________________
:: प्रस्तावना :
३७
पद्यपि हमने इतिहास के लिए साधन-सामग्री एकत्रित करने में कोई कमी और त्रुटि तो हमारी ओर से नहीं रक्खी हैं, फिर भी हम यह स्वीकार करते हैं कि जितने शिलालेख, ताम्रपत्रलेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तियां, प्रमाणित ग्रंथ अथवा और अन्य प्रकार की साधन-सामग्री जो अब तक प्रकाशित हो चुकी है, उसको भी हम पूरी-पूरी नहीं जुटा सके हों और फलतः अनेक वीरों के, महामात्यों के, महाबलाधिकारियों के, दंडनायकों के मंत्रियों के, गच्छनायकों के, आचार्य - साधुओं के, पुण्यशाली श्रीमंतों के, धर्मात्मा, दानवीर, नरश्रेष्ठि पुरुषों के एवं अति गौरवशाली कुलों के इतिहास लिखे जाने से रह गये हों। हम इसके लिए हृदय से इतिहास प्रेमियों से और ज्ञाति के अभिमान धर्चाओं से क्षमा मांगते हैं । हमसे जितना, जैसा बन सका वह यह प्रस्तुत इतिहास रूप में आपकी सेवा में अर्पित कर रहे हैं ।
प्रस्तावना का लेख बहुत लंबा हो गया है. परन्तु जो लिखा वह मेरी दृष्टि से अनिवार्यतः लिखा जाना चाहिए ही था । लेख बंद करने के पहिले अनन्य सहयोग देने वाले व्यक्तियों का आभार मानना अपना परम् कर्त्तव्य ही नहीं समझता, वरन् उनके नामों के आगे अपनी कृतघ्नता पर पश्चाताप करता हूं कि उन सब के सहयोग पर यह कार्य पूर्ण हुआ और ऊपर नाम मेरा रहा ।
प्रस्तुत प्रस्तावना में मेरे व्यक्तित्व से संबंधित जो कुछ और जितना मैंने दिया है, वह अमर नहीं भी देता तो भी चल सकता था, परन्तु फिर बात यह रह जाती कि इतिहास की प्रगति का इतिहास सच्चा किसी के भी समझ में नहीं आ सकता और मनगड़ंत अटकलें ही वहां सुलभ रहतीं । इतिहास-लेखन मुझको ही क्यों मिला, लेखन-प्रवाह में सम-विषम परिस्थितियां जो उत्पन्न हुई और कठिनाईयां जो उद्भूत हुईं, समस्यायें जो सुलजाई नहीं जा सकीं, ग्रन्थियां जो खोली नहीं जा सकीं, उनका इतिहास-लेखन पर क्या प्रभाव हुआ तथा प्रस्तुत इतिहास से संबंधित मेरा श्रम, मेरी भावनाऐं पाठक समझ सकें यही मेरी यहां इच्छा रही है ।
आभार
पूज्यपाद श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी
पर्वत को तराजू से नहीं तोला नहीं भरा जा सकता, उसही प्रकार
उसको उनमें भर कर दिखा
जा सकता, समुद्र को घड़ों से नहीं नापा जा सकता, वायों को स्वांसों में श्री की मेरे पर ई० सं० १६३८ वि० सं० १६६५ से जो कृपादृष्टि वृद्धि त होती आई हैं, मेरे पास जितने शब्द हैं, उनसे भी कईं गुणे और हो जांय नहीं सकता । इस इतिहास कार्य में आपश्री ने वि० सं० २००१ से पत्रों का ताता बांध कर प्रत्येक पत्र में कुछ कुछ नवीन बात मुझको जानने को दी तथा उत्साहवर्धक शब्दों से मेरे उत्साह को बराबर आपश्री बढ़ाते रहे, अगर उन सब का यहां संक्षिप्त उद्धरण भी दिया जाय तो भी मेरा अनुमान है कि इस आकार के लगभग सौ पृष्ठ हो जायेंगे । आपश्री के शुभाशीर्वाद से मैं सदा अनुप्राणित और उत्साहित बना रहा हूं। इस भक्तवत्सलतां के लिये मैं आपश्री का हृदय से आभार मानता हूँ और श्रापश्री ने मेरे में अद्भुत विश्वास करके जो यह इतिहासलेखन का कार्य को दिया, जिससे मेरा मान और मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी मैं उसके लिये आपश्री का कोटिशः श्रभिवादन करता हूं ।
पंडित लालचन्द्र भगवानदास, बड़ौदा
इतिहास-कार्य के प्रारंभ से ही आप श्री की सहानुभूति प्रारंभ हो गई थी, जो आज तक वैसी ही प्रचुर बनी