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ममिका
जमा लिया है कि एक ही ज्ञाति के लोग दूसरे प्रान्त वालों के साथ वैवाहिक संबंब करने में सकुचाते हैं । खैर, उन में तो असुविधायें भी आगे आती हैं, पर एक ही ग्राम में बसने वाले प्रोसवाल, पौरवाल और श्रीमालों में तो खानपान, वेष-भूषा और रीति-रिवाजों में कोई अन्तर नहीं होता तो फिर वैवाहिक संबंध में अड़चन क्यों । वास्तव में तो ऐसा संबंध बहुत ही सुविधाजनक होता है। अपनी ज्ञाति के लड़कों में मान लीजिये वय, शिक्षा, संपत्ति, घर-घराना
आदि की दृष्टि से चुनने में असुविधा हो, चुकि बहुत थोड़े सीमित घरों में से चुनाव करने पर मनचाहा योग्य वर मिलना कठिन होता है जब कि जरा विस्तृत दायरे में योग्य वर मिलने की सुविधा अधिक रहती है । इसलिये इन भेदभावों का अंत तो हो ही जाना चाहिए। भूमिका आवश्यकता से अधिक लम्बी होगई, अतः मैं अब अन्य बातों का लोभ संवरण कर उपसंहार कर देता हूँ।
प्रस्तुत इतिहास के लेखक श्री लोदाजी की दृष्टि ऐतिहासिक तथ्यों को प्राप्त कर प्रकाश में लाने की अधिक रही है । वास्तव में यही इतिहासकार का कर्तव्य होता है। अंधकार तो सर्वत्र व्याप्त है ही। उसमें से प्रकाश की चिन्गारी जहां भी, जो भी, जितनी भी मिल जाय, उससे लाभ उठा लेना ही विवेकी मनुष्य का कर्तव्य है। वैज्ञानिक दृष्टि सत्य की जिज्ञासा से संबंधित रहती है। वह देर कचरे में से सार पदार्थ को ग्रहण कर अथवा ढूंढ कर स्वीकार करता है। जैन ज्ञातियों का इतिहास-निर्माण करना भी बड़ा बीहड़ मार्ग है। स्थान-स्थान पर भयंकर जंगल लगे हये हैं, इससे सत्य एवं प्रकाश की झांकी मंद हो गई होती है। उसमें से तथ्य को पाना बड़ा श्रमसाध्य और समयसाध्य होता है। अभी तक श्रोसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी और अन्य ज्ञातियों के जो इतिहास के बड़े २ पोथे प्रकाशित हुये हैं, उनमें अधिकांश के लेखक इन मध्यवर्ती जंगलों के कारण भटक गये-से लगते हैं। कुछ एक ने तथ्य को पाने का प्रयत्न किया है, पर साधनों की कमी, अप्रामाणिक प्रवादों और किंवदन्तियों का बाहुल्य उनको मार्ग प्रशस्त करने में कठिनाई उपस्थित कर देता है। लोदाजी को भी दे सक असुविधायें
और कठिनाइयें हुई हैं। पर उन्होंने उनमें नहीं उलझ कर कुछ सुलझे हुये मार्ग को अपनाया है यही उल्लेखनीय बात है।
साधनों की कमी एवं अस्त-व्यस्तता के कारण इस इतिहास में भी कुछ बातें ठीक-सी सुलझ नहीं सकी हैं। इसलिये निर्धान्त तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह प्रयत्न अवश्य ही सत्योन्मुखी होने से सराहनीय है।
अभी सामग्री बहुत अधिक बिखरी पड़ी है। उन्हें जितनी प्राप्त हो सकी, एकत्रीकरण करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, पर मार्ग अभी बहुत दूर है, इसलिये हमें इस इतिहास को प्रकाशित करके ही संतोष मान कर विराम ले लेना उचित नहीं होगा । हमारी शोध निरन्तर चालू रहनी चाहिए और जव भी, जहां कहीं भी जो बात नवीन एवं तथ्यपूर्ण मिले उसको संग्रहित करके प्रकाश में लाने का प्रयत्न निरंतर चालू रखना आवश्यक है।
अन्त में अपनी स्थिति का भी कुछ स्पष्टीकरण कर दं। यद्यपि गत पच्चीस वर्षों से मैं निरन्तर जैनसाहित्य और इतिहास की शोध एवं अध्ययन में लगा रहा हूं और जैनज्ञातियों के इतिहास की समस्या पर भी यथाशक्य विचारणा, अन्वेषणा और अध्ययन चालू रहा है। फिर भी संतोकजनक प्राचीन सामग्री उपलब्ध नहीं होने से जैसी चाहिए वैसी सफलता अभी प्राप्त नहीं हो सकी । इसलिये विशेष कहने का अधिकारी मैं अपने आपको अभी अनुभव नहीं करता।