवी द्रव्य हैं वे अनास्तिकाय हैं। अवयवी का अर्थ है अंगों से युक्त / दूसरे शब्दों में जिसमें विभिन्न अंग, अंश या हिस्से (पार्ट) हैं, वह अस्तिकाय है। यद्यपि यहाँ यह शंका उठाई जा सकती है कि अखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना कहाँ तक युक्ति-संगत होगी? जैनदर्शन के पंच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और आकाश को सावयवी होने का क्या तात्पर्य है ? पुनश्च, कायत्व का अर्थ सावयवत्व मानने में एक कठिनाई यह भी है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयवी हैं, तो क्या वे अस्तिकाय नहीं हैं ! जब कि जैनदर्शन के अनुसार तो परमाणु को भी अस्तिकाय माना गया है। प्रथम प्रश्न का जैन दार्शनिकों का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य हैं, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से धर्म और अधर्म लोकव्यापी हैं तथा आकाश लोकालोकव्यापी है, अतः क्षेत्र की दृष्टि से इनमें सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना की जा सकती है। यद्यपि यह केवल वैचारिक स्तर पर की गई कल्पना या विभाजन है। दूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर यह होगा कि यद्यपि परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव हैं, अतः स्वयं तो कायरूप नहीं हैं, किन्तु वे ही परमाणु-स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयवत्व को धारण कर लेते हैं। अतः उपचार से उनमें भी कायत्व का सद्भाव मानना चाहिये / पुनः परमाणु में भी दूसरे परमाणु को स्थान देने की अवगाहन शक्ति है, अतः उसमें कायत्व का सद्भाव है। जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय और अनास्तिकाय के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व भी माना है। जो बहुप्रदेशी द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं और जो एक प्रदेशी द्रव्य हैं, वे अनास्तिकाय हैं / अस्तिकाय और अनास्तिकाय की अवधारणा में इस आधार को स्वीकार कर लेने पर भी पूर्वोक्त कठिनाईयाँ बनी रहती हैं। प्रथम तो धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों स्व-द्रव्य अपेक्षा से तो अप्रदेशी हैं, क्योंकि अखण्ड हैं / पुनः परमाणु पुद्गल भी एक प्रदेशी हैं / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में उसे अप्रदेशी भी कहा गया है। क्या इन्हें अस्तिकाय नहीं कहा जायेगा? यहाँ भी जैन दार्शनिकों का संभावित प्रत्युत्तर वही होगा जो कि पूर्व प्रसंग में दिया गया है; धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्यापेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है 1. पंचास्तिकाय गाथा 5 की टीका

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