Book Title: Jain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 75
________________ 66 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा आगामों में तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में कहीं क्रमबद्ध पर्याय की स्पष्ट अवधारणा है। फिर भी क्रमबद्ध पर्याय के सम्बन्ध में डॉ. हुकमचंद्र जी भारिल्ल का जो ग्रन्थ है वह दर्शन जगत् में इस विषय पर लिखा गया एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस सम्बन्ध में मतवैभिन्न्य अपनी जगह है, किन्तु पर्यायों की क्रमबद्धता के समर्थन में सर्वज्ञता को आधार मान कर दी गई उनकी युक्तियाँ अपना महत्त्व रखती हैं। विस्तार भय से इस सम्बन्ध में गहन चर्चा में न जाकर अपने वक्तव्य को यहीं विराम देना चाहूँगा और विद्वानों से अपेक्षा करूँगा कि पर्याय के सम्बन्ध में उठाये गये इन प्रश्नों पर जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में अपना चिन्तन प्रस्तुत करें। क्रमबद्ध पर्याय का यदि हम यह अर्थ लेते हैं कि पर्याय क्रम से घटित होती रहती हैं अर्थात् एक पर्याय के पश्चात् दूसरी पर्याय होती है तो उससे किसी का विरोध नहीं है, किन्तु वे क्रमबद्ध पर्याय पूर्व नियत हैं, ऐसा मानें तो उसका भगवान महावीर के पुरुषार्थवाद, जैन कर्म सिद्धान्त या परवर्ती आचार्यों के पंचकारण समवाय केसिद्धान्त से विरोध होता है; अतः क्रमबद्ध पर्यायों की पूर्व नियतता मान्य नहीं हो सकती है। जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य की संयोग-वियोग जन्य पर्यायें और नवतत्त्व : ____ द्रव्य, गुण और पर्याय के सहसम्बन्ध की इस चर्चा में नव या सात तत्त्वों के विवेचन को छोड़ा नहीं जा सकता है, क्योंकि षद्रव्यों में जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य के पारस्परिक संयोगवियोग रूप पर्यायों की इस चर्चा में सप्त या नव तत्त्वों की चर्चा करना आवश्यक है। सात या नौ तत्त्वों में मुख्य द्रव्य दो हैं-जीव और पुद्गल; शेष सब इन दो द्रव्यों के संयोग-वियोग रूप पर्यायें हैं। पुद्गल द्रव्य के पाँचवें विभाग केअन्तर्गत कार्मणवर्गणा रूप सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य के समूह का आत्मा की ओर आगमन या आकर्षित होने को ही आश्रव कहा जाता है और उसका जीवद्रव्य के साथ संयोग हो जाने को बन्ध कहते हैं। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य का आत्मा की ओर आकर्षण (आना) रुक जाना संवर और जीवद्रव्य तथा पुद्गल का पृथक्-पृथक् हो जाना निर्जरा है। फिर आत्मा की पुद्गल द्रव्य के पूर्ण वियोग रूप शुद्धावस्था को मोक्ष कहते हैं-जीव और पुद्गल (अजीव) ये दो ही तत्त्व मूल हैं उनमें आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन पाँच तत्त्वों को मिलाने पर कुल सात तत्त्व होते हैं / पुनः शुभ केआश्रव, बन्ध और विपाक को पुण्य तत्त्व और अशुभ के आश्रव, बन्ध और विपाक को पाप तत्त्व कहते हैं इस प्रकार जीव, अजीव, आश्रव, पुण्य-पाप, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष-ये नव तत्त्व होते हैं। इनमें जीव और पुद्गल (अजीव) को छोड़कर शेष सभी उनके संयोग-वियोग रूप पर्यायें हैं- पर्याय की इस चर्चा में सप्त या नव तत्त्वों की यह चर्चा भी समाहित हो जाती है। न केवल सप्त या नौ तत्त्वों की यह अवधारणा ही

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