Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ यदि हम एक बेहतर विश्व के निर्माण की दिशा में सोच रहे हों, एक ऐसी विश्व-व्यवस्था में हमारा विश्वास हो—जिसमें न दरिद्रता हो, न बेकारी हो और न विषमता, जिसमें युद्ध का उन्माद और रक्तपात की संभावनाएं सिरे से ही खारिज रहें तो कोई ऐसा मार्ग तलाशना होगा जो आध्यात्मिक पुनरुज्जीवन का शंखनाद कर सके। अनेकांत इसके लिए सहज मार्ग हो सकता है। यद्यपि यह दुर्भाग्य ही है कि समन्वय और परस्पर सम्मान-दृष्टि रखने वाले इस सिद्धांत पर समग्र रूप से चिंतन कभी नहीं हो पाया। अनेकांत को धर्म की सीमाबंदी में इस तरह जकड़ा रखा गया कि इसका दार्शनिक-तात्त्विक स्वरूप तो उजागर हुआ, पर जीवन के विभिन्न पहलुओं और जटिलताओं के समाधान में भी इसकी कोई भूमिका हो सकती है, ऐसी क्षमता भी अनेकांत में विद्यमान है-विचार नहीं हो पाया। लेकिन अब, जब यह बात कही जाने लगी है कि समस्याओं से मुक्त होने के लिए अध्यात्म ही सर्व-सुलभ मार्ग है-अनेकांत की क्षमताओं पर विचार होना चाहिए। क्या अनेकांत हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर असरदार हो सकता है? आज जो स्थितियां विश्वपटल पर नजर आ रही हैं- क्या उन पर अनेकांत दृष्टि से विचार किया जा सकता है ? समूचे राजनीतिक-आर्थिक जीवन पर आज या तो बाजार की शक्तियों का प्रभाव है या आतंकवाद का। आतंकवाद ने केवल निहत्थों-निरपराधों की जानें ही नहीं ली है, सत्ता और विचारधारा को थोपने के लिए शक्तिसंपन्न राष्ट्रों, जनों की धौंसपट्टी भी प्रकारांतर से आतंकवाद ही है। हिंसा केवल जीवहत्या में ही नहीं है, जितनी यह हिंसा घृणास्पद है—मानसिक और वाचिक रूप से होने वाली हिंसा भी उतनी ही घृणित है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के अनुसार भगवान महावीर कहते हैं- "दूसरों के प्रति ही नहीं, उनके विचारों के प्रति भी अन्याय मत करो। अपने को समझने के साथ-साथ दूसरों को समझने की भी चेष्टा करो।" महाप्रज्ञजी के अनुसार यही है अनेकांत दृष्टि, यही है अपेक्षावाद और इसी का नाम है बौद्धिक अहिंसा। भगवान महावीर ने इसे दार्शनिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा, इसे जीवन-व्यवहार में भी उतारा। इसके समर्थन में महावीर के जीवनकाल की कई घटनाओं-चंडकौशिक सांप, संगम आदि का आचार्यश्री महाप्रज्ञजी उल्लेख करते हैं। वर्तमान संदर्भ में इन्हें आतंकवाद का रूप ही कहा जाएगा। महावीर ने तत्समय के ऐसे कथित आतंकवाद के बरक्स विश्व-मैत्री की दृष्टि प्रतिपादित की। महावीर की यही दृष्टि आज की समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है अतः इन पर विचार होना चाहिए। इस दृष्टि से जैन भारती का यह अंक आपके सम्मुख है। यह अंक अनेकांत सिद्धांत पर जैन भारती का यह विशेष अंक अपने सुधी पाठकों व देश के विद्वत् समाज के हाथों में सौंपते हुए हमें अतीव आह्लाद हो रहा है। भगवान महावीर के छब्बीसवें जन्म शताब्दी वर्ष में 'जैन भारती' ने विचार किया कि महावीर के सिद्धांतों पर विविध दृष्टिकोणों से बेलाग चर्चा हो और सम-सामयिक परिस्थितियों में उनके विचारों की प्रासंगिकता को खंगाला जाए। इसी विचार की एक फलश्रुति है 'जैन भारती' का यह 'अनेकांत विशेष' अंक। अनेकांत दृष्टि के विविध आयामों पर अधिकारी विद्वानों ने जो लेखकीय सहयोग दिया है—हम हृदय से उनके कृतज्ञ हैं। अनेकांत पर विविधपक्षी विचार एक ही स्थान पर अब तक उपलब्ध नहीं हैं। इस दृष्टि से जैन भारती का यह प्रयास अनेकांत पर वैचारिक उत्तेजना और चर्चा को आगे बढ़ाने में सहायक होगा—ऐसा हमारा मानना है। इस अंक में वैचारिक लेखों के साथ-साथ महावीर के जीवनकाल के प्रेरक प्रसंग भी हैं। कथा व कविताएं भी हैं जिनमें पाठक अनेकांत दृष्टि की झलक पाएंगे। कहने का तात्पर्य यह कि रचनात्मक सृजन पर भी अनेकांत दृष्टि का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव हम देख सकते हैं। इस अंक की सामग्री में हर स्तर या वर्ग के पाठक को कुछ-न-कुछ अपने लिए अवश्य मिलेगा यह हमारा विश्वास है। इस बृहत् विशेषांक के लिए अप्रतिम लेखकीय साझेदारी, सहृदय विज्ञापनदाताओं का उदार सहयोग श्लाघनीय है। सांखला प्रिंटर्स की पूरी टीम मनोयोग से इस 'अनेकांत विशेष' के लिए संलग्न रही—सभी का साधुवाद। लेकिन वे मही-जन जो निस्संग रूप में सदा साथ जुटे रहते हैं, जो अनुबोधक की तरह मेरे कार्यों को गति देते हैं कैसे और किस रूप में उनके प्रति मैं कृतज्ञता प्रकट करूं? मैं उनका कृतज्ञ हूं। आप सबका भी। - शुभू पटवा BHIHARIHA R स्व र्ण जयंती वर्ष - 201111111111111111111111111 8. अनेकांत विशेष जैन भारती । मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 152