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भगवतीसरे जघन्येन एक समयम् , उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । अशब्दपरिणतस्य खल भदन्त ! पुद्गलस्य अन्तरं कालतः क्रियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम् , उत्कर्पण आवलिकायाः असंख्येयभागम् ।। स० ५ ॥ आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का होता है। इसी तरह यावत् असंख्यात प्रदेशों में स्थित हुए पुद्गल स्कन्ध के विषय में भी समझनी चाहिये, (वण-गंध-रस-फास सुहुम परिणय-वायर परिणयाणं एएसिज चेव संचिटणा तं चेव अंतरंपि भागियन्वं) वर्ण-गंधरम-स्पर्श-सूक्ष्म परिणत और बादर परिणत पुद्गलों का जो स्थितिकाल है वही अन्नर काल है ऐमा समझना चाहिये। (सहपरिणयस्सणं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवञ्चिरं होइ ) हे भदन्त ! शब्दरूप, से परिणत हुए पुद्गल का शब्दरूप पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उसी शब्दरूप पर्याय में आने का विरह काल, काल की अपेक्षा कितना है ? (गोयना) हे गौतम ! (जगणं एगं समय, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं ) हे गौतम ! शब्दरूप से परिणत पुद्गल का शब्द पर्याय को छोड़ने के बाद पुन: उसी शब्दरूप पर्याय में आने का विरहकाल जघन्य से एक समय का है और उत्कृष्ठ से असंख्यात काल का है। (अमद्दप रिणयस्म भते । पोग्गलस्म अंतरं कालो केवच्चिरं होई ) हे भदन्त ! अशब्दरूप से परिणत हुए पुद्गल का अन्नर काल की अपेक्षा ભાગ પ્રમાણ કાળનું અતર પડે છે અસંખ્યાત પર્યન્તના પ્રદેશોની અવગાહના વાળા નિષ્કપ પુલના અંતરકાળ (વિરહકાળ) ના વિષયમાં પણ એ જ प्रभार समor. (वण्ण. गंध, रस, फास, सुहुम परिणय, बादर परिणयाणं ए ए सिं जं चेव सचिटणा तं चेव अंतरपि भाण्यिव) , आध, २स, २५श', સૂક્ષમ પણમન અને સ્થૂલ પરિણમન આદિ વિષયમાં પલેને જે સ્થિતિ आज अपामा मान्य छ, मे मत२४ प समनवा. (सहपरिणयस णं भते । पोग्गलस्स अंतर कालो केवच्चिर होइ ?) महन्त ! शम्३ये પરિણમેલા પુલને, શબ્દરૂપ પર્યાયને છોડીને ફરીથી શબ્દરૂપ પર્યાયમાં भाववान वि२६, जनी अपेक्षा सो छ ? (गोयमा!) गौतम! (जहण्णेण एगं समयं उक्कोण असखेज कालं ) श६३ परिणमेला पुरसना શબ્દ પર્યાય છોડયા પછી ફરીથી એ જ શબ્દ પર્યાય ધારણ કરવાનો વિરહકાળ ઓછામાં ઓછો એક સમયને અને અધિકમાં અધિક અસંખ્યાત કાળને खाय छ (असहपरिणयस्त भंते ! पोगगलस अंतर कालओ केवच्चिर होइ १) હે ભદન્ત ! અશબ્દ રૂપે પરિણમેલા પુલને વિરહકાળ કેટલું હોય છે?