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: भूमिका
इन में से कुछ तो बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और उनका उन्लेख 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली और 'जम्बूदीपपन्नत्ति' में मिल जाता है; पर कुछ गोत्रों का उल्लेख नहीं मिलता । अतः वे कम ही प्रसिद्ध रहे प्रतीत होते हैं। जैनेतर ग्रंथों में भी इन गोत्रों और उनसे निशृत शाखा और प्रवरों संबंधी साहित्य विशाल है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी गोत्रों के नाम मिलते हैं । अतः ऊपर दी हुई सूची में जो नाम अस्पष्ट हैं, उनके शुद्ध नाम का निर्णय जैनेतर साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से हो सकता है।
'कल्पसूत्र' में चौवीस तीर्थङ्करों के कुछ के साथ जो गोत्रों के नाम दिये हैं। उनसे एक महत्त्वपूर्ण वैदिक प्रवाद का समर्थन होता है । तीर्थकर सभी क्षत्रियवंश में हुए; पर उनके गोत्र ब्राह्मण ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध जो ब्राह्मणों के थे, वे ही इन क्षत्रियों के भी थे। इससे राजाओं के मान्य गुरुमों और ऋषियों के नाम से उनका भी गोत्र वही प्रसिद्ध हुआ ज्ञात होता है।
जैसा कि पहिले कहा गया है भारतवर्ष में प्राचीन काल से गोत्रों का बड़ा भारी महत्त्व चला आता है । जैनागमों से भी इस की भलीभांति पुष्टि हो जाती है। 'जम्बूदीपपन्नचिस्त्र' से इन गोत्रों के महत्व का एक महत्वपूर्ण निर्देश मिल जाता है । वहाँ अठाईस नक्षत्रों के भी भिन्न-भिन्न गोत्र बतलाये हैं । जैसे:नक्षत्र-नाम गोत्र-नाम
नक्षत्र-नाम
गोत्र-नाम १ अभिजित मोद्गल्यायन
१५ पुष्यका
अवमज्जायन २ श्रवण सांख्यायन
१६ अश्लेखा माण्डव्यायन ३ धनिष्ठा अग्रभाव
१७ मघा
पिंगायन ४ शतभिषक् करिणलायन
१८ पूर्व फाल्गुनी गोवल्लायन ५ पूर्वभद्रपद जातुकरण
१६ उत्तरा फाल्गुनी काश्यप ६ उत्तराभद्रपद धनंजय
२० हस्त
कौशिक ७ रेवती पुष्पायन
२१ चित्रा
दार्भायन ८ अश्विनी आश्वायन
२२ स्वाति चामरच्छायन ह भरणी भार्गवेश
२३ विशाखा शृङ्गायन १. कृत्तिका अग्निवेश -
२४ अनुराधा गोवल्यायन ११ रोहिणी गौतम .
२५ ज्येष्ठा चिकत्सायन १२ मृगशिर- भारद्वाज
२६ मूला
कात्यायन १३ पार्दा लोहित्यायन
२७ पूर्वाषाढ़ा बाभ्रव्यायन १४ पुनर्वसु वशिष्ठ
२८ उत्तराषाढ़ा व्याघ्रापत्य
(नचत्राधिकार) उपयुक्त सूची में कुछ गोत्रों के नाम तो वे ही हैं, जो 'स्थानाङ्गसूत्र' के साथ में अध्ययन में आये हैं और कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो वहाँ दी गई ४६ गोत्रों की नामावली में नहीं आये हैं। इससे गोत्रों की विपुलता का पता चलता है।