Book Title: Pragvat Itihas Part 01
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Pragvat Itihas Prakashak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MY NEDISAITECH - coated Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास ল্প অল [विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शताब्दी से विक्रम संवत् उन्नीसवीं शताब्दी पर्यन्त ] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संवत् : २४८० विक्रम संवत् : २०१० ० सन् : १६५३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ श्री शांतिनाथाय नमः * प्राग्वाट - इतिहास प्रथम भाग उपदेशक : श्री सौधर्म बृहत्तपगच्छीय जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री व्याख्यान - वाचस्पति, इतिहास - प्रेमी श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज श्री यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन भाग १-४, मेरी नेमाड़ यात्रा, मेरी गोडवाड़ यात्रा यतीन्द्र-प्रवचन आदि विविध इतिहास-पुस्तकों के कर्त्ता, श्री जैन प्रतिमा -लेख संग्रह के संग्राहक, अनेक धार्मिक, सामाजिक, उपदेशात्मक छोटे-बड़े ग्रंथ-पुस्तकों के रचयिता । लेखक :— श्री दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी० ए० 'जैन जगती', 'छत्र - प्रताप', 'रसलता', 'राजमती' आदि कविता-पुस्तकों के रचयिता, श्री जैनप्रतिमा - लेख संग्रह के सम्पादक, श्री मेदपाटदेशीय काछोला प्रगणान्तर्गत श्री धामणियाप्रामवासी उपकेशज्ञातीय श्रेष्ठि रमचन्द्रजी के कनिष्ठ पुत्र जड़ावचन्द्रजी के कनिष्ठ पुत्र । अर्थसहायक : प्राग्वाट संघ-सभा, सुमेरपुर (मारवाड़ - राजस्थान ) प्रकाशक : श्री ताराचन्द्रजी मन्त्री : - श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक समिति, स्टेशन राणी ( मारवाड़ - राजस्थान ) श्री वर्धमान जैन बोर्डिङ्ग हाऊस, सुमेरपुर (मारवाद) के उपसभापति इतिहास - प्रेमी श्री मरुधर - प्रदेशान्तर्गत श्री पावाप्रामवासी प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठि मेघराजजी के ज्येष्ठ पुत्र । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान : श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक-समिति, स्टे. राणी ( मारवाड़ - राजस्थान :) फोटोग्राफी : श्री जगन वी० महेता प्रो० प्रतिमा स्टुडिओ, लाल भवन, रोलीफ रोड़ : अहमदाबाद मूल्य रु०२१) प्रथम संस्करण : १००० ग्लॉकमेकर्स एन्ड प्रिन्टर्स : ........................... श्री बचुभाई रावत प्रबन्धक, श्री कुमार कार्यालय, रायपुर : अहमदाबाद मुद्रक : श्री जालमसिंह मेड़तवाल श्री गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर (अजमेर-राज्य) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलवसहिः प्राग्वाट - कुलदेवी अम्बिका । Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के पंचम पट्टधर युगप्रभावक, विद्याधरकुलाधिनायक, महातेजस्वी, महाजनसंघ के प्रथम निर्माता हिंसा सिद्धान्त के महान् प्रचारक, यज्ञहवनादि के महान क्रांतिकारी विरोधी श्रीमद् स्वयंप्रभसूर जैनतीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर श्रीमद् शुभदत्ताचार्य थे और द्वितीय, तृतीय पट्टधर हरिदत्तसूरि और समुद्रसूरि अनुक्रम से हुये । चतुर्थ पट्टधर श्रीमद् केशीश्रमण थे । श्रीमद् केशीश्रमण भगवान् महावीर के काल में तिही प्रभावक आचार्य हुये हैं । ये भगवान् पार्श्वनाथ के संतानीय होने के कारण भगवान् महावीर के संघ से अलग विचरते थे । अलग विचरने के कई एक कारण थे। श्री पार्श्वनाथ प्रभु के संतानीय चार महाव्रत पालते थे और पंचरङ्ग के वस्त्र धारण करते थे । भगवान् महावीर के साधु पंच महाव्रत पालते थे और श्वेत रंग के ही वस्त्र पहिनते थे । छोटे २ और भी कई भेद थे । भेद साधनों में थे, परन्तु दोनों दलों की साधक आत्माओं में तो एक ही जैनतस्व रमता था; अतः दोनों में मेल होते समय नहीं लगा । गौतमस्वामी और इनमें परस्पर बड़ा मेल था । उसी का यह परिणाम निकला कि श्राचार्य केशीश्रमण ने भगवान् महावीर का शासन तुरंत स्वीकार किया और दोनों दलों में जो भेद था, उसको नष्ट करके भगवान् महावीर की आज्ञा में विचरने लगे । इनके पट्टधर श्रीमद् स्वयंप्रभरि हुये । श्रीमद् स्वयंप्रभसूरि विद्याधरकुल के नायक थे; अतः ये अनेक विद्या एवं कलाओं में निष्णात थे। आपने अपने जीवन में यज्ञ और हवनों की पाखण्डपूर्ण क्रियाओं को उन्मूल करना और शुद्ध हिंसा-धर्म का सर्वत्र प्रचार करना अपना प्रमुख ध्येय ही बना लिया था । ये बड़े कठिन तपस्वी और उग्रविहारी थे । जहाँ अन्य साधु विहार करने में हिचकते थे, वहाँ ये जाकर बिहार करते और धर्म का प्रचार करते थे । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: आपने यह अनुमान लगा लिया था कि जैनधर्म को जब तक लोग कुलमर्यादा-पद्धति से स्वीकार नहीं करें, तब तक सारे प्रयत्न निष्फल ही रहेंगे। उस समय अर्बुदाचल-प्रदेश में नवीन क्रांति हो रही थी। वहाँ यज्ञ हवनादि का बड़ा जोर था । अब तक विरले ही जैनाचार्यों ने उस प्रदेश में विहार किया था । आपने अपने ५०० शिष्यों के सहित अर्बुदगिरि की ओर प्रयाण किया। मार्ग में अनेक तीर्थों के दर्शन-स्पर्शन करते हुये आपश्री अर्बुदगिरितीर्थ पर पधारे। तीर्थपति के दर्शन करके आपश्री ने अभिनव वसी हुई श्रीमालपुर नामक नगरी की ओर प्रयाण किया। श्रापश्री को अर्बुदतीर्थ पर ही ज्ञात हो गया था कि श्रीमालपुर में राजा जयसेन एक बड़े भारी यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं। आपश्री श्रीमालपुर में पहुँच कर राजसभा में पधारे और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणपंडितों से वाद किया, जिसमें आपश्री जयी हुये और 'अहिंसा-परमोधर्म' का झण्डा लहराया। आपश्री की ओजस्वी देशना श्रवण करके राजा जयसेन अत्यन्त ही मुग्ध हुआ और उसने श्रीमालपुर में बसने वाले १०००० सहस्र ब्राह्मण एवं क्षत्री कुलों के स्त्री-परुषों के साथ में कुलमर्यादापद्धति से जैनधर्म अंगीकृत किया। जैनसमाज की स्थापना का यह दिन प्रथम बीजारोपण का था—ऐसा समझना चाहिए । ___श्रीमालपुर में जो जैन बने थे, उनमें से श्रीमालपुर के पूर्व में बसने वाले कुल 'प्राग्वाट' नाम से और श्रीमन्तजन 'श्रीमाल' तथा उत्कट धनवाले 'धनोत्कटा' नाम से प्रसिद्ध हये। श्रीमालपर से आपश्री अपने शिष्यसमुदाय के सहित विहार करके अनुक्रम से अवलीपर्वत-प्रदेश की पाटनगरी पद्मावती में पधारे । पद्मावती का राजा पद्मसेन कट्टर वेदमतानुयायी था। वह भी बड़े भारी यज्ञ का आयोजन कर रहा था । समस्त पाटनगर यज्ञ के आयोजन में लगा हुआ था और विविध प्रकार की तैयारियां की जा रही थीं। सीधे आपश्री राजा पद्मसेन की राजसभा में पधारे । ब्राह्मण-पंडितों और आपश्री में यज्ञ और हवन के विषय पर पड़ा भारी वाद हुआ। वाद में आचार्यश्री विजयी हुये । आपश्री की सारगर्भित देशना एवं आपश्री के दयामय अहिंसासिद्धान्त से राजा पद्मसेन अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और वह जैनधर्म अंगीकार करने पर सन्नद्ध हुआ । आचार्यश्री ने पद्मावती नगरी के ४५००० पैंतालीस सहस्र ब्राह्मण-क्षत्रीकुलोत्पन्न पुरुष एवं स्त्रियों के साथ में राजा पद्मसेन को कुलमर्यादापद्धति पर जैन-धर्म की दीक्षा दी। पद्मावती नगरी अवलीपर्वत के पूर्वभाग की जिसको पूर्वपाट भी कहा जाता है पाटनगरी थी। श्रीमालपुर के पूर्व भाग अर्थात् पूर्वपाट में बसने वाले जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों को जिस प्रकार प्राग्वाट नाम दिया था, उसी दृष्टि को ध्यान में रख कर पूर्वपाट की राजनगरी पद्मावती में जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों को भी प्राग्वाट नाम ही दिया। राजा की अधीश्वरता के कारण और प्राग्वाट श्रावकवर्ग की प्रभावशीलता के कारण भिन्नमाल और पद्मावती के संयुक्त प्रदेश का नाम 'प्राग्वाट' ही पड़ गया। इस प्रकार आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालश्रावकवर्ग की एवं प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति करके जो स्थायी जैनसमाज का निर्माण किया वह कार्य महान् कल्याणकारी एवं गौरव की ही एक मात्र वस्तु नहीं, वरन् सच्चे शब्दों के अर्थ में वह भगवान् महावीर के शासन की दृढ़ भूमि निर्माण करने का महा स्तुत्य कर्म था । जीवनभर आपश्री इस ही प्रकार हिंसावाद के प्रति क्रान्ति करते रहे और जैनधर्म का प्रचार करते रहे। अंत में आपश्री ५१ वर्षे पर्यन्त धर्मप्रचार करते हुये श्री शत्रुजयतीर्थ पर अनशन करके चैत्र शुक्ला प्रतिपदा वी० सं० ५७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: श्रीमत् स्वयंप्रमसूरि: [ ३ में समधिपूर्वक स्वर्ग को सिधारे। तत्पश्चात् आपश्री के पट्ट पर आपश्री के महान् योग्य शिष्य श्री रत्नचूड़ विराजमान हुये और वे रत्नप्रभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुये । श्रीमद् रत्नप्रभसूरि ने भी अपने गुरु के कार्य को अक्षुण्ण गतिशील रक्खा । ओसियानगरी में आपश्री ने 'ओसवालश्रावकवर्ग' की उत्पत्ति करके अपने गुरु की पगडण्डियों पर श्रद्धापूर्वक चलने और गुरुकार्य को पूर्णता देने का जो शिष्य का परम कर्तव्य होता है वह सिद्ध कर बतलाया । जैनसमाज श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसरि के जितने भी कीर्तन और गान करें, उतना ही न्यून है । ये ही प्रथम दो आचार्य हैं, जिन्होंने आज के जैन समाज के पूर्वजों को जैनधर्म की कुलमर्यादापद्धति पर दीक्षा दी थी। अगर ये इस प्रकार दीक्षा नहीं देते तो बहुत संभव है, जैनधर्म का आज जैसा हम वैश्यकुल आधार लिये हुये हैं, वैसा हमारा वह आधार नहीं होता और नहीं हुआ होता और हम किसी अन्य ज्ञाति अथवा समाज में ही होते और हम कितने हिंशक अथवा मांश और मदिरा का सेवन करने वाले होते, यह हम अन्यमतावलम्बी ठुलों को देखकर अनुमान लगा सकते हैं। ता. १-६-५२. लेखकभीलवाड़ा (राजस्थान) । दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी० ए० विशेष प्रमाणों के लिये 'प्राग्वाटश्रावक-वर्ग की उत्पत्ति प्रकरण को देखे । १-उपकेशगच्छ पट्टावली (वि० सं०१३९३ में श्रीमद् कक्कसरिविरचित) २-जनजातिमहोदय ३-पार्श्वनाथ परम्परा भा०१. ज्ञानसुन्दरजी द्वारा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेष्टा इतिहासप्रेमी, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी का संक्षिप्त परिचय जन्म - वि० सं० १६४० का० शु० २ रविवार । उपाध्यायपद - वि० सं० १६८० ज्ये० शु० ८ | दीक्षा - वि० सं० १६५४ आषाढ़ कृ० २ सोमवार । सूरिपद - वि० सं० १९६५ वै० शु० १० सोमवार । I मध्ययुग में प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी भिन्नमाल से निकलकर अवध- राज्य के वर्त्तमान रायबरेली प्रगखान्तर्गत सालोन विभाग में जैसवालपुर- राज्य के प्रथम संस्थापक काश्यपगोत्रीय वीरवर राजा जैसपाल की आठवीं वंश - परिचय, माता-पिता की पीढ़ी में राजा जिनपाल का पुत्र अमरपाल हुआ है । अमरपाल यवनों से हार कर मृत्यु, दीक्षा लेना तथा गुरु- धौलपुर में आकर बसे थे और वहीं व्यापार-धन्धा करते थे । राज्यच्युत राजा श्रमरचरणों में दश वर्ष. पाल की चौथी पीढ़ी रायसाहव व्रजलाल जी हुये हैं। श्री ब्रजलाल जी की आप रामरत्न नाम से तृतीय सन्तान | आपके दो भ्राता और दो बहिनें थीं । वि० सं० १६४६ में आपके पिता रायसाहब के तीर्थस्वरूप माता, पिता का तथा एक वर्ष पश्चात् आज्ञाकारिणी स्त्री चम्पाकुंवर का और तत्पश्चात् उसी पक्ष में कनिष्ठ पुत्र किशोरीलाल का स्वर्गवास हो गया । रायसाहब का विकशित उपवन-सा घर और जीवन एक दम मुझ गया | रायसाहब एकदम राजसेवा का त्याग करके धौलपुर छोड़कर अपने बच्चों को लेकर भोपाल में जाकर रहने लगे और धर्म- ध्यान में मन लगाकर अपने दुःख को भुलाने लगे । चार वर्षों के पश्चात् सं० १६५२ में उनका भी स्वर्गवास हो गया। अब आपश्री के पालन-पोषण का भार आपके मामा ठाकुरदास ने संभाला । पिता की मृत्यु के समय तक श्रापश्री की आयु लगभग बारह-तेरह वर्ष की हो गई थी। आपको अपने भले-बुरे का भलिविध ज्ञान हो गया था । पितामह, पितामही, पिता, माता, कनिष्ठ आतादि की मृत्युओं से आपको संसार की व्यवहारिकता, स्वार्थपरता, सुख-दुःखों के मायावी फांश का विशद पता लग गया था । वैराग्य भावों ने Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट इतिहास के उपदेशकर्त्ता जैनाचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: उपदेष्टा श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी:: आपश्री के हृदयस्थल में अपने अंकुर उत्पन्न किये । अब आपका मामा के घर में चित्त नहीं लगने लगा। फलतः मामा और आप में कभी २ कटु बोल-चाल भी होने लगी। निदान 'सिंहस्थ-मैले' के अवसर पर आप मामा को नहीं पूछकर मैला देखने के बहाने घर से निकल कर उज्जैन पहुँचे और वहाँ से लौटकर महेंदपुर में विराजमान श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्वेताम्बराचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के दर्शन किये । श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज की साधुमण्डली के कईएक साधुओं से आप पूर्व से ही परिचित थे। आपने अपने परिचित साधुओं के समक्ष अपने दीक्षा लेने की शुभ भावना को व्यक्त किया । गुरु महाराज भी आप से बात-चीत करके आपकी बुद्धि एवं प्रतिभा से अति ही मुग्ध हुये और योग्य अवसर पर दीक्षा देने का आपको आश्वासन प्रदान किया। निदान वि० सं० १९५४ आषाढ़ कृ० २ सोमवार को खाचरौद में आपको शुभ मुहूर्त में भगवतीदीक्षा प्रदान की गई और मुनि यतीन्द्र विजय प्रापका नाम रक्खा गया। दस वर्ष गुरुदेव की निश्रा में रहकर आपने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का अच्छा अध्ययन और जैनागमों एवं शास्त्रों का गम्भीर अभ्यास किया। वि० सं० १९६३ पौष शु० ६ शुक्रवार को 'अभिधान-राजेन्द्र-कोष' के महाप्रणेता श्रीमद् राजेन्द्रसरि महाराज का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया। गुरुदेव के स्वर्गवास के पश्चात् ही वि० सं० १९६४ में रतलाम में जगतविश्रुत श्री 'अभिधान-राजेन्द्र-कोष' का प्रकाशन श्रीमद् मुनिराज दीपविजयजी और आपश्री की तस्वावधानता में प्रारंभ हुआ। आपश्री ने सहायक श्री अभिधान राजेन्द्र-कोष संपादक के रूप में आठ वर्षपर्यन्त कार्य किया और उक्त दोनों विद्वान् मुनिराजों के का प्रकाशन और जावरा सफल परिश्रम एवं तत्परता से महान् कोष 'श्री अभिधान-राजेन्द्र-कोष' का सात भागों में उपाध्यायपद. में राजसंस्करण वि० सं० १९७२ में पूर्ण हुआ। आपने वि० सं० १९७३ से वि. सं. १९७७ तक स्वतंत्र और वि० सं० १९८० तक तीन चातुर्मास मुनिराज दीपविजयजी के साथ में मालवा, मारवाड़ के भिन्न २ नगरों में किये और अपनी तेजस्वित कलापूर्ण व्याख्यानशैली से संघों को मुग्ध किया। विजयराजेन्द्रसरिजी के पट्टप्रभावक आचार्य विजय धनचन्द्रसुरिजी का वि० सं० १९७७ भाद्रपद शु०१ को बागरा में निधन हो गया था । तत्पश्चात् वि० सं० १९८० ज्येष्ठ शु० ८ को जावरा में मुनिराज दीपविजयजी को सरिपद प्रदान किया गया और वे भूपेन्द्रसूरि नाम से विख्यात हुये। उसी शुभावसर पर अपश्री को भी संघ ने आपके दिव्यगुणों एवं आपकी विद्वत्ता से प्रसन्न हो कर उपाध्यायपद से अलंकृत किया। वि० सं० १९८३ तक तो आपश्री ने श्रीमद् भूपेन्द्रसूरि (मुनि दीपविजयजी) जी के साथ में चातुर्मास किये और तत्पश्चात् आपश्री उनकी आज्ञा से स्वतंत्र चातुर्मास करके जैन-शासन की सेवा करने लगे। आपश्री ने दश स्वतंत्र चातुर्मास और वि० सं० १९८३ से श्रीमद् भूपेन्द्रसूरिजी के आहोर नगर में वि० सं० १९६३ में हुये शेष काल में किये गये कुछ स्वर्गवास के वर्ष तक क्रमशः गुढ़ा-बालोत्तरान, थराद, फतहपुरा, हरजी, जालोर, धर्मकृत्यों का संक्षिप्त परिचय. शिवगंज, सिद्धक्षेत्रपालीताणा (लगा-लग दो वर्ष ), खाचरौद, कुक्षी नगरों में स्वतंत्र चातुर्मास करके शासन की अतिशय सेवा की। लम्बे २ और कठिन विहार करके मार्ग में पड़ते ग्रामों के सद्गृहस्थों में धर्म की भावनायें मनोहर उपदेशों द्वारा जाग्रत की। अनेक धर्मकृत्यों का यहाँ वर्णन दिया जाय तो लेख स्वयं एक पुस्तक का रूप ग्रहण कर लेगा। फिर भी संक्षेप में मोटे २ कृत्यों का वर्णन इतिहास-लेखनशैली की दृष्टि से देना अनिवार्य है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: संघयात्रायें - वि० सं० १९८१ में आपश्री ने राजगढ़ के संघ के साथ में मंडपाचलतीर्थ तथा वि० सं० १९८२ में सिद्धाचलतीर्थ और गिरनारतीर्थों की तथा वि० सं० १६८६ में गुड़ाबालोतरा से श्री जैसल - मेरतीर्थ की बृहद् संघयात्रायें कीं और मार्ग में पड़ते अनेक छोटे-बड़े तीर्थ, मंदिरों के दर्शन किये । श्रावकों ने आपश्री के सदुपदेश से अनेक क्षेत्रों में अपने धन का प्रसंशनीय उपयोग किया । उपधानतप - वि० सं० १६६१ में पालीताणा में और १६६२ में खाचरौद में उपधानतप करवाये, जिनमें सैकड़ों श्रावकों ने भाग लेकर अपने जीवनोद्धार में प्रगति की । अंजनशलाकाप्राण-प्रतिष्ठा - वि० सं० १६८१, १६८२, १६८७ में झखड़ावदा ( मालवा ), राजगढ और थलवाड़ में महामहोत्सव पूर्वक क्रमशः प्रतिष्ठायें करवाई; जिनमें मारवाड़, गुजरात, काठियावाड़ जैसे बड़े प्रान्तों के दूर २ के नगरों के सद्गृहस्थों, संघों ने दर्शन, पूजन का लाभ लिया । यात्रायें - वि० सं० १६८५ में दीमा, भोरोल तथा उसी वर्ष अर्बुदाचलतीर्थ, सेसलीतीर्थ और वि० सं० १६८७ में मांडवगढ़तीर्थ (मंडपाचलतीर्थ) की अपनी साधु एवं शिष्य - मण्डली के सहित यात्रायें कीं । ६] सूरिपदोत्सव - जैसा ऊपर लिखा जा चुका है कि वि० सं० १६६३ में आहोर नगर में श्रीमद् विजय - भूपेन्द्रसूरिजी का स्वर्गवास हो गया था। श्री संघ ने आपश्री को सर्व प्रकार से गच्छनायकपद के योग्य समझ कर अतिशय धाम- धूम, शोभा विशेष से वि० सं० १६६५ वैशाख शु० १० सोमवार को अष्टावकोत्सव के संहित सानन्द विशाल समारोह के मध्य आपश्री को आहोर नगर में ही सूरिपद से शुभमुर्हत में अलंकृत किया । साहित्य-साधना - शासन की विविध सेवाओं में आपश्री की साहित्यसेवा भी उल्लेखनीय हैं। सूरिपद की प्राप्ति तक आपश्री ने छोटे-बड़े लगभग चालीस ग्रंथ लिखे और मुद्रित करवाये होंगे। इन ग्रंथों में इतिहास की दृष्टि से 'श्री यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन' भाग १, २, ३, ४ 'श्री कोर्टाजीतीर्थ का इतिहास', 'मेरी नेमाड़यात्रा', धर्मदृष्टि से 'जीवभेद - निरूपण', 'जिनेन्द्र गुणगानलहरी,' 'अध्ययनचतुष्टय', 'श्री अर्हत्प्रवचन', 'गुणानुरागकुलक' आदि तथा चरित्रों में 'घटकुमारचरित्र', 'जगडूशाहचरित्र', 'कयवनाचरित्र', 'चम्पकमालाचरित्र' श्रादि प्रमुख ग्रंथ विशेष आदरणीय, संग्रहणीय एवं पठनीय हैं। आपश्री के विहार-दिग्दर्शन के चारों भाग इतिहास एवं भूगोल की दृष्टियों से बड़े ही महत्त्व एवं मूल्य के हैं । गच्छनायकत्व की प्राप्ति के पश्चात् गच्छ भार वहन करना आप श्री का प्रमुख कर्त्तव्य रहा । फिर भी श्रापश्री ने साहित्य की अमूल्य सेवा करने का व्रत अक्षुष्ण बनाये रक्खा । तात्पर्य यह है कि शासन की सेवा और साहित्य की सेवा आपके इस काल के क्षेत्र रहे हैं । सूरिपद के पश्चात् मरुधरप्रान्त श्रापका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा है । वि० सं० १६६५ से वि० सं० २००६ तक के चातुर्मास क्रमशः बागरा, भूति, जालोर, बागरा, खिमेल, सियाणा, आहोर, बागरा, भूति, थराद, थराद, बाली, गुड़ाबालोतरा, थराद, बागरा में हुये हैं। चातुर्मासों में आपश्री के प्रभावक सदुपदेशों से सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक अनेक प्रशंसनीय कार्य हुये हैं, जिनका स्थानाभाव से वर्णन देना अशक्य है । अंजनशलाका-प्रतिष्ठायें – शेषकाल में वि० सं० १६६४ में श्री लक्ष्मणीतीर्थ (मालवा), सं० १६६६ में रोवाड़ (सिरोही), फतहपुरा (सिरोही), भूति (जोधपुर), सं० १६६७ में आहोर जालोर (जोधपुर), सं० १६६८ में बागरा (जोधपुर), सं० २००० में सियाणा (जोधपुर), सं० २००१ में आहोर (मारवाड़), सं० २००६ में बाली (मारवाड़), सूरीपद के पश्चात् आपश्री के कार्य और आपश्री के पन्द्रह चातुर्मास Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: उपदेष्टा श्रीमद् विजययतीन्द्रमरिजी:: सं० २००८ में थराद, सं० २०१० में भाण्डवपुर-इन नगरों में आपश्री ने नवीन मन्दिरों, प्राचीन मन्दिरों में नवीन प्रतिमाओं की तथा नवनिर्मित गुरुसमाधि-मन्दिरों की प्राणप्रतिष्ठायें करवाई। वागरा, पाहोर, सियाणा एवं थराद और भाण्डवपुर में हुई प्रतिष्ठायें विशेष प्रभावक रहीं हैं। वागरा में जैसी प्रतिष्ठा हुई, वैसी प्रतिष्ठा व्यवस्था, शोभा, व्यय की दृष्टियों से इन वर्षों में शायद ही कहीं मरुधर-प्रान्त में हुई होगी। संघयात्रा-वि० सं० १९६६ में भूति से संघपति शाह देवीचन्द्र रामाजी की ओर से गोड़दाद-पंचतीर्थों की यात्रार्थ आपश्री की अधिनायकता में संघ निकाला गया था। शिक्षणालयों का उद्घाटन-बागरा, सियाणा, आकोली, तीखी, भूति, आहोर आदि अनेक ग्राम, नमरों में आपश्री के सदुपदेशों से गुरुकुल, पाठशालायें खोली गई थीं। बागरा, आहोर में कन्यापाठशालाओं की स्थापनायें आपश्री के सदुपदेशों से हुई थीं। मण्डलों की स्थापनायें—अधिकांश नगरों में आपश्री के सदुपदेशों से नवीन मण्डलों की स्थापनायें हुई और प्राचीन मण्डलों की व्यवस्थायें उन्नत बनाई गई; जिनसे संप्रदाय के युवकवर्ग में धर्मोत्साह, समाजप्रेम, संगठनशक्ति की अतिशय वृद्धि हुई। साहित्य-सेवा-जिस प्रकार आपश्री ने धर्मक्षेत्र में सोत्साह एवं सर्वशक्ति से शासन की सेवा करके अपने चारित्र को सफल बनाने का प्रयत्न किया, उसी प्रकार आपश्री ने साहित्य-सेवा व्रत भी उसी तत्परता, विद्वचा से निभाया । इस काल में आपश्री के विशेष महत्त्व के ग्रंथ 'अक्षयनिधितप' 'श्रीयतीन्द्रप्रवचन भाग २', 'समाधानप्रदीप', 'श्रीभाषण-सुधा' और श्री 'जैन-प्रतिमा-लेख-संग्रह' प्रकाशित हुये हैं। जैन-जगती–पाठकगण 'जैन-जगती' से भलिविध परिचित होंगे ही। वह आपश्री के सदुपदेश एवं सतवप्रेरणाओं का ही एक मात्र परिणाम है। मेरा साहित्व-क्षेत्र में अवतरण ही 'जैन-जगती' से ही प्रारंभ होता है, जिसके फलस्वरुप ही आज 'छत्र-प्रताप', 'रसलता', 'सट्टे के खिलाड़ी', 'बुद्धि के लाल' जैसे पुष्प भेंट करके तथा 'राजिमती-गीति-काव्य', 'अरविंद सतुकान्त कोष', 'आज के अध्यापक'(एकांकी नाटक), 'चतुर-चोरी' आदि काव्य, कोष, नाटकों का सर्जन करता हुआ 'प्राग्वाट-इतिहास' के लेखन के भगीरथकार्य को उठाने का साहस कर सका हूँ। वि० सं० २००० में आपश्री का चातुर्मास सियाणा में था। चातुर्मास के पश्चात् आपश्री बागरा पधारे । पावावासी प्राग्वाटज्ञातीय बृहद्शाखीय लांबगोत्रीय शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी आपश्री के दर्शनार्थ बापरा प्राग्वाट-इतिहास का लेखन आये थे। उन दिनों में मैं भी श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल' बामरा में प्रधानाध्यापक था। और उसमें आपश्री का स्व. मध्याहि के समय जब अनेक श्रावकगण आपश्री के समक्ष बैठे थे, उनमें श्री ताराचंद्रजी र्णिम सहयोग भी थे। प्रसंगवश घर्चा चलते २ ज्ञातीय इतिहासों के महत्व और मृन्य तक बढ़ चली। कुछ ही वर्षों पूर्व 'ओसवाल-इतिहास' प्रकाशित हुआ था। आपश्री ने प्राग्वाटज्ञाति के इतिहास लिखाने की प्रेरणा बैठे हुये सज्जनों को दी तथा विशेषतः श्री ताराचन्द्रजी को यह कार्य ऊठाने के लिये उत्साहित किया। गुरुदेव का सदुपदेश एवं शुभाशीर्वाद ग्रहण करके ताराचन्द्रजी ने प्राग्वाट-इतिहास लिखाने का प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया। ताराचन्द्रजी बड़े ही कर्तव्यनिष्ठ हैं और फिर गुरुमहाराज साहब के अनन्य भक्त । प्राग्वाट-इतिहास लिखाना अब आपका सर्वोपरि उद्देश्य हो गया। किससे लिखवाना, कितना व्यय होगा आदि प्रश्नों को लेकर आपश्री और श्री ताराचन्द्रजी में पत्र-व्यवहार निरंतर होने लगा। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: I वि० सं० २००१ माघ कृष्णा ४ को श्री ' वर्द्धमाम जैन बोर्डिंग', सुमेरपुर के विशाल छात्रालय के सभाभवन में श्री 'पौरवाड़ - संघसभा' का द्वितीय अधिवेशन हुआ। श्री ताराचन्द्रजी ने 'प्राग्वाट - इतिहास' लिखाने का प्रस्ताव सभा के समक्ष रक्खा । सभा ने प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया और तत्काल पाँच सदस्यों की 'श्री प्राग्वाट - इतिहास - प्रकाशक-समिति' नाम से एक समिति सर्वसम्मति से विनिर्मित करके इतिहास-लेखन का कार्य उसकी Faraar में अर्पित कर दिया। श्री ताराचन्द्रजी ने इस कार्य की सूचना गुरुदेव को पत्र द्वारा विदित की। इतिहास किससे लिखवाया जाय — इस प्रश्न ने पूरा एक वर्ष ले लिया । बीच-बीच में गुरुदेव मुझको भी इतिहास - लेखन के कार्य को करने के लिये उत्साहित करते रहे थे । परन्तु मैं इस भगीरथकार्य को उठाने का साहस कम ही कर रहा था । वि० सं० २००२ में आपश्री का चातुर्मास बागरा ही था । चातुर्मास के प्रारम्भिक दिवसों में ही श्री ताराचन्द्रजी गुरुदेव के दर्शनार्थ एवं इतिहास लिखाने के प्रश्न की समस्या को हल करने के सम्बन्ध में परामर्श करने के लिये बागरा आये थे । गुरुदेव, ताराचन्द्रजी और मेरे बीच इस प्रश्न को लेकर दो-तीन बार घण्टों तक चर्चा हुई | निदान गुरुदेव ने अपने शुभाशीर्वाद के साथ इतिहास-लेखन का भार मेरी निर्बल लेखनी की पतली और तीखी नोंक पर डाल ही दिया । तदनुसार उसी वर्ष आश्विन शु० १२ शनिवार ई० सन् १६४५ जुलाई २१ को आधे दिन की सेवा पर रु० ५०) मासिक वेतन से मैंने इतिहास का लेखन प्रारम्भ कर दिया । पुस्तकों के संग्रह करने में, विषयों की निर्धारणा में श्रापश्री का प्रमुख हाथ रहा है । आज तक निरन्तर पत्र-व्यवहार द्वारा इतिहास सम्बन्धी नई २ बातों की खोज करके, कठिन प्रश्नों के सुलझाने में सहाय देकर मेरे मार्ग को आपश्री ने जितना सुगम, सरल और सुन्दर बनाया है, वह थोड़े शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है । इतिहास का जब से लेखन मैंने प्रारम्भ किया था, उसी दिन से ऐतिहासिक पुस्तकों का अवशिष्ट दिनावकाश पढ़ना आपश्री का उद्देश बन गया था । आपश्री जिस पुस्तक पढ़ते थे, उसमें इतिहास सम्बन्धी सामग्री पर चिह्न कर देते और फिर उस पुस्तक को मेरे पास में भेज देते थे। सहयोग से मेरा बहुत समय बचा और मेरा इतिहास-लेखन का कठिन कार्य बहुत ही सरलतर हुआ - यह स्वर्णचरों में स्वीकार करने की चीज है । आपश्री के अनेक पत्र इसके प्रमाण में मेरे पास में विद्यमान हैं, जो मेरे संग्रह में मेरे साहित्यिक जीवन की गति - विधि का इतिहास समझाने में भविष्य में बड़े महत्व के सिद्ध होंगे । साथ में पत्र भी होता था। आपके इस थोड़े में आपके सदुपदेश एवं शुभाशीर्वाद का बल श्री ताराचन्द्रजी को इतिहास लिखाने के कार्य के हित दृढ़प्रतिज्ञ बना सका और मुझको कितना सफल बना सका यह पाठकगण इतिहास को पढ़कर अनुमान लगा सकेंगे । = ] ऐसे ऊच्च साहित्यसेवी चारित्रधारी मुनि महाराजाओं का आशीर्वाद विशिष्ट तेजस्वी और श्रमर कीर्त्तिदायी होता है । आशा है - यह इतिहास जिस पर आपश्री की पूर्ण कृपा रही है अवश्य सम्माननीय, पठनीय और कीर्त्तिशाली होगा । ता० १-६-१६५२. भीलवाड़ा (राजस्थान) लेखक दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविन्द' बी० ए० Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्री-श्री प्राग्वाट-इतिहास-प्रकाशक समिति श्री ताराचंद्रजी मेघराजजी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक समिति के मंत्री मरुधर देशान्तर्गत पावा ग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय बृहदशाखीय चौहानवंशीय लांबगोत्रीय शाह ताराचन्द्र मेघराजजी का परिचय वंश परिचय शाह ताराचन्द्रजी के पूर्वज खीमाड़ा ग्राम में रहते थे । इनके पूर्वजों में शाह हेमाजी इनकी शाखा में प्रसिद्ध पुरुष हो गये हैं । हेमाजी के पुत्र उदाजी थे । उदाजी के पुत्र सूराजी थे । शाह सूराजी बड़े परिवार वाले थे । इनके चार पुत्र मनाजी, ओोखाजी, चेलाजी और जीताजी नाम के हुये । श्रखाजी द्वितीय पुत्र थे 1 ये बाबा ग्राम में जाकर रहने लगे थे । इनके पूनमचन्द्रजी और प्रेमचन्द्रजी नाम के दो पुत्र हुये । प्रेमचन्द्रजी के दलीचन्द्रजी और दलीचन्द्रजी के ताराचन्द्रजी नाम के पुत्र हुये । ताराचन्द्रजी का परिवार अभी भी बाबा ग्राम में ही रहता है। चेलाजी तृतीय पुत्र थे। इनके नवलाजी, रायचन्द्रजी और अमीचन्द्रजी नाम के तीन पुत्र हुये थे। नवलाजी के पुत्र दीपाजी और दीपाजी के वीरचन्द्रजी हुये और चंद्रजी के पुत्र सागरमलजी अभी विद्यमान हैं। ये खीमाड़ा में रहते हैं। रायचन्द्रजी के इन्द्रमलजी (दत्तक) हुये और इन्द्रमलजी के साकलचन्द्रजी और भीकमचन्द्रजी नाम के दो पुत्र हुये जिनका परिवार अभी पावा में रहता है । अमीचन्द्रजी निस्संतान मृत्यु को प्राप्त हुये । जीताजी चौथे पुत्र थे । इनके रत्नाजी नाम के पुत्र थे । रत्नाजी के कपूरजी, श्रीचन्द्रजी, चन्द्रभाणजी और संतोषचन्द्रजी चार पुत्र हुये थे । संतोषचन्द्रजी के पुत्र छगनलालजी हैं। जीताजी का परिवार खीमाड़ा में रहता है । शा० मनाजी का परिवार ताराचन्द्रजी सूराजी के ज्येष्ठ पुत्र मनाजी के परिवार में हैं। शाह मनाजी की धर्मपत्नी का नाम गंगादेवी था। गंगादेवी की कुक्षी से अन्नाजी, लालचन्द्रजी, जसराजजी, फौजमलजी, मेघराजजी, गुलाबचन्द्रजी और सौनीबाई का जन्म हुआ था । अन्नाजी की धर्मपत्नी ढप्पादेवी थी । अन्नाजी के दलीचन्द्रजी, दीपचन्द्रजी और छोगमलजी तीन पुत्र हुये । शाह अन्नाजी का परिवार अभी पावा में रहता है। लालचन्द्रजी की स्त्री कसुनाई थी । सुबाई के मालमचन्द्रजी और अचलदासजी नाम के दो पुत्र हुये । इनके परिवार भी पावा में ही रहते हैं । जसराजजी की धर्मपत्नी उमादेवी इन्द्रमलजी, कपूरचन्द्रजी और हजारीमलजी नाम के तीन पुत्र हुये । इनके परिवार अभी पावा में रहते हैं । फौजमलजी की स्त्री का नाम नंदाबाई था । नन्दाबाई के किस्तूरचन्द्रजी और वीरचन्द्रजी नाम के दो पुत्र हुये । ये दोनों निस्संतान मृत्यु को प्राप्त हुये । अतः मालमचन्द्रजी के ज्येष्ठ पुत्र वृद्धिचन्द्रजी इनके दत्तक श्रये । मेघराजजी की धर्मपत्नी का नाम कसुम्बाबाई था । कसुम्बाबाई के ताराचन्द्रजी और मगनमलजी नाम के दो पुत्र हुये और छोगीबाई, हंजाबाई नाम की दो पुत्रियाँ हुई । मगनमलजी की धर्मपत्नी प्यारादेवी की कुक्षी से मोतीलाल नाम का पुत्र हुआ । मगनमलजी सपरिवार पावा में ही रहते हैं। गुलाबचन्द्रजी की धर्मपत्नी का नाम जीवादेवी था । जीवादेवी के नरसिंहजी नाम के पुत्र हुये । नरसिंहजी भी सपरिवार पावा में ही रहते हैं । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] :: प्राग्वाट - इतिहास :: शाह ताराचन्द्रजी और आपका परिवार इनके पिता मेघराज जी का जन्म वि० सं० १६२७ में खीमाड़ा में ही हुआ था। इनके पितामह शाह मनाजी खीमाड़ा को छोड़कर पावा में वि० सं० १६२८ में सपरिवार आकर बस गये थे। श्री ताराचन्द्रजी का जन्म पावा में ही वि० सं० १९५१ चैत्र कृष्णा पंचमी को हुआ था। ये जब लगभग चौदह वर्ष के ही हुये थे कि इनकी प्यारी माता कसुंबादेवी का देहावसान वि० सं० १३६४ आश्विन कृष्णा एकम को हो गया । शाह मेघराजजी के जीवन में एकदम नीरसता और उदासीनता आ गई। परन्तु इससे सात मास पूर्व श्री ताराचन्द्रजी का विवाह वलदरा निवासी श्रेष्ठ पन्नाजी गज्जाजी की सुपुत्री जीवादेवी नामा कन्या से फाल्गुण कृष्णा द्वितीया को कर दिया गया था । इससे गृहस्थ का मान बना रह सका । श्रीमती जीवादेवी की कुक्षी से हिम्मतमलजी, धमीबाई, कंकुबाई, उम्मेदमलजी, सुखीबाई, चम्पालालजी, बनवाई और तीजाबाई नाम की पाँच पुत्रियाँ और तीन पुत्र उत्पन्न हुये । ज्येष्ठ पुत्र हिम्मतमलजी का जन्म वि० सं० १६६६ कार्त्तिक कृष्णा अष्ठमी (८) को हुआ । इनका विवाह खिवाणदीग्रामनिवासी शाह भभूतमलजी धनाजी की सुपुत्री लादीबाई से हुआ । इनके केसरीमल, लक्ष्मीचन्द्र, देवीचन्द्र, गीसूलाल नाम के चार पुत्र उत्पन्न हुये और पाँचवीं और छठी संतान विमला और प्रकाश नामा कन्या हुई । द्वितीय सन्तान थमीबाई थी । धमीबाई का विवाह भूतिनिवासी शाह 'पुखराजजी ' समीचन्द्रजी के साथ में हुआ था । तृतीय संतान कंकुबाई नामा कन्या का विवाह बाबा ग्रामनिवासी शाह 'कपूरचन्द्रजी' रत्नचन्द्रजी के साथ में हुआ है। चौथी संतान उम्मेदमलजी नाम के द्वितीय पुत्र हैं । इनका जन्म वि० सं० १६७६ पौष शु० १० को हुआ था । इनका विवाह सांडेराव ग्रामनिवासी शाह उम्मेदमलजी पोमाजी की सुपुत्री रम्भादेवी के साथ में हुआ है । इनके सागरमल, बाबूलाल और सुशीलाबाई नाम की एक कन्या और दो पुत्र हुये । सुखीबाई नाम की पाँचवी सन्तान बाल-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गई । चम्पालालजी आपकी ast संतान और तृतीय पुत्र हैं । इनका जन्म वि० सं० १६८० भाद्रपद शु० द्वितीया को हुआ था | चांदराई - ग्रामनिवासी शाह जसराजजी केसरीमलजी की सुपुत्री हुलाशबाई के साथ में आपका विवाह हुआ है । इनके भंवरलाल, कुन्दनलाल और जयन्तीलाल नाम के तीन पुत्र हैं। सातवीं संतान ब्रजवाई नामा पुत्री है । इनका विवाह श्रहोरनिवासी शाह 'ऋषभदासजी' नत्थमलजी के साथ में हुआ है। आठवीं संतान तीजाबाई नाम की कन्या थी, जो शिशुवय में ही मरण को प्राप्त हुई । । श्री ताराचन्द्रजी बचपन से ही परिश्रमी, निरालसी और बुद्धिमान थे ही हैं, परन्तु सूझ और समझ में आप पढ़े-लिखों से भी आगे ठहरते हैं। श्री वरकारणा जैन विद्यालय लग गये और व्यापारी समाज में अच्छी ख्याति के संयुक्त मंत्री बनना. प्रसिद्ध विद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं में श्री (मारवाड़ा) का नाम भी अग्रगण्य हैं। यह विद्यालय वि० सं० १९८४ माघ आपको योग्य, बुद्धिमान एवं कार्यकुशल देखकर उक्त विद्यालय की कार्यकारिणी समिति ने वि० सं १६८५ में संयुक्त मंत्री नियुक्त किये। आपने दो वर्ष वि० सं० १६८७ तक अपने पद का भार बड़ी बुद्धिमतापूर्वक निर्वाहित किया । इससे आपका शिक्षा-संबंधी प्रेम प्रकट होता है। इस समय आप वि० सं० २००७ से ही उक्त विद्यालय की कार्य-कारिणी समिति के सदस्य हैं । यद्यपि आप पढ़े-लिखे तो साधारण छोटी ही आयु में आप व्यापार में प्राप्त करली। जैन समाज के अति पार्श्वनाथ जैन विद्यालय', वरकाणा शुक्ला ५ को संस्थापित हुआ था । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::शाह ताराचन्द्रजी:: [ ११ आप जैसे व्यापारकुशल एवं शिक्षणप्रेमी है, वैसे ही समाजहितचिंतक एवं समाजसेवक भी हैं। श्री भावनगर (काठियावाड़) से वि० सं० १९७ के आश्विन शुक्ला १० को श्री सम्मेतशिखरतीर्थ की संघयात्रा सम्मेतशिखरतीर्थ की यात्रार्थ करने के लिये स्पेशल ट्रेन द्वारा संघ निकला था। वह संघ पुनः १९८८ मार्गशिर जाते हुये श्री भावनगर के शु० २ शुक्रवार को अपने स्थान पर लौट कर आया। आपने संघ की अमूल्य सेवा संघ की सराहनीय सेवा. फरने का सोत्साह भाग लिया था। आपकी प्रसंशनीय एवं अथक सेवाओं से मुग्ध हो कर भावनगर के 'श्री बड़वा जैन-मित्र मंडल' ने आपकी सेवाओं के उपलक्ष में आपको अभिनन्दन-पत्र अर्पित किया • था। अभिनन्दन-पत्र की प्रतिलिपि नीचे दी जाती है, जिससे स्वयं सिद्ध हो जायगा कि आप में समाज, धर्म के प्रति कितना उत्कट अनुराग एवं श्रद्धा है और आप कितने सेवाभावी हैं । PR श्री भावनगर-समेतशिखरजी जैन स्पेशीयल (यात्रा प्रवास नों समय सं० १९८७ ना आसोज शुद १० थी सं० १६८८ ना मार्मशिर शु० २ शुक्रवार) अभिनन्दन-पत्र शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी, रानी स्टेशन __श्री समेतशिखरबी आदि पुनित तीर्थस्थानोनी यात्रानो लाभ भावीको सारी संख्या मां लइ शके ते माटे योजवामां आवेलं आ यात्रा-प्रवासमां आपे सहृदयतापूर्वक अमारा सेवा-कार्य मां अपूर्व उत्साहभर्यो जे सहकार प्राप्यो छे, तेना संस्मरणो सेवाभावनान एक सुन्दर दृष्टान्त बनी रहे छ। श्रा लांबा अने मुश्केल पणाता प्रवास ने सांगोपांग पार पाड़वामां आपनो सहकार न भूलाय तेवो हतो । संघनी सेवा माटे आपे जे खंत अने उत्साह दाखव्यो छे ते बतावे ले के सेवा धर्मनी उज्ज्वल भावना ना पूर हजु समाज मां उछली रहया छ। अपूर्व खंतभरी प्रापनी आ सेवाना सन्मान अर्थे श्रा अभिनन्दन-पत्र रज करता प्रार्थीए के सेवा भावनानी पुनित प्रथा वधु ने वधु प्रकाशो। बड़वा, शाह गुलाबचन्द खन्लुभाई-प्रमुख ठि. जैन मन्दिर • शाह लल्लुभाई देवचन्द । शेठ हरिलाल देवचन्द दो० सैक्रेट्रिो भावनमर. श्री बडवा-जैन-मित्रमण्डल ... ..... आनन्द प्रिन्टिग प्रेस, भावनगर..... ....... .......... . - KARA TEELER Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] : प्राग्वाट - इतिहास :: 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग, सुमेरपुर' के जन्मदाता और कर्णधार भी आप ही हैं । वि० सं० १६६० में श्राप अपेन्डीस्साईडनामक बीमारी से ग्रस्त हो गये थे । एतदर्थ उपचारार्थ आप शिवगंज (सिरोही) के सरकारी औषधालय में भर्ती हुये । शिवगंज जवाई नदी के पश्चिम तट पर बसा हुआ है और सुन्दर, स्वस्थ एवं सुहावना कस्बा है। जलवायु की दृष्टि से यह कस्बा राजस्थान के स्वास्थ्यकर स्थानों में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यहां नीमावली बड़ी ही मनोहर और स्वस्थ वायुदायिनी है। जवाई के पूर्वी तट पर उन्द्री नामक छोटा सा ग्राम और उससे लग कर अभिनव बसी हुई सुमेरपुर नाम की सुन्दर बस्ती और व्यापार की समृद्ध मंडी श्रा गई है। इसका रेल्वे स्टेशन ऐरनपुर है, बी० बी० एण्ड सी० आई० रेल्वे के आबू लाईन के स्टेशनों में विश्रुत है। आप शिवगंज, उद्री - सुमेरपुर के जलवायु एवं भौगोलिक स्थितियों से अति ही प्रसन्न हुये और साथ ही शिवगंज, सुमेरपुर को समृद्ध व्यापारी नगर देख कर आपके मस्तिष्क में यह विचार उठा कि अगर जवाई के पूर्वी तट पर सुमेरपुर में जैन छात्रालय की स्थापना की जाय तो छात्रों का स्वास्थ्य अति सुन्दर रह सकता है और दो व्यापारी मंडियों की उपस्थिति से खान-पान-सामग्री सम्बन्धी भी अधिकाधिक सुविधायें प्राप्त रह सकती हैं। आपसे आपकी रुग्णावस्था में जो भी सज्जन, सद्गृहस्थ मिलने के लिए आते आप वहाँ के स्वास्थ्यकर जलवायु, सुन्दर उपजाऊ भूमि, जवाई नदी के मनोरम तट की शोभा का ही प्रायः वर्णन करते और कहते मेरी भावना यहाँ पर योग्य स्थान पर जैन छात्रालय खोलने की है । आगन्तुक अतिथि आपकी सेवापरायणता, समाजहितेच्छुकता, शिक्षणप्रेम से भविध परिचित हो चुके थे । वे भी आपकी इन उत्तम भावनाओं की सराहना करते और सहाय देने का भाश्वासन देते थे । अंत में आपने सुमेरपुर में अपने इष्ट मित्र जिनमें प्रमुखतः मास्टर भीखमचन्द्रजी हैं एवं समाज के प्रतिष्ठितजन और श्रीमंतों की सहायता से वि० सं० १६६१ मार्गशिर कृष्णा पंचमी को 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाउस' के नाम से छात्रालय शुभमुहूर्त में संस्थापित कर ही दिया। तब से आप और मास्टर भीखमचन्द्रजी उक्त संस्था के मंत्री हैं और अहर्निश उसकी उन्नति करने में प्राण-प्रण से संलग्न रहते हैं । आज छात्रालय का विशाल भवन और उसकी उपस्थिति सुमेरपुर की शोभा, राजकीय स्कूल की वृद्धि एवं उन्नति का मूल कारण बना हुआ है । इस छात्रालय के कारण ही आज सुमेरपुर जैसे अति छोटे ग्राम में हाई स्कूल बन गई है । आज तक इस छात्रालय 'छत्र-छाया में रह कर सैंकड़ों छात्र व्यावहारिक एवं धार्मिक ज्ञान प्राप्त करके गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हो चुके हैं और सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । लेखक को भी इस छात्रावास की सेवा करने का सौभाग्य सन् १६४७ अगस्त ५ से सन् १६५० नवम्बर ६ तक प्राप्त हुआ है। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि मेरे सेवाकाल में मैंने यह अनुभव किया कि उक्त छात्रालय मरुधरदेश के अति प्रसिद्ध जैन संस्थाओं में छात्रों के चरित्र, स्वास्थ्य, अनुशासन की दृष्टि से अद्वितीय और अग्रगण्य है । 1 श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग, सुमेरपुर की संस्थापना और आपका विद्या- प्रेम आदि आप वि० सं० २००२ तक तो उक्त छात्रालय के मन्त्री रहे हैं और तत्पश्चात् आप उपसभापति के सुशोभित पद से अलंकृत हैं। आपके ही अधिकांश परिश्रम का फल है और प्रभाव का कारण है कि आज छात्रालय का भवन एक लक्ष रुपयों की लागत का सर्व प्रकार की सुविधा जैसे बाग, कुआ, खेत, मैदान, भोजनालय, गृहपतिआश्रम, छात्रावासादि स्थानों से संयुक्त और अलंकृत है। छात्रावास के मध्य में आया हुआ दक्षिणाभिमुख विशाल सभाभवन बड़ा ही रमणीय, उन्नत और विशाल है। मंदिर का निर्माण भी चालू है. और प्रतिष्ठा के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शाह ताराचन्द्रजी:: योग्य बन चुका है। उक्त छात्रालय आपके शिक्षाप्रेम, समाजसेवा, विद्याप्रचारप्रियता, धर्मभावनाओं का उज्ज्वल एवं ज्वलंत प्रतीक है। कुशालपुरा (मारवाड़) में ६० घर हैं। जिनमें केवल पाँच घर मंदिराम्नायानुयायी हैं। मूर्तिपूजक श्रावकों के कम घर होने से वहाँ के जिनालय की दशा शोचनीय थी। आपके परिश्रम से एवं सुसम्मति से वहाँ के निवासी कुशालपुरा के जिनालय की बारह श्रावकों ने नित्य प्रभु-पूजन करने का व्रत अंगीकार किया, जिससे मंदिर में होती तिष्ठा में श्रापका सहयोग. अनेक अशुचिसम्बन्धी आशातनायें बंद हो गई तथा आपके ही परिश्रम एवं प्रेरणा से फिर उक्त मंदिर की वि० सं० १९६३ में प्रतिष्ठा हुई, जिसमें आपने पूरा २ सहयोग दिया। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि प्रतिष्ठा का समूचा प्रबंध आपके ही हाथों रहा और प्रतिष्ठोत्सव सानन्द, सोत्साह सम्पन्न हुआ । यह आपकी जिनशासन की सेवाभावना का उदाहरण है। _ मरुधरप्रान्त में इस शताब्दी में जितने जैनप्रतिष्ठोत्सव हुये हैं, उनमें बागरानगर में वि० सं० १९६८ मार्गशिर शु. १० को हुआ श्री अंजनश्लाका-प्राणप्रतिष्ठोत्सव शोभा, व्यवस्था, आनन्द, दर्शकगणों की संख्या बागरा में प्रतिष्ठा और उसमें की दृष्टियों से अद्वितीय एवं अनुपम रहा हैं । लेखक भी इस प्रतिष्ठोत्सव के समय में श्री आपका सहयोग, राजेन्द्र जैन गुरुकुल', बागरा में प्रधानाध्यापक था और प्रतिष्ठोत्सव में अपने विद्यालय के सर्व कर्मचारियों एवं छात्रों, विद्यार्थियों के सहित संगीतविभाग और प्रवचन विभाग में अध्यक्ष रूप से कार्य कर रहा था । आपश्री का इस महान् प्रतिष्ठोत्सव के हित सामग्री आदि एकत्रित कराने में, वरघोड़े के हित शोभोपकरणादि राजा, ठक्कुरों से मांगकर लाने में बड़ा ही तत्परता एवं उत्साहभरा सहयोग रहा था। वि० सं० १६६८ के फाल्गुण मास में वाकली के श्री मुनिसुव्रतस्वामी के जिनालय में देवकुलिका की प्रतिष्ठा श्रीमद् जैनाचार्य हर्षसूरिजी की तत्त्वावधानता में हुई थी। नवकारशियाँ कराने वाले सद्गृहस्थ श्रावक वाकली में देवकुलिका की श्रीमंतों को जब सन्मान के रूप में पगड़ी बंधाने का अवसर आया, उस समय बड़ा प्रतिष्ठा और उसमें श्रापका भारी झगड़ा एवं उपद्रव खड़ा हो गया और वह इतना बढ़ा कि उसका मिटाना सराहनीय भाग असम्भव-सा लगने लगा। उस समय आपने श्रीमद् आचायेश्री के साथ में लगकर तन, मन से सद्प्रयत्न करके उस कलह का अन्त किया और पागड़ी बंधाने का कार्य-क्रम सानन्द पूर्ण करवाया । अगर उक्त झगड़ा उस समय वाकली में पड़ जाता तो बड़ा भारी अनिष्ट हो जाता और वाकली के श्रीसंघ में भारी फूट एवं कुसंप उत्पन्न हो जाते । ......... गुड़ा बालोतरा में हुई बिंबप्रतिष्ठा में आपका सहयोग-वि० सं० १९६६ में गुड़ा बालोतरा के श्री संभवनाथ-जिनालय की मूलनायक प्रतिमा को उत्थापित करके अभिनव विनिर्मित सुन्दर एवं विशाल नवीन श्री आदिनाथजिनालय में उसकी पुनः स्थापना महामहोत्सव पूर्वक की गई थी। उक्त प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर आप ने साधन एवं शोभा के उपकरणों को दूर २ से लाकर संगृहित करने में संघ की पूरी पूरी सहायता की थी और अपनी धर्मश्रद्धा एवं सेवाभावना का उत्तम परिचय दिया था। ___ श्री 'पौरवाड़-संघ-सभा', सुमेरपुर के स्थायी मंत्री बनना-गोडवाड़-अड़तालीस आदि प्रान्तों में बसने वाले प्राग्वाटबन्धुओं की यह सभा है । इसका कार्यालय 'श्री बर्द्धमान जैन बोर्डिंगहाउस', सुमेरपुर में है। अधिकांशतः प्रति वर्ष इस सभा का अधिवेशन सुमेरपुर में ही होता है और उसमें ज्ञाति में प्रचलित कुरीतियाँ, बुरे रिवाजों को Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्राग्वान-हीतहास: कम करने पर, उत्पन्न हुये पारस्परिक झगड़ों पर तथा ऐसे अन्य ज्ञाति की उन्नति में बाधक कारणों पर विचार होते हैं तथा निर्णय निकाले जाते हैं । आप को सर्व प्रकार से योग्य समझकर और आप में समाज, ज्ञाति, धर्म के प्रति श्रद्धा एवं सद्भावना देखकर उक्त सभा ने आपको वि० सं० १९६६ में हुये अधिवेशन में सभा के स्थायी मंत्री नियुक्त किये और तब से आप उक्त सभा के स्थायी मंत्री का कार्य करते आ रहे हैं। ___ वि० सं० १९६६ मार्गशीर्ष शुक्ला 8 नवमी को भृतिनिवासी शाह देवीचन्द्र रामाजी ने श्रीमद् आचार्य विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज साहब की अधिनायकता में श्री गोडवाड़ की पंचतीर्थ की यात्रार्थ चतुर्विध संघ भनिनकी श्रीगोवाट निकाला था। संघ के प्रस्थान के शुभ मुहूर्त पर संघ में लगभग १५० श्रावक-श्राविका पंचतीथीं की संघयात्रा और और २२ साधु-साध्वी सम्मिलित हुये थे। श्री त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार नामक उसमें श्रापको प्राणप्रथा- राणकपुरतीथे पर जब यह संघ पहुँचा, उस समय श्रावक संख्या में बढ़ते बढ़ते सहयोग लगभग २५० हो गये थे। यह संघ पन्द्रह दिवस में वापिस अपने स्थान पर लोट कर आम था। आप भी इस संघ में सम्मिलित हुये थे। आपश्री सरिजी महाराज के अनन्य भक्त एवं श्रावक भी हैं। अतः संघ एवं गुरुभक्ति का लाभ लेने में आपने कोई कमी नहीं रक्खी। संघ की समस्त व्यवस्था भोजन, विहार, पूजन, दर्शन, पड़ाव आदि सर्वसम्बन्धी आप पर निर्भर थी। आपने इतनी स्तुत्य सेवा बजाई की संघपति ने आपकी सेवाओं के सन्मान में अभिनन्दन-पत्र अर्पित किया, जो श्रीमद् आचार्यश्री की 'मेरी गोडवाड़यात्रा' नामक पुस्तक के आन्तरपृष्ठ के ऊपर ही प्रकाशित हुआ है । FelhIRLIRMAN हार्दिक धन्यवाद शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी साहब, मु० पावा (मारवाड़) निवासी। भूति से सेठ देवीचन्द्रजी रामाजी के द्वारा निकाला गया गोड़वाड़ जैनपंचतीर्थी का संघ जहाँ २ जाता रहा, संघ के पहुंचने से पहले ही आप वहाँ के स्थानीय संघ के द्वारा पूर्ण प्रबन्ध कराते रहे—जिससे संघ को हर तरह की सुविधा रही । आदि से अन्त तक आप संघ-सेवा का लाभ लेते रहे और संघपति को समय समय पर योग्य सहयोग देते रहे हैं । आप एक उत्साही, समयज्ञ और सेवाभावी परम श्रद्धालु सज्जन हैं । 'श्री वर्धमान जैन बोर्डिमहाउस', सुमेरपुर की समुन्नति का विशेष श्रेय भी आपको ही है । इस निस्वार्थ सेवा के लिये हम भी आपको बार-बार धन्यवाद देते हैं । शमिति । संघवी-पुखराज देवीचन्द्रजी जैन. . भूतिनिवासी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शाह ताराचन्द्रजी [ १५ जैसा पूर्व श्राचार्यश्री के परिचय में लिखा जा चुका है कि वि० सं० २००० में चातुर्मास पश्चातू जब आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी बागरा में बिराजमान थे, आप उनके दर्शनार्थ वहां आये थे । प्रसंगवश प्राग्वाट इतिहास की रचना गुरुदेव ने आपका और अन्य प्राग्वाटज्ञातीय सज्जनों का ध्यान ज्ञातीय इतिहास के और आपका उससे संबंध महत्त्व की ओर आकृष्ट किया और आपको प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखाने की तथा वि० सं० २००१ में प्रेरणा दी ! इस सदुपदेश से आपके अंतर में रहा हुआ ज्ञाति का गौरव जाग्रत हो श्री प्राग्वाट संघ सभा का द्वितीय अधिवेशन और उठा और आपने गुरुदेव के समक्ष प्राग्वाट - इतिहास लिखाने का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकृत प्राग्वाट - इतिहास लिखवाने कर लिया। उसी दिन से आपके मस्तिष्क के अधिकांश भाग को प्रावाटज्ञाति के इतिहास-लेखन के विषय ने अधिकृत कर लिया। गुरुदेव और आपमें इस विषय पर का प्रस्ताव. निरंतर पत्र-व्यवहार होता ही रहा । श्री ' पौरवाड़ - संघ सभा' का द्वितीय अधिवेशन वि० सं० २००१ माघ कृष्णा ४ को 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग आपने इतिहास लिखने का प्रस्ताव सभा के समक्ष रक्खा और वह करके इतिहास लिखाने के लिये निम्न प्रकार समिति बनवा कर हाउस', सुमेरपुर के विशाल भवन में हुआ । सहर्ष स्वीकृत हुआ तथा सभा ने प्रस्ताव पास उसको तत्संबंधी सर्वाधिकार प्रदान किये । प्रस्ताव ! वि० सं० २००१ माघ कृष्णा ४ को स्थान सुमेरपुर, श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाऊस में श्री पौरवाड़-संघसभा के द्वितीय अधिवेशन के अवसर पर श्रीमान् शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी पावानिवासी द्वारा रक्खा गया प्राग्वाटज्ञाति के इतिहास को लिखाने का प्रस्ताव यह सभा सर्वसम्मति से स्वीकृत करती है और यह विचार करती हुई कि वर्तमान संतान एवं भावी संतानों को स्वस्थ प्रेरणा देने के लिए प्राग्वाटज्ञातीय पूर्वजों का इतिहास लिखा जाना चाहिए, जिससे संसार की दृष्टि में दिनोदिन गिरती हुई प्राग्वाटज्ञाति अपने गौरवशाली पूर्वजों का उज्ज्वल इतिहास पढ़कर अपने प्रस्तमित होते हुये सूर्य को पुनः उदित होता हुआ देखे और वह संसार में अपना प्रकाश विस्तारित करे आज माघ कृष्णा ४ को प्राग्वाट - इतिहास के लेखन कार्य को कार्यान्वित करने के लिए स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार श्री पौरवाड़ - संघ-सभा की जनरल कमेटी अपनी बैठक में चुनाव द्वारा एक समिति का निम्नवत् निर्माण करती है । १ – शाह ताराचन्द्रजी मेघराजजी, २- " सागरमलजी नवलाजी, कुन्दनमलजी ताराचन्द्रजी, 99 ४ -, मुलतानमलजी संतोषचन्द्रजी, हिम्मतमलजी हंसाजी, पावा प्रधान नालाई सदस्य बाली 19 11 बिजापुर " ५— " उक्त पाँच सज्जनों की समिति बनाकर उसका श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक- समिति नाम रक्खा जाता है। तथा उसका कार्यालय सुमेरपुर में खोला जाना निश्चित करके ननरल - कमेटी उक्त समिति को इतिहास-लेखन -- सम्बन्धी व्यवस्था करने, कराने का सर्वाधिकार देती है तथा आग्रह करती है कि इतिहास लिखाने का कार्य तुरंत चालू करवाया जाय । इस कार्य के लिये जो आर्थिक सहायता अपेक्षित होगी, उसका भार श्री पौरवाड़ संघ-सभा पर 17 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: रहेगा। इतिहास लिखाने में जो और जितना व्यय होगा वह करने का पूर्ण स्वातन्त्र्य उक्त समिति को जनरलकमेटी पूर्ण अधिकार देकर अर्पित करती है । . तत्पश्चात् वि० सं० २००३ में सुमेरपुर में ही पुनः सभा का चतुर्थ अधिवेशन हुआ। उस समय उक्त समिति ने अपनी बैठक की। श्री ताराचन्द्रजी वि० सं० २००० से ही इतिहास लिखाने का निश्चय कर चुके थे; अतः उन्होंने जो तत्सम्बन्धी कार्य उस समय तक किया था, उस पर समिति ने विचार समिति के कार्य का विवरण: किया और आगे के लिये जो करना था, उस पर भी विचार करके उसने अपना एक विवरण और योजना तैयार की और उसको समिति के पाँचों सदस्यों के हस्ताक्षरों से युक्त करके जनरल-कमेटी के समक्ष निम्न प्रकार रक्खी। _ वि० सं० २००१ में हुये सभा के द्वितीय अधिवेशन के अवसर पर इतिहास-लेखन का प्रस्ताव स्वीकृत होने के एक वर्ष पूर्व से ही इतिहाससम्बन्धी साधन-सामग्री एकत्रित करने का कार्य चालू कर दिया गया था और फलस्वरूप आज लगभग १२५ पुस्तकों का संग्रह हो चुका है। इस इतिहास के लिये जो पुस्तकें चाहिए वे साधारण पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ नहीं मिलती हैं। उनको संग्रहित करने में देश-विदेश के बड़े २ पुस्तकालयों से पत्र-व्यवहार करना अपेक्षित है और देश के बड़े २ अनुभवशील इतिहासकार एवं पुरातत्त्ववेत्ताओं से मिलना तथा इसके सम्बन्ध में परामर्श, विचार करना अत्यावश्यक है। इतिहास का लिखाना कोई साधारण कार्य नहीं है; अतः समय अधिक लग सकता है, समयाधिक्य के लिये क्षमा करें । समिति के प्रधान श्री ताराचन्द्रजी इतिहास लिखाने के लिए योग्य लेखक की शोध में पूर्ण प्रयत्न कर रहे. हैं। दो-चार सज्जन लेखकों के नाम भी समिति के पास में आये हैं, परन्तु अभी तक लेखक का निश्चय नहीं किया गया है । अब थोड़े ही दिनों में योग्य लेखक की नियुक्ति की जाकर इतिहास का लिखाना प्रारम्भ करवा दिया जायगा । इतिहास लिखाने में होने वाले व्यय के भार को सहज बनाने के लिये निम्नवत् आर्थिक योजना प्रस्तुत की जाती है, आशा है वह सर्वानुमति से स्वीकृत हो सकेगी। यह समिति अपन प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं से प्रार्थना करती है कि अगर वे अपने पूर्वजों की कीर्ति, पराक्रम में अपना गौरव समझते हैं तो हमारी वे तन, मन, धन से पूर्ण सहायता करें। व्यय के निर्वाह के लिये प्रथम १५० डेढ सौ फोटू (प्रत्येक फोटू का मूल्य रु. १०१)) मंडाना निश्चित किया है । वैसे इतिहास-लेखन का व्यय एक ही श्रीमन्त प्रतिष्ठित समाजप्रेमी व्यक्ति भी कर सकता है, परन्तु समाज का कार्य समाज से ही होता है और वह अधिक सुन्दर, उपयोगी होता है। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर डेढ सौ १५० फोटू मंडाना निश्चित किया है। यदि कोई महानुभाव फोटू के मूल्य से अधिक रकम प्रदान करके किसी अन्य रूप से सेवालाभ लेना चाहे तो वह अतिरिक्त रकम इतिहास के पुस्तकालय में अर्पण करके अथवा ज्ञानखाते में देकर यशलाभ प्राप्तकर अब तक १४ चौदह फोटू लिखवाये जा चुके हैं और उनका मूल्य भी आ चुका है। समिति ने एक पंडितजी को भी वि० सं० २००२ आश्विन शु० १२ शनिश्वर तदनुसार सन् १९४५ जुलाई २१ से आधे दिन की सेवा पर नियुक्त किया है, जिनका मासिक वेतन ५०) रुपया है । पंडितजी का कार्य संग्रहित पुस्तकों को पढ़ने का और उनमें से इतिहास-सम्बन्धी सामग्री को एकत्रित करने का है। पंडितजी का वेतन, पुस्तकों का क्रय और डाक तथा रेल-व्यय आदि पर अब तक रु० ८५०) व्यय हो चुके हैं । अब तक किये गये कार्य का संक्षेप में यह विवरण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शाह ताराचन्द्रजी :: है जो समिति ने कमेटी के समक्ष रक्खा है । समिति जनरल-कमेटी से निवेदन करती है कि शेष रहे १३६ फोटओं को भरवाने का कार्य वह तुरन्त सम्पन्न करवा दें।' सदस्य. प्रधान. हिम्मतमलजी हंसाजी, कुन्दनमल ताराचन्द्रजी, मुलतानमल संतोषचन्द्रजी ताराचन्द्र मेघराजजी प्राग्वाट-इतिहास की रचना के कारण हम दोनों एक-दूसरे के बहुत ही निकट रहे हैं और इस कारण मुझको आपका अध्ययन करने का अवसर बहुत ही निकट से प्राप्त हुआ है । आप सतत् परिश्रमी, निरालसी, और कर्तव्यनिष्ठ हैं । जो कहा अथवा उठाया वह करके दिखाने वाले हैं। ये गुण जिस व्यक्ति में होते हैं, वह ही अपने जीवन में समाज, धर्म एवं देश के लिए भी कुछ कर सकता है । उधर आप कई एक व्यापारिक झंझटों में भी उलझे रहते हैं और इधर जो कार्य हाथ में उठा लिया है, उसको भी सही गति से आगे बढ़ाते रहते हैं। दोनों दिशाओं में अपेक्षित गति बनाये रखने का गुण बहुत कम व्यक्तियों में पाया जाता है। अगर घर का करते हैं, तो उन्हें पराया करने में अवकाश नहीं और पराया करने लगे तो घर का नहीं होता। आप पराया और अपना दोनों बराबर करते रहते हैं और थकते नहीं हैं, विचलित नहीं होते हैं । इतिहास-सम्बन्धी साधन-सामग्री के एकत्रित करने में आपने कई एक पुस्तकालयों से, प्रसिद्ध इतिहासकारों से, अनुभवी आचार्य, साधु मुनिराजों से पत्र-व्यवहार किया । जहाँ मिलना अपेक्षित हुआ, वहाँ जाकर के मिले भी। जैनसमाज के प्रायः सर्व ही प्रसिद्ध एवं अनुभवी, इतिहासप्रेमी जैनाचार्यों को आपने इतिहास-सम्बन्धी अनेक प्रश्न लिखकर भेजे और उनसे मिले भी। साधनसामग्री जुटाने में आप से जितना बन सका, उतना आपने किया। इधर मेरे साथ भी आपने बड़ी ही सहृदयता का सम्बंध बनाये रक्खा । जब मैंने बागरा छोड़ दिया था । मैं आपके आग्रह पर श्री 'वर्द्धमान जैन बोर्डिंगहाऊस' में गृहपति के स्थान पर नियुक्त होकर आया और वहाँ ता०६ अप्रेल सन् १९४६ से ६ नवम्बर सन् १९५० तक कार्य करता रहा । गृहपति और प्राग्वाट-इतिहास लेखक का दोनों कार्य वहाँ मैं करता रहा । वहाँ अनेक झंझटों के कारण इतिहास-लेखन के कार्य को बहुत ही क्षति पहुँची, परन्तु आपने वह सब बड़ी शांति और धैर्यता से सहन किया और करना भी उचित था, क्योंकि उधर छात्रालय के भी आप ही महामन्त्री हैं और इधर इतिहास भी आप ही लिखाने वाले । इतिहास के ऊपर आपका इतना अधिक राग और प्रेम है कि अगर आप पढ़े-लिखे होते, तो सम्भव है लेखक भी आप ही बनते । बस पाठक अब समझ लें कि आपके भीतर कितना उत्साह, कायें करने की शक्ति, धैर्य और सहनशीलतादि गुण हैं। लिखना और लिखाना दोनों भिन्न दिशायें हैं। जिसमें फिर लिखाने की दिशा में चलने वाले में शांति, धैर्य, समयज्ञता, व्यवहार-कुशलता और भारी सहनशक्ति होनी चाहिए । जिसमें ये गुण कम हों, वह कभी भी इतिहास जैसे कार्य को, जिसमें आशातीत समय, अपरिमित व्यय और अधिक श्रम लगता है भली-भांति सम्पन्न नहीं करा सकता है और बहुत सम्भव है कि व्यापारियों की जैसी छोटी-छोटी बातों पर चिड़ पड़ने की आदत होती है, जो विषय की अज्ञानता से लेखक की कठिनाइयों को नहीं समझ सकते हैं लेखक से बिगाड़ बैठे और कार्य मध्य में ही रह जाय । आपको यद्यपि इस बात से तो मेरी ओर से भी निश्चितता थी, क्योंकि हम दोनों के गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज साहब साक्षिस्वरूप रहे हैं । फिर भी मैं स्वीकार करता हूं कि आप में वे गुण अच्छी मात्रा में हैं जो लिखाने वाले में होने ही चाहिए । सुमेरपुर छोड़ कर मैं भीलवाड़ा आगया और तब से यहीं इतिहास-लेखन का कार्य कर रहा हूँ इतने दूर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 1 :: प्राग्वाट - इतिहास :: बैठ कर लिखना और लिखानेवाले का इतनी दूरी पर रह कर लेखक को स्वतंत्रता दे देना यद्यपि लेखक की ईमानदारी और उसके पूर्व विश्वस्त जीवन पर तो अवलंबित है ही, फिर भी यह सह लेना प्रति ही कठिन है । आप में ये गुण थे, जब ही प्राग्वाट - इतिहास का भगीरथ कार्य मेरे जैसे नवयुवक लेखक से जैसा तैसा बन सका । यह इतिहास जैसा भी बना है, वह गुरुदेव के प्रभाव और आपके मेरे में पूर्ण विश्वास के कारण ही संभव हुआ है - इतिहास का प्रकाशन ताराचन्द्रजी के मानस में अपने पूर्वजों के प्रति कितना मान है, वर्तमान एवं भावी संतान के प्रति कितनी सुधार दृष्टि एवं उन्नत भावनायें हैं का सदा परिचायक रहेगा । 1 श्री ' पा० उ० इ० कालेज', फालना के साथ आपका संबंध और फालना - कॉन्फ्रेन्स में आपकी सेवा - आपको बहुमुखी परिश्रमी देख कर वि० सं० २००३ में श्री पार्श्वनाथ उम्मेद इन्टर कालेज', फालना की कार्यकारिणी समिति में आपको सदस्य बनाये गये । वि० सं० २००६ में जब फालना में उक्त विद्यालय के विशाल मैदान में श्री जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेन्स का सत्रहवां अधिवेशन था, तब भी आप अधिवेशन समिति के मानद मंत्रियों में थे और आपने अपना पूरा सहयोग दिया था । वि० सं० २००४ में आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी का चातुर्मास खिमेल में था । खिमेल स्टे० राणी से दो मील के अन्तर पर ही है । उक्त श्राचार्यश्री की अभिलाषा श्री राणकपुरतीर्थ की चैत्र पूर्णिमा की यात्रा करने की हुई थी । एतदर्थ आपने और आपके लघु भ्राता श्री मानमलजी तथा खिमेलनिवासी श्री राणकपुर की संघ यात्रा श्रीभीमराजजी भभूतचन्द्रजी ने मिलकर श्री राणकपुरतीर्थ की यात्रा करने के लिये उक्त आचार्यश्री की तत्त्वावधानता में चतुर्विध-संघ निकाला। इस संघ में तेवीस साधु-साध्वी और लगभग १५० (एक सौ पचास) श्रावक, श्राविका संमिलित हुये थे । यह संघ - यात्रा पन्द्रह दिवस में पूर्ण हुई थी। इस संघ का सर्व व्यय उक्त तीनों सजनों ने सहर्ष वहन किया था । कुछ वर्षों से वाकली ग्राम के श्री संघ में दो तड़ पड़ी हुई थी। छोटी तड़ में केवल २०-२५ घर ही थे उन्नति का एवं अच्छा कार्य बड़ी कठिनाई से वाकली में श्रीमद् मुनिराज मंगलविजयजी का अग्रगण्य सद्गृहस्थों का था । इस पर संगठन - और बड़ी तड़ में समस्त ग्राम । इन तड़ों के कारण वाकली में कोई हो सकता था । वि० सं० २००६ में कल्टी में तड़ों में मेल करवाना चातुर्मास करवाने का भाव वाकली के प्रिय महाराज मंगलविजयजी ने यह कलम रक्खी कि अगर दोनों तड़ एक होकर विनती करें तो ही मैं वाकली में चातुर्मास कर सकता हूं, अन्यथा नहीं । वाकली की दोनों तड़ का आप (ताराचन्द्रजी) में बड़ा विश्वास है । आप दोनों तड़ों में मेल करवाने के कार्य को लेकर सद्प्रयत्न करने लगे । गुरुदेव के पावन प्रताप से आपको सफलता मिल गई और कुसंप नष्ट हो गया और संघ में एकता स्थापित हो गई । फलस्वरूप श्रीमद् मंगलविजयजी महाराज सा० का चातुर्मास बड़े ही आनन्द के साथ में हुआ और खूब धर्म- ध्यान हुआ और अद्वितीय श्रानन्द वर्षा । आपकी धर्मपत्नी भी बड़ी गुरुभक्ति एवं तपपरायणा थी । उसने रोहिणीतप किया था, जिसका उजमणा शान्तिस्नात्रपूजादि के सहित वि० सं० १६६३ में बड़ी धूम-धाम से किया गया था। आपकी ओर से तथा आपके आपकी धर्मपत्नी की धर्मपरा- परिवार के बंधुगणों की ओर से दश (१०) नवकारशियां की गई थीं तथा उस ही यणता व उनका देहावसान. शुभावसर पर श्री वासुपूज्य भगवान् की चांदी की प्रतिमा आपने बनवाकर प्रतिष्ठित करवाई थी और अत्यन्त हर्ष और आनन्द मनाया गया था । गत वर्ष वि० सं २००७ में ही आपकी धर्मपत्नी का Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाह ताराचन्द्रजी:: देहावसान हो गया । आपकी धर्मपत्नी सचमुच एक धर्मपरायणा और भाग्यशालिनी स्त्री थी। धर्म-क्रिया करने में वह सदा अग्रसर रहा करती थी। वह सचमुच तपस्विनी और योग्य पत्नी थी। उसने वि० सं० २००३ से 'वीशस्थानक की ओली' आजीवन प्रारंभ की थी। उसने वि० सं० २००४ में अपने ज्येष्ठ पुत्र हिम्मतमलजी के साथ में 'अष्टमतप' का आराधन किया था तथा वि० सं० २००५ में भी पुनः दोनों माता-पुत्र ने पन्द्रह दिवस के उपवास की तपस्या की थी। श्री ताराचन्द्रजी ने उक्त दोनों अवसरों पर उनके तप के हर्ष में मंदिर और साधारण खाते में अच्छी रकम का व्यय करके उनके तप-आराधन का संमान किया था। ऐसी योग्य और तपस्विनी गृहिणी का वृद्धावस्था के आगमन पर वियोग अवश्य खलता ही है। प्रकृति के नियम के आगे सर्व समर्थ भी असमर्थ रहे पाये गये हैं। पुनः वि० सं० २००६ में भी दोनों माता-पुत्र ने 'मासक्षमणतप' करने का दृढ़ निश्चय किया था, परन्तु ताराचन्द्रजी के वयोवृद्ध काका श्री गुलाबचन्द्रजी का अकस्मात् देहावसान हो जाने पर वे तप नहीं कर सकते थे, अतः उन्होंने वि० सं० २००७ में उक्त तप करने का निश्चय किया था। वि० सं० २००७ में उक्त तप प्रारम्भ करने के एक रात्रि पूर्व ही आपकी पत्नी रात्रि के मध्य में अकस्मात् बीमार हुई और दूसरे ही दिन श्रावण शुक्ला पंचमी को अकस्मात् देहावसान हो गया और फलतः श्री हिम्मतमलजी भी माता के शोक में उक्त तपाराधन नहीं कर सके। ___ऊपर दिये गये परिचय से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि ताराचन्द्रजी जैसे समाजसेवी एवं अद्भुत परिश्रमी व्यक्ति की समाज में कितनी आवश्यकता है और उनके प्रति कितना मान होना चाहिए। आपके अनेक सरिजी महाराज साहब के गुणों पर मुग्ध होकर ही श्रीमद् विजययतीन्द्रसरिजी महाराज ने अपने एक पत्र में एकपत्र में आपका मूल्यांकन आपके प्रति जो शुभाशीर्वादपूर्वक भाव व्यक्त किये हैं, वे सचमुच ही आपका मूल्य करते हैं और अतः यहाँ वे लिखने योग्य हैं: श्रीयुत् ताराचन्द्रजी मेघराजजी पौरवाड़ जैन, पावा (मारवाड़) आप चुस्त जैनधर्म के श्रद्धालु हैं। सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठोत्सव, उपधानोत्सव, संघ आदि कार्यों में निःस्पृहभाव से समय-समय पर सराहनीय सहयोग देते रहते हैं। 'श्री वर्द्धमान जैन विद्यालय', सुमेरपुर के लिये आप प्रतिदिन सब तरह दिलचस्पी रखते हैं । आप ऐतिहासिक साहित्य का भी अच्छा प्रेम रखते हैं, जिसके फलस्वरूप प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास संपन्न उदाहरण रूप है । मारवाड़ी जैन समाज में आपके समान सेवाभावी व्यक्ति बहुत कम हैं । आपके इन्हीं निःस्वार्थादि गुण एवं आपके सेवाभावसंयुक्त जीवन पर हम आपको हार्दिक धन्यवाद देते हैं। यतीन्द्रसरि, ता० २१-१०-५१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.] :: प्राग्वाट-इतिहास: वि० सं० २००८ में श्रीमद् विजययतीन्द्रसरिजी महाराज साहब का चातुर्मास थराद उत्तर गुजरात में था। उसी वर्ष माघ शुक्ला ६ को आचार्यश्री की तत्वावधानता में थराद के श्री संघ ने श्री महावीर-जिनालय की अंजनथराद में प्रतिष्ठोत्सव और श्लाका-प्राण-प्रतिष्ठा करने का निश्चय किया था। उक्त प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित होने वाली आपको सहयोग. प्रतिमाओं और तीर्थ-पट्टादि के बनाने में आपने जिस प्रकार सहयोग दिया, वह थराद श्री संघ की ओर से आपको दिये गये अभिनन्दन-पत्र से प्रकट होता है तथा आपकी गुरुभक्ति, समाजसेवा की ऊँची भावनाओं को व्यक्त करता है: .. . GAMESSEUROSECAUSAUGALMAGESSHARE श्रीमद् राजेन्द्रगुरुभ्यो नमः आभार-पत्र ८ . समाजप्रेमी स्वधर्मी श्रीमन् भाई श्री ताराचन्द्रजी मेघराजजी मु० पावा (मारवाड़) राजस्थान आप निःस्वार्थ समाजसेवी हैं और यह आपकी अनेक संघयात्रा, प्रतिष्ठामहोत्सव, उद्यापनतपादि में लिये गये भागों से सिद्ध है। फिर आप वैसे 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाउस', सुमेरपुर के कर्णधार एवं प्राग्वाट-इतिहास जैसे भगीरथकार्य के उठाने वाले अथक परिश्रमी एवं परमोत्साही सजन होने के नाते लब्धप्रतिष्ठ व्यक्ति हैं। श्री गुरुवर्य व्याख्यान वाचस्पति श्री श्री.१००८ श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी के करकमलों से वि० सं० २००८ माघ शुक्ला ६ को थराद में 'श्री महावीरजिनालय की होने वाली अंजनश्लाकाप्राणप्रतिष्ठा' के लिये श्री थराद संघ की ओर से जयपुर में जो पाषाण के ७८ अट्ठहत्तर बिंब तथा मकराना (मारवाड़) में जैनतीर्थों के १५ पाषाणपट्ट बनवाये गये थे, उनके प्रतिष्ठा के शुभावसर तक बनवाकर आ जाने में, मूल्य के निश्चयीकरण में आपने जिस संलग्नता, तत्परता एवं धर्मप्रेम से श्री थराद संघ को तन, मन से कष्ट उठाकर सहयोग प्रदान किया है, उसका हम अत्यधिक आभार मानते हैं। आपकी इस समाजहितेच्छुकता एवं गुरुभक्ति से हम अत्यधिक प्रभावित हैं। SSSSSSS43641964955 35 वि० सं० २००८ माघ शु०७ । आपका श्रीसंघ, थराद (उत्तर गुजरात) CRECCANARALLECCANCERAMM A R Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शाह ताराचन्द्रजी:: [ २१ कुछ वर्षों से कवराड़ा (मारवाड़) के श्री जैन-संघ में कुछ प्रांतर झगड़ों के कारण कुसंप उत्पन हो गया था और धड़े पड़ गये थे । सेवक-सम्बन्धी झगड़े भी बढ़े हुये थे । वि० सं०२००८ ज्येष्ठ शु० २ रविवार को शाह दानमलजी कवराड़ा में धड़ों का मिटाना नत्थाजी की ओर से 'अट्ठाई-महोत्सव' किया गया था और शान्तिस्नात्र-पूजा भी बनाई गई और सेवक-सम्बन्धी झगड़ों थी । उपा० मु० हीरमुनिजी के शिष्य मु० सुन्दरविजयजी और सुरेन्द्रविजयजी इस अवसर पर का निपटारा करना वहाँ पधारे हुये थे। आप (ताराचंद्रजी) भी पधारे थे । संघ आन्तर-कुसंप से तंग आ रहा था । योग्यावसर देख कर कवराड़ा के संघ ने दोनों सज्जन मु० सुन्दरविजयजी और ताराचंद्रजी को मिलकर संघ में पड़े धड़ों का निर्णय करने का एवं सेवक-संबंधी झगड़ों को निपटाने का भार अर्पित किया और स्वीकार किया कि जो निर्णय ये उक्त सज्जन देंगे कवराड़ा-संघ उस निर्णय को मानने के लिये बाधित होगा। संघ में धड़ेबंदी होने के प्रमुख कारण ये थे कि (१) पांच घरों में पंचायती रकम कई वर्षों से बाकी चली आ रही थी और वे नहीं दे रहे थे, (२) सात घरों में खरड़ा-लागसंबंधी रकम बाकी थी और वे नहीं दे रहे थे, (३) एक सज्जन में लाण की रकम बाकी थी, (४) सात घर अपनी अलग कोथली अर्थात् अपने पंचायती आय-व्यय का अलग नामा रखते थे (५) मंदिर और संघ की सेवा करने वाले सेवक की लाग-भाग का प्रश्न जो मंहगाई के कारण उत्पन्न हुआ था संघ में धड़ा-बंदी होने के कारण सुलझाया नहीं जा सका था । मु० सा० सुन्दरविजयजी और श्री ताराचंद्रजी ने धड़ेबंदी के मूल कारणों पर गंभीर विचार करके वि० सं० २००६ माघ कृ. ७ को अपने हस्ताक्षरों से प्रामाणित करके निर्णय प्रकाशित कर दिया। कवराड़ा के संघ में संप का प्रादुर्भाव उत्पन्न हुआ और धड़ा-बंदी का अंत हो गया। जैसा पूर्व परिचय देते समय लिखा जा चुका है कि श्री वर्धमान जैन बोर्डिंग हाऊस, सुमेरपुर के जन्मदाता आप और मास्टर भीखमचंद्रजी हैं। आप के हृदय में उक्त छात्रालय के भीतर एक जिनालय बनवाने की अभिलाषा श्री वर्धमान न बोर्डिङ्ग भी छात्रालय के स्थापना के साथ ही उद्भूत हो गई थी। आपकी अथक श्रमशीलता हाउस, सुमेरपुर में श्री महा- के फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों पूर्व श्री महावीर-जिनालय का निर्माण प्रारम्भ हो गया वीर-जिनालय की प्रतिष्ठा था; परन्तु महंगाई के कारण निर्माणकार्य धीरे २ चलता रहा था । इसी वर्ष वि० सं० २०१० ज्येष्ठ शु० १० सोमवार ता० २२-६-१९५३ को उक्त मन्दिर की उपा० श्रीमद् कल्याणविजयजी के करकमलों से प्रतिष्ठा हुई और उसमें मूलनायक के स्थान पर वि० सं० १४६६ माघ शु० ६ की पूर्वप्रतिष्ठित श्री वर्धमानस्वामी की भव्य प्रतिमा महामहोत्सव पूर्वक विराजमान करवाई गई । इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर १११ पाषाण-प्रतिमाओं की और ३५ चांदी और सर्वधातु-प्रतिमाओं की भव्य मण्डप की रचना करके अंजनश्लाका करवाई गई थी। मन्दिर निर्माण में अब तक लगभग पेतीस सहस्र रुपया व्यय हो चुका है, इस द्रव्य के संग्रह करने में तथा प्रतिष्ठोत्सव में आपका सर्व प्रकार का श्रम मुख्य रहा है। __ स्टे. राणी मण्डी में श्री शांतिनाथ-जिनालय का जीर्णोद्धार करवाना अपेक्षित था। आपकी प्रेरणा पर ही उक्त जिनालय का जीर्णोद्धार रुपया दस सहस्र व्यय करके करवाया गया था, जिसमें चार सहस्र रुपया श्री शांतिनाथ-जिनालय स्टे. 'श्री गुलाबचन्द्र भभूतचन्द्र' फर्म ने अर्पित किया था। स्टे० राणी-मण्डी में आपका राणी का जीर्णोद्धार अच्छा संमान है और प्रत्येक धर्म एवं समाज-कार्य में आपकी संमति और सहयोग Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास : प्रमुख रहते हैं । वि० सं० २००७ से आप श्री 'जैन देवस्थान - गोड़वाड़तीर्थ - वरकाणा' की जीर्णोद्धार समिति के सदस्य हैं । और भी आप इस प्रकार कईएक छोटी-मोटी संस्थाओं को अपना सहयोग दान करते रहते हैं । आपने दो बार श्री सिद्धाचलतीर्थ और गिरनारतीर्थों की, एक बार अर्बुदाचलतीर्थ की, दो बार अणहिलपुर-पत्तन की और दो बार श्री सम्मेतशिखरतीर्थ की यात्रायें की हैं। अतिरिक्त इनके अयोध्या, चम्पापुरी, पावापुरी, भागलपुर, हस्तिनापुरादि छोटे-बड़े अनेक तीर्थो की यात्रायें भी की हैं। आप जैसे समाजसेवी, शिक्षणप्रेमी, विद्यानुरागी हैं, वैसे ही व्यापारकुशल भी हैं। इस समय आप श्री 'गुलाबचन्द्रजी भभूतचन्द्रजी ', स्टे० राणी (मारवाड़) नाम की राणी मण्डी में अति प्रसिद्ध फर्म के, शाह दलीचन्द्र ताराचन्द्र, स्टे० राणी नाम की फर्म के और शाह रत्नचन्द्रजी कपूरचन्द्रजी नाम की मद्रास में अति प्रतिष्ठित फर्म के पांतीदार हैं। आपके तीनों ही पुत्र भी वैसे ही व्यापारकुशल एवं अति परिश्रमी हैं । ज्येष्ठ पुत्र श्री हिम्मतमलजी श्री गुलाबचन्द्रजी भभूतचन्द्रजी नाम की फर्म पर और श्री उम्मेदमलजी तथा श्री चम्पालालजी मद्रास की फर्म पर कार्य करते हैं। परिवार, मान, धन की दृष्टि से आप सुखी है। यहां पर समिति के सदस्यों में से नडूलाईवासी शाह सागरमलजी नवलाजी आपके लिए अधिक निकट स्मरणीय है । श्री सागरमलजी इतिहासविषय में अच्छी रुचि रखते हैं और फलतः श्री ताराचन्द्रजी को विचारविनिमय एवं परामर्श के अवसरों पर आपका अच्छा सहयोग एवं बल मिलता रहा है । I सांडेराव निवासी शाह चुन्नीलालजी सरदारमलजी का भी पुस्तकादि के संग्रह संबन्ध में आपको सर्वप्रथम सहयोग मिला, वे भी यहां स्मरणीय हैं । प्राग्वाट इतिहास के लिए अग्रिम ग्राहकों को बनाने में राणीग्रामनिवासी शाह जवाहरमलजी और खुडालाग्रामनिवासी शाह संतोषचन्द्रजी थानमलजी का आपको सदा तत्परतापूर्ण सहयोग मिलता रहा है । वे भी पूर्ण धन्यवाद के पात्र हैं । फर्म 'शाह गुलाबचन्द्रजी भभूतचन्द्रजी' भी अति धन्यवाद की पात्र है कि जिसने प्राग्वाट - इतिहास विषयक क्षेत्र में समय-समय पर कार्यकर्त्ताओं की सेवा सुश्रूषा करने में पूरा हार्दिक सद्भाव प्रकट किया है । यहां पर ही भाई श्री हीराचन्द्रजी का नाम भी स्मरणीय है । ये श्री ताराचन्द्रजी के पिता मेघराजजी के द्वितीय जेष्ठ भ्राता श्री लालचन्द्रजी के सुपुत्र श्री मालमचन्द्रजी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। श्री ताराचन्द्रजी के द्वारा 'श्री प्राग्वाट इतिहास- प्रकाशक-समिति' की ओर से होने वाले सारे पत्र-व्यवहार और इतिहास निमित्त प्राप्त अर्थ के आयव्यय का लेखा श्री ताराचन्द्रजी की आज्ञा एवं सम्मति से आप ही अधिकतः करते रहे हैं। अतिरिक्त इसके अन्य स्थलों पर भी ये ताराचन्द्रजी के सदा सहायक रहे हैं । इतिहास के लिए श्रम करने वालों में सदा उत्साही होने के नाते धन्यवाद के पात्र हैं। ता० ५-६ - ५२. भीलवाड़ा (राजस्थान) } लेखक दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी० ए० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: शाह ताराचन्द्रजी: [ २३ शाह हेमाजी (खीमाड़ाग्रामनिवासी) शाह ताराचन्द्र मेघराजजी का वंशवृक्ष शाह उदाजी शाह सूराजी 11- श्रोखाजी चेलाजी जीताजी मनाजी (गङ्गादेवी) रत्नाजी पूनमचन्द्रजी प्रेमचन्द्रजी नवलाजी रायचन्द्रजी अमीचन्द्रजी दलीचन्द्रजी दीपाजी इंद्रमलजी* कपूरजी श्रीचन्द्रजी चंद्रभाणजी संतोकचंद्रजी ताराचन्द्रजी वीराजी साकलचन्द्रजी भीखमचन्द्रजी छगनलालजी 1-1-1 सागरमल अन्नाजी लालचन्द्रजी जसराजजी फौजमलजी मेघराजजी गुलाबचन्द्रजी सोनीबाई (ढप्पादेवी) (कसुबाई) (ऊमीबाई) (नंदाबाई) (कसुंबाबाई) (जीवादेवी) नरसिंहजी मालमचंद्रजी अचलदासजी | किस्तूरचंद्रजी वीरचंद्रजी वृद्धिचंद्रजी | दलीचंद्रजी दीपचंद्रजी छोगमलजी इंद्रमलजी* कपूरचन्द्रजी हजारीमलजी ताराचंद्रजी मगनमलजी छोगीबाई हजाबाई (जीवादेवी) (फारादेवी)+ . मोतीलाल कंकूबाई तीजाबाई हिम्मतमलजी धमीबाई (लादीदेवी) उम्मेदमलजी सुखीवाई चम्पालालजी ब्रजबाई (रम्भादेवी) (हुलाशबाई) केसरीमल लक्ष्मीचंद्र देवीचंद्र घीसूलाल विमला सागरमल बाबूलाल सुशीला भंवरलाल कुन्दनमल जयन्तीलाल * दत्तक आया समझना चाहिए । +पृ०६ पर प्यारादेवी छप गया है, परन्तु है वस्तुतः नाम फारादेवी । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: श्री प्राग्वाट-इतिहास के प्रति सहायभूत सहानुभूति प्रदर्शित करके अग्रिम रु० १०९) देकर अथवा वचन देकर सक्रिय सहयोग देने वाले सज्जनों की जिनका पंचपीढ़ीय परिचय प्राग्वाट - इतिहास द्वितीय भाग में आवेगा स्वर्ण - नामावली आहोर : १ शाह नत्थमलजी ऋषमदासजी २ हजारीमलजी किस्तूरजी " " नेमीचन्द्रजी पूनमचन्द्रजी ३ ४ " मगराजजी मांगीलालजी हीराचन्द्रजी शेषमलजी बछराजजी नरसिंहजी ७ नथमलजी लालाजी ५ ६ " उम्मेदपुर : در "" : ८ शाह चुनीलालजी भीखाजी ,, पृथ्वीराजजी चतुराजी कवराड़ा : १० शाह आईदानमलजी नत्थाजी ११ सूरतिंगजी खुमाजी १२ अचलाजी चन्दनभाणजी ऋषभचन्द्रजी किसनाजी १३ १४ 19 "" " " चैनाजी अमीचन्द्रजी जसराजजी प्रतापजी १५ १६ सरदारमलजी जीताजी "9 " कोशीलाव : १७ शाह सरदारमलजी वरदाजी १८ शेषमलजी सरदारमलजी " १६ , केसरीमलजी सरदारमलजी २० " रूपचन्द्रजी खमाजी २१ नवयुवक मण्डल २२ श्री पौरवाल समस्तपंच २३ शाह वनाजी केशाजी २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० 39 " खीमाड़ा : 92 19 "9 " " " सूरतिंगजी राजाजी ३१ ३२ " ३३ ,, पूनमचन्द्रजी धूलाजी ३४ ऋषभदासजी रायचंद्रजी 23 कंटालिया : 11 ३५ शाह केसरीमलजी राजमलजी ३६ खीमराजजी विजयराजजी . -- मनरूपचन्द्रजी वरदाजी भगवानदासजी पुखराजजी वीरचन्द्रजी मयाचन्द्रजी नेमीचन्द्रजी गंगारामजी गुलाबचन्द्रजी पूनमचन्द्रजी रूपचन्द्रजी धूलाजी छगनलालजी लादाजी " ३७ शाह गुलाबचन्द्रजी प्रेमचन्द्रजी खीवान्दी : : 11 ३८ शाह किस्तूरचन्द्रजी सवाजी ३६ गुलाबचन्द्रजी चैनाजी ४० जीवराजजी भूताजी ४१ ४२ 39 मिश्रीमलजी वृद्धिचन्द्रजी 39 चन्दनभाणजी देवाजी ताराचन्द्रजी दलीचन्द्रजी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: स्वर्ण-नामावली :: [ २५ खुडाला: ६६ शाह राजमलजी परकाजी ४३ शाह वनेचन्द्रजी संतोषचन्द्रजी ७० , जवानमलजी मनाजी ४४ , वोरीदासजी पुखराजजी ७१ , गेनाजी वृद्धिचंद्रजी गुड़ा बालोतरा : ७२ , पनाजी पेमाजी. ४५ शाह राजमलजी केसरीमलनी ७३ ,, हजारीमलजी हुक्माजी वरदरावाला घाणेराव : ७४ , रामाजी भीमाजी ४६ साह छगनलालजी हंसराजजी ७५ , वनेचंद्रजी फोजमलजी ४७ , निहालचन्द्रजी खिवराजजी ७६ , पूनमचंद्रजी धूलाजी ४८ , मूलचन्द्रजी जवरचन्द्रजी ७७ , देवीचंद्रजी किसनाजी वरदरावाला ४६ , किस्तूरचन्द्रजी पुखराजजी ७८ , पूनमचंद्रजी किस्तूरजी ,, जयचन्द्रजी मूलचन्द्रजी थूम्बा :, निहालचन्द्रजी धनरूपजी ७६ शाह चैनमलजी जैरूपजी ५२ ,, हिम्मतमलजी देवीचन्द्रजी क्यालपुरा:५३ , खीमराजजी रत्नचन्द्रजी ___८० शाह चुन्नीलालजी केसरीमलजी ५४ , वंशीलालजी सागरमलजी देवरी:५५ , जालमचन्द्रजी मोतीलालजी ८१ शाह घासीरामजी गुलाबचन्द्रजी चांदराई: ८२ , धनराजजी जसराजजी ५६ शाह जवाहिरमलजी हंसाजी ८३ , पुखराजजी हिम्मतमलजी सूरजमलजी ५७ , अमीचंद्रजी मोतीजी ८४ , जोरमलजी वीरचन्द्रजी ५८ , केसरीमलजी टेकाजी ८५ , कालुरामजी जवेरचन्द्रजी अनोपचन्द्रजी ५६ , पूनमचंद्रजी किसनाजी ८६ , मीठालालजी पुखराजजी ६० , मोतीचंद्रजी पनाजी ८७ , जीवराजजी उदयरामजी ६१ , हिम्मतमलजी गुलाबचंद्रजी ८८ , किस्तूरचन्द्रजी मूलचन्द्रजी ६२ , हेमराजजी जसाजी ८६ , चन्दनमलजी वनेचन्द्र जी ६३ , पन्नालालजी किस्तूरचंद्रजी - 8. , राजमलजी उदयरामजी चामुण्डेरी: ६१ , हिम्मतमलजी सागरमलजी ६४ शाह हीराचंद्रजी किस्तूरचंद्रजी वनेचंद्रजी ६२ , धनराजजी संतोषचन्द्रजी तखतगढ़: घणी:६५ शाह केसरीमलजी अचलाजी ६३ शाह परतापमलजी मोतीजी ६६ , जवानमलजी किस्तूरजी ६४ , सीमाजी नवलाजी ६७ , पूनमचंद्रजी जसरुपजी ६५, कूपचन्द्रजी कानाजी ६८ , चंबलभामजी जसरूपजी ६६ , लालचन्द्रजी नेमाजी 0 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] :: प्राग्वाट-इतिहास : १०३ ॥ ६७ शाह जेठमलजी नवलाजी नाया: १८ शाह संतोषचन्द्रजी मूलचन्द्रजी ६६, टेकचन्द्रजी भाणालालजी नारलाई (नडूलाई):१०० शाह सागरमलजी नवलाजी १०१ , पूनमचन्द्रजी धूलचन्द्रजी १०२ , प्रेमचन्द्रजी मेघराजजी , रत्नचन्द्रजी किस्तूरचन्द्रजी १०४ , मुलतानमलजी देवीचन्द्रजी १०५ , मोहनलालजी वनेचन्द्रजी १०६ , पुखराजजी गणेशमलजी सवाईमलजी १०७ , भीखमचन्द्रजी चुन्नीलालजी नीतोड़ा:१०८ शाह चुन्नीलालजी तिलोकचन्द्रजी पादरली:१०६ शाह शेषमलजी हंसाजी ११० ,, भभूतमलजी कपूरचन्द्रजी १११ , ताराचन्द्रजी किस्तूरचन्द्रजी ११२ , हीराचन्द्रजी किस्तूरचन्द्रजी ११३ , नवलाजी दोलाजी पालड़ी:११४ शाह अमीचन्द्रजी मालाजी ११५ , मियाचन्द्रजी वृद्धिचन्द्रजी ११६ , भभूतमलजी किस्तूरजी ११७ ,, रूपचन्द्रजी किस्तूरजी ११८ , नेनमलजी भूताजी पाली:११६ शाह फुसाजी बोरीदासजी १२० , तेजराजजी लालचन्द्रजी । पावा:१२१ शाह मेघराजजी मन्नाजी १२२ शाह वृद्धिचन्द्रजी फौजमलजी १२३ ,, नरसिंगमलजी गुलाबचन्द्रजी १२४ , मगनमलजी मेघराजजी पिंडवाड़ा:१२५ शाह रायचन्द्रजी हंसराजजी १२६ , चुन्नीलालजी मूलचन्द्रजी १२७ , सूरचन्द्रजी अणदाजी वेलचन्द्रजी १२८ , देवीचन्द्रजी सुरचन्द्रजी अणदाजी १२६ , भभूतमलजी फूलचन्द्रजी १३० , रत्नचन्द्रजी गुलाबचन्द्रजी बैड़ावाला १३१ , चुन्नीलालजी चैनाजी १३२ , शिवलालजी सुरचंद्रजी १३३ ,, छगनलालजी समर्थमलजी जीवाजी १३४ , चुन्नीलालजी भूरमलजी सिरेमलजी १३५ , भगवानजी तेजमलजी १३६ मुहता मनरूपजी अचलदासजी १३७ शाह सरदारमलजी वेलाजी १३८ मुहता जवानमलजी हंसराजजी १३६ शाह मियाचंद्रजी अमीचंद्रजी १४० ,, छोगालालजी भाईचंद्रजी १४१ ,, हीराचंद्रजी गुलाबचंद्रजी १४२ , पूनमचंद्रजी कपूरचंद्रजी १४३ , छगनलालजी रूपचंद्रजी पीसावा: १४४ , दलीचंद्रजी रायचंद्रजी पोमावा : १४५ , हेमराजजी रत्नचन्द्रजी बगड़ी१४६ , हेमराजजी केवलचन्द्रजी १९७ , रूपचन्द्रजी मूलचन्द्रजी १४८ ,, रत्नचन्द्रजी देवराजजी १४६ , गणेशमलजी पारसमलजी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: स्वर्ण-नामावली [ २७ १८५ १५० शाह मोतीलालजी कन्हैयालालजी १५१ , खीमराजजी बुधमलजी १५२ ,, हंसराजजी छगनीरामजी बागरा :१५३ , केसरीमलजी हुक्माजी १५४ , जेठमलजी खुमाजी १५५ , मनशाजी नरसिंहजी बाबाग्राम :१५६ , कपूरचन्द्रजी रत्नचन्द्रजी १५७ ,, वनेचन्द्रजी सरदारमलजी बाली:१५८ , उदयभाणजी प्रेमचन्द्रजी १५६ , चुन्नीलालजी गुलाबचन्द्रजी १६० , साकलचन्द्रजी देवीचन्द्रजी १६१ ,, जेठमलजी पूनमचन्द्रजी १६२ , शेषमलजी नेमिचन्द्रजी १६३ , चिमनलालजी ऋषभदासजी १६४ , फूलचन्द्रजी शेषमलजी १६५ , भभूतमलजी नेमिचन्द्रजी १६६ , शेषमलजी किस्तूरचन्द्रजी १६७ , मगनीरामजी दलीचन्द्रजी १६८ , फौजमलजी देवीचन्द्रजी १६६ , पुखराजजी पृथ्वीराजजी १७० , पुखराजजी हजारीमलजी १७१ , वनेचन्द्रजी उदयचन्द्रजी १७२ , कुन्दनमलजी ताराचन्द्रजी बिलाड़ा:१७३ , पन्नालालजी गजराजजी १७४ , हस्तिमलजी पारसमलजी बेड़ा (बेहड़ा) १७५ , भीमाजी कपूरचन्द्रजी १७६ ,, चुन्नीलालजी नत्थमलजी १७७ शाह कपूरचन्द्रजी हीराचन्द्रजी भूति : १७८ , भीखमचन्द्रजी पुखराजजी मालवाड़ा१७६ , मगनमलजी ऊमाजी अोखाजी १८० , मूलचन्द्रजी ऊमाजी अोखाजी १८१ , चिमनलालजी ऊमाजी ओखाजी मुंडारा :१८२ , चन्द्रभानजी जेठाजी १८३ , जीवराजजी फतेचन्द्रजी १८४ , धनराजजी हीराचन्द्रजी राणीग्राम : , लक्ष्मीचन्द्रजी चन्द्रभानजी १८६ , लक्ष्मीचन्द्रजी उदयरामजी ,, पुखराजजी गुलाबचन्द्रजी १८८ , गणेशमलजी हिम्मतमलजी १८६ ,, पुखराजजी कपूरचन्द्रजी भीमाजी १६० , भभूतमलजी फौजमलजी १६१ , राजमलजी जसाजी १६२ , हजारीमलजी तिलोकचन्द्रजी १६३ , जवाहरमलजी हुकमाजी रोहीड़ा :१६४ , चिमनमलजी अचलदासजी १६५ , छगनराजजी चैनमलजी १६६ , वीराजी पनेचन्द्रजी १६७ , हजारीमलजी दानमलजी १९८ , छगनलालजी हंसराजजी १६६ , अचलदासजी अमरचन्द्रजी लास : २०० , दानमलजी नरसिंहजी लुणावा :२०१ , चैनमलजी किस्तूरजी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] २०२ शाह ऋषभाजी मनालालजी रत्नचन्द्रजी हिम्मतमलजी २०३ २०४ " २०५ २०६ बरदरा : २०७ सरेमलजी हजारीमलजी " ,, वीरचन्द्रजी कपूरचन्द्रजी " " " "" २०८ वांकली : २०६ कोठारी हजारीमलजी पूनमचन्द्रजी २१० जवानमलजी पूनमचन्द्रजी 99 २११ शेषमलजी छोगमलजी २१२ ,, वीरचन्द्रजी मनरूपजी २१३ शाह हुक्माजी मोतीजी २१४ बृद्धिचन्द्रजी चन्दनभाणजी केरालवाला वीजापुर २१५ चन्दाजी खुशालजी २१६ २१७ २१८ २१६ २२० विशलपुर २२१ जेठमलजी मियाचन्द्रजी " २२२ " भभूतमलजी देवीचन्द्रजी " २२४ २२३ हंसराजजी राजिंगजी ,, साकलचन्द्रजी ऊमाजी २२५ चुन्नीलालजी ऊमाजी २२६ तुलसाजी अमीचन्द्रजी २२७ केसरीमलजी भूताजी शिवगंज : 39 २२८ फतेहचन्द्रजी गोमराजजी —— " " " ,, ताराचन्द्रजी कूपाजी चन्दाजी चैनाजी भीमराजजी किशनाजी हजारीमलजी किशनाजी प्रेमचन्द्रजी ऋषभाजी " 11 " " मोटा विरधाजी भीमराजजी जसराजजी पुखराजजी मनरूपजी 11 —— " :: प्राग्वाट - इतिहास :: २२६ शाह हंसराजजी छोगमलजी २३० नरसिंहजी राजाजी २३१ मेघाजी हीराचन्द्रजी २३२ २३३ २३४ २३५ सादड़ी : २३६ २३७ २३८ २३६ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २५५ २५६ २५७ २५८ ,, " " पूनमचन्द्रजी जोधाजी ,, खीमचन्द्रजी हंसराजजी " " ?? शोभाचन्द्रजी अमरचन्द्रजी कनीरामजी नरसिंहजी मोहनलालजी वाघमलजी चन्दणमलजी पूनमचन्द्रजी " " गुमानचन्द्रजी चुन्नीलालजी चुनीलालजी वृद्धिचन्द्रजी " " पन्नालालजी गुलाबचन्द्रजी " हीराचन्द्रजी पूनमचन्द्रजी " वाघमलजी पूनमचन्द्रजी गुलाबचन्द्रजी पूनमचन्द्र जी मोतीलालजी इंगाजी लालचन्द्रजी रत्नचन्द्रजी छोगमलजी रूपचन्द्रजी कालूरामजी हीराचन्द्रजी करमचन्द्रजी वनेचन्द्रजी जेठमलजी मनाजी 17 " " 19 17 77 17 २४६ २५० २५१ 11 २५२ " चुन्नीलालजी वीरचन्द्रजी २५३ चुन्नीलालजी किस्तूरचन्द्रजी "" साण्डेराव : २५४ 13 " मोहनलालजी कपूरचन्द्रजी जेठमलजी गुलाबचन्द्रजी 39 39 " उदयचन्द्रजी दलीचद्रन्जी चुन्नीलालजी ऋषभाजी केसरीमलजी धनाजी 11 ताराचन्द्रजी जवेरचन्द्रजी पोमाजी दलीचन्द्रजी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ शाह शेषमलजी लक्ष्मीचन्द्रजी २६० दलीचन्द्रजी धूलाजी २६५ २६६ सियाणा : २६१ शाह भगवानजी लूं बाजी २६२ " कपूरचन्द्रजी जेठमलजी भीकाजी " ताराचन्द्रजी सुरतिंगजी बेबा बाई धापू २६४ भगवानजी चुनीलालजी २६३ 97 " पूनमचन्द्रजी भगवानजी जैरूपजी किस्तूरचन्द्रजी २६७ २६८ 19 २६६ २७० 99 22 39 19 22 :. स्वर्ण - नामावली :: ह० छोगाजी भोपाजी देवीचन्द्रजी फूलचन्द्रजी चिमनाजी धनरूपचन्द्रजी चैनाजी छगनलालजी भीमाजी नोपाजी लक्ष्मीचन्द्रजी २७१ शाह भीमाजी जेताजी २७२ जेठमलजी वनेचन्द्रजी २७३ नत्थमलजी तिलोकचन्द्रजी सिरोही : 19 11 : २७४ शाह ताराचन्द्रजी तिलोकचन्द्रजी डोसी सुमेरपुर : : २७५ शाह दानमलजी देवीचन्द्रजी २७६ कपूरचन्द्रजी दलीचन्द्रजी सोजत : २७७ शाह गुलाबचन्द्रजी जुगराजजी हरजी : २७८ शाह कुन्दनमलजी गैनाजी 19 [ २६ (पीछे से) वासा : २७६ शाह चिमनमलजी नत्थमलजी Page #41 --------------------------------------------------------------------------  Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RUR शुभाशीर्वाद ! ___ श्री पौरवाड़-इतिहास-प्रकाशक-समिति, स्टेशन रानी द्वारा प्रकाशित 'पौरवाड़इतिहास' का प्रथम भाग हमारे सम्मुख है । इसको आद्योपांत वाचने और मनन करने से अपना यह शुभाशीर्वादयुक्त अभिप्राय व्यक्त करना पड़ता है कि इस इतिहास में प्रामाणिकता है, सत्यता है, ऐतिहासिकता है, साहित्यिकता है और इसके निर्माता श्रीयुत् दौलतसिंहजी लोढ़ा बी० ए० की खोज एवं हार्दिक * प्रेरणा की परिपूर्णता है। यह इतिहास शृंखलाबद्ध है, साहित्यिक ढंग से लिखित है और यह पौरवाड़ ज्ञाति के गौरव की यशोगाथा है। इसके पूर्व ओसवालज्ञाति का इतिहास भी प्रकाशित हुआ है, परन्तु उससे इसमें अधिक प्रामाणिकता और लेखनशैली की सौष्ठवता है। इतना ही नहीं, इसमें उत्तम श्रेणी की ओजस्विता भी है जो युगों पर्यन्त इस ज्ञाति को प्राणमयी एवं गौरवशाली बनाये रक्खेगी। हमारे सदपदेश से पावावाले श्रीयुत ताराचन्दजी मेघराजजी ने इस कार्य को सम्पन्न कराने का भार अपने हाथ में लिया और उसके लिये अनेक टक्करें झेल करके भी पूरी तत्परता एवं लग्न से साहित्य-संचय किया और स्वल्प समय में ही इस महान कार्य को सम्पन्न कर दिखाया, इससे हमें बड़ा सन्तोष है। इसके लिये हम पौरवाड़इतिहास के निर्माता दौलतसिंहजी लोढ़ा बी० ए० को और श्रीयुत् ज्ञातिसेवाभावी ताराचन्दजी मेघराजजी पावावाले को हार्दिक धन्यवाद देते हैं । प्रस्तुत इतिहास में प्राचीन स्थापत्य और मन्दिर निर्माण-शिल्पकला के नमूने रूप फोटूओं को स्थान दिया गया है और उनकी सविवरण योजना कर दी गई है, यह इस इतिहास के अङ्ग को और भी अधिक शोभा-वृद्धि करने वाली और सहृदय इतिहासज्ञाताओं के लिये आनन्दोत्पादक है । इत्यलं विस्तरेण । सियाना, आश्विन शुक्ला प्रतिपदा । -विजययतीन्द्रसूरि विक्रम सं० २०१० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A P OSTERRRRRRRREARSHA अभिप्राय K ACC ORRIGANGANESCR-CALCIRECTORAGANISCCU [श्रीयुत पण्डितवर्य लालचन्द्र भगवानदास गांधी, बड़ौदा ने श्री प्राग्वाट-इतिहास-प्रकाशकसमिति की प्रार्थना को स्वीकार कर जो प्रस्तुत इतिहास का अवलोकन किया था और उस पर जो उन्होंने अपना अभिप्राय वि० सं० २००६ पौ० कृ०२ शुक्र० तदनुसार ता०२-१-१६५३ को समिति के नाम बड़ौदा से पत्र लिख कर प्रकट किया था, वह उद्धृत किया जाकर यहाँ प्रकाशित किया गया है। & -लेखक] आप सजनों ने प्राग्वाट-वंश-ज्ञाति का जो इतिहास बहुत परिश्रम से तैयार करवाया है और उत्साही लेखक बन्धु श्री दौलतसिंहजी लोढ़ा (बी० ए० कवि 'अरविंद') ने जो दिलचस्पी से संकलित किया है; उसका निरीक्षण मैंने आपकी अनुमति से राणी में और बड़ौदा में करीब २५ दिनों तक किया है। आपके सामने और लेखक के समक्ष कई प्रकरण-विषय पर गंभीर चर्चा-विचारणा भी हुई थी। कई अंश-सम्बन्ध में अपनी ओर से हमने सलाह-सूचना भी दी थी, वह प्रायः स्वीकारी गई । कई अंश में लेखक ने अपनी स्वतंत्रता भी प्रकाशित की है। जहाँ तक मैं देख सका हूं और यथामति सोच सका हूँ—यह कार्य ठीक-ठीक तैयार हो गया है, इसको जल्दी शुद्ध करके प्रकाश में लाना चाहिए, जिससे जगत् में समाज को यह प्रतीत हो जाय कि इस वंश-ज्ञाति के सजन कैसे उच्च नागरिक हो गए, कैसे राजनीतिज्ञ, व्यवहारदक्ष, विद्वान्, संयमी, सदाचारी, धर्मात्मा, कलाप्रेमी, कर्तव्यनिष्ठ और सद्गुणगरिष्ठ थे ? पूर्वजों का प्रामाणिक इतिहास, वर्तमान और भावी प्रजा को उच्च प्रकार की प्रेरणाशिक्षा दे सकता है। वर्षों से किया हुआ परिश्रम अब बिना विलम्ब प्रकाश में लाना चाहिए यह एक उच्च प्रकार का प्रशंसनीय गौरवास्पद स्तुत्य कर्तव्य है । परमात्मा से मैं प्रार्थना करता हूँ कि—यह यशस्वी कार्य जन्दी प्रकाश में आवे और अपन आनन्द मनावें । शुभं भवतु । आपका विश्वासुलालचन्द्र भगवान गांधी ५ (जैन पण्डित) OctoKRECECA-GCCheck *SSISTARSHASRASHRIRAHASAHARASHTRA Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মুলা 'प्रज्ञाप्रकर्ष प्राग्वाटे, उपकेशे विपुलं धनम् । श्रीमालेषु उत्तम रूपं, शेषेषु नियता गुणाः' ॥२६॥ 'पाबंप्रतिज्ञानिर्वाही, द्वितीयं प्रकृतिः स्थिरा। तृतीयं प्रौदवचनं, चतुः प्रज्ञाप्रकर्षवान् ॥३६८॥ पंचमं च प्रपंचज्ञः षष्टं प्रबलमानसम् । सप्तमं प्रभुताकांक्षी, प्राग्वाटे पुटसप्तकम् ॥३६६॥ -(विमलचरित्र) 'रणि राउलि सूरा सदा, देवी अंबाविप्रमाण; पोरवाड़ प्रगट्टमन, मरणि न मूकइ मांणः ।।' -(लावण्यसमयरचित विमलप्रपंच) जैन शातियों का प्राचीन इतिहास बहुत कुछ तिमिराच्छन्न है। उसको प्रकाश में लाने का जो भी प्रपत्र किया जाय आवश्यक, उपयोगी और सराहनीय है। प्रस्तुत प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास इस दिशा में किये गये प्रयाहों में बहुत ही उल्लेखनीय है। श्रीयुत् लोढ़ाजी ने इसके लिखने में बहुत श्रम किया है। कविता के रसप्रद क्षेत्र से का शुष्क इतिहासक्षेत्र की ओर कैसे घुमाव हो गया यह आश्चर्य का विषय है। जिन व्यक्तियों की प्रेरणा से वे इस कार्य की ओर झुके वे अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं । श्वेताम्बर जैन ज्ञातियों में प्राग्वाट अर्थात् पौरवाड़ बहुत ही गौरवशालिनी ज्ञाति है। इस ज्ञाति में ऐसे-ऐसे उज्ज्वल और तेजस्वी रत्न उत्पन्न हुए, जिनकी गौरवगरिमा को स्मरण करते ही नवस्फूर्ति और चैतन्य का संचार होता है । विविध क्षेत्रों में इस ज्ञाति के महापुरुषों ने जो अद्भुत व्यक्तित्व-प्रकाशित किया वह जैनज्ञातियों के इतिहास में स्वर्णाचरों से अंकित करने योग्य हैं। राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों एवं कला-उन्नयन के अतिरिक्त साहित्य-क्षेत्र में भी उनकी प्रतिभा जाज्वल्यमान है । मंत्रीश्वर विमल के वंश ने गुजरात के नवनिर्माण में जो अद्भुत कार्य किया वह अनुपम है ही, पर वस्तुपाल ने तो प्राग्वाटवंश के गौरव को इतना समुज्ज्वल बना दिशा कि जैन इतिहास में ही नहीं, भारतीय इतिहास में उनके जैसा प्रखर व्यक्तित्व खोजने पर भी नजर नहीं आता। विमल और वस्तपाल इन दोनों की अमर कीर्ति विमलवसहि' और 'लुणवसहि' नामक जिनालयों से विश्वविश्रुत हो चुकी है। कोई भी कला-प्रेमी जब वहां पहुँचता है तो उसके शरीर में जो प्रफुल्लता व्याप्त होती है उससे मानों Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास :: सेरों खून बढ़ जाता है। उसके मुख से बरबस ये शब्द निकल पड़ते हैं कि इस अनुपम कलाकृति के निर्माता धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, उनका जीवन सफल है, जिन्होंने अपनी धार्मिक भावना का मूर्तरूप इस अर्बुदाचल पर्वत पर इस सुन्दर रूप में प्रस्थापित किया। बड़े २ सम्राट् , राजा, महाराजा जो कार्य नहीं कर पाये, वह इनकी सूझ-बूझ ने कर दिखाया । अपने ऐश और आराम के लिये तो सभी ने अपनी शक्ति के अनुसार कला को प्रोत्साहन दिया; पर सार्वजनिक भक्ति के प्रेरणास्थल इन जिनालयों का निर्माण करके उन्होंने शताब्दियों तक जनता की भक्तिभावना के अभिवृद्धि का यह साधन उपस्थित कर दिया। भारतीय शिल्पकला के ये जिनालय उज्ज्वल प्रतीक हैं। इनसे प्राग्वाटवंश का ही नहीं, समस्त भारत का मुख उज्ज्वल हुआ है। इन अनुपम शिल्पकेन्द्रों की प्रेरणा ने परवर्ती शिल्प में एक आदर्श उपस्थित कर दिया। इसका अनुकरण अनेक स्थानों में हुआ और उसके द्वारा भारतीय शिल्प के समुत्थान में बड़ा सुयोग मिल सका। ____ मंत्रीश्वर वस्तुपाल तेजपाल की प्रतिभा बहुमुखी थी। सौभाग्यवश उनके समकालीन और थोड़े वर्षों बाद में ही लिखे गये ग्रंथों में उनके उस महान् व्यक्तित्व का परिचय सुरक्षित है। विमल के सम्बन्ध में समकालीन तो नहीं; पर सोलहवीं शताब्दी में 'विमलचरित्र' और 'विमलप्रबन्ध' और पीछे 'विमलरास' विमलशलोको' आदि रचनाओं का निर्माण हुआ। वस्तुपाल की साहित्यिक क्षेत्र में, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में जो देन है उसके सम्बन्ध में अच्छी सामग्री प्रकाश में आ चुकी है । वस्तुपाल के स्वयं निर्मित 'नरनारायणानन्दकाव्य' और उनके माश्रित कवियों और जैनाचार्यो के ग्रंथ भी प्रकाश में आ चुके हैं। हिन्दी में अभी उनके सम्बन्ध में प्राप्त सब सामग्री के आधार से लिखा हुआ विस्तृत परिचय प्रकाशित नहीं हुआ यह खेद का विषय है। लोदाजी ने प्रस्तुत इतिहास में संक्षिप्त परिचय दिया ही है। मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वे वस्तुपाल तेजपाल सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथ तैयार कर शीघ्र ही प्रकाश में लावें । सामग्री बहुत है। उन सब का अध्ययन करके साररूप से वस्तुपाल के व्यक्तित्व को भलीभांति प्रकाश में लाने के लिये हिन्दी में यह ग्रंथ प्रकाशित होने की नितान्त आवश्यकता है। प्राग्वाटज्ञाति के अन्य कवियों में कविचक्रवर्ती श्रीपाल, उनका पौत्र विजयपाल, दमयन्तीचम्पू' के रचयिता पण्डपाल, समयसुन्दर और ऋषभदास बहुत ही उल्लेखनीय हैं । इसी प्रकार उल्लेखनीय जैन मन्दिरों के निर्माता धरणाशाह, सोमजी शिवाका कार्य भी बहुत ही प्रशस्त है । इस वंश के अनेक व्यक्तियों ने जैनधर्म, साहित्य-कला की विविध सेवायें की, जिनका उल्लेख प्रस्तुत इतिहास में बड़े श्रम के साथ संग्रह किया गया है। अतः मुझे इस वंश की गरिमा के सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। . मैं जैनधर्म और ज्ञातिवाद, जैनागमों में प्राचीन कुलों एवं गोत्रों के उल्लेख और वर्तमान जैन श्वेताम्बर शातियों की, श्वेताम्बरवंशों की स्थापना एवं समयादि के विषयों में कुछ प्रकाश डालना आवश्यक समझता हूँ। इसलिये अपने मूल विषय पर आगे की पंक्तियों में कुछ सामग्री उपस्थित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। आशा है इससे प्रस्तुत इतिहास की पृष्ठभूमि के समझने में बड़ी सुगमता उपस्थित हो जावेगी। भूमिका अधिक लम्बी नहीं हो, इसलिये संक्षेप में ही अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूं। जैन धर्म के प्रचारक इस अवसर्पिणी में चौवीस तीर्थङ्कर हो गये हैं। उनमें से तेईस महापुरुषों की वाणियां हमें अब प्राप्त नहीं हैं। इसलिये उनके समय में ज्ञातिवाद की मान्यता किस रूप में थी और ज्ञातियाँ एवं गोत्रों Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भूमिका :: का विकास कब-कब और किन-किन कारणों से हुआ, इसके सम्बन्ध में जानने के लिए जैन धर्म और ज्ञातिवाद पर तत्कालीन कोई साधन नहीं है। परवर्ती जैन ग्रंथों में इस विषय की जो अनुश्रुतियां मिलती हैं, उसी पर संतोष करना पड़ता है । पर सौभाग्यवश अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर की वाणी जैनागमों में संकलित की गई वह हमें आज उपलब्ध है। यद्यपि वह मूलरूप से पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं है, फिर भी जो कुछ अंश संकलित किया गया है उसमें हमें जैनधर्म और भगवान् महावीर के ज्ञाति और वर्ण के सम्बन्ध में क्या विचार थे और उस जमाने में कुलों और गोत्रों का कितना महत्त्व था, कौन २ से कुल एवं गोत्र प्रसिद्ध थे इन सर्व वातों की जानकारी मिल जाती है। इसलिये सर्व प्रथम इस सम्बन्ध में जो सूचनायें हमें जैनागमों से एवं अन्य प्राचीन जैन ग्रन्थों से मिलती हैं उन्हीं को यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। जैनागमों के अनुशीलन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि जैन संस्कृति में व्यक्ति का महत्त्व उसके जन्मजात कुल, वंश, गोत्र आदि बाह्य बातों से नहीं कुँता जाकर उसके शीलादि गुणों से कँता गया है। ब्राह्मणज्ञाति का होने पर भी जो क्रोधादि दोषों से युक्त है वह ज्ञाति और विद्या दोनों से दीन यावत्पापक्षेत्र माना गया है। 'उत्तरभ्ययनसूत्र' के बारहवें अध्ययन की १४ वीं गाथा इसको अत्यन्त स्पष्ट करती है: 'कोहो य माणो य वहो य जेसि, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । ते माहणा जाइविज्जा विहूणा, ताई च तु खेचाई सुपावयाई' ॥१४॥ 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है कि ज्ञाति, कुल मनुष्य की आत्मा की रक्षा नहीं कर सकते, सत् शान और सदाचरण ही रक्षा करता है । अतः ज्ञाति और कुल का अभिमान व्यर्थ है। 'न तस्स जाई व कुलं व ताणं, गएणत्थ विज्जाचरणं सुचिएणं णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म, ण से पारए होइ विमोयणाये ॥ 'उत्तराध्ययनसूत्र' के पच्चीसवें अध्ययन में बहुत ही सष्ट रूप से कहा गया है कि ब्राह्मण आदि नाम किसी बाह्य क्रिया पर माश्रित नहीं, अभ्यंतरित गुणों पर आश्रित है। ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये सभी अपने व्य कर्मों के द्वारा अभिहित होते हैं। . 'न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रएणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३१॥ ___ समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्मणो । नाणेण य मुखी होइ, तपेण होइ ताबसो ॥३२॥ काखा चम्मखो होइ, कम्मुणा होइ खतिम्रो । वईसो कम्मणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥३३॥ १.महाभारत में 'उत्तराध्ययन' के समकक्ष ही विचार मिलते हैं। शांतिपर्व, वनपर्व, अनुशासनपर्व भादि में ब्राह्मण किन २ कार्यों से होता है और किन कार्यों को करने से ब्राह्मण शद्र हो जाता है और शुद्र मामण हो जाता है उसकी अच्छी व्याख्या मिलती है। यहाँ उसके दो चार श्लोक ही दिये जाते है: सत्यं दानं क्षमा शीलमानृतं तपो घृणा । दृष्यन्ते पत्र राजेन्द्र स बामण इति स्मृतः॥ शौचेन सततं युक्तः सदाचारसमन्वितः । सानुकोषश्च भूतेषु तद्विजातिषु लक्षणम् ।। न कुभ्येच न प्रहृष्येच मानितोऽमानितश्च यः सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। जीवितं यस्य धर्मार्थ धर्मोहर्यर्थमेव च। अहोरात्राच पुण्यार्थ तं देवा ब्राह्मण विदुः॥ निरामिषमनारंभ निर्नमस्कारमस्तुतिम् । निमुक्तं बंधनैः सर्वैस्तं देवा बाह्मणं विदुः ।। ऐमिस्तु कर्मभिर्देवि सुभेराचरितस्थिता । शद्रो ब्राह्मणता याति वैश्य ब्राह्मणता बजेत् ॥ ऐतै कर्मफले दैवी न्यूनज्ञाति कुलोद्भवः । शद्रोऽप्यागमसम्पषो द्विजो भवति संस्कृतः।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: जैनधर्म में ज्ञाति विशेष का कोई महत्त्व नहीं, उसके कार्य एवं तपविशेष का 'महत्त्व है । इसको स्पष्ट करते . हुये 'उत्तराध्ययनसूत्र' के १२ वें अध्ययन की ३७ वीं गाथा में कहा गया है :'सक्ख खुदीसह तवो विसेसो न दीसई जाइविसेस कोई । ६] सोवागपुत्तं हरिएससाहुँ, जस्सेरिसा इडि महाणुभागा ॥५७॥ उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञातिवादसम्बन्धी जैन विचारधारा का भलीभांति परिचय मिल जाता है । जैनदर्शन का 'कर्मवाद - सिद्धान्त' बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । ईश्वर- कर्तृत्व का विरोधी होने से जैनदर्शन प्राणीमात्र में रही हुई विभिन्नता का कारण उनके किये हुये शुभाशुभ कर्मों को ही मानता है । कर्म- सिद्धान्त के सम्बन्ध में जितना विशाल जैन साहित्य है, संसार भर के किसी भी दार्शनिक साहित्य में वैसा नहीं मिलेगा । जैनदर्शन में कर्मों का वर्गीकरण आठ नामों से किया गया है। कर्म तो असंख्य हैं और उनके फल भी अनन्त हैं । पर साधारण मनुष्य इतनी सूक्ष्मता में जा नहीं सकता, अतः कर्मसिद्धान्त को बुद्धिगम्य बनाने के लिये उसके स्थूल आठ भेद कर दिये गये हैं, जिनमें गोत्रकर्म सातवां है । इसके दो भेद उच्च और नीच माने गये हैं। और उनमें से उन दोनों के आवान्तर आठ-आठ भेद हैं। यहां गोत्र की उच्चता नीचता का सम्बन्ध ज्ञाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और रूप इन आठों से सम्बन्धित कहा गया है । अर्थात् — इन आठों बातों में जो उत्तम है वह उच्च गोत्र का और अधम है वह नीच गोत्र का होता है । पर गोत्र के उच्चारण का अभिमान करने वाला अभिमान करने का फल भविष्य में नीच गोत्र पाता बतलाया गया है । इसलिये ज्ञाति, कुल और गोत्र का मद जैनधर्म में सर्वथा त्याज्य बतलाया गया है । कहा गया है ऐसी कोई ज्ञाति, योनि और कुल नहीं जिसमें इस जीव ने जन्म धारण नहीं किया हो । उच्च और नीच गोत्र में प्रत्येक जीव अनेक बार जन्मा है । इसलिये इनमें शक्ति और अभिमान करना अयोग्य है एवं उच्च और नीच गोत्र की प्राप्ति से रुष्ट और तुष्ट भी नहीं होना चाहिए । इतिहाससम्बन्धी जैनविचारधारा की कुछ झांकी देने के पश्चात् अब जैनागमों में ज्ञाति, कुल और गोत्रों के सम्बन्ध में जो कुछ उल्लेख मेरे अवलोकन में श्राये हैं, उन्हें यहां दे दिये जा रहे हैं। साथ ही इन शब्दों के सम्बन्ध में भी स्पष्टीकरण कर दिया जा रहा है । किसी भी व्यक्ति की पहिचान उसके ज्ञाति, कुल, गोत्र एवं नाम के द्वारा की जाती है । 'ज्ञाति' शब्द का उद्गम 'जन्म' से है और उसका सम्बन्ध मातृ-पक्ष से माना गया है। जन्म से सम्बन्धित होने के कारण यह शब्द २. महाभारत में भी कहा है : शूद्रोऽपि शीलसम्पन्न गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शुद्रादप्यधमोऽभवत् ॥ शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम् । क्षत्रियाज्जातमेवं ही विद्याद्वैश्यान्त्यजस्तथैव च ॥ इस सम्बन्ध में ब्राह्मणग्रंथों के अन्य मंतव्यों को जानने के लिये 'भारतवर्ष में ज्ञाति-भेद' नामक ग्रंथ के पृ० १४, ३५, ३६, ५३ आदि देखने चाहिए। यह ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देता है । श्राचार्य क्षितिमोहनसेन ने इसको लिखा है । 'अभिनव भारतीय ग्रंथमाला' नं० १७१६०. हरिसंन रोड, कलकत्ता से प्राप्य है । 'आचारांगसूत्र' के द्वितीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक का सूत्र १, २, ३ . ३. जननः ज्ञातिः जायन्ते जन्तवो अस्यामिति ज्ञातिः (अभिधान - राजेन्द्रकोष) ४. ज्ञातिर्गुणवान् मातृकत्वं (स्थानांगसूत्रवृत्ति) । मातृसमुत्था ज्ञातिरिति (सूत्रकृतांग) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: भूमिका अत्यन्त प्राचीन ज्ञात होता है । ज्ञाति के बाद कुल और उसके बाद गोत्र और तदनन्तर नाम का स्थान है। ज्ञाति समुच्चयवादी है। कुल, गोत्र एवं नाम उसके क्रमशः छोटे छोटे भेद-प्रभेद हैं। ज्ञाति का पश्चात्वर्ती शब्द 'कुल' है और उसको पितृ-पक्ष' से सम्बन्धित बतलाया गया है । मूलतः मानव सभी एक हैं, इसलिये समुच्चय की दृष्टि से उसे मनुष्यज्ञाति कहा जाता है। कुल की उत्पत्ति जैनागमों के अनुसार सर्वप्रथम प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से हुई । 'वसुदेव-हिन्डी' नामक प्राचीन जैन कथाग्रंथ में भगवान् ऋषभदेव का चरित्र वर्णित करते हुए कहा गया है कि जब ऋषभकुमार एक वर्ष के हुये तो इन्द्र वामन का रूप धारण कर ईक्षुओं का भार लेकर नाभि कुलकर के पास आये। ऋषभकुमार ने ईक्षुदण्ड को लेने के लिये अपना दाहिना हाथ लम्बा किया। उससे इन्द्र ने उनकी इच्छा ईक्षु के खाने की जान कर उनके वंश का नाम 'ईक्ष्वाकु' रक्खा । फिर ऋषभदेव ने राज्यप्राप्ति के समय अपने आत्मरक्षकों का कुल 'उग्र', भोग-प्रेमी व्यक्तियों का कुल 'भोग', समवयस्क मित्रों का कुल 'राजन्य' और आज्ञाकारी सेवकों का कुल 'नाग' इस प्रकार चार कुलों की स्थापना की। जैनागम 'स्थानाङ्ग' के छठे स्थान में छः प्रकार के कुलों को आर्य बतलाया है। उग्र, भोग, राजन्य, ईस्वाकु, ज्ञात और कौरव यथाः ____ 'छव्विहा कुलारिया मणुस्सा पन्नत्ता तंजहा उग्गा, भोगा, राइन्ना, इक्खागा, नाया, कोरवा' (सूत्र ३५) इसी स्त्र में छःही प्रकार की ज्ञाति आर्य बतलायी गयी है । अम्बष्ठ, कलिन्द, विदेह, विदेहगा, हरिता, चंचुणा ये छः इभ्य ज्ञातिया हैं : 'व्विहा जाइ अरिया मणुस्सा पन्नत्ता तंजहा=अम्बट्ठा, कलिन्दा, विदेहा, वेदिहगाइया, हरिया, चंचुणा भेदछव्विया इब्भ जाइओ' (सूत्र ३४) ___ 'वसुदेवहिन्डी' में समुद्रविजय और उग्रसेन के पूर्वजों की परम्परा बतलाते हुये 'हरिवंश' की उत्पत्ति का प्रसंग संक्षेप से दिया है । उसके अनुसार हरिवर्षक्षेत्र से युगलिक हरि और हरणी को उनके शत्रु वीरक नामक देव ने चम्पानगरी के ईक्ष्वाकुकुलीन राजा चन्द्रकीर्ति के पुत्रहीन अवस्था में मरजाने पर उनके उत्तराधिकारी रूप में स्थापित किया । उस हरि राजा की संतान 'हरिवंशी' कहलायी। 'कल्पसूत्र' में चौवीस तीर्थङ्करों के कुलों का उल्लेख करते हुये इक्कीस तीर्थङ्कर ईक्ष्वाकुकुल में और काश्यपगोत्र में उत्पन्न हुये। दो तीर्थङ्कर हरिवंशकुल में और गौतमगोत्र में उत्पन्न हुये । तदनन्तर भगवान् महावीर स्वामी नाय (ज्ञात) कुल में उत्पन्न हुये। उनका गोत्र अवतरण के समय उनके पिता ऋषभदत्त ब्राह्मण का कोडालसगोत्र और उनकी माता देवानन्दा का जालंधरगोत्र बतलाया है। तदनन्तर गर्भापहरण के प्रसंग में इन्द्र ने कहा है कि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव उग्न, भोग, राजन्य, ईक्ष्वाकु, क्षत्रिय, हरिवंश इन कुलों में हुआ करते हैं; क्योंकि ये विशुद्ध ज्ञाति, कुल, वंश माने गये हैं । वे अंतकुल, पंतकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षुककुल, ५. पैतृके पक्षे नि० कुलं पेयं माइया जाई (उत्तराध्ययन) गुणवत् पितृकत्वे (स्थानांगवृत्ति) ६. महाभारत में लिखा है : एकवर्णमिदं पूर्व विश्वमासीयुधिष्ठिरः । कर्मक्रियाविशेषेण चातुवर्य प्रतिष्ठितम् ॥ सवै योनिजा मा सर्वे मूत्रपरिषिणः। एकद्वयेन्द्रियार्थास्थ तस्मादशीलगुणो द्विजः।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: रुपणकल और ब्राह्मणकूलों में उत्पन्न नहीं होते। फिर इन्द्र के आदेश से हरणिगमेशी देव गर्भरूप महावीर को काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ और सिद्धार्थ की पत्नी वाशिष्ठ गोत्र की त्रिशला की कुक्षी में संक्रमण करता है। यहां तीर्थङ्करों के कल के नामों के साथ उनके गोत्र का भी उल्लेख मिलता है। इससे उस समय 'गोत्र' भी बहुत महत्त्व का स्थान पा गया था स्पष्ट है। प्रभावशाली व्यक्तिविशेष की संतान का गोत्र उसके पूर्वज के नाम से प्रसिद्ध होता है । जैसे वशिष्ठ ऋषि की संतान को वाशिष्ठ गोत्र की संज्ञा मिली । 'स्थानाङ्ग' सूत्र के अनुसार मूल गोत्र सात थे। काश्यप, गौतम, वत्स, कुत्स, कौशिक, मण्डप और वाशिष्ठ । फिर क्रमशः एक-एक गोत्र में अनेक विशिष्ट व्यक्ति हुये, जिनकी संतति का गोत्र उनके नाम से प्रसिद्ध हुआ। 'स्थानाङ्ग' में उपर्युक्त सात गोत्रों में से प्रत्येक के सात २ भेद बतलाये गये हैं । मूलपाठ इस प्रकार है : 'सत्च मूल गोता पन्नत्ता तंजहा:-कासवा, गोयमा, वत्था, कोत्था, कोसिया, मंडवां, वसिट्ठा ।' 'जे कासवा ते सत्त विहा पनसा तंजहाः–ते कासवा, ते सण्डेला, ते गोल्ला, ते वाला, ते मुंजतिणो, ते पव्वपेच्छतिणो, ते वरिसकराहा । जे गोयमा ते सच विहा पन्नता तंजहा:-ते गोयमा, ते गग्गा, ते भारदा, ते अङ्गिरसा, ते सकराभा, ते भक्खराभा, ते उदगत्ताभा। ___ जे वत्था ते सत्त विहा पन्नत्ता तंजहा:-ते वत्था, ते अग्गेया, ते मित्तिया, ते सामिलिणो, ते सेलयया, ते अडिसेणा, ते वीयकएहा। जे कुत्था ते सत्त विहा पनचा तंजहा:-ते कुत्था, ते मुग्गलायणा, ते पिंगलायणा, ते कीडीणा, ते मण्डलिणो, ते हारिया, ते सोमया । __जे कोसिया ते सत्त विहा पन्नत्ता तंजहा:-ते कोसिया, ते कच्चायणा, ते सालंकायणा, ते गोलीकायणा, ते परिककायणा, अगिचा, ते लोहिच्चा । जे मण्डवा ते सत्त विहा पत्रचा तंजहा:-ते मण्डवा, ते अरिट्ठा, ते समुचा, ते तेला, ते एलावच्चा, ते कंडिल्ला, ते क्खायणा। जे वासिट्ठा ते सत्त विहा पन्नत्ता तंजहा:-ते वासिट्ठा, ते उंजायणा, ते जारुकण्हा, ते वग्यावच्चा, ते कोडिन्ना, ते सएिण. ते पारासरा आर्थात मल गोत्र सात है। काश्यप, गोतम, वत्स, कत्स, कौशिक, मण्डप और वाशिष्ठ । काश्यप के सात भेद हैं:-काश्यप, साण्डिन्य, गोल, वाल, मुञ्ज, पर्वत, वरिसकृष्ण । गौतम गोत्र के सात भेद हैं:-गौतम, गर्ग, भारद्वाज, अंगीरस, सरकराम, भाष्कराभ, उदनाम । वत्स गोत्र के सात भेद हैं:-वत्स, अंगीय, मित्तिय, सामलिण, सेलवय, अस्थिसेन, वायुकृष्ण । कुत्स के सात भेद हैं:-कुत्स, मोदगलायन, पिंगतण, कोडिन्न, मण्डलिक, हारित, सोमक । कौशिक के सात भेद हैं:-कौशिक, कात्यायन, सालंकायन, गोलिकायन, परिकंकायन, अगत्या, लोहित्य। मण्डप गोत्र के सात भेद हैं:-मण्डप, आरिष्ठ, संमुत, भेला, ऐलापत्य, कंतेल, खामण । वाशिष्ठ गोत्र के सात भेद हैं:-वाशिष्ठ, उंजायन, जारुकृष्ण, व्याघ्रापत्या, कोडिन्य, सत्ति, पारासर । ७. गोत्राणि तथा विधौ कैक पुरुष प्रभवा मनुष्यसंताना उत्तर गोत्रा पेक्षया मुलभूतानि आदि भूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि । गोतमस्यापत्यानि गौतमाः वत्सस्यापत्यानि वत्साः वशिष्ठस्यापत्यानि वाशिष्ठाः (स्थानाङ्गटीका Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भूमिका इन में से कुछ तो बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और उनका उन्लेख 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली और 'जम्बूदीपपन्नत्ति' में मिल जाता है; पर कुछ गोत्रों का उल्लेख नहीं मिलता । अतः वे कम ही प्रसिद्ध रहे प्रतीत होते हैं। जैनेतर ग्रंथों में भी इन गोत्रों और उनसे निशृत शाखा और प्रवरों संबंधी साहित्य विशाल है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी गोत्रों के नाम मिलते हैं । अतः ऊपर दी हुई सूची में जो नाम अस्पष्ट हैं, उनके शुद्ध नाम का निर्णय जैनेतर साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से हो सकता है। 'कल्पसूत्र' में चौवीस तीर्थङ्करों के कुछ के साथ जो गोत्रों के नाम दिये हैं। उनसे एक महत्त्वपूर्ण वैदिक प्रवाद का समर्थन होता है । तीर्थकर सभी क्षत्रियवंश में हुए; पर उनके गोत्र ब्राह्मण ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध जो ब्राह्मणों के थे, वे ही इन क्षत्रियों के भी थे। इससे राजाओं के मान्य गुरुमों और ऋषियों के नाम से उनका भी गोत्र वही प्रसिद्ध हुआ ज्ञात होता है। जैसा कि पहिले कहा गया है भारतवर्ष में प्राचीन काल से गोत्रों का बड़ा भारी महत्त्व चला आता है । जैनागमों से भी इस की भलीभांति पुष्टि हो जाती है। 'जम्बूदीपपन्नचिस्त्र' से इन गोत्रों के महत्व का एक महत्वपूर्ण निर्देश मिल जाता है । वहाँ अठाईस नक्षत्रों के भी भिन्न-भिन्न गोत्र बतलाये हैं । जैसे:नक्षत्र-नाम गोत्र-नाम नक्षत्र-नाम गोत्र-नाम १ अभिजित मोद्गल्यायन १५ पुष्यका अवमज्जायन २ श्रवण सांख्यायन १६ अश्लेखा माण्डव्यायन ३ धनिष्ठा अग्रभाव १७ मघा पिंगायन ४ शतभिषक् करिणलायन १८ पूर्व फाल्गुनी गोवल्लायन ५ पूर्वभद्रपद जातुकरण १६ उत्तरा फाल्गुनी काश्यप ६ उत्तराभद्रपद धनंजय २० हस्त कौशिक ७ रेवती पुष्पायन २१ चित्रा दार्भायन ८ अश्विनी आश्वायन २२ स्वाति चामरच्छायन ह भरणी भार्गवेश २३ विशाखा शृङ्गायन १. कृत्तिका अग्निवेश - २४ अनुराधा गोवल्यायन ११ रोहिणी गौतम . २५ ज्येष्ठा चिकत्सायन १२ मृगशिर- भारद्वाज २६ मूला कात्यायन १३ पार्दा लोहित्यायन २७ पूर्वाषाढ़ा बाभ्रव्यायन १४ पुनर्वसु वशिष्ठ २८ उत्तराषाढ़ा व्याघ्रापत्य (नचत्राधिकार) उपयुक्त सूची में कुछ गोत्रों के नाम तो वे ही हैं, जो 'स्थानाङ्गसूत्र' के साथ में अध्ययन में आये हैं और कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो वहाँ दी गई ४६ गोत्रों की नामावली में नहीं आये हैं। इससे गोत्रों की विपुलता का पता चलता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वोट-इतिहास: गोत्रों का महत्त्व उस काल में अधिक था यह जैनसूत्रों के अन्य उल्लेखों से भी अत्यन्त स्पष्ट है । 'भावश्यक-नियुक्ति की ३८१ गाथा में लिखा है कि चौबीस तीर्थंकरों में से मुनीसुव्रत और अरिष्टनेमि गौतमगोत्र के थे और अन्य सब काश्यपगोत्र के थे । बारह चक्रवर्ती सभी काश्यपगोत्र के थे । वासुदेव और बलदेवों में आठ गौतमगोत्र के थे, केवल लक्ष्मण और राम काश्यपगोत्र के थे। वीरनिर्वाण के ६८० वर्ष में जैनागम लिपिबद्ध हुये । उस समय तक के युगप्रथान प्राचार्यों एवं स्थविरों के नामों के साथ भी गोत्रों का उल्लेख किया जाना तत्कालीन गोत्रों के महत्व को और भी स्पष्ट करता है। छट्ठी शताब्दी तक तो इन प्राचीन गोत्रों का ही व्यवहार होता रहा यह कल्पसूत्र' की स्थविरावली से भलीभांति सिद्ध हो जाता है । स्थविरावली में पाये जाने वाले गोत्रों के नाम और उन गोत्रों में होने वाले आचार्यों का विवरण नीचे दिया जा रहा है। गोत्रों के नाम आचार्यों के नाम गोत्रों के नाम आचार्यों के नाम १ गौतम इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति तुंगियायन यशोभद्र. अकंप, स्थूलीभद्र, आर्यदिन्न, १० मादर संभूतिविजय, आर्यशांति, विष्ण, वज्र, फाल्गुमित्र, नाग, कालाक, देशीगणि सम्पिल,भद्र,वृद्ध, संगपालि आदि ११ प्राचीन भद्रबाहु. २ भारद्वाज व्यक्त और भद्रयश १२ ऐलापत्य आर्य महागिरि. ३ अग्निवैश्यायन सौधर्म १३ व्याघ्रापत्य सुस्थित, सुप्रतिबद्ध. ४ वाशिष्ठ मण्डित, आर्य सुहस्ति, धनगिरि, १४ कुत्स शिवभूति. जेहिल, गोदास. १५ कौशिक आर्य इन्द्रदिन्न, सिंहगिरि और ५ काश्यप मौर्यपुत्र, जम्बू, सोमदत्त, रोहण, रोहगुप्त ऋषिगुप्त,विद्याधर गोपाल, आर्य- १६ कोडाल कामर्थि भद्र, आर्यनक्षत्र, रक्ष, हस्ति, १७ उत्कौशिक वज्रसेन सिंह, धर्म, देवधि, नन्दिनीपिता, १८ सुव्रत या श्रावक आर्यधर्म ६ हरितायन अचलभ्राता, कौडिन्य, मेतार्य १६ हरित श्रीगुप्त और प्रभाष. २० स्वाति सायिं सामज्जम् (नंदिसूत्र) ७ कात्यायन प्रभव. २१ सांडिल्य आर्य जीतधर (नंदि-स्थविरावली ८ वत्स सय्यंभव, आर्यरथ. गा० २६). यहां यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि छट्ठी शताब्दी के प्रारम्भ तक वर्तमान जैन ज्ञातियों और उनके गोत्रों में से किसी एक का भी नाम नहीं है। यदि उस समय तक वर्तमान जैनज्ञातियों की स्थापना स्वतंत्र वर्तमान जैन श्वे. ज्ञातियाँ रूप से हो चुकी होती तो उनमें से किसी भी ज्ञाति के गोत्रवाला तो जैन मुनिव्रत अवश्य और उनकी स्थापना स्वीकार करता और उस प्रसंग से उपर्युक्त स्थविरावली में उसके नाम के साथ वर्तमान जैन ज्ञातियों में से किसी का उल्लेख तो अवश्य रहता। इसलिये वर्तमान जैन ज्ञातियों की स्थापना छट्ठी शताब्दी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:: भूमिका:: के बाद ही हुई है यह सुनिश्चित है । जैसा की आगे अन्य प्रमाण व विचारों को उपस्थित करते हुये मैं बतलाऊंगा कि वर्तमान श्वेताम्बर जैन ज्ञातियों में श्रीमाल, पौरवाड़, ओसवाल ये तीन प्रधान हैं । इनके वंशस्थापना का समय आठवीं शताब्दी का होना चाहिए। मेरे उपर्युक्त मन्तव्य की कतिपय आधारभूत बातें इस प्रकार हैं:___ मुनिजिनविजयजीसंपादित एवं सिंघी-जैनग्रंथमाला से प्रकाशित 'जैनपुस्तक-प्रशस्तिसंग्रह' की नं० ३५ की संवत् १३६५ की लिखित 'कल्पसूत्र-कालिकाचार्यकथा' की प्रशस्ति में निम्नोक्त श्लोक आता है : ___ 'श्रीमालवंशोऽस्ति .......... 'विशालकीर्तिः श्री शांतिसूरि प्रतिबोधितडीडकाख्यः । श्री विक्रमाद्वेदन भर्महर्षि वत्सरे श्री आदिचैत्यकारापित नवहरे च (1) ॥१॥ अर्थात् श्रीमालवंश के श्रावक डीडाने जिसने कि शांतिसूरि द्वारा जैनधर्म का प्रतिबोध पाया था, संवत् ७०४ में नवहर में आदिनाथचैत्य बनाया। __'जैन साहित्य-संशोधक' एवं 'जैनाचार्य आत्माराम-शताब्दी-स्मारकग्रंथ' में श्रीमालज्ञाति की एक प्राचीन वंशावली प्रकाशित हुई है । उपरोक्त वंशावलियों में यह सब से प्राचीन है। इसके प्रारम्भ में ही लिखा है :___'अथ भारद्वाजगोत्रे संवत् ७६५ वर्षे प्रतिबोधित श्रीश्रीमालज्ञातीय श्री शांतिनाथ गोष्ठिकः श्रीभित्रमालनगरे भारद्वायगोत्रे श्रेष्ठि तोड़ा तेनो वास पूर्वलि पोली, भट्टनै पाड़ी कोड़ी पांचनो व्यवहारियो तेहनी गोत्रजा अम्बाई...............। उपर्युक्त दोनों प्रमाणों से आठवीं शताब्दी में जिन श्रावकों को जैनधर्म में प्रतिबोधित किया गया था, उनका उल्लेख है । जहाँ तक जैनसाहित्य का मैंने अनुशीलन किया है भिन्नमाल में जैनाचार्यों के पधारने एवं जैन धर्म-प्रचार करने का सबसे प्रथम प्रामाणिक उल्लेख 'कुवलयमाला' की प्रशस्ति में मिलता है। 'तस्स वि सिस्सो पयड़ो महाकई देवउत्तणामो ति।' .............."सिवचन्द गणी य मयहरा त्ति (१) ॥२॥ अर्थात् महाकवि देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्रगणि जिनवन्दन के हेतु श्रीमालनगर में आकर स्थित हुये । प्रशस्ति की पूर्व गाथाओं के अनुसार यह पंजाब की ओर से इधर पधारे होंगे। उनके शिष्य यक्षदत्तगणि हुये, जिनके लब्धिसम्पन्न अनेक शिष्य हुये । जिन्होंने जैनमन्दिरों से गूर्जरदेश को (श्रीमालप्रदेश भी उस समय गुजरात की संज्ञा प्राप्त था ) सुशोभित किया । 'कुवलयमाला' की रचना संवत् ८३५ में जालोर में हुई है। उसके अनुसार शिवचन्द्रगणि का समय संवत् ७०० के लगभग का पड़ता है । इससे पूर्व श्रीमालनगर को जैनों की दृष्टि से प्रभास, प्रयाग और केदारक्षेत्र की भांति कुतीर्थ बतलाया गया है। 'निषिद्धचूर्णी' में इसका स्पष्ट उल्लेख है। इसलिये इससे पूर्व यहां वैदिक धर्मवालों का ही प्राबल्य होना चाहिए । यदि जैनधर्म का प्रचार भी उस समय वहां होता तो श्रीमालनगर को कुतीर्थ बतलाना वहां संभव नहीं था। ___ वर्तमान श्वेताम्बर जैन ज्ञातियों में से श्रीमाल, पौरवाड़ और ओसवाल तीनों का उत्पत्तिस्थान राजस्थान है और उसमें भी श्रीमालनगर इन तीनों ज्ञातियों की उत्पत्ति का केन्द्रस्थान है। सब से पहिले श्रीमालनगर में जिन्हें Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] प्राग्वाट-इतिहास:: जैनधर्म का प्रतिबोध दिया गया वे श्रावक दूसरे स्थान वाले श्रावकों द्वारा 'श्रीमालज्ञातिवाले' के रूप में प्रसिद्ध हुये। नौवीं शताब्दी में गुजरात के पाटण का साम्राज्य स्थापित हुआ। उसके स्थापक वनराज चावड़ा के गुरु जैनाचार्य शीलगुणसूरि थे। वनराज चावड़ा के राज्यस्थापना और अभिवृद्धि का श्रेय श्रीमद् शीलगुणसूरि को ही है। जैनों का प्रभाव इसलिये प्रारंभ से ही पाटण के राज्यशासन में रहा । नौवीं शताब्दी से ही श्रीमाल और पौरवाड़ के कई खानदान उस ओर जाने प्रारंभ होते हैं। इसमें कई वंश शासन की बागडोर को संभालने में अपनी निपुणता दिखाते हैं और व्यापारादि करके समृद्धि प्राप्त करते हैं। हां तो श्रीमाल, पौरवाड़ और ओसवालों में सब से पहिले श्रीमाल श्रीमालनगर के नाम से प्रसिद्ध हुये । उस बगर के पूर्व दरवाजे के पास बसने वाले जब जैनधर्म का प्रतिबोध पाये तो पाग्वाट या पौरवालज्ञाति प्रसिद्ध हुई और भीमालनगर के एक राजकुमार ने अपने पिता से रुष्ट हो कर उएसनगर बसाया और ऊहड़ नाम का व्यापारी मी राजकुमार के साथ गया था। उस नगरी में रत्नप्रभसूरिजी ने पधार कर जैनधर्म का प्रचार किया। उनके प्रतिबोधित श्रावक उस नगर के नाम से 'उऐसवंशी-उपकेशवंशी-ओसवंशी' कहलाये। पोरवालों एवं ओसवालों की कुछ प्राचीन वंशावलियां मैंने सिरोही के कुलगुरुजी के पास देखी थीं। उन सभी में मुझे जिस गोत्र की वे वंशावलियां थीं, उन गोत्रों की स्थापना व जैनधर्म प्रतिबोध पाने का समय ७२३, ७५०६० ऐसे ही संवतों का मिला। इससे भी वर्तमान जैनज्ञातियों की स्थापना का समय आठवीं शताब्दी होने की पुष्टि मिलती है । पंडित हीरालाल हंसराज के ‘जैन गोत्र-संग्रह' में लिखा है कि संवत् ७२३ मार्गशिर शु० १० गुरुवार को विजयवंत राजा ने जैनधर्म स्वीकार किया, संवत् ७६५ में बासठ सेठों को जैन बनाकर श्रीमाली जैन बनाये, संवत् ७६५ के फाल्गुण शु० २ को आठ श्रेष्ठियों को प्रतिबोध दे कर पौरवाड़ बनाये । यद्यपि ये उल्लेख घटना के बहुत पीछे के हैं, फिर भी आठवीं शताब्दी में श्रीमाल और पौरवाड़ बने इस अनुश्रुति के समर्थक हैं। अभी मुझे स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाई के संग्रह से उपकेशगच्छ की एक शाखा 'द्विवंदनीक' के प्राचार्यों के इतिवृत्तसंबंधी 'पांच-पाट-रास' कवि उदयरत्नरचित मिला है। उसमें 'द्विवंदनीकगच्छ' का संबंध लब्धिरत्न से पूछने पर जो पाया गया, वह इन शब्दों में उद्धृत किया गया है। 'सीधपुरीइं पोहता स्वामी, वीरजी अंतरजामी, गोतम आदे गहूगाट, बीच माहे वही गया पाट । वीस ऊपरे पाठ, बाधी धरमनो बाट, श्री रहवी (रत्न) प्रभु सूरिश्वर राजे, आचारज पद छाजे ॥ श्री रत्नप्रभमुरिराय केशीना केड़वाय, सात से संका ने समय रे श्रीमालनगर सनूर । श्री श्रीमाली थापिया रे, महालक्ष्मी हजूर, नउ हजा घर नातीनां रे श्री रत्नप्रभुसूरि ।। थिर महूरत करी थापना रे, उल्लट घरी ने उर, बड़ा क्षत्री ते भला रे, नहीं कारड़ियो कोय । पहेलु तीलक श्रीमाल ने रे, सिगली नाते होय, महालक्ष्मी कुलदेवता रे, श्रीमाली संस्थान ।। श्री श्रीमाली नातीनां रे, जानें विसवा बीस, पूरब दिस थाप्यां ते रे पौरवाड़ कहवाय । ते राजाना ते समय रे, लघु बंधव इक जाय, उवेसवासी रहयो रे, तिणे उवेसापुर होय ॥ ओसवाल तिहां थापिया रे, सवा लाख घर जोय, पोरवाड़कुल अंबिका रे, ओसवाला सचीया व । उपर्युक्त उद्धरण से सात सौ शेके में रत्नप्रभसरि श्रीमालनगर में आये। उन्होंने श्रीमालज्ञाति की स्थापना की। पूर्व दिशा की ओर स्थापित पौरवाड़ कहलाये। राजा के लघु बांधव ने उऐसापुर बसाया । वहां से Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: भूमिका: [ १३ ओसवंश की स्थापना हुई । श्रीमालवंश की कुलदेवी महालक्ष्मी, पौरवाड़ों की अंबिका और मोसवालों की सचिया देवी मानी गई। ऊपर जिस प्राचीन वंशावली का उद्धरण दिया है, उसमें श्रेष्ठि टोड़ा का निवासस्थान पूर्वली पोली और गोत्रजा अंबाई लिखा है, इससे वे पौरवाड़ प्रतीत होते हैं। ___ उपर्युक्त सभी उद्धरणों में एक ही स्वर गुंजायमान है, जो आठवीं शताब्दी में वर्तमान जैनज्ञातियों की स्थापना को पुष्ट करते हैं। राजपुत्रों की श्राधुनिक ज्ञातियां और वैश्यों की अन्य ज्ञातियों के नामकरण का समय भी विद्वानों की राय में आठवीं शती के लगभग का ही है। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने अपने 'मध्ययुगीन भारत' में लिखा है, 'विक्रम की आठवीं शताब्दी तक ब्राह्मण और क्षत्रियों के समान वैश्यों की सारे भारत में एक ही ज्ञाति थी। ___ श्री सत्यकेतु विद्यालंकार क्षत्रियों की ज्ञातियों के संबन्ध में अपने 'अग्रवालज्ञाति के प्राचीन इतिहास' के पृ० २२८ पर लिखते हैं, 'भारतीय इतिहास में आठवीं सदी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की सदी है। इस काल में भारत की राजनैतिक शक्ति प्रधानतया उन ज्ञातियों के हाथ में चली गई, जिन्हें आजकल राजपुत्र कहा जाता है । भारत के पुराने व राजनैतिक शक्तियों का इस समय प्रायः लोप हो गया। पुराने मौर्य, पांचाल, अंधकवृष्णि, क्षत्रिय भोज आदि राजकुलों का नाम अब सर्वथा लुप्त हो गया और उनके स्थान पर चौहान, राठौर, परमार आदि नये राजकुलों की शक्ति प्रकट हुई ।' स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर ने भी प्रोसवालवंश की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि, 'वीरनिर्वाण के ७० वर्ष में प्रोसवाल-समाज की सष्टि को किंवदन्ती असंभव-सी प्रतीत होती है ।' 'जैसलमेर-जैन-लेख-संग्रह' की भूमिका के पृ० २५ में 'संवत् पांच सौ के पश्चात् और एक हजार से पूर्व किसी समय उपकेश (ओसवाल) ज्ञाति की उत्पत्ति हुई होगी' ऐसा अपना मत प्रकट किया है। ग्यारहवीं शताब्दी के पहिले का प्रामाणिक उल्लेख एक भी ऐसा नहीं मिला, जिसमें कहीं भी श्रीमाल, प्राग्वाट और उपकेशवंश का नाम मिलता हो। बारहवीं, तेरहवीं शताब्दियों की प्रशस्तियों में इन वंशों के जिन व्यक्तियों के नामों से वंशावलियों का प्रारम्भ किया है, उनके समय की पहुँच भी नवमीं शताब्दी के पूर्व नहीं पहुँचती । इसी प्रकार तेरहवीं शताब्दी के उल्लेखों में केवल वंशों का ही उल्लेख है, उनके गोत्रों का नाम-निर्देश नहीं मिलता । तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी के उल्लेखों में भी गोत्रों का निर्देश अत्यल्प है। अतः इन शताब्दियों तक गोत्रों का नामकरण और प्रसिद्धि भी बहुत ही कम प्रसिद्ध हुई प्रतीत होती है । इस समस्या पर विचार करने पर भी इन ज्ञातियों की स्थापना आठवीं शताब्दी के पहिले की नहीं मानी जा सकती। इन ज्ञातियों की स्थापना वीरात् ८४ श्रादि में होने का प्रामाणिक उल्लेख सबसे पहिले संवत् १३१३ में रचित 'उपकेशगच्छप्रबन्ध' और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध' में मिलता है । स्थापनासमय से ये ग्रंथ बहुत पीछे के बने हैं, अतः इनके बतलाये हुये समय की प्रामाणिकता जहां तक अन्य प्राचीन साधन उपलब्ध नहीं हों, मान्य नहीं की जा सकती । कुलगुरु और भाटलोग कहीं-कहीं २२२ का संवत् बतलाते हैं। पर वह भी मूल वस्तु को भूल जाने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाद-इतिहास: पर एक गोलमगोल बात कह देने भर ही है। यदि इन ज्ञातियों की उत्पत्ति का समय इतना प्राचीन होता तो सैंकड़ों वर्षों में इनके गोत्र और शाखा भी बहुत हो गई होती और उनका उल्लेख तेरहवीं शताब्दी तक के ग्रंथादि में नहीं मिलने से वह समय किसी तरह मान्य नहीं हो सकता। __ जहां तक ओसवालज्ञाति का सम्बन्ध है, उसके स्थापक उपकेशगच्छ, उएसनगर का भी जैनसाहित्य में ग्यारहवीं शताब्दी के पहिले का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता । इसी तरह श्रीमाल और पौरवाड़ों का भी प्राचीन साहित्य में उल्लेख नहीं आता। मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने श्रोसवालज्ञाति की स्थापनासंबंधी जितने प्राचीन प्रमाण बतलाये थे, उन सब की भलीभांति परीक्षा करके मैंने अपना 'ओसवालज्ञाति की स्थापनासंबंधी प्राचीन प्रमाणों की परीक्षा' शीर्षक लेख 'तरुण-श्रोसवाल' के जून-जुलाई सन् १६४१ के अंक में प्रकाशित किया था। जिसको बारह वर्ष हो जाने पर भी कोई उत्तर मुनि ज्ञानसुन्दरजी की ओर से नहीं मिला। इससे उन प्रमाणों का खोखलापन पाठक स्वयं विचारलें । - वैश्यों की ज्ञातियों की संख्या चौरासी बतलाई जाती है। पन्द्रहवीं शताब्दी से पहिले के किसी ग्रन्थ में मुझ को उनकी नामावाली देखने को नहीं मिली। जो नामावलियां पन्द्रहवीं से अट्ठारहवीं शताब्दी की मिली हैं, . उनके नामों में पारस्परिक बहुत अधिक गड़बड़ है। पांच चौरासी ज्ञातियों की नामों की बंश्यों की चौरासी ज्ञातिया सूची से हमने जब एक अकारादि सूची बनाई तो उनमें आये हुये नामों की सूची १६० के लगभग पहुँच गई । इनमें से कई नाम तो अशुद्ध हैं और कई का उल्लेख कहीं भी देखने में नहीं आता और कई विचित्र-से हैं । अतः इनमें से छाँट कर जो ठीक लगे उनकी सूची दे रहा हूं। १ अगरवाल १६ करहीया ३१ खटबड़ ४६ गोलावाल २ अच्छतिवाल १७ कलसिया ३२ खड़ाइता ४७ गोलाउड़ ३ अजयमेरा १८ कषेला ३३ खंथड़वाल ४८ घांध ४ अठसखा १६ कण्डोलिया ३४ खंडेरवाल ४६ चापेल ५ अड़लिजा २० कंबोजा ३५ गजउड़ा ५० चिड़करा ६ अवधपुरिया २१ काकड़वाल ३६ गदहीया ५१ चीतोड़ा ७ अष्टवग्री २२ काथोरा ३७ गयवरा ५२ चीलोड़ा ८ अस्थिकी २३ कामगौत ३८ गूजराती ५३ चउसखा ६ अहिछत्रवाल २४ कायस्थ ३६ गूर्जरपोरवाड़ ५४ छवत्राल १० आणंदुरा २५ काला ४० गोखरुमा ५५ छापणिया ११ उमवाल २६ कुंकन ४१ गोडिणा ५६ छःसखा १२ कथकटिया २७ कुण्डलपुरी ४२ गोमित्री ५७ जालहा १३ कठिणुरा २८ कुंबड़ ४३ गोरीवाड़ ५८ जांगड़ा १४ कपोल २६ कोरड़वाल ४४ गोलसिंगारा ५६ जाइलवाल १५ करणसिया ३० कोरंटवाल ४५ गोलापूर्व Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ जालेश ६२ जेहराणा ६३ जैनसंगवाल ६४ जैसवाल ६५ डोडू ६६ डीसावाल ६७ तिलोरा ६८ तैलटा ६६ दसोरा ७० दहवड़ ७१ वाहिय ७२ दोसंखा ७३ दोहिल ७४ धाकड़ ७५ धावड़ी ७६ धूमड़ा ७७' नरसिंहउरा ७ नागद्रहा ७ह नागर ८० नांगौरा ८१ नाणावाल ८२. नाईल ८३. निगमाः ८७ पवई ८८ पंचवंश ८४ नीमानी ८५ पद्मावतील ८ पुष्करवाल ६० पूर्वा && पेरूचा ६२ पोरवाड़ ६३ ६४ बघेरवाल ६५ बघरा ६६ बसीड हे बाबर हद वाल्मिकी गृह बीघूँ १०० बुँदोतिया १०१ ब्रह्माणों १०२ मेटनागर १०३ भटेवरा १०४ मड़िया १०५ मीटिंया १०६ मुंगडिया १०७ भूमी १०८ मडालिया * १३ मंडलिया ११४ मायेर ११५ मारव ११६ मुँडेरा ११७ मुवरिया ११८ मेड़तवाल ११.६. मेवाड़ा १२० मोढ़ १२१ राजउरा १२२ रायकड़ों १२३] रातवाल १३४ शेतक १२५ लाड़सिखा १२६ लाड १२७ लाई श्री श्रीमाली १२८ लूवेची १२ह लौहाणा १३० लोगा १३१ वेलहीया १३२ बागड़ १'३३ वीर्यड़ा १३४ वांगलीय १३५ वैसु १३६ वोपड़ी १३७ श्रवणपगा १३६ श्रीमाल १४० श्रीश्रीमाल १४१ सत्याग १४२. सरसईया १४३ सहला १४४ सहसरड़ा १४५ सहिलवाल १.४६ साचुरा १४७ सामुरा १४८ साण्डेरा १४६ सौंदरा १५० सौरोहियाँ १५१ सोहरा १५२ सुहड़वाल १५३ सुहवाल १५४ गा १५५ सेरिया १५६ सोनी १५७ सोरठिया १५८ सोडवाल १५६' हरसुरा १६०० हार्लर १६१. लॅम्बड [२५ १०६ मडाहटा ११० मंडोव १११ मड़केसरा ८६ पल्लीवाल ११२ माथुर १३८ श्रीगोड़ इन चौरासी ज्ञातियों के नामों पर दृष्टिपात करने पर इनका नामकरण स्थानों के नाम से हुआ सिद्ध होता है । 'विमलप्रबंध यादि में वैश्यों की साड़ी बारह नात की गाथा इस प्रकार है :-- श्री श्रीमाला, उएसा क्लीनमिण तहाँ मेडते, विश्वेरा, डिंड्या, खण्ड्या, तद नगरा । हरिसउरा, जाईल्ला, पुष्कर तह डिडियड़ा, खण्डिलवाल श्रद्धय वारस जाई हातें ॥ इनमें खण्डेलवालों की आधी ज्ञाति मानने का कारण स्पष्ट नहीं है। यदि इनमें आ जैन और माथे जैनेतरु दो भेद मान कर चलें तो भी विश्वेश, खमुद्रा यादि ज्ञातियों का जैन होने का कोई प्रमारी नहीं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] :: प्राग्वाट - इतिहास :: चौरासी जैन ज्ञातियों के संबंध में सौभाग्यनंदिरि का संवत् १५७८ में रचित 'विमल - चरित्र' बहुत-सी महत्वपूर्ण सूचनायें देता है । परन्तु उसकी प्रेसकापी मैंने मुनि जिनविजयजी से मंगवा कर देखी तो वह बहुत शुद्ध होने से कुछ बातें अस्पष्ट सी प्रतीत हुई । इसलिये उनकी चर्चा यहां नहीं करता हूँ । उक्त ग्रंथ में दसा-वीसा-भेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी वर्त्तमान मान्यता से भिन्न ही प्रकार का वर्णन मिलता है । इसके अनुसार यह भेद प्राचीन समय से है । किसी बारहवर्षी दुष्काल के समय में अन्नादि नहीं 1 साढ़ी बारह न्यात और दसामिलने से कुछ लोगों का खान-पान एवं व्यवहार दूषित हो गया । सुकाल होने पर भी बीसा भेद वे कुछ बुरी बातों को छोड़ न सके, इसीलिये ज्ञाति उनका स्थान नीचा माना गया और तब से दस बिस्वा और बीस बिस्वा के आधार से लघुशाखा बृहदशाखा प्रसिद्ध हुई । वास्तव में विशेष कारणवश कभी किसी व्यक्ति या समाज में कोई समाजविरुद्ध व अनाचार का दोष आ गया हो उसका दण्ड जैनधर्म के अनुसार शुद्ध धर्माचरण के द्वारा मिल ही जाता है । कल का महान् पापी महान् धर्मात्मा बन सकता है। जैनधर्म कभी भी धर्माचरण के पश्चात् उसको अलग रखने या उसकी संतति को नीचा देखने का समर्थन नहीं करता । इसलिये अब तो इन दसा - बीसा - भेदों की समाप्ति हो ही जानी चाहिए। बहुत समय उनकी संतति ने दण्ड भोग लिया । वास्तव में उनका कोई दोष नहीं । समान धर्मी होने के नाते वे हमारे समान ही धर्म के अधिकारी होने के साथ सामाजिक सुविधाओं के भी अधिकारी हैं । हमारे पूर्वज भी तो पहिले जैसा कि माना जाता है क्षत्रिय आदि विविध ज्ञातियों के थे और उनमें मांस, मदिरादि खान-पान की अशुद्धि थी ही। पर जब हम जैनधर्म के झण्डे के नीचे आ गये तो हमारी पहिले की सारी बातें एवं अनाचार भुलाये जाकर हम सब एक ही हो गये । इसी तरह उदार भावना से हमें अपने तुच्छ भेदों को विसार कर उन्हें स्वधर्मी वात्सल्य का नाता और सामाजिक अधिकार पूर्णरूप से देकर प्रामाणित करना चाहिए। जैनाचार्यों ने नमस्कारमंत्र के मात्र धारक को स्वधर्मी की संज्ञा देते हुये उनके साथ समान व्यवहार करने का उपदेश दिया । अपने पूर्वाचार्यों के उन उपदेशों को श्रवण कर जैनधर्म के आदर्श को अपनाना ही हम सबका कर्त्तव्य है । जैनधर्म में ज्ञातिवादसम्बन्धी क्या विचारधारा थी, किस प्रकार क्रमशः इन ज्ञातियों का तांता बढ़ता चला गया इन सब बातों की चर्चा ऊपर हो चुकी है। उससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूलत: 'ज्ञाति' शब्द ज्ञातिवाद का कुप्रभाव और जन्म से सम्बन्धित था । एक प्रकार के व्यक्तियों के समूहविशेष का सूचक था । उससे जैनेत्तर ग्रंथों में ज्ञातिवाद होते २ यह शब्द बहुत सीमित अर्थ में व्यवहृत होने लगा, जिससे हम आज ज्ञातियों की संज्ञा देते हैं, वे वास्तव में कुल या वंश कहे जाने चाहिए । भारतवर्ष में ज्ञातियों के भेद और उच्चता नीचता का बहुत अधिक प्रचार हुआ । इससे हमारी संघ शक्ति क्षीण हो गई । आपसी मतभेद उग्र बने और उन्हीं के संघर्ष में हमारी शक्ति बरबाद हुई। आज हमें अपने पूर्व अतीत को फिर से याद कर हम सब की एक ही ज्ञाति है इस मूल भावना की ओर पुनरागमन करना होगा । कम से कम ज्ञातिगत उच्चता नीचता स्पर्शास्पर्श की भेदभावना, घृणाभावना और द्वेषवृत्ति का उन्मूलन तो करना ही पड़ेगा । ज्ञातियों और उनके गोत्रों सम्बन्धी जैनेतर साहित्य बहुत विशाल है । जैनसाहित्य में इसके सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य है ही नहीं | इसके कारणों पर विचार करने पर मुझको एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक अंतर का पता चला । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: भूमिका :: [ १७ वह यह है कि वैदिकधर्म में चारों वर्णों' की स्थापना के पश्चात् उनके धार्मिक और सामाजिक अधिकार, आजीविका के धंधे आदि भिन्न २ निश्चित कर दिये गये, इसलिये उनके सामने बार २ यह प्रश्न आने लगा कि यह वर्णव्यवस्था की शुद्धता कैसे टिकी रहे । इसलिये उन्होंने रक्तशुद्धि को महत्त्व दिया और उच्चता नीचता और स्पर्शास्पर्श के विचार प्रबल रूप से रूढ़ हो गये । प्रत्येक व्यक्ति को अपने गोत्र आदि का पूरा स्मरण व विचार रहे; इसीलिये गोत्र शाखाप्रवर आदि की उत्पत्ति, उनके पारस्परिक संबंध आदि के संबंध में बहुत से ग्रंथों में विचार किया गया जब कि जैनधर्म इस मान्यता का विरोधी था । उसमें किसी भी ज्ञाति अथवा वर्ण का हो, उसके धार्मिक अधिकारों में कोई भी अन्तर नहीं माना गया । सामाजिक नियमों में यद्यपि जैनाचार्यों ने विशेष हस्तक्षेप नहीं किया, फिर भी जैनसंस्कृति की छाप तो सामाजिक नियमों पर भी पड़नी अवश्यंभावी थी । आठवीं शताब्दी के लगभग जब जैनाचार्यो ने एक नये क्षेत्र में जैनधर्म को पल्लवित और पुष्पित किया तो नवीन प्रतिबोधित ज्ञातियों का संगठन आवश्यक हो गया । उन्होंने इच्छा से श्रीमाल, पौरवाल और ओसवाल इन भेदों की सृष्टि नहीं की । ये भेद तो मनुष्य के संकुचित 'अहं' के सूचक हैं। इनका नामकरण तो निवासस्थान के पीछे हुआ है । जैनाचार्यों ने तो इन सब में एकता का शंख फूंकने के लिये स्वधर्मी वात्सल्य को ही अपना संदेश बनाया। उन्होंने अपने अनुयायी समस्त जैनों को स्वधर्मी होने के नाते एक ही संगठन में रहने का उपदेश दिया । भेदभाव को उन्होंने कभी प्रोत्साहन नहीं दिया । यह तो मनुष्यों की खुद की कमजोरी थी कि जैनधर्म के उस महान आदर्श एवं पावन सिद्धान्त को वे अपने जीवन में भलीभांति पनपा नहीं सके । पर जब आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के मध्यवर्त्ती जैन इतिहास को टटोलते हैं तो हमें जैनाचाय्य के आचारों में शिथिलता जोरों से बढ़ने लगी का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । उसका मूल कारण उनका जैन चैत्यों में निवास करना था । इसी से यह काल 'चैत्यवास का प्राबल्य' के नाम से जैन इतिहास व साहित्य में प्रसिद्ध हुआ मिलता है । जब जैन मुनि निरन्तर बिहार के महावीर - मार्ग से कुछ दूर हट कर एक ही चैत्य में अपना ममत्व स्थापित कर रहने लगे या लम्बे समय तक एक स्थान पर रहने से ममत्व बढ़ता चला गया; यद्यपि उनका चैत्यावास पहिलेपहिल सकारण ही होगा, मेरी मान्यता के अनुसार जब इन नवीन ज्ञातियों का संगठन हुआ तो इनको जैनधर्म में विशेष स्थिर करने के लिये जैन चैत्यों का निर्माण प्रचुरता से करवाया जाने लगा और निरंतर धार्मिक उपदेश देकर जैन आदर्शों से श्रोत-प्रोत करने के लिये मुनिगणों ने भी अपने विहार की मर्यादा को शिथिल करके एक स्थान पर — उन चैत्यों में अधिक काल तक रहना आवश्यक समझा होगा । परन्तु मनुष्य की यह कमजोरी है कि एक बार नीचे लिखे या फिर वह ऊँचे उठने की ओर अग्रसर नहीं होकर निम्नगामी ही बना चला जाता है । एक दोष से अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। छोटे-से छिद्र से सुराख बढ़ता चला जाता है । चैत्यावास का परिणाम भी यही हुआ । अपने उपदेश से निर्माण करवाये गये मन्दिरों की व्यवस्था भी उन जैन मुनियों को संभालनी पड़ी। उन चैत्यों में अधिक आय हो, इसलिए देवद्रव्य का महात्म्य बढ़ा । द्रव्य अधिक संग्रह होने से उसके व्यवस्थापक जैनाचार्यों की विलासिता भी बढ़ी । क्रमशः शिष्य और अनुयायियों का लोभ भी बढ़ा। अपने अनुयायी किसी दूसरे श्राचार्य के पास नहीं चले जायें, इसलिए बाड़ाबंदी भी प्रारंभ हुई । 'तुम तो हमारे अमुक पूर्वज के प्रतिबोधित हो; इसलिए तुम्हारे ऊपर हमारा अधिकार है, तुम्हें इसी चैत्य अथवा गच्छ को मानना चाहिए' इत्यादि बातों ने श्रावकों के दिलों में एक दीवार खड़ी करदी । अपने २ गच्छ, आचार्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] :: प्रारवाटलेहास: एवं चैत्यों का ममत्व सभी को प्रभावित कर विशाल जैन संघ की उदार भावना को एक संकुचित बाड़ाबंदी में सीमित कर बैठा । संचिप्त में जैनधर्म के आदर्शों से च्युत होने की यही कथा है । हम में एक समय किसी कारणवश कोई खराबी गई तो उससे चिपटा नहीं रहना है। उसका संशोधन कर पुनः मूल आदर्श को अपनाना है। हमारे आचार्यों ने यही किया। आठवीं शताब्दी के महान् आचार्य हरिभद्रसरि ने चैत्यवासी की बड़ी भर्त्सना की। ग्यारहवीं शताब्दी में खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनेश्वरमरि ने तो पाटण में आकर चैत्यवासियों से बड़ी जोरों से टक्कर ली। इनसे लोहा लेकर उन्होंने उनके सुदृढ़ गढ़ को शिथिल और श्रीहीन बना दिया । चैत्यवास के खण्डहर जो थोड़े बहुत रह सके, उन्हें जिनवल्लभसूरि और जिनपतिसूरि ने एक बार तो दाहसा दिया। 'गणधरसार्धशतकबृहवृत्ति' और 'युगप्रधानाचार्य गुरुवावली' में इसका वर्णन बड़े विस्तार से पाया जाता है। 'संघपट्टकवृत्ति' आदि ग्रंथ भी तत्कालीन विकारों एवं संघर्ष की भलीभांति सूचना देते हैं । __हां तो मैं जिस विषय की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता था वह है स्वधर्मी वात्सल्य इसका विशद् निरूपण आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के ग्रंथों में मिलता है और हमारी भेद-भावना को छिन्न-भिन्न कर देने में यह स्वधर्मी वात्सल्य एक अमोघ शास्त्र है। जो जैनधर्म की पावन छाया के नीचे आगया वह चाहे किसी भी ज्ञाति का हो, किसी भी वंश का हो, उसके पूर्वज या उसने स्वयं इतः पूर्व जो भी बुरे से बुरे काम किये हो, जैन होने के बाद वह पावन हो गया, श्रावक हो गया, जैनी हो गया, श्रमणोपाशक हो गया और उससे पूर्व सैकड़ों वर्षों से जैन धर्म को धारण करने वाले श्रावकों का स्वधर्मी बंधु हो गया। अब तो गले से गले मिल गये, एक दूसरे के सुख-दुख के भागी बन गये, परस्पर में धर्म के प्रेरक बन गये, धर्म से गिरते हुए भाई को उठा कर उसे पुनः धर्म में प्रतिष्ठित करने वाले बन गये-वहां भेद-भाव कैसा ? इस आदर्श के अनुयायियों के लिये अंतरज्ञातीय विवाह का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए । वास्तव में जैनधर्म में अन्तरज्ञाति कोई वस्तु है ही नहीं। जैनधर्म में तो कोई ज्ञाति है ही नहीं । है तो एक जैनज्ञाति । सब के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं । ज्ञातियों के लेबल तो तीन कारणों से होते हैं । पहला कारण है प्रतिष्ठित वंशज के नाम से उसकी संतति का प्रसिद्ध होना, दूसरा आजीविका के लिये जिस धंधे को अपनाया जाय उस कार्य से प्रसिद्धि पाना जैसे किसीने भएडार या कोठार का कार्य किया तो वे भंडारी या कोठारी हो गये, किसी ने तीर्थयात्रार्थ संघनिकाला तो वे संघवी होगये, याने किसी कार्यविशेष से उस कार्यविशेष की सूचक जो संज्ञा होती है वह आगे चल कर ज्ञाति व गोत्र बन जाते हैं । तीसरा स्थानों के नाम से । जिस स्थान पर हम निवास करते हैं, उस स्थान से बाहर जाने पर हमें कोई पूछता है कि आप कहां के हैं, कहां से आये तो हम उत्तर देते हैं कि अमुक नगर अथवा ग्राम से आये हैं और उसी नगर, ग्राम के नामों से हमारी प्रसिद्धि हो जाती है। जैसे कोई रामपुर से आये तो रामपुरिया, फलोदी से आने वाले फलोदिया । अतः हमें इन भेदों पर अधिक बल नहीं देना चाहिए। ____ जो बातें मूलरूप से हमारी अच्छाई और भलाई के लिये थीं, हमारे उन्नत होने के लिये थीं वे ही हमारे लिये घातक सिद्ध हो गई। आज तो हमारे में खराबी यहाँ तक घुस गई है कि हमारा वैवाहिक संबंध जहां तक हमारे ग्राम और नगर में हो दूसरे ग्राम में करने को हम तैयार नहीं होते। दूसरे प्रान्त वाले तो मानों हमारे से बहुत ही भिन्न हैं। साधारण खान-पान और वेष-भूषा और रीति-रवाजों के अंतर ने हमारे दिलों में ऐसा भेद Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममिका जमा लिया है कि एक ही ज्ञाति के लोग दूसरे प्रान्त वालों के साथ वैवाहिक संबंब करने में सकुचाते हैं । खैर, उन में तो असुविधायें भी आगे आती हैं, पर एक ही ग्राम में बसने वाले प्रोसवाल, पौरवाल और श्रीमालों में तो खानपान, वेष-भूषा और रीति-रिवाजों में कोई अन्तर नहीं होता तो फिर वैवाहिक संबंध में अड़चन क्यों । वास्तव में तो ऐसा संबंध बहुत ही सुविधाजनक होता है। अपनी ज्ञाति के लड़कों में मान लीजिये वय, शिक्षा, संपत्ति, घर-घराना आदि की दृष्टि से चुनने में असुविधा हो, चुकि बहुत थोड़े सीमित घरों में से चुनाव करने पर मनचाहा योग्य वर मिलना कठिन होता है जब कि जरा विस्तृत दायरे में योग्य वर मिलने की सुविधा अधिक रहती है । इसलिये इन भेदभावों का अंत तो हो ही जाना चाहिए। भूमिका आवश्यकता से अधिक लम्बी होगई, अतः मैं अब अन्य बातों का लोभ संवरण कर उपसंहार कर देता हूँ। प्रस्तुत इतिहास के लेखक श्री लोदाजी की दृष्टि ऐतिहासिक तथ्यों को प्राप्त कर प्रकाश में लाने की अधिक रही है । वास्तव में यही इतिहासकार का कर्तव्य होता है। अंधकार तो सर्वत्र व्याप्त है ही। उसमें से प्रकाश की चिन्गारी जहां भी, जो भी, जितनी भी मिल जाय, उससे लाभ उठा लेना ही विवेकी मनुष्य का कर्तव्य है। वैज्ञानिक दृष्टि सत्य की जिज्ञासा से संबंधित रहती है। वह देर कचरे में से सार पदार्थ को ग्रहण कर अथवा ढूंढ कर स्वीकार करता है। जैन ज्ञातियों का इतिहास-निर्माण करना भी बड़ा बीहड़ मार्ग है। स्थान-स्थान पर भयंकर जंगल लगे हये हैं, इससे सत्य एवं प्रकाश की झांकी मंद हो गई होती है। उसमें से तथ्य को पाना बड़ा श्रमसाध्य और समयसाध्य होता है। अभी तक श्रोसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी और अन्य ज्ञातियों के जो इतिहास के बड़े २ पोथे प्रकाशित हुये हैं, उनमें अधिकांश के लेखक इन मध्यवर्ती जंगलों के कारण भटक गये-से लगते हैं। कुछ एक ने तथ्य को पाने का प्रयत्न किया है, पर साधनों की कमी, अप्रामाणिक प्रवादों और किंवदन्तियों का बाहुल्य उनको मार्ग प्रशस्त करने में कठिनाई उपस्थित कर देता है। लोदाजी को भी दे सक असुविधायें और कठिनाइयें हुई हैं। पर उन्होंने उनमें नहीं उलझ कर कुछ सुलझे हुये मार्ग को अपनाया है यही उल्लेखनीय बात है। साधनों की कमी एवं अस्त-व्यस्तता के कारण इस इतिहास में भी कुछ बातें ठीक-सी सुलझ नहीं सकी हैं। इसलिये निर्धान्त तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह प्रयत्न अवश्य ही सत्योन्मुखी होने से सराहनीय है। अभी सामग्री बहुत अधिक बिखरी पड़ी है। उन्हें जितनी प्राप्त हो सकी, एकत्रीकरण करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, पर मार्ग अभी बहुत दूर है, इसलिये हमें इस इतिहास को प्रकाशित करके ही संतोष मान कर विराम ले लेना उचित नहीं होगा । हमारी शोध निरन्तर चालू रहनी चाहिए और जव भी, जहां कहीं भी जो बात नवीन एवं तथ्यपूर्ण मिले उसको संग्रहित करके प्रकाश में लाने का प्रयत्न निरंतर चालू रखना आवश्यक है। अन्त में अपनी स्थिति का भी कुछ स्पष्टीकरण कर दं। यद्यपि गत पच्चीस वर्षों से मैं निरन्तर जैनसाहित्य और इतिहास की शोध एवं अध्ययन में लगा रहा हूं और जैनज्ञातियों के इतिहास की समस्या पर भी यथाशक्य विचारणा, अन्वेषणा और अध्ययन चालू रहा है। फिर भी संतोकजनक प्राचीन सामग्री उपलब्ध नहीं होने से जैसी चाहिए वैसी सफलता अभी प्राप्त नहीं हो सकी । इसलिये विशेष कहने का अधिकारी मैं अपने आपको अभी अनुभव नहीं करता। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. ] प्राग्वाट-तिहास: गत वर्ष मेरे यहां श्रीयुत् लोदाजी पधारे और इस इतिहास की भूमिका लिख देने का अनुरोध किया। मैंने अपनी अनधिकार और अयोग्यता का अनुभव होते हुये भी उनके प्रेमपूर्ण आग्रह को इसलिये स्वीकार किया कि इसी निमित्त से अपने अब तक के अध्ययन का परिणाम जैन विचार-धारा और अपने विचार प्रकाश में साने का कुछ सुयोग मिलेगा ही। मुझको संतोष है कि मैं अपने उन विचारों को मूर्तरूप देने को इस भूमिका के द्वारा समर्थ हुआ हूं। ____ मैं प्राग्वाट-इतिहास-प्रकाशक-समिति के इस सप्रयत्न की प्रशंसा करता हुआ उनकी सफलता की बधाई देता हैं। उन्होंने जिस धीरज और द्रव्य के सद्व्यय द्वारा इस कार्य को सुचारु रूप से संपन्न होने में दक्षता बतलाई है वह अवश्य ही अनुकरणीय है। इतिहास का कार्य कोई झटपट और खड़ेदम करना चाहे तो वह इतिहास बनेगा नहीं, किंवदन्तियों और ढकोसलों का एक संग्रहमात्र हो जावेगा । इसलिये पद-पद पर जिसके लिए साधन अपेक्षित हों, प्रमाण के बिना एक अक्षर भी लिखना कठिन हो उस इतिहास के साधनों को जुटाने, उनको सिलसिलेवार सजाने और उनमें से तथ्य को समझाने में समय लगता ही है। उतावल और अधैर्य का यह कार्य नहीं है। समिति के संचालकों ने इस कार्य की गुरुता को समझ कर उसे सफल बनाने में जो सहयोग दिया है यह बहुत ही सराहनीय है। श्रीयुत् लोढ़ाजी के प्रेमपूर्ण आग्रह से मुझे यह भूमिका लिखने का सुयोग प्राप्त हुआ, इसलिये मैं उनको मी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ सत्य की जिज्ञासा और इतिहास की रुचि दिनोंदिन बढ़ती रहे यही मेरी मंगल कामना है । नाहटों की गवाड़ अभय जैन ग्रन्थालय -अगरचन्द नाहटा बीकानेर आश्विन कृष्णा ५ सं० २०१० Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक : श्री दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी. ए. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भारतवर्ष का सर्वांगीण इतिहास और उस पर ज्ञातियों का इतिहास एवं जैन इतिहास के प्रति उदासीनता बनी रहने पर प्रभाव साहित्य में धर्मग्रन्थ और इतिवृत्त ये दो पक्ष होते हैं । धर्मग्रन्थों में पागम, निगम, श्रुति, संहिता, स्मृति आदि ग्रन्थों की और इतिवृत्त में काव्य, कथा, पुराण, चरित्र, नाटक, कहानी, इतिहास आदि पुस्तकों की गणना भारत के सर्वांगीण इतिहास मानी जाती है। भारत निवृषिमार्गप्रधान देश विश्रुत रहा है, अतः यहाँ धर्मग्रन्थों का में कठिनाइयाँ सृजन ही प्रमुखतः हुआ है और काव्य, कथा, पुराण, चरित्र, नाटक, कहानी, इतिहास भी धर्मवीर, धर्मात्मा, धर्मध्वज, धर्म पर चलने वाले अवतार, तीर्थकर, संत, योगी, ऋषि, मुनियों के ही लिखे गये हैं । भारत में जब से मुसलमानों के आक्रमण होने प्रारम्भ होने लगे, तब से यवन-आक्रमणकारियों से लोहा लेनेवाले राजपुत्र राजाओं के वर्णन लिखने की प्रथा प्रचलित हुई । इस प्रथा का आदिप्रवर्तक भाट चंद वरदाई है, जिसने सर्व प्रथम दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान की ख्याति अमर करने के लिए 'पृथ्वीराज रासो' की रचना की। हम 'पृथ्वीराज रासो' को काव्य तो कहते हैं, साथ में उसको इतिहास का सर्वप्रथम ग्रन्थ भी कह सकते हैं । ___ साहित्य के धर्मग्रन्थपक्ष के विषय में यहाँ कुछ नहीं कहना है । इतिवृत्तपक्ष भी धर्म और धर्मात्मापुरुषों से ही वैसे पूर्णरूपेण प्रभावित है। ऐसे निवृत्तिमार्ग प्रधान भारत के वाङ्गमय में फिर सर्वसाधारण वर्ग, ज्ञाति, कुल-संबंधी वर्णनों का पूरा २ मिलना तो दूर यत् किंचित् भी मिल जाना आश्चर्य की वस्तु ही समझनी चाहिए। विक्रम की आठवीं शताब्दी में जैन कुलगुरुओं ने अपने २ श्रावकों के कुलों का वर्णन लिखने की प्रथा को प्रचलित किया था । मेरे अनुमान से चारणों ने एवं भट्टकवियों ने राजपुत्र कुलों एवं अन्य ज्ञातियों के कुल, वंशों के वर्णनों के लिखने की परिपाटी भी इसी समय के आस-पास प्रारंभ की होगी। इससे पहिले विशिष्ट पुरुषों, राजवंशों के ही वर्णन लिखने की प्रथा रही है। इतिवृत्तग्रंथों में इतिहास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। काव्य, कथा, नाटक, चरित्र, कहानीपुस्तकों में कोई एक अधिनायक के पीछे कथावस्तु होती है; परन्तु इतिहास एक देश, एक राज्य, एक प्रान्त, एक ज्ञाति, एक कुल, एक वर्ग, एक दल, एक युग अथवा समय विशेष का होता है । महमूद गजनवी के आक्रमण के समय से राजपुत्र राजाओं Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट - इतिहास :: के शौर्य, वीरता, निडरता ने भारत के लेखकों को प्रभावित किया और वे उनकी कीर्त्ति में काव्य, कथा, रास, रासो, नाटक, चंपू लिखने लगे । राजाओं ने अपनी राजसभा में बड़े २ विद्वानों, कवियों एवं लेखकों को आश्रय दिया और उनसे अपनी कीर्त्ति में अनेक प्रशंसाग्रन्थ लिखवाये और उन्होंने स्वतः भी लिखे । भारत में मुसलमानी राज्य लगभग सात सौ वर्षों से भी ऊपर जमा रहा। इस काल में कई राजा हुये, कई राज्य बने और नष्ट हुये; कई प्राचीन राजकुल नष्ट हुये और कई नवीन राजकुल उद्भूत हुये। ऐसी असंबद्ध एवं क्रमभंग स्थिति में बहुत कम राज्य और राजकुल यवनशासन के सम्पूर्ण समय भर में अपनी अक्षुण्ण स्थिति बनाये रखने में समर्थ हो सके । उदयपुर (मेदपाटप्रदेश) के महाराणाओं का ही एक राजवंश ऐसा है, जिसका राज्य उदयपुर ( मेदपाट प्रदेश) पर पूरे एक सहस्र वर्षों से अर्थात् बापा रावल से लगा कर आज तक अनेक विषम परिस्थितियों, कष्टों, विपत्तियों का सामना करके भी अपने कुलधर्म की रक्षा करता हुआ अपना राज्य आज तक विद्यमान रख सका है । जो राजवंश जब तक प्रभावक रहा, उसके यशस्वी पुरुषों, राजाओं का वर्णन लिखा जाता रहा और जब वह उखड़ा, उसके भावी पुरुषों का वर्णन ग्रन्थबद्ध नहीं हो सका और उस राजवंश के वर्णन की श्रृंखला भंग हो गई । नवीन राजवंश ने प्राचीन राजवंश द्वारा संग्रहीत एवं लिखवाये हुवे साहित्य को भी नष्ट करने में अपनी तृप्ति मानी । यवनशासकों ने जहाँ भी अपना राज्य जमाया, वहां पहिले जिस राजवंश का राज्य था उसकी कीर्त्ति को अमर रखने वाली वस्तुओं का सर्वप्रथम नाश किया, उस राज्य के मंदिरों को तोड़ा, उन्हें मस्जिदों में परिवर्तित किया, साहित्य-भंडारों में अग्नि लगाई, ग्रंथों को सरोवरों में प्रक्षिप्त करवाये ! यवन- शासकों के इन अमानुषिक कुकृत्यों से भारत की कला को और भारत के साहित्य को अत्यधिक हानि पहुँची है; जिसकी कल्पना करके भी हमारा हृदय भर आता है । फिर भी हमारे पूर्वजों ने दुर्गम स्थानों में साहित्यभण्डारों को पहुँचा करके बहुत कुछ साहित्य की रक्षा की है। जैसलमेर का जगविश्रुत जैन ज्ञान भण्डार आज भी अपनी विशालता एवं अपने प्राचीन ग्रंथों के कारण देश, विदेश के विद्वानों को आकर्षित कर रहा है । यवनों ने भारत का साहित्य बहुत ही नष्ट किया; परन्तु फिर भी जो कुछ प्राप्त है अगर वह भी निश्चित शैली से शोधा जाय तो विश्वास है कि भारत का क्रमबद्ध इतिहास बहुत अधिक सफलता के साथ लिखा जा सकता है। आज भी अगणित तामपत्र, शिलालेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तिग्रंथ, पट्टावलियां ख्यातें और काव्य, नाटक, कहानियां, चंपू प्राप्य हैं; जिनमें कई एक राजवंशों का, श्रीमंत पुरुषों का, दानवीर, धर्मात्माजनों का एवं कुलों का वर्णन प्राप्त हो सकता है और अतिरिक्त इसके भिन्न २ समय के रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, कला-कौशल, व्यापार आदि के विषय में बहुत कुछ परिचय मिल सकता है । 1 हमारे लिए यह बहुत ही लज्जा एवं दुःख की बात है कि भारत का क्रमबद्ध अथवा यथासंभवित इतिहास लिखने का भाव भी पहिले पहिल पाश्चात्य विद्वानों के मस्तिष्कों में उत्पन्न हुआ और उन्होंने परिश्रम करके भारत का इतिहास जैसा उनसे बन सका उन्होंने लिखा । आज जितने भी भारत में इतिहास लिखे हुये मिलते हैं, वे या तो पाश्चात्य विद्वानों के लिखे हुये हैं या फिर उनकी शोध का लाभ उठाकर लिखे गये हैं अथवा अनुवादित हैं । पाश्चात्य विद्वान् संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं और भारत का अधिकांश साहित्य प्राकृत और संस्कृत में उल्लिखित है और अवशिष्ट प्रान्तीय भाषाओं में । कोई भी विदेशी विद्वान् जो किसी अन्य देश की प्रचलित एवं प्राचीन भाषाओं में अनिष्यात रह कर उस देश का इतिहास लिखने में कितना सफल हो 4 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी:: सकता है, सहज समझ में आ सकता है इस दोष के कारण पाश्चात्य विद्वानों ने भारत का इतिहास लिखने में बड़ी २ त्रुटियां की हैं। उन्होंने जो मिला, जैसा उसको अर्थ, आशय समझी उसके आधार पर अपना मत स्थिर करके लिख दिया और वह कुछ का कुछ लिखा गया। फिर भी हम इतना उनका आभार मानेंगे कि भारत में क्रमबद्ध इतिहास लिखने की प्रेरणा एवं भावना पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ही हमारे मस्तिष्कों में उत्पन्न हुई। उपर्युक्त कथन से यह नहीं अर्थ निकाला जा सकता कि भारत में इतिहास-विषय से अवगति थी ही नहीं। 'महाभारत' भी तो एक इतिहास का ही रूप है । परन्तु तत्पश्चात् ऐसे ग्रन्थ क्रमशः नहीं लिखे गये। अगर लिखे गये होते तो आज भारत के इतिहास में जो क्रमभंगता दृष्टिगत होती है, वह नहीं होती और पूर्वजों का क्रमबद्ध इंतिहास सहज लिखा जा सकता। सम्राट अशोक का इतिहासज्ञ सदा आभार मानेंगे कि जिसने सर्व प्रथम शिला-लेख लिखवाने की प्रथा को जन्म दिया। यह प्रथा आगे जाकर इतनी व्यापक, प्रिय और सहज हुई कि राजवंशों ने, प्रतिष्ठित कुलों ने, श्रीमंतों ने शिलापट्टों में अपनी प्रशस्तियां उत्कीर्णित करवाई, प्रतिमाओं पर अपने परिचययुक्त लेख खुदवाये, जो आज भी सहस्रों की संख्या में प्राप्त हैं। यवनशत्रु जितना साहित्य को नष्ट कर सके, उतना शिला-लेखों को नहीं, कारण कि वे प्रतिमाओं के मस्तिष्क भाग को ही तोड़ कर रह जाते थे और शिला-लेख तो प्रतिमाओं के नीचे अथवा आशनपट्टों पर एवं पृष्ठ भागों पर उत्कीर्णित होते हैं, फलतः वे यवनों के क्रूरकरों द्वारा नष्ट एवं भंग होने से अधिकांशतः और प्रायः बच गये। आक्रमण के समय हमारे पूर्वज भी प्रतिमाओं को गुप्तस्थलों में, भूगृहों में स्थानान्तरित कर देते थे और इस प्रकार भी अनेक प्रतिमायें खण्डित होने से बचाली गई। मंदिरों में जो आज भी गुप्तभंडार, जिनको भूगृह भी कहते हैं बनाये जाते हैं, इनकी बनाने की प्रथा प्रमुखतः यवन-आततायियों के आक्रमण के भय के कारण ही संभूत हुई अथवा वृद्धि को प्राप्त हुई प्रतीत होती है । इतिहास के प्रमुख एवं विश्वस्त साधनों में शिला लेख, ताम्रपत्र ही अधिक मूल्य की वस्तुयें मानी जाती हैं । यह तो हुआ भारतवर्ष के इतिहास और उसकी साधन-सामग्री के विषय में । __ अब बड़ी दुःख की बात जो प्रायः मेरे अनुभव में आई है वह यह है कि आज के राष्ट्रीयवादी एवं अपने को भारतमाता का भक्त समझने वाले, ज्ञातिभेद के विरोधी यह धारणा रखते हैं कि अब ज्ञातीय इतिहास लिखना ज्ञातीय-इतिहास के प्रति ज्ञातिमत को और सुदृढ़ करना अथवा उसको पुष्ट बनाना है । अच्छे २ इतिहासज्ञ एवं हमारी उदासीनता और इतिहासकार भी इस धारणा से ग्रस्त हैं। मैं स्वयं भी ज्ञातिमत का पोषक एवं समर्थक उसका दुष्प्रभाव नहीं हूँ और फिर जैन इतिहासकार तो ज्ञातिमत का समर्थन ही कैसे करेगा, जबकि जैनमत ज्ञातिभेद का प्रबल शत्र रहा है और जैनसमाज की संस्थापना ज्ञातिमत के विरोध में ही हुई है। जब मैंने इस प्राग्वाट-इतिहास का लेखन प्रारंभ किया था, तो मेरे अनेक मित्र इस कार्य से अप्रसन्न ही हुये कि तुमने ज्ञातीय भेद को सुदृढ़ करने वाला यह कैसा कार्य उठा लिया। इस कार्य को प्रारम्भ करने के पहिले मैंने भी इस पर बहुत ही विचार किया कि मैं युग की शुभेच्छा के विरुद्ध तो नहीं चलना चाहता हूं, मैं विशुद्ध राष्ट्रीयता को अपने इस कार्य से कोई हानि तो नहीं पहुँचाऊंगा । अन्त में मैं इस अन्त पर पहुँचा कि कोई भी सबल राष्ट्र अगर अपने राष्ट्र का सर्वाङ्गीण इतिहास बनाना चाहेगा तो उसे इतिहासकार्य को कई एक विभागों में विभक्त करना पड़ेगा और Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ 1 :: प्राग्वाट - इतिहास :: ऐसा प्रत्येक विभाग उन्हीं पुरुषों के अधिकार में देना पड़ेगा कि उस विभाग में आने वाले विषयों से उनका परम्परित सम्बन्ध रहा होगा । समझिये हम भारतवर्ष का ही सर्वाङ्गीण इतिहास लिखने बैठें। ऐसे सर्वाङ्गीण इतिहास में भारतवर्ष में रही हुई सर्वज्ञातियों को स्थान मिलेगा ही । विषयों की छटनी करने के पश्चात् कुल, ज्ञाति, वंशों के नामोल्लेख करके ही हम भूतकाल में हुए महापुरुषों के वर्णन लिखने के लिये बाधित होंगे। जैसे वीरों के अध्याय में भारतभर के समस्त वीरों को यथायोग्य स्थान मिलेगा ही, फिर भी वह वीर क्षत्रिय था, ब्राह्मण था वैश्य था अथवा अन्य ज्ञाति में उत्पन्न हुआ था - का उल्लेख उसके कुल का परिचय देते समय तो करना ही पड़ेगा | कुल का परिचय देते समय भी वह क्षत्रिय था अथवा अमुक ज्ञातीय - इतना लिख देने मात्र से अर्थ सिद्ध नहीं होगा । वह रघुवंशी था अथवा चन्द्रवंशी । फिर वह शीशोदिया कुलोत्पन्न था अथवा चौहान, राठोड़, परमार, तौमर, सोलंकी इत्यादि । अब सोचिये ज्ञातिभेद के विरोधी इतिहासप्रेमी और इतिहासकार को जब उक्त सब करने के लिये बाध्य होना अनिवार्य्यतः प्रतीत होता है, तब सीधा क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मणाति का इतिहास लिखने में अथवा किसी पेटाज्ञाति का इतिहास लिखने में जो अपेक्षाकृत सहज और सीधा मार्ग है फिर थानाकानी क्यों । मैं तो इस परिणाम पर पहुँचा हूं कि प्रत्येक पेटाज्ञाति अथवा ज्ञाति अपना सर्वांगीण एवं सच्चे इतिहास का निर्माण करावे और फिर राष्ट्र के उत्तरदायी महापुरुष ऐसे ज्ञातीय इतिहासों की साधन-सामग्री से अपने राष्ट्र का सर्वांगीण इतिहास लिखवाने का प्रयत्न करे तो मेरी समझ से ये पगडंडियां अधिक सफलतादायी होंगी और राष्ट्र का इतिहास जो लिखा जायगा, उसमें अधिक मात्रा में सर्वांगीणता होगी और ज्ञातिभेद को पोषण देनेवाली अथवा उसका समर्थन करने वाली जैसी कोई वस्तु उसमें नहीं होगी। राष्ट्र के अग्रगण्य नेता जब भी भारतवर्ष का इतिहास लिखवाने का प्रयत्न प्रारम्भ करेंगे, उनको उपरोक्त विधि एवं मार्ग से कार्य करने पर ही अधिक से अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है । ऐसा विचार करके ही मैंने यह प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखने का कार्य स्वीकृत किया है। कि मेरा यह कार्य भारत के सर्वांगीण इतिहास के लिये साधन-सामग्री का कार्य देगा और इसमें आये हुए महापुरुषों को और अन्य ऐतिहासिक बातों को तो कैसे भी हो सहज में न्याय मिलेगा ही और सर्वांगीण इतिहास लेखकों का कुछ तो श्रम, समय, अर्थव्यय कम होगा ही । मैं जितना काव्य और कविता का प्रेमी हूँ उतना ही इतिहास का पाठक भी । रूस, चीन, जापान, फ्रांस, इटली, इङ्गलैण्ड आदि आज के समुन्नत देशों के कई प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास पढ़े और उनसे मुझको अनेक भांत २ की प्रेरणायें और भावनायें प्राप्त होती रहीं । प्रमुख भाव जो मुझ को सब से प्राप्त हुआ वह यह है कि हमारे भारत के इतिहास में सर्वसाधारण ज्ञातियों के साथ में भारतवर्ष के इतिहास में अब तक जैनज्ञाति को न्यायोचित स्थान नहीं मिला न्याय नहीं वर्ता गया । जहाँ पाश्चात्य देशों के इतिहासों में बिना भेद-भाव के इतिहास के पृष्ठों की शोभा बढ़ाने वाले प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु विशेष को स्थान ससंमान प्रदान किया गया है, वहाँ हम आज से १० वर्ष पूर्व लिखा गया भारतवर्ष का कोई भी छोटा-बड़ा इतिहास उठा कर देखें तो उसमें अतिरिक्त क्षत्रिय राजा और मुसलमान बादशाहों के वर्णनों के और कुछ नहीं मिलेगा । क्षत्रियज्ञाति के साथ ही साथ भारत में ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रज्ञातियां भी रहती आई हैं। ये भी समुन्नत हुई हैं और गिरी भी हैं । इन्होंने भी भारत के उत्थान और पतन में अपना भाग भजा है। इनमें भी अनेक वीर, संत, श्रीमंत, दानवीर, अमात्य, महामात्य, बलाधिकारी, महाबलाधिकारी, बड़े २ राजनीतिज्ञ, दंडनायक, संधिविग्रहक, बड़े २ व्यापारी, देशभक्त, धर्मप्रवर्त्तक, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: प्रस्तावना :: 1k सुधारक, योद्धा, रणवीर, सेवक हुये हैं। फिर इन किसी एक को भी भारत के इतिहास में स्थान नहीं मिलने का क्या कारण हैं ? यह विचार मुझको आज तक भी सताता रहा है। अब हमारे राष्ट्रीय भावना वाले इतिहासज्ञों का विचार और दृष्टिकोण विशाल बनने लगा है और वे न्यायनीति को लेकर इतिहास के क्षेत्र में परिश्रम करते हुये दिखाई भी देने लगे हैं। ___ भारत के मूलनिवासी जैन और वैष्णव इन दो मतों में ही विभक्त हैं। फिर क्या कारण है कि भारत के इतिहास में वैष्णवमतपक्ष ही सर्व पृष्ठों को भर बैठा है और जैनपक्ष के लिए एक-दो पृष्ठ भी नहीं । जब हम वैष्णवमतपक्ष के न्यायशील, उद्भट विद्वानों के मतों, प्रवचनों को पढ़ते हैं तो वे यह स्वीकार करते हुये प्रतीत होते हैं कि जैनसाहित्य अगाव है, उसकी प्रवणता, उसकी विशालता संसार के किसी भी देश के बड़े से बड़े साहित्य से किसी भी प्रकार कम नहीं है और जैनवीर, महापुरुष, तीर्थङ्कर, विद्वान, कलाविज्ञ भी अगणित हो गये हैं, जिन्होंने भारत की संस्कृति बनाने में, भारत की कीर्ति और शोभा बढ़ाने में अपनी अमूल्य सेवाओं का अद्भुत योग दिया है। परन्तु जब भारत का इतिहास उठा कर देखें तो जैनसाहित्य के विषय में एक भी पंक्ति नहीं और किसी एक जैनवीर, महापुरुष का भी नामोल्लेख नहीं। अधिक तो क्या चरमतीर्थकर भगवान् महावीर जिनको समस्त संसार अहिंसा-धर्म के प्रबल समर्थक और पुनःप्रचारक मानता है, उनका वर्णन भी अब २ दिया जाने लगा है तो फिर अन्य जैन प्रतिष्ठित पुरुषों, संतों, नीतिज्ञों, वीरों की तो बात ही कौन पूछे। इस कमी के दोषियों में स्वयं जैन विद्वान् भी प्रगणित होते हैं। आज तक जैनियों ने अपने विस्तृत एवं विशाल साहित्य को, ऐतिहासिक महापुरुषों को, स्थानों को, कलापूर्ण मंदिरों को, दानवीर, धर्मात्मा, देश भक्त, सिद्ध, अरिहंतों को, वीरों को, मंत्रियों को, दंडनायकों को प्रकाश देने का समुचित ढंग एवं निश्चित नीति से प्रयत्न ही नहीं किया है । तब अगर अन्यपक्ष के विद्वानों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में, इतिहासों में उनको स्थान नहीं दिया गया एवं प्रकाश में नहीं लाया गया तो इसके लिये केवल मात्र उन्हीं को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है। यह विचार भी मुझको सदा प्रेरित करता ही रहा है कि मैं कभी ऐसा ग्रन्थ एवं पुस्तक अथवा इतिहास लिखू कि जिसके द्वारा जैन महापुरुषों का परिचय, जैन मंदिरों की कला का ज्ञान और ऐसे ही अन्य ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक गौरवशाली बातों को अन्यमतपक्ष के विचारकों, लेखकों एवं विद्वानों, कलाविज्ञों के समक्ष रक्खू और उनकी दिशा को बदलू अथवा उनको कुछ तो आकृष्ट कर सकूँ । इसी विचार को लेकर मैंने लगभग एक सहस्र हरिगीतिका छंदों में 'जैन-जगती' नामक पुस्तक लिखी, जो वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुई। पाठक उसको पढ़ कर मेरे कथन की सत्यता पर अधिक सहजता एवं सफलता से विचार कर सकते हैं। कोई भी इतरमतावलंबी उक्त पंक्तियों से यह आशय निकालने की अनुचित धृष्टता नहीं करें कि मैं जैनमत का ममत्व रखता हूं। मैं आर्यसमाजी संस्थाओं का स्नातक हूँ और आर्यसमाजी संयासियों का मेरे जीवन में अधिक प्रभाव है। धर्मदृष्टि से मैं कौन मतावलंबी हूँ, आज भी नहीं कह सकता हूं। इतना अवश्य कह सकता हूं कि सब ही अच्छी बातों, अध्यवसायों से मुझ को प्रेम है और समभाव है। ऊपर जो कुछ भी कहा है वह एक इतिहासप्रेमी के नाते, न्यायनीति के सहारे । वैसे कोई भी व्यक्ति जो इतिहास लिखने का श्रम करेगा, वह अपने श्रम में निष्पक्ष, ममत्वहीन, असाम्प्रदायिक रहकर ही सफल हो सकता है । ये गुण जिस इतिहास-लेखक में नहीं होंगे अथया न्यून भी होंगे, वह उतना ही असफल होगा, निर्विवाद सिद्ध है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-तिहास: श्री ताराचन्द्रजी से परिचय और इतिहास-लेखन श्री ताराचन्द्रजी मेघराजजी और मुझ में इतिहास-लेखन के कोई दो वर्ष पूर्व कोई परिचय नहीं था । व्याख्यानवाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा० के द्वारा हम दोनों वि० सं० २००० में परिचित आचार्य श्री से मेरा परिचय हुए और वह इस प्रकार । वि० सं० २००० में आचार्य श्री का चातुर्मास सियाणा और उनके कारण श्री (मारवाड़) में हुआ था। चातुर्मास पश्चात् आप श्री अपनी साधुमण्डली एवं शिष्यताराचंद्रजी से मेरा परिचय समुदाय सहित बागरा ग्राम में पधारे। श्री ताराचन्द्रजी गुरुमहाराज सा. के परमभक्त 'और अनन्य श्रावक हैं । आप भी बागरा गुरुदेव के दर्शनार्थ आये । बागरा में वि० सं० १६६५ आश्विन शुक्ला ६ तदनुसार सन् १९३८ सितम्बर २६ को गुरुदेव के सदुपदेश से उन्हीं की तत्वावधानता में संस्थापित 'श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल' में उन दिनों में मैं प्रधानाध्यापक के स्थान पर कार्य कर रहा था। - आचार्य श्री के संपर्क में मैं कैसे आया और उनकी बढती हुई कृपा का भांजन कैसे बनता गया यह भी एक रहस्य भरी वस्तु है। मैं गुरुकुल की स्थापना के ११ दिवस पूर्व ही ता० १६ सितम्बर को बागरा बुला लिया गया था। इससे पूर्व मैं 'श्री नाथूलालजी गौदावत जैन गुरुकुल,' सादड़ी (मेवाड़) में गृहपति के स्थान पर २१ नवम्बर सन् १९३६ से सन् १९३८ सितम्बर १७ तक कार्य कर चुका था और वहीं से वागरा आया था । प्रधानाध्यापक के स्थान के लिये अनेक प्रार्थनापत्र आये थे । मेरा प्रार्थनापत्र स्वीकृत हुआ, उसका विशेष कारण था । गुरुकुल की कार्य-कारिणी समिति ने प्रधानाध्यापक की पसंदगी गुरुमहाराज साहब पर ही छोड़ दी थी। 'बागरा में अध्यापको की आश्यकता' शीर्षक से 'ओसवाल' में विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। विज्ञापन में प्रधानाध्यापक की योग्यता एफ. ए. अथवा बी० ए० होना चाही थी और साथही धार्मिकज्ञान भी हो तो अच्छा । मैं एफ. ए. ही था और शास्त्राध्ययन की दृष्टि से मुझको 'नमस्कारमंत्र' भी शुद्ध याद नहीं था। कई एक कारणों से मैं सादड़ी के गुरुकुल को छोड़ना चाह रहा था, मैंने उक्त विज्ञापन देखकर प्रधानाध्यापक के स्थान के लिये प्रार्थनापत्र भेज ही दिया और रेखांकित करके स्पष्ट शब्दों में लिख दिया कि अगर प्रधानाध्यापक में शास्त्रज्ञान का होना अनिवार्यतः वांच्छित ही हो तो कृपया उत्तर के लिये पोस्टकार्ड का व्यय भी नहीं करें और अगर धर्मप्रेमी प्रधानाध्यापक चाहिए तो मेरे प्रार्थनापत्र पर अवश्य विचार कर उत्तर प्रदान करें । मेरी इस स्वभाविक स्पष्टता ने आचार्य श्री को आकर्षित कर लिया। उन्होंने मुझको ही प्रधानाध्यापक के लिये चुन कर पत्र द्वारा शीघ्रातिशीघ्र बागरा पहुँचने के लिये सूचित किया । मैं रू. ३५) मासिक वेतन पर नियुक्त होकर ता० १६ सितम्बर को बागरा पहुँच गया। गुरुदेव और मेरे में परिचय कराने वाला यह दिन मेरे इतिहास में स्वर्णदिवस है । गुरुदेव की कृपा मेरे पर उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती ही रही और आज तक होती ही जा रही है । आपश्री की प्रेरणा एवं आज्ञा पर ही मैंने सर्व प्रथम श्री श्रीमद् शांति-प्रतिमा मुनिराज मोहनविजयजी का संक्षिप्त जीवन गीतिका छंदों में लिखा, जो उसी वि० सं० १६६६ (ई. सन् १९३६) में प्रकाशित हुआ । तत्पश्चात् श्रापकी ही प्रेरणा पर फिर 'जैन-जगती' नामक प्रसिद्ध पुस्तक लगभग एक सहस्र हरिगीतिका छंदों में लिखी, जो वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक ने जैन-समाज में एक नधीन हिलोर उठाई। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र ने 'जैन-जगती' में अपने दो शब्द लिखते हुये लिखा 'मैं नहीं जानता कि जैन आपस में मिलेंगे। यह जानता हूं कि नहीं मिलेंगे तो मरेंगे। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना : यह पुस्तक उनमें मेल चाहती है । अतः पढ़ी जायगी तो उन्हें सजीव समाज के रूप में मरने से बचने में मदद: देगी ।' श्री श्रीनाथ मोदी 'हिन्दी-प्रचारक', जोधपुर ने लिखा 'जैन-जमती' जागृति करने के लिये संजीवनी बटी है । फैले हुये श्राडम्बर एवं पाखण्ड को नेश्तनाबूद करने के लिये बम्ब का गोला है' इसी प्रकार श्री भंवरलाल सिंघवी,: कलकत्ता ने भी अपना 'जैन- जगती' पर आकर्षक ढ़ंग से 'जैन-जगती और लेखक' शीर्षक से अभिमत भेजा । स्वर्गीय राष्ट्रपिता बापू ने भी इस पर अपने गुप्तमंत्री द्वारा दो पंक्ति में उत्साहवर्धक शुभाशीर्वाद प्रदान किया । पुस्तक को हिन्दू और जैन दोनों पक्षों ने अपनाया । गुरुदेव की कृपा 'जैन-जगती' के प्रकाशन से कई गुणी बढ़ गई, जो बढ़ कर आज मुझको प्राग्वाट - इतिहास-लेखक का यशस्वी पद प्रदान कर रही है। ऐसे कृपालु गुरुदेव के द्वारा मुझमें और श्री ताराचन्दजी में सर्वप्रथम परिचय वि० सं० २००० में बागराग्राम में हुआ । ७ I मध्याह्न में आचार्य श्री विराज रहे थे । पास में कुछ श्रावकगण भी बैठे थे । उनमें श्री ताराचन्द्रजी भी थे ।. आचार्य श्री ने बैठे हुए श्रावकों को प्रसंगवश प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखवाने की ओर प्रेरित किया । श्री आचार्य श्री का प्राग्वाटज्ञाति ताराचन्द्रजी परमोत्साही, कर्मठ कार्यकर्त्ता हैं । आचार्य श्री ने इनकी ओर अभिदृष्टि का इतिहास लिखाने के लिए करके कहा कि यह कार्य तुमको उठाना चाहिए। ज्ञाति का इतिहास लिखवाना भी उपदेश और श्री ताराचन्दजी का उसको शिरोधार्य करना एक महान् सेवा है । इस उपदेश से ताराचन्द्रजी प्रोत्साहित हुये ही, फिर वे आचार्य और पौरवाड़ संघ-सभा द्वारा श्री के परमभक्त जो ठहरे, तुरन्त गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करके प्राग्वाटज्ञाति का उसको कार्यान्वित करवाना. इतिहास लिखवाने की प्रेरणा उन्होंने स्वीकृत करली । गुरुदेव ने भी आपको शुभाशीर्वाद दिया । उसी दिन से प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखवाना आचार्यश्री और श्री ताराचन्द्रजी का परमोद्देश्य बन गया। दोनों में इस सम्बन्ध पर समय २ पर पत्र-व्यवहार होता रहा । वि० सं० २००१ माघ कृष्णा ४ को सुमेरपुर में 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाउस' के विशाल भवन में श्री ' प्राग्वाट संघ सभा' का द्वितीय अधिवेशन हुआ । श्री ताराचन्द्रजी ने ज्ञाति का इतिहास लिखवाने का प्रस्ताव श्रीसभा के समक्ष रक्खा । सभा ने सहर्ष उक्त प्रस्ताव को स्वीकृत करके श्री ' प्राग्वाट - इतिहास - प्रकाशक-समिति' नाम की एक समिति सर्वसम्मति से निम्न सम्य १ - सर्व श्री ताराचन्द्रजी पावावासी (प्रधान), २ – सागरमलजी नवलाजी नाडलाईवासी, ३ - कुन्दनमलजी ताराचन्द्रजी बालीवासी, ४ - मुल्तानमलजी सन्तोषचन्द्रजीं बालीवासी, ५ - हिम्मतमलजी हुक्माजी बालीवासी को चुनकर बना दी और उसको इतिहास का लेखन करवाने सम्बन्धी सर्वाधिकार प्रदान कर दिये । अर्थसम्बन्धी भार सभा ने स्वयं अपने ऊपर रक्खा | i w ताराचन्द्रजी ने उक्त समाचारों से आचार्य श्री को भी पत्र द्वारा सूचित किया । जब से प्राग्वाट इतिहास की चर्चा चली, तब से ही गुरुदेव और मेरे बीच भी इस विषय पर समय २ पर चर्चा होती रही । इतिहास क आचार्यश्री द्वारा मेरी लेखक लिखवाया जाय- इस प्रश्न ने पूरा एक वर्ष ले लिया । वि० सं० २००२ में आचार्य : के रूप में पसन्दगी और श्री का चातुर्मास बागरा में ही था । श्राचार्यश्री की बागरा स्थिरता देखकर श्री इतिहासकार्य का प्रारम्भ. ताराचन्द्रजी आचार्यश्री के दर्शनार्थ एवं इतिहास लिखवाने के प्रश्न पर आचार्यश्री से परामर्श करने के लिए आश्विन शु० १० को बागरा आये। आचार्यश्री, ताराचन्द्रजी और मेरे बीच इतिहास लिखवाने के प्रश्न पर दो तीन बार घन्टों तक चर्चा हुई । निदान गुरुदेव ने इतिहास-लेखन का भार मेरी निवल Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: लेखनी की तीखी नोंक पर ही श्रश्विन शु० १२ शनिश्चर तदनुसार ता० २१ जुलाई सन् १६४५ को डाल ही 'दिया और साथ ही आधे दिन की सेवा पर रु० ५०) मासिक वेतन भी निश्चित कर दिया। गुरु की आज्ञा मैं भी कैसे उल्लंघित करता । 'शनिश्चर' दिन की मेरे पर सदा से सुदृष्टि रही है। मेरे महत्त्व के कार्य प्रायः इस ही दिन प्रारम्भ होते देखे गये हैं और मुझको उनमें मेरी शक्ति अनुसार साफल्य ही प्राप्त हुआ है । या तो मैं शनिश्चर की प्रतीक्षा करता हूँ या शनिश्वर मेरी । शनिश्वर का और मेरा अभी तक ऐसा ही चौली-दामन का संयोग चला आ रहा है । यद्यपि मैं मुहूर्त विशेष देखने का कायल नहीं हूँ, जो आत्मा ने कह दिया, बस वह उसी क्षण कार्यान्वित मैंने भी कर ही दिया । फिर नहीं तो धागे सोचता हूँ और नहीं पीछे । गुरु, शुक्र (अर्थलाभ) और शनिश्चर का इष्टयोग- फिर क्या विचारना रहा । तारा चन्द्रजी ने उस समय तक कुछ साधन - पुस्तकों का संग्रह कर लिया था । उन्होंने स्टे० राणी से वे सर्व पुस्तकें मेरे पास में बागरा भेज दीं और मेरा अवलोकन कार्य चालू हो गया। उसी दिन से आचार्यश्री ने भी ऐतिहासिक पुस्तकों की शोध और नोंध प्रारम्भ की। ताराचन्द्रजी नव २ पुस्तकों के मंगाने में लग गये । मैं प्राप्त पुस्तकों के अवलोकन में जुट गया, यद्यपि मेरे पास समय की अत्यन्त कमी थी । प्रातः ७ से ६ || बजे तक मैं या तो स्वाध्याय करता था या अपने निजी ग्रन्थ लिखता था या आचार्य श्री का कोई लेखन-कार्य होता तो वह करता था । सन् १६४६ में होने वाली बी० ए० की परीक्षा का प्रवेश-पत्र भर चुका था । १० ॥ बजे से ५ बजे ( सायंकाल ) तक गुरुकुल की सेवा बजाता । इतिहास का कार्य करने के लिए दिन में तो कोई समय बच ही नहीं रहता था । तः मैंने इस कार्य को रात्रि में करने का ही निश्चय किया। अब मैं रात्रि को प्रायः आठ बजे सोने लगा । लगभग रात्रि के १२ या १ बजे मेरी नींद खुल जाती थी । नेत्रों का प्रक्षालन करके मैं पुस्तकों का अवलोकन प्रायः ३ या ४ बजे तक करता रहता। जब तक बागरा में रहा, तब तक मेरा कार्यक्रम इस ही प्रकार नियमित रूप से चलता रहा । पाठक इस प्रकार के घोर श्रम एवं रात्रि में नियमित रूप से तीन या चार घण्टों का जागरण देखकर यह नहीं सोचे कि इसका प्रभाव गुरुकुल के कार्य पर किंचित् मात्र भी पड़ा हो। ऐसा स्मरण नहीं है कि बी० ए० की किसी भी पुस्तक की एक भी पंक्ति मैंने गुरुकुल के समय में पढ़ी हो । पढ़ता भी कैसे, जब पुस्तक तक वहाँ नहीं ले जाता था । विपरीत तो यह हुआ कि कई एक पुरुष अपने जीवन में अनेक कार्य एक ही साथ करते हुये सुने और पढ़े गये हैं, मुझको भी यह शुभावसर मिला है— इस विचार से मैं द्विगुण उत्साह से पहिले की अपेक्षा कार्य करने लगा । मेरे संयम ने मेरी सहायता की और मैं यह भार सहन कर सका । परन्तु कुछ एक इर्षालु व्यक्तियों से जो मेरे स्वतन्त्र स्वभाव, एकान्तप्रियता तथा सर्व समभावदृष्टि से चिढ़े हुए यह सहन नहीं हो सका और उन्हें अवसर मिला। उन्होंने मनगढ़ंत वातें बनाना प्रारम्भ कर ही दिया । दिन ० सन् १६४६ मार्च मास में मैंने जोधपुर जा कर बी. ए. की परीक्षा हिन्दी, इतिहास, अंग्रेजी, राजनीति इन चार विषयों में दी । वहाँ मैं एक मास पूर्व जा कर रहा था । वागरा में स्वाध्याय के लिये समय पूरा नहीं. मिल रहा था, अतः ऐसा करना पड़ा, इतिहास कार्य तब तक बंध रहा । ई० सन् १६४७ बागरा में इतिहास - कार्य अप्रेल ५ को मैंने गुरुकुल की सेवाओं से अपने को बड़े ही दुःख के साथ मुक्त किया । ई० सन् १६४५ जुलाई २१ से सन् १६४७ अप्रेल ५ तक इतिहास - कार्य बागरा आधे दिन की सेवा पर कुल १ वर्ष ६ मास और एक दिन बना। इस समय में लगभग १५० से ऊपर प्राय: बड़े २ ऐतिहासिक ग्रन्थों का Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना : अवलोकन किया और उनमें प्राप्त ऐतिहासिक साधन-सामग्री को उद्धृत और चिह्नित, संक्षिप्त रूप से उल्लिखित और निर्णीत किया । महामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, मंत्री विमलशाह आदि कई एक महापुरुषों के जीवनचरित्रों को इतिहास का रूप दे दिया गया । इन थोड़े महिनों में ही इतिहास - कार्य के निमित्त रात्री में एक-सा श्रम करना, बी. ए. की परीक्षा के लिये प्रातः स्वाध्याय करना, दिन में गुरुकुल की सेवा करना, बी. ए. की परीक्षा के पश्चात् प्रातःकाल में 'जैन-जगती' के छंदों का अर्थ नियमित रूप से लिखना ( जिनके लिये श्री श्राचार्य श्री के सदुपदेश से शाह हजारीमल वनेचंद्रजी ने ५०० ) का पारिश्रम्य सन् १६४६ जुलाई ६ को दिया था । ) यदि निरंतर बने रहे हुये श्रम के कारण मेरा स्वास्थ्य विकासोन्मुख नहीं रह सका और अब तक भी उसको अवसर नहीं मिल पाया है । [ भोपालगढ़ की श्री आप आश्चर्य करेंगे कि मैं ६ गुरुकुल की नींव का । 'शांति जैन पाठशाल' की उन्नति के लिये मैंने अपनी सर्व शक्तियां पूरी र लगादी थीं । नित्य और नियमित एक साथ पूरी पांच और कभी २, ७ कक्षाओं को अध्यापन जैन शिक्षण संस्थानों के कराता था और वह भी सर्व विषयों में । पाठशाला उन्नत हुई, विद्यार्थी अच्छे निकले; प्रति उदासीनता और परन्तु मुझको छोड़ने के लिये बाधित होना पड़ा। 'सादड़ी के गुरुकुल की सेवा भी सुमेरपुर में इतिहास कार्य बड़ी तत्परता, कर्तव्यपरायणता, एकनिष्ठता से की और फलतः छात्रालय में अपूर्व अनुशासन वृद्धिंगत रहा, परन्तु वहाँ से भी मुझको बाधित होकर छोड़ना पड़ा। बागरा के प्रस्तर ही मैंने अपने हाथों डाला था और सोचा था, यह मेरी साधना का कलाभवन होगा वह जन्मा, उन्नत हुआ, उसने स्वस्थ, चरित्रवान् परिश्रमी और प्रतिभावान् विद्यार्थी पैदा करने प्रारंभ किये कि मुझको वह भी छोड़ने के लिये विवश होना पड़ा । बागरा के गुरुकुल के छोड़ने के विचार पर मेरा मनं ही अब आगे जैन - शिक्षणसंस्थाओं की सेवा करने से उदासीन हो गया । परन्तु फिर भी गुरुमहाराज सा० के उद्बोधन पर और श्री ताराचंद्रजी के आग्रह पर 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग' सुमेरपुर के गृहपतिपद को स्वीकार करके मैं ई० सन् १६४७ अप्रेल ६ को वहाँ पहुँचा और अपना कार्य प्रारंभ किया। प्राग्वाट इतिहास के लेखन के लिये मेरा वेतन जनवरी सन् १६४७ से ही ५०) के स्थान पर ६०) कर दिया गया था, अतः सुमेरपुर में छात्रालय की ओर से रु० १०० ) और इतिहास - कार्य के लिये रु०६०) कुल वेतन रु० १६० ) मिलने लगा । हम सब ने यही सोचा था कि इतिहास - कार्य के लिये सुमेरपुर में विशेष सुविधा और अनुकूलता मिलेगी, परन्तु हुआ उल्टा ही। छात्रालय के बाहर और भीतर दोनों ओर से व्यवस्था अत्यन्त बिगड़ी हुई थी । राजकीय स्कूल के अध्यापकों ने छात्रालय के छात्रों को श्रीमंतों के पुत्र समझ कर ट्यूशन का क्षेत्र बना रक्खा था । मैं जब छात्रालय में नियुक्त हुआ, उस समय लगभग १०० छात्रों में से चालीस छात्र व्य शन करवाते थे और अध्यापकों के घरों पर जाते थे। अध्यापक उन छात्रों को पढ़ाने की अपेक्षा इस बात पर अधिक ध्यान रखते थे. कि छात्र उनके हाथों से निकल नहीं जावे । वे सदा छात्रालय के कर्मचारियों और छात्रों में भेद बनाये रखने की नीति को दृष्टि में रख कर ही उनके साथ में अपना मोठा संबंध बढ़ाते रहते थे । संक्षेप में छात्रालय में अनुशासन पूर्ण भंग हो चुका था । फल यह हो रहा था कि छात्रगण अध्यापकों और छात्रालय के कर्मचारियों के बीच पिस रहे थे । स्कूल और छात्रालय दोनों में कडतर संबंध थे। मैं व्यशन को विद्यार्थियों के शोषण का पंथ मानकर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास उसका सदा से प्रबल एवं घातक शत्रु रहा हूं। ईश्वर की कृपा से मेरे पढ़ाये हुये और मेरे आधीन अध्यापकों के द्वारा भी पढ़ाये हुये विद्यार्थियों को कभी स्वप्न में भी वशन करने की कुभावना शायद ही उत्पन्न हुई होगी। गृहपतिपद का भार संभालते ही मैंने छात्रों को उपदेश और शिक्षण देना प्रारंभ किया और लगभग मेरे जाने के तीसरे ही दिन छात्रालय के सर्व छात्रों ने व्य शन करवाना बंद कर दिया। मैंने भी उनको इन शब्दों में आश्वासन दिया कि मेरे रहते तुमको कोई अन्याय और अनीति से दबा नहीं सकता और जो छात्र अनुत्तीर्ण होगा, अगर तुमको मेरे शब्दों में विश्वास है तो मैं उसका पूर्णतः उत्तरदायी होऊंगा। इस पर स्कूल के अध्यापकों में बैचेनी और भारी क्रोध की बाढ़ आगई । व्य शन के कलह ने पूरा एक वर्ष लिया। यद्यपि इस एक वर्ष के समय में छात्रालय के अंदर और बाहर अनेक चारित्रिक, धार्मिक, अभ्याससंबंधी, स्वास्थ्यादि दृष्टियों से ठोस सुधार किये गये । जैसे सब छात्र मिल कर एक मास में प्रायः ३००) से ऊपर रुपये चाट आदि व्यर्थ व्यय में उड़ा देते थे, आवारा भ्रमण करते थे, स्वाध्याय की दशा बिगड़ी हुई थी. सुगंधी-तेल का प्रयोग करते थे। ये सब उड़ गये और रह गया साधारण और सात्विक जीवन । उच्च कक्षा के छात्र नियमित रूप से अपने से नीची कक्षा के छात्रों को पढ़ाने लगे । एक दूसरे को ऊँचा उठाने में अपना पूर्ण उत्तरदायित्व अनुभव करने लगे। ___ अध्यापकों ने छात्रों को अनेक प्रकार से धमकाया, अनुचीर्ण करने की गुरुपद को लांच्छित करने वाली धमकियां दीं, पर्यों पर वर्जित कार्य करवाये। छात्रों ने मेरे आश्वासन और विश्वास पर सब सहन किया, अंत में अध्यापकगण थक गये। शिक्षा-विभाग, जोधपुर तक से व्य शन के कलह को लेकर पत्र-व्यवहार चला । एक वर्ष पाद राजकीय स्कूल में से ऐसे अध्यापकों को भी राज ने स्थानान्तरित कर दिया, जिनके बुरे कृत्यों के कारण स्कूल और छात्रालय के संबंध बिगड़ गये थे। दूसरे वर्ष श्री पुखराजजी शर्मा, प्रधानाध्यापक बन कर आये । वे सज्जन और उदार और समझदार थे। दोनों संस्थाओं में प्रेम बना और बढ़ता ही गया और मैं जब तक वहां रहा, प्रेमपूर्ण बने हुये संबंध को किसी ने भी तोड़ने का फिर प्रयत्न नहीं किया। ___ उधर स्कूल के अध्यापकों से लड़ना और इधर छात्रों की स्वाध्याय में नियमित रूप से सहायता करना, उनके व्यर्थ व्ययों को रोकना, स्वास्थ्य और चरित्र को उठाना आदि बातों ने मेरा पूरा एक वर्ष ले लिया । एक वर्ष पश्चात् अब छात्रगण ही अपने स्वनिर्वाचित मंत्रीमण्डल द्वारा अपनी समस्त व्यवस्थायें करने लगे और मेरे ऊपर केवल निरीक्षण कार्य ही रह गया, जो सारे दिन और रात्रि में मेरा कुल मिला कर डेढ या दो घंटों का समय लेता था । पाठकगण नीचे दिये गये श्री रा० वी० कुम्भारे, प्रिन्सीपल, महाराज कुमार इन्टर कालेज, जोधपुर के अभिप्राय से देख लेंगे कि छात्रालय कितनी उबति कर चुका था और उस की व्यवस्था कैसी थी। अभिप्राय ___ 'मैंने ४ दिसम्बर १९४६ के प्रातःकाल 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग हाऊस', सुमेरपुर का निरीक्षण किया। छात्रावास-भवन, भोजनशाला, पढ़ाई की व्यवस्था, स्वच्छता इत्यादि छात्रावास के मुख्य अंगों को देखने का प्रयत्न किया । समीप का उपवन भी देखा । छात्रावास के सुयोग्य गृहपति दौलतसिंहजी लोढ़ाजी से छात्रावास की समग्र व्यवस्था के संबंध में बातचीत भी की। इस छात्रावास को देखकर मुझे महान् संतोष हुआ। मैंने कई छात्रावास देखे हैं; किन्तु श्री वर्धमान जैन छात्रावास एक अनोखी संस्था है। छात्रावास के सारे कार्य छात्रों द्वारा यंत्रवत् संपादित होते हैं तथा क्रियान्वित होते हैं । इस कार्यपरायणता में छात्रों की अन्तःप्रेरणा वस्तुतः श्लाघनीय है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहपति की मध्यस्थता तनिक भी आवश्यक प्रतीत नहीं होती। किसी कार्य में शिथिलता एवं म्यूनता पार्ने पर छात्र गुण खोता है तथा सद्व्यवहार पूर्ण समयोचित कार्य संपन्न करने पर उसे गुण प्राप्त होते हैं । स्पर्धा की इस शुद्ध प्रणाली द्वारा गुण विवरण करने वाली गुणपत्रिका (Matks-Register) भी मैंने देखी । सुव्यवस्था एवं छात्रों की अन्तरस्फूर्ति के कारण छात्रावास में शांति का वातावरण है। स्वास्थ्य, व्यायाम तथा चरित्र जीवन के तीन मुख्य स्तम्भों पर आधारित छात्रों का जीवन कुल निर्मित है। मुझे पूर्व आशा है नवयुग की नवराष्ट्र-साधना में यह छात्रावास देश के शिक्षा-इतिहास में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा। स० वी० कुम्भारे मेरे भाग्य में छात्रालय में वृद्धिंगत होते अनुशासन की शांति का आनन्द लेना और इतिहास-कार्य को सुचारु रूप से करना थोड़े ही महिनों के लिये लिखा था। ज्योंही मैंने आंतरिक व्यवस्था की ओर ध्यान दिया कि मेरे और वहां कमेटी की ओर से सदा रहने वाले मंत्रीजी में विचार नहीं मिलने के कारण कटुता बढ़ने लगी। मैंने जो किया, वह उन्होंने काटा और नहीं काट सके तो उसको हानि तो पहुँचाई ही सही। इसी गतिविधि से अब मेरा जीवन वहां चलने लगा। कई बार लोगों ने हम दोनों को समझाया, कमेटी के कुछ प्रतिष्ठित सम्यों ने एकत्रित होकर हमारी दोनों की बातें सुनीं । हमारे दोनों के बीच दो बार समझोते हुये । परन्तु सब व्यर्थ । आप अब उक्त पंक्तियों के संदर्भ पर समझ ही गये होंगे कि सुमेरपुर के छात्रालय में यद्यपि मैं ई० सन् १६४७ अप्रेल ६ से ई० सन् १९५० नवम्बर ६ तक पूरे ३ वर्ष ७ मास और १ दिन रहा; परन्तु इतिहास का कार्य कितना कर सका होऊँगा ? जितना किया उसका विवरण निम्नवत् दिया जाता है। पूर्व के पृष्ठों में लिख चुका हूँ कि इतिहास-कार्य को आधे दिन की सेवा मिलती थी। इस दृष्टि से ३ वर्ष ७ मास और एक दिन की अवधि में इतिहास का पूरे दिनों का कार्य १ वर्ष मास और १५ दिन पर्यन्त हुआ समझना चाहिए | और वह भी ऊपर वर्णित परिस्थिति में।। सुमेरपुर छोड़ा तब तक साधन-सामग्री में लगभग ३१८ पुस्तकों का संग्रह हो चुका था । १५० पुस्तकों का अध्ययन तो बागरा में ही किया जा चुका था, शेष का अध्ययन सुमेरपुर में हुआ और उनमें प्राप्त सामग्री को चिह्नित, उद्धृत, संक्षिप्त रूप से उल्लिखित तथा निर्णीत की गई। श्री मुनि जिनविजयजी, श्री मुनि जयन्तविजयजी, श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर आदि द्वारा प्रकाशित शिला-लेख-पुस्तकों में से प्राग्वाटज्ञातीय शिला-लेखों की छटनी की गई और उनका काल-क्रम, व्यक्तिकम से वर्गीकरण किया गया ! महामन्त्री पृथ्वीकुमार, धरणाशाह आदि के चरित्र लिखे गये । महामन्त्री वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह के चरित्रों को पूर्णता दी गई । इस ही समय में महामना प्रसिद्ध इतिहासन्न पं. गौरीशंकर ओझा और प्रसिद्ध पुरातत्ववेचा जैन पंडित श्री लालचन्द्र भगवानदास, बड़ौदा से श्री ताराचन्द्रजी ने पत्र-व्यवहार करके उनकी सहयोगदायी सहानुभूति प्रसिद्ध इतिहासजी से पत्र प्राप्त की और फलतः मेरा उनसे पत्र-व्यवहार प्रारंभ हुआ। अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस व्यवहार और भेट तथा के सन् १६४८ के नवम्बर मास में जयपुर में होने वाले अधिवेशन में कार्य-कर्ता के श्री पं० लालचन्द्र भगवान रूप से मैं जिला कांग्रेस कमेटी, शिवगंज की ओर से भेजा गया था। वहाँ मैंने दास से विशेष संपर्क. नवम्बर से २१ नवम्बर तक Ticket selling in-charge-officer का काय किया था। जयपुर से लौटते समय प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता सुमि जिनविजयजी से मिला था और इतिहास के विषय में कई एक Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: प्रश्नों पर लगभग एक घंटे भर चर्चा हुई थी। उक्त सज्जनों से जो समय-समय पर सहयोग मिलता रहा, उसका अपने २ स्थान पर आगे उल्लेख मिलेगा ही। यहां केवल इतना ही लिखना आवश्यक है कि पंडितव श्री लालचन्द्र भगवानदास, बड़ौदा ने जिनकी सहृदयतापूर्ण सहानुभूति का आभार अलग माना जायगा मेरे किये हुये कार्य का अवलोकन करने की मेरी प्रार्थना को स्वीकृत करके यथासुविधा मुझको निमंत्रित किया । मैं २ जून सन् १६४६ को सुमेरपुर से रवाना होकर अहमदाबाद होता हुआ बड़ौदा पहुँचा । पंडितजी मुझ से बड़ी ही सहृदयता से मिले और उनके ही घर पर मेरे ठहरने की उन्होंने व्यवस्था की। मैं वहां पूरे ग्यारह ११ दिवस पर्यन्त रहा। पंडितजी ने तब तक के किये गये समस्त इतिहास कार्य का वाचन किया और अपने गंभीरज्ञान एवं अनुभव से मुझको पूरा २ लाभ पहुंचाया और अनेक सुसंगतियां देकर मेरे आगे के कार्य को मार्गपाथेय दिया । इतना ही नहीं इस कार्यभर के लिये उन्होंने पूरा २ सहयोग देने की पूरी २ सहानुभूति प्रदर्शित की। 1 इसी अन्तर में प्राग्वाटज्ञातिशृङ्गार श्री धरणाशाह द्वारा विनिर्मित श्री त्रैलोक्यदीपक-धरण विहार नामक श्री रापुरतीर्थ का इतिहास में वर्णन लिखने की दृष्टि से उसका अवलोकन करने के प्रयोजन से मैं ता० २६ मई सन् १६५० को सुमेरपुर से रवाना होकर गया था । ' श्री आनन्दजी कल्याणजी की पीढ़ी, ' श्री राणकपुर तीर्थ की यात्रा अहमदाबाद का पत्र पीढ़ी की ओर से सादड़ी में नियुक्त उक्त तीर्थ-व्यवस्थापक श्री हरगोविंदभाई के नाम पर मेरे साथ में था, जिसमें मुझको तीर्थसम्बन्धी जानकारी लेने में सहाय करने की तथा मुझको वहां ठहरने के लिये सुविधा देने की दृष्टि से सूचना थी। पीढ़ी के व्यवस्थापक का कार्यालय सादड़ी' में ही है। श्री हरगोविंदभाई मेरे साथ तीर्थ तक आये और मेरे लिये जितनी सुविधा दे सकते थे, उन्होंने दीं । मैं वहां चार दिन रहा और जिनालय का वर्णन शिल्प की दृष्टि मे लिखा तथा वहां के प्रतिमा - लेखों को भी शब्दान्तरित करके उनमें से प्राग्वाटज्ञातीय लेखों की छटनी की। उनमें वर्णित पुरुषों के पुण्यकृत्यों के वर्णन तो फिर सुमेरपुर आकर लिखे । निर्वाहित करता हुआ इतिहास-लेखन को जितना अगर इतना समय इतिहास कार्य के लिये ही स्वतंत्र भागों का लेखन अब तक संभवतः पूर्ण भी होगया सुमेरपुर के छात्रालय में गृहपति के पद का कर्त्तव्य गे बढ़ा सका, वह संक्षिप्त में ऊपर दिया जा चुका है। रूप से मिलता तो यह बहुत संभव था कि इतिहास के दोनों होता । परन्तु ताराचन्द्रजी उधर छात्रालय के भी उप-सभापति ठहरे और इधर इतिहास लिखवाने वालों में भी मंत्री के स्थान पर आसीन जो रहे। दोनों पक्षों में जिधर मेरी सेवायें अधिक और अधिक समय के लिये वांच्छित रहीं, उधर ही मुझको स्वतंत्ररूप से समय देने दिया, नहीं तो डोर का निभना कठिन ही था। जब स्कूल का समय प्रातः काल का होता मैं इतिहास - कार्य ( जब लड़के स्कूल चले जाते ) सवेरे ७ से ११ बजे तक करता और जब लड़कों का स्कूल जाने का समय दिन का होता, मैं इतिहास-लेखन का कार्य दिन के १ बजे से ४ या ५ बजे तक करता । कभी २ रात्रि को भी १२ बजे से ३ या ४ बजे तक करता था । फिर भी कहना पड़ेगा कि इतिहास - कार्य को सुमेरपुर में अधिकतर हानि ही पहुँचती रही। मेरी उदासीनता जो बढ़ती ही गई, मैं उस ओर से मुड़ने में पाप समझता हुआ भी अपने परिश्रम पर पानी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना :: [ १३ 'दिशा में आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका । मेरी धर्मपत्नी लाडकुमारी 'रस्सलता' ने मेरे साथ बीती बागरा में भी देखी थी और यहाँ भी । वह स्त्री होकर भी अधिक दृढ़ और संकल्पवती है। उसने मुझको उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए फिर सोचने ही नहीं दिया और मैं भी नहीं चाह रहा था। मेरी जन्म भूमि धामणियाग्राम, थाना काछोला, तहसील मांडलगढ़, प्रगणा फिरता देखकर उस भीलवाड़ा में इतिहास - कार्य तीस मील पूर्व में है और मोटर-सर्विस भीलवाड़ा स्वयं राजस्थान में व्यापार और टेलीफोन; कॉलेज, पुस्तकालय आदि के भीलवाड़ा, विभाग उदयपुर ( मेदपाट ) में है। भीलवाड़ा से धामणिया चलती है । मेरे सम्बन्धी भी अधिकांशतः इस ही क्षेत्र में आ गये हैं। कला-कौशल की दृष्टि से समृद्ध एवं प्रसिद्ध नगर है । यहाँ रेल, तार, धुनिक साधन उपलब्ध हैं । इन सुविधाओं पर तथा मेरे ज्येष्ठ भ्राता पूज्य श्री देवीलालजी सा० लोढ़ा, सपरिवार कई वर्षों से उनकी मेवाड़ - टेक्स-टाईल-मील में नौकरी होने के कारण वहीं रहते हैं । इन आकर्षणों से मैंने भीलवाड़ा में ही रहना निश्चित किया और वहीं इतिहास कार्य करने लगा। श्री ताराचन्द्रजी सा० तथा पूज्य गुरुदेव को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई। यह मेरे में उनके अनुपम विश्वास होने की बात है और अतः मेरे लिए गौरव की बात है । भीलवाड़ा जब मैं आया, मेरे पास दो कार्य थे। एक श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा० का स्वयं का जीवन-चरित्र का लिखना, जिसको लिखने का मैं कभी से संकल्प कर चुका था और द्वितीय यह इतिहास - कार्य ही । फलतः मैंने यह ही उचित समझा कि 'गुरुग्रंथ' का कार्य यथासम्भव शीघ्र समाप्त कर लिया जाय और तत्पश्चात् सारा समय इतिहास - कार्य में लगाया जाय । नवम्बर १ (एक) सन् १९५० से ३ (तीन) जून सन् १६५९ तक लगभग ७ मास पर्यन्त मैं दोनों कार्यों को आधे दिन की सेवादृष्टि से साथ ही साथ करता रहा । ४ जून से इतिहास का कार्य पूरे दिन से किया जाने लगा। पूरे १ वर्ष ७ मास ६ दिवस इतिहास - कार्य चलकर इतिहास का यह प्रस्तुत प्रथम भाग आज सानन्द पूर्ण हो रहा है । इतिहास को अधिकतम सच्चा, सुन्दर और विशाल बनाने की दृष्टियों से सारे प्रयास भी इस ही समय में हो पाये हैं। भीलवाड़ा में रहकर किये गये इतिहास-लेखन कार्य का संक्षिप्त सूचीगत परिचयः— आमुख १ - इतिहास के उपदेशक परमोपकारी श्रीमद् जैनाचार्य विजययतीन्द्रसूरिजी का साहित्य-सेवा की दृष्टि से "क्षिप्त जीवन-चरित्र. २– इतिहास के भरकम भार को उठाने वाले एवं साहस, धैर्य, शांति से पूर्णतापर्यन्त पहुँचाने वाले श्री ताराचन्द्रजी मेघराजजी का परिचय. ३ - प्रस्तावना (प्रस्तुत ) प्रथम खण्ड (सम्पूर्ण)— १- भ० महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत | ३ - स्थायी श्रावक - समाज का निर्माण करने का प्रयास । ५- प्राग्वाट - प्रदेश | ६—–शत्रुंजयोद्धारक परमाईत श्रे० सं० जावड़शाह । २-म० महावीर के निर्वाण के पश्चात् । ४ - प्राग्वाट श्रावकवर्ग की उत्पत्ति । ७- सिंहावलोकन | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट इतिहास: द्वितीय सह१-वर्तमान जैन-कुलों की उत्पत्ति । २-प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद । ३-राजमान्य महामंत्री सामंत । ४-कासिंद्रा के श्री शांतिनाथ-जिनालय के निर्माता श्रे० वामन। ५- अनन्य शिल्प-कलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय । ६-मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसति की हस्तिशाला । ७-व्ययकरणमंत्री जाहिल । ८-महामात्य सुकर्मा। ह-महुअकनिवासी श्रे० हांसा और उसका यशस्वी पु. श्रे० जगह । १०-श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाख्य चैत्यालय तथा हस्तिशाला में अन्य प्राग्वाट-बंधुओं के पुण्य-कार्य। ११-श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसति की संघयात्रा और कुछ प्राग्वाटज्ञातीय बंधुओं के पुण्य-कार्य । १२-श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु । १३-श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण । १४-न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ । १५-सिंहावलोकन । सातीय खण्ड१-न्यायोपार्जित स्वद्रव्य को मंदिर और तीर्थों के निर्माण और जीर्णोद्धार के विषयों में व्यय करके धर्म की सेवा • करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थः-सर्व श्री श्रे० पेथड़ और उसके वंशज डङ्गर और पर्वत, श्रीपाल, सहदेव, पाल्हा, धनपाल, बंभदेव के वंशज, लक्ष्मणसिंह, भ्राता हीसा और धर्मा, मण्डन और भादा, खीमसिंह और सहसा। २-श्री सिरोहीनगरस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय का निर्माता कीर्तिशाली श्री संघमुख्य सं० सीपा और धर्म कर्मपरायणा उसका परिवार। ३-तीर्थ एवं मंदिरों में शा• ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमा-प्रतिष्ठादिकार्य । ४-तीर्थादि के लिए प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें । ५-जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु । ६-श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण | ७-न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० झा० सद्गृहस्थ । ८-विभिन्न-प्रान्तों में प्रा. ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें । ६-आग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष व्यक्ति और कुल । १०-सिंहावलोकन । सिरोही (राजस्थान) और गूर्जर-काठियावाड़ का भ्रमण भीलवाड़ा से सन् १९५१ जून ४ को इतिहासकार्य के निमित्त भ्रमणार्थ निकल कर सिरोही, अर्बुदगिरितीर्थ, गिरनारतीर्थ होता हुआ प्रभासपत्तन (सोमनाथ) तक पहुँचा और वहां से लौटकर पुनः भीलवाड़ा जुलाई ८ को पाया। अजमेर-यहां दो दिन ठहरा । मुद्रण-यंत्रालयों से बातचीत की, फोटोग्राफरों से मिला । पावा-मंत्री श्री ताराचन्द्रजी पावा थे। अंतः स्टे० रामी से कोशीलाव होकर उनसे मिलने पावा गया। इसमें तीन दिन लग गये। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना: भांडवगढ़तीर्थ-श्रीमद् विजययतीन्द्रसरि महाराज उन दिनों श्री भांडवगढ़तीर्थ में विराज रहे थे। इतिहासकार्य का विवरण देने के लिये उनसे मिलना अत्यावश्यक था । स्टे० एरनपुर होकर, सुमेरपुर, जालोर होता हुआ मैं श्री भांडवगढ़तीर्थ पहुँचा। वहां दो दिन ठहरा और तब तक हुये इतिहास-कार्य एवं गुरुग्रंथ की प्रगति से उनको परिचित किया तथा अनेक विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई। ता० १४ मुलाई को वहां से रवाना होकर बागरा एक दिन ठहर कर ता. १५ जुलाई को सिरोही पहुँचा । सिरोही-यहां प्राग्वाटज्ञातीय सं० सीपा का बनाया हुआ चतुर्मुखादिनाथ-जिनालय बड़ा ही विशाल है। उसका शिल्प की दृष्टि से यथासंभव समूचा वर्णन लिखा और उसमें तथा अन्य जिनालयों में प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं द्वारा करवाये गये पुण्य एवं धर्म के विविधकार्य जैसे, प्रतिष्ठोत्सव, प्रतिमा स्थापनादि का लेखन करने की दृष्टियों से पूरी २ विज्ञप्ति प्राप्त की । यहां ता० १६ से १६ चार दिवसपर्यन्त ठहरा । सिरोही के प्रतिष्ठित प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुत्रों से मिलकर उनको इतिहासकार्य से अवगत किया। कुंभारियातीर्थ-ता. २० जून को सिरोही से प्रस्थान करके प्राबृ-स्टेशन पर मोटर द्वारा पहुंचा और वहां से मोटरद्वारा 'अम्बाजी' गया। अम्बाजी देवी के दर्शन करता हुआ ता० २१ जून को प्रातःकाल श्री आरासमतीर्थ वर्तमान नाम श्री कुंभारियातीर्थ को पहुँचा । 'आनन्दजी कन्याणजी की पीढ़ी', अहमदाबाद का मेरे पास में पीढ़ी के मुनीम के नाम पर पत्र था। परन्तु मुनीम विचित्र प्रकृति का निकला। उसने मुझको मंदिरों का अध्ययन करने के लिये कोई सुविधा प्रदान नहीं की। मुझसे जैसा बन सका मैंने कुछ सामग्री एकत्रित की । जिसके आधार पर ही 'आरासणतीर्थ की प्राग्वाट-बन्धुओं द्वारा सेवा' के प्रकरण में लिखा गया है। भी कुंभारियातीर्थ से ता. २१ की संध्या को पुनः अम्बाजी लौट आया और वहां से ता० २२ जून को प्रात: मोटर द्वारा आबू-स्टेशन पर आ गया और उसी समय भावुकप के लिये जाने वाली मोटर तैयार थी, उसमें बैठ कर भाबुकेंप उतरा और वहां से देलवाड़ा पहुँच गया, जहां जागविश्रुत विमलवसहि और लुणसिंहवसहि संसार के विभिन्न २ प्रान्तों, देशों से भारत में आने वाले विद्वानों, पुरातत्ववेत्ताओं, राजनीतिक यात्रियों को आकर्षित करते रहते हैं। आबू यहां ता२२ जुन से २६ पर्यन्त अर्थात् ७ दिवस ठहरा । जगविश्रुत, शिल्पकलाप्रतिमा विमलवसतिका, लूणसिंहवसतिका का शिल्प की दृष्टियों से पूरा २ अध्ययन एवं मनन करके उनका विस्तृत वर्णन लिखने की दृष्टि से सामग्री एकत्रित की। यहाँ एक रोमांचकारी घटना घटी। ऐसे कार्य करने वालों के भाग्य में ऐसी ही घटनायें लिखी ही होती हैं। पाठकों को इस कठिन मार्ग का कुछ २ परिचय देने के प्रयोजन से उसका यहाँ संक्षिप्त विवरण देना उचित समझता हूँ। प्राबूगिरि में अनेक छोटी-बड़ी गुफायें हैं। उनमें वैष्णव, सनावनी सन्यासीगण अपनी धूणियां लगा कर बैठे रहते हैं। वहाँ उन दिनों में एक बंगाली सन्यासी की अधिक ख्याति प्रसारित थी। लोग उसको बंगाली बाबा कहते थे। उसके विषय में अच्छे २ व्यक्ति यह कहते सुने गये कि वह सौ वर्ष का है, वह जो कहता है वह होकर ही रहता है, वह जिस पर कृपा दृष्टि कर देता है, उसका जीवन सफल ही समझिये, वह बड़ा शांत, गंभीर और ज्ञानी है आदि अनेक चर्चाओं ने सुझको भी उसके दर्शन करने के लिए प्रेरित किया । यद्यपि मेरे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: पास में समय का नितांत अभाव था। सवेरे दूध-चाय पी करके जिनालय में प्रविष्ट होता था, जो कहीं एक या डेढ बजे बाहर श्राता था और वह समय भी थोड़ा लगता था और परन्तु बीत जाता-सा प्रतीत होता था । भोजनादि करके तीन बजे पुनः मंदिरजी में चला जाता था और सूर्योदय तक अध्ययन करता रहता था। रात्रि में फिर किये गये कार्य का अवलोकन और मनन करता था। 'श्री आनन्दजी परमानन्दजी' नामक पीढ़ी ने जो सिरोही संघ की ओर से वहाँ तीर्थ की व्यवस्था करती है, मुझको हर प्रकार की सुविधायें प्रदान की थीं । वह यहाँ अवश्यमेव धन्यवाद की पात्र और स्मरण करने के योग्य हैं। ____ एक दिन मैं एक भटकुड़े साथी के साथ में बंगाली बाबा से मिलने को चला, परन्तु उनकी गुफा नहीं मिली और हम निराश लौट आये । एक दिन और समय निकालकर हम दोनों चले और उस दिन हमने निश्चय कर लिया था कि आज तो बंगाली बाबा से मिलकर ही लौटेंगे । संयोग से हम तुरन्त ही बंगाली बाबा की गुफा के सामने जाकर खड़े हो गये। बाबाजी जटा बढ़ाये, लम्बा चुग्गा पहिने, पैरों में पावड़ियाँ डाले गुफा के बाहिर टहल रहे थे । हमने विनयपूर्वक नमस्कार किया और बाबाजी ने आशीर्वाद दिया। अब हम तीनों गुफा में प्रविष्ट हुये । बाबाजी अपनी सिंहचर्म पर बैठे और हम जूट की थैलियों पर । कुछ क्षण मौन रहने पर आत्मा और परमास्मा पर चर्चा प्रारम्भ हुई। बाबाजी ने बड़ी ही योग्यता एवं बुद्धिमत्ता से चर्चा का निर्वाह किया। यह चर्चा लगभग १२-१५ मिनट पर्यन्त चली होगी कि बीकानेर की राजमाता के दो सेवक फलादि की कुछ भेंट लेकर - उपस्थित हुये और नमस्कार करके तथा भेट बाबाजी के सामने सादर रख करके पीछे पांव लौट कर हमारे पास में आकर बैठ गये। बीच में उन में से एक ने बात काट कर कहा कि गुरुदेव ! कल तो यहां सत्याग्रह चालू " होने वाला है। इस पर मैंने कहा कि जब आबू-प्रदेश के निवासियों की भाषा, रहन-सहन और संबंधीगण भी राजस्थानीय है, केवल प्राचीन इतिहासक के पृष्टों पर अर्वाचीन संमति को राजस्थान से अलग करके गूर्जरभूमि - में मिला देना अन्याय ही माना जायगा। इस पर बाबाजी ने प्रश्न किया, 'वे इतिहास के पृष्ट कौन से हैं ? मैंने कहा, 'आपके यहाँ के जैन मंदिरों को ही लीजिये। ये यहाँ पर विनिर्मित सर्व मंदिरों में अधिकतम प्राच और शिल्प और मूल्य की दृष्टियों से दुनिया भर में बेजोड़ हैं। ये गूर्जरसम्राटों के महामात्य और दंडनायकों ..के बनाये हुये हैं । एक विक्रम की ग्यारहवीं और दूसरा तेरहवीं शताब्दी में बना है। ये सिद्ध करते हैं कि एक • सहस्त्र वर्ष पूर्व यह भाग गूर्जरसाम्राज्य का विशिष्ट एवं समाहृत अंग था। इस पर बाबाजी क्रोधातुर हो उठे और इतने आग-बबूला हुये कि उनको अपनेपन का भी तनिक भान नहीं रहा और उबल कर बोले, 'तू क्या जाने कल , का लोंडा। ये मंदिर मुसलमानों के समय में हिन्दुओं की छाती को चीर कर बनाये गये हैं और तीन सौ चार सौ वर्ष के पहिले बने हैं। बस मत पूछिये, मेरा भी पारा चढ़ गया । मैंने भी तुरन्त ही उचर दिया, 'महाराजजी ! मैं आपसे मिलने के लिए आपको संन्यासी जान कर और वह भी फिर मुझको अनेक जनों ने प्रेरित किया है, • तब मिलने आया हूं। मैं आपसे आपको इतिहासकार अथवा इतिहासवेत्ता या पुरातत्त्ववेत्ता समझ कर मिलने नहीं 'आया हूँ। अगर आप अपने को इतिहास का पंडित समझते हैं, तो फिर मैं आप से उस धरातल पर बातचीत करूँ आप साधु हैं और साधु को क्रोध करना अथवा मिथ्या बोलना सर्वथा निंदनीय है। आप तो फिर नग्न झूठ - बोल रहे हैं और फिर तामस ऊपर से । यह आपको योग्य नहीं। बस संन्यासीजी को मेरे इन शब्दों ने नहीं मालूम मस्तिष्क की किस धरा में पहुंचा दिया । वे थरथर कांपने लगे, ओष्ट फड़काने लगे। आशन पर से उठे और गुफा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना:: के एक कोने की ओर चले। उस कोने में कुछ कुल्हाड़ियां, एक बल्लम, एक कटार और ऐसे ही कुछ और हथियार पड़े थे। बाबाजी उनमें से एक कुल्हाड़ी उठा लाये और मेरे सामने आकर उसको मेरे शिर. पर तान कर बोले, 'मारता हूं अभी, मुझको झूठा और क्रोधी कहने वाले को।' मैं उसी प्रकार स्थिर और शांत बैठा रहा। मेरा साथी और वे नवागन्तुक दोनों बीकानेरी पुरुष देखते रह गये, यह क्या से क्या हो गया। मैंने कहा, 'महाराज ! सत्य पर झूठ आक्रमण करता ही है, इसमें आश्चर्य और नवीन बात कौन सी; परन्तु हार झूठ की ही होती है। आप में अगर कुछ भी सत्यांश होता, यह आपकी कुल्हाड़ी अब तक.अपना कार्य कर चुकी होती, लेकिन आप मुझको पूछ जो रहे हैं, यह झूठ का निष्फल प्रयास है।' बस इतना कह कर मैं भी फिर कुछ नहीं बोला। बाबाजी एक दो मिनट उसी क्रोधपूर्णमुद्रा में कुल्हाड़ी ताने खड़े रहे और फिर जाकर अपने आसन पर बैठ गये। तीन, चार मिनट व्यतीत होने पर मैं उठा और यह कह कर, 'बाबाजी ! मैं तुमको साधु समझ कर तुम से मिलने आया था, परन्तु निकले तुम पर धर्म के द्वेषी और पूरे पाखण्डी ।' 'राम राम' कह कर मैं गुफा से बाहर निकल आया। मेरा साथी भी मेरे ही पीछे उठ कर बाहर आगया। हम दोनों इस विचित्र एवं अनोखी घटना पर चर्चा करते हुये आबूकम्प गये और वहां बंगाली बाबा की पोपलीला का मोटर-स्टेन्ड पर खड़े हुये सैकड़ों स्त्री-पुरुषों के वीच भंडा-फोड़ किया और फिर वहाँ से लौट कर संध्या होते २ देलवाड़ा की जैनधर्मशाला में लौट आये और प्रेरणा देने वाले साथियों से यह सब कह सुनाया; परन्तु उन अंधभक्तों को इसमें कुछ निमक-मिर्च मिलासा ही लगा, ऐसा मेरा अनुभव है। यह चर्चा आबूकैम्प और देलवाड़े में सर्वत्र फैल गई। दो दिन के बाद में सुना कि वर्षों से वहां रहने वाला वह बंगाली बाबा कहीं चला गया है। विमलवसति और लूणसिंहवसति तथा भीमवसति मंदिरों का अध्ययन करके जो सामग्री उद्धृत की तथा उसके आधार पर जो उन पर लिखा गया वह इतिहास में पढ़ने को मिलेगा ही; अतः सामग्री के विषय में यहां कुछ भी कहना मैं अनावश्यक तो नहीं समझता, परन्तु फिर भी उसको लम्बा विषय समझ कर, उसको आगे के लिये यहां छोड़ देना चाहता हूँ। अचलगढ़-ता० २६ जून की प्रातः वेला में मैं मोटर द्वारा अचलगढ़ की ओर चला । मार्ग में गुरुशिखर की चोटी के दर्शन किये और वहां से लौट कर संध्या होते २ अचलगढ़ मोटर द्वारा पहुंचा। ता० ३० जून को वहां ठहरा और प्राग्वाटज्ञातीय मं० सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतु मुखादिनाथ-जिनालय के दर्शन किये और उसका शिल्प की दृष्टि से परिचय तैयार किया। अन्य मन्दिरों से भी प्राप्त होने वाली सामग्री एकत्रित की और यह सर्व कार्य करके ता० ३० जून की संध्या को ही देलवाड़ा पुनः लौट आया । गिरनार-ता० १ जुलाई को देलवाड़ा से प्रातःकाल रवाना होकर आबूस्टेशन से सवेरे की गाड़ी से गिरनार के लिये चला । ता० २ जुलाई से ता० ४ तक जूनागढ़ ठहरा । पीढ़ी की सौजन्य से मुझको गिरनारगिरिस्थ 'श्री वस्तुपाल-तेजपाल टू'क' का अध्ययन करने की पूरी २ सुविधा मिल गई । इतिहास के योग्य सामग्री एकत्रित करके यहां से ता०४ को प्रभासपत्तन के लिये रवाना हो गया। 'वस्तुपाल-तेजपाल 'क' का सविस्तार विवरण तथा अन्य प्राग्वाटबन्धुओं के प्रचुरण कार्यों का यथासंभव लेख यहां तैयार कर लिया था। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास : प्रभासपत्तन - इस नगरी का जैन और वैष्णव ग्रंथों में बड़ा महत्व बतलाया गया है । सोमनाथ का ऐति हासिक मन्दिर इसी नगरी में बना हुआ है । महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ने प्रभासपचन में अनेक निर्माण कार्य करवाये थे, परन्तु दुःख है कि आज उनमें से एक भी उनके नाम पर नहीं बचा है। नगरी में से सोमनाथ - मन्दिर की ओर जाने का जो राजमार्ग है, उसमें पूर्वाभिमुख एक देवालय -सा बना हुआ है। मैंने उसका बड़ी ही सूक्ष्मता से निरीक्षण किया तो वह जिनालय प्रतीत हुआ । यवनशासकों के समय में वह नष्ट-भ्रष्ट किया जाकर मस्जिद बना दिया गया था | आज वह अजायबगृह बना दिया गया है और वर्तमान सरकार ने उसमें सोमनाथ मन्दिर के खण्डित प्रस्तर-अंश रख कर उसको उपयोग में लिया है। सारी प्रभासपत्तन में प्राचीन, विशाल और कला की दृष्टि से यही एक भवन है, जो प्रभासपत्तन के कभी रहे अति समृद्ध एवं गौरवशाली वैभव का स्मरण कराता है। मेरे अनुमान से महामात्य वस्तुपाल द्वारा प्रभासपचन में जो अनेक निर्माणकार्य करवाये गये हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय उसके इतिहास में आगे दिया गया है, यह देवालय - सा भवन उसका बनाया हुआ कोई जिनालय है। स्तंभों में ही हुई कीचकाकार मूर्त्तियां तोड़ दी गई हैं। गुम्बजों में रही हुई तथा नृत्य करती हुई, संगीतवाद्यों से युक्त देवी - श्राकृतियां खण्डित की हुई हैं। फिर भी अपराधियों के हाथों से कहीं २ कोई चिह्न बच गया है, जो स्पष्ट सिद्ध करता है कि यह भवन किस धर्म के मतानुयायियों द्वारा बनाया गया है । सोचा था वहां महामात्य वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित अनेक निर्माण के कार्यों में से कुछ तो देखने को मिलेंगे, परन्तु कुछ भी नहीं मिला और जो ऊपर लिखित एक भवन मिला, उसको देखकर दुःख ही हुआ और पूर्ण निराशा । प्रभासपत्तन से ता० ५ जुलाई को लौट चला और स्टे० राणी एक दिन ठहर कर ता० ८ जुलाई को अजमेर होकर रात्रि की ३ बज कर २० मिनट पर पहुँचने वाली गाड़ी से भीलवाड़ा सकुशल पहुंच गया । १८] संयुक्तप्रान्त-आगरा-अवध का भ्रमण भीलवाड़ा से 'अखिल भारतवर्षीय पुरवार ज्ञातीय महासम्मेलन' के अधिवेशन में, जो १३-१४ अक्टोबर सन् १६५१ को महमूदाबाद (लखनऊ) में हो रहा था, सभा के मानद मन्त्री द्वारा निमंत्रित होकर ता० ८-१०-५१ को गया था और पुनः ता० २० - १०-५१ को भीलवाड़ा लौट आया था । वैद्य बिहारीलालजी पोरवाल जो अभी फिरोजाबाद में चूड़ियों का थोक-धन्धा करते हैं कुछ वर्षों पहिले वे आहोर (मारवाड़) आदि ग्रामों में वैद्य का धन्धा करते थे । इनके पिता श्री भी इधर ही अपना धन्धा करते रहे थे । मन्त्री श्री ताराचन्द्रजी की इनसे पहिचान थी । इन्होंने जब किसी प्रकार यह जान पाया कि प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखा जा रहा है, इन्होंने ताराचन्द्रजी से पत्र-व्यवहार प्रारम्भ किया और उसके द्वारा इनका मेरे से भी परिचय हुआ । वैसे ये उधर पुरवार कहलाते हैं, परन्तु ये पुरवार और पौरवाल को एक ही ज्ञाति समझते हैं, अतः ये अपने को पौरवालज्ञातीय लिखते हैं और इनकी फर्म का नाम भी 'पौरवाल एन्ड ब्रदर्स' ही है । इन्होंने मेरा परिचय उक्त सभा के मानद मन्त्री श्री जयकान्त से करवाया। अधिवेशन में जाने के लगभग दो वर्ष पूर्व ही हमारा सम्बन्ध श्री जयकान्त से सुदृढ़ बन गया था । हम दोनों में प्राग्वाट - इतिहास लेकर सदा पत्र-व्यवहार चलता रहा। मेरी भी इच्छा थी और श्री जयकान्त की भी इच्छा थी कि मैं उनकी सभा के निकट में होने वाले Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना : [ १६ अधिवेशन में सक्रिय भाग लूँ । मुझको और श्री ताराचन्द्रजी दोनों को उक्त अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रण मिले | श्री ताराचन्द्रजी ने मुझे अकेले को ही भेजा । भीलवाड़ा से ता० ८ अक्टोबर को मैं महमूदा बाद के लिए खाना हुआ और दो दिन दिल्ली ठहर कर ता० ११ को महमूदाबाद पहुँच ही गया । महमूदाबाद — सभा के सदस्यगण, प्रधान और मंत्री श्री जयकान्त तथा वैद्य बिहारीलालजी आदि प्रमुख जन मेरे से पहिले ही वहां आ चुके थे। ये सर्व सज्जन मुझ से बड़ो सौजन्यतापूर्ण मिले और मैं उन्हीं के साथ पंडाल में ठहराया गया । ता० १३ को निश्चित समय पर सभा का अधिवेशन प्रारंभ हुआ । उस दिन मेरा सारा समय एक-दूसरे से परिचित होने में और पुरवारज्ञातीय प्रतिष्ठित एवं अनुभवी जन, पंडित, विद्वान्गणों से पुरवारज्ञाति संबंधी ऐतिहासिक चर्चा करने में ही व्यतीत हो गया । ता० १४ को प्रातः समय अधिवेशन लगभग ८ बजे प्रारंभ हुआ। उस समय मेरा लगभग ४५-५० मिनट का पुरवारज्ञाति और पौरवालज्ञाति में सज्ञातीयत पर ऐतिहासिक आधारों पर भाषण हुआ । उससे सभा में उपस्थित जन अधिकांशतः प्रभावित ही हुये और बाद जो भी मुझ से मिले, वे आश्चर्य प्रकट करने लगे कि हमको तो ज्ञात ही नहीं था कि प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और हम एक ही हैं। ऐतद् संबंधी जो कुछ भी साधन-सामग्री मुझको उस समय और पीछे से मिल सकी, उसका उपयोग करके मैंने प्रस्तुत इतिहास के पृष्ठों में अपने विचार लिखे हैं । उनको यहां लिखने की आवश्यता अनुभव नहीं करता हूँ । में यहां भी मेरे साथ में एक अद्भुत घटना घटी और वह इस सुधारवाद के युग कम कम अद्भुत और विचारणीय है । ता० १४ को प्रातः होने वाले खुले अधिवेशन में एक पुरवारबंधु ने स्टेज पर खड़े होकर भाषण दिया था । अपने भाषण में उन्होंने यह कहा, 'लोदाजी के साथ बैठ कर जिन २ सज्जनों ने कल कच्चा भोजन किया, क्या उन्होंने ज्ञाति के नियमों का उलंघन नहीं किया ?' बस इतना कहना था कि सभा के मंत्री, प्रधान एवं अधिकांशतः सदस्य और श्रागेवान् पंडित, विद्वानों में आग लग गई। वे सज्जन तुरन्त ही बैठा दिये गये । इस पर मान्य मंत्री जयकान्त ने 'ओसवालज्ञाति' और उसके धर्म, आचार, विचारों पर अति गहरा प्रकाश डालते हुये उक्त महाशय को अति ही लज्जित किया । यह बात यहीं तक समाप्त नहीं हुई । जब भोजन का समय आया तो समाज के कुछ जनों ने, जो उक्त महाशय के पक्षवर्त्ती थे यह निश्चय किया कि लोढ़ाजी के साथ में भोजन नहीं करेंगे । यह जब मुझको प्रतीत हुआ, मैंने श्री जयकान्त और सभापतिजी आदि से निर्मिमानता पूर्वक कहा कि अगर मेरे कारण सम्मेलन की सफलता में बाधा उत्पन्न होती हो और समाज में संमति के स्थान पर फूट का जोर जमता हो तो मुझको कहीं अन्यत्र भोजन करने में यत्किंचित् भी हिचकचाहट नहीं है। इस पर वे जन बोल उठे, 'हम जानते हैं जैनज्ञातियों का स्तर भारत की वैश्य एवं महाजन समाजों में कितना ऊंचा है और वे आचार विचार की दृष्टियों से अन्य ज्ञातियों से कितनी आगे और ऊंची हैं। यह कभी भी संभव नहीं हो सकता है कि किसी मूर्ख की मूर्खता प्रभाव कर जावे । जहां हरिजनों से मेल-जोल बढ़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं, वहां हम वैश्य २ जिनमें सदा भोजन- व्यवहार होता आया है, अब क्योंकर साथ भोजन करने से रुक जावें । अगर यह मूर्खता चल गई तो पुरखारज्ञाति अन्य वैश्यसमाजों से कभी भी अपना प्रेम और स्नेह बांधना तो दूर रहा, उनके साथ बैठकर पानी पीने योग्य भी नहीं रहेगी और सुधार के क्षेत्र में आगे बढ़ने के स्थान में कोशों पीछे हट जायगी। यह कभी भी नहीं हो सकता कि आप उच्च कुलीन, उच्च ज्ञातीय होने पर भी और वैश्य होते हुये अलग भोजन करें Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] :: प्राग्वाट - इतिहास :: और हम अलग करें । तिस पर आप फिर सभा द्वारा निमंत्रित होकर आये हैं । उपस्थित जनों में से आगेवान इस बात पर दृढ़ प्रतिज्ञ हो गये और मुझको विवशतः उनके साथ ही भोजन करना पड़ा। उस व्यक्ति ने अपने प्रयत्न में अपने को असफल हुआ देखकर, प्रमुख २ जनों के समक्ष अपने बोले और किये पर गहरा पश्चात्ताप किया और सवालज्ञाति के सामाजिक स्तर से अपने को अनभिज्ञ बतला कर अपनी भूल प्रकट क । 'जिन समाजों में ऐसे विरोधी प्रकृति के पुरुष अधिक संख्या में होंगे, वे समाज अभी अपनी उन्नति की आशायें लगाना छोड़ दें । उक्त घटना से मुझको किंचित् भी अपमान का अनुभव नहीं हुआ । सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने वालों में तो ऐसी और इससे भी अधिक भयंकर और अपमानजनक परिस्थितियों का सामना करने की तैयारी होनी ही चाहिये | इतना अवश्य दुःख हुआ कि वैश्यसमाजों के भाग्य में अभी ग्रह बुरा ही पड़ा हुआ है और फलतः वे एक-दूसरे के अधिकतर निकट नहीं आ रही हैं । फिरोजाबाद - महमूदाबाद से ता० १५ अगस्त को मैं प्रस्थान करके वैद्य श्री विहारीलालजी के साथ में फिरोजाबाद आया । यहाँ जैन दिगम्बरमतानुयायी परवारज्ञाति के आठ सौ ८०० के लगभग घर हैं । मैं इस ज्ञाति के अनुभवी पंडितों, विद्वानों और वकीलों से मिला और उनकी ज्ञाति की उत्पत्ति का समय, उत्पत्ति का स्थान और दूसरे कई एक प्रश्नों पर उनसे बात चीत की। परवारज्ञाति का अभी तक नहीं तो कोई इतिहास ही बना है और नहीं तत्संबंधी साधन-सामग्री ही कहीं अथवा किसी के द्वारा संकलित की हुई प्रतीत हुई। फिरोजाबाद मैं ता० १६, १७, १८ तक ठहरा और फिर ता० १६ को वहां से रवाना होकर ता० २० अगस्त को रात्रि की गाड़ी से ३ बजकर २० मिनट पर भीलवाड़ा पहुँच गया । महमूदाबाद के इस अधिवेशन में भाग लेने से बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि संयुक्तप्रान्त - आगरा - अवध, बरार, खानदेश, अमरावती - प्रान्तों के अनेक नगर, ग्रामों से सम्मेलन में संमिलित हुये व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो नगर - नगर, ग्राम-ग्राम जाने से बनता । अतः मैंने इस भ्रमण को संयुक्त प्रान्त - आगराव का भ्रमण कहा है। मालवा प्रान्त का भ्रमण भीलवाड़ा से मालवा - प्रान्त का भ्रमण करने के हित ता० १४ जनवरी ई० सन् १९५२ को प्रस्थान करके इन्दौर, देवास, धार, माण्डवगढ़, रतलाम, महीदपुर, गरोठ, रामपुरा आदि प्रमुख नगरों में भ्रमण करके पुनः मीलवाड़ा ता० २५ जनवरी को लौट आया था । १ इन्दौर - भीलवाड़ा से दिन की गाड़ी से प्रस्थान करके दूसरे दिन इन्दौर संध्या समय पहुँचने वाली ट्रेन से पहुंचा । वहाँ शाह बौरीदास मीठालाल, कापड़ मार्केट, इन्दौर की दुकान पर ठहरा। इस फर्म के मालिक सेठ श्री छगनलालजी और उनके पुत्र मोट्ठालालजी ने मेरा अच्छा स्वागत किया । मेरे साथ जहाँ उनका चलना आवश्यक प्रतीत हुआ सेठजी साथ में श्राये । ता० १६ से ता० १६ तक तीन दिवसपर्यन्त वहाँ ठहरा । अनेक अनुभवी प्रज्ञातीय सज्जनों से मिला और मालवा में रहने वाले प्राग्वाटकुलों के संबंध में इतिहास की Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रस्तावना: [ २१ सामग्री प्राप्त करने का पूरा २ प्रयत्न किया। पद्मावतीपौरवालज्ञातीय शिवनारायणजी से जिनसे पत्रों द्वारा पूर्व ही परिचय स्थापित हो चुका था, मिलना प्रमुख उद्देश्य था। सिरोहीराज्य में ब्राह्मणवाड़तीर्थ में वि० सं० १९६० में 'श्री अखिल भारतवर्षीय पोरवाड़-महासम्मेलन' का प्रथम अधिवेशन हुआ था। उस अवसर पर श्री शिवनारायणजी इन्दौर, ठाकुर लक्ष्मणसिंहजी देवास, समर्थमलजी सिंघवी सिरोही श्रादि साहित्यप्रेमियों ने प्राग्वाटइतिहास लिखाने का प्रस्ताव सभा के समक्ष उपस्थित किया था । सम्मेलन के पश्चात् भी इस दिशा में इन सज्जनों ने कुछ कदम आगे बढ़ाया था। परन्तु समाज ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया और उनकी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो पाई। ठाकुर लक्ष्मणसिंहजी पौरवाड़ महाजनों का इतिहास' नामक एक छोटी-सी इतिहास की पुस्तक लिख चुके हैं। शिवनारायणजी 'यशलहा' इन्दौर ऐसा प्रतीत होता है इतिहास के पूरे प्रेमी हैं । उन्होंने प्राग्वाटज्ञातिसंबंधी सामग्री प्राग्वाट-दर्पण' नाम से कभी से एकत्रित करना प्रारंभ करदी थी। वह हस्तलिखित प्रति के रूप में मुझको उन्होंने बड़ी ही सौजन्यतापूर्ण भावनाओं से देखने को दी। मुझको वह उपयोगी प्रतीत हुई । विशेष बात जो उसमें थी, वह. पद्मावतीपौरवाड़संबंधी इतिहास की अच्छी सामग्री। मैंने उक्त प्रति को आद्योपांत पढ़ डाला और शिवनारायणजी से उक्त प्रति की मांग की। उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया, 'मैं कई एक कारणों से प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखने की अपनी अभिलाषा को पूर्ण नहीं कर पाया, परन्तु अगर मैं किन्हीं भाई को, जो प्राग्वाट-इतिहास लिखने का कार्य उठा चुके हैं, अपनी एकत्रित की हुई साधन-सामग्री अर्पित कर सकूँ और उसका उपयोग हुआ देख सकूँ, तो भी मुझको पूरा २ संतोष होगा।' उन्होंने सहर्ष 'प्राग्वाट-दर्पण' को मेरे अधिकृत कर दिया और यह अवश्य कहा कि इसका उपयोग जब हो जाय, यह तुरन्त मुझको लौटा दी जाय । बात यथार्थ थी, मैंने सहर्ष स्वीकार किया और उनको अपने श्रम की अमूल्य वस्तु को इस प्रकार एक अपरिचित व्यक्ति के करो में उपयोगार्थ देने की अद्वितीय सद्भावना पर अनेक बार धन्यवाद दिया। पश्चात् मैंने उनसे यह भी कहा कि इसका मूल्य भी आप चाहें तो मैं सहर्ष देने को तैयार हूं। इस पर वे बोले 'क्या मैं पौरवाड़ नहीं हूं ? क्या मेरी ज्ञाति के प्रति मेरा इतना उत्तरदायित्व भी नहीं है ?' मैं चुप रहा। वस्तुतः शिवनारायणजी अनेक बार धन्यवाद के पात्र हैं । देवास-ता. १६ जनवरी को प्रातः टेक्सीमोटर से मैं देवास के लिए रवाना हुआ। 'पौरवाड़-महाजनों का इतिहास' नामक पुस्तक के लेखक ठाकुर लक्ष्मणसिंहजी देवास में रहते हैं । उनसे मिलना आवश्यक था । उक्त पुस्तक के लिख जाने के पश्चात् भी वे यथाप्राप्य सामग्री एकत्रित ही करते रहे थे। वह सब हस्तलिखित कई एक प्रतियों के रूप में मुझको देखने को मिली । जो-जो अंश मुझको उपयोगी प्रतीत हुये, मैंने उनको उद्धृत कर लिया " और उन्होंने भी सहर्ष उतारने देने की सौजन्यता प्रदर्शित की। ठाकुर लक्ष्मणसिंहजी जैसे इतिहास के प्रेमी हैं, वैसे चित्रकला के भी अनुपम रागी हैं । ज्ञाति के प्रति उनके मानस में बड़ी श्रद्धा है। उनके द्वारा प्राप्त सामग्री का इतिहास में जहाँ २ उपयोग हुआ है, वहाँ २ उनका नाम निर्देशित किया गया है । वस्तुतः वे भी अनेक बार धन्यवाद के पात्र हैं। धार-ता० १६ को ही दोपहर को इन्दौर के लिये लौटने वाली टेक्सीमोटर से मैं देवास से रवाना हो गया और इन्दौर पर धार के लिये जाने वाली टेक्सी के लिए बदली करके संध्या होते धार पहुँच गया। धार में Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: श्री लालजी पौरवाड़ बड़े ही मिलनसार एवं प्रतिष्ठित सज्जन हैं। ये ठाकुर लक्ष्मण सिंहजी के संबन्धी हैं । ठाकुर साहब ने मुझको इनके नाम पर एक पत्र लिखकर दिया था। श्री गट्टूलालजी कई वर्षों से श्री माण्डवगढ़तीर्थ की देखभाल करते हैं और आप तीर्थ की व्यवस्था करने वाली कमेटी के प्रधान भी हैं। इनसे धार, राजगढ़, कुक्षी, अलिराजपुर, नेमाड़, मलकापुर आदि नगरों, प्रगणों में रहने वाले प्राग्वाटकुलों के विषय में बहुत अधिक जानने को मिला । माण्डवगढ़ -- ता० २० को मैं माण्डवगढ़ पहुँचा । श्री गट्टूलालजी ने तीर्थ की पीढ़ी के मुनीम के नाम पर पत्र भी दिया था । माण्डवगढ़ में अतिरिक्त एक छोटे से जिनालय के जैनियों के लिये और कोई आकर्षण की वस्तु नहीं है । उनको ही तीर्थ बनाकर माण्डवगढ़तीर्थ का गौरव बनाये रखने का तीर्थसमिति ने प्रयास किया है । रतलाम – माण्डवगढ़ से ता० २१ की प्रातः टेक्सी से धार और धार से इन्दौर और इन्दौर से दिन की ट्रेन द्वारा रतलाम आगया । रतलाम में इतिहास के लिये कोई वस्तु प्राप्त नहीं हुई । ता० २२ को संध्या की गाड़ी से प्रस्थान करके कोटा जाने वाली ट्रेन से महीदपुर पहुँचा । महीदपुर — यहां जागड़ा पौरवालों के अधिक घर हैं। उनके प्रतिष्ठित कुछ व्यक्तियों से मिला; परन्तु इस शाखा के विषय में अधिक उपयोगी वस्तु कोई प्राप्त नहीं हो सकी । गरोठ — महीदपुर से ता० २३ की प्रातः ट्रेन द्वारा गरोठ पहुँचा । गरोठ में जांगड़ा पौरवाड़ों के लगभग १०० से ऊपर घर हैं । गरोठ में श्रीमान् कंचनमलजी साहब बांठिया के यहां मेरा स्वसुरालय भी है। मैं वहीं जा कर ठहरा । एक पंथ दो कार्य । वहां के प्रतिष्ठित एवं अनुभवी पौरवाड़ सज्जनों से मिला और कई एक दंतकथायें सुनने को मिली; परन्तु प्रामाणिक वस्तु कुछ भी नहीं । मेलखेड़ा और रामपुरा - ता० २४ की प्रातः गरोठ से रवाना होकर प्रथम मेलखेड़ा गया, परन्तु जिन व्यक्ति से मिलना था, वे वहां नहीं थे; अतः तुरन्त ही लौटकर या गया और रामपुरा पहुँचा । 'पौरवाल बॉइल ब्रदर्स' के मालिक बाबूलालजी से मिला । आप अध्यापक भी रहे हैं। परन्तु यहां भी कोई ऐतिहासिक वस्तु जानने को नहीं मिली । ता० २५ को रामपुरा से बहुत भौर रहते चलने वाली टेक्सीमोटर से रवाना होकर नीमच पहुँचा और दिन को तीन बजे पश्चात् भीलवाड़ा पहुंचने वाली गाड़ी से भीलवाड़ा सकुशल पहुंच गया । जोधपुर-बीकानेर का भ्रमण भीलवाड़ा से ता० १६ अप्रेल सन् १५५२ को दोपहर पश्चात् अजमेर जाने वाली ट्रेन से रवाना होकर अजमेर होता हुआ स्टे० राणी पहुँचा । खुड़ाला और बाली - ता० २० को दिन भर स्टे० राणी ही ठहरा। रात्रि के प्रातः लगभग ४ बजे पश्चात् जाने वाली यात्रीगाड़ी से मैं और श्री ताराचन्द्रजी दोनों खुड़ाला गये । वहाँ वनेचन्द नवला जी का कुल प्राग्वाट Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना: ज्ञाति में गौरवशाली माना जाता है। इस कुल में सुखमलजी नामक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हो गये हैं। सुखमलजी वि० सं० १७६० से ८० तक सिरोही के दीवान रहे हैं ऐसा कहा जाता है। इनके विषय में इतिहास में लिखा गया है। शाह वनेचन्द्र नवलाजी के कुल में श्री संतोषचन्द्रजी बड़े ही सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। हम उनके ही यहाँ जाकर ठहरे । श्री संतोषचन्द्रजी ने हमको अपने पूर्वजों को मिले कई एक पट्टे, परवाने दिखाये । भोजन कर लेने के पश्चात् मैं बाली चला गया, क्योंकि वहाँ कुलगुरु भट्टारक श्री मियाचन्द्रजी से भी मिलना था और धरणाशाह के वंशजों के विषय में उनसे जानकारी प्राप्त करनी थी। वे वहां नहीं मिले और मैं वापिस लौट आया और फालना से संध्या समय अजमेर की ओर आने वाली यात्रीगाड़ी से स्टे० राणी आ गया। ता० २१ को दिन मर राणी ही ठहरा। धाणसा -- ता० २१ को चार बजे पश्चात् आने वाली यात्रीगाडी से स्टे. ऐरनपुरा होकर सुमेरपुर पहुँचा और दूसरे दिन प्रातः टेक्सीमोटर से जालोर और जालोर से ट्रेन द्वारा स्टे. मोदरा उतर कर संध्या समय धाणसा ग्राम में पहुँचा । धाणसा में श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज सा. अपनी शिष्य एवं साधुमण्डली सहित विराजमान थे । वहां दो दिन ठहरा और तब तक हुये इतिहास-कार्य से उनको भलीविध परिचित किया। जोधपुर—ता. २४ अप्रेल को धाणसा से प्रातः की यात्रीगाड़ी से रवाना होकर संध्या समय जोधपुर पहुंचा । दूसरे दिन वयोवृद्ध, अथक परिश्रमी मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी (देवगुमधरि) से मिला। आपने छोटी-बड़ी लगभग १५० से ऊपर पुस्तकें लिखी हैं । 'पार्श्वनाथ-परम्परा' भाग दो अभी आपकी लिखी बड़ी जिल्द वाजी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उसमें आपने उपकेशगच्छीय आचार्यो का क्रमवार जीवन-चरित्र देने का प्रयास किया है। उपकेशगच्छीय प्राचार्यों का जीवन-चरित्र लिखते समय उनकी नीश्रा में श्रावकों द्वारा करवाये गये पुण्य एवं धर्म के कार्यों का भी यथासंभव उल्लेख किया है। आपने उक्त पुस्तकों में के प्रत्येक प्रकरण को संवत् और स्थल से पूरा २ सजाया है। प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं के भी उक्त दोनों पुस्तकों में कईएक स्थलों पर नाम और उनके कार्यो का लेखा है । कई वर्षों पहिले आपश्री जैन जातिमहोदय' नामक एक बड़ी पुस्तक भी लिख चुके थे । उसमें आप श्री ने श्रीमालज्ञाति प्राग्वाटज्ञाति और ओसवालज्ञाति के विषय में ही बहुत कुछ लिखा है । आपसे कईएक प्रश्नों पर चर्चा करके आपके गम्भीर अनुभव का लाभ लेने की मेरे हृदय में कई वर्षों से भावना थी और इतिहासकार्य के प्रारम्भ कर लेने के पश्चात् तो वह और बलवती हो गई । आपसे अच्छी प्रकार बातचीत हुई । आपने स्पष्ट शब्दों में कहा:-'मैंने तो यह सर्व ख्यातों और पट्टालियों के आधार पर लिखा है। जिसको इन्हें प्रामाणिक मानना हो वे प्रामाणिक मानें और जिनको कल्पित मानना हो वे वैसा समझे।' आपने हस्तलिखित उपकेशगच्छपट्टावली देखने को दी, जो अभी तक अप्रकाशित है । उसमें से मैंने प्राग्वाटज्ञाति के उत्पत्तिसम्बंधी कुछ श्लोकों को उद्धृत किया। आपश्री से श्री ताराचन्द्रजी का पत्र-व्यवहार तो बहुत समय पूर्व से ही हो रहा था । मैंने भी आपश्री को २-३ पत्र दिये थे, परन्तु उत्तर एक का भी नहीं मिला था । अब मिलने पर उन सब का प्रयोजन हल हो गया । आपश्री के लिखे हुये कईएक ग्रन्थों का इतिहासलेखन में अच्छा उपयोग हुआ है। आपश्री इस दृष्टि से हृदय से धन्यवाद के योग्य हैं। यहां मैं ता० २६ तक ठहरा। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: बीकानेर-ता. २६ अप्रेल को रात्रि की गाड़ी से रवाना हो कर दूसरे दिन ता० २७ को संध्या-समय बीकानेर पहुँचा। दूसरे दिन नाहटाजी श्री अगरचंद्रजी से मिला । आपके विषय में अधिक कहना व्यर्थ है । भाप साहित्यक्षेत्र में पूरे परिचित हैं और अपने इतिहासज्ञान एवं पुरातत्त्व-अनुभव के लिये भारत के अग्रगण्य विद्वानों में आप अति प्रसिद्ध हैं। आपका संग्रहालय भी राजस्थान और मालवा में अद्वितीय है। उसमें लगभग पंद्रह सहस्र प्रकाशित पुस्तकें और इतनी ही हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों का संग्रह है। ऐतिहासिक पुस्तकों का संग्रह अपेक्षाकृत अधिक और सुन्दर है। आपसे मिल कर और बातचीत करके मुझको अत्यन्त आनंद हुआ और साथ में पश्चात्ताप भी। पश्चात्ताप इसलिये कि मैं आपसे अब मिल रहा हूं जब कि इतिहास का प्रथम भाग अपनी पूर्णता को प्राप्त होने जा रहा है। प्रोग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति एवं प्राचीनता पर आपने समय २ पर अपने लेखों में प्रकाश डाला है। आपके उस अनुभव एवं ज्ञान का मुझको भी उपयोग करना था और इस ही दृष्टि से मैं आपसे ही मिलने बीकानेर गया था। आप बड़ी ही सरलता, सहृदयता, सौजन्य से मिले और जितना मैं ले सका और जितना मैंने लेना चाहा, उतना आपने अपने से और अपने संग्रहालय से मुझको लेने दिया । आप से जो कुछ सामग्री मैंने ली है, उसका इतिहास में जहाँ २ उपयोग हुआ है, आपका वहाँ २ नाम अवश्य निर्देशित किया गया है । आप से मिलकर मैं बहुत ही प्रभावित हुआ। विशेष आपने मेरी प्रार्थना पर प्रस्तुत इतिहास की भूमिका लिखना स्वीकृत किया, यह मेरे जैसे इतिहास-क्षेत्र में नवप्रविष्ट युवक लेखक के लिये अपूर्व सौभाग्य की बात है । आप कई बार धन्यवाद के योग्य हैं । यहाँ मैं पूरे दो दिन ठहरा । बीकानेर से ता० २६ की संध्यासमय की यात्रीगाड़ी से प्रस्थान करके अजमेर होता हुआ ता० ३० की पिछली प्रहर में तीन बजकर बीस मिनट पर भीलवाड़ा पहुँचने वाली यात्रीगाड़ी से सकुशल भीलवाड़ा पहुँच गया। पत्र-व्यवहार इतिहास का विषय अनन्त और महा विस्तृत एवं विशाल होता है। इस कार्य में अधिक से अधिक व्यक्ति कलमें मिलाकर बढ़ें, तो भी शंका रह जाती है कि कोई इतिहास पूर्णतः लिखा जा चुका है। ऐसी स्थिति में अगर किसी लेखक के भाग्य में किसी इतिहास के लिखने का कार्य केवल उसकी ही कलम पर आ पड़े, तो सहज समझ में आ सकता है कि वह अकेला कितनी सफलता वरण कर सकता है । __ मैं इस वस्तु को भलिविध समझता था। लेकिन दुःख है कि मेरी इस उलझन अथवा समस्या अथवा कठिनाई को दूसरों ने बहुत ही कम समझा। हो सकता है उनके निकट इतिहास का या तो महत्त्व ही कम रहा हो या एक दूसरे को सहयोग देने की भावना की कमी या ऐसा ही और कुछ। विद्वानों, अनुभवशील व्यक्तियों, इतिहास प्रेमियों से सम्पर्क बढ़ाने का जितना प्रयास मुझसे बन सका, उतना मैंने किया। एक यही लाभ कि मुझको अधिक से अधिक अगर गड़ी-गड़ाई वस्तु कोई मिल जाय तो बस मैं उसको अपनी में ढाल लूँ । प्रस्तुत इतिहास में जो बात अधिक उलझन की थी, वह था प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति का लेख । और इसमें मैं अधिक से अधिक विद्वानों के परिपक्व अनुभव का लाभ लेना चाहता था। दूसरी बात थी–साधन-सामग्री का जुटाना । । बात तो परिश्रम और अर्थ से सिद्ध होने वाली थी, उसको गुरुदेव ने, श्री ताराचंदजी ने और मैंने तीनों ने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ca मिल कर यथाशक्ति संतोषजनक स्तर तक जुटा ली । परन्तु प्रथम बात तो दूसरों के हृदय की रही। वे चाहे तो जिज्ञासु को लाभ पहुँचा सकते हैं और चाहे तो नहीं। सर्व प्रथम निम्न छः प्रश्नों को लिखकर मैंने श्री ताराचन्द्रजी को दिये वे इनके उत्तर बड़े २ अनुभवशील व्यक्तियों, आचार्यों से मंगवावें और उनको एकत्रित करें। ६ प्रश्न: :: प्रस्तावना : १ - ' प्राग्वाट ' शब्द की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई १ २ - ' पुरु' राजा कहाँ का रहने वाला था, उसका 'प्राग्वाट' शब्द से कितना सम्बन्ध है ? ३–भिन्नमाल से पौरवाड़ों की उत्पत्ति प्राग्वाट ब्राह्मणों से जैन दीक्षित हो जाने पर हुई अथवा क्षत्रियों से १ ४ - विमलशाह ने किन बारह (१२) सुलतानों को कब और कहाँ परास्त किया था ? उस समय मुसलमान बादशाहों का राज्य भी नहीं जमने पाया था, तब एक दम १२ सुलतानों की सम्भावना कहाँ तक मान्य है ? J ५ - मं० वस्तुपाल ने किस बादशाह की माता को मक्के जाते समय सहयोग दिया था ! उस समय दिल्ली की गद्दी पर बादशाह अल्तमश था और वह था गुलाम ( खरीदा हुआ ) । उसकी माता वहाँ ( दिल्ली में) नहीं हो सकती थी १ ६ – मुंजाल महता को प्रसिद्ध किया श्री कन्हैयालाल मुन्शी ने । मेरुतुंगाचार्य ने मुंजाल के विषय में अपनी 'प्रबन्ध - चिंतामणि' में केवल एक पंक्ति लिखी और वह भी चलते हुये क्या मुंजाल इतना प्रसिद्ध हुआ है १ (मुंजाल प्राग्वाटज्ञातीय नहीं था, यह मुझको पीछे ज्ञात हुआ) उक्त प्रश्न जैनाचार्यों में सर्व श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी, श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजी, श्रीमद् उपाध्याय कल्याणविजयजी, श्रीमद् विजयेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् मुनिराज जयंतविजयजी, श्रीमद् विजयरामसूरिजी, श्रीमद् विजयने मिसूरिजी, श्रीमद् मुनिराज विद्याविजयजी (कराची), मुनिराज ज्ञानसुन्दरजी ( देवगुप्तसूरि ) आदि से कई एक पत्र लिखकर अथवा स्वयं मिलकर पूछे। श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी का तो इतिहास - कार्य में प्रारम्भ से ही पूर्ण योग चला आया है। शेष में मुनिराज जयंतविजयजी का उत्तर उत्साहवर्द्धक था और उन्होंने इस कार्य में पूर्ण सहयोग देने की बात लिखी थी । देव का प्रकोप हुआ, वे इसके थोड़े ही समय पश्चात् स्वर्ग सिधार गये । उक्त छः प्रश्न विद्वान् एवं इतिहासकारों में सर्व श्री महामहोपाध्याय हीराचन्द्र गौरीशंकर ओझा - अजमेर, अगरचन्द्रजी नाहटा — बीकानेर, पं० लालचन्द्र भगवानदास — बड़ौदा, पं० शिवनारायण 'यशलहा' – इन्दौर से पूछे गये । महामना श्राजी का उत्तर बहुत ही उत्साहवर्द्धक प्राप्त हुआ था; परन्तु वे भी थोड़े समय पश्चात् स्वर्गस्थ होगये । नाहटाजी का उत्तर तो प्राप्त हो गया था; परन्तु पश्चात्ताप है कि उनसे साक्षात्कार करने की भावना इतिहास की पूर्णता होते २ जाग्रत हुई। पं० लालचन्द्र भगवानदास की सहानुभूति हमको खण्ड मिलती रही। जिसके विषय में भ्रमण के प्रकरण में भी कहा जा चुका है। पं० शिवनारायणजी से भी ऐसी ही सराहनीय सहानुभूति मिली । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राबा-खास:: परवार, पुरवार और पौरवाड़ तीनों शब्दों में वर्षों की पूर्ण समता है और मात्राओं में भी अधिकतम समता ही है । इन तीनों में सबातीयतत्त्व हो अथवा नहीं हो, फिर भी कई एक साधारण जन इन तीनों ज्ञातियों को एक ही होना मानते-से सुने जाते हैं । इस दृष्टि से परवार, पुरखारबाति के विद्वानों से और अनुभकशील व्यक्तियों से भी पत्र-व्यवहार किया गया । जिसका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है । ___ निम्न ११ प्रश्न सर्वश्री नाथूरामजी 'प्रेमी'-बम्बई, कामताप्रसादजी जैन–अलीगंज; श्री अजितकुमारजी शास्त्री-दिल्ली, नन्नूमलजी जैन-दिल्ली और श्री भा० दिगम्बर जैन संघ-चौरासी मथुरा को भेजे गये । १-पुरवार, परवार, पौरवाड़ क्या एक शब्द है ? २-श्रापकी ज्ञाति की उत्पत्ति कब, कहां और किन आचार्य के प्रतिबोध पर हुई है? ३-अथवा आपकी ज्ञाति का वर्तमान रूप अनादि है ? ४-आपकी झाति में प्राचीन गोत्र कितने हैं, कौन हैं, आज कितने विद्यमान हैं ? ५-वे कौन प्राचीन एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तकें हैं जिनमें आपकी ज्ञाति की ऐतिहासिक साधन-सामग्री प्राप्य है। ६-आपके कुलगुरु कौन और कहाँ २ के हैं ? ७-भारतभर में आपकी ज्ञाति के कितने घर हैं ? -आपकी ज्ञाति में कौन २ ऐतिहासिक व्यक्ति हो गये हैं ? ह-राजनीतिक दृष्टि से आपकी ज्ञाति का स्थान अन्य ज्ञातियों में क्या महत्व रखता है ? ... १०-आपकी ज्ञाति संयुक्तप्रान्त-आगरा में ही अधिकतर क्यों वसी है ? ११-आपकी नाति स्वतंत्र ज्ञाति है अथवा किसी ज्ञाति की शाखा ? . दिगम्बर जैन संघ, मथुरा का उत्तर मिला:-'आपके लिये उत्तर देने लायक कोई सामग्री हमारे यहां नहीं है। .. श्री कामताप्रसादजी के उत्तर का संक्षिप्त सारः१-हां, ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को बताते हैं । बोलचाल के भेद से अन्तर है। २-१२वीं शती के लेखों में भी हमें यदुवंशी लिखा है । अतः हम लोग जन्मतः जैन हैं । ३-गोत्रों में काश्यपगोत्र प्राचीन है। '४-हम ज्ञातियों को अनादि नहीं मानते । मनुष्यजाति अनादि है। '५-हमारे यहां की गुरुपरम्परा नष्ट हो गई। .: श्री नाथूरामजी प्रेमी का उत्तर वस्तुतः सहानुभूति और सहयोग की भावनाओं से अधिकतम सजित प्राप्त हुया । उन्होंने बितने इस विषय पर लेख लिखे, उनकी क्रमवार सूची उतार कर भेज दी और लिखा कि मेरे सारे लेख श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं । आप उनका उपयोग कर सकते हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना :: [ २७ जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि 'अखिल भारतवर्षीय पुरवार महासभा, अमरावती' के मानद मंत्री श्री जयकान्त पुरवार से हमारा परिचय स्थापित हो चुका था और उसके फलस्वरूप ही मैं महमूदाबाद में होने वाले उक्त सभा के अधिवेशन में निमंत्रित किया गया था । पश्चात् इसके मैंने उनको सोलह १६ प्रश्न लिख कर भेजे और उनमें प्रार्थना की कि अपनी ज्ञाति के पंडितों, अनुभवशील व्यक्तियों से इनके उत्तर लेकर मुझको भेजने की कृपा करें । मेरे उन १६ प्रश्नों को श्री जयकान्तजी ने अलग पत्र पर मुद्रित करा कर अपनी ज्ञाति के कई एक पंडितों को भेजा और उनसे तुरन्त उत्तर देने की प्रार्थना की। उनके मुद्रित पत्र की प्रतिलिपि नीचे दी जाती है। अ० भा० पुरवार महासभा, कार्यालय अमरावती 'प्रिय महोदय, श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक समिति की ओर से निम्न प्रश्नों के उत्तर मांगे गये हैं। आपको ज्ञात ही है कि उक्त समिति प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास ( अपभ्रन्श-परवार, पौरवाल, पुरखार) लिखाने की व्यवस्था कर रही है । ये प्रश्न उसी इतिहास से संबंधित हैं। आशा है आप इनके उत्तर ता० २५-१२- ५१ तक महासभा - कार्यालय में भेजने की कृपा करेंगे, ताकि वे शीघ्र उस समिति के पास भेजे जा सकें । १ - पवार, पौरवाल और पुरवार एक ही अर्थ वाले शब्द हैं। इसमें यह अन्तर ( मात्रा का ) प्रान्तीय भाषाओं के कारण पड़ा है— क्या आप मानते हैं ? पुरवार नाम क्यों पड़ा ९ लिखिये । २ - क्या पुरवारज्ञाति जिस रूप में है अनादि है ? ३ - पुरवारज्ञाति की उत्पचि २६०० वर्षों के भीतर की है— क्या आप स्वीकार करते हैं ? ४ - पुरवारज्ञाति मूल में जैन थी और कारणवश अन्य धर्मी बनी या भाप यह स्वीकार कर सकते हैं ? ५ - पुरवारज्ञाति का उत्पत्तिस्थान राजस्थान अथवा मालवा हो सकता है, जहाँ से यह भारत के अन्य भागों में फैली — क्या आप मान सकते हैं। ६ - पुरवारज्ञाति शुद्ध व्यापारी ज्ञाति रही है — क्या आप स्वीकार करते हैं ? ७- पुरवारज्ञाति किस प्रान्त में और किन २ नगरों में बसती है ? ८- पुरवारज्ञाति के प्राचीन एवं अर्वाचीन गोत्र कौन हैं और किस ज्ञाति से यह उत्पन्न हुई है ? ६- श्राप पुरवारज्ञाति की उत्पत्ति कहाँ से, कब से मानते हैं और किस ज्ञांति से यह उत्पन्न हुई है ? १० - आपके पूर्वज कहां से उठे हैं और क्यों और कहां फैले हैं ? ११- आपके कुलगुरु अर्थात् पट्टियां कहां रहते हैं और वे कब से हैं ? उनका धर्म और ज्ञाति क्या है ? १२ - पुरवारज्ञाति के ऋति प्रसिद्ध पुरुष कौन हुए हैं ? १३- क्या पुरषारज्ञाति में छोटे-बड़े अर्थात् दशा पुरकार और बीशा पुरवार जैसे भेद हैं ? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: १४-क्या पुरवारजाति का कोई इतिहास प्राप्य है ? १५-पुरवारशाति संबंधी सामग्री किन २ साधनों से मिल सकती है ? १६-पुरवारज्ञाति के भारत भर में कुल घर और जनसंख्या कितनी होगी ? भापका जयकान्त पुरवार, मंत्री उक्त प्रश्नों का उत्तर एक तो स्वयं श्री जयकान्तजी ने दिया था। वे भावुक हैं और उत्तर भी उसी घरातल पर बना था। दूसरा पत्र श्री रामचरण मालवीय, आर्य-समाज-प्रचारक-मर्थना का था, जिसका सार इतिहास में लिखा गया है। वैसे प्रसिद्ध पं० लालचन्द्र भगवानदास-बड़ौदा, अगरचन्द्रजी नाहटा-धीकानेर, पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजयजी-चंदेरिया, श्रीमद् विजयेन्द्रसरिजी-अजमेर, पं० शिवनारायणजी 'यशलहा'-इन्दौर, श्री ताराचन्द्रजी डोसी-सिरोही, मुनिराज श्रीमद् ज्ञानसुन्दरजी-जोधपुर से मैं स्वयं जाकर मिला था और इतिहास-संबंधी बड़े २ प्रश्नों पर इनसे चर्चा की थी और इनके अनुभवों का लाभ उठाया था। ये सर्व सज्जन सहृदय, सहयोगभावना पाले, अनुभवशील व्यक्ति हैं। इन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाया और पूरी सहानुभूति प्रदर्शित की। मैं इन सर्व विद्वान् सज्जनों की हृदय से सराहना करता हूं। विज्ञप्ति और विज्ञापन विज्ञप्ति-मन्त्री श्री ताराचन्द्रजी ने निवेदन के साथ में एक छोटी-सी विज्ञप्ति १८४२२=१६ आकार की पाठ पृष्ठ की ५०० प्रतियां प्रकाशित की थीं और उसको बड़े २ विद्वानों, अनुभवशील व्यक्तियों, इतिहासप्रेमियों को तथा इतिहास की अग्रिम सदस्यता रु. १०१) देकर लेने वाले सज्जनों को अमल्य भेजी थी। निवेदन में समिति ने जो इतिहास-लेखन का भगीरथ कार्य उठाया था उसका परिचय था और प्राग्वाटज्ञाति के इतिहास का महत्त्व । इतिहासज्ञों, इतिहासप्रेमियों और ज्ञाति और समाज के हितचिन्तकों से तन, मन, धन, ज्ञान, अनुभव भादि प्रत्येक ऐसी दृष्टि से सहानुभूति और सहयोग की याचना की थी। विज्ञप्ति में प्राग्वाट-इतिहास की रूपरेखा थी और उसमें इसके प्राचीन और वर्तमान दो भाग किये जाने का तथा प्रत्येक भाग का विषय-सम्बन्धी पूरा २ उल्लेख था। इतिहास के विषयों, रचनासम्बन्धी वस्तु पर आगे लिखा जायगा, अतः उस पर यहाँ कुछ लिखना उसके मूल्य को घटाना है । अन्तिम पृष्ठ पर लेखक ने भी जैनसमाज के ही नहीं, भारत के अन्य समाजों के सर्व इतिहासज्ञों से, पुरातत्त्ववेत्ताओं से स्था समाज के शुभचिन्तकों से, विद्वानों से हर प्रकार के प्रेमपूर्ण मार्ग-प्रदर्शन, रचना-सहयोग और शोध-सुविथा आदि के लिए प्रार्थना की थी और आशा की थी कि वे मेरे इस भगीरथ कार्य को सफल बनाने में सहायभूत होंगे। विज्ञापन-१ साप्ताहिक 'जैन' (गुजराती)—मावनगर (काठियावाड़), ९ पाक्षिक श्वेताम्बर जैन (हिन्दी)आगरा और ३ मासिक राजेन्द्र (हिन्दी)—मन्दसोर (मालवा) में लगातार पूरे एक मासपर्यन्त विज्ञापन प्रकाशित Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना : करवाया था ! विज्ञापन में भी जैन समाज के विद्वानों, इतिहासप्रेमियों, पुरातत्ववेत्ताओं को चलती हुई रचना से परिचित करवाया गया था और उनसे सहानुभुति, सहयोग की प्रार्थना की थी तथा श्रीमन्तजनों से रु० १०१) की अग्रिम सदस्यता लेकर अर्थ सहयोग प्रदान करने की प्रार्थना की थी । Re पाठक अब स्वयं ही समझ सकते हैं कि हमने इतिहास को अधिकतम सच्चा, सुन्दर और प्रिय बनाने के लिये हर प्रयत्न का सहारा लिया है। वैसे प्रयत्नों का अन्त नहीं और प्रयत्न की अवधि भी निश्चित नहीं । शक्ति, समय, अर्थ की दृष्टि से हमारी पहुँच में से जितना बन सकता था, उतना हमने किया । इतिहास की रूप-रेखा "मैं इतिहासप्रेमी रहा हूँ और पूर्वजों में मेरी पूरी २ श्रद्धा रही है । परन्तु इससे पहिले मैं इतिहास-लेखक नहीं रहा । मेरे लिये इतिहास का लिखना नवीन ही विषय है । परन्तु गुरुदेव में जो श्रद्धा रही और श्री ताराचन्द्रजी इतिहास के विभाग और - का इतिहास के प्रति जो प्रेम रहा- इन दोनों के बीच मैंने निर्भय होकर यह कार्य स्वीकृत किया । इतिहास लिखने में तीन बातों का योग मिलना चाहिये - ( १ ) इति - हासप्रेमियों और इतिहासज्ञों की सहानुभूति और उनका सहयोग, (२) समृद्ध साधन-साम्रग्री और (३) सुयोग्य लेखक !! इन तीनों बातों में दो के ऊपर पूर्व पृष्ठों में बहुत कुछ कहा जा चुका है और तीसरी बात के ऊपर यह प्रस्तुत इतिहास - भाग ही कहेगा । खराड. सर्व प्रथम प्रारम्भिक इतिहासकार्य को मैंने तीन कक्षों में विभाजित किया: -- (१) प्राप्त साधन-सामग्री का अध्ययन ( २ ) इतिहाससम्बन्धी बातों की नोंध और (३) अधिकाधिक साधन-सामग्री का जुटाना । इन बावों की साधना में कितना समय लगा और किस स्थान पर ये कितनी साधी मई के विषय में भी पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है। अब जब इतिहास की उपयोगी सामग्री ध्यान में निकाल ली गई, तब इतिहास की रूपरेखा बनाना भी अत्यन्त ही सरल हो गया । यह प्राग्वाटइतिहास दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम भाग प्राचीन और द्वितीय वर्तमान । प्रथम भाग में विक्रम संवत् पूर्व ५०० वर्षो से लगा कर वि० सं० १६०० तक का यथाप्राप्त प्रामाणिक साधन-सामग्री पर इतिहास लिखा गया है और द्वितीय भाग है वर्तमान, जिसमें वि० सं० १६०१ के पश्चात् का यथाप्राप्त वर्णन रक्खा गया है । यह प्रस्तुत पुस्तक प्रथम भाग ( प्राचीन इतिहास ) है, अतः यहां सब इसके विषय में ही कहा जायगा । साधन-सामग्री के अध्ययन पर यह ज्ञात हुआ कि विक्रम संवत् की आठवीं शताब्दी से पूर्व का इतिहास अंधकार में रह गया है और पश्चात् का इतिहास शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्रशस्तियों, कुलगुरुओं की पट्टावलियों, ख्यातों में बिखरा हुआ है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् का इतिहास भी दो स्तिथियों में विभाजित हुआ प्रतीत हुआ। आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी के अंत तक प्राग्वाटज्ञाति का सर्वमुखा उत्कर्ष रहा और उसके पश्चात् अवनति प्रारंभ हो गई । इस प्रकार यह प्रस्तुत इतिहास अपने आप तीन खण्डों में विभाजित हो जाता है ।. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास:: प्रथम खण्ड–विक्रम की पाठवीं शताब्दीपर्यन्त । द्वितीय खण्ड-वि० नवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दीपर्यन्त । तृतीय खण्ड-वि० चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवींपर्यन्त । यह सब तो इतिहास लिखने में सुविधा मिलने की मात हुई। अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ कि इस इतिहास का कलेवर कई दिशाओं में घूम-फिर -कर, कई ढांचों में हल कर वैश्यवर्ग के रूप में बना और जैनधर्म से अनुप्राणित हुआ । फलतः यह अनिवार्य हो गया कि वैश्यवर्ग के ऊपर और जैनधर्म के ऊपर यद्वांच्छित लिखा ही जाना चाहिए । सारांश यह निकलता है कि प्राग्वाटजाति का इतिहास एक जैनज्ञाति का इतिहास ही है। यह अपने आप बना । मेरी प्रारंभ में यह किंचित् भी भावना नहीं थी कि इस इतिहास-भाग को जैनधर्म की दिशा या दीक्षा दी जाय । प्राग्वाटज्ञाति की वैसे कई शाखायें हैं। समची प्राग्वाटज्ञाति सदा जैनधर्मानुयायी ही रही हो; सो बात भी सिद्ध नहीं होती है। परन्तु विवशता है, जब इस शांति की अन्य मतावलंबी शाखाओं के इतिहास की मुझको कुछ भी तो साधन-सामग्री प्राप्त नहीं हो पाई। अगर इतनी ही या इसके बराबर या न्यून भी सामग्री उपलब्ध हो जाती तो इतिहास के कलेवर का रूप और इसके व्यक्तियों के धर्म भिन्न ही होते। अन्य शाखाओं के इतिहास की साधन-सामग्री प्राप्त करने के लिये कितने प्रयत्न पर पूर्व के पृष्ठों में अच्छी प्रकार कहा जा चुका है। साधन-सामग्री जितनी प्राप्त हुई, जब वह जैनमतपक्ष की ही है, तव इस इतिहास के कलेवर को साम्प्रदायिक दृष्टिकोण नहीं रखते हुये भी जैन प्राग्वाट-वैश्यों के इतिहास की सीमा में परिबद्ध करदें तो आश्चर्य और मेरा अपराध भी क्या और क्यों ? प्रथम खण्ड , यह.तो मैं ऊपर ही कह चुका हूँ कि विक्रम की आठवीं शताब्दी से पूर्व का अंश अंधकार में है। कुछ एक इतिहासज्ञों की ऐसी भी मनोकल्पना अथवा धारणा कहिए कि आठवीं शताब्दी के पूर्व ओसवाल, अगरवाल, पौरवाल, श्रीमाल, खण्डेलवाल आदि वैश्यज्ञातियां थी ही नहीं। मैं इस मत अथवा धारणा को संशोधन करके मानना चाहता हूँ। वैश्यज्ञातियां तो अवश्य थीं और वे जैन, वैदिक दोनों ही मतों को मानने वाली थीं। बात इतनी ही थी कि वे इन नामों से आज जैसी उपाधिग्रस्त नहीं थीं। जैन ग्रन्थों में कई एक श्रेष्ठियों के दृष्टान्त आते हैं; जिनमें कहानियां, कथा और लंबे २ जीवन-चरित्र हैं। 'श्रेष्ठि' शब्द 'वैश्य' अथवा 'महाजन' शब्दों का ही पर्यायवाची है । यह हो सकता है कि उसके प्रयोग का भिन्न इतिहास और कारण हो और 'वैश्य' और 'महाजन' शब्दों के प्रयोग के इतिहास भिन्न २ दिशा में उठे हों। तीनों शब्द एक ही वर्म के परिचायक, बोधक अथवा विशेषण हैं-इसमें कोई शंका नहीं । जैन ग्रंथों में श्रेष्ठि सुदर्शन, श्रेष्ठि शालीभद्र, विजय सेठ और विजया सेठानी आदि कई नाम उपलब्ध हैं, जो आठवीं शताब्दी से कई शताव्यिों पूर्व भी श्रेष्ठिवर्ग अथवा वैश्यवर्ग के अस्तित्व की सिद्ध करते हैं और वे वैश्य जैन और वेदमत दोनों के अनुयायी थे। आज के वैश्यकुल चाहे उस समय वैस्य कहे जाने वाले कुलों के ही उदरज अर्थात पीढियों में भले नहीं भी हों. लेकिन हैं उन्हीं की परंपरा में दीक्षित और उन्हीं के उत्तराधिकारी तथा उन्हीं के अनुगत । तब क्या कारण है कि अनुगामी का इतिहास लिखते समय उसके अग्रमामी का इतिहास छोड़ दिया जाय अथवा उसको भिन्न इतिहास कह कर टाल दिया जाय । मुझको तो अंतर इतना ही प्रतीत होता है कि आज के वैश्यवर्गों के नाम पीछे से पड़ गये और वे आज उन्हीं नामों से Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्ताना प्रसिद्ध हैं और वे (आठवीं शताब्दी से पूर्व के) भाज के अलग अलग अभिधानों से प्रसिद्ध नहीं थे । वरन् एक श्रेष्ठि अथवा 'वैश्य' शब्द ही उन सब के साथ में लगता था। इन अलग अलग नामों के पड़ने का भी कारण है और उसका इतिहास है— जिसके विषय में यथाप्रसंग लिखा गया है । यद्यपि मैं भी वर्तमान वैश्य समाज के कुलों की उत्पत्ति आठवीं शताब्दी से पूर्व हुई स्वीकार नहीं करता हूँ, फिर भी वैश्य - परम्परा थी और वह भिन्न २ शाखाओं में भी थी। वे ही शाखायें आगे जाकर धीरे धीरे स्वतंत्रज्ञातियां और अलग २ नामों से मंडित होती गई । मैंने इस मत को स्थिर करके प्राग्वाट वैश्यों का यह इतिहास वैश्य - परम्परा के उस स्थान से ही लिखना प्रारंभ किया है, जिसका मुझको परिचय हो गया अगर कोई इतिहासकार यह हठ पकड़ कर बैठे कि मैं ऐसे कुल का ही इतिहास लिखूं, जो उसके मूल पुरुष से आज तक पीढ़ी -पर-पीढ़ीगत चला श्राया है। मेरी तो निश्चित् धारणा है कि संसार में ऐसा एक भी कुल मिलने का नहीं । कुल का इतिहास एक कल का होता है— सकल का नहीं और वह भी सीमित । ज्ञाति अथवा देश का इतिहास ही वस्तुत: इतिहास का नाम धारण करने का अधिकारी है । ज्ञाति घटती-बढ़ती रहती है । पहिले के समय में एक ज्ञाति से दूसरी ज्ञाति में कुल आ जा सकते थे। आज वह बात नहीं रही है; अतः बहुतसी ज्ञातिषां तो नामशेष रह गई हैं । वे ज्ञातियां वर्ण थीं, वर्ग थीं और उनके द्वार अन्य कुलों के लिये खुले थे। आज की ज्ञातियां अपने अपने में हैं और उन्हीं कुलों पर आ थम हैं और उन्हीं में सीमित होकर रूढ़ बन गई हैं । माग्वाट ज्ञाति की भी यही दशा है । यह अन्य ज्ञातियों अथवा वर्णों से आये हुये कुल्लों से बनी है; परन्तु आज इसमें उसी प्रकार अन्य ज्ञाति अथवा वर्ण से आने वाले कुल के लिये स्थान नहीं है, अतः घटती चली जा रही है । परन्तु इसका भूतकाल का इतिहास जो लिखा गया है, वह इसकी आज की मनोवृत्ति को देख कर नहीं; वरन् पहिले से चली श्राती हुई प्रथा और परम्परा पर ही निर्भर रहा है । अतः प्रथमखण्ड में प्रास्वादपरम्परा के उस वैश्य अथवा श्रावक अंश पर लिखा गया है, जिसने आगे जा कर प्राग्वाट नाम धारण किया। फलतः इस खण्ड के विबन्धों की रचना भी इसही धारणा पर हुई है । इस खण्ड में निम्न विषय आये हैं: १ 1 प्रथम खण्ड की रचना में ताम्रपत्र, शिलालेख एवं प्रशस्तियां जैसे कोई प्रामाणिक साधनों का उपयोग तो नहीं हो सका है, परन्तु जो लिखा गया है वह कल्पित भी नहीं है। भगवान् महावीर और उमके समय में भारत ब्राह्मणबाद से त्रस्त हो उठा था और जैनधर्म और बौद्धमत के जागरण का तात्कालिक कारण भी यही माना जाता है - यह प्रायः सर्व ही इतिहासकार मानते हैं । ब्राह्मणवाद की पाखण्डप्रियता से ही ज्ञाति जैसी संस्था का जन्म हुआ भी माना जाता है । वर्णों में ज्ञातिवाद उत्पन्न हो गया और धीरे २ अनेक नामवाली ज्ञातियां उत्पन्न हो गईौं । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति भी ऐसी ही ज्ञातियों के साथ में हुई है । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति के विषय में वि० सं० १३६३ में उपकेशगच्छीय आचार्य श्री कक्कुसूरि द्वारा लिखित उपकेशगच्छपट्टावली में लोक १६ से २१ में लिखा है। मेरी दृष्टि से तो उक्त पट्टावली प्रामाणिक ही मानी जानी चाहिए, जब कि अन्य मच्छों की पट्टावलियां प्रामाणिक मानी गई हैं । प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति कब, क्यों हुई और किसने की आदि प्रश्नों का हल इस खण्ड में दिया गया है। 1 १. भ० महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत पृ० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास २. भ० महावीर के निर्वाण के पश्चात् ३. स्थायी श्रावकसमाज का निर्माण करने का प्रयास ४. प्रावाभावकवर्ग की उत्पत्ति - ५. प्राग्वाट प्रदेश ६. शत्रुंजयोद्धारक परमार्हत श्रे० सं० जावड़शाह ७. सिंहावलोकन द्वितीय खण्ड . इस खण्ड की सम्पूर्ण रचना शिलालेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तियां, प्रामाणिक हैं। इसमें मेरी कोई स्वतंत्र उपज नहीं मिलेगी। जहां उलझन दिखाई दी, वहाँ मैंने विचार करके अपने ढंग से उसको सुलझाने का प्रयत्न अवश्य किया है । इस खण्ड में निम्नवत् विषय आये हैं: १. वर्तमान जैन कुलों की उत्पत्ति ग्रंथों के अनेक ६ ८ १५. महं० जिसधर द्वारा ३०० द्रामों का दान १६. श्री अर्बुगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाख्य चैत्यालय तथा हस्तिशाला अन्य प्राग्वाट बन्धुओं के पुण्यकार्य १७. श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु ११ १५ १७ २६ आधार पर की गई विद्वानों के मतों पर पृ० ३१ ४१ ५६ ६० २. प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद ३. राजमान्य महामंत्री सामंत ४. कासिन्द्रा के श्री शांतिनाथ - जिनालय के निर्माता श्रे० वामन ५. प्राचीन गूर्जर - मंत्री-वंश (विमल - वंश) 17 ६. अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ - जिनालय ८३ ७. मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसति - हस्तिशाला ६७ ८. व्ययकरणमंत्री जाहिल ६. श्रे० शुभंकर के यशस्वी पुत्र पूर्तिग और शालिग १०. महामात्य सुकर्मा ११. ० हांसा और उसका यशस्वी पुत्र श्रे० जगहू १०० १०१ १०२ १०३ १२. मंत्री - भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर - मंत्री-वंश १०५ १३. अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ - जिनालय १८७ १४. उञ्जयंतगिरितीर्थस्थ श्री वस्तुपाल- तेजपाल की टू'क १६४ १६७ १६८ २०२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना:: १८. श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण २१७ १६. न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ २२३ २०. सिंहावलोकन २३८ तृतीय खण्ड इस खण्ड की रचना भी प्रामाणिक साधनों के आधार पर ही द्वितीय खण्ड की रचना के समान ही की गई है। इस खण्ड में विषय निम्नवत् आये हैं: १. न्यायोपार्जित स्वद्रव्य को मन्दिर और तीर्थों के निर्माण और जीर्णोद्धार के विषयों में व्यय करके धर्म की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ २४६ २. तीर्थ एवं मंदिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थो के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य २६३ ३. तीर्थादि के लिये प्रा. ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें ३२१ ४. श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु .३२४ ५. श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण ३७४ ६. न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ ३८० ७. विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें. ४०६ ८. कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल ४६७ ६. सिंहावलोकन वर्णनशैली यद्यपि वर्णन करने का दंग स्वयं लेखक का होता है, परन्तु वह वयवस्तु के वशवी रह कर ही ढलता और विकशता है। प्रस्तुत इतिहास को प्रथम तो तीन खण्डों में विभाजित किया गया, जिसके विषय में और फिर प्रत्येक खण्ड में अवतरित हुये विषयों के विषय में भी पूर्व के पृष्ठों में कहा जा चुका है। अब यहां जो कहना है वह यही कि प्रत्येक खण्ड में आये हुये विषयों को काल के अनुक्रम से तो लिखना अनिवार्य है ही; परन्तु मैंने प्रस्तुत इतिहास में क्षेत्र को प्राथमिकता दी है और क्षेत्र में काल का अनुक्रम बांधा है। यह स्वीकार करते हुये तनिक भी नहीं हिचकता हूं कि प्रस्तुत इतिहास का प्रथम खण्ड प्राग्वाटज्ञाति का कोई इतिहास देने में सफल नहीं हो सका है। प्राग्वाटज्ञाति का सच्चा और इतिहास कहा जाने वाला वर्णन द्वितीय खण्ड में और तृतीय खण्ड में ही है । इन दोनों खण्डों के विषयों का वर्णन एक-सी निर्धारित रीति पर किया गया है । द्वितीय खण्ड के प्रारम्भ में 'वर्तमान जैन कुलों की उत्पत्ति', 'प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद'-इन दो प्रकरणों के पश्चात् राजनीतिक्षेत्र में हुये मंत्री एवं दण्डनायकों और उनके यथाप्राप्त वंशों का वर्णन प्रारम्भ होता है। द्वितीय खण्ड में विक्रम की नवमी शताब्दी से लगा कर विक्रम की तेरहवीं शताब्दीपर्यन्त वर्णन है । इन शताब्दियों में जितने मंत्री, दण्डनायक अथवा यों कह दूं कि राजनीति और राज्यक्षेत्र में प्रमुखतः जितने उल्लेखनीय व्यक्ति इस इतिहास में आने वाले थे, वे सब कालं के अनुक्रम से एक के बाद एक करके वर्णित किये गये हैं और तत्पश्चात् Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ :: प्राग्वाट - इतिहास :: अन्य क्षेत्र में हुये व्यक्तियों का वर्णन चला है।' इस प्रकार के वर्गीकरण में जो सहजता और सुविधा दृष्टिगत हुई, वह यह कि एक ही क्षेत्र अथवा एक ही विषयवाले वर्णन काल के अनुक्रम से एक ही साथ था गये और पाठकों को एक ही क्षेत्र में होने वाले ऐतिहासिक व्यक्तियों का परिचय अखण्ड धारा से एक साथ पढ़ने को प्राप्त हो सका । प्रस्तुत इतिहास के बाँहे पृष्ठ पर के शीर्षभाग पर 'प्राग्वट - इतिहास' लिखा गया है और दाहिने पृष्ठ के शीर्षभाग पर वर्णन किया जाता हुआ विषय और उस विषय से संबन्धित व्यक्ति, वस्तुविशेष अथवा कुल का मामोल्लेख । दोनों खण्डों में विषयानुदृष्टि से वर्गीकरण निम्न प्रकार दिया गया है : द्वितीय खण्ड १. राजनीति अथवा राज्यक्षेत्र में हुये व्यक्ति और कुल । २. प्रा० ज्ञा० बन्धुओं के मन्दिर और तीर्थो में किये गये पुण्यकार्य और उनकी संघयात्रायें । ३. श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु | ४. श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण | ५. श्री जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले सद्गृहस्थ | ६. सिंहावलोकन | तृतीय खण्ड १. मन्दिर तीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले सद्गृहस्थ । २. तीर्थ एवं मन्दिरों में देवकुलिका - प्रतिमा-प्रतिष्ठादि कार्य कराने वाले । ३. तीर्थादि के लिये सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें । ४. श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु । ५. श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण | ६. श्री जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले सद्गृहस्थ । ७, विभिन्न प्रान्तों में सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें । ८. कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल । ६. सिंहावलोकन | फिर प्रत्येक व्यक्ति, कुल एवं वस्तु के वर्णन को भी यथाभिलषित एवं आवश्यक प्रतीत होते हुये उपशीर्षक एवं आंशिकशीर्षकों (Side Headings) से संयुक्त करके वर्णितवस्तु को सहज गम्य एवं सुबोध बनाने का पूरा २ प्रयास किया है । विषयानुक्रमणिका के देखने से यह शैली और अधिक सरलता से समझ या सकती है, अतः इस पर पंक्तियों का बढ़ाना यहां अधिक उचित नहीं समझता हूँ । शिल्प- स्थापत्य जैन समाज के ज्ञान भण्डारों में रहा हुआ साहित्य जिस प्रकार बेजोड़ है, इसका जिनालयों में रहा हुआ शिल्पकाम भी संसार में अनुपम ही है । परन्तु दुःख है कि दोनों को प्रकाश में लाने का आज तक जैन- समान Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना:: [ ३५ की ओर से सत्य और समीचीन प्रयास ही नहीं किया गया। पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में यत्किंचित् श्रम किया गया है, परन्तु वह श्रम इस स्तर तक फिर भी नहीं बन सका, जो साहित्यसेवियों एवं शिल्पप्रेमियों को आकर्षित कर सके। प्रस्तुत इतिहास में मुझको साहित्यसंबंधी सेवायें देने का तो अवसर नहीं मिल सका है, परन्तु जैन मंदिरों में रहा हुआ जो अद्भुत शिल्पकाम है, उसको प्रकाश में लाने का अच्छा सुयोग अवश्य प्राप्त हो सका है और मैंने इस सुयोग को हाथ से नहीं जाने दिया यह कहां तक मैं सही कह सकता हूं यह सब पाठकों की तृप्ति पर ही विदित हो सकता है। प्राग्वाट-इतिहास केवल प्राग्वाटज्ञाति का ही इतिहास है। इसमें उन्हीं जिनालयों का वर्णन आया है, जो प्राम्बाटबंधुओं द्वारा विनिर्मित हुये हैं अथवा जिनमें प्राग्वाटबंधुओं ने उल्लेखनीय निर्माणकार्य करवाया है, अतः प्रस्तुत इतिहास में जितना शिल्पकाम अवसर पा सका है यद्यपि वह आंशिक ही कहा जा सकता है, परन्तु मेरा विश्वास है और अनुभव कि समस्त जैन-जिनालयों में जो उत्तम शिल्प एवं निर्माणसंबंधी वर्णनीय वस्तु है, वह अधिकांश में अवतरित हो गई है । जैन-जिनालयों में शिल्प एवं स्थापत्य की दृष्टि से अर्बुदगिरिस्थ श्री विमलवसहि, लूणवसहि, भीमवसहि, खरतरवसहि, अचलगढ़दुर्गस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय और उसमें विराजित १४४४ मण पंचधातुविनिर्मित बारह जिनप्रतिमायें, गिरनारतीर्थस्थ श्री नेमिनाथटूक, श्री वस्तुपालतेजपालटूक, १४४४ स्तंभों वाला श्री राणकपुर-थरणविहार श्री आदिनाथ-चतुर्मुख-जिनालय सर्वोत्कृष्ट एवं अद्भुत ही नहीं, संसार के शिल्पकलामण्डित सर्वोत्तम स्थानों में अपूर्व एवं आश्चर्यकारी हैं और शिल्पविज्ञों के मस्तिष्क की अनुपम देन और शिल्पकारों की टाँकी का जादू प्रकट करने वाले हैं । उपरोक्त जिनालयों में श्री विमलवसहि, लूणवसहि, वस्तुपाल-तेजपालटूक, अचलगढस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय और श्री राणकपुरतीर्थधरणविहार प्राग्वाटज्ञातीय बंधुओं द्वारा विनिर्मित हैं और फलतः इनका प्रस्तुत इतिहास में वर्णन अनिवार्यतः आया है और मैंने भी इनमें से प्रत्येक के वर्णन को स्थान और स्तर अपनी कलम की शक्ति के अनुसार पूरा-पूरा देकर उसको पूर्णता देने का ही प्रयास किया है, जिसकी सत्यता पाठकगण प्रस्तुत इतिहास में पाये इनके वर्णन पढ़ कर तथा शिल्पकला को पाठकों के समक्ष प्रत्यक्षरूप से रखने का प्रयास करने वाले शिल्पचित्रों से अनुभव कर सकेंगे। __इतिहास में भाषा सरल और सुबोध चलाई है। इतिहास की वस्तु को रेखांकित चरणलेखों से ऊपर लिखी है। जिसका जैसा और जितना वर्णन देना चाहिए, उतना ही देने का प्रयास किया गया है। सच्चाई को प्रमुखता ही नहीं दी गई, वरन् उसी को पूरा २ प्रतिष्ठित किया गया है। विवाद और कलह उत्पन्न करने वाली बातों को छुआ तक नहीं। इस इतिहास के लिखने का केवल मात्र इतना ही उद्देश्य रहा है कि प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न पुरुषों ने अथवा प्राग्वाटज्ञाति ने अपने देश, धर्म और समाज की सेवा में कितना भाग लिया है और फलतः प्राग्वाटज्ञाति का अन्य जैनज्ञातियों में तथा भारत की अन्य ज्ञातियों में कौन-सा स्थान है। यह नाम से भले ही प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास समझ लिया जाय, वरन् है तो यह जैनज्ञाति के एक प्रतिष्ठित अंग का वर्णन और उसके कार्य एवं कर्त्तव्य तथा धर्मपालन का लेखा। समय वैसे इतिहास के लिखने की चर्चा तो वि० सं० २००० में ही प्रारंभ हो गई थी और यह चर्चा कई ग्रामों Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] :: प्राग्वाट-इतिहास:: में भी पहुँच गई थीं। परन्तु वस्तुतः इतिहास के प्रथम भाग के लेखन का कार्य वि० सं० २००२ आश्विन शु. १२ शनिबर तदनुसार ता० २१ जुलाई ई. सन् १९४५ से प्रारंभ हुमा और आज वि० सं० २००६ आश्विन शु. ८ शनिश्चर तदनुसार ता० २७ सितम्बर ई. सन् १९५२ को मेरे प्रिय दिन 'शनिश्चर' पर ही सानंदपूर्ण हो रहा है। बागरा में वर्ष १ मास ६ दिन १ अर्ध दिन की सेवा से कार्य हुआ । सुमेरपुर में ,, ३ , ७, १ " " भीलवाड़ा में , -, ७ ॥ - " २ १०१ पूरे दिन की सेवा से कार्य हुआ। भीलवाड़ा में १ ३ २४ " " ४ १ २५ पाठकसज्जन ऊपर लिखी तालिका से समझ सकते हैं कि लेखन में तो पूरे चार वर्ष १ मास और आज पर्यन्त दिन पच्चीस ही लगे हैं। इस अवधि में ही पुस्तकों का अध्ययन, भ्रमण आदि दूसरे कार्य तथा छोटे २ कई एक भ्रमण भी हुये हैं। मैंने भी साधारण अवकाश और गृष्मावकाश भी भुगता है । यद्यपि गृष्मावकाश में प्रायः कार्य अधिकतर चाल ही रक्खा है। गजरात और मालवा का भ्रमण तथा राणकपरतीर्थ गृष्मावकाश में ही किये गये हैं। फिर भी आप सज्जनों को तो पूरे १ वर्ष प्रतीक्षा करते हो गये हैं। इतिहास कल्पना का विषय नहीं है। यह कार्य शोध और अध्यन पर ही पूर्णतः निर्भर है। जितना अधिक समय शोध और अध्ययन में दिया जाय, उतना ही यह अधिक सुन्दर, सच्चा और पूरा होता है। फिर भी पाठकों से उनकी लंबी प्रतीक्षा के लिये क्षमा चाहता हूं। अंतिम निवेदन मैं जितना लिख चुका हूँ. प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास इतना ही हो सकता है अथवा हम जितनी साधनसामग्री एकत्रित कर सके हैं, अब इससे अधिक सामग्री प्राप्त होने वाली नहीं है और हम जितना श्रम और समय दे सके हैं, उतना समय और श्रम अब इस गिरती दशा में लगाने वाले नहीं मिल सकेंगे-हमारे ये भाव कभी नहीं हो सकते । अब तो पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास की ओर इस ही ज्ञाति के पुरुषों का ही केवल मात्र नहीं, अन्य जैन अजैन सर्व ही भारतीय ज्ञातियों, वर्गों, समाजों के ज्ञाति एवं धर्म का अभिमान करने वाले विचारशील, परमोत्साही, विद्वान्, समाजसेवक श्रीमंतों का ध्यान अत्यधिक आकर्षित हो चला है। इसका यह परिणाम बहुत ही निकटतम भविष्य में आने वाला है कि जिन ज्ञानभण्डारों के तालों को जंग खा गया है, वे ताले अब खोल दिये जावेंगे और उन भण्डारों में रही हुई साहित्य-सामग्री को प्रकाशित किया जायगा। इस ही प्रकार अगणित शिलालेख, प्रतिमालेख, ताम्रपत्रलेख भी जो अमी तक शब्दान्तरित नहीं किये जा सके हैं, वे सर्व आगे आने वाली होनहार संतति के हाथों प्रकाश में आवेंगे और तब हमारे इस इतिहास जैसा इस ज्ञाति का ही कई गुणा इतिहास बन सके उतनी साधन-सामग्री प्राप्त हो जावेगी। इस ही प्रकार अन्य ज्ञाति, समाज एवं कुलों के इतिहासों के विषय में समझ लीजिये। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रस्तावना : ३७ पद्यपि हमने इतिहास के लिए साधन-सामग्री एकत्रित करने में कोई कमी और त्रुटि तो हमारी ओर से नहीं रक्खी हैं, फिर भी हम यह स्वीकार करते हैं कि जितने शिलालेख, ताम्रपत्रलेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तियां, प्रमाणित ग्रंथ अथवा और अन्य प्रकार की साधन-सामग्री जो अब तक प्रकाशित हो चुकी है, उसको भी हम पूरी-पूरी नहीं जुटा सके हों और फलतः अनेक वीरों के, महामात्यों के, महाबलाधिकारियों के, दंडनायकों के मंत्रियों के, गच्छनायकों के, आचार्य - साधुओं के, पुण्यशाली श्रीमंतों के, धर्मात्मा, दानवीर, नरश्रेष्ठि पुरुषों के एवं अति गौरवशाली कुलों के इतिहास लिखे जाने से रह गये हों। हम इसके लिए हृदय से इतिहास प्रेमियों से और ज्ञाति के अभिमान धर्चाओं से क्षमा मांगते हैं । हमसे जितना, जैसा बन सका वह यह प्रस्तुत इतिहास रूप में आपकी सेवा में अर्पित कर रहे हैं । प्रस्तावना का लेख बहुत लंबा हो गया है. परन्तु जो लिखा वह मेरी दृष्टि से अनिवार्यतः लिखा जाना चाहिए ही था । लेख बंद करने के पहिले अनन्य सहयोग देने वाले व्यक्तियों का आभार मानना अपना परम् कर्त्तव्य ही नहीं समझता, वरन् उनके नामों के आगे अपनी कृतघ्नता पर पश्चाताप करता हूं कि उन सब के सहयोग पर यह कार्य पूर्ण हुआ और ऊपर नाम मेरा रहा । प्रस्तुत प्रस्तावना में मेरे व्यक्तित्व से संबंधित जो कुछ और जितना मैंने दिया है, वह अमर नहीं भी देता तो भी चल सकता था, परन्तु फिर बात यह रह जाती कि इतिहास की प्रगति का इतिहास सच्चा किसी के भी समझ में नहीं आ सकता और मनगड़ंत अटकलें ही वहां सुलभ रहतीं । इतिहास-लेखन मुझको ही क्यों मिला, लेखन-प्रवाह में सम-विषम परिस्थितियां जो उत्पन्न हुई और कठिनाईयां जो उद्भूत हुईं, समस्यायें जो सुलजाई नहीं जा सकीं, ग्रन्थियां जो खोली नहीं जा सकीं, उनका इतिहास-लेखन पर क्या प्रभाव हुआ तथा प्रस्तुत इतिहास से संबंधित मेरा श्रम, मेरी भावनाऐं पाठक समझ सकें यही मेरी यहां इच्छा रही है । आभार पूज्यपाद श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी पर्वत को तराजू से नहीं तोला नहीं भरा जा सकता, उसही प्रकार उसको उनमें भर कर दिखा जा सकता, समुद्र को घड़ों से नहीं नापा जा सकता, वायों को स्वांसों में श्री की मेरे पर ई० सं० १६३८ वि० सं० १६६५ से जो कृपादृष्टि वृद्धि त होती आई हैं, मेरे पास जितने शब्द हैं, उनसे भी कईं गुणे और हो जांय नहीं सकता । इस इतिहास कार्य में आपश्री ने वि० सं० २००१ से पत्रों का ताता बांध कर प्रत्येक पत्र में कुछ कुछ नवीन बात मुझको जानने को दी तथा उत्साहवर्धक शब्दों से मेरे उत्साह को बराबर आपश्री बढ़ाते रहे, अगर उन सब का यहां संक्षिप्त उद्धरण भी दिया जाय तो भी मेरा अनुमान है कि इस आकार के लगभग सौ पृष्ठ हो जायेंगे । आपश्री के शुभाशीर्वाद से मैं सदा अनुप्राणित और उत्साहित बना रहा हूं। इस भक्तवत्सलतां के लिये मैं आपश्री का हृदय से आभार मानता हूँ और श्रापश्री ने मेरे में अद्भुत विश्वास करके जो यह इतिहासलेखन का कार्य को दिया, जिससे मेरा मान और मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी मैं उसके लिये आपश्री का कोटिशः श्रभिवादन करता हूं । पंडित लालचन्द्र भगवानदास, बड़ौदा इतिहास-कार्य के प्रारंभ से ही आप श्री की सहानुभूति प्रारंभ हो गई थी, जो आज तक वैसी ही प्रचुर बनी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट इतिहास : हुई है। भापश्री की निरमिमानता, सरलता, नवयुवक लेखकों के प्रति बहुत कम पंडितों में मिलने वाली सहृदयता एवं उदारता से मैं इतना प्रभावित हुआ हूँ कि मेरे पास में शब्द नहीं हैं कि मैं आपके इन दुर्लम गुणों का वर्णन कर सकें। ऐसे बहुत ही कम पंक्ति मिलेंगे जो किसी अपरिचित लेखकको ग्यारह दिवसपर्यन्त अपने घर पर पूरे-पूरे आदर के साथ में रक्खे और उसके लेखनकार्य का अपना अमूल्य समय देकर सद्भावना एवं लग्न से अमूल्य अवलोकन करें। इतिहास-कार्य के प्रसंग से मैं कई एक विद्वानों और पंडितों के सम्पर्क में आया हूं, परन्तु आपमें जो गुण मुझको देखने को मिले थे अन्य में बहुत कम दिखाई दिये। 'वि० सं० २००९ आश्विन शु. १३ मंगलवार तदनुसार ता.३० सितम्बर १६५२ को 'श्री प्राग्घाट-इतिहास-प्रकाशक-समिति' के मंत्री श्री ताराचन्द्रजी ने समिति की ओर से समाज के अनुभवी एवं प्रतिष्ठितजनों की सुमेरपुर में विशेष बैठक प्रस्तुत भाग का अवलोकन करने के लिये बुलाई थी। उक्त बैठक में प्रस्तुत भाग को आप और आवश्यकता प्रतीत हो तो मुनि श्री जिनविजयजी को दिखाकर प्रकाशित करवाने का निर्णय किया गया था । एतदर्थ आप निमंत्रित किये और स्टे.राणी में शाह गुलाबचन्द्रजी भभूतमलजी की फर्म के भवन में आपने वि० सं० २००६ पौ० कृ०७ तदनुसार ता०८ दिसम्बर १६५२ से १६ दिसम्बर तक दिन ग्यारह पर्यन्त ठहर कर तत्परता से प्रस्तुत भाग का अवलोकन किया। कई स्थलों पर मंमीर चर्चायें हुई। शेष कुछ अंश रह गया था, उसका अवलोकन आपने बड़ौदा में ता० २४-१२-५२से २-१-५३ तक किया । बड़ौदा मैं भी आपके साथ ही गया था। बडौदा जाने का अन्य हेतु यह था कि वहां के बड़े-बड़े पुस्तकसंग्रहालयों से कई एक मूलग्रन्थ देखने को मिल सकते हैं और संभव है और कुछ सामग्री प्राप्त हो सके । सामग्री तो नहीं मिल सकी, मूलग्रन्थ देखने को मिले' [ये पंक्तियां प्रस्तावना लिखी जाने के पश्चात् ता० ५-१-५३ के दिन लिखी गई] आपने इतिहास के कलेवर को स्वस्थ, प्रशस्त बनाने में जो सुसंमतियां देकर तथा अपने गंभीर अनुभव का लाभ पहुँचा कर मत्सरताविहीन मुक्तहृदय से सहानुभूति दिखाई है और सहयोग दिया है, उसके लिये लेखक आपका अत्यन्त आभारी है। श्री ताराचन्द्रजी इतिहास लिखने वाले इतिहास लिखते ही हैं। इसमें कोई नवीन बात नहीं। परन्तु मैं तो इतिहासकार था भी नहीं। गुरुवर्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरि महाराज सा० के वचनों पर विश्वास करके आपने प्रस्तुत इतिहासलेखन का कार्य मुझको दिया यह तो आपकी गुरुश्रद्धा का परिणाम है जो शोभनीय और स्तत्य है, परन्त आपने मेरे में जैसा अदभुत और अविचल विश्वास आज तक बनाये रक्खा, यह मान बहत ही कम भाग्यशाली लेखकों को साप्त होता है । इतना ही नहीं मैं बागरा में रहा, जहां इतिहास-कार्य की प्रगति का निरीक्षण करने वाला कोई नहीं था, मैं वहां से सुमेरपुर में आया और वहां इतिहास-कार्य जैसा बनना चाहिए था नहीं बन सका, सुमेरपुर से मैं भीलवाड़ा आ गया, जहाँ आप केवल एक बार ही आ सके, कोई देखने वाला और कहने वाला नहीं-मेरी नेकनियति में आपका यह विश्वास कम आश्चर्य की वस्तु नहीं । आपके इस विश्वास से मेरा जीवन अधिक वेग से ऊपर उठा है-यह मैं स्वीकार करता हूं और आपका हृदय से आभार मानता हूँ । धर्मपत्नी श्रीमती लाडकुमारी 'रसलता' आपका एक सच्ची अर्धागिनी का सहयोग और प्रेम नहीं होता, तो निश्चित था कि इतिहासकार्य में मेरी सफलता घट जाती । मुझको हर प्रकार की सुविधा देकर, मेरे समय का प्रतिपल ध्यान रख कर इस अंतर में मेरे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावमा :: जिम्मे का गृहस्थभार भी आपने वहन किया और मुझको अपने कार्य में प्रगति करने के लिये मुक्त-बंधन रक्खा यह मेरे लिये कम सौभाग्य की बात नहीं है। ऐसी अर्धाङ्गिनी को पाकर मैं अपना गृहस्थ-जीवन सफल समझता हूँ और आपका प्रेमपूर्वक आभार मानता हूँ। अंत में जिन २ विद्वान् लेखकों की पुस्तकों का उपयोग करके मैं यह इतिहाक-भाग लिख सका हूँ, उन सब का अत्यन्त ऋणी हूँ और उस ऋण को चुकता करने के लिये यह इतिहास-ग्रंथ सादर प्रस्तुत करता हूं और स्वीकार करता हूं कि इसमें जो कुछ है, वह सब उन्हीं का है। फिर भी ऊपर नाम रख कर जो मैंने विवशतया धृष्टता की है, उसके लिये क्षमा चाहता हूं और आभार प्रदर्शित करता हूँ। वि० सं० २००६ आश्विन शुक्ला नवमी । लेखक-दौलतसिंह लोढा 'अरविंद' बी. ए. ई० सन् १६५२ सितम्बर २७ शनिश्चर. ) अमरनिवास, भीलवाड़ा (मेवाड़-राजस्थान) प्रस्तुत इतिहास के अवलोकनार्थ सुमेरपुर में श्री प्राग्वाटइतिहास-प्रकाशक समिति की बैठक और उसमें मेरी उपस्थिति ___ तथा श्री पोसीना-(साबला-पोशीना, ईडर-स्टेट) तीर्थ की यात्रा. प्रस्तुत इतिहास का लेखन सभूमिका जब समाप्त हो गया तो प्राग्वाटइतिहास-प्रकाशक समिति के मंत्री श्री ताराचन्द्रजी ने समिति की ओर से समाज के अनुभवी और प्रतिष्ठितजनों की प्रस्तुत भाग का अवलोकन करने के लिये 'श्री वर्धमान जैन बोर्डिंग हाउस, सुमेरपुर में विशेष बैठक वि० सं० २००६ आश्विन शुक्ला १३ (त्रयोदशी) तदनुसार ता० ३० सितम्बर १६५२ को बुलाई। लेखक भी प्रस्तुत भाग की पाण्डुलिपि लेकर उक्त बैठक में निमंत्रित किया गया था । दिन के दो प्रहर पश्चात् शुभपल में इतिहास का वाचन इस विशेष बैठक में उपस्थित हुये बन्धुओं के समक्ष प्रारम्भ किया गया। सर्व प्रथम आचार्य श्री यतीन्द्रसरिजी का संक्षिप्त परिचय और तत्पश्चात् मंत्री श्री ताराचन्द्रजी का परिचय पढ़ा गया। इनके पढ़ लेने के पश्चात् इतिहास का वाचन प्रारम्भ हुआ। प्रथम खण्ड में जहां 'प्राग्वाट-प्रदेश' के विषय में उल्लेख है, उसमें 'शक' ज्ञाति का यथाप्रसंग कुछ लेख आया है। 'शकज्ञाति' के नाम स्मरण पर ही बैठक में विवाद प्रारम्भ हो गया। विचार का आधार था की 'शकज्ञाति' एक शद्र ज्ञाति है और उत्पत्ति के प्रसंग में इस ज्ञाति के उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति में शुद्रज्ञातियों का भी उपयोग हुआ है। उक्त विचार प्रकरण की किसी भी पंक्ति से यद्यपि नहीं निकल रहे थे, परन्तु विवाद जो उठ खड़ा हुआ, उसका सच्चा हेतु तो विवाद को प्रारम्भ करने वाले सज्जन ही सत्य २ कह सकते हैं । हेतु के विषय में मैं अपना अनुमान भी देना उचित नहीं समझता। विवाद इतना बढ़ गया कि 'प्राग्वाट-प्रदेश' का प्रकरण भी पूरा सुना नहीं गया और 'शकज्ञाति' के अवतरण के प्रसंग पर तो विचार ही नहीं किया गया। पात बैठती नहीं देख कर निदान मैंने यह सुझाव रक्खा कि मुनि श्री जिनविजयजी, पं० श्री लालचन्द्रजी, बड़ौदा और पंडित श्री अमरचन्द्रजी नाहटा भारत के प्रसिद्ध विद्वानों एवं पुरातत्वज्ञों में अग्रणी माने जाते हैं और ये तीनों इतिहासविषय के धुरंधर पण्डित हैं। इनमें से समिति एक, दो या तीनों से इतिहास का अवलोकन करालें और उनके अभिप्रायों पर विचार करके फिर जो कुछ निर्णय करना हो वह करें। यह प्रस्ताव Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: स्वीकृत कर लिया गया और पं० श्री लालचन्द्रजी, बड़ौदा को प्रस्तुत भाग का अवलोकन करने के लिये प्रथम निमंत्रित करना निrय किया गया और फिर आवश्यकता प्रतीत हो तो मुनि श्री जिनविजयजी से भी इसका अव लोकन कराना निश्चित किया गया। तत्पश्चात् बैठक तुरंत ही विसर्जित हो गई । मैं ता० २ अक्टोवर को सुमेरपुर से बागरा के लिये खाना हुआ । बागरा में श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी महाराज विराज रहे थे । उनसे सब बीती सुनाई। वहां से लौट कर पुनः सुमेरपुर होता हुआ स्टेशन राणी आया और राणी से ता० ६ अक्टोबर को फालना होकर श्री राणकपुरतीर्थ श्रा पहुँचा । ' राणकपुरतीर्थ' के वर्णन में जो कुछ उल्लेख करने से रह गया था, उसकी वहां एक दिन ठहर कर पूर्ति की । तत्पश्चात् पुनः सादड़ी होकर स्टे० फालना आया और ता० ११ अक्टोबर को स्टेशन फालना से ऊंझा का टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा। ऊंझा में स्व० मुनि श्री जयंतविजयजी महाराज साहब के सुयोग्य एवं साहित्यप्रेमी शिष्यप्रवर मुनि श्री विशालविजयजी विराज रहे थे | उनसे 'आबू' भाग १ में छपे हुये ब्लॉकों की मांगणी करनी थी । सुनि श्री ने ब्लॉक दिलवा देने की फरमाई । ता० १२ अक्टोवर को ऊंझा से ईडर के लिये खाना हुआ और वीशनगर हो कर सायंकाल के लगभग साढ़े पांच बजे मोटर से ईडर पहुंचा। यहां पहुंच कर पर्वत पर बने हुये जैन-मंदिरों के दर्शन किये और वहां के अनुभवी सज्जनों से मिल कर पोसीनातीर्थ के विषय में अभिलषित परिचय प्राप्त किया । ता० १३ अक्टोबर को पोसीना पहुंचा और तीर्थपति के दर्शन करके प्रति ही आनंदित हुआ । पोसीना जाने का विशेष हेतु यह था कि श्रीमद् बुद्धिसागरजी महाराज साहिब द्वारा संग्रहीत जैन-धातु- प्रतिमा - लेख संग्रह भा० प्रथम में लेखांक १४६८ में वि० सं० १२०० का एक लेख श्रसवालज्ञातीय वृद्धशाखासंबंधी प्रकाशित हुआ है । यह लेख महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल के पूर्व का है। यह दंतकथा कि दशा- बीशा के भेदों की उत्पत्ति उक्त मंत्री आताओं के द्वारा दिये गये एक प्रतिभोज में उपद्रव खड़े हो जाने पर हुई मिथ्या हो जाती है और यह प्रत्यक्ष प्रमाणित हो जाता है कि ये भेद मंत्री भ्राताओं के जन्म के पूर्व विद्यमान थे । परन्तु दुःख है कि उस प्रतिमा के, जिस के ऊपर यह लेख था दर्शन नहीं हो सके । संभव है वह प्रतिमा किसी अन्य स्थान पर भेज दी गई हो । विचार यह था कि अगर उक्त प्रतिमा वहां मिल जाती तो उस पर के लेख का चित्र प्रस्तुत इतिहास में दिया जाता और वह अधिक विश्वास की वस्तु होती और दशा बीशा के भेद की उत्पत्ति के विषय में प्रचलित श्रुति एवं दंतकथा में आपो-आप आमूल परिवर्त्तन हो जाता और तत्संबंधी इतिहास में एक नया परिच्छेद खुल कर एक अज्ञात भावना का परिचय देता । पोसीना से सीधा अहमदाबाद स्टेशन हो कर ता० १४ को राणी पहुँचा और ता० १५ को सकुशल भीलवाड़ा पहुँच गया । दुःख यह रहा की यह यात्रा सर्वथा निष्फल ही रही । . वि. सं. २०१० श्रावण शु. १४. ई. सन् १६५३ जुलाई २४ सोमवार | रक्षा-बंधन, श्री गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर । 5 लेखक दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी. ए. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: साधन-सामग्री: साधन-सामग्री - संस्कृत, हिन्दी, गूर्जर, आंगलमाषाबद्ध शिलालेख, प्रतिमालेखसंग्रह, प्रशस्तिग्रंथ, गुरुपट्टावली, इतिहास, चरित्र, रास, प्रबंध, कथाकोष, पुराण, कथाग्रन्थ, पुस्तकादि संक्षिप्त नाम पूर्ण नाम लेखक, संपादक, संग्राहक, संशोधक प्रकाशक और प्रकाशन वर्ष प्रा. जै० ले० सं०. प्राचीन जैनलेखसंग्रह संग्रा०, संपा० जैन आत्मानन्द सभा, भा०१ (संस्कृत) मु. जिनविजयबी भावनगर.सं० १९७३ " भा०२ , " " "१९७८ जै०धा०प्र०ले०सं० जैन धातुप्रतिमालेखसंग्रह अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, भा०१ (संस्कृत) बुद्धिसागरजी बम्बई. सं० १९७३ , भा०२ , " , " १९८० जै० ले० सं० जैन लेखसंग्रह संग्रा० जैनविविध-साहित्य-शास्त्रमाला, भा० १ (संस्कृत) पूर्णचन्द्रजी नाहर बनारस. सन् १९१८ " भा० २ ॥ स्वयं, कलकत्ता. सन् १९२७ ,, भा० ३ ॥ __ , , १९२६ प्रा. ले० सं० प्रचीन लेखसंग्रह ___ यशोविजय जैनग्रंथमाला, मा० १ (संस्कृत) श्री विजयधर्मसरि भावनगर. सन् १९२६ जै० प्र० ले० सं० जैनप्रतिमा-लेखसंग्रह संग्रा० यतीन्द्र-साहित्य-सदन, (संस्कृत) . श्री यतीन्द्रसरि . थामणिया (मेवाड़). सं० २००८ आबू आबू ले. कल्याणजी परमानन्दजी, भा० १ (हिंदी) मु० जयन्तविजयजी सिरोही. सं०१९८६ अ.प्रा.जै०ले०सं० अर्बुदप्राचीन-जैनलेखसंदोह। विजयधर्मसूरि जैन ग्रन्थमाला, आबू भा० २ (संस्कृत) उज्जैन. सं० १९६४ अचलगढ़ आबू यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भा० ३ (गूर्जर) भावनगर. सं० २००२ अर्बुदाचलप्रदक्षिणा आबू भा० ४ (संस्कृत). __" " , २००४ अ०प्र०ले०सं० अर्बुदाचलप्रदक्षिणा जैनलेख-संदोह , " " , २००५ . आबू भा० ५ (संस्कृत) श० मा० श्री शत्रुञ्जयमाहात्म्य श्री जैन धर्मप्रसारक सभा, श्री धनेश्वरमरिकृत (गूर्जर) भावनगर. सं० १९६१ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] श० प्र० सि० व० श०म० ती ०या०वि० श० ती० प्र० श० वी० द० श० प० प० गि० ग० गि० ती ० इति० गी० मा० जै० ती ० मा० प्रा० ती ० मा० वि० ती० क० मा० म० जै० ती० भू० जै० ती ० इति ० जै० पु० प्र० सं श्री शत्रुजयप्रकाश (गूर्जर) सिद्धाचलजी' वर्णन (गुर्जर) श्री शत्रुञ्जयमहातीर्थादिक यात्राविचार यो० (गुर्जर) शत्रुञ्जयतीर्थोद्धार प्रबंध (हिन्दी) शत्रुञ्जयतीर्थदर्शन (गुर्जर) शत्रुञ्ज पर्वत का परिचय (गूर्जर) गिरनार गल्प (हिन्दी) श्री गिरनारतीर्थनो इतिहास (गुर्जर) गिरनार माहात्म्य जैन तीर्थमाला प्राचीन तीर्थमाला, संग्रह भा० १ विविधतीर्थकल्प :: प्राग्वीट- इतिहास :: ले० देवचन्द दामजी " " जैन तीर्थ भूमिश्र " 99 जिनप्रभसूरिविरचित (संस्कृत) माण्डवगढ़नी महत्वा (गूर्जर) (गूर्जर) तीर्थनो इतिहास (गूर्जर) जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह भाग १ (संस्कृत) मु० कपूरविजयजी संपा० मु० जिनविजयजी प्रयो० फूलचन्द्र हरिचन्द्र दोसी प्रयो० मु० जिनविजयजी ले० मु० ललित विजयजी ले० ले० दोलत चन्द पुरुषोत्तमदास संशो० विजयधर्म संपा० मु० जिनविजयजी लें. मु० धुरंधरविजयजी ले० सु० जयन्तविजयजी ले० ० न्यायविजयजी ( त्रिपुटी) संपा० जिनविजयजी जैनपत्रनी श्रोफिस, भावनगर. ई० स० १६२५ श्री जैन श्रेयस्कर मण्डल, म्हेसाणा. सं० १६७० श्री आत्मानन्द सभा, भावनगर. सं० १६७३ चन्द्रकान्त फूलचन्द दोसी, पालीताणा. सं० २००२ 39 17 श्री हंस विजयजी फ्री जैनलाईब्रेरी, अहमदाबाद. सं० १६७८ जैन सस्ती वांचनमाला, भावनगर. सं० १६८६ स्वयं प्रकाशक सं० १६५० जैन सस्ती वांचनमाला, भावनगर, सं० १६८६ श्री यशोविजयजी जैन ग्रन्थमाला भावनगर. सं० १६७८ सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शांतिनिकेतन, सं० १६६० जैन साहित्यवर्धक सभा, शिरपुर. सं० १६६८ यशोविजयजी जैनग्रंथमाला, भावनगर. सं० २००७ श्री जै० साहित्य फण्ड, सूरत. सं० २००५ सिंघी जैन ग्रन्थमाला - भारतीय विद्याभवन, बम्बई. सं० १६६६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::सावन-स्वमग्री: सं० __सं० प्र०सं० श्री प्रशस्तिसंग्रह संपा० श्री देशविरति धर्माराधक समाज, (संस्कृत) अमृतलाल मगनलाल शाह अहमदावाद. सं० १९९३ नानं०जि०प्र० नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध संपा० श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ग्रंथमाला, कक्कसरिविरचित (संस्कृत) पं० भगवानदास हरखचंद अहमदाबाद. सं० १९८५ प्र.चि. या प्र.चि.म. प्रबंध-चिंतामणि संपा. सिंघी जैन ज्ञान पीठ-विश्वभारती, मेरुतुजाचार्यविरचित(संस्कृत) मुनि जिनविजयजी शान्तिनिकेतन. सं० १९८६ । अनु० सिंघी जैन ग्रंथमाला, (हिन्दी) हजारीप्रसाद द्विवेदी अहमदाबाद. कलकत्ता. सं १९६७ पु० प्र० सं० पुरातनप्रबंधसंग्रह सिंघी जैन ज्ञानपीठ. (संस्कृत) मु० जिनविजयजी कलकत्ता. १९६२ प्रबंधकोश सिंघी जैन ज्ञानपीठ, राजशेखरसरिकृत (संस्कृत) , शांतिनिकेतन. सं० १९६१ ख०मा००इति० खंभातनो प्राचीन जैन इतिहास ले० श्री आत्मानंद-जन्मशताब्दी-स्मारक-ट्रस्टबोर्ड, (गूर्जर) नर्मदाशंकर त्रंबकराम बम्बई. सं. १९६६ प्रा० भा. व. प्राचीन भारतवर्ष ले. शशिकान्त एण्ड कं०, भाग १,२,३,४,५,, लहेरचंद्र त्रिभुवनदास बड़ौदा. सं० १९६१-६७ मा० रा० इति. मारवाड़राज्य का इतिहास ले. आर्कियॉलॉजिकल डिपार्टमेंट, भाग १,२ (हिन्दी) पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ जोधपुर. सं० १९६५ हिन्दी साहित्य मंदिर, , जगदीशसिंह गहलोत जोधपुर. सं० १९८२ रा० इति. राजस्थाननो इतिहास अनु० सस्त-साहित्यवर्धक कार्यालय, जेम्स टॉडप्रणीत (गुर्जर) रतसिंह दीपसिंह परमार अहमदाबाद. बम्बई. सं० १९८२ सि. रा० इति सिरोही राज्य का इतिहास ले. स्वयं लेखक ---(हिन्दी) पं० गौरीशंकर हीराचंद्र अोझा सं० १९६८ ० रा० इति० डूंगरपुर-राज्य का इतिहास ले० स्वयं लेखक (हिन्दी) , सं० १९६२ इति. खंभातनो इतिहास ले०/ खंभात-राज्य (गूर्जर) पं० रत्नमणिराव भीमराव सं० १९६१ चं० श्री चौलुक्यचंद्रिका विद्यानंदस्वामी .. बासदा-स्टेट (लाट-गूर्जर) सं० १९९३ गु० म० रा० इति. गुजरातनो मध्यकालीन गूर्जर वर्ना० सोसाइटी, राजपूतइतिहास (गूर्जर) दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री अहमदाबाद. सं० १९६३ . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: ले० . रा० जै० वीर राजपूताने के जैन वीर ले. हिन्दी विद्या मंदिर, (गर्जर) अयोध्याप्रसाद गोयलीय देहली. सं० १९६० पो० ज्ञा० इति० पोरवाड़ ज्ञातिनो इतिहास ले. ___ स्वयं लेखक, (गूर्जर) ठ० लक्ष्मणसिंह देवास. सं० १९८६ उ० हि. जै० ध० · उत्तर हिन्दूस्थानमा जैनधर्म ले. लोंगमेन्स ग्रीन एण्ड कं०, (गूर्जर) चीमनलाल जेचंद शाह बम्बई. सन् १९३७ जै० ज० जैन जगती श्री शांतिगृह, _(हिन्दी) दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद) धामणिया(मेवाड़). सं०१६६८ जै०ऐ०रा०मा० जैन ऐतिहासिक रासमाला संशो० श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, __भाग १ (गूर्जर) मोहनलाल दलीचन्द शाह बम्बई. सं० १९६६ रा० मा० फार्वेससाहब लिखित रासमाला अनु० दी फाइँस गुजराती सभा, भाग १ (गूर्जर) रणछोड़भाई उदयराम बम्बई. सं० १९७८ __ भाग २ " " " , , १९८३ ऐ० रा. सं० ऐतिहास राससंग्रह ले. श्री यशोविजय जैन ग्रंथमाला, भाग१,२,३,४ (गूर्जर) विजयधर्मसूरि भाषनगर. सं० १९७६-७८ हि०शि०रा०र० श्री हितशिक्षारासनो रहस्य ले० श्री जैनधर्मप्रसारक सभा, (गूर्जर) कवि ऋषभदास भावनगर सं० १९८० म.प.या अं.ग.म.प. अंचलगच्छीय महोटी पट्टावली ............ श्री विधिपक्षगच्छस्थापक श्रार्यरक्षितमरि(गूर्जर) पुस्तकोद्धारखाता, कच्छ. सं.१९८५ त०५० तपागच्छपट्टावली श्री विजयनीतिसूरीश्वरजी लाईब्रेरी, भाग १ श्री कल्याणविजयजी अहमदाबाद. सं० १९६६ स० १० सं० तपागच्छ-श्रमण-संघ श्री चारित्र-स्मारक ग्रंथमाला, (गुर्जर) श्री जयंतीलाल छोटासाल बीरमगाम. सं० १९६२ ५० स० पहावलीसमुच्चय . संपा० भाग १ (संस्कृत) मु० दर्शनविजयजी , , १९८६ सो० सौ० का० सोपसौभाग्य काव्य . अनु० श्री जैन ज्ञानप्रसारक मण्डल, (गर्जर) मु. धर्मविजयी बम्बई. सं० १९६१ उ० ग०प० उपकेशगडप्रबंध ले. अप्रकाशित (संस्कृत) श्रीमद्ककसरि गुर्वावली ___ ............., श्री यशोविजय जैन ग्रंथमाला, मु० सुन्दरसूरि भावनगर. सं० १९६७ ao Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा०प० ब्रा० उत्प० भाग १,२ (हिन्दी) ग०प्र०या जै० गी० गच्छमतप्रबंध संघ - प्रगति जै० ज० म० म० वं० मु० जै० गो० सं० (गूर्जर) श्री० बा० ज्ञा० भे० श्रीमाली बागियोनो ज्ञातिभेद (गूर्जर) जै० सं० शि० गु० अ० इति० पी०रि० पार्श्वनाथ परंपरा जै० गु० क० " तथा जैनगीता (गुर्जर) जैनजातिमहोदय 17 (हिन्दी) महाजनवंश - मुक्तावली (हिन्दी) जैन गोत्र संग्रह जैन सम्प्रदाय - शिक्षा भा० १, २ (अंग्रेजी) जै० सा० सं० इति ० जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास ( गूर्जर) (हिन्दी) गुजराती कोनो इतिहास (गूर्जर) ब्राह्मणोत्पति पीटरसन की रिपोर्ट जैन गुर्जर कवि भा० १ भा०२ 99 ,, भा०३ खं० १ खं० २ ११ आ० का ० म० मौ० आनन्द - काव्य - महोदधि-मौक्तिक 33 " " जि० र० को ० भा० १ (अंग्रेजी) ली. मं. ६. प्र. सू.प. लींबड़ी भंडार की हस्तलिखित :: साधन-सामग्री : ले. मु० ज्ञानसुन्दरजी (देवगुप्तसूरि ) ले० बुद्धिसागर ले० " जिन रत्नकोश " " ८ कुमारपालरास (गुर्जर) ० ज्ञानसुन्दरजी ले. मु० रामलाल गण ले० हीरालाल हंसराज ले० मणीभाई बोरभाई ले० यति श्री बालचन्द्रजी ले० प्रो० विनोदिनी नीलकंठ ले० पं० हरिकृष्ण शास्त्री ले० पीटरसन ले० मोहनलाल दलीचन्द शाह 99 39 19 "1 • कवि ऋषभदास से० पं० हरिदामोदर वेलंकर संयो० प्रतियों का सूचीपत्र (गुर्जर) मु० चतुरविजयजी | v श्री रत्नप्रमाकर ज्ञान- पुष्पमाला, फलोदी. सं० २००० श्रीश्रध्यात्मप्रसारक मंडल, बम्बई. सं० १६७३ श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान- पुष्पमाला, फलोदी. सं० १६८६ श्री जैन विद्याशाला, बीकानेर. सं० १६६७ स्वयं लेखक, जामनगर. सं० १६८० जैन बन्धु मण्डल, सूरत. सं० १६७७ सेठ तुकाराम जावजी, सं० १६६७ गुर्जर वर्ना • सोसाइटी, ० अहमदाबाद. सं० १६६८ खेमराज श्रीकृष्णदास, बम्बई. सं० १६७६ श्री जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई, सं• १६८६ १६८२ १३८७ २००० " 19 19 و 13 11 " 99 " देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्वारफण्ड, बम्बई, सं० १९८३ भंडारकर ओरियन्टल रीसर्च इंस्टी ब्यूट, पूना सन् १६४४ श्रीमती श्रागमोदय समिति, बम्बई, सं० १६८५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: खं.शा.प्रा.ता. जे.ज्ञा.मं. संभात शांतिनाथ भंडार की प्राचीन संयो० ताड़पत्रीय पुस्तकों का सूचीपत्र ( गूर्जर) कुमुदसूरिजी जैन ग्रंथावली जै० प्र० सा० मा० प्र० च० क्र० प्र० कु० प्र० प्र० प्र० पु० जै० म० २० व०च० या वच० न० ना० नं० की ० कौ० ह० म० म० (गुर्जर) " गू० प्रा० मं० नं०प० गूर्जर प्राचीन मंत्री वंश-परिचय (गुर्जर) वि० प्र० वि० रा० सु० सं० साधन-सामग्री (गुर्जर) श्री प्रभावक चरित्र श्री प्रभाचंद्रसूरिकृत (गूर्जर) कुमारपाल प्रतिबोध कुमारपाल प्रतिबोध-प्रबंध (संस्कृत) प्रभाविक पुरुषो जैननो महान् रत्नो (गुर्जर) विमल-प्रबन्ध पं० लावण्यसमयकृत विमलमंत्री - रास पं० लावण्यसमयरचित वस्तुपाल-चरित्र नरनारायणानंदकाव्य कीर्ति कौमुदी हमीरमदमर्दननाटक सुकृतसंकीर्त्तनम् 19 17 (संस्कृत) 11 39 19 " मुनि जिनविजयजी का भाषण श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर 11 11 भीमसिंह माणके ले० श्रीमद् हर्ष ले० 93 ले० मोहनलाल दीपचन्द ले० प्रभुदास अमृतलाल मेहता ले० पं० लालचंद्र भगवानदास संशो० लाल बोरभाई संशो० वस्तुपाल " ले० महाकवि सोमेश्वर ले० जयसिंहमूरि ले० महाकवि अमरसिंह शांतिनाथ प्राचीन ताड़पत्रीय जैन ज्ञानभण्डार, खंभात. सं० १६६६ श्री जैन श्वेताम्बर सभा, बम्बई. सं० १६६५ गुजरात साहित्य सभा, अहमदाबाद. सन् १९३३ श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर. सं० १९८७ १६८३ " " 11 "2 " " , श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सं० १६६६ जैन सस्तीवांचनमाला, भावनगर, सं० १६८२ " श्री क्षान्तिसूरि जैन ग्रंथमाला, महुबा (गूर्जर) सं० १६६७ ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा. ई० सन् १६१६ " स्वयं भाषान्तरकर्त्ता, सूरत. सं० १६७० स्वयं भाषान्तरकर्त्ता, बम्बई. सं० १६६८ 11 १८८३ " 77 १६२० श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, सं० १९७४ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० वि० ध० म० सुरथोत्सव सु० की ० क० व० ते० प्र० म० व० प्र० २० गि० रा० ब० ते० प्र० श्र० म० द० गु० गौ० व० ते० रा० ते० पा० वि० सं० च० ५० वि० मं० पा० च० प० अ० आ० सू० वसन्त-विलाश (संस्कृत) धर्माभ्युदय महाकाव्य (संस्कृत) " सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिनी (संस्कृत) वस्तुपालतेजपालप्रशस्ति (संस्कृत) मंत्रीश्वर वस्तुपाल - प्रशस्ति (संस्कृत) रेवत गिरिरास 97 वस्तुपाल- तेजपाल -प्रबन्ध (संस्कृत) अलंकार महोदधि नरेन्द्रप्रभसूरिविरचित (गुर्जर) गुजरातनो गौरव (गूर्जर) वस्तुपाल तेजपालनो रास (गूर्जर) तेजपालनो विजय " श्री संघपतिचरित्र श्री उदयप्रभसूरिकृत वस्तुपालन विद्यामंडल (गुर्जर) पाटणनी चढ़ती पड़ती :: साधन-सामग्री ले० बालचन्द्रसूरि ले० उदयप्रभसूर ले० महाकवि सोमेश्वर • उदयप्र ले० जयसिंहसूर ० नरेन्द्रप्रमसूरि ले० विजयसेन सूरि ले० राजशेखरसूरि संपा० लालचन्द्र भगवानदास गांधी ले० जगजीवन मावजी पं० मेरुविजय ले० पं० लालचंद्र भगवानदास अनु० जगजीवनदास पोपटलाल ले० भोगीलाल ज० सांडेसरा ० जगजीवन माषजी (गुर्जर) हिलपुरनो श्रथमतो सूर्य ले० (मर्जर) " [ ४७ ऑॉरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्य ट, बड़ौदा, सन् १६१७ तुकाराम जीवाजी, बम्बई. सन् १६०२ ओरियन्टल रीसर्च इन्स्टीट्य टू, बड़ौदा. सन् १६२० 19 19 श्ररियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, सन् १६१७ 99 १६४२ 19 श्री जैन ऑफिस, भावनगर, सन् १६१६ भीमसिंह माणके, बम्बई. सं० १६७६ अभयचंद्र भगवानदास गांधी भावनगर. सं० १६६१ जैन आत्मानंद सभा, भावनगर. सं० २००३ जैन ऑफिस, भावनगर. सं० २००४ जैन ऑफिस, भावनगर, सं० १३७८ जैन ऑफिस, भावनगर, सं० १६८ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाद-इतिहास:: पा.प्र. . . मु. ना. पाटण का प्रभुत्व के० एम० अनु० - मुन्सीविरचित मा०१,२ (हिन्दी) प्रवासीलाल वर्मा गुजरातनो नाथ (हिन्दी) " लाटनो दंडनायक महा० शांतू महता (गर्जर) धीरजलाल धनजी म० गु० म० महागुजरातनो मंत्री " गु० ज० म०गु०म०यु. की० को गुजरातनो जयखण्ड __ भाग १, २ (गूर्जर) जवेरचंद्र मेघाणी महान् गुजरातनो सुवर्ण युग (गुर्जर) मंगलदास त्रिकमदास कीर्तिशाली कोचर ले० ___, रा० सुशील वज्रस्वामी अने जावड़शाह ले० मणिलाल न्यालचन्द्र महान् सम्प्रति हिन्दी-ग्रंथ-रवाकर कार्यालय, बम्बई. सन १९४१ " " १६४२ जैन ऑफिस भावनगर. सन् १९३६ जैन ऑफिस, सन् १९३६ गुर्जरग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद. सन् १६४४, ४६ प्राचीन साहित्य-संशोधक कार्यालय, थाणा. सं० २००५ जैन सस्ती वांचनमाला, भावनगर. सं० १९८६ जैन सस्ती वांचनमाला, पालीताणा. सं० १९८६ जैन सस्ती वांचनमाला, भावनगर. सं० १९८२ श्री यशोविजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर. सं० १९८१ श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला, उज्जैन. सं० १९६२ जोशी रावल सुरतिंगजी वन्नाजी, भूति. सं० १९६६ ३० जा० शा० बा० शाह के बादशाह (गूर्जर) मेरी मेवाड़यात्रा विद्याविजयजी मे० मे० या० ले. मेने. या यतीन्द्रसरिजी मे० गो० या. य०वि०दि० मेरी नेमाइयात्रा (हिन्दी) मेरी गोड़वाड़यात्रा , यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन भाग १ (हिन्दी) भाग २ " भाग ३ " भाग ४ " तीर्थयात्रा-वर्णन १-श्री जैन संघ, फताहपुरा. मारवाड़ सं०११८६ , २-श्री जैन संघ, हरजी. मारवाड़ सं० १९८८ , ३-शाह प्रतापचन्द्र धुडाजी, बागरा." सं० १९६१ , ४-श्री जैन कुक्षी संघ, कुक्षी (मालवा). सं० १९६३ संकलन श्री देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, " ती. या० ० (गूर्जर) सूरत. ...... Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० च० उ० त० उ०मा० G. G. H. M. M. पत्र का नाम महावीर अधिवेशन अङ्क पु० पु० कान्त महावीर - चरित्र ० जिनदासगण D. C. M. P, (G.O.S.V.no. LXXVI ) पत्तनज्ञानभण्डार की सूचि साहित्य-अङ्क जै० सा० सं० 99 उपदेश- तरंगिण उपदेश- माला जै० मं० सू० (G. O. S. V. no. XXI) जैसलमेर - भण्डार की सूचि History of Mediaval India by Isvariprasad. H.M.I, या M.I. H, I. G. (संस्कृत) in 1920. 17 "" :: साधन-सामग्री संख्या अङ्क १,२,३,१०,११,१२ ले. नेमिचन्द्रसूरि पुरातत्व पुस्तक 99 ले० रत्नमंदरगणि Historical Inscriptions of Gujrat, part 1, 2,3rd. Published by The Forbus Gujarati Sabha, Bombay in 1933, 1935 & 1942 respectively. The Glory that was Gurjardesa's. part 1, 2, 3rd. by K. M. Munshi. Published by Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay in 1943 & 1944 respectively. Hammirmadamardan by Jaisinghsuri. Published by Oriental Institute, Baroda मासिक पत्रादि श्री जैन श्वेताम्बर सभा के १३वें मंत्री मोतीलाल वीरचन्द अधिवेशन का विशेषांक वर्ष ४, किरण६, जुलाई-अगस्त सन् १६४१ विशेष अङ्क वि० सं० १६८५ जैन साहित्य-संशोधक Published by Oriental Institutey Baroda in 1942 प्रकाशनकर्त्ता व्यक्ति मंत्री समर्थमल रतनचन्द संघवी संपा० भा० २, ३, ४, ५ र सिकलाल छोटालाल परीख संपा० जुगुल किशोर मुख्तार मंत्रीगण 19 संपा० खण्ड २ अङ्क १, २, ३-४ मु० जिनविजयजी खंड ३ अङ्क १, २, ३, ४ 99 [ श्री जैन श्रात्मानंद सभा, भावनगर. सं० १६७३ श्री यशोविजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर. सं० १६६७ श्री लींमड़ी जैन ज्ञानभंडार, लीमड़ी. " प्रकाशक- समिति अथवा सभा अखिल भारतवर्षीय पौरवाल महासम्मेलन, सिरोही. जैन श्वेताम्बर सभा, बम्बई. गुजरात पुरातत्व मन्दिर, अहमदाबाद. वीर सेवामन्दिर, सरसावा. 'यंगमेन्स जैन सोसाइटी, अहमदाबाद. जैनसाहित्य-संशोधक कार्यालय, अहमदाबाद. 19 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास:: ५० ] जै. मप्र जैन सत्यप्रकाश वर्ष ३ अङ्क१ से १२.. तंत्री चीमनलाल गोकुलदास शाह जैन धर्म सत्यप्रकाशक समिति, अहमदाबाद. ७" १,२,३ से १२ "१०" " " " प० ब० परवारबन्धु-अधिवेशन-अङ्क सन् १९५१ संपा. जयन्तीलाल अखिल भारतवर्षीय परवार महा सम्मेलन, अमरावती. जिज्ञासु दृष्टि से पढ़ी गई विविध विषयक लगभग तीन सौ पुस्तकों में से उल्लेखनीय पुस्तकों के नाम जैन श्वेताम्बर डिरेक्टरी-श्री जैन श्वेताम्बर सभा, बम्बई द्वारा प्रकाशित. प्रकट प्रभावी पार्श्वनाथ–जैन सस्ती वांचनमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित. जिनप्रभसूरि और सुलतान मुहमद-पं० लालचन्द्र भगवानदास गांधीलिखित. पावागढ़ थी बड़ोदरा में प्रकट थयेला पार्श्वनाथ-पं० लालचन्द्र भगवानदास गांधीकृत. अमेरीका में जैनधर्म की गज भाग १ से ह पर्यन्त–सूर्यकान्त शास्त्रीलिखित. अकबर अने हीरविजयसूरि-जैन ऑफिस, भावनगर द्वारा प्रकाशित. जैन रोप्यमहोत्सव-अंक-जैन ऑफिस, भावनगर द्वारा प्रकाशित. मध्यप्रांत, मध्यभारत, राजपूताने के स्मारक-पं० शीतलप्रसादजीलिखित. हम्मीरगढ़-मुनि जयंतविजयजीलिखित विजयप्रशस्तिसार-मु० विद्याविजयजीकृत प्रामणवाड़ा- " शत्रुजयपर्वत का परिचय-मु० जिनविजयजीलिखित उपरियालातीर्थ- " मनुस्मृति-पं० केशवप्रसादसंपादित श्री शंखेश्वरतीर्थ- " जैन इतिहास भा० १, २-सूरजमल जैनलिखित कुम्भारियाजी- मथुरादास गांधीलिखित भारत का इतिहास और जैनधर्म- भागमल मोमस हेमचन्द्राचार्य- जैन ऑफिस, भावनगर द्वारा प्रकाशित जैनधर्म की विशेषतायेंसूरीश्वर अने सम्राट- मु. विद्याविजयजीलिखित जैन दर्शन-विजयेन्द्रसरिरचित भानुचंद्रगणिचरित-मु० जिनविजयजीसम्पादित समाज के अधः पतन के कारण- फूलचंद्र अग्रवाल प्राचीन भारतवर्षनो सिंहावलोकन-विजयेन्द्रसरिरचित परमार धारावर्ष भा १, २भारतवर्ष का इतिहास- गुलशनरायलिखित प्रतिमा-लेखसंग्रह-पं० कामताप्रसाद जैनसंपादित मेवाड़-गौरव-हरिशंकर शर्माकृत प्रशस्ति-संग्रह-पं० भुजबलीसंपादित Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: संक्षिप्त अथवा सांकेतिक शब्दों की समझ :: है. जैन स्मारक-ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत श्राद्धविधि-प्रकरण- पं० तिलकविजयजीसंपादित प्राचीन मध्यभारत और राजपूताना-, राधनपुर-डिरेक्टरी- जेठालाल बालाभाई , जैन शिलालेख-संग्रह-हीरालालसंग्रहीत आदर्श महापुरुष- साधुराम शास्त्रीलिखित संक्षिप्त जैन इतिहास भा०१-६० कामताप्रसादलिखित जैन इतिहास भाग २-पं० सूरजमललिखित " भा०२ खं० १ " " भाग ३-५० मूलचंदलिखित " भा०३.खं० १,२,३" संयुक्तप्रान्त-स्मारक-पं० शीतलप्रसादजीलिखित हिमांशुविजयजीना लेखो जैन शिलालेख-संग्रह- माणिकलालसंपादित शजयमाहात्म्य-विद्याशाला, अहमदाबादद्वारा प्रकाशित भोजन-व्यवहार तथा कन्या-व्यवहार देवकुलपाटक- विजयधर्मसूरिरचित कच्छदेशनो इतिहास- आत्माराम केशवजीलिखित गृह्यसूत्र-पं० कृष्णदाससंपादित वाघेला-वृत्तान्त- कृष्णराय गणपतरायकृत इतिहास में मारवाड़ीज्ञाति का स्थान-बालचंद मोदीलिखित शांतू महता- जैन ऑफिस, भावनगर द्वारा प्रकाशित जैनधर्म की प्राचीन अर्वाचीन स्थिति-बुद्धिसागरजीलिखित वीर वनराज- धूमकेतुलिखित जैन बालग्रंथावली—पूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद कुमारदेवी-लीलावती मुन्शी अहमदाबादनो जीवन-विकास-शंकरराम अमृतरामलिखित संक्षिप्त अथवा सांकेतिक शब्दों की समझ भ०, भट्टा०- भगवान्, भट्टारक ठ०- ठक्कुर, ठक्कुराज्ञि आ-आचार्य सं०- संघवी, संघपति, संख्या, संवत्, संतानीय उपा०- उपाध्याय वि०-- विक्रम पं०-पन्यास, पंडित वि० सं०- विक्रम संवत् सा०- साधु ई. सन्- ईस्वी सन् ले- लेख, लेखक, लेखांक - पू०- पूर्व श्रे-श्रेष्ठि, श्रेयोर्थ . प्र०- प्रथम, प्रतिष्ठित व्य, व्यव०- व्यवहारी . दे० कु०- देवकुलिका श्रा०- श्रावक, श्राविका, श्रावण मू० ना०- मूलनायक शा०-शाह द्वि०-द्वितीय मं०-मंत्री १०- तृतीय महं०- महत्तर मंत्री रवि०- रविवार महा.-महामात्य सो०- सोमवार द०, दंड०-दंडनायक मं०- मंगलवार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: बुध०- बुधवार गुरु०- गुरुवार शुक्रवार शनि०- शनिश्चर ग०- गच्छ, गच्छीय मा० - मातृ आ०- आत् पु० - पुत्र, पुत्री स्वभा- भार्या, स्वभार्या उप० ज्ञा०— उपकेशज्ञातीय भा०, प्रा० ज्ञा० – प्राम्वाटज्ञातीय श्री० ज्ञा० - श्रीमालज्ञातीय गुज ०- गुजराती - L त०, तपा० – तपागच्छीय अंच, अंचल — अंचलगच्छीय श्र० ग०- आगमगच्छीय पूर्णि० १० ग० पूर्णिमागच्छीय पू० प०- पूर्णिमापक्षीय मड़ा०- मड़ाहड़गच्छीय जीरा ०- जीरापल्लीगच्छीय ब्रह्माण०- ब्रह्वाणगच्छीय दो० - दोसी गां ०. गांधी रु०- रुपया शु० शुक्ल कृ०- कृष्ण बृ० - बृहद् चै० चैत्र वृ० तपा० • वृद्धतपागच्छीय वै० • वैशाख ज्ये० - ज्येष्ठ वृ० त० 17 प्र० संवत् — प्रतिष्ठा - संवत् आषा० आषाढ़ श्र० आश्वि० – आश्विन प्र० प्रतिमा० - प्रतिष्ठित प्रतिमा प्र० आचार्य – प्रतिष्ठा कर्त्ता आचार्य प्र० श्रावक -- प्रतिष्ठा कराने वाला श्रावक का०- कार्त्तिक पौ० - पौष पि०- पितृ फा० फाल्गुण ५२ ] 411 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रथम खण्ड शांक प्रयास विषय पृष्ठांक विषय महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत लक्ष्णवती घोड़ी का खरीदना और उससे बहु- .. ब्राह्मणवर्ग और क्रियाकाण्ड में हिंसावाद ३ मूल्य वत्स की प्राप्ति तथा कांपिल्यपुरनरेश को बाहरी आक्रमणों का प्रारंभ उसे बेचना महान् अहिंसात्मक क्रांति, बौद्धधर्म की स्थापना । घोड़ों का व्यापार और एक ज्ञाति के अनेक घोड़ों और भगवान महावीर का दयाधर्म और प्रचार ४ को सार्वभौम सम्राट विक्रमादित्य को भेंट करना श्रावकसंघ की स्थापना और मधुमती-जागीर की प्राप्ति महावीर के निर्वाण के पश्चात् मधुमती में प्रवेश और मण्डल का शासन २० जैनाचार्यों के द्वारा जैनधर्म का प्रसार करना ६ पुत्ररत्न की प्राप्ति और उसकी शिक्षा स्थायी श्रावकसमाज का निर्माण करने का आवड़शाह का सुशीला के साथ विवाह २२ जावड़शाह का विवाह और माता-पिता का स्वर्गगमन " प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति मधुमती पर मलेच्छों का आक्रमण और जावड़श्रीमालपुर में श्रावकों की उत्पत्ति शाह को बन्दी बनाकर ले जाना प्राग्वाटवंश जैन उपदेशकों का आगमन और जावड़शाह पद्मावती में जैन बनाना को स्वदेश लौटने की आज्ञा नैन वैश्य और उनका कार्य जावदशाह का स्वदेश को लौटना और ... प्राग्वाट प्रदेश शर्बुजयोद्धार शर्बुजयोद्धारक परमाईत श्रे० सं० जावड़शाह जावड़शाह और सुशीला का स्वर्गगमन । श्रेष्ठि भावड़ और उनकी पतिपरायणा स्त्री तथा । सिंहावलोकनउनकी निर्धनता धर्मक्रान्ति मुनियों को आहारदान और उनकी आशीर्वाद- धार्मिक जीवन युक्त भविष्यवाणी सामाजिक जीवन और आर्थिक स्थिति २७ द्वितीय खण्ड वर्तमान जैन-कुलों की उत्पत्ति वर्तमान जैनसमान अथवा जैनज्ञाति की स्थापना श्रावकवर्ग में वृद्धि के स्थान में घटती ३१ । पर विचार और कुलगुरु-संस्थायें .३२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: पृष्ठांक विषय जांगड़ा पौरवाल अथवा पौरवाड़ नेमाड़ी और मलकापुरी पौरवाड़ बीस मारवाड़ी पौरवाल ३४ पुरवार परवारज्ञाति ई० सन् की आठवीं शताब्दी में श्री हरिभद्रसूरि द्वारा अनेक कुलों को जैन बनाकर प्राग्वाट - श्रावकवर्ग में सम्मिलित करना श्री शंखेश्वरगच्छीय आचार्य उदयप्रभसूरिद्वारा वि० [सं० ७६५ में श्री भिन्नमालपुर में आठ बाकुलों को जैन बनाकर प्राग्वाटश्रावकवर्ग में सम्मिलित करना - भिन्नमाल में जैन राजा भाग द्वारा संघयात्रा और कुलगुरुओं की स्थापना कुलगुरुयों की स्थापना का श्रावक के इति लघुशाखीय और बृहदशाखीय अथवा लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय भेद और दस्सा बीसा और उनकी उत्पत्ति राजमान्य महामंत्री सामंत कासिन्द्रा के श्री शांतिनाथ - जिनालय के निर्माता ५५ ५६ ३५ ३६ ६० श्रे० वामन प्राचीन गूर्जर - मंत्री-वंश हासपर प्रभाव समर और उसके पुत्र नाना और अन्य सात प्रतिष्ठित ब्राह्मणकुलों का प्राग्वाट श्रावक बनना राजस्थान की अग्रगण्य कुछ पौषधशालायें 19 RS ३७ महामात्य निन्नक दंडनायक लहर महात्मा वीर ६१ ६३ ६६ और उनके प्राग्वाटज्ञातीय श्रावककुलसेवाड़ी की कुलगुरु पौषधशाला घाणेराव की कुलगुरु पौषधशाला ३८ महामात्य नेढ़ महाबलाधिकारी दंडनायक विमलविमल का दंडनायक बनना महमूद गजनवी और भीमदेव में प्रथम मुठभेड़ ६७ 11 ३६ ४० 19 सिरोही की कुलगुरु- पौषधशाला बाली की कुलगुरु पौषधशाला प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेदप्राग्वाट अथवा पौरवालवर्म का जैन और वैष्णव पौरवालों में विभक्त होना ४१ दंडनायक विमल की बढ़ती हुई ख्याति । भीमदेव के हृदय में उसके प्रति डाह । विमल द्वारा पचन का त्याग। चंद्रावती - पर आक्रमण । विमल द्वारा अर्बुदगिरि पर विमलवसहि का बनाना और उसकी व्यवस्था ७४ श्री शत्रु जयमहातीर्थ में विमलवसहि महामात्य धवल का परिवार और उसका यशस्वी पौत्र महामात्य पृथ्वीपाल किन २ कुलों से वर्तमान जैन प्राग्वाटवर्ग की ४२ ७५ उत्पत्ति हुई ज्ञाति, गोत्र और अटक तथा नखों की उत्पत्ति और उनके कारणों पर विचार प्राग्वाटज्ञाति में शाखाओं की उत्पत्ति .. सौरठिया और कपोला पौरवाल "गुर्जर पौरवाल पद्मावती पौरवाल 4 विषय " ४३ ४४ ४५ ४६ पृष्ठांक ४७ ५० ५२ ५३ ५४ ७६ मंत्री धवल और उसका पुत्र मंत्री आनंद ७५ महामहिम महामात्य पृथ्वीपाल पत्तन और पाली में निर्माणकार्य विमलवसति की हस्तिशाला का निर्माण 19 ७७ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ विषय पृष्ठांक | विषय पृष्ठांक विमलवसति का जीर्णोद्धार देवकुलिकायें और उनके गुम्वजों में, द्वारचतुष्कों में, महामात्य धनपाल और उसका जेष्ठ भ्राता गालाओं में, स्तम्भों में खुदे हुये कलात्मक चित्रों जगदेव तथा धनपालद्वारा हस्तिशाला में का परिचय तीन हाथियों की संस्थापना ७८ मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसतिधनपाल द्वारा श्री विमलवसतिकातीर्थ में हस्तिशाला-- सपरिवार प्रतिष्ठादि धर्मकृत्यों का करवाना ,, धनपाल द्वारा विनिर्मित तीन हस्ति धनपाल की स्त्री रूपिणी तथा जगदेव और गूर्जरसम्राट भीमदेव प्रथम का व्ययकरणमंत्री उसकी स्त्री द्वारा जीर्णोद्धारकार्य प्राग्वाटज्ञातीय जाहिल-- १०० नाना और उसका परिवार तथा उनके द्वारा महत्चम नरसिंह और उसका पुत्र महाकवि प्रतिष्ठा-जीर्णोद्धारकार्य दुलेमराज मंत्री लालिग का परिवार और उसके यशस्वी नाडोलनिवासी सुप्रसिद्ध प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० पौत्र हेमरथ, दशरथ शुभंकर के यशस्वी पुत्र पूतिग और शालिग--: लालिग और उसका पुत्र महिंदुक ७६ रत्नपुर के शिवालय में अभयदानलेख १.१ हेमरथ और दशरथ और उनके द्वारा दशवीं । किराड़ के शिवालय में अभयदानलेख १०२ देवकुलिका का जीर्णोद्धार और उसमें जिनविंध और पूर्वजपट्ट की स्थापना नाडोलवासी प्राग्वाठज्ञातीय महामात्य सुकर्मा , , महप्रकनिवासी महामना श्रे हांसा और श्रीमालपुरोत्थ प्राग्वाट-वंशावतंस प्राचीन । उसका यशस्वी पुत्र श्रे• जगडू १०३ गूर्जर-मंत्री-कोष्टक श्रीमालपुरोत्थ प्राग्वाट-वंशावतंस प्राचीन गूर्जर मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंशमंत्री-वंश-वृक्ष ८२ गूर्जर महामात्य चंडप और मुद्राव्यापारमंत्री अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री बिमल- चण्डप्रसाद १०५ वसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय स्वाभिमानी कोषाधिपति मंत्री सोम देलवाड़ा और उसका महत्व - ८३ मंत्री अश्वराज और उसका परिवारटेकी पर पांच जैनमंदिर और उनमें विमल सीता और उसका पुत्र अश्वराज १०७ वसहिका अश्वराज का माईस्थ्य-जीवन १०६ परिकोष्ट और सिंहद्वार बस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरातमूलगंभारा और गूढमएडप और उनकी सादी मालवपति सुभटवर्मा का आक्रमण ११३ रचमा में विमलशाह की प्रशंसनीय विवेकता ८४ पत्तन की पुनः प्राप्ति, अर्जुनवर्मा की मृत्यु, गूढमण्डप का द्वार और नवचौकिया देवपाल की पराजय रङ्गमण्डप और उसके दृश्यों का वर्णन धवलक्कपुर की बाघेलाशाखा और उसकी । भ्रमती और उसके दृश्य उन्नति ११४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: पृष्ठांक विषय पृष्ठांक विषय . कुमारदेवी का स्वर्गारोहण और वस्तुपाल का धवलक्कपुर में वसना ११५ धवलक्करपुर की राजसभा में वस्तुपाल तेजपाल को निमंत्रण और वस्तुपाल द्वारा महामात्यपद तथा तेजपाल द्वारा दंडनायकपद को ग्रहण करना ११६ धवलक्कपुर में अभिनवराजतंत्र की स्थापना ११८ मंत्री भ्राताओं का अमात्य कार्य महामात्य का प्राथमिक कार्य ११६ सौराष्ट्रविजय का उद्देश्य और अराजकता का अन्त १२० खंभात के शासक के रूप में महामात्य वस्तुपाल और लाट के राजा शंख के साथ वस्तुपाल का युद्ध तथा खंभात में महामात्य के अनेक सार्वजनिक सर्वहितकारी कार्य- १२२ दण्डनायक तेजपाल के हाथों गोधापति घोघुल की पराजय १२५ मालवा, देवगिरि और लाट के नरेशों का संघ और लाटनरेश शंख की पूर्ण पराजय , धवलक्कपुर में महामात्य का प्रवेशोत्सव । १२८ खंभात को पुनर्गमन । वेलाकुलप्रदेश के शत्रुओं का दमन तथा खम्भात में अनेक धर्मकृत्यों का करना सिद्धाचलादितीर्थों की प्रथम संघयात्रा और • महामात्य की अमूल्यतीर्थ-सेवायें संघयात्रा का विचार संघ का वैभव तथा उसका प्रयाण १३० महामात्य वस्तुपाल का राज्य-सर्वेश्वरपद से अलंकृत होना भद्रेश्वर नरेश भीमसिंह पर विजय १३५ ।। महामात्य वस्तुपाल का मरुधरदेश में आगमन और पुण्यकार्य १३६ राज्य-व्यवस्था और गुप्तचर-विभाग का । विशेष वर्णन धवलक्कपुर का वैभव और महामात्य का व्यक्तित्व - १३६ मंत्री भ्राताओं की दिनचर्या १४० यवनसैन्य के साथ युद्ध और उसकी पराजय १४१ दिल्ली के बाहशाह के साथ संधि और दिल्ली के दरबार में महामात्य का सम्मानबादशाह अल्तमश को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये समय का नहीं मिलना १४२ श्रेष्ठि पूनड़ का स्वागत बादशाह की वृद्धामाता की हजयात्रा और । महामात्य का उसको प्रसन्न करना और दिल्ली तक पहुँचाने जाना महामात्य का बादशाह के दरबार में स्वागत और स्थायी संधि का होना १४३ बाहरी आक्रमणों का अंत और अभिनवराजतंत्र के उद्देश्यों की पूर्तिवि० सं० १२८८ में सिंघण का द्वितीय आक्रमण और स्थायी संधि | १४४ दिल्लीपति और सिंघण के साथ हुई संधियों का मालवपति पर प्रभाव लाटनरेश शंख का अंत और लाट का । गूर्जरभूमि में मिलाना मंत्रीभ्राताओं के शौर्य का संक्षिप्त । सिंहावलोकन महामात्य की नीतिज्ञता से गृहकलह का उन्मूलन Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : विषय-सूची: १६६ विषय पृष्ठांक राणक वीरधवल का स्वर्गारोहण और वीशलदेव का राज्यारोहण तथा वीरमदेव का अंत १४५ वीशलदेव की सार्वभौमता और डाहलेश्वर का दमन १४६ महामात्य का पदत्याग और उसका स्वर्गारोहण१४७ मंत्रीभ्राताओं का अद्भुत वैभव और उनकी साहित्य एवं धर्मसंबंधी महान् सेवायेंभोजन-विभाग १५२ निजी सैनिक विभाग साहित्य-विभाग और महामात्य के नवरत्नसोमेश्वर १५३ हरिहर, मदन, सुभट्ट, नानाक, अरिसिंह, पान्हण १५४ जाल्हण, शोभन समाश्रित आचार्य, साधु और उनका साहित्यविजयसेनसरि, उदयप्रभसूरि, अमरचन्द्रसूरि, नरचन्द्रसरि नरेन्द्रप्रमपरि, बालचन्द्रसरि, जयसिंहसरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, जिनभद्रसूरि १५६ धार्मिक विभाग और मंत्रीम्राताओं के द्वारा विनिर्मित धर्मस्थान और उनकी प्रागम-सेवायें धार्मिक-विभाग ... ---------- १५७ संघयात्रा की सामग्री - महामात्य वस्तुपाल की तीर्थयात्रायें १६२ मंत्रीभ्राता और उनका परिवार लूणिग और उसकी स्त्री लूणादेवी १६३ मल्लदेव और उसकी दोनों स्त्रियाँ ललितादेवी, प्रतापदेवी व पुत्र पुण्यसिंह , वस्तुपाल और उसकी दोनों स्त्रियाँ ललितादेवी और वेजलदेवी विषय पृष्ठांक जैत्रसिंह या जयंतसिंह १६५ तेजपाल और उसकी स्रियाँ अनुपमादेवी और सुहड़ादेवी लूणसिंह और उसका सौतेलामाता सुहड़सिंह१६७ सप्त भगिनियाँ तथा वयजू १६८ पद्मा का कुछ जीवन-परिचय प्राग्वाटवंशावतंस मंत्रीभ्राताओं का प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश-वृक्ष .. १६६ प्राग्वाटवंशावतंस मंत्रीभ्राताओं के श्री नागेन्द्रगच्छीय कुलगुरुओं की परंपरा १७० स्त्रीरत्न अनोपमा के पिता चंद्रावतीनिवासी ठ. धरणिग का प्रतिष्ठित-वंश " अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-जिनालय वसहि का निर्माण और प्रतिष्ठोत्सव १७१ व्यवस्थापिका समिति १७३ मंत्रीभ्राताओं द्वारा विनिर्मित लूणसिंहवसतिहस्तिशाला १७८ श्री अर्बुदगिरितीर्थार्थ श्री मंत्रीभ्राताओं की संघयात्रायें १७६ श्रे० साजण १८० श्रे० कुमरा १८१ श्रा० रनदेवी १८२ श्रे० श्रीधरपुत्र अभयसिंह तथा श्रे० गोलण समुद्धर श्रे० पाल्हण ठ० सोमसिंह और श्रे० आंबड़ १८४ श्रे० उदयपाल दंडनायक तेजपाल की अन्तिम यात्रा १८६ अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-जिनालय १८५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] : प्राग्वाद-इतिहास:: विषय २०५ पृष्ठांक विमलवसति और लूणवसति १८७ परिकोष्ट और सिंहद्वार दक्षिणद्वार और कीर्तिस्तम्भ मूलगम्भारा और गूढमण्डप नवचौकिया नवचौकिया में कलादृश्य रङ्गमण्डप भ्रमती और उसके दृश्य १६० सिंहद्वार के भीतर तृतीय मण्डप का दृश्य १६१ देवकुलिकायें और उनके मण्डपों में, द्वारचतुष्कों में, स्तंभों में खुदे हुये कलात्मक चित्रों का परिचय उज्जयन्तगिरितीर्थस्थ श्री वस्तुपाल-तेजपालकी ढूंक १६४ महं० जिसधर द्वारा ३०० द्रामों का दान १६७ श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ विमलवसतिकाख्य चैत्यालय तथा हस्तिशाला में अन्य प्राग्वाटबन्धुओं के पुण्यकार्यसाहिल संतानीय परिवार और पल्लीवास्तव्य श्रे. अम्बदेव १६८ पत्तननिवासी श्रे० आशुक महं० वालण और धवल श्रे. यशोधन श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसति की संघयात्रा और कुछ प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं के पुण्यकार्य श्रे० आम्रदेव श्रे. जसधवल और उसका पुत्र शालिग ,, श्रे० देसल और लाखण महा० वस्तुपाल द्वारा श्री मल्लिनाथ-खत्तक का बनवाना २०२ विषय पृष्ठीक श्री जैनश्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधुश्री सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रमरि वंशपरिचय और आपका बचपन २०२ ईश्वरसूरि का मुंडाराग्राम से पलासी आना और सौधर्म की मांगणी और उसकी दीक्षा २०३ सूरिपद और गच्छ का भार वहन करना " अजैनों को जैनी बनाना २०४ स्वर्गवास अंचलगच्छसंस्थापक श्रीमद् आर्यरक्षितसूरि वंशपरिचय २०६ जयसिंहरि का पदार्पण और द्रोण का भाग्योदय । गोदुह का जन्म और वि० सं० ११४६ में उसकी दीक्षा शास्त्राभ्यास और आचार्यपदवी २०७ आचार्यपद का त्याग और क्रियोद्धार , भणशाली गोत्र की स्थापना २०८ आर्यरक्षितसूरि के उपदेश से यशोधन का भालेज में जिनमन्दिर बनवाना और शत्रुजयतीर्थ को संघ निकालना तथा विधिगच्छ की स्थापना समयश्री की दीक्षा पचन में प्राचार्यजी २०६ स्वर्गारोहण बृहत्तपगच्छीय सौवीरपायी श्रीमद् वादीदेवसरि वंश-परिचय पूर्णचन्द्र को दीक्षा, उनका विद्याध्ययन और सूरिपद २१० गच्छनायकपन की प्राप्ति २११ 188 २०० २०१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::विषय सची: [ १ विषय पृष्ठांक | महान् विद्वान् देवबोधि का परास्त होना २११ मंत्री बाहड़ द्वारा विनिर्मित जिनमंदिर की। प्रतिष्ठा । सम्राट् के हृदय में देवसरि के प्रति अपार श्रद्धा का परिचय " कर्णाटकीय वादीचक्रवर्ती कुमुदचन्द्र को देवसूरि की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या और गूर्जरसम्राट् की राजसभा में वाद होने का निश्चय, देवसूरि की जय और उनकी विशालता- २१२ देवमूरि को युग-प्रधान-पद की प्राप्ति २१३ सविधि एवं शुद्धाचार का प्रवर्तन सम्राट् कुमारपाल का जालोर की कंचनगिरि पर कुमारपाल-विहार का बनवाना और उसको देवमूरि के पक्ष को अर्पित करना , वादीदेवसूरि की साहित्यिक सेवा और स्वर्गारोहण २१४ बृहद्गच्छीय श्रीमद् धर्मघोषसरि वंश-परिचय और दीक्षा-महोत्सव , आपका शाकंभरी के सामंत को जैन बनाना और प्राचार्यपद की प्राप्ति आचार्य धर्मघोषसरि का विहार और धर्म । की उन्नति डोणग्राम में चातुर्मास और स्वर्गवास , तपगच्छनायक श्रीमद् सोमप्रभसरि कुल-परिचय और गुरुवंश २१६ समकालीन पुरुष और इनकी प्रतिष्ठा , श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं । महाकविगण कविकुलशिरोमणि श्रीमंत षड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपाल, महाकवि सिद्धपाल, विजयपाल तथा श्रीपाल के गुणाढ्य भ्राता शोभित विषय पृष्ठांक गुर्जरसम्राटों का साहित्यप्रेम और महाकवि श्रीपाल की प्रतिष्ठा २१७ अभिमानी देवबोधि और महाकवि श्रीपाल २१६ सम्राट् की राज्य-सभा में श्वेताम्बर और दिगम्बर शाखाओं में प्रचंडवाद और श्रीपाल का उसमें यशस्वी भाग " महाकवि सिद्धपाल सिद्धपाल का गौरव और प्रभाव २२१ सिद्धपाल और सोमप्रभाचार्य २२२ सिद्धपाल में एक अद्भुतगुण और उसकी कवित्वशक्ति विजयपाल २२३ महाववि श्रीपाल का भ्राता श्रे० शोभित , न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवांगमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थश्रेष्ठि देशल , धीणाक २२४ ,, मंडलिक २२६ , वैल्लक और श्रेष्ठि वाजक २२७ २२८ " राहड़ जगतसिंह २३१ " रामदेव ठ० नाऊदेवी श्रेष्ठि धीना , मुहुणा और पूना श्रा० सूहड़ादेवी भरत और उसका यशस्वी पौत्र पद्मसिंह और उसका परिवार "" २१५ " यशोदेव " जिह्वा २३२ २३३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: पृष्ठीक विषय पद्मसिंह का ज्येष्ठ पुत्र यशोराज और उसका परिवार प्रह्लादन सज्जना मोहिणी के पुत्र सोहिय और सहजा का परिवार, राणक और उसका परिवार और सुहड़ादेवी का 'पर्युषण-कल्प का लिखाना का श्रेष्ठि वोसिरि श्रादि २३४ न्यायोपार्जित स्वद्रव्य को मंदिर और तीर्थों के निर्माण और जीर्णोद्धार के विषयों में व्यय करके धर्म की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ श्री ज्ञान-भंडार - संस्थापकधर्मवीर नरश्रेष्ठ श्रेष्ठि पेथड़ और उसके यशस्वी वंशज डङ्गर, पर्वतादि 19 २३५ पेड़ के पूर्वज और अनुज पेड़ का संडेरकपुर को छोडकर बीजापुर का बसाना और वहाँ निवास करना पेथड़ और उसके भ्राताओं द्वारा अर्बुदस्थ लूणवसहिका का जीर्णोद्धार तीर्थ-यात्रायें और विविध क्षेत्रों में धर्मकृत्य तथा चार ज्ञान-भंडारों की स्थापना पेड़ का परिवार और सं० मंडलिक महायशस्वी इङ्गर और पर्वत तथा कान्हा "" और उनके पुण्य कार्य पर्वत, डुङ्गर और उनका परिवार पर्वत और डङ्गर के धर्मकृत्य पर्वत और कान्हा के सुकृतकार्य श्री मुण्डस्थल महातीर्थ में श्री महावीर - जिना - २४६ "9 २३६ तृतीय खण्ड २५१ 11 २५२ २५३ २५४ विषय श्रेष्ठि नारायण वरसिंह " २५५ 13 सिंहावलोकन भारत में द्वितीय धर्मक्रांति धार्मिक जीवन सामाजिक जीवन और आर्थिक स्थिति साहित्य और शिल्पकला राजनैतिक स्थिति पृष्ठांक २३७ 13 २३८ २३६ २४० २४३ २४४ लय का जीर्णोद्धार कराने वाला कीर्त्तिशाली श्रेष्ठि श्रीपाल सिरोही - राज्यान्तर्गत कोटराग्राम के जिनालय के निर्माता श्रेष्ठ सहदेव वीरवाड़ाग्राम के श्री आदिनाथ जिनालय के निर्माता श्रेष्ठ पाल्हा उदयपुर मेदपाटदेशान्तर श्री जावरग्राम में श्री शांतिनाथ - जिनालय के निर्माता श्रेष्ठि धनपाल बालदाग्राम के जिनालय के निर्माता प्राग्वाटज्ञातीय बंभदेव के वंशज पंडितप्रवर लक्ष्मणसिंह श्रेष्ठि हीसा और धर्मा वीरप्रसवनी मेदषाभूमीय गौरवशाली श्रेष्ठवंश - श्री धरणविहार- राणकपुरतीर्थ के निर्माता ० सं० धरणा और उसके ज्येष्ठ भ्राता श्रे० सं० रत्ना सं० सांगण और उसका पुत्र कुरपाल २६२ सं० रत्ना और सं० धरणाशाह २५७ २५८ 17 11 २५६ २६० २६१ 19 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: विषय-सूची :: पृष्ठांक विषय २६३ दोनों भ्राताओं के पुण्यकार्य और श्री शत्रुजयमहातीर्थ की संघयात्रा मांडवगढ़ के शाहजादा गजनीखां को तीन लक्ष रुपयों का ऋण देना atta का बादशाह बनना और मांडवगढ़ में धराशाह को निमंत्रण और फिर कारागार का दंड तथा चौरासी ज्ञाति के एक लच सिक्के देकर धराशाह का छूटना और नांदिया ग्राम को लौटना २६४ सिरोही के महाराव का प्रकोप और सं० धरणा का मालगढ़ में बसना महाराणा कुंभकर्ण की राज्यसभा में सं० धरणा २६५ 97 २६६ सं० धरणा को स्वप्न का होना मादड़ी और उसका नाम राणकपुर रखना २६७ श्री त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार नामक चतुर्मुख- श्रादिनाथ - जिनालय का शिलान्यास और जिनालय के भूगृहों व चतुष्क का वर्णन सं० धराशाह के अन्य तीन कार्य और त्रैलोक्यदीपक - धरण विहार नामक जिनालय का प्रतिष्ठोत्सव २६८ श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठा २६६ श्री राणकपुरतीर्थ की स्थापत्यकला जिनालय के चार सिंहद्वारों की रचना २७१ चार प्रतोलियों का वर्णन 39 प्रतोलियों के ऊपर महालयों का वर्णन २७२ प्रकोष्ट, देवकुलिकायें, भ्रमती का वर्णन कोण कुलिकाओं का वर्णन मेवमण्डप और उसकी शिल्पकला " " 27 " २७३ विषय [ ६१ पृष्ठांक रंगमण्डप राणकपुरतीर्थ चतुर्मुखप्रासाद क्यों कह लाता है सं० धरणा के वंशज मालवपति की राजधानी माण्डवगढ़ में सं० रत्नाशाह का परिवार मालवपति के साथ सं० रत्ना के परिवार का सम्बन्ध सं० सहसा द्वारा विनिर्मित अचलगढ़स्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ - शिखरबद्ध जिनालय - अचलगढ़ -२७३ ..99 २७४ २७६ १७७ श्री चतुर्मुख-आदिनाथ - चैत्यालय और उसकी रचना मन्दिर की प्रतिष्ठा और मू० ना० बिंब की स्थापना सिरोही - राज्यान्तर्गत वशंतगढ़ में श्री जैन मन्दिर के जीर्णोद्धारकर्त्ता श्रे० झगड़ा का पुत्र श्रेष्ठ मण्डन और श्रेष्ठि धनसिंह का पुत्र श्रेष्ठ भादा पचननिवासी सुश्रावक छाड़ा श्रेष्ठिवर खीमसिंह और सहसा - श्रेष्टि प्राग्वाटज्ञातिभृंगार और उसके प्रसिद्ध प्रपौत्र ० छाड़ाक और उसके वंशज ० खीमसिंह और सहसा द्वारा प्रवर्त्तिनीपदोत्सव दोनों भ्राताओं के अन्य पुण्यकार्य श्री सिरोहीनगरस्थ श्री चतुर्मुख-आदिनाथजिनालय का निर्माता कीर्त्तिशाली श्रीसंघ - मुख्य सं० सीपा और उसका धर्म-कर्म-परायण परिवार सं० सीपा का वंश परिचय 09 RIDE २८२ 11 २८३ "7 २८४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] विषय सं० सुरताण का परिवार सं० सीपा और उसका परिवार पश्चिमाभिमुख श्री आदिनाथ-चतुर्मुख-जिन जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसूरिजी के सदुपदेश से श्री आदिनाथदेव - जिनालय में पुण्यकार्य श्रेष्ठि कोका समरा जीवंत पंचारण प्रासाद सं० सीपा का सिरोही में चौमुखा - जिनचैत्यालय बनाना और उसकी प्रतिष्ठा सं० सीपा के सुख और गौरव पर दृष्टि श्री चतुर्मुख - जिनालय की बनावट सं० सीपा के परिवार के प्रसिद्ध वंशजों का परिचय और मेहाजल का यशस्वी जीवन २६० तीथ एवं मंदिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्री शत्रुंजय महातीर्थ पर एवं पालीताणा में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिकाप्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य " :: प्राग्वाट - इतिहास :: विषय " पृष्ठांक २८४ २८५ २८६ २८७ २६३ श्री अर्बुद गिरितीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्'गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य " २६४ 19 " २६५ " प्राग्वाटज्ञातीय कुलभूषण श्रीमंत शाह शिवा • और सोम तथा श्रेष्ठ रूपजी द्वारा शत्रुंजयतीर्थ पर शिवा और सोमजी की ट्रक की प्रतिष्ठाशिवा और सोमजी और उनके पुण्यकार्य २६५ सोमजी के पुत्र रूपजी और शत्रुंजयतीर्थ की संघयात्रा २६६ श्रेष्ठि विजयड़ ठ० वयजल तीन जिन चतुर्विंशतिपट्ट श्रेष्ठि जीवा महं० भाग श्रेष्ठि भीला श्रेष्ठि सान्हा मं० श्रहण और मंत्री मोल्हण श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री लूणसिंहवसहिकाय श्री नेमिनाथ जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमा-प्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि महण श्रेष्ठि झांझण और खेटसिंह जैत्रसिंह के भ्रातृगण " " आसपाल पूपा और कोला "9 श्रा० रूपी श्रेष्ठि डङ्गर चांडसी "" महं० वस्तराज श्रेष्ठि पोपा श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री भीमसिंहवस हिकाख्य श्री पित्तलहर - आदिनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमा प्रतिष्ठादिकार्य श्रेष्ठि देपाल श्रा० रूपादेवी श्रेष्ठि काल सिंह और रत्ना " " सूदा और मदा पृष्ठीक २६७ २६८ 39 " २६६ 11 97 "" "" ३०० " 17 ३०१ ==== : ३०२ = = = 33 ३०३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सं० भड़ा और मेला श्री रास पुरतीर्थ पर नाम श्री कुम्भारिया - तीर्थ और दण्डनायक विमलशाह तथा प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रे० बाहड़ और उसका वंश । श्रेष्ठि बाहड़ के पुत्र ब्रह्मदेव और शरणदेव श्रेष्ठ यसपाल वीरभद्र के पुत्र-पत्र अजय सिंह यसपाल कुलचन्द्र श्री जीरापल्ली तीर्थ- पार्श्वनाथ - जिनालय में - प्राग्वाटान्वयमण्डन श्रे० खेतसिंह और उसका यशस्वी परिवार श्रेष्ठ जामद की पत्नी श्रेष्ठि भीमराज खीमचन्द्र " " 19 श्रेष्ठि रामा "" पर्वत और सारंग 27 सं. कीता धर्मा श्री धरणविहार- राणकपुरतीर्थ- त्रैलोक्य प्रासाद श्री आदिनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य सं० भीमा :: विषय-सूची :: पृष्ठकि ३०४ ३०३ ३०६ ३०७ 19 "9 ३०८ " श्रेष्ठ खेतसिंह और नायक सिंह श्री अचलगढ़स्थ जिनालयों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य — श्री चतुर्मुख-आदिनाथ - जिनालय मेंश्रेष्ठि दोसी गोविंद वणवीर के पुत्र 19 19 ३०६ 33 " ३१० 17 99 13 11 ३११ " विषय श्री कुन्थुनाथ - जिनालय मेंसं० देव में पुत्र-पौत्र श्री पिण्डरवाटक (पींडवाड़ा) के श्री महावीर - जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका- प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि गोविन्द [ ६३ पृष्ठांक शाह थाथा कोठारी छाछा श्री नाडोल और श्री नाडूलाईतीर्थ में प्रा०ज्ञा सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमा प्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि मूला " साडूल नाथा "" तीर्थादि के लिये प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघ यात्रायें ३१२ ११६ " 99 ३२० 35 ३२१ संधपति श्रेष्ठि सूरा और वीरा की श्री शत्रुंजयतीर्थ की संघयात्रा सिरोही के प्राग्वाटज्ञातिकुलभूषण संघपति श्रेष्ठि ऊजल और काजा की संघयात्रायें ३२२ संघपति जेसिंह की अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा संघपति हीरा की श्री अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा हरिसिंह की संघयात्रा श्रेष्ठि नथमल की अर्बुदगिरितीर्थ और अचलगढ़तीर्थ की यात्रा संघपति मूलवा की श्री अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा श्री जैनश्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु 19 99 ३२३ १७ 91 ३२४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४.] विषय :: प्राम्बाट - इतिहास :: पृष्ठीक तपागच्छाधिराज आचार्य श्रेष्ठि श्रीमद् सोमत कसूर ३२४ श्री तपागच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि वंश - परिचय पुत्र सोम का जन्म सोम की दीक्षा बालमुनि सोमसुन्दर का विद्याध्ययन और गणपद तथा वाचकपद की प्राप्ति मेदपादेश में विहार गुरुदेव सुन्दरसूरि का स्वर्गवास और गच्छपतिपद की प्राप्ति तथा मोटा ग्राम में श्री मुनिसुन्दरवाचक को सूरिपद प्रदान करना ३२८ ० गोविन्द का श्री गच्छपति की निश्रा में आचार्यपदोत्सव का करना और तत्पश्चात् शत्रुंजय, गिरनार, तारंगतीर्थों की संघयात्रा और अन्य धर्मकार्यो का करना ३२६ देवकुलपाटक में श्री भुवनसुन्दरवाचक को रिपद देना कर्णावती में पदार्पण और श्रे० आम्र की दीक्षा ३२५ 17 ३२६ गच्छपति के साथ में सं० गुणराज की शत्रुंजय महातीर्थ की संघयात्रा " ३२७ ३३० आप श्री की तत्त्वावधानता में श्रे० वीशल और उसके पुत्र चंपक ने कई पुण्यकार्य किये " " ३३१ श्री राणकपुरतीर्थ-धरणविहार की प्रतिष्ठा ३३२ आप श्री के द्वारा किये गये विविध धर्म - कृत्यों का संक्षिप्त परिचय " विषय श्री तपागच्छाधिराज श्रीमद् हेमविमलसूरि वंश-परिचय और दीक्षा तथा आचार्यपद ३३५ सूरिमंत्र - शाधना ३३६ नंद विमलमुनि को श्राचार्यपद कपड़वंज ग्राम में प्रवेशोत्सव और बादशाहको अन्य प्रतिष्ठित कार्य और आपकी शुद्ध क्रियाशीलता का प्रभाव विमल शाखा कड़वामती बीजामती पार्श्वचन्द्रगच्छ स्वर्गारोहण पृष्ठांक 17 13 " ३३७ 21 99 "" "" तपागच्छीय श्रीमद् सोमविमलसूरिं वंश - परिचय, दीक्षा और प्राचार्यपद गच्छाधीशपद की प्राप्ति " अन्य चातुर्मास व गच्छ की विशिष्ठ सेवा ३३६ स्वर्गारोहण और आपका महत्व तपागच्छीय श्रीमद् कल्याणविजयगणि वंश परिचय और प्रसिद्ध पुरुष थिरपाल ३४० कल्याणविजयजी का जन्म और दीक्षा स्वाध्याय और वाचकपद की प्राप्ति अलग विहार और धर्म की सेवा ३३८ 17 " ३४१ 17 तीर्थ की यात्रा और सोनपाल की दीक्षा और उनका स्वर्गारोहण " अन्यत्र विहार और सूरीश्वर का पत्र सूरीश्वर से भेंट और विराटनगर में प्रतिष्ठा ३४२ तपागच्छीय श्रीमद् हेमसोमसूरि वंश - परिचय, दीक्षा और आचार्यपद तपागच्छीय श्रीमद् विजय तिलकसूरि वंश - परिचय और दीक्षा 99 ३४३ 19 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गदसरि :: विषय-सूच: - विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठीक सागरपक्ष की उत्पत्ति और पं० राम आपश्री द्वारा प्रतिष्ठित कुछ मंदिर और विजयजी को प्राचार्यपद ३४४ कुछ प्रतिमाओं का विवरण ३५६ विजयतिलकसूरिजी का शिकंदरपुर में । श्रीमद् उपाध्याय वृद्धिसागरजी ३५७ पदार्पण ३४५ । अंचलगच्छीय मुनिवर मेघसागरजी , बादशाह जहांगीर का दोनों पक्षों में मेल श्रीमद् पुण्यसागरसरि ३५८ करवाना श्री लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह स्वर्गारोहण माता-पिता का स्वर्गवास . तपागच्छीय श्रीमद् विजयाणंदमुरि अहमदाबाद में जाकर बसना और वहाँ वंश-परिचय और दीक्षा राजकीय सेवा करना ३५६ पंडितपद और आचार्यपद की प्राप्ति , लोकाशाह द्वारा लहिया का कार्य और विजयाणंदमुरि की संक्षिप्त धर्म-सेवा और जीवन में परिवर्तन स्वर्गगमन ३४७ जैनसमाज में शिथिलाचार और लोकाशाह तपाच्छीय श्रीमद् भावरत्नसूरि का विरोध ३६० , विजयमानसूरि ३४८ लोकागच्छ की स्थापना ३६१ " ,, विजयऋद्धिसरि अमूर्तिपूजक आन्दोलन । लोकाशाह का . " , कपरविजयगणि स्वर्गवास घंश-परिचय, जन्म और माता-पिता का लोकागच्छीय पूज्य श्रीमल्लजी स्वर्गवास ३४६ लोकागच्छीय पूज्य श्री संघराजजी , गुरु का समागम, दीक्षा और पण्डितपद। ऋषिशाखीय श्रीमद् सोमजी ऋषि ३६३ की प्राप्ति श्री लीमड़ी-संघाड़ा के संस्थापक श्री अजराविहारक्षेत्र और स्वर्गवास मरजी के प्रदादागुरु श्री इच्छाजी तपागच्छीय पं० हंसरत्न और कविवर पं० श्री पार्श्वचंद्रगच्छ-संस्थापक श्रीमद् पार्श्वउदयरल ३५० चन्द्रसूरि हंसरत्न वंश-परिचय उपाध्याय उदयरत्न दीक्षा और उपाध्यायपद तपागच्छीय श्रीमद् विजयलक्ष्मीसरि ३५२ क्रियोद्धार और सरिपद अंचलगच्छीय श्रीमद् सिंहप्रभसरि पार्श्वचन्द्रगच्छ की स्थापना " श्रीमद् धर्मप्रभसरि ३५४ अनेक कुलों को जैन बनाना , श्रीमद् मेरुतुङ्गसरि । लोकमत और पाचचन्द्रपरि वंश-परिचय ३५५ पार्श्वचन्द्रपरि और उनका साहित्य उमरकोट में प्रतिष्ठा युगप्रधानपद की प्राप्ति और देहत्याग ३६६ ३५१ ३५३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: विषय पृष्ठांक महाकवि का साहित्यिक स्थान ३७६ महाकवि का गार्हस्थ्य-जीवन न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थश्रेष्ठि धीणा ३८. श्रेष्ठि सज्जन और नागपाल और उनके प्रतिष्ठित पूर्वज ३८१ श्रेष्ठि सेवा- - श्रे० शुभंकर और उसका पौत्र यशोधन ३८३ श्रे० बाढ़ और उसके पुत्र दाहड़ का परिवार , श्रे० सोलाक और उसका विशाल परिवार ३८४ श्रेष्ठि गुणधर और उसका विशाल परिवार ३८६ श्रेष्ठि हीरा ३८८ श्रेष्ठि हलण विषय पृष्ठांक | खरतरगच्छीय कविवर श्री समयसुन्दर कविवर समयसुन्दर और उनका समय तथा वंश और गुरुपरिचय ३६७ आपकी कृतियों में संस्कृत की कृतियाँ ३६८ कवि ने गूर्जरभाषा में अनेक ढाल, स्तवन देशियाँ, रास, काव्य, गीत रचे , आपकी विविध कवितायें ३६६ विविध काव्य, गीत कविवर का विहारक्षेत्र एवं चातुर्मास और विविध प्रांतीय भाषाओं से परिचय , कविवर का साहित्यसेवियों में स्थान ३७१ कविवर का शिष्यसमुदाय और स्वर्गारोहण ३७२ श्री पूर्णिमामच्छाधिपति श्रीमद् महिमाप्रभसूरि । वंश-परिचय विद्याभ्यास और दीक्षा सरिपद की प्राप्ति आपश्री के कार्य और स्वर्गवास श्री कडुआमतीगच्छीय श्री खीमाजी श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं । महाकविगणकविकुलभूषण कवीश्वर धनपाल वंश-परिचय ३७४ कवि धमपालकृत 'बाहुबलि-चरित्र' विद्वान् चण्डपाल गर्भश्रीमंत कवीश्वर ऋषभदास कवि का समय कवि का वंश-परिचय, पितामह संघवी महिराज और पिता सांगण ३७६ महाकवि ऋषभदास और उनकी दिनचर्या ३७७ ऋषभदास की कवित्वशक्ति और रचनायें , ३६. श्रेष्ठि देदा श्रेष्ठि चाण्डसिंह का प्रसिद्ध पुत्र पृथ्वीभट ३८६ महं विजयसिंह श्राविका सरणी , वीझी और उसके भ्राता श्रेष्ठि जसा । और डुङ्गर श्रेष्ठि स्थिरपाल ३६१ , बोड़क के पुत्र ३६३ सुप्रसिद्ध श्रावक सांगा गांगा और उनके प्रतिष्ठित पूर्वज ३६४ श्रेष्ठि अभयपाल , लींवा ३६५ श्राविका साऊदेवी श्रेष्ठि महणा श्राविका स्याणी " ३६६ " आसलदेवी ३६७ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: विषय-सूची: विषय . . , रंगजी विषय पृष्ठांक पृष्ठांक श्राविका प्रीमलदेवी ३९७ श्राविका सदेवी ४०४ " आन्हू श्री ज्ञानभण्डार-संस्थापक नन्दुरवारवासी प्रा० " आल्ह ज्ञा० सुश्रावक श्रेष्ठि कालूशाह " रूपलदेवी श्रेष्ठि नक्षी ४०५ श्रेष्ठि धर्म ,, जीवराज श्राविका माऊ ३88 श्राविका अनाई श्रेष्ठि धर्मा मं० सहसराज ,, गुणेयक और को० बाधा श्रेष्ठि पचकल ,, मारू " सूदा ४०७ , कर्मसिंह मं० धनजी ,, पोमराज ४०१ श्रेष्ठि देवराज और उसका पुत्र विमलदास मन्त्री गुणराज श्राविका सोनी श्रेष्ठि केहुला ४०२ श्रेष्ठि रामजी १०८ , जिणदत्त , ठाकुरसिंह ,, लहूजी विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें विषय पृष्ठांक पृष्ठांक विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठांक राजस्थान-प्रान्त ४२२ हमीरगढ़ ४२३ उदयपुर ४०६ करेड़ा ४१२ कोलर ४२३ सिरोही जयपुर ४१३ जोधपुर ४१४ ब्रामसवाड़ा ४२३ माडोली जसोल ४१५ बाड़मेर ४२५ चामुण्डेरी मेड़ता ४१५ नागोर नाणा ४२५ खुझला કર बीकानेर ४१७ चूर. ४१७ नांदिया । ४२५ लोटाणा ४२६ जैसलमेर ४१७ दीयाणा ४२६ पेशवा ४२६ अर्बुदप्रदेश (गूर्जर-राजस्थान) धनारी ४२६ नीतोड़ा ४२७ मानपुरा ४२० मारोल ४२० भावरी ४२७ वासा ४२७ भटाणा ४२० मडार रोहिड़ा ४२६ बाटेड़ा सातसेण ४२१ रेवदर ४२१ कछोली ४३० भारजा सेलवाड़ा ४२१ लोरल ४२२ कासिन्द्रा ४३१ देरणा - ४३१ उबाणी ४२२ मालग्राम . ४२२ । ओरग्राम विषय ४२३ ४१५ ४१५ ४२१ ४३० ४३० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] विषय थराद भीलड़िया डभोड़ा कतार पूना महेसाणा भरूच उदयपुर गांभू उंझा माणसा सलखखपुर संडेसर बीसनगर अहमदनगर रायपुर कोलवड़ा महुआ जामनगर वढ़वाण, छोटा बड़ोदा४३७ मांडल घोघा गंधार जघराल बड़दला डाभिलाग्राम पेथापुर कड़ी कोबा ई पृष्ठकि विषय बनासकांठा (उत्तर - गुजरात) ४३१ बरमाण ४३४ लुअणा गूर्जर- काठियावाड़ और सौराष्ट्र 02 ४३४ लींच ४३५ पाटणी ४३५ राधनपुर ४३६ वीरमग्राम ४३६ हिम्मतनगर ४३७ कोलीयाक ४३८ सादड़ी ४३८ सोजींत्रा ४३६ सांबोसण ४३६ जंबूसर ४३६ वालीं ग्राम ४३६ सीनोर ४४० डभोई ४५० बड़नगर ४५२ सूरत ४५३ साणंद ४५३ गेरीता :: प्राग्वाट - इतिहास :: पृष्ठांक विषय वीरमग्राम दरापुरा छाणी ( छायापुरी) ४५३ कलोल ४५४ खेरालु ४५५ अहमदाबाद ४६६ पोसीना ४३४ ४३४ ५४१ चाणस्मा ४४१ ४.४१ हिल पुरपतन ४४४ ४४८ वीजापुर ४४८ ४४६ लाडोल ४४६ ४४६ करवटिया पेपरदर ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ४५३ ४५४ ४५४ ४५५ ४६७ ३३४ ४३५ ४३६ ४३६ ४३७ ४३७ ४३८ ४३८ ४३८ ४३६ ४३६ ४३६ ४३६ ४४० भरूच नडियाद मातर पालीताणा सिहोर बम्बई मद्रास लखनऊ लश्कर बालूचर बनारस चम्पापुरी पटना अजमेर विषय ४६७ पादरा ४६८ बड़ोदा ४७३ मीयाग्राम पृष्ठीक ४७४ सिनोर ४७६ खेड़ा ४७७ खंभात ४८८ तरंगातीर्थ ४८६ भारत के विभिन्न प्रसिद्ध नगर ४६० मथुरा ४६१ ४८६ हैदराबाद (दक्षिण) ४८६ ४६० आगरा ४६० ४६१ ४६२ कलकत्ता ४६३ सिंहपुरी ४६४ विहार ( तुङ्गियानगरी) ४६५ दिल्ली ४६५ ४६२ ४६४ ४६४ ४६५ ४६६ पृष्ठ क ४६८ ४६८ ४७४ अजीमगंज ४७५ ४७६ ४७८ ४८८ प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल रणकुशल वीरवर श्री कालूशाहवंश - परिचय ४६७ कालूशाह के पिता प्रतापसिंह कालूशाह की साहसिकता 17 अल्लाउद्दीन खिलजी का रणथंभौर पर की वीरता आक्रमण और कालूशाह कीर्तिशाली कोचर श्रावक वेदशाह और उसका पुत्र कोचर और ܕ ४६८ ४६६ ५०० उसका समय बहुचरादेवी और पशुबली कोचर की सम्राट् के प्रतिनिधि से भेंट और कोचर का शंखलपुर का शासक नियुक्त होना 11 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोचर का जीवदया प्रचार तथा शंखलपुर में शासन कोचर श्रावक की कीर्त्ति का प्रसार और सं० साजणीसी को ईर्ष्या मंत्री कर्म मंत्री श्री चांदाशाह मंत्री देवसिंह ठक्कुर कीका शा० पुन्जा और उसका परिवार मंत्री मालजी संघवी श्री भीम और सिंह वंश-परिचय श्रेष्ठव भीम और सिंह ५०१ प्रामुखः 99 ५०३ शा० पुन्जा और उसका पुत्र तेजपाल और उसका गृहस्थ तेजपाल द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें तेजपाल की माता उछरंगदेवी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा तेजपाल के द्वितीय पुत्र वर्धमान द्वारा प्रतिष्ठोत्सव चैत्यनिर्माता श्रे० जसवीर चित्र-सूची :: " ५०४ " ५०५ 99 99 ५०६ ५०७ ५०८ ५०६ 99 श्री केसरियातीर्थ की संघयात्रा चित्र - सूची १. विमलवसहि: प्राग्वाट - कुलदेवी अम्बिका । २. प्राग्वाट - इतिहास के उपदेशकर्त्ता : जैनाचार्य " शाह सुखमल ५१० श्रावक वल्लभदास और उनका पुत्र माणकचन्द्र ५११ महता श्री दयालचन्द्र महता गौड़ीदास और जीवनदास श्रेष्ठि वोरा, डोसा व उसका गौरवशाली वंश वंश - परिचय और ० डोसा द्वारा प्रतिष्ठामहोत्सव [ ६६ श्रेष्ठि नगा श्रेष्ठि जगमाल शा० देवीचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र सिंहावलोकन इस्लामधर्म और धर्म तथा जैन मत ज्येष्ठ पुत्र जेठा की मृत्यु और सं० डोसा का धर्म- ध्यान पुन्जीबाई का जीवन और उसका स्वर्गवास५१४ श्रे० ० कसला और उसका कार्य धार्मिक जीवन सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति साहित्य और शिल्प राजनैतिक स्थिति 93 ५१२ ५१३ " 19 ५१६ " ५१७ [ प्रस्तुत इतिहास में आये हुये प्रायः सर्व हाफटोन चित्र अतिरिक्त सूरीश्वरजी के, गिरनारस्थ श्री वस्तुपाल - तेजपाल - ट्रॅक, शत्रुञ्जयस्थ श्री विमलवसहिका के फोटोग्राफी में निष्णात एवं विशेषतः स्थापत्य - शिल्प के अत्यन्त प्रेमी अहमदाबाद - राजनगर के लब्धप्रतिष्ठित श्री जगन वी. महेता, प्रतिमा स्टुडिओ, लालभवन, रीलीफ रोड, अहमदाबाद द्वारा श्री प्राग्वाट - इतिहास - प्रकाशक समिति, स्टे. राणी के सर्वाधिकार के नीचे खींचे हुये हैं । महेता साहब का तत्परतापूर्ण श्रम एवं ऐतद् विषयक अनुभव इन चित्रों के सफल अवतरण का मूल एवं स्तुत्य कारण है । लेखक अत्यन्त आभारी है। -लेखक ] " ५१६ ५२० ५२१ ५२२ श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज । ३. मंत्री - श्री प्राग्वाट इतिहास - प्रकाशक समिति : श्री ताराचन्द्रजी मेघराजजी । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: ४. लेखक : श्री दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी. ए. | इतिहास:१. हम्मीरपुर : राजमान्य महामंत्री सामंत द्वारा जीर्णोद्धारकृत श्री अनन्य शिल्पकलावतार जिनप्रसाद का पार्वतीय सुषुमा के मध्य उसका उत्तम शिल्पमण्डित आन्तर दृश्य । पृ० ५६ २. श्री शत्रुजयतीर्थस्थ श्री विमलवसहि । पृ० ७५ ३. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के . निर्माता गूर्जरमहाबलाधिकारी विमलशाह की हस्तिशाला में प्रतिष्ठित अश्वारूढमूर्ति । पृ० ८२ ४. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की भ्रमती के उत्तर पक्ष के एक मण्डप में सरस्वतीदेवी की एक सुन्दर आकृति । एक ओर हाथ जोड़े हुये विमलशाह और दूसरी ओर गज लिये हुये सूत्रधार हाथ जोड़े हुये दिखाये गये हैं। पृ० ८२ ५. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि का बाहिर देखाव । पृ० ८३। ६. सर्वाङ्गसुन्दर अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदा चलस्थ श्री विमलवसति.देलवाडा । प०८४। ७. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के नवचौकिया के एक मण्डप की छत में कल्पवृक्ष की अद्भुत शिल्पमयी आकृति । पृ० ८६ ८. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के पूर्व पक्ष की भ्रमती के मध्ववर्ती गुम्बज के खंड में भरत-बाहुबली-युद्ध का दृश्य । पृ० ८७ ६. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि का अद्भुत् शिल्पकलापूर्ण रङ्गमण्डप । पृ० ८८ १०. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के अद्भुत शिल्पकलापूर्ण रङ्गमण्डप के सोलह देवीपुत्तलियों वाले घूमट का देखाव । पृ० ८८ ११. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के उत्तर पक्ष पर विनिर्मित देवकुलिकाओं की । हारमाला का एक प्रान्तर दृश्य । पृ० ८६ १२. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की दक्षिण पक्ष पर बनी हुई देवकुलिका सं० १० के प्रथम मण्डप की छत में श्री नेमिनाथ-चरित्र का दृश्य । पृ० ६१ १३. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की दक्षिण पक्ष पर बनी हुई देवकुलिका सं० १२ के प्रथम मण्डप की छत में श्री शांतिनाथ भगवान् के पूर्वभव का दृश्य । पृ० ६१ १४. अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की हस्तिशाला । प्रथम हस्ति पर महामंत्री नेढ़ और ततीय हस्ति पर मंत्री आनन्द की मर्तियां विराजित हैं । पृ. ६७ १५. सर्वांगसुन्दर शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसहि देलवाड़ा । पृ० १७१ । १६. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला का दृश्य । पृ० १७८ १७. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में हस्तियों के मध्य में विनिर्मित त्रिमंजिला सुन्दर समवशरण । पृ० १७८ । १८. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में पुरुषों के खत्तकों के मध्य तथा श्री समवशरण के ठीक पीछे एक खत्तक में सुन्दर परिकरसहित जिन-प्रतिमा । पृ. १७८ १६. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में (उत्तर पक्ष से) प्रथम पांच खत्तकों में प्रतिष्ठित मंत्रीभ्राताओं की पूर्वज प्रतिमायें। पृ० १७८ २०. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में अन्य पांच (छः से दस) खत्तकों में प्रतिष्ठित मंत्रीभ्राता तथा उनके पुत्रादि की प्रतिमायें । पृ० १७८ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: चित्र-सूची :: २१. देउलवाड़ा : पार्वतीयसुषुमा एवं वृजराशि के मध्य श्री पिसलहरवसहि एवं श्री खरतरवसहि के साथ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहसहि का बाहिर देखाव । पृ० १८६ २२. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रङ्गमण्डप के सोलह देवपुतलियोंवाले अद्भुत घूमट का भीतरी दृश्य । पृ० १८७ २३. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि का अद्भुत कलामयी आलय | पृ० १६० २४. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के गूढमण्डप में संस्थापित श्रीमती राजिमती की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा । पृ० १८८ २५. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के नवचौकिया के एक मण्डप के घूमट का अद्भुत शिल्प कौशलमयी दृश्य और उसके बृहद् वलय में काचलाकृतियों की नौकों पर बनी हुई जिनचौवीशी का अद्भुत संयोजन | पृ० १८६ २६. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रंगमण्डप के बाहर भ्रमती में नैऋत्य कोण के मण्डप में ६८ प्रकार का नृत्य-दृश्य । पृ० १८६ २७. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रङ्गमण्डप के सुन्दर स्तंभ, नवचौकिया, उत्कृष्ट शिल्प के उदाहरणस्वरूप जगविश्रुत श्रालय और गूढ़मण्डप के द्वार का दृश्य । पृ० १६० २८. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के सभामण्डप के घूमट की देवपुत्तलियों के नीचे नृत्य करती हुई गंधर्वो की अत्यन्त भावपूर्ण प्रतिमायें । पृ० १६० २६. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की भ्रमती के दक्षिण पक्ष के प्रथम मण्डप की छत में कृष्ण के जन्म का यथाकथा दृश्य । पृ० १६० ३०. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की भ्रमती के दक्षिण पक्ष के मध्यवर्ती मण्डप की छत में श्री कृष्ण द्वारा की गई उनकी कुछ लीलाओं का दृश्य । पृ० १६० ३१. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की देवकुलिका मं० ६ के द्वितीय मण्डप (१६) में द्वारिकानगरी, गिरनारतीर्थ और समवशरण की रचनाओं का अद्भुत देखाव । पृ० १६२ ३२. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की देवकुलिका सं० ११ के द्वितीय मण्डप में नेमनाथ - वरातिथि का मनोहारी दृश्य । पृ० १६३ ३३. श्रीगिरनारपर्वत स्थ वस्तुपालक । पृ० १६४ ३४. श्री गिरनारपर्वतस्थ श्रीवस्तुपालटँक । पृ० १६६ ३५. नडूलाई : यशोभद्रसूरिद्वारा मंत्रशक्तिबलसमानीत आदिनाथ बावन जिन प्रासाद | पृ० २०४ ३६. महाकवि श्रीपाल के भ्राता शोभित और उसका परिवार | पृ० २२३ 10 ३७. अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की देवकुलिका सं० १६ में अश्वावबोध और समलीविहारतीर्थदृश्थ । उन दिनों में जहाज कैसे बनते थे, इससे समझा जा सकता है । पृ० २४१ ३८. पिण्डरवाटक में सं. धरणाशाह द्वारा जीर्णोद्धार कृत प्राचीन महावीर - जिनप्रासाद । पृ० २६२ ३६. अजाहरी ग्राम में सं० धरणाशाह द्वारा जीर्णो द्धारकृत महावीर - चावनजिनप्रासाद | पृ० २६२ ४०. पर्वतों के मध्य में बसे हुये नांदिया ग्राम में सं० धरणाशाह द्वारा जीर्णोद्धारकृत प्राचीन श्री महावीर - बावन जिनप्रासाद । पृ० २६३ ४१. गोड़वाड़ (गिरिबाट) प्रदेश की माद्रीपर्वत की रम्य उपत्यका में सं० धरणाशाह द्वारा विनिर्मित नलिनीगुल्मविमान - त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार राणकपुर तीर्थ नामक शिल्प-कलावतार चतुर्मुख-आदिनाथ - जिनप्रासाद । पृ० २६६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: ४२. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार का पश्चिमा- | ..भिमुख त्रिमंजिला सिंहद्वार । पृ० २६७। ४३. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार के पश्चिम मेघ नादमण्डप, रंगमएडप और मलनायक-देवकुलिका के स्तभों की, तोरणों की मनोहर शिल्पकलाकृति । प० २६८ ५४. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार के कलामयी स्तंभों का एक मनोहारी दृश्य । पृ० २६६ १५. नलिनीगुल्मविमान श्री त्रैलोक्यदीपक धरण विहार नामक श्री राणकपुरतीर्थ श्री आदिनाथ चतुर्मुख-जिनप्रासाद का रेखाचित्र | पृ० २७० ५६. नलिनीगुल्म विमान श्री त्रैलोक्यदीपक धरण विहारनामक श्री आदिनाथ-चतुर्मुख-जिनप्रासाद १४४४ सुन्दर स्तंभों से बना है और अपनी इसी विशेषता के लिये वह शिल्पक्षेत्र में अद्वितीय है। उसके प्रथम खण्ड की समानान्तर स्तम्भमालाओं का देखाव । प० २७१ ५७. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार की दक्षिण पक्ष पर विनिर्मित देवकुलिकाओं में श्री आदिनाथ देवकुलिका के बाहर भीत्ति में उक्तीणित श्री .. सहसफणा-पार्श्वनाथ । पृ० २७२ १८. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार की एक देव कुलिका के छत का शिल्पकाम । पृ० २७२ १६. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार का उन्नत एवं कलामयी स्तंभवाला मेघनादमण्डप । प०२७२ ५०. श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार के पश्चिम मेघ नादमण्डप का द्वादश देवियोंवाला अनंत कलामयी मनोहर मण्डप । पृ० २७३ ५१. सं० सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतुर्मख-आदि.. नाथ शिखरबद्ध-जिनालय,अचलगढ़ । पृ० २७७ ५२. अचलगढ : उन्नत पर्वतशिखर पर सं. सहसा द्वारा विनिर्मित चतुर्मुखादिनाथ-जिनालय पृ० २७८ ५३. अचलगढ : अर्बुदाचल की उन्नत पर्वतमाला एवं मनोहारिणी वृक्षसुषुमा के मध्य सं० सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिन प्रासाद का रम्य दर्शन । प० २७८ ५४. अचलगढ : श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद में सं० सहसा द्वारा १२० मण (प्राचीन तोल से) तोल की प्रतिष्ठित सर्वाङ्गसुन्दर एवं विशाल मूलनायक-आदिनाथ-धातुप्रतिमा । पृ. २७६ ५५. अचलगढ : श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद के प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर ही प्रतिष्ठित तीन वीरों की अश्वारोही धातुप्रतिमायें । पृ० २७६ ५६. वसंतगढ : वसंतगढ आज उजड़ ग्राम बन गया है। प्राचीन खण्डहर एवं भग्नावशेष अब मात्र वहां दर्शनीय रह गये हैं। वहां से लाई हुई दो अति सुन्दर धातुप्रतिमायें, जो अभी पींडवाड़ा के श्री महावीर-जिनालय में विराज मान हैं । पृ० २८२ ५७. सिरोही: पर्वत की तलहटी में सं० सीपा द्वारा विनिर्मित पश्चिमाभिमुख गगनचुम्बी श्री प्रादि नाथ-चतुर्मुख-बावन जिनप्रसाद । ५० २८६ ५८. सिरोही : पर्वत की तलहटी में सं० सीपा द्वारा विनिर्मित पश्चिमाभिमुख गगनचुम्बी श्री आदिनाथ-चतुर्मुख-बावन जिनप्रासाद का नगर के मध्य एवं समीपवर्ती भूभाग के साथ मनोहर दृश्य । पृ० २८६ 18 अर्बदगिरिस्थ पित्तलहरवसहि (भीमवसहि): जैनबंधयों के अदभुत प्रभप्रेम को प्रकट सिद्ध करनेवाली भगवान् आदिनाथ की मण १०८ (प्राचीन तोल) की धातुप्रतिमा। पृ. ३०२ अर्बुदगिरिस्थ श्री खरतरवसहि : अद्भुत भावनाट्यपूर्णा पांच नृत्यपरायणा वराङ्गनाओं के शिल्पचित्र । पृ० ३०३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ॐ॥ प्राग्वाट-इतिहास प्रथम खण्ड [ विक्रम संवत् पूर्व पांचवी शताब्दी से विक्रम संवत् आठवीं शताब्दी पर्यन्त। ] Page #137 --------------------------------------------------------------------------  Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास प्रथम खंड महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत वर्तमान युग को महावीरकाल मी कह सकते हैं, जिसका इतिहास की दृष्टि से प्रारंम विक्रम संवत् से पूर्व पांचवीं शताब्दी में जैन तीर्थकर भगवान् महावीर के निर्वाण-संवत् से होता है। कुरुक्षेत्र के महामारत में रणप्रिय बाह्मणवर्ग और क्रियाकाण्ड योद्धाओं का समय नष्टप्राय हो गया था। भारत की राजश्री नष्ट हो गई थी। मारत में हिंसावाद ... में महान् परिवर्तन होने वाला था। ब्राह्मणवर्ग का वर्चस्व उत्तरीचर बढ़ने लगा था। वर्ण-व्यवस्था कठोर बनती जा रही थी। ई० स० पू० १००० से ई० स० पू० २०० वर्षों का अन्तर बुद्धिवाद का युग समझा जाता है। इस युग में वर्णाश्रम-पद्धति के नियम अत्यन्त कठोर और दुःखद हो उठे थे। इसका यह परिणाम निकला कि धर्म के क्षेत्र में शद्र वर्ण का प्रवेश भी अशक्य हो गया था। तेवीसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ ने इस बुद्धिवाद के युग में अवतरित होकर भारत की आर्य-भूमि पर बढ़ते हुए मिथ्याचार के प्रति भारी विशेष प्रदर्शित किया । भगवान महावीर के निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व १०० वर्ष की आयु भोग कर ये मोक्षगति को प्राप्त हुये थे। ब्राह्मणवर्ग प्रथम राजा एवं सामंतों के आश्रित था, पीछे वह उनका कृपापात्र बना और तत्पश्चात् गुरुपद पर प्रतिष्ठित हुआ। ब्राह्मण पंडितों ने ब्राह्मण एवं अपने गुरुपद का अपरिमित गौरव स्थापित किया और ऐसी-ऐसी निर्जीव कथा, कहानियाँ, दृष्टांत प्रचारित किये कि जनसमूह गुरु को ईश्वर से भी बढ़ कर समझने लगा । परिणाम . - श्री पार्श्वनिर्वाणात् पश्चाशदधिकवर्षशतद्वयेन श्री वीरनिर्वाणम्-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका । पृष्ठ १३२ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास :: [प्रथम यह हुआ कि ब्राह्मणवर्ग निरंकुश एवं सत्ताभोगी हो बैठा । यज्ञ, हवन, योगादि की असत् प्रणालियाँ बढ़ने लगीं। यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाने लगी। शूद्रों को हवन एवं यज्ञोत्सवों में भाग लेने से रोका जाने लगा। यह समय इतिहास में क्रियाकाण्ड का युग भी माना जाता है ; परन्तु यह युग अधिक लम्बे समय तक नहीं टिक सका। महावीर से पूर्व केवल दो संस्थायें ही भारत में रही हैं, एक धर्मसंस्था और दूसरी वर्णसंस्था । आज की शातियों का दुर्ग एवं जाल, श्रेणियों का दुर्भेद उस समय नितान्त ही नहीं था। वर्णसंस्था आज भी है और उसके अनुसार पूर्ववत् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण भी विद्यमान हैं, परन्तु आज ये सुदृढ़ ज्ञातियों के रूप में हैं, जबकि उस समय प्रत्येक पुरुष का वर्ण उसके कर्म के आधीन था। ब्राह्मणवर्ग की सत्ताभोगी प्रवृत्ति से राजा एवं सामंत भी असंतुष्ट थे, उनके मिथ्याडम्बर से इतरवर्ग भी क्षुब्ध थे, उनके हिंसात्मक यज्ञ, हवनादि क्रियाकाण्डों से भारत का श्वास घुटने लग गया था। इस प्रकार भारत के कलेवर में विचारों की महाक्रांति पल रही थी. ब्राह्मणवर्ग के विरुद्ध अन्य वर्गों में विद्रोह की ज्वाला धधक थी। ब्राह्मणवर्ग को पीछे स्थिति बिगडी अथवा सुधरी, कुछ भी हो, परन्तु इस क्रियाकाण्ड के युग में ज्ञातीयता का बीजारोपण तो हो ही गया, जो आज महानतम वटवृक्ष की तरह सुदृढ़, गहरा और विस्तृत फैला हुआ है। ब्राह्मणवर्ग की सत्तालिप्सा, एकछत्र धर्माधिकारिता ने भारत के संगठन को अन्तप्रायः कर डाला। चारों वों में जो पूर्व युगों में मेल रहा था, वह नष्ट हो गया। परस्पर द्वेष, मत्सर, विद्रोह, ग्लानि के भाव जाग्रत हो ___ गये । राजागणों की राज्यश्री जैसा ऊपर लिखा जा चुका है ब्राह्मणवर्ग के चरणों में बाहरी आक्रमणों का प्रारंभ ___ लोटने लगी। इस प्रकार ई. सन् से पूर्व छठी शताब्दी में भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक अवनति चरमता को पहुँच गई। उधर पड़ौसी. शकप्रदेश में प्रतापी सम्राट साइरस राज्य कर रहा था। उसने भारत की गिरती दशा से लाभ उठाना चाहा और फलतः उसने पंजाब प्रदेश पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिये और पंजाब का अधिकांश भाग अधिकृत कर लिया। सम्राट् डेरियस ने भी आक्रमण चालू रखे और उसने मी सिंध-प्रांत के भाग पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली । भारत के निर्बल पड़ते राजा उन आक्रमणों को नहीं रोक सके। भारत के इतिहास में बाहरी आक्रमणों का प्रारम्भ इस प्रकार ई. सन् से पूर्व छवी शताब्दी से होता है । वर्णाश्रम की सड़ान से भारत भीतर से विकल हो उठा और बाहरी आक्रमणों का संकट जाग उठा । .. अब से ई० सन् पूर्व नवीं शताब्दी में भगवान पार्श्वनाथ ने सर्व प्रथम ब्राह्मणवर्ग की बढ़ती हुई हिंसात्मक एवं स्वार्थपूर्ण मिथ्यापरता के विरोध में आन्दोलन को जन्म दिया था। उनके निर्वाण के पश्चात् २५० वर्ष पर्यन्त का समय ब्राह्मणवर्ग को ऐसा मिल गया, जिसमें उनका विरोध करने वाला कोई महान् यहान् अहिंसात्मक क्रान्ति, अवधर्म की स्थापना और प्रतापी पुरुष पैदा नहीं हुआ। इस अन्तर में ब्राह्मणवर्ग का हिंसात्मक क्रियाकाण्ड चरजमवाम् महावीर का दया- मता को लांघ गया। ई० सन् से पूर्व लगभग ५६६ वर्षों के भगवान् महावीर का प्रसार उसका प्रचार । “अक्तरण हुआ। भगवान गौतमबुद्ध भी इसी काल में हुए । इन दो महापुरुषों ने हिंसास्मक क्रियाकाण्ड का अन्त करने के लिए अपने प्राण लगा दिये। उस समय की स्थिति भी दोनों महापुरुषों के Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत :: अनुकूल थी। राजाओं ने, जो ब्राह्मणवर्ग की निरंकुशता एवं सत्तालिप्सा से चिढ़े हुए थे इनके विचारों का समर्थन किया तथा तीनों वर्गों ने इनके विचारों को मान दिया और उन पर चलना प्रारंभ किया। समस्त उत्तर भारत में दयाधर्म का जोर बढ़ गया और बामणवर्ग की प्रमुखता एवं सत्ता हिल गई। यहाँ तक कि स्वयं ब्रामणवर्ग के षड़े-बड़े महान् पंडित, इनके भक्त और अनुयायी बन कर इनके दया-धर्म का पालन और प्रचार करने लगे। ई. सन् पूर्व की छट्ठी शताब्दी तक आर्यावर्त अथवा भारत में दो ही धर्म थे—जैन और वैदिक । चारों वर्गों के स्त्री पुरुष अपनी-अपनी इच्छानुकूल इन दो में से एक का पालन करते थे। ब्राह्मणवर्ग ने वैदिकमत का औदार्य दिनोंदिन कम करना प्रारंभ किया और उसका यह परिणाम हुआ कि वैदिकमत केवल ब्राह्मणवर्ग की ही एक वस्तु बन गई। फलतः अन्य वर्गों का झुकाव जैनधर्म के प्रति अधिक बढ़ा। इस ही समय बुद्धदेव का जन्म हुआ और उन्होंने तृतीय धर्म की प्रवर्तना की, जो उनके नाम के पीछे बौद्धमत कहलाया। अब भारत में दो के स्थान पर वैदिकमत, बौद्धमत और जैनमत इस प्रकार तीन मत हो गये। जैनमत और बौद्धमत मूल धर्म सिद्धांतों में अधिक मिलते हैं। दोनों मतों में अहिंसा अथवा दया-धर्म की प्रधानता है, दोनों में प्राणीमात्र के प्रति समतादृष्टि है, दोनों में यज्ञ-हवनादि क्रियाकाण्डों का खण्डन है, चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषों को बिना राक्रंक, ऊँरनीच के भेद के दोनों मत एक-सा धर्माधिकार देते हैं। जैनमत से मिलता होने के कारण बौद्धमत को चारों वों के स्त्री और पुरुषों ने सहज अपनाना प्रारंभ किया और जैनमत के साथ-ही-साथ वह भी बढ़ा। फिर भी उदारता, विशालता, क्षमता, सहिष्णुता की दृष्टियों से दोनों मतों में जैनमत का स्थान प्रमुख है। गौतम बुद्ध के अनुयायियों में अधिकतम ब्राह्मण और क्षत्रियवर्ग के लोग थे । परन्तु भगवान महावीर के अनुयायियों में स्वतन्त्र रूप से चारों वर्ण थे। इसने वर्णाश्रम की सड़ान से लोगों का उद्धार किया। भगवान महावीर को सत्यशीख आत्मा ने मानव-मानव के बीच के भेद के विरोध में महान आन्दोलन खड़ा कर दिया और समता के सिद्धांत की स्थापना की और प्रसिद्ध किया कि किसी भी शद्र अथवा अन्य वर्ण का कोई भी व्यक्ति अपना जीवन पवित्र, निर्दोष एवं परोपकारी बना कर मोक्ष-मार्ग में आगे बढ़ सकता है और मोक्षगति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार भगवान ने लोगों में आत्मविश्वास की भावना को जाग्रत किया और उन्हें प्रोत्साहित किया तथा विश्वबन्धुत्व के सिद्धांत का पुनः प्रचार किया । इस प्रकार भगवान् ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषों को समान रूप से धर्माधिकार प्रदान किया और उनमें प्रेम-धर्म की स्थापना की। भगवतीसूत्र के कथनानुसार भगवान महावीर का जैनधर्म अंग, बंग, मगध, मलाया, मालव, काशी, कोशल, अछ (अत्स), वछ (वत्स), कच्छ, पाण्डप, लाड़, बज्जी, मोली, अवह और सम्मुत्तर नामक सोलह महाजनपदों में न्यूनाधिक फैल गया था। इन प्रदेशों के राजा एवं माण्डलिक भी जैनधर्म के प्रभाव के नीचे न्यूनाधिक आ चुके थे। मगधपति श्रेणिक (बिंबिसार) और कौशलपति प्रदेशी (प्रसेनजित) भगवान् के अग्रगण्य नृपभक्तों में शिरोमणि थे । भगवान् के गौतम आदि ग्यारह गणधर थे, जो महान् पंडित, ज्ञानी, तपस्वी एवं प्रभावक थे । ये सर्व ब्राह्मणकुलोत्पन्न थे । और फिर इनके सहस्रों साधु शिष्य थे। चन्दनबालादि अनेक विदुषी साध्वियाँ भी थीं। ये सर्व धर्म-प्रचार, आत्मकल्याण एवं परकल्याण करने में ही दत्तचित्त थे। जैनधर्म का प्रचार करते हुए बहत्तर (७२) वर्ष की आयु भोग कर भगवान् महावीर जैन मान्यतानुसार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: ६] ई० सन् पूर्व ५२७ वर्ष में मोक्षगति को प्राप्त हुए । भगवान् की अहिंसात्मक क्रांति एवं जैनधर्म के प्रचार से नवीन बात यह हुई कि वर्णों में से जो भगवान् के अनुयायी बने उनका वर्णविहीन, ज्ञातिविहीन एक साधर्मीवर्ग बन गया जो श्रावक संघ' कहलाया । श्रावक संघ में ऊँच-नीच, राव-रंक का भेद नहीं रहा । इस श्रावक संघ की अलग स्थापना ने वर्णाश्रम श्रावक संघ की स्थापना की जड़ को एक बार मूल से हिला दिया । भगवान् महावीर के पश्चात् आने वाले जैनाचार्यों ने भी चारों वर्णों को प्रतिबोध दे-देकर श्रावक संघ की अति वृद्धि की । उनके प्रतिबोध से अनेक राजा, अनेक समूचे नगर ग्राम जैनधर्मानुयायी होकर श्रावक संघ में सम्मिलित हुये । क्योंकि ब्राह्मणवाद के मिथ्याचार एवं ब्राह्मणगुरुत्रों की निरंकुशता एवं हिंसात्मक प्रवृत्तियों से उनको श्रावक संघ में बचने का सुयोग मिला और सबके लिये धर्माधिकार सुलभ और समान हुआ । [ प्रथम इस प्रकार महावीर के जन्म के पूर्व जहाँ वर्णसंस्था और धर्मसंस्था दो थीं, उनके समय में वहाँ श्रावकसंस्था एक अलग तीसरी और उद्भूत हो गई तथा जहाँ जैन और वैदिक दो मत थे, वहाँ जैन, वैदिक और बौद्ध तीन मत हो गये । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् जैनाचार्यों द्वारा जैनधर्म का प्रसार करना ง 1 भगवान् महावीर हिंसावाद के विरोध में पूर्ण सफल हुए और अनेक कष्ट- बाधायें झेल कर उन्होंने 'अहिंसापरमौ धर्मः' का झंडा खड़ा कर ही दिया और दयाधर्म का संदेश समस्त उत्तरी भारत में घर २ पहुंचा दिया । जैन धर्म का सुदृढ़ व्यापक एवं विस्तृत प्रचार तो उनके पश्चात् आने वाले जैनाचार्यों ने ही किया था। यहाँ यह कहना उचित है कि भगवान् गौतमबुद्ध ने अपना उपदेशक्षेत्र पूर्वी भारत चुना था और भगवान् महावीर ने मगध और उसके पश्चिमी भाग को; अतः दोनों महापुरुषों के निवाण के पश्चात् जैनधर्म उत्तर-पश्चिम भारत में अधिकतम रहा और बौद्ध मत प्रधानतः पूर्वी भारत में । दोनों मतों को पूर्ण राजाश्रय प्राप्त हुआ था । मगधसम्राटों की सत्ता न्यूनाधिक अंशों में सदा सर्वमान्य, सर्वोपरि एवं सार्वभौम रही है । मगध के प्रतापी सम्राट् श्रेणिक (बिम्बिसार), कूणिक (अजातशत्रु) १- भगवान् महावीर के मोक्ष जाने के वर्ष ई० सन् पूर्व ५२७ के होने में तर्कसंगत शंका है। गौतमबुद्ध का निर्वाण ई० सन् पूर्व ४७७ वर्ष में हुआ। वे अस्सी (८०) वर्ष की आयु भोग कर मोक्ष सिधारे थे । इस प्रकार उनका जन्म ई० सन् पूर्व ५५७ ठहरता है। गौतम ने तीस वर्षं की वय में गृह त्याग किया था अर्थात् ई० सन् पूर्व ५२७ में । अजातशत्रु बुद्धनिर्वाण के ८ वर्ष पूर्व राजा बना था और उसके राज्यकाल में दोनों धर्म-प्रचार कर रहे थे। महावीर निर्वाण और गौतम का गृहत्याग अगर एक ही संवत् में हुये होते तो अजातशत्रु के राज्यकाल में दोनों कैसे प्रचार करते हुये विद्यमान मिलते १ २- श्रावक संघ की स्थापना नवीन नहीं थी। जब २ जैनतीर्थङ्करों ने जैनधर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया, उन्होंने प्रथम चतुर्विधश्रीसंघ की स्थापना की । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चार वर्गों के वर्गीकरण को ही चतुर्विध-श्रीसंघ कहा जाता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् :: [ ७ और उनके उत्तराधिकारी जैनधर्मालम्बी थे । इनके पश्चात् मगध की सत्ता शिशुनागवंश और नन्दवंश के करों में रही । नन्दवंश में छोटे बड़े नव राजा हुये, जिनको नवनन्द कहा जाता है। ये जैनधर्मी नहीं भी रहे हों, फिर भी ये उसके द्वेषी एवं विरोधक तो नहीं थे । पश्चात् मौर्य सम्राटों का समय आता है । प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त तो जैनधर्म का महान सेवक हुआ है । उसका उत्तराधिकारी बिन्दुसार भी जैन था । तत्पश्चात् वह बौद्धमतानुयायी बना और उसने बौद्धमत का प्रचार सम्पूर्ण भारत और भारत के पास-पड़ौस के प्रदेशों में बौद्ध भिक्षुकों को भेज कर किया था । अशोक का पुत्र कुणाल था, कुणाल की विमाता ने उसको राज्यसिंहासन पर बैठने के लिये अयोग्य बनाने की दृष्टि से षड़यन्त्र रच कर उसको अन्धा बना दिया था । अतः अशोक के पश्चात् कुणाल का पुत्र प्रियदर्शिन जो अशोक का पौत्र था, सम्राट् बना । जैन ग्रंथों में प्रियदर्शिन को सम्राट् संप्रति के नाम से उल्लिखित किया है। अशोक के समान सम्राट् संप्रति ने भी जैनधर्म का प्रचार समस्त भारत एवं पास-पड़ौस प्रदेशों में जैनधर्म के व्रती साधुओं' को, उपदेशकों को भेज कर खूब दूर २ तक करवाया था । उसने लाखों जिन-प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाईं थीं और अनेक जैन- मन्दिर बनवाये थे । संप्रति के पश्चात्वर्ती मगध सम्राट् निर्बल रहे और उनकी सत्ता मगध के थोड़े से क्षेत्र पर ही रह गई थी । अर्थ यह है कि ई० सन् पूर्व घडी शताब्दी से ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी तक समस्त भारत में जैन अथवा बौद्धमत की ही प्रमुखता रही । शुंगवंश ने अपनी राजधानी मगध से हटा कर अवंती को बनाया, पश्चात् क्षहराटवंश और गुप्तवंश की भी, यही राजधानी रही । शुंगवंश के प्रथम सम्राट् पुष्यमित्र, अग्निमित्र आदि ने जैनधर्म और उनके अनुयायियों के ऊपर भारी अत्याचार बलात्कार किये, जिनको यहाँ लिखने का उद्देश्य नहीं है । उनके अत्याचारों से जैनधर्म की प्रसारगति अवश्य धीमी पड़ गई, परन्तु लोगों की श्रद्धा जैनधर्म के प्रति वैसी ही अक्षुण्ण रही। गुप्तवंश के सम्राट् वैदमतानुयायी थे; फिर भी वे सदा जैनधर्म और जैनाचार्यों का पूर्ण मान करते रहे । जैनधर्म की प्रगति से कभी उनको जलन और ईर्ष्या नहीं हुई । क्षहराटवंश तो जैनधर्मी ही था । कलिंगपति चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल भी महान् प्रतापी जैन सम्राट् हुआ है। उसने भी जैनधर्म की महान् सेवा की है; जिसके संस्मरण में उसकी उदयगिरि और खण्डगिरि की ज्वलंत गुफाओं की कलाकृति, हाथीगुफा का लेख आज भी विद्यमान है । यह सब लिखने का तात्पर्य इतना ही हैं कि ई० सन् पूर्व बडी शताब्दी से लेकर ई० सन् पूर्व द्वितीय शताब्दी तक जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्रचार के अनुकूल राजस्थिति रही और उत्तर भारत में इन दोनों मतों को पूर्ण जनमत और राजाश्रय प्राप्त होता रहा । परन्तु कुछ ही समय पश्चात् बौद्धमत अपनी नैतिक कमजोरियों के कारण भारत से बाहर की ओर खिसकना प्रारम्भ हो गया था। जैनमत अपने उसी शुद्ध एवं शाश्वत रूप में भारत में अधिकाधिक सुदृढ़ बनता जा रहा था; चाहे वैदमत के पुनर्जागरण पर जैनधर्मानुयायियों की संख्या बढ़ने से रुक भले गई हो । ई० सन् पूर्व डी -शताब्दी से जैसा पूर्व लिखा जा चुका है भारत पर बाहरी ज्ञातियों एवं बाहरी सम्राटों के आक्रमण प्रारंभ हुए थे, जो गुप्तवंश के राज्यकाल के प्रारम्भ तक होते रहे थे । इन ६०० सौ वर्षों के १ वे साधु, जो साधु के समान जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु आहार और विहार में वे साधुओं के समान पद-पद पर बन्धे नहीं होते हैं, जिनको हम आज के कुलगुरु कह सकते हैं अवती कहे गये हैं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५] -:: प्राग्वाट - इतिहास [ प्रथम दीर्घ काल में भारत पर यवन, योन, शक अथवा शिथियम पल्ल्लबाज आदि बाहरी ज्ञातियों ने अनेक बार आक्रमण किये थे और वे ज्ञातियाँ अधिकांशतः भारत के किसी न किसी भाग पर अपनी राज- सत्ता कायम करके वहीं बस गई थीं और धीरे २ भारत की निवासी ज्ञातियों में ही संमिश्रित हो गई थीं। ये ज्ञातियाँ पश्चिम और उत्तर प्रदेशों से भारत में आक्रमणकारी के रूप में आई थीं और इन वर्षों में भारत के पश्चिम और उत्तर प्रदेशों में धर्म की प्रमुखता थी । अतः जितनी भी बाहर से आक्रमणकारी ज्ञाति भारत में प्रविष्ट हुईं, उन पर भी जैनधर्म का प्रभाव प्रमुखतः पड़ा और उनमें जो राजा हुये, उनमें से भी जैनधर्म के श्रद्धालु और पालक रहे हैं। यह श्रेय पंचमहाव्रत के पालक, शुद्धव्रतधारी, महाप्रभावक, दर्शनत्रय के ज्ञाता जैनाचार्यों और जैनमुनियों को है कि जो भगवान् महावीर के द्वारा जाग्रत किये गये जैनधर्म के प्रचार को प्राणप्रण से विहार, आहारादि के अनेक दुःखकष्ट फेल कर बढ़ाते रहे और उसके रूप को अक्षुण्ण ही नहीं बनाये रक्खा वरन् अपने आदर्श आचरणों द्वारा जैनधर्म का कल्याणकारी स्वरूप जनगण के समक्ष रक्खा और विश्वबन्धुत्व रूपी प्रवाह राव के प्रासादों से लेकर निर्धन, कंगाल एवं दुःखीजन की जीर्ण-शीर्ण झौंपड़ी तक एक-सा प्रवाहित किया, जिसमें निर्भय होकर पशु, पक्षी तिर्यच तक ने अवगाहन करके सच्चे सुख एवं शान्ति का आस्वादन किया । स्थायी श्रावक -समाज का निर्माण करने का प्रयास जैसा पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि भगवान् महावीर ने श्री चतुर्विध-श्रीसंघ की पुनः स्थापना की और यह भी पूर्व लिखा जा चुका है कि भारत में अनादिकाल से दो धर्म— जैन और वैदिक चलते आ रहे हैं। और प्रत्येक वर्ण का कोई भी व्यक्ति अपने ही वर्ण में रहता हुआ अपनी इच्छानुसार स्थायी श्रावक समाज का निर्माण करने का प्रयास उपरोक्त दोनों धर्मों में से किसी एक अथवा दोनों का पालन कर सकता था । परन्तु इस अहिंसात्मक क्रांति के पश्चात् धर्मपालन करने की यह स्वतन्त्रता नष्ट हो गई । अतः भगवान महावीर ने जो चतुर्विध श्रीसंघ की पुनः स्थापना की थी, वह सर्वथा वर्णविहीन और ज्ञातिविहीन अर्थात् वर्णवाद ज्ञातिवाद के विरोध में थी । जैसा पूर्व के पृष्ठों से आशय निकलता है कि वर्णवाद और ज्ञातिवाद मौर्य सम्राटों के राज्यकाल पर्यन्त दबा अवश्य रहा था, परन्तु उसका विष पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ था । भगवान् महावीर के पश्चात्वर्त्ती जैनाचार्यों ने इसका भलीविध अनुभव कर लिया कि किसी भी समय भविष्य में वर्णवाद एवं ज्ञातिवाद का जोर इतना बढ़ेगा कि वह अपना स्थान जमा कर ही रहेगा, अतः जैनधर्म के पालन करने के लिये एक स्थायी समाज का निर्माण करना परमावश्यक है | भावक के बारह-बत - "पाच अणुव्रत” १. स्थूल प्राणातिपात विरमणत्रत २. स्थूलमृषावादविरमणवत २. स्थूल प्रदत्तादानfarayan ४. स्थूलमंथुनविरमणवत ५. स्थूलपरिग्रह विरमणव्रत " तीन गुणवत" ६. दिग्वत ७, भोगोपभोग विरमणव्रत ८. अनर्थदण्ड विरमरणत्रत "चार शिक्षावत" ६ सामायिक व्रत १०. देशावकासिकवत ११. पौषधमत और १२. अतिथिसंविभागवत । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: स्थायी श्रावक-समाज का निर्माण करने का प्रयास :: वैसे तो संसार के प्रत्येक धर्म का सच्ची विधि से पालन करना सर्व साधारण जन के लिये सदा से ही कठिन रहा है, परन्तु जैनधर्म का पालन तो और भी कठिन है, क्य कि इसके इतने सूक्ष्म सिद्धान्त हैं तथा यह मानव की इच्छा, प्रवृत्ति, स्वभाव पर ऐसे-ऐसे प्रतिबन्ध कसता है कि थोड़ी भी वासना, आकांक्षा, निर्बलमानसवाला मनुष्य इसका पालन करने में असफल रह जाता है । जैनधर्म की कठोरता का अनुभव करके ही इसके पालन करने वालों को श्रमण और श्रावक दो दलों में विभाजित कर दिया है । वैसे तो ये दल सर्व ही धर्मों में भी देखने को प्रायः आते हैं । श्रमणसंस्था संसार का त्याग करके भगवती दीक्षा लेकर पूर्णतः धार्मिक, लोकोपकारी जीवन व्यतीत करने वाले साधु-साध्वी, उपाध्याय, प्राचार्यों आदि की है और श्रावकसंस्था गृहस्थजनों की है, जिनकी प्रत्येक क्रिया में कुछ न कुछ पाप का अंश रहता ही है और वह पाप का अंश उस क्रिया-कर्म में अपनी अनिवार्य उपस्थिति के कारण ही नगण्य अवश्य है, परन्तु पाप की कोटि में अवश्य गिना गया है। इस दृष्टि को लेकर श्रावक के बारह व्रत निश्चित किये गये हैं और उसको जीवननिर्वाह के हेतु आवश्यक सावध क्रिया-कर्म करने की छूट दी गई है । परन्तु यह छूट भी इतनी थोड़ी और इतनी संयम-यम-नियमबद्ध है कि सर्वसाधारण जन श्रावक के बारह व्रत पालन करना तो दूर की और बड़ी बात है, श्रावक का चौला भी नहीं पहन सकता है । भगवान् महावीर के समय में इतना कठिनतया पालन किया जाने वाला जैनधर्म इसलिये चारों वर्गों के द्वारा स्वीकृत किया जा सका था कि ब्राह्मणवाद के निरंकुश एवं सत्ताभोगी रूप से अति सर्व-साधारण जन तो क्या राजा, महाराजा, सज्जनवर्ग भी दुखित, पीड़ित हो उठा था और उससे अपना परित्राण चाह रहा था। दुखियों, दीनों को तो सहारा चाहिए, जैनधर्म ने उनको राह बताई, शरण दी। . ____ मौर्य सम्राट् संप्रति (प्रियदर्शिन्) के समय में जैनधर्म के अनुयायियों की संख्या कई करोड़ों की हो गई थी। जैन-धर्म के मानने वालों की भगवान के निर्वाण के पश्चात लगभग ढाई सौ वर्षों में इतनी बड़ी संख्या में पहुंच जाना सिद्ध करता है कि ग्रामवार, नगरवार एक-एक या सौ-सौ व्यक्ति अथवा घर जैन नहीं बने थे; वरन अधिकांशतः ग्राम के ग्राम और समूचे नगर के नगर और बाहर से आई हुई ज्ञातियों के दल के दल जैनधर्मी बने होंगे, तब ही इतने थोड़े से वर्षों में इतनी बड़ी संख्या में जैन पहुंच सके यह कार्य जैनाचार्यों के अथक परिश्रम, प्रखर तेज, संयमशील चारित्र, अद्वितीय पाण्डित्य, अद्भुत लोकोपकारदृष्टि और सत्य, अहिंसा के एकनिष्ठ पालन पर ही संभव हुआ । आज तो जैन-धर्म के मानने वाले जैनियों की संख्या कुछ लाखों में ही है और वे भी अधिकतम क्या, पूर्णतया वैश्यज्ञातीय हैं। इतर वर्ण अथवा ज्ञाति के पुरुष जैनधर्म को छोड़ कर धीरे २ पुनः अन्य धर्मावलंबी बनते रहे हैं और तब ही जैन इतनी थोड़ी संख्या में रह गये हैं। उक्त पंक्तियों से यह और सिद्ध हो जाता है कि राजवर्ग शासन सम्बन्धी कई एक झंझटों के कारण, अपनी सत्ताशील स्थिति के कारण, अपनी परिग्रहमयी वैभवपूर्ण. सुखमय अवस्था के कारण जैन श्रावक के व्रतों के पालन करने में पीछे पड गया और इसी प्रकार बाहर से आई हुई ज्ञातियाँ, सेवा करने वाला दल और कृषकवर्ग भी अपनी कई प्रकार की अवदशा के कारण असमर्थ ही रहा और फलतः ये पुनः वैदिकधर्म के जागरण पर जैनधर्म को छोड़ कर अन्यमती बनते रहे, परन्तु जैनधर्म वैश्य-समाज में न्यूनाधिक संख्या एवं मात्रा में फिर भी टिक सका और टिक रहा है यह इस बात को सिद्ध करता है कि अन्य वर्गों, ज्ञातियों की अपेक्षा वैश्यवर्ण अथवा वर्ग को जैनधर्म के पालन में Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम अपेक्षाकृत विशेष सरलता, सुविधा का अनुभव होता है। वैश्यवर्ण अथवा वर्ग में आज कई अलग २ ज्ञातियाँ हैं और फिर उन ज्ञातियों में भी जैन और वैदिक दोनों धर्मों का पालन होता है । परन्तु जो आशय निकालना था वह यह ही कि वैश्यसमाज को जैन-धर्म के पालन करने में विशेष सुविधा और सरलता पड़ती है । वैश्यसमाज में श्रीमाल, पोरवाल, श्रसवाल, अग्रवाल, बघेरवाल आदि कई ज्ञातियाँ प्रमुखतः मानी गई हैं और वे आज विद्यमान भी हैं । यहाँ पोरवाल अथवा प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखना है; अतः अब चरण सीधा उधर ही मोड़ना है । अब तक जो लिखा गया है, आप पाठक यह सोचते रहे होंगे कि जैनधर्म पर इतिहास की दृष्टि से कोई निबन्ध लिखा जा रहा है, परन्तु बात यह नहीं है । वैश्यसमाज की उत्पत्ति, विकास और आज के रूप पर जैनधर्म का अति गहरा और गम्भीर प्रभाव रहा है और है तथा वैश्य समाज का प्रमुख और बड़ा अंश जैनधर्मालुयायी है और इसका इतिहास जैनधर्म के महान् सेवकों का इतिहास है । दूसरा कारण प्रत्येक ज्ञाति किसी न किसी धर्म की पालक तो होती है और वह धर्म उसके उत्थान, पतन में भी साथ ही साथ रहता है; अतः किसी भी ज्ञाति का इतिहास उस ज्ञाति के धर्म के प्रवाह का इतिहास भी होता है । प्राग्वाट अथवा पोरवाल ज्ञाति का; जिसका इतिहास लिखा जा रहा है जैनधर्म से गहरा और घनिष्ट ही नहीं, उसके मूल से लगाकर आज तक के रूप से संबंध है और इसी लिये जैनधर्म के उपर जो कुछ लिखा गया है, उसकी पूर्ण सार्थकता अगले पृष्ठों में सिद्ध होगी । सम्मिलित होने फलतः उनकी जैनाचार्यों ने भगवान् महावीर के श्री चतुर्विध-संघ में चारों वर्णों में से भावक और विकायें व्यक्तिगत व्रत लेकर सम्मिलित हुये थे, होने वाले वंशज उनके व्रतों एवं प्रतिज्ञाओं से बन्धे हुए नहीं थे। बनाकर जैनधर्म के पालन की एक परम्परा स्थापित करने का जो प्रयास किया, स्थायी श्रावकवर्ग अथवा समाज का जन्म हुआ । श्रावकवर्ग का व्यवसाय वाणिज्य है और अतः वह वैश्य कहा जाता है। उसकी जैनधर्म के अनुकूल संस्कृति है, जिसके कारण उसके वर्ग में जैनधर्म का पालन अधिक सरलता और सुविधा से किया जा सकता है । वाले उनके भक्त और अनुयायी संतानें अथवा उनके भविष्य में जैनधर्म को श्रावक के कुल का धर्म स्वभावतः उसके फलस्वरूप ही जैनाचार्यों ने किस प्रकार और कब से इस प्रकार के श्रावकसमाज अथवा श्रावकवर्ग की स्थापना करने का प्रयास किया था, उसका विशद् परिचय प्राग्वाट श्रेष्ठिवर्ग की उत्पत्ति के लेख में मिल जायगा, अतः उसका यहाँ छेड़ना व्यर्थ नहीं, फिर भी अनावश्यक है । (वैदिक) वैश्यसमाज और (जैन) श्रावकसमाज का अन्तर तथा दोनों में समान रही हुई कई बातों का सम्बन्ध भी अगले पृष्ठों में ही अतः चर्चा जाना अधिक संगत प्रतीत होता है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वादशावकवर्ग की उत्पत्ति :: प्राग्वा श्रावकवर्ग की उत्पत्ति श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि का अर्बुदप्रदेश में बिहार और उनके द्वारा जैनधर्म का प्रचार तथा श्रीमालपुर में और पद्मावतीनगरी में श्रीमाल श्रावकवर्ग और प्राग्वाट श्रावकवर्ग की उत्पत्ति [११ जैसा पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि भगवान महावीर के पश्चात् जैनाचार्यों ने जैनधर्म का ठोस एवं दूर-दूर तक प्रचार करना प्रारम्भ किया था । श्रीमालपुर भी उन्हीं दिनों में बस रहा था । सम्भवतः अर्बुदप्रदेश में भगवान् महावीर का भी पधारना नहीं हुआ था । अर्बुदप्रदेश का पूर्वभाग इन वर्षों में अधिक श्रीमालपुर में श्रावकों की उत्पत्ति ख्यातिप्राप्त भी हो रहा था । जैनाचायों का ध्यान उधर आकर्षित हुआ । वि० सं० १३६३. में श्री कक्कमूरिविरचित उपकेशगच्छ - प्रबन्ध ( अभी वह मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी पास में हस्त लिखित अवस्था में ही है ) में लिखा है कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के पाँचों पट्टधर श्री स्वयंप्रभसूरि ने अपने शिष्यों के सहित अर्बुदप्रदेश और श्रीमालपुर की ओर महावीर निर्वाण से ५७ (५२) वर्ष पश्चात् वि० सं० ४१३-४ पूर्व और ई० सन् ४७० - १ वर्ष पूर्व विहार किया । श्रीमालपुर का श्राज नाम भिन्नमाल अथवा भिल्लमाल है । श्रीमालपुराण में इस नगरी की समृद्धता के विषय में बहुत ही अतिशयपूर्ण लिखा गया है। फिर भी इतना तो अवश्य है कि इस नगरी में श्रेष्ठ पुरुष, उत्तम श्रेणी के जन, श्रीमंत अधिक संख्या में आकर बसे थे और नगरी प्रति लम्बी चौड़ी बसी थी। तब ही श्रीमालपुर नाम पड़ सका और कलियुग में श्री अर्थात् लक्ष्मीदेवी का क्रीडास्थल अथवा विलासस्थान कहा जा सका। नगरी में बसनेवालों में अधिक संख्या में ब्राह्मणकुल और वैश्यवर्ग था । जैसा पूर्व के पृष्ठों से सिद्ध है कि श्रीमालपुर ब्रह्मशालासहस्राणि चत्वारि तद्विधा मठाः । पण्यविक्रयशालानामष्टसाहस्रिकं नृपः ॥२२॥ सभाकोदिषु सन्नद्धा द्युतिमन्मत्तवारणाः । श्रसन्माग्रसहस्रं च सभ्यानामुपवेशितुम् ।। २३ ।। साप्तभौमिकसौधानी लक्षमेकं महौजसाम् । तथा षष्टिसहस्राणि चतुःषष्ट्यधिकानि च ॥ २४ ॥ - श्रीमालपुराण (गुजराती अर्थ सहित ) ० १२ पृ० ८८ भवान् के निर्वाण के पश्चात् अहिंसाधर्म का प्रचार करना ही जेनाचाय्यों का प्रमुख उद्देश्य और कर्म रहा था और जनगणने भी उसको अति आनन्द से अपनायी थी, जिसके फलस्वरूप ही कुछ ही सौ वर्षों में कोटियों की संख्या में जैन बन गये थे। तो क्या अभिनव बसी हुई भिन्नमालनगरी और अर्वलीप्रदेश के उपजाऊ पूर्वी भाग में जहाँ, ब्राह्मण पंडितों का पाखण्डपूर्ण प्रभाव जम रहा था और नित नत्र पशुबलीयुक्त यज्ञों का आयोजन हो रहा था, वहाँ कोई जैनाचार्य नहीं पहुँचे हों - कम मानने में आता है । भारत में श्राज तक जैन, वैष्णव जितने भी शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनमें या तो हितोपदेश है, या वस्तुनिर्माता की प्रशस्ति अथवा प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य, श्रावक, राजा, राज-वंश और श्रावक - कुल, संवत्, ग्राम का नाम आदि के सहित उल्लेख है । परन्तु ऐसी घटनाओं का उल्लेख आज तक किसी भी प्राचीन से प्राचीन शिलालेख में भी देखने को प्राप्त नहीं हुआ । चरित्रों में, कथाओं में ऐसे वर्णन आते हैं. । उपकेशगच्छ-प्रबन्ध जो वि० सं० १३६३ में आचार्य कक्कसूरि द्वारा लिखी गई है उक्त घटना का उल्लेख देती है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम अथवा भिन्नमाल की स्थापना भगवान् महावीर के समय में ही हो चुकी थी, परन्तु इधर सम्भवतः नहीं तो भगवान् काही विहार हुआ और नहीं अधिकांशतः जैनाचाय्यों का, अतः इस अभिनव वसी हुई नगरी में और इस समीपवर्ती श्रवली -प्रदेश में यज्ञ, हवन और पशुबली का वैसा ही जोर था और राजसभाओं में ब्राह्मण- पण्डितों का गहरा प्रभाव और आतंक था । श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि कठिन विहार करके अपने शिष्य एवं साधु-समुदाय के सहित भिन्नमाल नगरी में पहुंचे । उस समय नगरी की सुख-समृद्धता के लिये राजा जयसेन की राजसभा में भारी यज्ञ के किये जाने का आयोजन किया जा रहा था - ऐसी कथा प्रचलित है । कुछ भी हो सूरिजी ने उस समय राजा को प्रतिबोध दिया और उसने तथा वहाँ बसने वाले नेऊ सहस्र ( ६००००) स्त्री-पुरुषों ने कुलमर्यादा रूप में जैनधर्म अंगीकृत किया । श्रीमालपुर उन दिनों में बहुत ही बड़ा और अत्यन्त समृद्ध नगर था । यह अवंती और राजगृही की स्पर्धा करता था । आज दिल्ली और प्रभासपत्तन, सिंधुनदी तथा सोन नदी तक फैला हुआ जितना भूभाग है, उन दिनों में रहे हुये भारतवर्ष के इस भाग में श्रीमालपुर ही सब से बड़ा नगर था । इस नगर में अधिकांशतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बसते थे और वे भी उच्चकोटि के । नगर की रचना श्रीमाल - माहात्म्य में इस प्रकार वर्णित की गई है कि उत्कट धनपति अर्थात् कोटीश जिनको धनोत्कटा कहा गया है, श्रीमालपुर की दक्षिण दिशा में बसते थे और इनसे कमधनी (श्रीमंत) उत्तर और पश्चिम दिशा में बसते थे और वे श्रीमाली कहे गये हैं । स्वयं लक्ष्मीदेवी का क्रीडास्थल ही हो, श्रीमालपुर का ऐसा जो समृद्ध और वनराजि से सुशोभित पूर्व भाग था, जो श्रीमालपुर का पूर्वबाट कहा गया है उसमें बसने वाले प्राग्वाट कहे गये हैं । आचार्य स्वयंप्रभसूरि के कर-कमलों से जिन ६०००० (नेऊ सहस्र ) स्त्री-पुरुषों ने जैनधर्म अंगीकृत किया था, वे जो धनोत्कटा थे धनोत्कटा श्रावक कहलाये, जो उनसे कम श्रीमंत थे वे श्रीमालीश्रावक कहलाये और जो पूर्ववाट में रहते थे, वे प्राग्वाटश्रावक कहलाये । इनकी परम्परा में हुईं इनकी सन्तानें भी श्रीमाली, धनोत्कटा और वाट कहलाई । श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत श्री महावीरचरित्र की वि० सं० १२३६ में लिखित पुस्तिका की प्रशस्ति में एक श्लोक में कहा गया है कि प्राचीवाट में अर्थात् पूर्वदिशा में लक्ष्मीदेवी के द्वारा क्रीडास्थल बनवाया गया, जिसका नाम प्राग्वाट रक्खा । उस 'प्राग्वाट ' नाम के क्रीड़ास्थल का जो प्रथम पुरुष अध्यक्ष निर्मित किया गया, वह अध्यक्ष प्राग्वाट नाम की उपाधि से विश्रुत हुआ । उस प्राग्वाट - अध्यक्ष की सन्तानें, जो श्रीमन्त रही हैं, ऐसा यह प्राग्वाट - अध्यक्ष का वंश 'प्राग्वाट वंश' के नाम से जग में विश्रुत हुआ । प्राग्वाट वंश प्राच्या वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय, तथाम्नैव प्रथम पुरुषो निर्मितोऽध्यक्ष हेतोः । तत्संतानप्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोऽयं, प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥ दशोनलक्षमेकं हि श्रीमाले वणिजोऽभवन् । यस्य प्रतिगृहे प्राग्वाटा दिशि पूर्वस्था, दक्षिणस्यां धनोत्कटाः । श्रीमालिनः — श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत महावीरचरित्र की प्रशस्ति योऽभूत्, तद्गोत्रं सोन्वपद्यत ॥२४॥ प्रतीच्या वै उत्तरस्य । तथाविशन् ||२५|| श्री० म० अ० १३ पृ० ६२-६३. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति :: [ १३ मेरे अनुमान से उक्त भाव का यह तात्पर्य निकाला जा सकता है कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि के द्वारा प्रतिबोध पाये हुये जनसमूह में से श्रीमालपुर के समृद्ध पूर्ववाट में बसने वाले श्रावकों का समूह प्राग्वाट-पद से अलंकृत्त अथवा सुशोभित किसी श्रावक की अधिनायकता में संगठित हुआ और वे सर्व प्राग्वाट-श्रावक कहलाये। आगे भी श्रीमालप्रदेश और इसके समीपवर्ती अर्बुदाचल के पूर्ववाट में जिसने, जिन्होंने जहाँ २ जैनधर्म स्वीकार करके उक्त पुरुष के नेतृत्व को स्वीकृत किया अथवा उसकी परम्परा में सम्मिलित हुये वे भी प्राग्वाट कहलाये । ___विहार करते हुये सुरिजी पद्मावतीनगरी में राजा की राजसभा में भारी यज्ञ का आयोजन श्रवण करके अपनी मण्डली सहित पहुंचे और वहाँ पचतालीश हजार अजैन क्षत्रिय एवं ब्राह्मण कुलों को प्रतिबोध देकर जैनपद्मावती में जैन बनाना श्रावक बनाये और यज्ञ के आयोजन को बन्ध करवाया । पद्मावती के राजा ने भी "" जैनधर्म अंगीकृत किया था। . प्राबाट-श्रावकवर्ग की उत्पत्ति का चक्रवर्ती पुरुखा और पंजाबपति पौरुष से कोई सम्बन्ध नहीं है। चक्रवत्ती पुरुखा महाभारत के कुरुक्षेत्र में हुये रण से भी पूर्व हो गया है और पंजाबपति पौरुष स्वयंप्रभसूरि के निर्वाण से लगभग १०० वर्ष पश्चात् हुआ है। श्रीमाल-महात्म्य (पुराण) में श्रीमालपुर में १०००० दस हजार योद्धाओं की पूर्व दिशा से आकर उसके पूर्व भाग में बसने की और फिर उनके प्राग्वाट-श्रावक कहलाने की बात जो लिखी गई है भ्रमात्मक प्रतीत होती है। साधनों के अभाव में अधिक कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। . १-श्री उपकेशगच्छ-प्रबन्ध (हस्तलिखित)। (कर्ता-आचार्य श्रीककसरि विक्रम संवत् १३६३) केशिनामा तद्विनयो, यः प्रदेशी नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्माज्जैनधर्मेऽध्यरोपयत् ॥१६॥ तच्छिश्याः समजायंत, श्री स्वयंप्रभसूरयः। विहरंतःक्रमणेयुः, श्री श्रीमाले कदापि ते ॥१७॥ तत्र यज्ञे यज्ञियाना, जीवाना हिंसकं नृपम् । प्रत्येषेधीत्तदा सरिः, सर्वजीवदयारतः॥१८॥ नवायुतगृहस्थान्नृन्, सार्ध क्षमापतिना तदा। जैनतत्त्वं संप्रदर्श्य, जैनधर्मेऽन्ववेशयत् ॥१॥ पद्मावत्या नगर्याञ्च, यज्ञस्यायोजनं श्रुतम् । प्रत्यरौत्सीत्तदा सरि, गत्वा तत्र महामतिः॥२०॥ राजाना गृहणञ्चैव, चत्वारिंशत् सहस्रकान् । बाण सहस्रसंख्याब्च, चक्रेऽहिंसावतानरान् ॥२१॥ उक्त प्रति श्रीमद् ज्ञानसुन्दरजी (देवगुप्तसरि) महाराज के पास में है। मैं उनसे ता० २५-६-५२ की जोधपुर में मिला था और उक्ताश उस पर से उद्धत किया था। २-पद्मावती:(अ) इण्डियन एण्टिक्वेरी प्र० खण्ड के पृ०१४६ पर खजुराहा के ई० सन् १००१ के एक लेख में इस नगरी की समृद्धता के विषय में अत्यन्त ही शोभायुक्त वाक्यों में लिखा गया है। (ब) दिगम्बर जैन-लेखों से प्रतीत होता है कि पद्मावती अथवा पद्मनगर दक्षिण के विजयनगर राज्य में एक समृद्ध नगर था। परन्तु यहाँ वह पद्मावती असंगत है। (स) मालवराज्य में झांसी-आगरा लाईन पर दबरा स्टेशन से कुछ अन्तर पर 'पदमपवाँया' एक ग्राम है। मुनि जिनविजयजी आदि का कहना है कि प्राचीन पद्मावती यही थी और यह नाम उसका बिगड़ा हुआ रूप है। उज्जयंती के प्राचीन राजाओं में राजा यशोधर का स्थान भी अति उच्च है। उसकी एक प्रशस्ति में उसको अनेक विशेषणों से अलंकृत किया गया है । 'पद्मावतीपुरपरमेश्वरः कनकगिरिनाथः' भी अनुकम से उसके विशेषण हैं । मरुप्रान्त के जालोर (जाबालीपुर) नगर का पर्वत जो आज भूगोल में सोनगिरि नाम से परिचित है, उसके सुवर्णगिरि और कनकगिरि भी नाम प्राचीन समय में रहे हैं के प्रमाण मिलते हैं । 'पद्मावतीपुरपरमेश्वरः कनकगिरिनाथः' के अनुक्रम पर विचार करने पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि उक्त पद्मावती नगरी जालोर के समीपवर्ती प्रदेश में ही रही होगी। मेरे अनुमान से पद्मावती पर्वलीपर्वत के उपजाऊ पूर्वी भाग में निवसित थी। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४) प्राग्वाट-इतिहास::.. [प्रथम जैनाचार्यों ने श्रावकों के लिये केवल वाणिज्य करना ही कम पापवाला कार्य बतलाया है और वह भी केवल शुष्क पदार्थ, वस्तुओं का । वर्णव्यवस्था के अनुसार वैश्यवर्ग के व्यक्तियों का कृषि करना, गौपालन करना और वाणिज्य करना कर्तव्य निश्चित किया था, वहाँ जैनसिद्धान्तों के अनुसार जैनवैश्य जनवश्य और उनका काय (श्रावक) का प्रधानतः वाणिज्य करना ही कर्तव्य निश्चित किया गया है, क्योंकि जैनधर्म अधिक पापवाले कार्य का और परिग्रह का खण्डन करता है और ऐसे प्रत्येक कार्य से बचने का निषेध करता है जो अधिक पाप और परिग्रह बढ़ाता है। जैनधर्म में पाप और परिग्रह को ही दुःख का मूल कारण माना है। यही कषायादि दुर्गुणों की उत्पत्ति के कारण हैं और यहीं मनुष्य की श्रेष्ठता, गुणवती बुद्धि और प्रतिभा दब जाती है। भिन्नमाल और पद्मावती में आज से २४७८-७६ वर्ष पूर्व अर्थात् वीरनिर्वाण से ५७ वर्ष पश्चात् जैन बने हुये श्रावकों से ही जैन श्रेष्ठिज्ञातियों का इतिहास प्रारम्भ होता है । क्यों कि यहीं से श्रावकों का शुष्क वस्तुओं एवं पदार्थों का व्यापार करना प्रमुखतः प्रारम्भ होता है, जो उनमें और वेदमतानुयायी वैश्य में अन्तर कर देता है । इस प्रकार अब से पश्चात् जो भी जैनश्रावक बने, उनका वैदिक वैश्यवर्ग से अलग ही जैनश्रावक ( वैश्य ) वर्ग बनता गया । भगवान् महावीर ने चतुर्विधसंघ की स्थापना करके चारों वर्षों के सद्गृहस्थ स्त्री और पुरुषों को श्राविका और श्रावक बनाये थे । ये श्रावक श्राविकायें अपने तक ही अर्थात् व्यक्तिगत सदस्यता तक ही सीमित थे। इनके वंशज उनकी प्रतिज्ञाओं और व्रतों में नहीं बंधे हुये थे । परन्तु स्वयंप्रभसूरि ने प्रमुखतः ब्राह्मण, क्षत्रियवर्णो के उत्तम संस्कारी कुलों को कुलगतपरम्परा के आधार पर जैन बनाया अर्थात जैनधर्म को उनका कुलधर्म बन तथा उनका भिन्न २ नाम से जैनवर्ग स्थापित किया और जैन कुलों का व्यापार, धंधा जैनसिद्धान्तों के अनुसार बत किया, जिससे जैनधर्म का पालन उनके कुलों में उनके पीछे आनेवाली संतानें परम्परा की दृष्टि से करती रहें और विचलित नहीं होवें। आगे जा कर एक स्थान के रहने वाले, एक साथ जैनधर्म स्वीकार करने वाले, पूर्व से एक कुल अथवा परंपरावाले कुलों का एक वर्ग ही बन गया और प्रांत, नगर अथवा प्रमुख पुरुष के नामों के पीछे उस वर्ग का अमुक नाम पड़ गया। उस वर्ग में पीछे से किसी समय और अमुक वर्षों के पश्चात् अगर कोई भी कुल अथवा समुदाय सम्मिलित हुआ, वह भी उसी नाम से प्रसिद्ध हुआ । भारत में जैसे अयोध्या, द्वारिका पौराणिककाल में अति प्रसिद्ध नगरिया रही हैं । ऐतिहासिककाल में अर्थात् विक्रम संवत् से पूर्व पांचवीं, छठी शताब्दी के पश्चात् राजगृही, धारा, अवंती, अथवा उज्जैन तांबावती, पद्मावती आदि श्रति समृद्ध और गौरवशालिनी नगरिया रही हैं। जिनको लेकर अनेक मनोरंजक एवं हितोपदेशक सच्ची, झूठी कहानिया-आज भी कही जाती हैं। यह तो निश्चित है किं पद्मावती नामक नगरी अवश्य रही है। मेरे अनुमान से तो वह अभिविश्रत प्राग्वाट-प्रदेश की पाटनगरी थी और अदाचल के मैदान में उससे थोड़ी दूरी पर अथवा उसकी ही तलहटी में बसी हुई थी, जो भिन्नमाल से कोई सौ-पचहत्तर मील के अन्तर पर ही ही होगी। यह और वे सब अनुमान ही अनुमान है। पद्मावती नगरी कहाँ थी?-यह शोध एक गंभीर विषय है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ":: प्राग्वाट-प्रदेश : १५ प्राग्वाट-प्रदेश वर्तमान सिरोही राज्य, पालनपुर-राज्य का उत्तर-पश्चिम भाग, गौड़वाड़ (गिरिवाड़-प्रान्त) तथा मेदपाटप्रदेश का कुम्भलगढ़ और पुर-मण्डल तक का भाग कभी प्राग्वाट-प्रदेश के नाम से रहा है। यह प्रदेश प्राग्वाट क्वों कहलाया-इस प्रश्न पर आज तक विचार ही नहीं किया गया और अगर किसी ने विचार किया भी तो वह अब तक प्रकाश में नहीं आया। ___ उक्त प्राग्वाट प्रदेश अर्बुदाचल का ठीक पूर्व भाग अर्थात् पूर्ववाट समझना चाहिए। यह भाग आज भी राजस्थान में उपजाऊ और अपेक्षाकृत घना बसा हुआ ही है । जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि सिंध-सौवीर की राजधानी वीतभयपत्तन का जब प्रकृति के भयंकर प्रकोप से ई० सन् पूर्व ५३४-३५ में विध्वंश हुआ था, वर्तमान् थरपार का प्रदेश, जिसमें आज सम्पूर्ण जैसलमेर का राज्य और जोधपुर, बीकानेर के राज्यों के रेगिस्तान-खण आते हैं, उस समय संभूत हुआ था । उस दुर्घटना से बचकर कई कुल थरपारकरप्रदेश को पार कर के अलीपर्वत की ओर बढ़े और वे भिन्नमाल नगरी को बसा कर वहाँ बस गये तथा भिन्नमाल के आस-पास के प्रवलीपर्वत के उपजाऊ पूर्ववाट में भी बसे । ओसियानगरी की स्थापना भी इन्हीं वर्षों में कुछ समय पश्चात् ही हुई थी। ___ शकसम्राट् डेरियस के पश्चात् ई० सन् पूर्व पाँचवीं शताब्दी में शकदेश में भारी राज्यक्रान्ति हुई और शफ लोगों का एक बहुत बड़ा दल शकदेश का त्याग करके भारत में प्रविष्ट हुआ। सिंध-सौवीर का कुछ भाग तो वैसे शक-सम्राट् डेरियस ने पहिले ही जीत लिया था और भारत में शकलोगों का आवागमन चालू ही था तथा सिंघ-सौरवीपति राजर्षि जैन-सम्राट् उदयन और उसके भाणेज नृपति केशिकुमार के पश्चात् सिंध-सौवीर का राम्प भी छिन्न-भिन्न और निर्बल हो गया था। ऐसा कोई नृपति भी नहीं था, जो बाहर से आने वाली आक्रमणकारी अथवा भारत में बसने की भावना रखने वाली ज्ञाति अथवा दल का सामना करता। फल यह हुआ कि इस बहुत बड़े शकदल का कुछ भाग तो सीमा प्रदेश में ही बस गया और कुछ भाग अबली-प्रदेश की समृद्धता और उपजाऊपन को श्रवण करके आगे बढ़ा और भिन्नमाल (श्रीमालपुर) अवलीपर्वत के समृद्ध एवं उपबाऊ पूर्ववाट में बसा । मुझको ऐसा लगता है कि उक्त कारणों से अवलीपर्वत का यह उपजाऊ पूर्वभाग अधिक ख्याति में भाषा बौर लोग इसको पूर्ववाड़ अथवा पूर्ववाट प्रदेश के नाम से ही पुकारने लगे और समझने लगे। अथवा जैसे शकस्तान के शक भारत में आकर बसने वाले शकपरिवारों को हिन्दी शक कहने समे थे, उस ही प्रकार भारत की सीमा पर बसा हुआ शक लोगों का भाग अपने से पूर्व में नवसंभूत थरपारकर-प्रदेश के पार, बसे हुये अपने शक लोग के निवासस्थान को पूर्ववाद या पूर्ववाट कहने लगे हो। ___ भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ५७ (५२) वर्ष पश्चात् श्रीपार्श्वनाथ-सन्तानीय (उपकेशमच्छीय) प्राचार्य श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि ने अपने बहुत बड़े शिष्यदल के साथ में इस अवलीपर्वत के उक्त पूर्वमाम अथवा पूर्वबाट की ओर विहार किया था। जैसा प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति के प्रकरण में लिखा गया है, उन्होंने Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास :: [प्रथम श्रीमालपुर में ६०००० (नेऊ सहस्र) उच्चवर्णीय स्त्री-पुरुषों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर जैन बनाया था । तत्पश्चात् श्रीमालपुरनगरी से विहार करके वे पुनः पूर्ववाट-प्रदेश में विहार करते हुये इस प्रदेश के राजपाटनगर पद्मावती में पधारे और वहाँ के राजा पद्मसेन ने गुरुश्री के प्रतिबोध पर ४५००० (पैंतालीस सहस्र) पुरुष-स्त्रियों के साथ में जैनधर्म अंगीकृत किया था। ... श्रीमालपुर के पूर्ववाट में बसने के कारण जैसे वहाँ के जैन बनने वाले कुल अपने वाट के अध्यक्ष का जो प्राग्वाट-पद से विश्रत था नैतृत्व स्वीकार करके उसके प्राग्वाट-पद के नाम के पीछे सर्व प्राग्वाट कहलाये, उसी दृष्टि से प्राचार्य श्री ने भी पद्मावती में, जो अलीपर्वत के पूर्ववाटप्रदेश की पाटनगरी थी जैन बनने वाले कुलों को भी प्राग्वाट नाम ही दिया हो । वैसे अर्थ में भी अन्तर नहीं पड़ता है । पूर्ववाड़ का संस्कृत रूप पूर्ववाट है और पूर्ववाट का 'प्राच्या वाटो इति प्राग्वाट' पर्यायवाची शब्द ही तो है । पद्मावतीनरेश की अधीश्वरता के कारण तथा पद्मावती में जैन बने बृहद् प्राग्वाटश्रावकवर्ग की प्रभावशीलता के कारण तथा अक्षुण्ण वृद्धिंगत प्राग्वाट-परंपरा के कारण यह प्रदेश ही पूर्ववाट से प्राग्वाट नाम वाला धीरे २ हुआ हो। उपरोक्त अनुमानों से ऐसा तो आशय ग्रहण करना ही पड़ेगा और ऐसे समुचित भी लगता है कि अलीपर्वत का पूर्वभाग, जिसको मैंने पूर्ववाट करके लिखा है, उन वर्षों में अधिक प्रसिद्धि में आया और तब अवश्य उसका कोई नाम भी दिया गया होगा। प्राग्वाट श्रावकवर्ग के पीछे उक्त प्रदेश प्राग्वाट कहलाया हो अथवा यह अगर नहीं भी माना जाय तो भी इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति ___'प्राग्वाट' शब्द की उत्पत्ति पर और 'प्राग्वाट' नाम का कोई प्रदेश था भी अथवा नहीं के प्रश्न पर इतिहासकार एकमत १-श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा का मत: आप मेरे छः प्रश्नों का ता०१०-१-१९४७ स्थान रोहीड़ा (सिरोहीराज्य) से एक पोस्टकार्ड में उत्तर देते हुये 'प्राग्वाट' शब्द पर लिखते हैं, (१) प्राग्वाट शब्द की उत्पत्ति मेवाड़ के 'पुर' शब्द से है। 'पुर' शब्द से पुरवाड़ और पौरवाड़ शब्दों की उत्पत्ति हुई है। 'पुर' शब्द मेवाड़ के पुर जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिए 'प्राग्वाट' शब्द भी लिखा मिलता है। ... २-श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर:- . . श्राप से ता०२६-६-१६५२ को बीकानेर में ही मिला था । प्राग्वाट-इतिहास सम्बन्धी कई प्रश्नों पर अापसे गम्भीर चर्चा हुई। आपने वर्तमान गौड़वाड़, सिरोहीराज्य के भाग का नाम कभी प्राग्वाटप्रदेश रहा था, ऐसा अपना मत प्रकट किया। ३-मुनि श्री जिनविजयजी, स्टे. चंदेरिया (मेवाड़) डब्ल्यु० आर०: __ आप से मैं ता०७७-५२ को चंदेरिया स्टेशन पर बने हुये आपके सर्वोदय आश्रम में मिला था। प्राग्वाट-इतिहास सम्बन्धी लम्बी चर्चा में आपने अर्बुदपर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक के लम्बे प्रान्त का नाम पहिले प्राग्वाटप्रदेश था, ऐसा अपना मत प्रकट किया। - उक्त तीनों व्यक्ति पुरातत्व एवं इतिहासविषयों के प्रकांड और अनुभवशील प्रसिद्ध अधिकारी हैं। ४-वि० सं० १२३६ में श्री नेमिचन्द्रसरिकृत महावीर-चरित्र की प्रशस्ति: 'प्राच्या' वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय । तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मितोध्यक्षहेतोः। . .. तत्संतान प्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोयं । प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥.. इस प्राचीन प्रशस्ति के सामने श्री ओझाजी का निर्णय संशोधनीय है और मुनिजी एवं नाहदाजी के मत मान्य हैं। निश्चित शब्दों में वैसे प्राग्वाटप्रदेश कौन था और कितना भू-भाग, कब था और यह नाम क्यों पड़ा-पर लिखना कठिन है। अतः निश्चित प्रमाणों के अभाव में संगन अनुमानों पर ही लिखना शक्य है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: शत्रुञ्जयोद्धारक परमाईत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह :: [ १७ और मूलनिवास के कारणों का तथा धीरे-धीरे सर्वत्र इस भाग में विस्तारित होती हुई उसकी परंपरा की प्रभावशीलता एवं प्रमुखता का इस देश का नाम प्राग्वाट पड़ने पर अत्यधिक प्रभाव रहा है। आज भी प्राग्वाटज्ञाति अधिकांशतः इस भाग में वसती है और गूर्जर, सौराष्ट्र और मालवा, संयुक्तप्रदेश में जो इसकी शाखायें नामों में थोड़े-कुछ अन्तर से वसती हैं, वे इसी भूभाग से गयी हुई हैं ऐसा वे भी मानती हैं। शत्रुञ्जयोद्धारक परमाहत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह वि० सं० १०८ सौराष्ट्र में विक्रम की प्रथम शताब्दी में कांपिल्यपुर नामक नगर अति समृद्ध एवं व्यापारिक क्षेत्र था। वहाँ अनेक धनी, मानी, श्रेष्ठिजन रहते थे। प्राग्वाटज्ञातीय भावड़ श्रेष्ठि भी इन श्रीमन्तजनों में एक अग्रणी थे। श्रेष्ठि भावड और उसकी दैववशात् उनको दारिद्रय ने आ घेरा । दारिद्रय यह तक बढ़ा कि खाने, पीने तक को पति-परायणा स्त्री तथा पूरा नहीं मिलने लगा। भावड़शाह की स्त्री सौभाग्यवती भावला अति ही गुणगर्भा, उनकी निर्धनता देवीस्वरूपा और संकट में धैर्य और दृढ़ता रखने वाली गृहिणी थी । भावड़शाह और सौभाग्यवती भावला दोनों बड़े ही धर्मात्मा जीव थे। नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठते और ईश्वर-भजन, सामायिक, प्रतिक्रमण करते थे। तत्पश्चात् सौभाग्यवती भावला गृहकर्म में लग जाती और भावड़शाह विक्री की सामग्री लेकर कांपिल्यपुर की गलियों और आस-पास के निकटस्थ ग्रामों में चले जाते और बहुत दिन चढ़े, कभी २ मध्याह्न में लौटते । सौभाग्यवती भावला तब भोजन बनाती और दोनों प्रेमपूर्वक खाते । कभी एक बार खाने को मिलता और कभी दो बार । एक समय था, जब भावड़शाह सर्व प्रकार से अति समृद्ध थे, अनेक दास-दासी इनकी सेवा में रहते थे, अनेक जगह इनकी दुकानें थीं और अपार वैभव था । अब भावड़शाह ग्राम २ चक्कर काटते थे, दर-दर . जावड़शाह का इतिहास अधिकतर श्री धनेश्वरसरिविरचित श्री शत्र'जय-महात्म्य (जिसका रचना-समय वि० सं०४७७ संभावित माना जाता है) के गुजराती भाषान्तर, श्री जैनधर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर की ओर से वि० सं०१६६१ में प्रकाशित पर से लिखा गया है। श्री रत्नशेखरसरिरचित श्री श्राद्ध-विधि प्रकरण में भी जावड़शाह का इतिहास ग्रंथित है। वह भी प्रतीत होता है उक्त श्री. शत्रजय-महात्म्य पर ही विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखा गया है। श्री नाभिनन्दन-जिनोद्धार-प्रबन्ध में जिसके कर्ता श्री ककसरि हैं, जिन्होंने उसको वि० स०१३६३ में लिखा है जावड़शाह को 'प्राग्वाटकुलभिव' लिखा है तथा जावड़ को जावड़ी और जावड़ के पिता भावड़ के स्थान पर जावड़ लिखा है । यह अन्तर क्यों कर घटा-समझ में नहीं आता है। (पिता) भावड़ की जगह जावड़ मुद्रित हो गया प्रतीत होता है। (पुत्र) जावड़ के स्थान पर जावड़ी लिखा है। यह अन्तर तो फिर भी अधिक नहीं खटकता है। 'भवित्री भावला नामा, तत्पत्नी तीवशीलभा । धर्माश्रिता क्षातिरिव, रेजे या भावड़ानुगा ॥५॥ -श.म. पृ०८०८ से८२४ १-वि० सं०१३१३ में श्री कमरिविरचित ना० नं० जि० प्र० पृ०१११ से ११६, श्लोक १०३ से १६२ २-वि० पहन्द्रवीं शताब्दी में श्री रत्नशेखरसूरिविरचित श्रा०वि०प्र० पृ० २२६ से २३७ (कर्ज पर भावड़शाह का दृष्टान्त) ३-वि० स० ४७७ में श्री धनेश्वरसरिविरचित-संस्कृतपद्यात्मक श्री श० म० के गुजराती भाषान्तर पर पृ० ५०१ से ५१० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [प्रथम घूमते थे, फिर भी पेट भरने जितना भी नहीं कमा पाते थे। परन्तु दोनों स्त्री-पुरुष अति संस्कारी और गुणी थे। संसार में आनेवाले सुख, दुःखों से पूर्व ही परिचित थे, अतः दारिद्रय उनको अधिक नहीं खलता था; परन्तु अपने घर आये अतिथि का उचित सत्कार करने योग्य भी वे नहीं रह गये थे-यह ही उनको अधिक खलता था । ____एक दिन दो जैनमुनि उनके घर आहार लेने के लिये आये । भावड़शाह और उनकी धर्ममुखा पत्नी सौभाग्यवती भावला ने अति ही भाव-भक्तिपूर्वक मुनियों को आहार-दान दिया। मुनि इनकी भाव-भक्ति देखकर सानोमा अति ही प्रसन्न हुए। उनमें से बड़े मुनि बोले,–'श्रेष्ठि ! अब तुम्हारे दःख और और उनकी आशीर्वादयुक्त दारिद्रय के दिन गये । समय आये वैसी ही पूर्व जैसी धन-समृद्धि और पुत्ररत्न की भविष्यवाणी प्राप्ति होगी। कुछ दिनों पश्चात् बाजार में एक लक्षणवंती घोड़ी बिकने को आवेगी, उसको खरीद लेना । उस घोड़ी के घर में आते ही धन-धान्य की वृद्धि दिन-दूनी और रात-चौगुणी होने लगेगी।' इतना कह कर मुनिराज चले गये। दोनों स्त्री-पुरुष मुनिराज की भविष्यवाणी सुनकर अति ही प्रसन्न हुये और लक्षणवंती घोड़ी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही दिनों पथात् एक अश्व-व्यापारी एक लक्षणवंती घोड़ी लेकर कांपिल्यपुर के बाजार में बेचने को आया। थोड़ी का मूल्य सौ स्वर्ण-मुद्रायें सुनकर उसको कोई नहीं खरीद रहा था। भावड़शाह को ज्योंही घोड़ी नीम के आगमन की सूचना मिली, वे तुरन्त वहाँ पहुंचे और सौ स्वर्ण-मुद्रायें देकर घोड़ी दना और उससे बहुमूल्य को खरीद लिया । एकत्रित लोग भावड़शाह के साहस को देखकर दंग रह गये । वत्स की प्राप्ति तथा कापि- भावड़शाह घोड़ी को लेकर प्रसन्नचित्त घर आये और उसका पूजन किया और घर में ल्यपुर-नरेश को उसे बेचना अच्छे स्थान पर उसको बाँधा। दोनों स्त्री-पुरुष घोड़ी की अति सेवा-सुश्रुषा करते और उसे तनिक भी भूख-प्यास का कष्ट नहीं होने देते । घोड़ी गर्भवती थी । समय पूर्ण होने पर उसने एक अश्वरत्न को जन्म दिया । घोड़ी जिस दिन से भावड़शाह के घर में आई थी, भावड़शाह का व्यापार खूब चलने लगा और अत्यधिक लाभ होने लगा। फिर अश्वरत्न के जन्म-दिवस से तो भावड़शाह को हर व्यापार और कार्य में लाभ ही लाभ होने लगा और थोड़े ही समय में पूर्व-से श्रीमंत एवं वैभवपति हो गये । नवकर (नौकर), चारकर (चाकर), दास-दासियों, मुनिमों का ठाट लग गया। अश्वरन जब तीन वर्षे का हुआ तो उसको कांपिल्यपुरनरेश तपनराज ने तीन लक्ष स्वर्ण-मुद्राओं में खरीद लिया और भावड़शाह का अति सम्मान किया तथा अनेक रहने, करने सम्बन्धी अनुकूलतायें प्रदान की। ___ भावड़शाह के पास अब अपार धन हो गया था । उसने घोड़ों का व्यवसाय खूब जोरों से प्रारंभ किया । एक ही ज्ञाति की लक्षणवंती घोड़ियाँ खरीदीं। एक ज्ञाति के लक्षणवान् अश्वकिशोरों की संख्या बढ़ाने का भावड़शाह का सतत् प्रयत्न रहा । कुछ ही वर्षों में भावड़शाह के पास एक ज्ञाति के अनेक अश्व लक्षणवान घोड़ों का व्यापार और एक जाति के अनेक घोडों को अश्वकिशोरों की अच्छी संख्या हो गई । खरीददार कोई न मिल रहा था, भावड़शाह को सार्वभौम सम्राट विक्रमा- यह चिंता होने लगी। उस समय अवंती में पराक्रमी विक्रमादित्य राज्य कर रहा था । दित्य को भेंट करना और भावड़शाह ने विचार किया कि इन सर्व एक ही ज्ञाति के और अधिक मूल्य के मधुमतमामार का भात घोडों को एक साथ खरीदने वाला, अतिरिक्त सम्राट विक्रमादित्य के और कोई नहीं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: शत्रुञ्जयोद्धारक परमाहत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह :: [ १६ दिखाई देता। उसकी स्त्री सौभाग्यवती भावला ने भी भावड़शाह को सम्राट विक्रम के पास घोड़ों को ले जाने की सम्मति दी। वैसे घोड़ों के अलग २ व्यापारी आते थे, लेकिन भावड़शाह और उसकी स्त्री दोनों ने उन सर्व को पुत्रों की तरह बड़े लाड़-प्यार से पाल-पोश कर बड़े किये थे, अतः वे उनको अलग २ बेचकर एक-दूसरे से अलगअलग करना नहीं चाहते थे । वे एक ऐसे व्यापारी की प्रतीक्षा में थे, जो उन सर्व को एक साथ खरीदने की शक्ति रखता हो और उसके यहाँ उनको लालन-पालन सम्बन्धी किसी प्रकार का किञ्चित् भी कष्ट नहीं हो। शुभ मुहूर्त देखकर भावड़शाह उन सर्व अश्व-किशोरों को लेकर अवंती की ओर चले। अवंती पहुँच कर सम्राट विक्रमादित्य की राज-सभा में अपने आने और अपने मनोरथ की सूचना दी। सम्राट ने अपने विश्वासपात्र पुरुषों द्वारा भावड़शाह का परिचय प्राप्त किया। वह अश्व-किशोरों के रूप, लावण्य और गुणों की अत्यधिक प्रशंसा सुनकर भावड़शाह से मिलने को अति ही आतुर हुआ और तुरन्त राज्यसभा में भावड़शाह को बुलवाया। सम्राट का निमन्त्रण पाकर भावड़शाह राज्य सभा में उपस्थित हुए। वे विधिपूर्वक सम्राट को नमन करके हाथ जोड़कर बोले, 'सम्राट् ! मैं आपको भेंट करने के लिए एक ज्ञाति और एक ही रूप, वय के अनेक अश्व-किशोर जो सर्व लक्षणवान् हैं, युद्ध में विजय दिलाने वाले हैं, आपको भेंट करने लाया हूँ, आशा है आप मेरी भेंट स्वीकार करेंगे।' सम्राट् यह सुनकर अचरज करने लगे कि लाखों की कीमत के घोड़े यह श्रेष्ठि भेंट कर रहा है, परन्तु मैं सम्राट होकर ऐसी अमूल्य भेंट बिना मूल्य चुकाये कैसे स्वीकार कर लूँ ? सम्राट ने भावड़शाह से कहा कि मैं भेट तो स्वीकार नहीं कर सकता, उन अश्व-किशोरों को खरीद सकता हूँ। भावड़शाह बोले-'सम्राट् ! मैं उनको आपको भेंट कर चुका, भेंट की हुई वस्तु का मूल्य नहीं लिया जाता। आप मुझको विवश नहीं करें और अब मैं उन अश्व-किशोरों को अपने घर भी पुनः लौटा कर नहीं ले जा सकता। मैंने उनको आपश्री को भेंट करने के लिये ही पाल-पोश कर बड़ा किया है । वे सम्राट के अश्व-स्थल में शोभा पाने योग्य हैं । वे आपकी सवारी के योग्य हैं । आप उन पर विराज कर जब युद्ध करेंगे, अवश्य विजय प्राप्त करके ही लौटेंगे, क्योंकि वे सर्व लक्षणवान् हैं, वे अपने स्वामी का यश, कीर्ति और गौरव बढ़ाने वाले हैं। लक्षणवान् अश्व पर आरूढ़ होकर मंद भाग्यशाली भी सुख और विजय प्राप्त करता है तो आप तो भारत के सम्राट हैं, महापराक्रमी हैं, अति सौभाग्यशाली हैं। आप से वे सुशोभित होंगे और आप उन पर आरूढ़ होकर अति ही शोभा को प्राप्त होंगे।' सम्राट ने भावड़शाह का दृढ़ निश्चय देखकर अश्व-किशोरों को भेंट रूप में स्वीकार कर लिया और भावड़शाह का अत्यधिक सम्मान किया तथा कुछ दिनों अवंती में राज्य-अतिथि के रूप में रहने का आग्रह किया। भावड़शाह ने अपने प्राणों से प्यारे अश्व-किशोरों को सम्राट विक्रम द्वारा भेंट में स्वीकार कर लेने पर सुख की श्वास ली और राज्य-अतिथि के रूप में अवती में ठहरे। ___ जब बहुत दिवस व्यतीत हो गये, तब एक दिन सम्राट से भावड़शाह ने अपने घर जाने की इच्छा प्रकट की। सम्राट ने अनुमति प्रदान कर दी। दिन को सम्राट ने भावड़शाह की विदाई के सम्मान में भारी राज्य-सभा बुलाई और भावड़शाह की सराहना करते हुये सर्व मण्डलेश्वरों, सामन्तों, भूमिपतियों, महामात्य, अमात्यों तथा राज्य के प्रतिष्ठित कर्मचारियों, श्रीमन्तों, सम्मानित व्यक्तियों के समक्ष भावड़शाह को पश्चिमी समुद्रतट पर आये उ० त० पृ० २७० पर '४ ग्रामसंयुक्तमधुमतीनगरीराज्यं लब्धम् ।' लिखा है। परन्तु, बारहग्रामसंयुक्तमधुमती का प्रगणा मिलने की बात अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ प्रथम हुये मधुमती नामक नगर का बारह ग्रामों का समृद्ध मण्डल प्रदान किया । भावड़शाह को इस प्रकार सम्राट द्वारा श्रश्व - किशोरों का मूल्य चूकता करता हुआ देखकर सर्वजनों ने सम्राट के न्याय और चातुर्य की अतिशय प्रशंसा की । सम्राट ने भावड़शाह को बड़े हर्ष और धूम-धाम से विदाई दी । अब मण्डलेश्वर भावड़शाह हर्षयुक्त अपने नगर कांपिल्यपुर की ओर चले । जब वे सानन्द नगर में पहुंचे तो उनके मधुमती का मण्डलेश्वर बनने की चर्चा नगर में घर-घर प्रसारित हो गई। राजा तपनराज ने भी जब यह सुना तो वह भी अति ही हर्षित हुआ । राजा तपनराज ने भावड़शाह का अति सम्मान किया । सौभाग्यवती भावला आज सचमुच सौभाग्यवती थी । कुछ दिन कांपिल्यपुर में ठहर कर भावड़शाह ने शुभ मुहूर्त में अपने परिवार और धन, जन के साथ में मधुमती के लिये प्रस्थान किया । कांपिल्यपुर-नरेश और नागरिकों ने हर्षाश्रु के साथ भावड़शाह को विदा दी । भावड़शाह के मधुमती पहुँचने के पूर्व ही सम्राट् विक्रम का आज्ञापत्र मधुमती के राज्याधिकारी को प्राप्त हो चुका था कि मधुमती का प्रगणा श्रेष्ठि भावड़शाह को भेंट किया गया है । मधुमती के राज्याधिकारी ने अपने मधुमती में प्रवेश और प्रगणे में सम्राट की घोषणा को राज्यसेवकों द्वारा प्रसिद्ध करवा दिया था । मधुमती की जनता अपने नव स्वामी के गुण और यश से भली-विध परिचित हो चुकी थी, अतः अत्यधिक उत्कण्ठा से भावड़शाह के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थी तथा उसके स्वागत के लिये विविध प्रकार की शोभा पूर्ण तैयारी कर रही थी । मण्डल का शासन मधुमती पश्चिमी समुद्रतट के किनारे सौराष्ट्र-मण्डल के अति प्रसिद्ध बन्दरों और समृद्ध नगरों में से एक था । यहाँ से अरब, अफगानिस्तान, तुर्की, मिश्र, ईरान आदि पश्चिमी देशों से समुद्र मार्ग द्वारा व्यापार होता था । मधुमती में अनेक बड़े २ श्रीमन्त व्यापारी रहते थे, जो अनेक जलयानों के स्वामी थे और अगणित स्वर्ण-मुद्राओं के स्वामी थे । मधुमती का नव-स्वामी स्वयं श्रेष्ठिज्ञातीय श्रीमन्त हैं और स्वयं प्रसिद्ध व्यापारी हैं - यह श्रवण कर मधुमती के व्यापारियों के आनन्द का पार नहीं था । साधारण जनता यह सुनकर कि नव-स्वामी स्वयं दारिद्रय . भोग चुके हैं और अपने शुभ कर्मों के प्रताप से इस उच्च पद को प्राप्त हुये हैं— श्रवण कर अति ही प्रसन्न हो रहे थे कि अब उनकी उन्नति में कोई अड़चन नहीं आने पावेगी । इस प्रकार श्रीमन्त, रंक समस्त भावड़शाह के शुभागमन को अपने लिये सुख-समृद्धि का देने वाला समझ रहे थे । भावड़शाह मधुमती के निकट आ गये हैं, श्रवण करके छोटे-बड़े राज्याधिकारी, सैनिक, नगर के आबाल-वृद्ध तथा समीपस्थ नगर एवं ग्रामों की जनता अपने नव-स्वामी का स्वागत करने बढ़ीं और अति हर्ष एवं आनन्द के साथ श्रेष्ठ भावड़शाह का नगर - प्रवेश करवाया । नगर उस दिन अद्भुत वस्त्रों, अलंकारों से सजाया गया था। घर, हाट, चौहाट, राजपथ, मन्दिर, धर्मस्थान, राजप्रासादों की उस दिन की शोभा अपूर्व थी । भावड़शाह ने नगर में प्रवेश करते ही गरीबों को खूब दान दिया, मन्दिरों में अमूल्य भेटे भेजीं और जनता को प्रीतिभोज तथा सधर्मी बन्धुओं को साधर्मिक वात्सल्य देकर प्रेम और कीर्ति प्राप्त की । भावड़शाह सदा दीनों को दान, अनाथ एवं हीनों को आश्रय देता था। उसने सम्राट के राज्याधिकारी से प्रगणे का शासन सम्भाल कर ऐसी सुव्यवस्था की कि थोड़े ही वर्षों में मधुमती का व्यापार चौगुणा बढ़ गया, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: शत्रुञ्जयोद्धारक परमार्हत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह :: [ २१ जनता सुखी और समृद्ध हो गई। मानव को तो क्या, उसके आधीन क्षेत्र में कीड़ी और कीट तक को कोई भी सताने वाला नहीं रहा । जँगल के पशु और पक्षी भी निर्भय रहने लगे । दुःख और दारिद्र्य उड़ गया । दूर २ तक भावड़शाह के रामराज्य की कीर्त्ति प्रसारित हो गई। विदेशों में मधुमती में बढ़ते हुये धन की कहानियाँ कही जाने लगीं । प्रगणों में चौर, डाकू, लूटेरों, ठग, प्रवंचकों, पिशुनों का एक दम अस्तित्व ही मिट गया । स्वयं भावड़शाह रात्रि को और दिन में अपनी प्यारी जनता की सुरक्षा और सुख की खबर प्राप्त करने स्वयं भेष बदल कर निकलता था । इस प्रकार मधुमती के प्रगणे में आनन्द, शान्ति और सुख अपने पूरे बल पर फैल रहा था । प्रजा सुखी थी, भावड़शाह और सौभाग्यवती भावला भी अपनी प्यारी प्रजा को सुखी और समृद्ध देखकर फूले नहीं समाते थे; परन्तु फिर भी एक अभाव सदा उन्हें उद्विग्न और व्याकुल बना रहा था - वह था पुत्ररत्न का अभाव । भी यद्यपि मुनिराज के वचनों में दोनों स्त्री-पुरुष को विश्वास था । और जैसा मुनिराज ने कहा था कि बाजारों में लक्षणवंती घोड़ी चिकने आवेगी, उसको खरीद लेना, वह तुम्हारे भाग्योदय का कारण होगी और हुआ पुत्र रत्न की प्राप्ति और वैसा ही । मुनिराज ने दो बातें कही थीं— लक्षणवंती घोड़ी का खरीदना और उसकी शिक्षा अवसर आये पुत्ररत्न की प्राप्ति । इन दो बातों में से एक बात सिद्ध हो चुकी थी । अतः दोनों स्त्री-पुरुषों को दृढ़ विश्वास हो गया था कि दूसरी बात भी सत्य सिद्ध होगी; परन्तु अपार धन और वैभव के भाव में पुत्र का अभाव और भी अधिक खलता है। श्रे० भावड़शाह आज अपनी पूरी उन्नति के शिखर पर था। समाज, राज, देश में उसका गौरव बढ़ रहा था । न्याय, उदारता, धर्माचरण के लिये वह अधिकतम प्रख्यात था, अतुल वैभव और समृद्धि का स्वामी था और इन सर्व के ऊपर मधुमती जैसे समृद्ध और उपजाऊ प्रगणा का अधीश्वर था । ऐसी स्थिति में पुत्र का नहीं होना सहज ही अखरता है। मधुमती की प्रजा भी अपने स्वामी के कोई संतान नहीं देखकर दुःखी ही थी । जब अधिक वर्ष व्यतीत हो गये और कोई संतान नहीं हुई, तब भावड़शाह और उसकी स्त्री ने अपने अतुल धन को पुण्य क्षेत्रों में व्यय करना प्रारंभ किया । नवीन मंदिर बनवाये, जीर्ण मंदिरों' का उद्धार करवाया, बिम्बप्रतिष्ठायें करवाई, स्थल २ पर प्रपायें लगवाईं । सत्रागार खुलवाये, पौषधशाला और उपाश्रय बनवाये, साधर्मिक वात्सल्य और प्रीतिभोज देकर संघसेवा और प्यारी प्रजा का सत्कार किया, निर्धनों को धन, अनाथों को शरण, अपंगों को आश्रय, बेकारों को कार्य और गरीबों को वस्त्र, अन्न, धन देना प्रारंभ किया । पुण्य की जड़ पाताल में होती है, अंत में सौभाग्यवती भावला एक रात्रि को शुभ मुहूर्त में गर्भवती हुई और अवधि पूर्ण होने पर उसकी कुक्षी से अति भाग्यशाली एवं परम तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम जावड़शाह रक्खा गया। यह शुभ समाचार मधुमती की जनता में अपार आहाददायी और सुख एवं शांति का प्रसार करने वाला हुआ । समस्त जनता ने अपने स्वामी के पुत्र के जन्म के शुभ लक्ष्य में भारी समारोह, उत्सव किया, मंदिरों में विविध पूजायें बनवाई गई। ग्राम २ में प्रीतिभोज और साधर्मिक – वात्सल्य किये गये और प्रत्येक जन ने यथाशक्ति अमूल्य भेंट देकर भावड़शाह को बधाया । जावड़शाह चंद्रकला की भांति बढ़ने लगा। छोटी वय में ही उसने वीरोचित शिक्षा प्राप्त कर ली, जैसे घोड़े की सवारी, तलवार, बर्बी, बल्लम के प्रयोग, तैरना, मल्लयुद्ध, धनुर्विद्या आदि । मल्लयुद्ध और धनुर्विद्या में जावड़शाह इतना प्रख्यात हुआ कि उसकी कीर्ति और बाण चलाने अनेक चर्चायें दूर २ तक की जाने लगीं। भावड़शाह Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम ने जावड़शाह को जैसी वीरोचित शिक्षा दिलवाई, उससे अधिक अपने धर्म की शिक्षा भी दिलवाई थी । जावड़शाह बहुत ही उदारहृदय, दयालु और न्यायप्रिय युवराज था । जावड़शाह को देख कर मधुमती की जनता अपने भाग्य पर फूली नहीं समाती थी । 1 are सर्व कलानिधान और अनेक विद्याओं में पारंगत हो चुका था । पिता के शासनकार्य में भाग लेने लग गया था । वृद्ध पिता, माता अब अपने घर के आंगन में पुत्रवधू को घूमती, फिरती देखने में अपने जावड़शाह का सुशीला सौभाग्य की चरमता देख रहे थे । परन्तु जावड़शाह के योग्य कोई कन्या नहीं दिखाई के साथ विवाह दे रही थी । अन्त में जावड़शाह की सहगति करने - सम्बन्धी भार भावड़शाह ने जावड़शाह के मामा श्रेष्ठ सोमचन्द्र के कन्धों पर डाला । मामा सोमचन्द्र अपने भाणेज के गुणों पर अधिक ही मुग्ध थे । वे उसको प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, तथा धर्म और समाज का उसके द्वारा उद्धार होना मानते थे । अच्छे मुहूर्त में वे मधुमती से भाणेज के योग्य कन्या की शोध में निकल पड़े। घेटी ग्राम में वे मोतीचन्द्र श्रेष्ठि के यहाँ ठहरे । घेटी ग्राम पहाड़ों के मध्य में बसा हुआ एक सुन्दर मध्यम श्रेणी का नगर था । वहाँ प्राग्वाट ज्ञातीय शूरचन्द्र श्रेष्ठि रहते थे । उनकी सुशीला नामक कन्या अत्यन्त ही गुणगर्भा और रूपवती थी । मोतीचन्द्र श्रेष्ठ द्वारा सुशीला की कीर्ति श्रवण करके सोमचन्द्र ने शूरचन्द्र श्रेष्ठ को बुलवा भेजा और उनके आने पर उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट की । इस चर्चा में सुशीला की उपस्थिति भी आवश्यक समझी गई । अतः वे सर्व उठकर शूरचन्द्र श्रेष्ठि के घर पहुंचे और सुशीला से उसकी सहगति सम्बन्धी बात-चीत प्रारम्भ की। सुशीला ने स्पष्ट कहा कि वह उसी युवक के साथ में विवाह करेगी, जो उसके चार प्रश्नों का उत्तर देगा । शत्रुंजय महात्म्य - में लिखा है कि श्रे० सोमचन्द्र सुशीला को और उसके परिवार को साथ में लेकर मधुमती याये । सधर्मी बन्धुओं की एवं नगर के प्रतिष्ठित जनों की सभा बुलाई गई और उसमें सुशीला ने कुमार जावड़ से प्रश्न किया कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थों का क्या अर्थ होता है, समझाइये | कुमार जावड़ बड़ा योग्य, धर्मनीति का प्रतिभासम्पन्न युवक था । उसने उक्त पुरुषार्थों का ठीक २ वर्णन करके सुना दिया । सुशीला उत्तर सुनकर मुग्ध हो गई और उसने जावड़ के गले में जयमाला पहिरा दी । शुभ मुहूर्त में जावड़शाह और सुशीला का विवाह भी हो गया । अब भावड़शाह और भावला पूर्ण सुखी थे । उनकी कोई सांसारिक इच्छा शेष नहीं रह गई थी । केवल एक कामना थी और वह पौत्र का मुख जावड़शाह का विवाह और देखने की । कुछ वर्षों पश्चात् जावड़शाह के जाजनाग, जिसको जाजण भी कहा जाता माता-पिता का स्वर्गगमन है, पुत्र उत्पन्न हुआ । पौत्र की उत्पत्ति के पश्चात् भावड़शाह और सौभाग्यवती भावला त्यागमय जीवन व्यतीत करने लगे । सांसारिक और राजकीय कार्यों से मुंह मोड़ लिया और खूब दान देने लगे और तपस्यादि कठिन कर्मों को करने लगे । अन्त में दोनों अपना अन्तिम समय आया जानकर अनशन - व्रत ग्रहण करके स्वर्ग को सिधारे । माता-पिता के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रगणा का पूरा २ भार जावड़शाह पर आ पड़ा । जावड़शाह योग्य और दयालु शासक था । वैसी ही योग्या और गुणगर्भा उसकी स्त्री सुशीला थी । दोनों तन, मन, धन से धर्म Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: शत्रुञ्जयोद्धारक परमाहत भेष्ठि सं० जावड़शाह :: [ २३ मधुमती पर मलेच्छों का और अपनी प्यारी प्रजा का पालन करने लगे। मधुमती की समृद्धता बढ़ती ही गई। आक्रमण और जावड़शाह भारत के पश्चिम में जितने देश थे, वे मलेच्छों के आधीन थे। इन देशों के मलेच्छ सैन्य को कैदी बनाकर ले जाना बनाकर प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करते और यहाँ से धन, द्रव्य लूट कर ले जाते थे । मधुमती की प्रशंसा सुनकर वे एक वर्ष बड़ी संख्या में मधुमती पर चढ़कर समुद्रमार्ग से आये । जावड़शाह और उसके सैनिकों ने उनका खूब सामना किया, परन्तु अन्त में मलेच्छ संख्या में कई गुणे थे, युद्ध में विजयी हुये । मधुमती को खूब लूटा और अनेक दास-दासी कैद करके ले गये । जावड़शाह और सुशीला को भी वे लोग कैद करके ले गये । मलेच्छों के सम्राट ने जब जावड़शाह और सुशीला की अनेक कीर्ति और पराक्रम की कहानियाँ सुनी, उसने उनको राज्यसभा में बुलाकर उनका अच्छा सम्मान किया और मलेच्छ-देश में स्वतन्त्रता के साथ व्यापार और अपने धर्म का प्रचार करने की उनको आज्ञा दे दी। थोड़े ही दिनों में जावड़शाह ने अपनी धर्मनिष्ठा एवं व्यापार-कुशलता से मलेच्छ-देश में अपार प्रभाव जमा लिया और खूब धन उपार्जन करने लगा। सम्राट् संप्रति ने जैनधर्मोपदेशकों को भारत के समस्त पास-पड़ोस के देशों में भेजकर जैनधर्म का खूब प्रचार करवाया था । तभी से जैन उपदेशकों का आना-जाना चीन, ब्रह्मा, आसाम, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, ग्रीक, जैन उपदेशकों का आगमन अफ्रीका आदि प्रदेशों में होता रहता था। जावड़शाह ने वहाँ महावीर स्वामी का और जावड़शाह को स्वदेश जिनालय बनवाया भौर ठहरने तथा आहार-पानी की ठौर २ सुविधायें उत्पन्न लौटने की आज्ञा कर दी। फलतः मलेच्छ-देशों में जैन-उपदेशकों के आगमन को प्रोत्साहन मिला और संख्या-बंध आने लगे। एक वप चातुर्मास में एक जैन-उपदेशक ने जो शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता थे, अपने व्याख्यान में कहने लगे कि प्रसिद्ध महातीर्थ शत्रुजय का जैन-जनता से विच्छेद हो गया है, वहाँ पिशुन और मांसाहारी लोगों का प्राबल्य है, मन्दिरों की घोर आशातनायें हो रही हैं, जावड़शाह नाम के एक श्रेष्ठि से अब निकटभविष्य में ही उसका उद्धार होगा। श्रोतागणों में जावड़शाह भी बैठा था। जावड़शाह ने यह सुनकर प्रश्न किया कि वह जावड़शाह कौन है, जिसके हाथ से ऐसा महान् पुण्य का कार्य होगा। उन्होंने जावड़शाह के लक्षण देखकर कहा कि वह जावड़शाह और कोई नहीं, तुम स्वयं ही हो । समय आ रहा है कि मलेच्छ-सम्राट् तुम्हारे पर इतना प्रसन्न होगा कि जब तुम उससे स्वदेश लौटने की अपनी इच्छा प्रकट करोगे वह तुमको परिवार, धन, जन के साथ में लौटने की सहर्ष आज्ञा दे देगा। उस ही चातुर्मास में मलेच्छ सम्राट् की अध्यक्षता में राज्यप्रांगण में अनेक मल्लों में बल-प्रतियोगिता हुई। उनमें मलेच्छ सम्राट का मल्ल सर्वजयी हुआ। सम्राट का मल्ल हर्ष और आनन्द के साथ जयध्वनि कर रहा था। जावड़शाह उसका यह गर्व सहन नहीं कर सका। वह अपने आसन से उठा और सम्राट के समक्ष आकर विजयी मल्ल से द्वंद्वयुद्ध करने की आज्ञा माँगी। सम्राट ने तुरन्त आज्ञा प्रदान कर दी। दर्शकगण सम्राट के बलशाली और सर्वजयी मल्ल के सम्मुख जावड़शाह को बढ़ता देखकर आश्चर्य करने लगे। थोड़े ही समय में दोनों में उलटापलटी होने लगी, अन्त में जावड़शाह ने एक ऐसा दाव खेला कि सम्राट का मल्ल चारों-खाने-चित्त जा गिरा। जावड़शाह को विजयी हुआ देख कर दर्शकगण, स्वयं सम्राट और उसके सामन्त आदि अत्यन्त ही आश्चर्यचकित रह गये । सम्राट ने अति प्रसन्न होकर जावड़शाह से कोई वरदान मांगने का आग्रह किया । जैन-उपदेशक के वे शब्द Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [प्रथम कि सम्राट प्रसन्न होकर तुमको स्वदेश लौटने की आज्ञा दे देगा जावड़शाह को स्मरण तो थे ही। जावड़शाह ने सुन्दर अवसर देखकर सम्राट से निवेदन किया कि वह अपने परिवार और धन, जन सहित स्वदेश लौटने की आज्ञा चाहता है । जावड़शाह की इस प्रार्थना को सम्राट ने सहर्ष स्वीकार किया और जब इच्छा हो, जाने की आज्ञा प्रदान कर दी। ___मलेच्छ-सम्राट से योग्य सहायता लेकर जावड़शाह अपने परिवार, धन, जन सहित शुभ मुहूर्त में प्रयाण करके स्वदेश को चला। मार्ग में वह तक्षशिलानगरी के राजा जगन्मल्ल के यहाँ ठहरा । राजा जगन्मल्ल नावडशाह का स्वदेश को जावड़शाह को शत्रुजय के उद्धार के निमित्त जाते हुए श्रवण कर अत्यन्त ही प्रसन्न लौटना हुआ और धर्म-चक्र के आगे प्रगट हुआ दो पुण्डरीकजी वाला श्री आदिनाथ-बिंब शत्रुजयमहातीर्थ पर स्थापित करने के लिये जावड़शाह को अर्पित किया । जावड़शाह ने स्नान आदि करके शरीर शुद्धि की और प्रभु का पूजन अतिशय भावभक्तिपूर्वक किया और बिंब को लेकर सौराष्ट्र-मण्डल की ओर चला । मार्ग में कोई विध | उत्पन्न नहीं होवे, इसलिए उसने एकाशन-व्रत का तप प्रारम्भ किया और अनेक विघ्न-बाधाओं को जीतता हुआ वह सौराष्ट्र-मण्डल में पहुंचा। ___ मार्ग में जब ग्राम, नगर, पुरों के धर्म-प्रेमी जनों ने सुना कि जावड़शाह शत्रुजयमहातीर्थ का उद्धार करने के लिये जा रहा है, उन्होंने अनेक प्रकार की अमूल्य भेटे ला ला कर भगवान् आदिनाथ-बिंब के आगे रक्खीं और अनन्त द्रव्य तीर्थ के ऊपर उद्धार में व्यय करने के निमित्त भेंट किया। इस प्रकार जावड़शाह ग्राम २ में नगरनगर में आदर-सत्कार पाता हुआ और अनन्त भेंटे लेता हुआ अपनी राजधानी मधुमती पहुंचा। मधुमती के प्रगणा की जनता ने जब यह सुना कि उसका स्वामी अनन्त ऋद्धि और द्रव्य के साथ स्वस्थान को लौट रहा है और शत्रुज्यमहातीर्थ का उद्धार उसके हाथ से होगा, वह फूली नहीं समायी और अपने स्वामी का स्वागत करने के लिये बहुत धूम-धाम से आगे आई । अत्यन्त धूम-धाम, सज-धज के साथ जनता ने जावड़शाह का नगर में प्रवेश करवाया। जावड़शाह ने अपने वियोग में दुःखी अपनी प्यारी जनता के दर्शन करके अपने भाग्य की सराहना की। जावडशाह ने पूर्व जो जहाज करियाणा-सामग्री से भर कर विदेशों में महाचीन, चीन तथा भोट देशों में समुद्र-मार्ग से भेजे थे, वे भी विक्री करके अमूल्य निधि लेकर ठीक इस समय में लौट आये । यह सुनकर जावड़शाह को अत्यन्त हर्ष हुआ और शत्रुञ्जयजीर्णोद्धार-कार्य में व्यय करने के लिये अब उसके पास बहुत द्रव्य हो गया। समस्त सौराष्ट्र, गुजरात, कच्छ, राजस्थान, मालवा, मध्यप्रदेश, विंध्यप्रदेश, संयुक्तप्रान्त, उत्कल, बंगाल और दक्षिण भारत की जैन-जनता को ज्योंही यह शुभ समाचार पहुंचे कि मधुमती का स्वामी जावड़शाह मलेच्छदेश से लौट आया है और शत्रुजय का उद्धार करेगा अत्यन्त ही प्रसन्न हुई। संघ-प्रयाण के शुभ दिवस के पहिले २ अनन्त जैन और अजैन जनता मधुमती में एकत्रित हो गई। जावड़शाह ने आगत संघों की अति अभ्यर्थना की और शुभ मुहूर्त में महातीर्थ का उद्धार करने के हेतु वज्रस्वामी जैसे समर्थ प्राचार्य की तत्त्वावधानता में प्रयाण किया। शत्रुञ्जय-महातीर्थ पर इस समय कपर्दि नामक असुर का अधिकार था । वह और उसके दल वाले तीर्थ पर रहते थे। समस्त तीर्थ मांस और मदिरा से लिप-पुत गया था। प्रभुदर्शन तो दूर रहे, नित्य पूजन भी बन्ध हो Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर] :: शत्रुञ्जयोद्धारक चश्माईश श्रेष्ठ सं० जावड़शाह :: [२ गया था । शत्रुंजयतीर्थ के आस-पास के प्रदेश पर भी इस कपर्द असुर का अधिकार था । इसके अत्याचारों से घबरा कर जनता अपने घर-द्वार छोड़कर दूर २ भाग गई थी। शत्रुंजयतीर्थ के मार्ग ही बन्द हो गये थे । इस प्रकार तीर्थ का उच्छेद लगभग ५० वर्ष पर्यन्त रहा । जनता को यह सहन तो नहीं हो रहा था, परन्तु अत्याचारी नरभक्षक असुरों के आये उसका कोई क्श नहीं चलता था । जब कपर्दि असुर ने सुना कि जावड़शाह अनन्त सैन्य के साथ शत्रुंजयमहातीर्थ का उद्धार करने के लिये चला आ रहा है, अत्यन्त क्रोधातुर हुआ और उसने मार्ग में अनेक विघ्न उत्पन्न करने प्रारम्भ कर दिये; परन्तु जावड़शाह जैसे धर्मिष्ठ के मन को कौन डिगा सकता था ? वह सब बाधाओं को झेलता हुआ, पार करता हुआ आगे बढ़ता ही गया । वज्रस्वामी अनन्त ज्ञान और पूर्वभवों के ज्ञाता थे । इनकी सहाय पाकर जावड़शाह निर्विघ्न शत्रुंजयतीर्थ की तलहट्टी में पहुंचा। शुभ मुहूर्त में संघ ने तीर्थपर्वत पर बढ़ना प्रारम्भ किया, यद्यपि असुरों ने अनेक विघ्न डाले, विकराल रूप बना बना कर लोगों को डराया, लेकिन छल-मन्त्र सफल नहीं हुआ और शुभ पल में आदिनाथमन्दिर में जाबड़'शाह, वज्रस्वामी और संघ ने जाकर प्रभु के दर्शन किये । तीर्थ छोड़कर असुर सब भाग गये । जावड़शाह ने सर्व 'विघ्नों को अन्तप्रायः हुआ देखकर तीर्थ को कई बार धुपवाया और समस्त पर्वत मांस-मदिरा से जो लिप-पुत गया था तथा हड्डियों से ढँक चुका था, उसको साफ करवाया । मन्दिरों का जीर्णोद्धार प्रारंभ करवाया और शुभ मुहूर्त में नवप्रभु आदिनाथ के बिंब की स्थापना की । शत्रुंजयमहातीर्थ का यह तेरहवाँ उद्धार था, जो वि० सं० १०८ में पूर्ण हुआ । मन्दिर के ऊपर दोनों पति और पत्नी जब भक्ति भावपूर्वक ध्वजा फर्का रहे थे, उसी समय उन दोनों की दिव्य आत्मायें नश्वर पंचभूत शरीरों को छोड़ कर देवलोक को सिधार गई। जब अधिक समय हो गया और जावड़शाह और सुशीला दोनों नीचे नहीं उतरे तो लोगों को शंका हुई कि क्या हुआ। जब ऊपर जाकर देखा का स्वर्गगमन तो दोनों हाथ जोड़े खड़े हैं और देहों में प्राण नहीं हैं। जाजनाग को यह जान कर अत्यन्त शोक हुआ, परन्तु समर्थ वज्रस्वामी ने उसको धर्मोपदेश देकर इस प्रकार देह त्याग करने के शुभयोग को समझाया । जीर्णोद्धार का शेष रहा कार्य जाजनाग ने पूर्ण करवाया था । भारत-भूमि पर जब तक शत्रुंजयमहातीर्थ और उसका उज्ज्वल गौरव स्थापित रहेगा, शत्रुंजयतीर्थ तेरहवें उद्धारक श्रे० जावड़शाह और उसकी धर्मात्मा पत्नी सुशीला की गाथा घर घर गाई जाती रहेगी । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] :: प्राग्वाट - इतिहास :: सिंहावलोकन विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शताब्दी से विक्रम संवत् आठवीं शताब्दी पर्यन्त जैनवर्ग की विभिन्न स्थितियाँ और उनका सिंहावलोकन [ प्रथम धर्म-क्रांति हिंसावाद के विरोध में भगवान् महावीर और गौतमबुद्ध ने अहिंसात्मक पद्धति पर प्रबल आन्दोलन खड़ा किया । भारत में वर्षों से जमी वर्णाश्रमपद्धति की जड़ हिल गई और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों में से कई एक नवीन ज्ञातियाँ और दल बन गये । महावीर ने श्रीचतुर्विधसंघ की स्थापना की और गौतमबुद्ध ने बौद्ध समाज की । यह क्रांति विक्रम संवत् के आरंभ तक अपने पूरे वेग से चलती रही है । इससे यह हुआ कि भारत की श्रार्यज्ञाति वेद, बौद्ध और जैन इन तीनों वर्गों में विशुद्धतः विभक्त हो गई। वर्णों में जहाँ वेद अथवा जैनमत का पालन व्यक्तिगत रहता आया था, अब कुलपरंपरागत हो गया । कुछ शताब्दियों तक तो किसी भी धर्म का पालन किसी भी वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञाति का कुल अथवा व्यक्ति करता रहा था, परन्तु पीछे से यह पद्धति बदल दी गई। जैनाचार्यों ने एवं बौद्ध भिक्षुकों ने अन्य मतों से आनेवाले कुलों एवं व्यक्तियों को दीक्षा देना प्रारंभ किया और उन कुलों को अपने कुल के अन्य परिवारों से, जिन्होंने धर्म नहीं बदला सामाजिक एवं धार्मिक सम्बन्धों का विच्छेदप्रायः करना पड़ा। बौद्धमत अपनी नैतिक कमजोरियों के कारण अधिक वर्षों तक टिक नहीं सका। जैन और वेद इन दोनों मतों में संघर्ष तेज-शिथिल प्रायः बना ही रहा। श्रीमाल, प्राग्वाट, ओसवाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल, चितौड़ा, माहेश्वरी आदि अनेक वैश्यज्ञातियों का जन्म हुआ। बाहर से आयी हुई शकादि ज्ञातियों के कारण क्षत्रियों में भी कई एक नवीन ज्ञातियों का उद्भवन हुआ । ब्राह्मणवर्ग में भी कई एक नवीन गोत्रों, ज्ञातियों की स्थापना हुई और फिर उनमें भी उत्तम, मध्यम जैसी श्रेणियाँ स्थापित हुईं । शूद्रवर्ण भी इस प्रभाव से विमुक्त नहीं रहा । कालान्तर में जा कर यह हो गया कि उत्तम वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञाति का कोई परिवार अपने से नीचे के वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञा में उसका धर्म स्वीकार करके संमिलित हो सकता था, परन्तु नीचे का अपने से ऊँची स्थितिवाले वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञात में उसका धर्म स्वीकार करने पर भी संमिलित नहीं हो सकता था । श्रावकवर्ग की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, वैश्य कुलों से हुई है, जो कुल अधिकतर वेदमतानुयायी थे । जैनधर्म स्वीकार करने पर इस वर्ग में आनेवाले कुलों को श्रावकत्रत स्वीकार करना पड़ा । जहाँ ये कुल प्रधानतः कृषि करते थे, गौपालन करते और हर प्रकार का व्यापार करते थे, वहाँ जैन धार्मिक जीवन a refer पापवाले कर्मों के करने से बचना इनके लिये प्रमुख कर्त्तव्य रहा । ये अधिकतर व्यापार ही करने लगे और वह भी ऐसी वस्तुओं का कि जिनके उत्पादन में, संग्रह में, जिनकी प्राप्ति, क्रय और विक्रय में तथा अधिक समय तक संचित रखने में कम से कम पाप लगता हो । ये बड़े ही दयालु, परोपकारी, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड :: सिंहावलोकन:: [ २७ दृढ़प्रतिज्ञ होते थे । काल-दुष्काल में निर्धन, गरीब, कालपीड़ित जनों की सर्वस्व देकर अन्न-धन से सहायता करते थे। किसी की आत्मा को तनिक-मात्र भी कष्ट पहुंचाना ये पाप समझते थे । संसार के सर्व जीवों पर इनकी दयादृष्टि रहती थी। सब से इनकी मित्रता थी। किसी भी प्राणी से इनकी शत्रुता नहीं रहती थी। धर्म के नाम पर एवं प्राणीहितार्थ अपने द्रव्य का पूरा २ सदुपयोग करना इनका एकमात्र लक्ष्य रहता था। बड़े २ श्रीमन्त अपने जीवनकाल में बड़े २ तीर्थों की विशाल संघ के साथ में तीर्थयात्रायें करते थे, मार्ग में पड़ते जिनालयों का जीर्णोद्धार करवाते चलते थे और इस ही प्रकार अनेक भांति से अपने सधर्मी बन्धुओं की कई एक अवसरों पर लक्षों, करोड़ों रुपयों का व्यय करके सेवा-भक्ति करते थे। धन-संचय करना इनका कर्तव्य रहता था, परन्तु अपने लिये वह नहीं होता था। धन का संचय ये न्यायमार्ग से करते थे और धर्म के क्षेत्रों में, दीन-दुःखियों की सेवाओं में उसका पूरा २ व्यय करते थे। आज भारतवर्ष में जितने अति प्रसिद्ध जैनतीर्थ हैं, ये उस समय में अपनी सिद्धस्थिति के लिये अत्यधिक प्रसिद्ध थे और इन पर इनकी शोभावृद्धि के लिये नहीं, वरन् अपनी श्रद्धा और भक्ति से लोग विपुल द्रव्य का व्यय करते थे। अधिकांश पुरुष और स्त्री चतुर्थाश्रम में साधुव्रत अंगीकार करना पसन्द करते थे। जब कोई परिवार भागवती दीक्षा ग्रहण करता था, वह अपने भवन का द्वार खुला छोड़ कर निकल जाता था। उसकी जितनी भी सम्पत्ति लक्षोंकोटियों की होती वह धर्मक्षेत्रों में, दीन-दुःखियों की सेवा में व्यय की जाती थी। उस समय में ऐसी पद्धति थी कि घर का प्रमुख व्यक्ति जब साधु-दीचा ग्रहण करता था, तो उसके माता, पिता, स्त्री, पुत्र, पुत्रवधुयें भी प्रायः दीक्षा ले लिया करती थीं। जैसा श्राज प्राग्वाट, प्रोसवाल, श्रीमालवर्म जैनसमाज में अपना अलग स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है, वैसा उस समय में नहीं था। जैनसमाज एक वर्ग था। सब थे जैन और एक । परस्पर भोजन-कन्या व्यवहार सरलता सामाजिक जीवन और से होता था। प्रत्येक अपने सधर्मी बन्धु की सेवा-भक्ति करना अपना परम कर्तव्य आर्थिक स्थिति मानता था । समाज पर साधुओं एवं आचार्यों का पूरा प्रभाव रहता था । समस्त समाज इनके ही आदेशों पर चलता था। जैनधर्म स्वीकार करने वाले प्रत्येक सुसंस्कृत कुल को जैनसमाज में प्रविष्ट होने की पूरी २ स्वतन्त्रता थी और प्रविष्ट हो जाने पर उस कुल का मान समाज में अन्य जैनकुलों के समान ही होता था। जैनसमाज को छोड़कर जाने वाले कुल के साथ में भी समाज की ओर से कोई विरोध खड़ा नहीं किया जाता था । राजसभाओं एवं नगरों में जैनियों का बड़ा मान था और वे श्रेष्ठि समझे जाते थे। अधिकांश जैन बड़े ही श्रीमन्त और धनाढ्य होते थे। ये इतने बड़े धनी होते थे कि बड़े २ सम्राट तक इनकी समृद्धता एवं वैभव की बराबरी नहीं कर सकते थे। स्वर्णमुद्राओं पर इनकी गणना होती थी—ऐसे अनेक उदाहरण प्राचीन जैनग्रन्थों में मिलते हैं । भारतवर्ष का सम्पूर्ण व्यापार इनके ही करों में संचालित रहता था। भारत के बाहर भी ये दूर देशों में जा-जाकर जहाजों द्वारा व्यापार करते थे। इनकी व्यापारकुशलता के कारण भारत उस समय इतना समृद्ध हो गया था कि वह स्वर्ण की चिड़िया कहलाता था । धर्म के नाम पर तीर्थों में, मन्दिरों में एवं पर्व और त्यौहारों पर तथा तीर्थसंघयात्रादि जैसे संघभक्ति के कार्यों में प्रत्येक जैन अपनी शक्ति के अनुसार खूब द्रव्य का व्यय करता था। Page #163 --------------------------------------------------------------------------  Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ विक्रम संवत् ॥ ॐ ॥ प्राग्वाट - इतिहास द्वितीय खण्ड नवाग शताब्दी से विक्रम संवत् तेरहवीं शताब्दी पर्यन्त । ] Page #165 --------------------------------------------------------------------------  Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास द्वितीय खंड वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति श्रावकवर्ग में वृद्धि के स्थान में घटती श्रावकसमाज में जो वृद्धि होकर, उसकी गणना करोड़ों पुरुषों तक पहुंची थी, अनेक महान् जैनाचार्यों के अथक परिश्रम का वह सुफल था। परन्तु क्रमबद्ध विवरण नहीं मिलने के कारण श्रावकसमाज की वृद्धि का इतिहास आज तक नहीं लिखा जा सका। गुप्तवंश के राज्य की स्थापना तक जैनधर्म का प्रभाव और प्रसार द्रुतगति से बढ़ता रहा था । गुप्तवंश के राजा वैष्णवमतानुयायी थे। उनके समय में फिर से ब्राह्मणधर्म जाग्रत हुआ और अश्वमेधयज्ञों का पुनरारम्भ हुमा । परन्तु इतना अवश्य है कि गुप्तवंश के सम्राट अन्य धर्मों के प्रति भी उदार और दयालु रहे थे। फिर भी जैनधर्म की प्रसार-गति में धीमापन अवश्य आ गया था । गुप्तकाल से ही जैनाचार्यों का विहार मध्यभारत, मालवा, राजस्थान और गुजरात तक ही सीमित रह गया था । इनसे पहिले के जैनाचार्यों का विहार उधर उत्तर-पश्चिम में पंजाब, गंधार, कंधार, तक्षशिला तक और पूर्व में विहार, बंगाल, कलिंग तक होता था और उसी का यह परिणाम था कि जैनधर्म के मानने वालों की संख्या कई कोटि हो गई थी। जब से जैनाचार्यों ने लम्बा विहार करना बन्द किया और मालवा, राजस्थान, मध्यमारत, गुजरात में ही भ्रमण करके अपनी आयु व्यतीत करना प्रारम्भ किया, जैनधर्म के मानने वालों की संख्या Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम भी दिनों-दिन वटने लगी और नवीन जैन बनने बंद-से हो गये । विक्रम की सातवीं और आठवीं शताब्दी में जैन संख्या में ६ और ७ कोटि के बीच में रह गये थे । उक्त प्रदेशों में जैनाचार्यों का विहार बंद पड़ जाने के कारण और वेदमत के पुनर्जागरण के कारण उनमें से कई अथवा अनेक वैष्णवधर्मी बन गये हों । वैष्णवधर्म का प्रचार विक्रम की आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य के समय से ही द्रुतगति से समस्त भारत में पुनः प्रबल वेग से बढ़ने लगा था । जैनाचाय्य को स्वभावतः जैनसमाज की निरन्तर घटती हुई संख्या पर चिन्ता होनी आवश्यक थी । सम्भव है उसी के फलस्वरूप विक्रम की आठवीं, नौवीं शताब्दी में जैनाचार्यों ने नवीनतः श्रजैनकुलों को जैन बनाने का दुर्धर कार्य प्रारम्भ किया । यह निश्चित है कि अब उनका यह कार्य प्रमुखतः राजस्थान, मालवा तक सीमित रहा था और ये प्रदेश ही विक्रम की पाँचवीं-बट्टी शताब्दियों से उनके प्रमुखतः विहार क्षेत्र भी थे । वर्तमान् जैनसमाज बहुत अंसों में पश्चात् की शताब्दियों में जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों की ही सन्तान हैं। वर्तमान् जैनसमाज अथवा जैनज्ञाति की स्थापना पर विचार और कुलगुरु-संस्थायें वर्तमान् जैनसमाज का अधिकांश भाग पंजाब, राजस्थान, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र (काठियावाड़) संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, बरार, खानदेश में ही अधिकतर वसता है और जैनेतर वैष्णव वैश्यसमाज उत्तरी भारत में पंजाब से बरार, खानदेश और सिंध से गंगा-यमुना के प्रदेशों में सर्वत्र बसता है । जैनकुलों का वर्णन अथवा इतिहास कुलगुरुओं ने और वैष्णव वैश्यकुलों का वर्णन अथवा इतिहास भट्ट, ब्राह्मणों, चारणों ने लिखा है और अभी तक ये लोग अपने २ श्रावककुल अथवा यजमानकुलों का वर्णन परम्परा से लिखते ही आरहे हैं। जैनकुलगुरुओं के पास में जो जैन श्रावककुलों की ख्यातें हैं, उनमें ऐसी अभी तक कोई भी विश्वसनीय ख्यात बाहर नहीं आई, जो किसी वर्तमान् जैनकुल की उत्पत्ति वि० सं० की आठवीं शताब्दी से पूर्व सिद्ध करती हो । आज तक प्रकाशित हुये अगणित जैनप्रतिमा - लेखों, प्रशस्तियों, ताम्रपत्रों पर से भी यही माना जा सकता है कि वर्तमान् जैनसमाज के कुलों की उत्पत्ति विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में तथा पश्चात् की ही है। यह भी ख्यातों से सिद्ध है। कि वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति अधिकांशतः राजस्थान और मालवा में हुई है । अन्य प्रान्तों में कालान्तर में वे जाकर बसे हैं । इन जैनकुलों के कुलगुरुयों की पौषधशालायें भी अधिकांशतः राजस्थान और मालवा में ही रही हैं और आज भी वहीं हैं । अन्य प्रान्तों में पौषधशालायें कहीं-कहीं हैं । जैनकुल जब किसी परिस्थितिवश अन्य प्रान्त में जाकर बसा, उसके कुलगुरु उसके साथ में जाकर वहां नहीं बसे थे । इस प्रकार जन्म-स्थान को छोड़ कर अन्य • प्रान्त में जाकर बसने वाले जैनकुलों का उनके कुलगुरु से जब से सम्बन्ध-विच्छेद हुआ, तब से उनके कुलों का वर्णन अथवा इतिहास का लिखा जाना भी बन्द हो गया । यतः अतिरिक्त राजस्थान और मालवा में बसने बाले जैनकुलों का और नहीं छोड़कर जाने वाले जैनकुलों का वर्णन अथवा इतिहास उनके कुलगुरु बराबर लिखते Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति :: [ ३३ रहे हैं। तभी राजस्थान और मालवा में वर्तमान जैनकुलों के गोत्र, नख और अटकों की विद्यमानता है और यहाँ से छोड़कर जाने वाले कुलों के लोगों के वंशज धीरे २ अपने गोत्र, नख और अटक भूलते गये और अब उनका 1. गोत्र, नख अथवा अटक जैसा कुछ भी नहीं रह गया है। वे सीधे ओसवाल, प्राग्वाट और श्रीमाल हैं। गुजरात में जितने जैन कुल हैं, उनके गोत्रों का कोई पता नहीं लग सकता है और नहीं उनको ज्ञात है कि उनके पूर्वज किस गोत्र के थे। उक्त अवलोकन पर से तो यह कहना पड़ता है कि अधिकांशतः वर्तमान् जैनकुलों की उत्पत्ति वि० संवत् की आठवीं शताब्दी में और तत्पश्चात् ही हुई है । १ इससे यह मत स्थिर नहीं हो जाता कि जैनकुलों की स्थापना वि० संवत् की आठवीं शताब्दी से पूर्व हुई ही नहीं थी । भगवान् महावीर के निर्वाण के ५७ (५२) वर्ष पश्चात् ही स्वयंप्रभरि ने श्रीमाल -श्रावककुलों की, प्राग्वाट - श्रावककुलों की और रत्नप्रभसूरि ने ७० वर्ष पश्चात् ही ओसवालश्रावकवर्ग के कुलों की उत्पत्तियाँ कीं और अन्य कई श्राचार्यों ने भिन्न २ समयों में अजैनकुलों को जैन बनाकर उक्त ..जैनकुलों में सम्मिलित किये अथवा अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, चित्रवाल जैसे फिर स्वतन्त्र जैनवर्गों की उत्पत्तियाँ कीं । वर्तमान् जैनसमाज की स्थापना कब से मानी जानी चाहिये इस पर नीचे लिखी पंक्तियों पर विचार करके उसका निर्णय करना ठीक रहेगा । • प्रथम प्रयास – भगवान् महावीर के संघ में जो श्रावक सम्मिलित हुये थे, उन्होंने अधिकांशतया व्यक्तिगत रूप से जैनधर्म स्वीकार किया था। उनके कुलों और उनकी भविष्य में आने वाली सन्तानों के लिये जैनधर्म का पालन कुलधर्म के रूप में अनिवार्य नहीं बना था । यह प्रथम प्रयास था, जिसमें श्रावकदल की उत्पत्ति हुई । दूसरा प्रयास - स्वयंप्रभसूरि, रत्नप्रभसूरि और अन्य जैन आचार्यों ने अजैनकुलों को जैनकुल बनाने का दूसरा प्रयास किया। जैनसमाज की स्थापना का शुभ मुहूर्त सच्चे अर्थ में तब से हुआ । उक्त प्रथम प्रयास इसकी भूमिका कही जा सकती है । GUP A * *.. तीसरा प्रयास – सम्राट् संप्रति और खारवेल के समय में जैनधर्म के मानने वालों की संख्या बढ़ाकर बीस कोटि२ पर्यन्त पहुँचाने का तीसरा प्रयास हुआ । शंकराचार्य के समकालीन श्री बप्पमट्टिसूरि के समय में अथवा विक्रम की नौवीं शताब्दी में जैनों की संख्या सात और छ कोटि के बीच में रह गई थी। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के समय में अर्थात् तेरहवीं शताब्दी में जैन- गणना लगभग पाँच कोटि थी । आज घटते घटते ग्यारह और बारह लाख के लगभग रह गई है । उक्त अंकनों' से यह सिद्ध है कि जैन बने और जब बढ़े, संख्या बढ़ी ; जब जैन अजैन बनने लगे या बने, संख्या घटी। तब यह भी बहुत सम्भव है कि स्वयंप्रभसूरि आदि अन्य आचार्यों द्वारा जैन बनाये गये कुल और १- मुनि श्री जिनविजयजी और अगरचन्द्रजी नाहटा आदि प्रसिद्ध इतिहास - वेत्ता भी वर्तमान् जैनसमाज के अन्तर्गत जैनकुलों की उत्पत्ति विक्रम की आठवीं शताब्दी से पूर्व की होना स्वीकार नहीं करते हैं । २ - जैनकुलों में प्रतिष्ठित हुए स्त्री-पुरुषों की और चारों वर्णों के जैनधर्म मानने वाले स्त्री-पुरुषों की मिलाकर बीस कोटि संख्या थी ऐसा समझना अधिक संगत है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] :: प्राबाद-इतिहास : [ प्रथम वर्ग भी पुनः विषम परिस्थितियों के वश जैनधर्म छोड़कर अन्य धर्मी बन गये हों। ऐसा ही हुआ था, तब ही तो पुनः २ अजैन कुलों को जैन बनाने का प्रयास करना पड़ा और विक्रम की आठवीं शताब्दी में वह द्रुतवेग से राजस्थान में, मालवा में हुआ। उस ही प्रयास का सुफल वर्तमान् जैनसमाज कहा जा सकता है । अन्यथा अगर ऐसा नहीं होता तो जहाँ एक बार जैन स्त्री-पुरुषों की संख्या बीस कोटि बन जाय, वहाँ फिर घटने का और वह मी इस द्रुतगति से — फिर अन्य कारण क्या हो सकता है । अतः अमर पाँचवीं शताब्दी से अथवा सातवीं, आठवीं शताब्दी से पूर्व जैन बने हुये कुलों की आज विद्यमानता नहीं नजर आती है, अथवा अगर कुछ है भी तो भी वह विश्वसनीय रूप से नहीं मानी जाती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है; जब कि वर्तमान में जो जैनसमाज है, उसके अधिकांश कुलों' की जैनधर्म स्वीकार करने की तिथि विक्रम संवत् की आठवीं अथवा इससे पूर्व की नहीं मिलती है । आठवीं शताब्दी में नये जैनकुलों की मालवा और राजस्थान में जो उत्पत्तियाँ की गई — यह नवीन प्रयास हुआ । वर्तमान् जैनकुलों की उत्पत्ति का इतिहास यहीं से प्रारम्भ हुआ समझना चाहिए उक्त पंक्तियों का यही निष्कर्ष है कि वर्तमान् जैनसमाज की सर्व ज्ञातियाँ विक्रम संवत् की आठवीं नौवीं शताब्दी में और उनके भी पश्चात् उत्पन्न हुई हैं और उनका उत्पत्तिस्थान मालवा और राजस्थान ही अधिकतः है । यह बात वैष्णवमतावलंबी अन्य वैश्यज्ञातियों की उत्पत्ति के विषय में भी मानी जा सकती है कि उनका धर्म स्वीकार करके वैष्णवधर्मी बनकर जैनेतर वैश्य बनना विक्रम की आठवीं शताब्दी में उत्पन्न शंकराचार्य के जैन और बौद्धमत का प्रबल विरोध करने का तथा बाद में रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के उपदेशों का परियाम है अर्थात् वैष्णव वैश्यज्ञातियाँ भी विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में और पश्चात् ही बनी हैं। ई० सन् की आठवीं शताब्दी में श्री हरिभद्रसूरि द्वारा अनेक जैन कुलों को जैन बनाकर प्राग्वा श्रावकवर्ग में सम्मिलित करना । 1 ई० सन् की आठवीं शताब्दी में हरिभद्रसूरि एक महान् पंडित एवं तेजस्वी जैनाचार्य हो गये हैं । ये गृहस्थावस्था में ब्राह्मणकुलीन थे और चित्रकूट (चित्तौड़गढ़) के रहने वाले थे । इन्होंने जैन साधुपन की दीक्षा लेकर जैनागमों का गम्भीर अध्ययन किया था । अपने समय के महान् पण्डित थे । इन्होंने १४४४ ग्रन्थ लिखे थे—ऐसा अनेक ग्रन्थों' में लिखा मिलता है इनके समय में हिन्दूधर्म के मानने वाले सम्राटों का प्रभाव घटना । * कमलकुमार शास्त्री का 'परवारों की उत्पत्ति का विचित्र इतिहास' शीर्षक से 'जैनमित्र' वर्ष ४१, अंक ४, पृष्ठ ६३ पर सचमुच विचित्र ही लेख छपा हुआ था। जिस पर परवारसमाज में भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया था और उक्त लेख का अनेक परवार -पंडितों ने अनेक लेख लिखकर घोर खण्डन और विरोध किया था। श्री नाथूरामजी 'प्रेमी' प्रसिद्ध साहित्यमहारथी का अन्त में २२ पृष्ठों का लम्बा और भ्रमनिवारक लेख 'परवारज्ञाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश' शीर्षक से परवारबन्धु: वर्ष ३-४ अप्रैल मई सन् १६४० पृ० २५ पर प्रकाशित हुआ । उक्त लेख में पृ० ३१ पर 'वैश्यों की करीब २ सभी ज्ञातियाँ राजस्थान से ही निकली हैं', पृ० ३८ पर 'वर्तमान् ज्ञातियाँ नौवी - दसवीं शताब्दी में पैदा हुई होना चाहिये' यादि लिखा है । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति : प्रारम्भ हो गया था और फलतः बामण-धर्म का प्रचार भी पुनः शिथिल पड़ने लग गया था। इन्होंने मालवा और मेवाड़ में अनेक उच्च एवं सुसंस्कृत अजैनकुलों को श्रावकधर्म की दीक्षा देकर जैन बनाये थे और उनको प्राग्वाटवर्ग में सम्मिलित किया था। श्री शंखेश्वरमच्छीय प्राचार्य उदयप्रभसूरि द्वारा विक्रम संवत् ७६५ में श्री भिन्नमालपुर में आठ ब्राह्मण-कुलों को जैन बनाकर प्राग्वाटश्रावकवर्ग में उनका संमिलित करना। मिनमाल के राज्यसिंहासन पर वि० सं० ७१६ में जयंत नामक राजा विराजमान हुआ था। जयंत के पश्चात् उसका छोटा भाई जयवंत वि० सं० ७४६ में राजा बना। उसने श्री शंखेश्वरगच्छीय सर्वदेवसरि के सदुपदेश से भिन्नमाल में जैन राजा भाण जैन-धर्म अंगीकृत किया था। उसके पश्चात् उसका पौत्र भाणजी, जो वना का पुत्र था द्वारा संघयात्रा और कुल- वि० सं० ७६४ में राजा बना। भाण बड़ा प्रतापी राजा हुआ है। उसने गंगा तक गुरुओं की स्थापना अपने राज्य का विस्तार किया था। 'समराईच्चकहानीकर्ता-हरिभद्र जैन परम्परा प्रमाणे विक्रम संवत् ५८५ मा अथवा वीर संवत् १०५५ मा अटले ई० स० ५२६ मा काल पाम्या ! भावी जैन मान्यता ई० स० ना १३ मा सैकानी शरुपात थी नजरे पड़े छ । छता या तारीख खोटी ठराववामा प्रावी हती, कारण के ई० स०६५० मा थयेला धर्मकीर्तिना तात्विक विचारो थी हरिभद्र परिचित हता।' उद्योतन नो 'कुवलयमाला' नाम नो प्राकृतग्रंथ शक संवत् ७०० ना छेल्ले दिवसे भेटले ई० स० ७७६ ना मार्च नी २१ मी तारीखे पुरो पाड़वामा श्राव्यो हतो । 'मा थनी प्रशस्ति मा उद्योतन हरिभद्र ने पोताना दर्शनशास्त्र ना गुरु तरीके जणावे छ।' श्रा उपर थी आपणे श्रे समय, अगर ई०सं०७५० के ते पछीनो समय श्रेमना साक्षरजीवन तरीके लई शकिये-मु०जि०वि० -जै० सा०स० ख०३ अङ्क ३ पृ०२८३-८४. भीलवाड़ा नगर से दक्षिण में लगभग ५ मील के अन्तर पर अभी भी पुर नामक छोटा कस्बा है। गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा आदि कुछ विद्वान् इस ही पुर से प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति के होने का अनुमान करते हैं। मेरे अनुमान से अगर 'पुर' से अजैनों को जैन बना कर प्राग्वाटवर्ग में सम्मिलित किया भी गया हो तो सम्भव है कि यह कार्य श्री हरिभद्रसरि द्वारा ही सम्पन्न हुआ होगा, क्योंकि वे 'पुर से थोड़ी दूरी पर स्थित चित्तौड़गढ़ के निवासी थे और मालवा, राजस्थान और विशेषतः मेवाड़ में उनका अधिक विहार हुआ था। हरिभद्रसरि ने अजैनों को ई० सन् की आठवीं शताब्दी में जैन बना कर उनको प्राग्वाट-श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया, इससे एक आशय यह निकलता है कि मालवा और मेवाड़ में अवश्यमेव श्रीमालवर्ग, श्रोसवालवर्ग की अपेक्षा प्राग्वाटवर्ग का अधिक प्रभाव था । इससे यह और सिद्ध हो जाता है कि अर्बुदाचल से लेकर गोडवाड़ (गिरिवाड़) तक का प्रदेश पुर-जिले से मिला हुआ था और वह प्राग्वाटप्रदेश ही कहा जाता था । गुप्तवंश के राज्य में समूचा राजस्थान सम्मिलित था। बहुत सम्भव है पुर-जिला प्राग्वाट प्रदेश में उस समय में रहा हो । मेदपाट (मेवाड़) को प्राग्वाट प्रदेश भी कहा जाता था, ऐसा कई स्थलों पर लिखा मिलता है। श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र श्रोझा ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के द्वितीय भाग में संवत् १९७८ में एक लेख लिखा है और करनवेल के एक शिलालेख के आधार पर मेदपाट प्रदेश का दूसरा नाम प्राग्वाटप्रदेश होना भी माना है। उक्त लेख के एक श्लोक में मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल, वैरीसिंह के नाम आते हैं और उनको प्राग्वाटप्रदेश का राजा होना लिखा है। 'प्राग्वाटे वनिपाल-भालतिलकः श्रीहंसपालो भवत्तस्माद् । भूभृत्सुदसुत सत्यसमितिः श्री वैरिसिंहाभिधाः॥ श्राप रोहिड़ा से ता० १०-१-१६४७ के कार्ड में लिखते हैं, 'प्राग्वाट' शब्द की उत्पत्ति मेवाड़ के पुर शब्द से है । 'पुर' से "पुरवाड़' और 'पौरवाड़' शब्दों की उत्पत्ति हुई । 'पुर' शब्द मेवाड़ के पुर-जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिये 'प्राग्वाट' शब्द भी लिखा मिलता है।" Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] ...:: प्राग्वाट-इतिहास.. [प्रथम ... भाण राजा. दृढ़ जैन-धर्मी था। उसने नागेन्द्रगच्छीय श्री सोमप्रभाचार्य के सदुपदेश से श्रीशजय, गिरनारतीर्थों की श्री शंखेश्वरगच्छीय कुलगुरु-प्राचार्य उदयप्रभसूरि की अधिनायकता में बड़ी ही सज-धज एवं विशाल संघ के साथ में यात्रा की थी और उसमें अट्ठारह कोटि स्वर्ण-मुद्राओं का व्यय किया था। जब संघपतिपद का तिलक करने का मुहूर्त आया, उस समय यह प्रश्न उठा कि उक्त दोनों प्राचार्यों में से राजा भाण के भाल पर संघपति का तिलक कौन करे । कारण यह था कि उदयप्रभसूरि तो राजा के कुलगुरु होते थे और सोमप्रभसूरि राजा भाण के संसारपक्ष से काका होते थे । अन्त में सर्वसम्मति से उदयप्रभसूरि ने संघपति का तिलक किया। माना जाता है कि तब से ही कुलगुरु होने की प्रथा दृढ़ हो गई और कुलगुरु आचार्य अपने २ छोटे बड़े सब ही श्रावककुलों की सूची रखने लगे और उनका विवरण लिखने लगे। ____कुलगुरुओं की इस प्रकार हुई दृढ़ स्थापना से यह हुआ कि तत्पश्चात् श्रावक कुलों के वर्णन अधिकांशतः लिखे जाने लगे । आज जो कुछ और जैसा भी साधारण श्रावककुलों का इतिहास मिलता है, वह इन्हीं कुलगुरुत्रों की बहियों में है, जिनको 'ख्यात' कहते हैं । श्रावककुलों के वर्णन लिखने की प्रथा का प्रभाव एक दूसरा यह भी कुलगुरुओं की स्थापना का पड़ा कि कुलगुरुओं का वर्णन भी उनसे सम्बन्धित श्रावकों के वर्णन के साथ ही साथ श्रावक के इतिहास पर यथाप्रसंग लिखा जाना अनिवार्य हुआ और धीरे २ कुलगुरुओं की भी पट्टावलियाँ प्रभाव लिखी जाने लगीं । मेरे अनुमान से तीसरा प्रभाव यह पड़ा कि इस के पश्चात् ही प्रतिमाओं पर लेख जो पहिले लोटे २ दिये जाते थे, जिनमें केवल संवत. प्रतिमा का नाम ही संकेतमा अब से बड़े लेख दिये जाने लगे और उनमें प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य का नाम, प्राचार्य का गच्छ, प्राचार्य की गुरुपरंपरा, श्रावक का नाम, ज्ञाति. गोत्र. उपाधि. जन्मस्थान. श्रावक के पूर्वजों का नाम, श्रावक का परिवार और किसके श्रेयार्थ, कब, कहाँ और किसके उपदेश पर वह प्रतिमा अथवा मंदिर प्रतिष्ठित हुआ के धीरे २ उल्लेख बढ़ाये गये। .. श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने सिरोहीराज्य का इतिहास लिखते हुए राजस्थान पर मौर्यवंशी सम्राटों से लेकर वर्तमान् नरेश के कुल तक किस २ वंश के सम्राटों, राजाओं का राज्य रहा के विषय में सविस्तार लिखा है। उन्होंने भिन्नमाल को चीनी यात्री होनसांग के कथन के अनुसार, जो हर्षवर्द्धन के मरण के ठीक पश्चात् ही भारत में आया था स्पष्ट शब्दों में गूर्जरराज्य की राजधानी होना स्वीकार किया है । वे पृ० ११६ पर लिखते हैं कि वि० सं०६८५ ई० सन् ६२८ में ब्रह्मगुप्त ने 'स्फुट ब्रह्म-सिद्धान्त' लिखा, उस समय चापवंशी (चापोत्कट) व्याघ्रमुख नाम का राजा भिन्नमाल (मारवाड़) में राज्य करता था । व्याघ्रमुख के पीछे का भिन्नमाल के चावड़ों का कुछ भी वृतान्त नहीं मिलता। अचलगच्छीय पट्टावली को जब देखते हैं तो व्याघ्रमुख नाम का भिन्नमाल में कोई राजा ही नहीं हुका है। यह हो सकता है कि इस नाम का मारवाड़ में कहीं कोई उन दिनों में राजा रहा होगा। आज भी कुलगुरुओं की राजस्थान, मालवा में अनेक पौपधशालयें हैं, जिनको पौशाल कहते हैं। इन पौषधशालाओं की ऐसी व्यवस्था है कि एक गोत्र के एक ही गच्छ के कुलगुरु होते हैं। एक ही गच्छ के कुलगुरु अनेक गोत्रों के श्रावकों के कुलगुरु हो सकते हैं। जिस पौषधशाला के श्रावककुल दूर २ बसते हैं अथवा बहु संख्या में हैं, उस पौषधशाला की प्रमुख २ स्थानों में शाखायें भी स्थापित हैं, जो प्रमुख शाखा से सम्बन्धित हैं। इन कुलगुरुत्रों के पास में सहस्रों कुलों और गोत्रों की प्राचीन ख्याते हैं। वर्णन की दृष्टि से जिनमें आठवी, नौवीं शताब्दी के और इससे भी पूर्व के वर्णन भी उपलब्ध हो सकते हैं। भारत में जो चमत्कार दिखाने की भावनायें हर एक में बहुत प्राचीनकाल से घर जमाई हुई चली आ रही हैं, उनके कारण श्रावकों की ख्यातों में घटनाओं को कई एक शिथिलाचारी कुलगुरुओं ने अपने श्रावकों को प्रसन्न रखने की भावना से अवश्य बढा चढ़ा कर सम्भवतः लिखा भी होगा। यही कारण है कि आज इन ख्यातों को जो श्रावककुल का सच्चा इतिहास कहलाने का अधिकार रख सकती हैं, शंका की दृष्टि से देखी जाती हैं और . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: वर्तमान जैनकुखों की उत्पत्ति :: [ ३७ भाग राजा के समय में भिन्नमाल अधिक समृद्ध और सम्पन्न नगर था। नगर में अनेक कोटीश और लक्षाधिपति श्रेष्ठिगण रहते थे । इनमें अधिकांश जैन और जैनधर्म के श्रद्धालु थे । भाग राजा स्वयं जैन था और उसके कुलगुरु प्रखर पण्डित तेजस्वी आचार्य उदयप्रभसूरि का पहिले से ही भिन्नमाल के नगरजनों में पर्याप्त प्रभाव था । तात्पर्य यह है कि भिन्नमालनगर में भाग राजा के राज्यसमय में जैनधर्म और जैनसमाज का प्रभुत्व था । अनुक्रम से विहार करते हुये श्री उदयप्रभसूरि वि० सं० ७६५ में भिन्नमालनगर में पधारे और अति प्रतिष्ठित एवं कोटिपति बासठ श्रीमालब्राह्मणकुलों को तथा तत्पश्चात् आठ प्राग्वाट - ब्राह्मण कुलों को फाल्गुण शुक्ला द्वितीया को प्रतिबोध देकर जैन श्रावक बनाये । श्रीमाल - ब्राह्मणकुलों को जैन बनाकर श्रीमाल श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया और आठ प्राग्वाट ब्राह्मण कुलों को जैन बनाकर प्राग्वाट - श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया, जिनके मूल पुरुषों के नाम और गोत्र इस प्रकार हैं: समधर और उसके पुत्र नाना और अन्य सात प्रतिष्ठित ब्राह्मणकुलों का प्राग्वाट श्रावक बनना. १ काश्यपगोत्रीय श्रेष्ठ नरसिंह माधव २ पुष्पायन ३ आग्नेय ४ वच्छस ५ पारायण गोत्रीय श्रेष्ठ नाना ६ कारि नागड़ ७ वैश्यक राममल्ल 19 ८ मार 19 "" अनु उक्त आठ कुलो' के जैन बनने और प्राग्वाट - श्रावकवर्ग में सम्मिलित होने की घटना को अंचलगच्छीय पट्टावली में इस प्रकार लिखा है: 17 17 " " जूना " माणिक "" 17 27 "" भिन्नमाल में श्रीमालब्राह्मलज्ञातीय पारायण (पापच) मोत्रीय पाँच कोटि स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी समधर श्रेष्ठि रहता था । उसके नाना नाम का पुत्र था । नाना का पुत्र कुरजी था । कुरजी पर सिकोतरीदेवी का प्रकोप था, अतः वह सदा बीमार रहता था। वह धीरे धीरे २ इतना कृश और रुग्ण हो गया था कि उसकी मृत्यु संनिकट-सी आ गई थी। ठीक इन्हीं दिनों में श्री शंखेश्वरगच्छीय आचार्य उदयप्रभसूरि का भिन्नमाल में पदार्पण हुआ । नाना श्रेष्ठ उक्त आचार्य की प्रसिद्धि को श्रवण करके उनके पास में गया और वंदना करके उसने अपने दुःख को इनमें लिखे वर्णनों में बहुत कम लोग विश्वास करते हैं । फिर भी इतना तो अवश्य है कि उन ख्यातों में जो भी लिखा है, वह न्यूनाधिक घटना रूप से घटा है । भाणराजा का वर्णन, उसकी संघयात्रा, कुलगुरुओं की स्थापना और उसके कारण तथा श्रावककुल के इतिहास के लिखने की प्रथा का प्रारम्भ होना आदि अलग पट्टावली से उपलब्ध है । अञ्चलगच्छ-पट्टावली को विधिपक्षगच्छीय 'महोटी पट्टावली' भी कहा जाता है। यह छः भागों में पूर्ण हुई हैं । १ - उक्त पट्टावली का लिखना श्री स्कंदिलाचार्य के शिष्य श्री हिमवंताचार्य ने प्रारम्भ किया था। उन्होंने वि० सं० २०२ तक अपने उक्त गुरु के निर्वाण तक का वर्णन लिखा है। यह प्रथम भाग कहलाता है। २ - वि० सं० २०२ से १४३८ तक का वर्णन द्वितीय भाग कहलाता है, जिसको संस्कृत में मेरुतुंगसूरि ने लिखा है । ये आचार्य बड़े विद्वान् थे । इन्होंने 'बालबोध-व्याकरण, शतकभाष्य, भावकर्म प्रक्रिया, जैनमेघदूत काव्य, नमुत्थों की टीका, सुश्राद्धकथा, उपदेशमाला की टीकादि अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे हैं । ३ - वि० सं० १४३८ से वि० सं० १६१७ में हुए धर्ममूर्त्तिसूरि ने गुणनिधानसूरि तक वर्णन लिखा है । यह तृतीय भाग है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम आचार्यश्री से निवेदन किया । आचार्य ने कहा कि अगर तुम सपरिवार श्रावकधर्म को अंगीकृत करो और कुरजी को हमको शिष्य रूप से अर्पित करो तो तुम्हारा पुत्र स्वस्थ और चिरंजीव बन सकता है। नाना ने आचार्यश्री के कथन को मानकर जैनधर्म स्वीकार किया और कुरजी को स्वस्थ होने पर दीक्षा देने का वचन दिया । आचार्यश्री ने मंत्रबल से सिकोतरीदेवी को कुरजी के शरीर से बाहिर निकाल दिया । कुरजी का अब स्वास्थ्य दिन - दिन सुधरने लगा और थोड़े ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया । कुरजी जब पूर्ण स्वस्थ हो गया तो आचार्यश्री ने उसको भागवतीदीक्षा देने का विचार किया । कुरजी का विवाह स्थानीय किसी श्रेष्ठि की कुमारी से होना निश्चित हो चुका था। जब कुरजी की दीक्षा देने के समाचार उक्त कुमारी को प्राप्त हुये, वह उपाश्रय में आचार्यश्री के समक्ष जाकर प्रार्थना करने लगी कि कुरजी उसका भविष्य में पति बनने वाला है, उसको अतः दीक्षा देना मुझ निरपराध बाला पर अन्याय करना है। इस पर आचार्यश्री ने उक्त कुमारी से कहा कि उसका रोग श्रावकधर्म स्वीकार करने से दूर हो गया है, अतः अगर वह भी और उसके माता, पिता सपरिवार श्रावकधर्म स्वीकार करें, तो कुरजी को दीक्षा नहीं दी जावेगी और उसको उसके माता-पिता को पुनः अर्पित कर दिया जावेगा । कुमारी ने उक्त बात से अपने माता-पिता को अवगत किया । कुमारी का पिता भी जैनधर्म का श्रद्धालु और अत्यन्त धनी और महाप्रभावक पुरुष था । उसने तुरन्त जैनधर्म अंगीकृत करना स्वीकार किया । १ पारायणगोत्रीय श्रेष्ठि नाना, २ पुष्पायनगोत्रीय श्रे० माधव, ३ अग्निगोत्रीय श्रे० जूना, ४ वच्छसगोत्रीय श्रेष्ठ माणिक, ५ कारिसगोत्रीय श्रे० नागड़, ६ वैश्यकगोत्रीय श्रे० रायमल्ल ७ मादरगोत्रीय श्रे० अनु इन सातों पुरुषों ने अपने सातों परिवारों के सहित एक साथ जैनधर्म स्वीकार किया । आचार्यश्री ने उनको वि० सं० ७६५ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को जैन बनाया और उनको प्राग्वाट श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया । 1 राजस्थान की अग्रगण्य कुछ पौषधशालायें और उनके प्राग्वाटज्ञातीय श्रावककुल गोडवाड़ - प्रान्त कासेवाड़ी ग्राम बालीनगर से थोड़े कोशों के अन्तर पर ही बसा हुआ है । यहाँ की पौषधशाला* राजस्थान की अधिक प्राचीन पौषधशालाओं में गिनी जाती है । इस पौधशाला के भट्टारकों के आधिपत्य में ओसवाल और प्राग्वाट ज्ञाति के कई एक कुलों का लेखा है । जिनमें • सेवाड़ी की कुलगुरु-पौषधशाला प्राग्वाटज्ञाति के संख्या में चौदह (१४) गोत्र हैं । इनं गोत्रों के कुल अधिकांशतः गोडवाड़प्रान्त के बाली और देसूरी के प्रगणों में बसते हैं । कुछ के परिवार अन्य प्रांतों में भी जाकर बस गये हैं। और कुछ नामशेष भी हो गये हैं । ४ - वि० सं० १७४३ में श्री अमरसागरसूरि ने चौथा भाग लिखा । ५- वि० सं० १८२८ में सूरत में उपा० ज्ञानसागरजी ने पांचवा भाग लिखा । ६ - वि० सं० १६८४ में मुनि धर्मसागरजी ने छट्टा भाग लिखा । * गोत्रों की सूचि उक्त पौधशाला के भट्टारक कुलगुरु मणिलालजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] :: वर्तमान वैनों की उत्पत्ति :: ५ – कुंडालसागोत्र चौहाण, ६ - डीडोलचा गोत्रीय, १३ - गीतगोत्र, १ - कालिंद्रामत्र चौहाण, २ - कुंडलगोत्रीय देवड़ा चौहाण, ३- हरयगोत्र चौहाण, ६ –तुंगीयानागोत्र चौहाण, १० - श्रानन्दगोत्रीय, १४- धारगोत्रीय | उक्त गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध समय विक्रम की सातवीं शताब्दी से पूर्व की शताब्दियों के वर्ष बतलाये जाते हैं । के कई एक श्रावककुलों का लेखा है: घाणेराव नाम का नगर मरुधरप्रान्त के गोडवाड़ (गिरिवाट ) नामक भाग में बसा हुआ है। यहाँ एक कुलगुरु पौषधशाला विद्यमान है । यह इस प्रान्त की प्राचीन शालाओं में गिनी जाती है। यह पौषधशाला अभी घाणेराव की कुलगुरु-पौषध- कुछ वर्ष पूर्व हुये भट्टारक किस्तूरचन्द्रजी के नाम के पीछे श्री भट्टारक किस्तूरचन्द्रजी की पौधशाला कहलाती है । इस पौषधशाला के भट्टारक ओसवाल एवं प्राग्वाट ज्ञाति के कुलगुरु हैं । इनके आधिपत्य में प्राग्वाट ज्ञातीय निम्नलिखित २६ (छब्बीस) गोत्रो * शाला १ भडलपुरा सोलंकी, ५ दुगड़गोत्र सोलंकी, ७ - कुंडलगोत्रीय, ११ - विशालगोत्रीय, २ वालिया सोलंकी, ३ कुम्हारगोत्र चौहाण, ६ मुदड़ीया काकगोत्र चौहाण, ७ लांगगोत्र चौहाण, १० वड़ग्रामा सोलंकी, ११ अंबावगोत्र परमार, १५ साकरिया सोलंकी, बड़वाणिया पंडिया, १३ कछोलियावाल चौहाण, १४ कासिद्रगोत्र तुमर, [ ७- चन्द्रयो परमार ८- प्रविनोत्रीय, १२ - बाघरेचा चौहाण, १७ कासबगोत्र राठोड़ २० जावगोत्र चौहाण २३ तवरेचा चौहाण ४ भुरजभराणिया चौहाण, ८ ब्रह्मशांतिगोत्र चौहाय, १२ पोसनेचा चौहाण, १६ ब्रह्मशांतिगोत्र राठोड़ । इम उपरोक्त सोलह गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध - समय विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं । १८ मखाडिया सोलंकी २१ हरुमात्र सोलंकी २४ बूटा सोलंकी २५ सपरसी चौहाण इन ग्यारह गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध समय विक्रम की दशमी शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं । १६ स्याणवाल गहलोत २२ निवजिया सोलंकी २६ खिमाणदी परमार - इस गोत्र के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुष का प्रतिबोध-वर्ष विक्रम की बारहवीं शताब्दी के चतुर्थ भाग में बतलाया गया है । यद्यपि आज के युग में जैनयति वैसे तेजस्वी और प्रसिद्ध विद्वान् नहीं भी हों, परन्तु उनका मंत्रबल तो आज भी माना जाता है और अनेक रोग उनके मंत्रबल से दूर होते सुने गये हैं। जब कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के प्रबल विरोध के फलस्वरूप और उनको राजाश्रय जो प्राप्त हुआ था, उसके कारण जब स्थल २ ग्राम, नगर में लोग पुनः वेदमत अथवा वैष्णवधर्म स्वीकार करने लगे, उस समय जैनाचार्यों ने मंत्रबल, देवी सहाय एवं चमत्कार - प्रदर्शन की विद्याओं का सहारा लेकर श्रावककुल की अन्यमती बनने से बहुत अंशों में रक्षा की थी और कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के मरण पश्चात् पुनः अनेक अन्यमती नये कुलों को श्रावकधर्म में दीक्षित किया था, यह बात प्रत्येक जैन, जैन इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं। * इन गोत्रों की सूची मणिलालजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:. : [प्रथम इन गोत्रो के कुल अधिकतर मोडवाड़, जालोर के प्रगणों में ही बसते हैं । कई एक कुलों के गोत्र मालवा, गुजरात के प्रसिद्ध नगरों में भी जाकर बस गये हैं। सिरोही (राजस्थान) में एक माहड़गच्छीय कुलगुरुपौषधशाला विद्यमान है ।१ इस पौषधशाला के भट्टारक भोसवाल एवं प्राग्वाटज्ञाति के कई एक श्रावककुलों के कुलगुरु हैं। इनके आधिपत्य में प्राग्वाट-ज्ञातीय निम्नसिरोही की कुलगुरु-पौषध- 'लिखित ४२ (बयालीस) गोत्रों का लेखा है। इन गोत्रों के कुल अधिकांशतः सिरोहीशाला राज्य में और मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के गोडवाड़ (बाली और देसूरी-प्रगणा), जालोर, भिन्नमाल, जसवन्तपुरा, गढ़सिवाणा के प्रगणों में वसते हैं । कुछ कुल मालवान्तर्गत के रतलाम, धार, देवास जैसे प्रसिद्ध नगरों और उनके प्रगणों में भी रहते हैं। १ वांकरिया चौहास . २ विजयानन्दगोत्र परमार . ३ गौतमगोत्रीय ४ स्वेतविर परमार ., ५ धुणिया परमार.. ६ विमलगोत्र परमार .७ रत्नपुरिया चौहाण ८ पोसीत्रागोत्रीय ६ गोयलगोत्रीय १० स्वेतगोत्र चौहाण ११ परवालिया चौहाण १२ कुंडलगोत्र परमार १३ ऊड़ेचागोत्र परमार १४ भुणशखा परमार १५ मंडाडियागोत्रीय १६ गूर्जरगोत्रीय १७ भीलड़ेचा बोहरा १८ नवसरागोत्रीय . १६ रेवतगोत्रीय २० डमालगोत्रीय २१ नागगोत्र बोहरा .. २२ वर्द्धमानगोत्र बोहरा २३ डणगोत्र परमार २४ विशाला परमार १५ बीबलेचा परमार. २६ माढ़रगोत्रीय २७ जाबरिया परमार २८ दताणिया परमार २६ मांडवाड़ा चौहाण ३० काकरेचा चौहाण ३१ नाहरगात्र सोलंकी ३२ वोराराठोड़ मंडलेचा ३३ कुमारगोत्रीय ३४ घीणोलिया परमार ३५ मलाणिया परमार , ३६ कासवगोत्र परमार ३७ वसन्तपुरा चौहाण ३८ नागगोत्र सोलंकी इन उपरोक्त अड़तीस गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं। ३६ आंवलगोत्र कोठारी ४० बायागोत्रीय ४१ वोरागोत्रीय ४२ कोलरेचागोत्रीय . इन चार गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय जिनमें, नथम एक का विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में और शेष तीन के वर्ष बारहवीं शताब्दी में बतलाये जाते हैं । वाली नामक नगर मरुधरप्रदेश के गोडवाड़ (गिरिवाट) नामक प्रान्त में बसा हुआ है । यहाँ भी एक कुलगुरु-पौषधशाला विद्यमान है ।२ इस पौषधशाला के भट्टारक ओसवाल और प्राग्वाटज्ञाति के कई एक श्रावककुलों बाली की कुलगुरु-: के कुलगुरु हैं । इनके आधिपत्य में प्राग्वाटज्ञातीय निम्नलिखित ८ (आठ ) गोत्रों का पौषधशाला ... लेखा है । इन गोत्रों के कुल भी अधिकतर बाली, देसूरी के प्रगणों में ही बसते हैं। १-उक्त गोत्रों की सूची उक्त पौषधशाला के भट्टारक कुलगुरु श्री रत्नचन्द्रजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है। २-गोत्रों की सूची उक्त पौषधशाला के भट्टारक कुलगुरु मियाचन्दजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट अथवा पौरवालशासि और उसके भेद :: १ रावसगोत्रीय, २ अंबाईगोत्रीय, ३ ब्रह्मशतागोत्रीय चौहाण इन तीनों गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं : ४ जैसलगोत्र राठोड़, ५ कासबगोत्र, ६ नीबगोत्र चौहाण, ७ साकरिया चौहाण, ८ फलवधागोत्र परमार। इन पाँचों गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के वर्ष बतलाये जाते हैं । प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद प्राग्वाटश्रावकवर्ग आज पौरवालज्ञाति कहलाता है। प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग ५७ (५२) वर्ष श्री पार्श्वनाथ-संतानीय श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि ने भिन्नमाल और प्राग्वाट अथवा पोरवालवर्ग पद्मावती में की थी। श्रीमालश्रावकवर्ग की भी उत्पत्ति उक्त आचार्य ने उस ही का जैन और वैष्णव पौर- समय में की थी। इन आचार्य के निर्वाण पश्चात् श्रावकवर्ग की उत्पत्ति और वृद्धि का वालों में विभक्त होना कार्य पश्चाद्वर्ती जैनाचार्यों ने बड़े वेग से उठाया और वह बराबर वि० सं० पूर्व १५० वर्ष तक एक-सा उन्नतशील रहा । गुप्तवंश की अवंती में सत्ता-स्थापना से वैदिकमत पुनः जाग्रत हुआ । अब जहाँ अजैन जैन बनाये जा रहे थे वहाँ जैन पुनः अजैन भी बनने लगे । जैन से अजैन बनने का और अजैन से जैन बनने का कार्य वि० सातवीं-आठवीं शताब्दियों में उद्भटविद्वान् कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के वैदिक-उपदेशों पर और उधर, जैनाचार्यों के उपदेशों पर दोनों ही ओर खूब हुआ। रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के वैष्णवमत के प्रभावक उपदेशों से अनेकों जैनकुल वैष्णव हो गये थे। इसका परिणाम यह हुआ कि वैश्यवर्गों में भी धीरे २ वैदिक और जैनमत दोनों को मानने वाले दो सुदृढ़ पक्ष हो गये । उसी का यह फल है कि आज भी वैष्णव पौरवाल और जैन पोरवाल, वैष्णव खंडेलवाल और जैन खंडेलवाल, वैष्णव अग्रवाल और जैन अग्रवाल विद्यमान ___ अन्य कई एक पौषधशालाओं से भी इस सम्बन्ध में निरन्तर पत्रव्यवहार किये; परन्तु अनेक ने गोत्रों की सूची नहीं दी। श्रतः अधिक प्रकाश डालने में विवशता ही है। सेवाड़ी, घाणेराव और बाली तीनों ही राजस्थान के मरुधरप्रान्त के विभाग गोडवाड़ (गिरिवाड़) के प्रमुख एवं प्राचीन नगर हैं। सिरोही अपने राज्य की राजधानी रही है । ये चारों ही ग्राम, नगर भूतकाल में प्राग्वाटप्रदेश के नाम से विश्रत रहे क्षेत्र में ही वसे हुये हैं। अतः प्राग्वाट-श्रावककुलों का विवरण रखने वाली इन पौषधशालाओं का प्राग्वाट-इतिहास की दृष्टि से महत्त्व बढ़ जाता है। 'प्राग्वाट' शब्द के स्थान में पोरवाल' शब्द का प्रयोग कब से चालू हुआ यह कहना अति ही कठिन है। ठेट से 'प्राग्वाट' लिखने में और 'पौरवाल' बोलचाल में व्यवहृत हुआ है। लेखक पण्डित और विद्वान् होते हैं और बोलचाल करने वाले पण्डित और Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय हैं इसी प्रकार प्राग्वाटवर्ग भी दोनों मतों में विभक्त हो गया। जैन पौरवाल और वैष्णव पौरवाल दोनों विद्यमान हैं । भगवान् महावीर के निर्वाण पश्चात् और ईसवी शताब्दी आठवीं के मध्यवर्ती समय में अर्थात् हरिभद्रसूरि के युगप्रधानपद तक बने हुये जैन और जैनकुल, जैसा लिखा जा चुका है ई० सन् से पूर्व लगभग तीन सौ वर्षों तक किन २ कुलों से वर्तमान् जैन तो प्रथम संख्या में बढ़ते ही गये; परन्तु पश्चाद्वर्त्ती वर्षों में घटने लगे और बीस कोटि प्राग्वटवर्ग की उत्पत्ति हुई संख्या से ७ या ६ कोटि ही रह गये। जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि श्रावक अथवा जैनकुल वे ही कुल बनाये गये थे, जिनकी उच्चवृत्ति थी और जैनधर्म जैसे कठिन धर्म को कुलमर्यादापद्धति से पाल सकते थे अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्गों में से प्रतिबोध पाये हुये वे जैनकुल बने थे । व यह कहना अति ही कठिन हैं कि वर्तमान् जैन वैश्यसमाज के अन्तर्गत जो कुल विद्यमान हैं, उनमें कौन २ कुल उनकी सन्तानें हैं । प्राचीनतम शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्रशस्तियों और कुलगुरुयों की ख्यातों के प्रामाणिक अंशों से तो वर्तमान् जैनकुलों में विक्रम की पाँचवीं-बट्टी शताब्दी से पूर्व जैन बने हुये कुल कठिनतया ही देखने में आते हैं अर्थात् अधिकांशतः बाद में जैन बने कुलों के वंशज हैं। बाद में जैन बने कुलों' अथवा गोत्रों की ख्यातें प्रायः उपलब्ध हैं । इन ख्यातों में लिखे हुये वर्णनों की सत्यता में इतिहासकार कुछ कम विश्वास करते हैं, परन्तु फिर भी इतना तो नहीं माना जायगा कि सब ही ख्यातों का एक-एक अक्षर ही झूठ है । घटनाओं का वर्णन भले ही बढ़ा-चढ़ाकर किया गया हो, परन्तु व्यक्तियों का नाम निर्देश और समय तथा वर्षों के अंकन सर्वथा कल्पित तो नहीं हैं । उपलब्ध चरित्र, ताम्रपत्र, प्रशस्ति, शिलालेखों से, ख्यातों से और वर्तमान जैनकुलों के गोत्रों के नामों से तथा उनके रहन-सहन, संस्कार, संस्कृति, आकृति, कर्म, धन्धों से स्पष्टतया और पूर्णतया सिद्ध है कि ये कुल वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणकुलोत्पन्न हैं । जैसा लिखा जा चुका है कि मूल में जैनसमाज एक वर्णविहीन अथवा ज्ञातिविहीन संस्था है । आज इसमें मी अनेक श्रावकदल हैं, जो ज्ञातियाँ कहलाते हैं, परन्तु इन श्रावकदलों के कुलों ने मूलवर्ण अथवा ज्ञाति का ज्ञाति, गोत्र और अटक परित्याग करके जैनधर्म स्वीकार किया था यह स्मरण रखने की वस्तु हैं । वैष्णव- ज्ञातियों तथा नखों की उत्पत्ति और के अनुसार इन श्रावकदलों ने भी कालान्तर में धीरे २ वैसे ही ज्ञाति के नियमों को उनके कारणों पर विचार स्वीकार करके अपनी २ सचमुच आज ज्ञाति बनाली हैं। ऐसे श्रावकदलों में प्राग्वाट - अनपढ़ दोनों हैं । विद्वान् एक समय में होवे और अनपढ़ दूसरे समय में ऐसा आज तक नहीं सुना गया। दोनों देह -छाया की तरह साथ ही साथ रहते, जीते, वसते हैं। अतः मेरी मम्मति में दोनों शब्दों का व्यवहार भी साथ-साथ ही होता रहा है । प्राग्वाट 'शब्द' का व्यवहार लेखनकला का आधार पाकर प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों के द्वारा अपने प्रयोग की यथाप्राप्त तिथियों की सूचि दे सकता है । 'पौरवाल' शब्द बोलचाल में प्रयुक्त हुआ है, अतः उसके प्रयोग की तिथियों की सूची तैयार नहीं की जा सकती । कुतर्क को यहां स्थान नहीं है कि आज पौरवाल कहे जाने वाले 'प्राग्वाट' लिखे गये व्यक्तियों से भिन्न ज्ञातीय हैं। 'प्राग्वाट' संस्कृत शब्द है और 'पोरवाल' शब्द बोलचाल का है। दोनों के अन्तर का यही कारण है; बाकी दोनों शब्द एक ही वर्ग अथवा ज्ञाति के परिचायक अथवा नाम हैं और यह निर्विवाद है तथा दोनों का प्रयोग भी साथ-साथ होता आया है—एक का विद्वानों द्वारा और दूसरे का सर्व साधारणजन द्वारा । 'पौरवाल' शब्द राजस्थानी में मारवाड़ी भाषा का शब्द है । इससे यह और सिद्ध है कि पौरवाल ज्ञाति का राजस्थान से घनिष्ट ही नहीं उसकी उत्पत्ति से गहरा सम्बन्ध रहा हुआ है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: [४३ श्रावकदल भी एक है, जो आज प्राग्वाट-ज्ञाति कहलाता है। यह श्रावकदल अनेक विभिन्न २ उच्च कुलों का समुदाय है । इसके अधिकांश कुल वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण ज्ञातियों में से बने हैं। इसके वंशों एवं कुलों के गोत्रों के नाम अपने २ मूलक्षत्रिय-गोत्र अथवा ब्राह्मण-गोत्रों के नामों पर ही पड़े हुये हैं। जैसे प्राग्वाटज्ञातीय-काश्यपगोत्रीय, चौहानवंशीय । फिर कुलों की अटकें भी बनी हुई हैं, जिनकी उत्पत्ति के कई एक विभिन्न कारण हैं । एक वंश से उत्पन्न कुलों की भी कई भिन्न २ अटके हैं। जैसे 'सोलंकी-वंश' के कई कुलों ने भिन्न २ समय, परिस्थिति, स्थान पर भिन्न २ जैनाचार्यों द्वारा प्रतिबोध प्राप्त करके जैनधर्म स्वीकार किया तो उनमें किसी कुल की अटक प्रसिद्ध मूलपुरुष, जिसने अपने कुल में सर्व प्रथम जैनधर्म सपरिवार स्वीकार किया था के नाम पर पड़ी, जैसे 'बूटासोलंकी' अर्थात् जैनधर्म स्वीकार करने वाला मूलपुरुष सोलंकीवंशीय बूटा था तो 'सोलंकी' गोत्र रहा और 'बूटा' अटक पड़ गई । किसी कुल की, जिस ग्राम में अथवा स्थान पर उसने जैनधर्म स्वीकार किया था उस ग्राम के नाम पर, जैसे 'बड़गामा सोलंकी' अर्थात् इस कुल ने बड़ग्राम में जैनधर्म स्वीकार किया अतः 'बड़गामा' अटक हुई । इसी प्रकार 'निम्बजिया सोलंकी'-इस कुल ने नीमवृक्ष के नीचे प्रतिबोध ग्रहण किया था, अतः यह कुल इस 'निम्बजिया' अटक से प्रसिद्ध हुआ। ऐसे ही अन्य कुलों की अटकों की भी उत्पत्तियाँ हुई। नखों की उत्पत्ति प्रायः धंधों पर पड़ी है, जैसे सुगन्धित द्रव्यों इत्तरादि का धन्धा करने से 'गांधी' नख उत्पन्न हुई । आज प्राग्वाटज्ञाति को हम गुजरात, सौराष्ट्र (काठियावाड़), मालवा, मध्यभारत, राजस्थान आदि प्रायः भारत के मध्यवर्ती सर्व ही प्रदेशों, प्रान्तों में वसती हुई देखते हैं । इस ज्ञाति के लोग उक्त भागों में अपने मूलस्थानों प्राग्वाटज्ञाति में शाखाओं से विभिन्न २ समयों में विभिन्न कारणों से, सम-विषम परिस्थितियों के वशीभूत हो की उत्पत्ति. कर उनमें जाकर वसे हैं और कई एक कुल तो उनमें वहीं उत्पन्न हुये हैं। किसी भी ज्ञाति के कुल अथवा उसके अनेक कुलों का समुदाय जब अपने मूल जन्मस्थान अथवा कई शताब्दियों के निवासस्थान का त्याग करके अन्य किसी नवीन भिन्न प्रांत, प्रदेश में जा कर अपना स्थायी निवास बनाता है, उस दूसरे प्रांत, प्रदेश का नाम भी उन कुलों की ज्ञाति के नाम के साथ में कभी २ जुड़ जाता है । प्राग्वाट-श्रावकवर्ग ठेट से समृद्ध और व्यापार-प्रधान रहा है। सम-विषम एवं अति कठिन और भयंकर परिस्थितियों में अतः इस ज्ञाति के कुलों को अपना कई वर्षों का वास त्याग करके अन्यत्र जा कर वसना पड़ा है । मूलस्थान में रही हुई ज्ञाति के कुलों में और अन्य प्रान्त में जाकर स्थायी वास बना लेने वाले उस ज्ञाति के कुलों में कुछ पीढ़ियों तक तो परिचय बना रहता है; परन्तु धीरे २ वह धीमा पड़ने लगता है और अंत में अन्य प्रांत में जाकर वसने वाले कुलों का समुदाय एक अलग शाखा का रूप और नाम धारण कर लेता है और वह प्रसिद्ध बन जाता है। प्राग्वाटज्ञाति इस प्रकार पड़ी हुई निम्न प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध शाखाओं में विभक्त देखी जाती है । जिनमें केवल भोजन-व्यवहार होता है, कन्या-व्यवहार बिलकुल नहीं। कन्या-व्यवहार कब से बंद हुआ, यह कहना अति ही गोत्र, अटक, नखों के आगे के पृष्ठों में विस्तृत वर्णन मिलेंगे, अतः यहाँ इनकी सूची देना अथवा इन पर यही लिख जाना अनावश्यक है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम्बाद-इतिहास:: [ प्रथम कठिन है। इतना अवस्य है कि जब अन्य वर्णों एवं वर्गों की पेटाझातियों की अन्तरशाखाओं में परस्पर कन्याव्यवहार बन्द होने लगा होगा। उस समय के आस-पास प्राग्वाटज्ञाति की शाखाओं में भी वह बन्द हुआ समझना चाहिये। १ सौरठिया-पौरवाल २ कपोला-पोरवाल ३ पद्मावती-पोरवाल ४ गूर्जर-पोरवाल ५ जांगड़ा-पौरवाड़ ६ नेमाड़ी और मलकापुरी-पौरवाल ७ मारवाड़ी-पौरवाल ८ पुरवार है परवार सौरठिया और कपोला-पोरवाल इस ज्ञाति के कौन कुल और कब किस-किस प्रदेश, प्रान्त में जाकर वसे, इतिहास में इसकी कोई निशित तिथि और संवत् उपलब्ध नहीं है । भिन्नमाल गूर्जरदेश का पाटनगर रहा है और यह नगरी तथा प्राग्वाट-प्रदेश गूर्जरभूमि से जुड़ा हुआ है। सम-विषम परिस्थितियों में एक-दूसरे प्रान्तों में जाकर कुल वसते रहे हैं। अवंतीसम्राट् नहपाण की मृत्यु के पश्चात् उसके दामाद ऋषभदत्त ने जब जूनागढ़ को भिन्नमाल के स्थान पर अपनी राजधानी नियुक्त किया था, तब और विक्रम की तृतीय, आठवीं शताब्दी और बारहवीं शताब्दी के (११११) प्रारम्भ के वर्षों में भिन्नमाल और प्राग्वाट-प्रदेश के ऊपर बाहर की ज्ञातियों के भयंकर आक्रमण हुये तब भिन्नमाल, पद्मावती तथा प्राग्वाटदेश के अन्य स्थानों से कुलों के दल के दल अपने जन्मस्थान का परित्याग करके मालवा, सौराष्ट्र, गुजरात में जाकर बसे हैं । ____ऊपर की पंक्तियों से इतना ही श्राशय यहाँ ले सकते हैं कि प्राग्वाट-प्रदेश तथा भिन्नमाल के ऊपर जब जब आक्रमण हुये तथा राज्यपरिवर्तन हुआ, इन स्थानों से तब-तब अनेक कुल अन्य स्थानों में जा-जा कर बसे हैं । उन वसने वालों में प्राग्वाट-ज्ञातीयकुल भी थे। जो प्राग्वाट-ज्ञातीयकुल सौराष्ट्र एवं कुंडल-महास्थान में जाकर स्थायी रूप से वस गये थे, वे आगे जाकर सौराष्ट्रीय अथवा सौरठिया-पोरवाल और कुण्डलिया तथा कपोला-पोरवाल कहलाये। मेरे अनुमान से सौराष्ट्र और कुण्डल में जो अभी सौरठिया, कपोला-पौरवालों के कुल बसे हुये हैं, वे विक्रम की आठवीं शताब्दी के पश्चात् जाकर वहाँ बसे हैं, जब कि अणहिलपुरपत्तन की वनराज चावड़ा ने नींव डाल कर अपने महाराज्य की स्थापना की थी और निन्नक को जो पौरवालज्ञातीय था अपना महामात्य बनाया खलीफा हसन के समय सिंध के हाकिम जुनेदे ने भिन्नमाल पर पाकमण किया था। -सुधा' वर्ष २ खण्ड १ सं० १ श्रावण पृ०६ 'गालवा स्थापिता ह्यते गालवाः सन्तुनामतः। तखापि कपोलाख्याः कपोलाद्भुतकुण्डलाः॥ प्राग्वाटा: सुरभिख्याता गुरुदेवार्चने रताः । येषां प्राग्वाटा भवेद्वाडो (१) महीपस्थापनात्मकः ।। ते प्राग्वाटा अभिज्ञेयाः सौराष्ट्रा राष्ट्रवर्द्धनाः ।....." -स्कंधपुराण Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड ] :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: [ ४ था । भिन्नमाल और प्राग्वाटदेश पर वि० सं० १९११ में यवनों का भयंकर आक्रमण हुआ था और उन्होंने भिन्नमाल और उसके श्वास-पास के प्रदेश को सर्वनष्ट कर डाला था, उस समय अनेक श्रावककुल अपने जन-धन का बचाव करने के हेतु मूलस्थानों का त्याग करके गुजरात, सौराष्ट्र और मालवा में जाकर बसे थे। जो प्राग्वाटज्ञातीय थे आज गूर्जर - पौरवाल, सौरठिया - मौस्वाल, मालवी - पौरवाल कहे जाते हैं। उनको वहाँ जाकर बसे हुये आज नौ सौ वर्षों के लगभग समय व्यतीत हो गया है । उनका अपने मूलस्थान में रहे हुये अपने सज्ञातीयकुलों से आवागमन के सुविधाजनक साधनों के अभाव में सम्बन्ध कभी का टूट चुका था और वे श्रम स्वतन्त्र शाखाओं के रूप में सौरठिया - पौरवाल, कपोला- पौरवाल, गूर्जर - पौरवाल और मालवी - पौरवाल कहे जाते हैं। इन शाखाओं में प्रथम दो शाखाओं के नाम तो चिरपरिचित और प्रसिद्ध हैं और शेष दो शाखाओं के नाम कम प्रसिद्ध हैं । गूर्जर-परवाल गूर्जर- पौरवाल वे कहे जाते हैं, जो अहमदाबाद, पालनपुर, अणहिलपुर, धौलका आदि नगरों में इनके आस-पास के प्रदेश में बसे हुये हैं। ये कुल विक्रम की आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी के अन्तर में वहाँ जाकर बसते रहे हैं और इसका कारण एक मात्र यही है कि गुर्जर सम्राटों के अधिकतर महामात्यपदों पर और अन्य अति प्रतिष्ठित एवं उत्तरदायीपदों पर प्राग्वाटज्ञातीय पुरुष आरूढ़ होते रहे हैं। अकेले काश्यप गोत्रीय निन्नक के कुल की आठ पीढ़ियों ने वनराज चावड़ा से लगाकर कुमारपाल सम्राट् के राज्य- समय तक महामात्यपदों पर, दंडनायक जैसे अति सम्मानित पदों पर रहकर कार्य किया है । महामात्य निन्नक, दण्डनायक लहर, धर्मात्मा मन्त्रीवीर, गूर्जर - महाबलाधिकारी विमल, गूर्जर महामात्य - सरस्वतीकंठाभरण वस्तुपाल, उसका भ्राता महाबलाधिकारी दंडनायक तेजपाल जैसे प्राग्वाटवंशोत्पन्न अनेक महापुरुषों ने गूर्जर सम्राटों की और गूर्जर-भूमि की कठिन से कठिन और भयंकर परिस्थितियों में प्राणप्रण एवं महान् बुद्धिमत्ता, चतुरता, भक्ति एवं श्रद्धा से सेवायें की हैं । गूर्जर भूमि को गौरवान्वित करने का, समृद्ध बनाने का, गूर्जरमहाराज्य की स्थापना करने का श्रेय इन प्राग्वाटज्ञातीय महापुरुषों को ही है, जिनके चरित्र गूर्जर भूमि के इतिहास में स्वर्णाक्षरों' में लिखे हुये हैं । इस प्रकार इन पाँच सौ वर्षों के समय में प्राग्वाटज्ञातीय कुलों को गूर्जर भूमि में जाकर बसने के लिए यह बहुत बड़ा सीधा आकर्षण रहा है। इन वर्षों में जो भी कुल जाकर गूर्जर भूमि में बसे वे अधिकांशतः अहमदाबाद, धौलका, अणहिलपुरपत्तन आदि प्रसिद्ध नगरों में और इनके आस-पास के प्रान्तों में वसे थे और वे अत्र गूर्जर - पोरवाल कहे जाते हैं, परन्तु 'गुर्जर - पौरवाल' नाम बहुत ही कम प्रसिद्ध है । ' ततो राजप्रसादात् समीपुर निवासितो वणिजः प्राग्वाटनामानो बभूवः । आदौ शुद्धप्राः द्वितीया सुराष्ट्रङ्गता किंचित् सौराष्ट्र प्राग्वाटा तदवशिष्टाः कुण्डल महास्थाने निवासितोऽपि कुण्डलप्राग्वाटा बभूवः । - उपदेशमाला प्रस्तुत इतिहास के पढने से भलिभांति सिद्ध हो जायगा कि प्राग्वाटज्ञातीय पुरुषों ने गुर्जर-भूमि की किस श्रद्धा, भक्ति सेवायें की हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय आज सौरठिया पौरवाल, कपोला- पौरवाल एवं गूर्जर - पौरवाल शाखाओं के कुलों के गोत्र और कुलदेवियों के म विस्मृत हो गये हैं । कारण इसका यह है कि इन कुलों के कुलगुरुयों से इन कुलों का दूर प्रान्तों में जाकर बस जाने से संबंधविच्छेद कई शताब्दियों पूर्व ही हो चुका है और फलतः गोत्र बतलानेवाली और कुलों का वर्णन परंपरित रूप से लिखने वाली संस्थाओं के अभाव में गोत्रों और कुलदेवियों के नाम धीरे २ विस्मृत हो गये । उक्त प्रान्तों' में बसनेवाले पौरवाल ही क्या अन्य जैनज्ञातियों के कुलों के गोत्र भी इन्हीं कारणों से विलुप्त हैं । कहावत भी प्रचलित है, 'गुजरात में गोत्र नहीं और मारवाड़ में छोत (छूत) नहीं' अर्थात् स्पर्शास्पर्श का विचार नहीं । विक्रम की चौदहवीं पंद्रहवीं शताब्दी तक तो उक्त प्रान्तों में वसनेवाली शाखाओं के कुलों के गोत्र विद्यमान थे, तब ही तो पन्द्रहवीं शताब्दी में हुये अंचलगच्छीय मेरुतुंगसूरि अपने द्वारा लिखित चलगच्छ-पट्टावली के द्वितीय भाग अनेक गोत्रों' के नाम और उनके कुल कहाँ २, किन २ नगर, ग्रामों में वसते थे, का वर्णन लिख सके हैं । मेरुतुंगसूरि द्वारा लिखी गई अञ्चलगच्छीय पट्टावली में उक्त प्राग्वाटज्ञातीय शाखाओं में निम्न गोत्रों की विद्यमानता प्रकट की है । १३ गार्ग्य, ६ कुत्स, १५ सारंगिरि, १ गोतम, २ सांस्कृत, ४ वत्स, ५ पाराशर, ७ वंदल, ८ वशिष्ठ, ६ उपमन्यु, १२ कौशिक, १० पौल्कश, १६ हारीत, १७ शांडिल्य, ११ काश्यप, १३ भारद्वाज, १४ कपिष्ठल, १८ सनिकि, अर्थात् अन्य गोत्र विलुप्त हो गये । विलुप्त गोत्रों में पुष्पायन, आग्नेय, पारायण, कारिस, वैश्यक, माढ़र प्रमुख हैं। उक्त गोत्र अधिकतर ब्राह्मणज्ञातीय हैं । अतः यह सिद्ध स्वभाव है कि उक्त गोत्र वाले प्राग्वाटज्ञातीय कुलों की उत्पत्ति ब्राह्मणवर्ग के उक्त गोत्रवाले कुलों में से हुई है । पद्मावती-परवाल भिन्नमाल और उसके समीपवर्त्ती प्राग्वाट - प्रदेश पर वि० संवत् १९११ में जब भयंकर आक्रमण हुआ था, उस समय अपने जन-धन की रक्षा के हेतु इस शाखा के प्रायः अधिकांशतः कुल अपने स्थानों का त्याग करके मालवा प्रदेश में और राजस्थान के अन्य भागों में जा कर बसे थे । इस शाखा के कुलों को गोत्रजादेवी अंबिकादेवी है । नवविवाहिता स्त्री चार वर्ष पर्यन्त बिकादेवी का व्रत करती है और लाल कपड़े के उपर लक्ष्मी अथवा अधिकादेवी की आकृति छपवा कर उसका पूजन करती है । इस शाखा के कुल राजस्थान में बूँदी और कोटा राज्य के हाडोती, सपाड़ और ढूढ़ाड़पट्टों में, इन्दौर और आस-पास के नगरों में अधिकांशतः वसते . हैं। लगभग सौ वर्षों से कुछ कुल दक्षिण में बीड़शहर, परण्डानामक कस्बों में भी जा बसे हैं और वहीं व्यापारधंधा करते हैं। इस शाखा में भी जैन और वैष्णव दोनों मतों के माननेवाले कुल हैं और उनमें भोजन - व्यवहार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: [ ४७ और कन्या - व्यवहार निर्बाध होता है । जो जैन हैं, वे अधिकतर दिगम्बर श्रामनाथ के माननेवाले हैं, श्वेताम्बर 1 मनाय के माननेवाले कुल इस शाखा में बहुत ही कम हैं। इस शाखा के कुलों के गोत्र पीछे से बने हैं, जहाँ बीसा - मारवाड़ी - पौरवाल, गूर्जर - पौरवालों के गोत्र उनके जैनधर्म स्वीकार करने के साथ ही उस ही समय निश्चित हुये हैं । चूँकि यह शाखा राजस्थान और मालवा में ही बसती है और राजस्थान और मालवा में कुलगुरुओं की पौषधशालायें ठेट से स्थापित रही हैं, फलतः इस शाखा का कुलगुरुओं से संबंध बराबर बना रहा है अतः इसके गोत्र और कुलदेवियों के नाम विलुप्त नहीं हो पाये हैं। इस शाखा के २८ अट्ठाईस गोत्र उपलब्ध हैं और नकी सत्रह कुलदेवियाँ हैं । गोत्र १ यशलहा ४ चरवाहदार ७ सौपुरिया १० राहरा १४ मंडावरिया १६ दुष्कालिया १६ रोहल्या २२ बोहत्तरा २५ कुहणिया २८ मोहलसद्दा कुलदेवियाँ सेहवंत " "" आशापुरी सोहरा वाणावती नागिनी कहाची पालिणी वाणाकिनी गोत्र २ डंगाहड़ा ५ ननकरया 11 ८तवनगरिया शापुरी ११ हिंडोणीया सहा सांकिली १४ लक्ष किया लूकोड १७ चौदहवां दादिणी नागिनी कुलदेवियाँ सेहवंत २० धनवंता २३ पंचोली २६ सुदासद्दा पालिणी लोहिणी जांगड़ा पौरवाल अथवा पौरवाड़ गोत्र ३ कूचरा ६ चौपड़ा ६ कर्णजोल्या १२ श्रामोत्या १५ समरिया १८ मोहरोंवाल २१ विड़या २४ उर्जरधौल २७ अधेड़ा कुलदेवियाँ सेहवंत " आशापुरी श्रमण सिंहासिनी यक्षिणी विलीणी पालिणी दुःखाहरण पौरवाल और पौरवाड़ एक ही शब्द है । मालवा में कहीं 'ल' को 'द' करके भी बोला जाता है । यहाँ भी 'पोरवाल' के 'ल' को 'ड़' करके बोलने से मालवा - प्रान्त में 'पौरवाल' शब्द 'पौरवाड़' भी बोला जाता है । जांगड़ा - पौरवाल शाखा को लघुसन्तानीय, दस्साभाई, लघुसज्जनीय भी कह सकते हैं; क्यों कि इस शाखा में केवल दस्सा पौरवाल ही हैं अर्थात् यह शाखा एक प्रकार से दस्सा अथवा लघुसन्तानीय कहे जाने वाले पौरवालकुलों का ही संगठन है । लघुसन्तानीय जब कोई शाखा अगर कही जा सकती है, तो बृहत् सन्तानीय भी कोई शाखा होनी चाहिए के भाव स्वतः सिद्ध हो जाते हैं । और यह भी सिद्ध हो जाता है कि दोनों शाखायें एक ही ज्ञाति के दो पक्ष हैं अर्थात् लघुपक्ष और बृहत्पक्ष । यह तो निर्विवाद है कि जांगड़ा पौरवालों की शाखा के कुल सौरठिया, कपोलिया, मारवाड़ी, गूर्जर शाखाओ के कुलों के ही लघुसन्तानीय (भाई) हैं Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास : [प्रथम इस शाखा के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों की उत्पत्ति वि० संवत् की आठवीं शताब्दी में ही हुई थी। विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक यह शाखा जैनधर्म ही मुख्यतया पालती रही। परन्तु जब बृहत्पक्ष और लघुपक्ष में अधिक घृणा के भाव बढ़ने लगे तो इस शाखा के अधिकांश कुलों ने रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के प्रभावक व्याख्यानों एवं उपदेशों को श्रवण करके वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया और जैन से वैष्णव हो गये। अब तो इस शाखा में रामस्नेही-पंथ के अनुयायी भी बहुत कुल हैं। इस शाखा के लगभग १००० एक हजार घर नेमाडप्रान्त में भी रहते हैं, वे सर्व जैन हैं, जिनके विषय में अलग लिखा जायगा। . . जैसे अन्य शाखायें सौरठिया, कपोला, पद्मावती, गूर्जर कहलाती हैं यह लघुसन्तानीय शाखा जांगड़ा कहलाती है। जांगड़ा शब्द जंगल से बनता है। जंगल का विशेषणशब्द जंगली बनता है। राजस्थानी भाषा जागड़ा उपाधि कब और में जंगली को जांगडूस अथवा जांगड़ा कहते हैं। जांगड़ा शब्द अधिक प्रचलित है । क्यों ग्रहण की गई कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि इस शाखा के ज्ञाति-नाम के साथ में जांगड़ा शब्द कब और क्यो प्रयुक्त हुआ । अनुमान से विचार करने पर इतना अवश्य समझ में आता है कि इस जाति को विषम परिस्थितियों का भयंकर सामना करना पड़ा है और अपने प्राण, धन, जन, मान की रक्षा के लिये सम्भव है जंगल में जीवन व्यतीत करना पड़ा है अथवा 'जंगल' नाम के किसी प्रदेश में रहना पड़ा है। बीकानेर के राजा की 'जंगल-धरबादशाह' उपाधि है। इस ज्ञाति के वृद्धजन एवं अनुभवी पुरुष कहते हैं कि इस ज्ञाति के अधिकांश घर पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग दिल्ली और जहानाबाद नगरों में और उनके आस-पास के ग्रामों में बसे हुये थे। ये घर वहाँ कब जाकर बसे और क्यों यह भी कहना उतना ही कठिन, जितना इस प्राग्वाटज्ञाति की अन्य शाखाओं के लिये अन्य प्रान्तों में जाकर बसने की निश्चित तिथि अथवा संवत् कहने के विषय में था। परन्तु इतना अवश्य सत्य है कि इस शाखा के घर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक राजस्थान, गुजरात में बसे हुये थे। एक दन्तकथा ऐसी प्रचलित है कि सम्राट अकबर के राज्यकाल में इस शाखा के कई वर दिल्ली में बसते थे। अकबर सम्राट के लिये यह तो प्रसिद्ध ही है कि उसने भारत के प्रसिद्ध ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यकुलों से डोले लिये थे। इस शाखा के एक अति प्रतिष्ठित, कुलवंत श्रीमन्त सज्जन दिल्ली में रहते थे। उनकी एक परम रूपवती कन्या का किसी वर्ष में विवाह हो रहा था । किसी प्रकार सम्राट अकबर ने उस रूपवती कन्या को देख लिया और कन्या के पिता से उस कन्या का डोला माँगा । कुमारी कन्या का डोला भी जहाँ यवनों को देना बड़ा घृणा का विषय था, विवाही जाने वाली कन्या का डोला देना तो और अधिक घृणात्मक था। इस शाखा में ही नहीं, समस्त वैश्यज्ञाति में सम्राट की इस अनुचित माँग से खलबली मच गई। सम्राट के दरबार में राजा टोडरमल का बड़ा मान था । टोडरमल स्वयं वैश्य थे, उनको भी बादशाह की यह माँग बहुत ही बुरी प्रतीत हुई। इस लघुपक्ष के प्रतिष्ठित लोग टोडरमल के पास में गये और बादशाह को समझाने की प्रार्थना की। राजा टोडरमल अकबर के हठाग्राही स्वभाव को जानते थे, फिर भी उन्होंने आये हुये लघुपक्ष के सज्जनों को आश्वासन दिया और कहा कि वह बादशाह को समझा लेगा। दूसरे दिन जब राजा टोडरमल बादशाह से मिलने गये तो बादशाह ने भी टोडरमल से उसी बात की चर्चा की कि तुम्हारी वैश्यज्ञाति की उस लड़की का डोला तुरन्त रणवास में Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ] :: प्राग्वाट अथवा गौरव और उसके भेद :: [ m चावा चाहिये, नहीं तो मैं समस्त वैज्ञाति को कुचलवा दूंगा । राजा टोडरमल आखों में बड़े चतुर थे और सम्राट अकबर के प्रति विश्वासपात्र एवं प्रेमी मित्रों में से थे। बड़ी चतुराई से उन्होंने सम्राट को समयान कि शीघ्रता करने से लाभ कम और हानि अधिक होती है। लड़की का पिता कोई शक्तिशाली सम्राट अथवा राजा नहीं है, जो सम्राट की इच्छा को सफल नही होने देवे । राजा टोडरमल ने स्वयं स्वीकार किया कि सम्राट एक माह की अवधि प्रदान करें और इस अन्तर में वह लड़की के माता-पिता तथा ज्ञाति के लोगों को समझा कर डोला दिलवा देगा और इस प्रकार सम्राट बहुत बड़ी बदनामी अथवा कलह की उत्पत्ति से बच जावेगा । राजा टोडरमल ने घर आकर कन्या के पिता और ज्ञाति के विश्वासपात्र पुरुषी को घुलवा करके सम्राट का जो दृढ़ निश्चय था, वह सुना दिया। यह श्रवण करके कन्या के पिता एवं अन्य सर्व पुरुषों का मुँह उतर गया और कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ा। राजा टोडरमल भी अपनी वैश्यसमाज के गौरव को धक्का लगता देखकर गम्भीर चिन्तन में पड़ गये। अन्त में उन्होंने अपने ही प्राणों को जोखम में डालने का दृढ़ निश्चय करके उनसे कहा कि सम्राट से उन्होंने डोले के लिये एक माह की अवधि ली है। अब वे दिल्ली छोड़कर इस अन्तर में कहीं अन्यत्र जाकर उस लड़की और उस लड़की के कुल को छिपा सकते हैं तो ज्ञाति अपमानित होने से बच सकती है बस फिर क्या था । लघुपच के जितने भी घर दिल्ली में बसते थे, वे सर्व संगठित होकर प्राणों से प्रिय ज्ञाति के गौरव की रक्षा करने के लिये अपने धन-माल की परवाह नहीं करके दिल्ली का तुरन्त त्याग करके निकल बले । कुछ कुल बीकानेर-राज्य के जंगली प्रदेशों में, जिनमें अधिक भाग रेतीला है जाकर छिपे और कुछ कुल लखनऊ, महमूदाबाद, सीतापुर, कालपी आदि नगरों में जाकर बस गये । जो बीकानेर-राज्य के जंगली प्रदेश में बसे धीरे २ जांगड़ा कहे जाने लगे। इस कथा में कितना सत्य है और इस घटना में वर्णित कथानक पर 'जांगड़ा ' शब्द की उत्पत्ति कहाँ तक मान्य है- तोलना और कहना अति ही कठिन है । इतना अवश्य है कि अभी लखनऊ, महमूदाबाद, सीतापुर के जिलों में और उधर के अन्य नगरों' में 'पुखार' कही जाने वाली ज्ञाति के घर बसते हैं, वे भी उक्त घटना का ही वर्णन करते हैं और जांगड़ा - पौरवाड़ कही जाने वाली ज्ञाति के वृद्ध एवं अनुभवी जन भी उक्त घटना का ही वर्णन करते हैं । यह कथा मैंने स्वयं इन ज्ञातियों के क्षेत्रों में भ्रमण करके अनुभवी एवं वृद्धजनों से मिलकर सुनी है । जब सम्राट अकबर की मृत्यु हो गई और डोले लेने की प्रथा भी प्रायः बन्द-सी हो गई, बीकानेर-राज्य के जंगलप्रदेश में बसने वाले इस शाखा के कुल वहां कोई व्यापार-धन्धा नहीं पनपता हुआ देखकर, उस स्थान का परित्याग करके दिल्ली से दूर मालवा - प्रान्त में आकर बस गये। मालवा में वे जांगड़ा - पौरवाड़ कहे जाने लगे । 'जांगड़ा ' उपाधि की उत्पत्ति का कारण यह नहीं होकर भले ही कोई दूसरा होगा, जिसका सम्भव है कभी प्रता भी लग सकता है, परन्तु इतना तो अवश्य हैं कि प्राग्वाट ज्ञाति की जैसे सौरठिया, कपोला, गुर्जर - शाखायें हैं यह भी उसकी शाखा है और उसके लघुसंतानीयकुलों का यह एक अलग संगठन है। जैनधर्म से जब से इस पक्ष का विच्छेद हुआ, जैनकुलगुरुत्रों ने भी इस पक्ष से अपना सम्बन्ध तोड़ दिया । मूलगोत्रों के नाम और कुलदेवियों के नाम या तो विस्मृत हो गये या वैष्णवमत अंगीकार करने के पश्चात् इनके गोत्र फिर से नये बने अब इस पक्ष के कुलों का वर्णन लिखने वाले वैष्णव भाट हैं, जिस प्रकार अन्य वैष्णव ज्ञातियों के होते हैं । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... प्राग्वाट-इतिहास :: .. [द्वितीय ... . वर्तमान में इस शाखा का जैसा, लिखा जा चुका है निवास प्रमुखतः मालवा और कुछ राजस्थान के कोटा, झालावाड़ और मेवाड़-राज्य के लगभग १५० ग्रामों में है । प्रमुख ग्राम, नगर जिनमें इस जांगड़ापक्ष के कुल रहते हैं:- इन्दौर, उज्जैन, रतलाम, देवास, महीदपुर, ताल, आलोट, खाचरौद, सुजानपुरा, बंबोरी, जावरा, वरखेड़ा (ताल), मोतीपुरा, जरोद, गरोट, रामपुरा, खड़ावदा, सेमरोल, देहथली, वरखेड़ा (गांगाशाह), साटरखेड़ा, चचोर, टेला, कोला, नागदा, नारायणगढ़, खेजड़या, सावन, भेलखेड़ा, चंदवासा, शामगढ़, रूनीजा, धसोई, सुवासड़ा, धलपट, अजेपुर, भवानीमंडी, पंचपहाड़, सीतामऊ, बालागढ़, जन्नोद, मनासा, मन्दसोर, सूठी, श्यामपुर, नाहरगढ़, लीबांबास, पड़दा, भाटकेड़ी, महागढ़, झालरापाटन, बड़नगर, उन्हेल, वाचखेड़ी, घड़ोद, चचावदा । २. उक्त नगरों के समीपवर्ती छोटे २ ग्रामों में यह पक्ष फैला हुआ है। इस लघुशाखा वाली जांगड़ा-पारवाड़ कही जाने वाली स्वतन्त्र ज्ञाति में इस समय लगभग १०००० दश हजार घरों की संख्या है। इस जांगड़ा-शाखा के चौवीस गोत्र हैं, जो निम्न दिये जाते हैं:.१ चौधरी, २ सेठ्या, ३ मजावद्या, ४ दानगढ़, ५ कामल्या, ६ धनोत्या, ७ रत्नावत, ८ फरक्या, ६ काला, १० केसोटा, ११ मून्या, १२ घाट्या, १३ वेद, १४ मेथा, १५ घड़या, १६ मँडवाच्या, १७ नभेपुत्या, १८ भूत, १६ डबकरा, २० खरड्या, २१ मांदल्या, २२ उघा, २३ बाड़वा, २४ सरखंड्या । तेईसवें और चौवीसवें गोत्रों के कुल प्रायः नष्ट हो गये हैं। ये गोत्र इस शाखा के मूल गोत्र नहीं हैं। ये तो अटके हैं, जो वैष्णवमतावलम्बी बनने पर धन्धा और व्यवसायों पर बने हैं, जो कालान्तर में धीरे २ पड़ी हैं। वैष्णव बनने पर इस शाखा के कुलों का जैनकुलगुरुओं से सम्बन्ध विच्छेद हो गया और उसका फल यह हुआ कि इनके मूल गोत्र धीरे २ विलुप्त और विस्मृत हो गये और अटके ही गोत्र मान ली गई। नेमाड़ी और मलकापुरी-पौरवाड़ ये दोनों शाखायें जांगड़ा-पौरवाड़ों की ही अंगभूत हैं। इनका अलग पड़ने का कारण समझदार एवं अनुभवी लोग यह बतलाते हैं कि इस ज्ञाति के किसी श्रेष्ठि के यहाँ लड़के का विवाह था। उन दिनों में इस ज्ञाति में यह प्रथा थी कि जिस घोड़े पर वह चढ़कर तोरण-वध करता था, उस घोड़े के ऊपर जितने आभूषण चढ़े हुए वैष्णव वैश्यज्ञातियों के प्रसिद्ध पुरुषों का ही जब इतिहास नहीं उपलब्ध है, तो साधारण पुरुषों और ज्ञाति जैसी बड़ी इकाई का इतिहास तो कैसे मिल सकता है। जैनसमाज में जैसे प्रतिमादि पर शिलालेख, ग्रंथों में प्रशस्तिया लिखाने की जो प्रथा रही है, अगर वैसी ही अथवा ऐसी ही कोई अन्य प्रथा इन वैष्णवमतालम्बी वैश्यवर्ग में भी होती तो सम्भव है कुछ इतिहास की सामग्री उपलब्ध हो सकती थी और उससे बहुत कुछ लिखा जा सकता था। परन्तु दुःख है कि इतिहास की दृष्टि से ऐसी प्रामाणिक साधन-सामग्री इस Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: [ ५१ होते, वे सर्व आभूषण उस कुल के विवरण लिखने वाले कुलभाट को दान में दे दिये जाते थे और बड़ा हर्ष मनाया जाता था । उक्त श्रेष्ठि ने घोड़े के ऊपर जो आभूषण लगाये थे, वे किसी के यहाँ से मांगे हुये लाये गये थे । तौरण-वध कर लेने के पश्चात् कुलभाट ने आभूषणों की याचना की, इस पर वर का पिता कुपित हो गया और उसने आभूषण देने से अस्वीकार किया। इस घटना से चरातिथियों एवं कन्यापक्ष के लोगों में दो पक्ष बन गये । एक पक्ष आभूषण कुलभाट को दिलाना चाहता था और दूसरा पक्ष इस प्रथा को बन्द ही करवाना चाहता था । अन्त में बात बैठी ही नहीं । विवाह के पश्चात् यह झगडा जांगड़ा - पौरवाड़ों की समस्त ज्ञाति में विख्यात कलह बन गया । अन्त में वर के पिता के पक्ष में रहे हुए समस्त लोगों को ज्ञाति ने बहिष्कृत कर दिया । ये लोग अपने २ मूलस्थानों को त्याग करके नर्मदा नदी के पार नेमाड़ - प्रान्त में जाकर बस गये। ये वहाँ जाकर वि० सं० १७६० के लगभग बसे, ऐसा लोग कहते हैं । सनावद, महेश्वर, मण्डलेश्वर, खरगौण आदि नगरों में इनके आस-पास के छोटे-बड़े ग्राम कस्बों में ये लोग वहाँ बसे हुए हैं। ये जैनधर्म की दिगम्बर-आम्नाय को मानते हैं। और संख्या में लगभग १००० एक हजार घरों के हैं । नेमाड़-प्रान्त में रहने से अब नेमाड़ी - पौरवाल कहलाने लगे हैं । मलकापुरी - पौरवाल इन्हीं नेमाड़ी - पौरवालों के घर हैं, जो मलकापुर में जा बसने के कारण अब मलकापुरी कहलाते हैं । लगभग १५० वर्षों से अब इनमें बेटी-व्यवहार का होना बन्द हो गया है । जांगड़ा - पौरवाड़ों के और उक्त दोनों शाखाओं के प्रगतिशील व्यक्ति अब पुनः इनमें एकता और बेटीव्यवहार स्थापित करने का कुछ वर्षों से प्रयत्न कर रहे हैं । उक्त घटना से यह सिद्ध हो गया है कि उक्त दोनों शाखाओं का झगड़ा अपनी ज्ञाति में प्रचलित कुलभाटों को वर के घोड़े पर लगे हुये समस्त आभूषणों को प्रदान करने की प्रथा के ऊपर था । अतः यह स्वतः सिद्ध है कि इनका कुलभाटों से सम्बन्ध विच्छेद हो गया । कुलभाटों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने का परिणाम यह हुआ कि उक्त शाखाओं में गोत्र धीरे २ विलुप्त हो गये और इस समय इनमें गोत्रों का प्रचलन ही बन्द हो गया है । जांगड़ा - पौरवालशाखा की बिल्कुल ही नहीं मिलती है और न उसके प्रसिद्ध पुरुषों के जीवन-चरित्र ही बने हुये हैं और अगर कहीं होंगे भी तो अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं। इन साधनों के अभाव में इस पक्ष के विषय में मेरे नानी श्वसुर श्री देवीलालजी सुराणा, गरोठ निवासी के सौजन्य से मेलखेडानिवासी श्री किशोरीलालजी गुप्ता (जांगड़ा - पौरवाड़) कार्याध्यक्ष, श्री पौरवाड़ - महासभा ने एक बृहद्पत्र लिख कर जो परिचय मुझको दिया है, उसके आधार पर और मैंने भी मालवा में भ्रमण करके जो कुछ इस पक्ष के विषय में सामग्री एकत्रित की थी के आधार पर ही यह लिखा गया है । मैंने बहुत ही श्रम किया कि इस शाखा की इतिहास - साधन-सामग्री प्राप्त हो, परन्तु मेरी अभिलाषा सफल नहीं हो पाई। इस शाखा की कुछ भी साधन-सामग्री नहीं मिलने की स्थिति में इसका इतिहास मैं कुछ अंशों में भी नहीं दे सक रहा हूँ । नेमाड़ीशाखा के इतिहास की भी साधन सामग्री पूरा २ श्रम करने पर भी उपलब्ध नहीं हो पाई है, फलतः इसका भी कुछ भी इतिहास नहीं लिखा जा सका है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] :: प्रावार- इतिहास : बीसा - मारवाड़ी-पोरवाल | द्वितीय जोधपुर-राज्य के दक्षिण में बाली, देसूरी, जालोर, भीनमाल, जसर्वतपुर के प्रगणों के प्राय: अधिकांश ग्रामों में उक्त नगरों में और अन्य नगर, कस्बों में और सिरोही के राज्य भर में या यो भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में कहे जाने वाले श्राग्वाट प्रदेश में ही इस शाखा के घर बसे हुये हैं। ये सर्व वृद्धसज्जनीय (बीसा) पोरवाल कहे जाते हैं। इस शाखा के प्रायः अधिकांश कुलों के गोत्र क्षत्रियज्ञाति के हैं और विक्रम की आठवीं शताब्दी में अधिकांशतः जैनधर्म में दीक्षित हुये थे । जैसा आगे के पृष्ठों से सिद्ध होगा आज इस शाखा के प्रायः अधिकांशतः घर धन की दृष्टि से सुखी और सम्पन्न हैं, जिनकी बम्बई- प्रदेश और मद्रास, बेजवाड़ा के गंटूर जिलों में finger हैं और बड़े २ व्यापार करते हैं। मारवाड़ में इनका कोई व्यापार-धंधा नहीं है । कुछ लोग जपुर और पाली में अवश्य सोना-चाँदी अथवा आड़त एवं थोक माल की दुकानें करते हैं । मालवा में उज्जैन, इन्दौर, र, रतलाम, जैसे बड़े २ नगरों में भी कुछ लोग व्यापार-धन्धा करते हैं । इस शाखा के कुछ घर सिरोही के ऐयाशी राजा उदयभाण से झगड़ा हो जाने से सिरोही (प्रमुख) से और सिरोही - राज्य के कुछ अन्य ग्रामों से लगभग डेढ़ सौ से कम वर्ष हुये होंगे रतलाम में सर्व प्रथम जाकर बसे थे और फिर वहाँ से धीरे २ अन्य ग्राम, नगरों में फैल गये । मालवा के कुछ एक प्रमुख नगरों में बीसा - मारवाड़ी पौरवालो का कई शताब्दियों पूर्व भी निवास थाही । पहिले के बसे हुये और पीछे से आकर बसे हुये बीसा - मारवाड़ी - पौरवाल घरों की गणना 'पारवाड़ - महाजनो' का इतिहास' के लेखक देवासनिवासी ठक्कुर लक्ष्मणसिंह ने ता० २२-६- १६२५ में की थी । यद्यपि वह . अपूर्ण प्रतीत होती है, फिर भी इतना अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि इस शाखा के लगभग ३०० ३५० घर जिनमें स्त्री-पुरुष, बच्चे लगभग १५०० - १६०० होंगे । आज मालवा के छोटे-बड़े ग्राम नगरों में निवास करते हैं । प्रमुख नगरों के नाम नीचे दिये जाते हैं: O देवास, इन्दौर, शहजहाँपुर, भरेड़, दुवाड़ा, नलखेड़ा, भोपाल, रतलाम, सारंगपुर, कानड़, आगर, कुक्षी, धार, उज्जैन, मौना, राजगढ़, अलिराजपुर, सुजाणपुर । उक्त कुलों के कुलगुरु मारवाड़ में सेवाड़ी, बाली, घाणेराव, सोजत तथा सिरोही, सियाणादि ग्राम, नगरों में रहते हैं और मालवा में पहिले और पीछे से जाकर बसने वाले कुलों का बहुत दूर होने के कारण स्वभावतः कुलगुरुओं से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि पूर्व के बसे हुये कुलों के गोत्र तो कभी के विलुप्त प्रायः हैं। पीछे से मालवा में जाकर बसने वाले कुल जब सर्व प्रथम रतलाम में जाकर बसे थे, तब रतलाम के सेवड़े लोग इनका कुल वर्णन लिखने लगे थे और कुछ वर्षों तक वे लिखते भी रहे, परन्तु पश्चात् उनमें परस्पर किसी बात पर इनसे झगड़ा हो गया और उन्होंने इनके कुलों का वर्णन लिखना ही बन्द कर दिया और sara का जो कुछ लिखा हुआ था, उन पुस्तक, कहियों को कुओं में डाल दिया । उक्त दोनों कारणों से इनमें गोत्रों की विद्यमानता शिथिल बन गई । परन्तु मारवाड़ में रहे हुये कुली' के गोत्र जैसा वाली, सेवाड़ी, सिरोही, घाणेराव में स्थापिंत कुलगुरु-पौषधशालाओं से प्राप्त - गोत्र सूचियों से सिद्ध है ज्यों के त्यों विद्यमाना है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद :: मारवाड़ी-शाखा के मोत्र प्रायः सर्व शानिय और मानल गौत्र हैं। अन्य शाखाओं में अटके नहीं के बराबर है, परन्तु इस शाखा में अटक और नख दोनों विद्यमान हैं। निष्कर्ष में यही समझना है कि इस शाखा के कुल अविकार: विक्रम की अाठवीं शताब्दी में जैन दीक्षित हुये थे तथा इस शाखा के गोत्रों के नामों में यह विशेषता एवं ऐतिहासिक तथ्य रहा है कि इस शाखा के सर्व कुलों के गोत्र जैनधर्म स्वीकार करने के पूर्व जी उनका कुल था, उस नाम के ही हैं ; अत: यह विवाद ही उत्पन्न नहीं होता कि ये किस कुल में से जैन बने थे। अपने आप सिद्ध है कि ये क्षत्रिय और ब्राह्मणकुलों से बने हैं। इस बीसा-मारवाड़ी पोरवालशाखा के गोत्र और अटकों की सूची पूर्व के पृष्ठ ३६, ४० पर आ चुकी है ; अतः फिर यहाँ देना ठीक नहीं समझता हूँ।* पुरवार ___ इस ज्ञाति के प्रसिद्ध, अनुभकी वृद्ध एवं पण्डित अपनी ज्ञाति की उत्पत्ति राजस्थान से मानते हैं। वे दिल्ली के श्रेठि की विवाहिता होती हुई कन्या और अकबर बादशाह द्वारा उसका डोला मांगना तथा राजा बीरबल द्वारा उसमें बीच-बचाव करने की कथा को अपनी ज्ञाति में घटी हुई मानते हैं। के राजा पुल से अपनी उत्पन्ति झेना भी समझते हैं। अंगड़ा पोस्वाड़ भी उक्त श्रुतियों एक दन्तकाओं को अपनी ज्ञाति में कटी बतलाते हैं । मतः हो सकता है यह शक्ति अमझा-पोवाड़ों की ही शाखा है, जो संयुक्तमान्त, कुन्दलखण्ड, मध्यभारत में क्सकर उनसे अलम पड़ गई और अलग स्वतन्त्र शान्ति वन मर्छ ।* इस ज्ञाति में न तो गोत्र ही हैं और न दस्सा, बीसा जैसे भेद । यह ज्ञाति वर्तमान में समूची वैष्णवमतावलम्बी है। इस झाक्ति के कुलों का वर्सन लिखने वाले वैष्णवमतानुयायी पट्टियाँ हैं । संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, बुन्देलखण्ड में पीछे से जैनज्ञाति और जैनधर्म जैसा पूर्व लिखा जा चुका है, अन्तप्रायः हो गये थे। उनमें वैष्णव * 'पुस्याए 'पोरवाड़ा और 'पौरवाला तीनों एक ही शब्द हैं। इनमें रहा हुआ अन्तर प्रान्तीय-भाषाओं के प्रभाव के कारण उद्भूत हुआ है। संयुक्तकात में गुड़ को गुर, गाड़ी को गारी कहते हैं । यहाँ भी वाड़ का 'वार' बन गया है। __ *अखिल-भारतवर्षीय-पुरवार-महासभा का अधिवेशन ता०१३,१४ अक्टोबर सन् १९५१ में महमूदाबाद में हुआ था। उक्त सभा के मानद मंत्री श्री जयकान्त पुरवार अमरावतीनिवासी के साथ मेरा पत्र-व्यवहार लगभग तीन वर्ष से अधिक हुये हो रहा था। यह सम्बन्ध वैद्य श्री बिहारीलालजी पुरवार, पौरवाल-बदर्स के मालिक, फिरोजाबाद के द्वारा और उनकी प्राग्वाट इतिहास के प्रति अगाध रुचि और सद्भावना के फलस्वरूप जुड़ सका था.। उक्त सम्मेलन में मुझको और श्री ताराचन्द्रजी दोनों को आमन्त्रण मिला था। मैं उक्त सम्मेलन में सम्मिलित हुआ. और पुरवार ज्ञाति के कईएक पण्डित, युवक, पत्रकार, अनुभवी एवं वृद्धगण और श्रीमंत सज्जनों से मिलने और वार्तालाप करने का अवसर प्राप्त हुआ था। मेरे 'पुरवारज्ञाति का पौरवालज्ञाति से सम्बन्ध' विषय पर लम्बा व्याख्यान मी हुआ था। उक्त सम्मेलन में मुझको यह अनुभव करने को मिली कि पुरवारज्ञाति और पोरवालज्ञाति में उत्पत्ति, डोलावाली कथा को लेकर कई एक दंतकथायें एक-सी प्रचलित हैं। पुरवारज्ञाति में अभी भी जैन-संस्कृति विद्यमान है। इस ज्ञाति के अनेक कुल प्याज, लहसन जैसी चीज का उपयोग नहीं करते हैं। मातायें रात्रि-भोजन का निषेध करती हैं। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय धर्म पनप रहा था, अतः इस शाखा ने वैष्णवमत स्वीकार कर लिया। प्रसिद्ध आर्य-समाज- प्रचारक श्री रामचरन 'मालवीय' भर्थनानिवासी मुझको अपने ता० ३०-१२-१६५१ के पत्र में अपनी ज्ञाति को पौरवालज्ञाति की शाखा होना, इसके पूर्वजों द्वारा जैनधर्म का पालन करना आदि कई एक मिलती-जुलती बातें लिखकर अन्त में स्वीकार करते हैं कि पुरवार और पौरवाल एक ही ज्ञाति हैं । पुरवारज्ञाति का नहीं कोई लिखा हुआ इतिहास है और नहीं कोई साधन-सामग्री ही । हमारे अथक एवं सतत प्रयत्नों के फलस्वरूप प्राप्त हुई है कि जिसके आधार पर कुछ भी तो वर्णन दिया जा सके । अतः प्राग्वाट इतिहास में इस ज्ञाति का इतिहास नहीं गूँथा गया है । परवारज्ञाति इस ज्ञाति के कुछ प्राचीन शिलालेखों से सिद्ध होता है कि 'परवार' शब्द 'पौरपाट' 'पौरपट्ट' का अपभ्रंश रूप है । 'परवार', 'पौरवाल' और 'पुरवार' शब्दों में वर्णों की समता देखकर बिना ऐतिहासिक एवं प्रामाणित आधारों के उनको एक ज्ञातिवाचक कह देना निरी भूल है । कुछ विद्वान् परवार और पौरवालज्ञाति को एक होना मानते हैं, परन्तु • वह मान्यता भ्रमपूर्ण है । पूर्व लिखी गई शाखाओं के परस्पर के वर्णनों में एक दूसरे की उत्पत्ति, कुल, गोत्र जन्मस्थान, जनश्रुतियों, दन्तकथाओं में अतिशय समता है, वैसी परवारज्ञाति के इतिहास में उपलब्ध नहीं है । यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है । यह निश्चित है कि परवारज्ञाति के गोत्र ब्राह्मणज्ञातीय हैं और इससे यह सिद्ध है कि यह ज्ञाति ब्राह्मण ज्ञाति से जैन बनी है प्राग्वाट अथवा पौरवाल, पौरवाड़ कही जाने वाली ज्ञाति से यह । *सम्मेलन के पश्चात् इस ज्ञाति के इतिहास की सामग्री प्राप्त करने के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया गया । एक पत्र पर १६ प्रश्नों को छपवा कर इस ज्ञाति के पण्डित, विद्वान्, अनुभवी पुरुषों के पास में वे उत्तरार्थ भेजे गये । यह समस्त कार्य मानदमंत्री श्री जयकान्त पुरवार ने अपने द्वारा सम्पादित होते पत्र 'पुरवार बन्धु' के सहारे और सहज बना दिया था । 'पुरवार बन्धु' अमरावती में मेरा 'महाजनसमाज और उसके मूलपुरुषों का धर्म' नामक लेख वर्ष २ क २ सितम्बर सन् १६५१ पृ० ३३ पर प्रकाशित हुआ था। इसी अंक के पृ० १८ से २० पर भी श्री जयकान्तजी का सम्पादकीय लेख भी पुरवारज्ञाति के ऊपर 'जातीय इतिहास की खोज में' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है । पृ० १८, १६ पर वे लिखते हैं, 'पुरवार - वैश्यदर्पण' नामक पुस्तक के पृ० ६ से लेकर १५ तक पुरवारों की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखते हैं। इसमें लिखा है कि हम लोग मारवार-बीकानेर से आये, क्योंकि अधिकतर वैश्यज्ञातियाँ उसी तरफ से आई। अतिरिक्त इसके नीचे लिखी बातें भी मननीय हैं, जो इसी लेख में लिखी गई हैं:१ - 'हम लोग राजा पुरुखा (पुरु) के वंशज हैं अतः पुरवार कहलाये ।" २ - 'हमारे पूर्वज पूर्व दिशा से आये और अतः पुरवा कहलाये ।' ३- 'कुछ लोगों के कथनानुसार हम लोगों का उद्गम राजस्थान का भिन्नमाल गाँव है ।' ४- 'कुछ सज्जनों के कहने के अनुसार हम लोग गुजरात में पाटन नामक नगर के रहने वाले हैं ।" उक्त सारे मत और सारी शंकायें संकेत करती हैं कि पौरवालज्ञाति की पुरवारज्ञाति शाखा है, जो विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अलग पड़ गई है। इतना प्रयत्न करने पर भी दुःख है कि इस ज्ञाति की एक पृष्ठ भर भी उत्पत्ति, विकास-सम्बन्धी साधन-सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: सर्वथा भिन्न और स्वतन्त्र ज्ञाति है और इसका उत्पत्ति-स्थान राजस्थान भी नहीं है । अतः प्राग्वाट-इतिहास में इस ज्ञाति का इतिहास भी नहीं गूंथा गया है ।* लघुशाखीय और बृहद्शाखीय अथवा लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय-भेद - और दस्सा-बीसा नाम और उनकी उत्पत्ति लघुशाखीय और बृहद्शाखीय अथवा लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय नामों को व्यवहार में प्रायः लोड़ेसाजन और बड़े-साजन, छोटे भाई और बड़े भाई कहते हैं। परन्तु प्राचीन प्रतिमा-लेखों में, शिला-लेखों में, प्रशस्तियों में लघुसंतानीय अथवा लघुशाखीय और बृहद्संतानीय अथवा बृहद्शाखीय शब्दों का ही प्रायः प्रयोग हुआ मिलता है। अतः यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि मूल शब्द तो लघुसंतानीय अथवा लघुशाखीय और वृहद्संतानीय अथवा बृहद्शाखीय ही हैं और शेष नाम इनके पर्यायवाची शब्द हैं, जिनकी उत्पत्ति अथवा जिनका प्रयोग बोल-चाल में सुविधा की दृष्टि से अमुक अमुक समय अथवा वातावरण के आधीन हुआ है। लघुशाखीय और बृहद्शाखीय, लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय शब्दों का अर्थ होता है लघुसंतान अथवा लघुशाखा-सम्बन्धी और बृहद्संतान अथवा बृहद्शाखा-संबंधी । लघुसंतान, लघुशाखा और बृहद्संतान । बृहशाखा दोनों में संतान और शाखा शब्दों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि दोनों में भ्राता का सम्बन्ध है, दोनों एक ज्ञाति ही की संतति हैं, दोनों दल किसी एक ही वर्ग के दो अंग हैं, जिनके धर्म, देश, इतिहास, पूर्वज, संस्कार, संस्कृति, भाषा, वेष-भूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, साधु-पर्व, त्योंहार आदि सब एक ही हैं। परन्तु इतना अवश्य है कि जिस कारण वे दो दलों में विभाजित हो गये हैं, उस कारण का प्रभाव उनके सामाजिक अवसरों पर मिलने, जुलने पर जैसे परस्पर होने वाले प्रीतिभोजों पर और ऐसे ही अन्य सामाजिक संबंधों, संमेलनों पर अवश्य पड़ा है। उक्त दोनों दल अथवा शाखायें हिन्दू और जैन दोनों ही ज्ञातियों में पाई जाती हैं । परन्तु जिन २ ज्ञातियों में ये छोटी बड़ी शाखायें हैं, उन २ में इनके जन्म का कारण एक ही हो यह बात नहीं है और और न ही ऐसा कभी संभव भी हो सकता है। ॐ पचराई' के शान्तिनाथ-जिनालय का संवत् ११२२ का लेखांश:___ 'पौरपट्टान्वये शुद्ध साधु नाम्ना महेश्वरः। महेश्वरेय विख्यातस्तत्सतः धर्मसंज्ञकः ॥' -'पुरवार बन्धु' द्वितीय वर्ष, संख्या ३.४ अप्रैल, मई १६४० प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री अगरचन्द्रजी नाहटा भी पौरवाड़ और परवार ज्ञाति को एक नहीं मानते हैं । देखो उनका लेख 'क्या परवार और पोरवाड़ जाति एक ही है ?' 'परवार बन्धु' वर्ष तृतीय, संख्या ४, मई १६४१ पृ० ४, ५.६. . परवारज्ञाति के सम्बन्ध में इतिहास-सामग्री भी प्रायः नहीं मिलती है । इस ज्ञाति के प्रसिद्ध पुरुषों, अन्य दिगम्बर जैन विद्वानों से इस ज्ञाति की उत्पत्ति, विकाश के सम्बन्ध में लम्बा पत्र-व्यवहार किया गया, परन्तु वे कुछ भी नहीं दे सके। इस ज्ञाति में उत्पन्न उत्साही विद्वानों के लिये यह विचारणीय है। (प्रस्तावना में देखिये) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलके जन्म का मिश्रित संपन और दिन तो संभवतः अद्यावधि कोई भी पुरातच एवं इतिहासवेत्ता के बान में अब तक नहीं आ पाया है, परन्तु जहाँ तक जैनसमाज के अंतर्गत कर्मों का सम्बन्ध है इतना अवश्य निश्चित है कि अब वर्तमान् जैनकुल विक्रम की आठवीं शताब्दी में और उसके पश्चात्वर्ती वर्षों में बने हैं, तो ये शाखायें भी विक्रम की आठवीं शताब्दी के पश्चात् ही उत्पन्न हुई समझी जानी चाहिए। प्राग्वाटज्ञाति का ऐतिहासिक, परंपरित एवं विशेष सम्बन्ध ओसवाल, श्रीमालज्ञातियों से रहा है और है और इन तीनों में ये ही छोटी, बड़ी शाखायें विद्यमान हैं । यह भी निश्चित है कि इन तीनों वर्गों में ये दोनों शाखें एक ही कारण से, एक ही समय पर और एक ही क्षेत्र अथवा स्थान पर उत्पन्न हुई हैं और फिर पश्चात् के वर्षों में बढ़ती रही हैं, इसका कारण यह है कि तीनों एक ही जैनसमाज की प्रजा हैं और इन तीनों वर्गों का प्रायः धर्म एक रहा है और आज भी है तथा तीनों के प्रतिबोधकगुरु, धर्माचार्य, तीर्थ, धर्मग्रंथ एक ही हैं और परस्पर बेटी-व्यवहार भी रहा है। विशेष फिर यह भी है कि प्राग्वाटज्ञाति के भीतर और वैसे ही प्रोसवाल और श्रीमाल-ज्ञातियों के भीतर रही हुई इन दोनों शाखाओं के कुलों के गोत्र परस्पर मिलते हैं और व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे को भाई कहते हैं और लिखते हैं। भोजन-व्यवहार सम्मिलित होता है और दोनों शाखाओं के व्यक्ति एक ही थाली में भोजन भी करते हैं । कहीं २ नहीं भी होता है, तो वह ब्राह्मणप्रभाव के कारण है। इतनी समानतायें तो यही सिद्ध करती हैं कि छोटे-बड़े साजन जब गोत्रों में, धर्म में और ऐसे ही सारे अन्य अंगों में मिलते हैं तो दोनों में जो भेद पड़ गया है, वह ऊँच, नीच होने के कारण अथवा खान-पान में अन्तर पड़ने के कारण नहीं, वरन् किसी समय किसी सामाजिक समस्या, प्रश्न अथवा घटना के कारण है, जिसने उनको दो दलों अथवा दो शाखाओं में बुरी तरह विभाजित कर दिया है और धीरे २ वह पूरे वर्ग में प्रायः फैल गया है अथवा फैला दिया गया है और पक्का अथवा सुदृढ़ होता रहा है । कुछ ही कुल ऐसे हैं, जिनमें दो शाख नहीं पड़ी हैं और वे बृहद्शाखीय कहे जाते हैं । ___ आजकल लघुसन्तानीय के लिए इस्सा और बृहद्सन्तानीय के लिये बीसा शब्दों का ही प्रयोग अधिकतर होता है। एक दूसरी शाख भी एक दूसरी के लिये इनका ही प्रयोग करती है और वह अपने को भी लघुशाखा हुई तो दस्सा और बृहद्शाखा हुई तो बीसा कहती है। यह प्रयोग भी आजकल से नहीं होने लगा है । इसको भी सैकड़ों वर्ष हो गये हैं। परन्तु मेरे मत से है यह मुसलमानी राज्यकाल में चला हुआ। एक बीघा बीस विस्वा का होता है । दस्सा से प्रयोजन मूल्य, आदर, प्रमाण, जो कुछ भी ऐसा समझा जाय दश विस्था और बीसा से प्रयोजन वीस विस्वा से है और अर्थ भी ऐसे ही लगाये जाते हैं। लोग इसका यह आशय लेते हैं कि दस्सावर्ग बीसावर्ग से कुल की श्रेष्ठता में आठ आना भर है। ऐसा उनका कहने का एक ही आधार यह है कि दश विस्वा बीस विस्वा का आधा होता है. अतः दस्सावर्ग बीसावर्ग से श्रेष्ठता में आधा है। परन्तु यहाँ तो यह अनुमान बैठाया हुआ अथवा देखा-देखी निकाला हुआ अर्थ है और अनैतिहासिक है। इसका ऐतिहासिक आधार नहीं है। बात यह है कि मुसलमानों के राज्यकाल में क्षेत्रों का माप बीघा, विस्वा और विस्वान्सियों पर होता था और यह ही पद्धति समस्त भारत भर में फैल गई थी। यह पद्धति इतनी फैली और इतनी बढ़ी अथवा प्रिय हुई कि साधारण से साधारण अनपढ़ भी इस पद्धति से पूरा २ परिचित हो गया और जैसे यह वस्तु चार आनी, आठ आनी अच्छी है, अमुक बारह आनी अच्छी है, उस ही प्रकार विस्वाओं पर अनेक वस्तुओं का बोलचाल में Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद:: . 16A मूल्यांकन किया जाने लगा। इस वातावरण में लघुसन्तानीय अथवा लघुशाखीय को दस्सा और बृहद्शाखीय अथवा बृहद्सन्तानीय को बीसा कहने की प्रथा पड़ गई और वह निकटतम भूत में उत्पन्न हुई के कारण आज भी प्रचलित है । परन्तु शिलालेखों में ताम्रपत्रों में, प्रशस्ति-लेखों में, इसका कहीं प्रयोग देखने में नहीं आया है। प्राचीन से प्राचीन संवत्, जिनमें, ज्ञातिबोधक एवं शाखाबीवक शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ है, प्रमाण की दृष्टिं . से नीचे दिये जाते हैं। 'प्राग्वाट' शब्द का सर्वप्राचीन प्रयोग सिरोही-राज्य में कासंद्रा नामक ग्राम के जिनालय की देवकुलिकाओं में अनेक लेख हैं, उनमें से एक लेख वि० सं० १०६१ का है, उसमें हुआ है। उस लेख में लिखा है कि भिन्नमाल से निकला हुआ प्राग्वाटज्ञाति का वणिकवर, श्रीपति, लक्ष्मीवन्त, राजपूजित, गुणनिधान, बन्धुपद्मदिवाकर गोलंच्छी (१) नामक प्रसिद्ध पुरुष था ।१ उसके जज्जुक, नम्म और राम तीन पुत्र थे। उनमें से जज्जुक के पुत्र वाम ने संसार से भयभीत होकर मुक्ति की प्राप्ति के अर्थ इस जिनालय का निर्माण करवाया । वि० सं० १०६१ । 'उकेशज्ञाति' और 'बहद्शाखा' शब्दों का प्रयोग श्री बुद्धिसागरजी द्वारा संग्रहित धातु-प्रतिमा लेखों वाली पुस्तक 'श्री जैन-धातु-प्रतिमा-लेख-संग्रह भाग १' के पोसीनातीर्थ के लेखों में लेखांक १४६८ में वि० सं० १२०० में सर्वप्राचीन हुआ मिलता हैं। लेख का सार यह है कि सं० १२०० वर्ष की वैशाख कृष्णा २ के दिन श्री सावलीनगर में रहने वाली उकेशज्ञातीय बृद्धशाखा ने श्री अजितनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया ।२ .:. 'श्रीमाल' शब्द का भी सर्वप्राचीन प्रयोग मुनि श्री जयंतविजयजी द्वारा संग्रहित 'श्री अर्बुद प्राचीन-जैन-लेखसंदोह भाग २' के लेखांक १२३ में हुआ है। लेख का सार यह है कि श्रीमाल-ज्ञातीय सेठ आसपाल और उसकी स्त्री आसदेवी; इन दोनों के श्रेयार्थ श्राविका श्रासदेवी ने इस प्रतिमा को भराया, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १२२६ अथवा १२३६ के वैशाख शुक्ला १० को श्री धर्मचन्द्रसरि ने की ।३ उक्त लेखों के सारों से यह भलीविध सिद्ध हो जाता है कि विक्रम की आठवीं, नवीं, दशवीं शताब्दियों तक 'प्राग्वाट, ओसवाल, श्रीमाल' जैसे ज्ञातिबोधक शब्दों का प्रयोग करने की प्रथा ही नहीं थी। प्राचीनतम *दस्सा. घीसा के पर्यायवाची नाम लघु, वृद्धशाखा भी है। (श्रीमाली जाति नो वणिक भेद) :::... : -जे० सा० सं० इति पृ०३६० प्रा० ० ले०सं० भाग २ लेखांक ४२७ पृ०:२६१ (कासंद्रा के जिनालय में)... १-श्री-भिल्लमाल निर्यातः प्राग्वाटः वणिजा: वरः): श्रीपतिरिव लक्ष्मीयुग्गोलच्छी राजजितः।।.. श्राकरो गुणरत्नाना बन्धुपद्मदिवाकरः । जज्जुकस्तस्य पुत्रः स्यात् नम्मरामौ ततोऽपरौ।। 'जज्जुसुतगुणाढयेन वामनेन भवाद्भयम् ॥ दृष्ट्वा चक्रे गृहं जैनं मुक्त्यै विश्वमनोहरम् ।। संवत् १०६१ जै० धा०प्र० ले० सं०भा०१ लेखांक १४६८'पृ० २५५ (सांबली-पोसीनातीर्थ में): २-'सं० १२०० वैशाख बदी २ दिने श्री साबलीनगरे वास्तव्य उकेशज्ञातीय वृद्धशासा श्री अजितानाथबिंब कारोपित प्रतिष्ठितं ।' अ९ प्रा० ० ले० सं०भा०.२ लेखांक ५२३ पृ० ५.३२ .... ::. :३-'सं० १२२६ (३६) वैशाख शु० १० श्रीमालीय व्य० आसपाल भार्या श्रासदेवी । अनयोः पुण्यार्थ गुनासादि."(तथा) श्रासदेव्या बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री धर्मचन्द्रसरिभिः ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] :: प्राग्वाट - इतिहास :: ( द्वितीय लेखों में तो केवल प्रतिष्ठा - संवत् और बिंत्र का नाम ही मिलता है । फिर प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य का नाम दिया जाने लगा और इस प्रकार बढ़ते २ प्रतिमा बनवाने वाले श्रावक का नाम और उसके पूर्वजों तथा परिवार जनों के नाम भी दिये जाने लगे। परन्तु इन भावनाओं की उत्पत्ति हुई सामाजिक संगठन के शिथिल पड़ने पर, अपने २ वर्ग और फिर अपने २ कुल के पक्ष मण्डन पर । उन शताब्दियों में ज्ञातिवाद सुदृढ़ और प्रिय बन चुका था और जैनकुल भी उसके प्रभाव से विमुक्त नहीं रहे थे । अतः यह सम्भव है कि जैनकुल, जैनसमाज के जिस २ वर्ग के पक्ष के थे, उस २ वर्ग के नाम से अपने २ का कहने और लिखने लगे हों । तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इन शब्दों का प्रयोग एक दम बढ़ने लगा — इससे यह सिद्ध होता है कि जैनसमाज के उक्त तीनों वर्गों में उस शताब्दी से ही अन्तर पड़ना प्रारम्भ हुआ है और अपना २ स्वतन्त्र अस्तित्व एवं कार्य दिखाने की भावनायें प्रबल हो उठी हैं । यह ही प्राग्वाट, सवाल और श्रीमालवर्गों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करने की बात हुई । पोसीनातीर्थ के सं० १२०० के लेख में 'बृहदशाखीय' शब्द इस बात को सिद्ध करता है कि उस शताब्दी में 'बृहद्शाखा' विद्यमान थी, अतः यह भी सिद्ध हो जाता है कि लघुशाखा भी थी । यह जनश्रुति कि वस्तुपाल तेजपाल के प्रीतिभोज पर बृहद्शाखा और लघुशाखा की उत्पत्ति हुई मनगढ़ंत और निराधार प्रतीत होती है । उक्त मंत की पुष्टि में मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कई एक प्रमाण दिये हैं; परन्तु उनमें अधिकांश १८, १६ वीं शताब्दियों के हैं और कुछ प्रामाणिक और मनगढ़ंत हैं। श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर भी इस मत के विरोध में अपने 'दस्सा-सा भेद का प्राचीनत्व' लेख में लिखते हैं, ' दस्सा बीसा भेद के प्राचीनत्व को सिद्ध करने वाला प्राचीन प्रमाण है खरतर जिनपतिसूरिरचित 'समाचारी' । उक्त समाचारी की रचना वि० सं० १२२३ और १२७७ के बीच में हुई है। सूरिजी सं० १२७७ में स्वर्गवासी हुये ।' यह अवश्य सम्भव हो सकता है कि उक्त दोनों भ्राताओं ने कई बार बड़े २ संघभोज दिये थे; जिनमें अगणित ग्रामों, नगरों से श्रीसंघ और सद्गृहस्थ सम्मिलित हुये थे, किसी एक में कोई कारण से झगड़ा उत्पन्न हो गया हो और उस पर समाज में तनातनी अत्यधिक बढ़ चली हो और लघुशाखा वस्तुपाल के पक्ष में रही हो और वृद्धशाखा विरोध में और तब से ही वे अधिक प्रकाश में आई हों, अधिक सुदृढ़ और निश्चित (Conformed ) बन गई हों । परन्तु यह श्रुति कि लघुशाखा और वृद्धशाखा का जन्म ही वस्तुपाल तेजपाल द्वारा दिये गये किसी प्रीतिभोज में झगड़ा उत्पन्न हो जाने पर हुआ, पोसीना के वृद्धशाखा वाले सं० १२०० के लेख से झूठी ठहरती है; क्योंकि संवत् १२०० में तो वस्तुपाल तेजपाल का जन्म ही नहीं था और फिर इनके प्रीतिभोज तो वि० सं० १२७३-७५ के पश्चात् प्रारम्भ हुये थे और वृद्धशाखा इनके जन्म के कई वर्षों पूर्व ही विद्यमान थी । बात तो यह है कि जब जैनसमाज के उक्त तीनों वर्ग प्राग्वाट, ओसवाल और श्रीमाल अपने २ वर्ग का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करना चाहने लगे और उस दिशा में प्रयत्न करने लगे तथा उसके कारण परस्पर होते कन्या - व्यवहार में स्वभावतः बाधा उत्पन्न होने लगी अथवा कन्या - व्यवहार अपने २ वर्ग में ही करने की भावनायें जोर पकड़ने लगीं, तब समाज के कुछ लोगों ने इन भावनाओं को मान नहीं दिया और अगर उन पर जैनसमाज के अन्दर के अन्य वर्गों में कन्या - व्यवहार करने पर प्रतिबन्ध लगाये तो उनको स्वीकार नहीं किया और बराबर पूर्ववत् कन्या- व्यवहार चालू रक्खा; ऐसे उन कुछ लोगों का पक्ष थोड़ी संख्या में होने के कारण नाहटाजी का उक्त सारा लेख पठनीय है। Page #194 --------------------------------------------------------------------------  Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Maa हम्मीरपुर : राजमान्य महामंत्री सामंत द्वारा जीर्णोद्धारकृत श्री अनन्य शिल्पकलावतार जिनप्रासाद का पार्वतीय सुपुमा के मध्य एवं उसका उत्तम शिल्पमण्डित आन्तर दृश्य । देखिये पृ० ५९ पर । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::राजमान्य महामन्त्री सामन्त :: साघुशाखा के नाम से पुकारा जाने लगा और अन्य पक्ष में कन्या-व्यवहार नहीं करने वाले अधिक संख्या में होने के कारण उनका पक्ष समाज में सर्वत्र ही वहद्शाखा के नाम से कहा जाने लगा। दोनों में फिर मेल किये जाने के या तो प्रयत्न ही नहीं किये गये और या ऐसे किये गये प्रयत्न निष्फल ही रहे । कटुता बढ़ती ही गई और वृहद्शाखावाले और लघुशाखावाले अपने २ पक्ष की प्रसिद्धि करने के लिये तथा प्रचार करने की भावनाओं से अपनी २ शाखा के नाम लिखने लग गये । वस्तुपाल द्वारा दिये गये किसी भोज में झगड़े पर लघुशाखा के कुल वस्तुपाल के पक्ष में रहे हों और बृहद्शाखा में से भी अनेक नवीन कुल वस्तुपाल के पक्ष में रहे हों, जो अनेक ग्राम और नगरों के थे और इस प्रकार वह ही झगड़ा दोनों पक्षों को स्पष्टतः प्रकट और दूर २ तक तथा सर्वत्र जैनसमाज में और अन्य समाजों में भी धीरे २ प्रसिद्ध करने वाला हुआ हो । महान् व्यक्तियों के पीछे पड़ने वाले झगड़े भी तो महान् प्रभावक, लम्बे और विस्तृत एवं दृढ़ होते हैं, जो समस्त समाज को अनिश्चित काल के लिये या सदा के लिये समाक्रांत कर लेते हैं। अब पाठक समझ गये होंगे कि लघुशाखा और बृहशाखा जैसे पक्षों का जन्म तो जैनसमाज में अपने २ वर्ग का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करने की फूटवाली भावनाओं के साथ ही मंत्रीमाताओं के जन्म से कई वर्षों पूर्व ही हो चुका था और वे बनती भी जा रही थीं। वस्तुपाल द्वारा दिये गये किसी महान् संघ-भोजन पर उन दोनों शाखाओं में दृढ़ता आई और वे सदा के लिये अपना अलग अस्तित्व स्थापित करके विश्रान्त हुई—मेरा ऐसा मत है। बाद में लघुशाखा के कुलों में भी कन्या-व्यवहार अपने २ वर्ग के कुलों में ही सीमित हो गया। राजमान्य महामन्त्री सामन्त वि० सं० ८२१ यह विक्रम की नवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ है । यह बड़ा ही धनी एवं जिनेश्वरदेव का परम भक्त श्रावक था। इसने भगवान् महावीर के उनत्तीसवें (२६) पट्टनायक श्रीमद् जयानंदसुरि के सदुपदेश से ६०० नव सौ जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार अनंत द्रव्य व्यय करके करवाया था तथा सिद्धान्तों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से भंडारों की स्थापना की थीं। सिरोही राज्यान्तर्गत (राजस्थान ) हम्मीरगढ़ नामक एक छोटा सा ग्राम है। यह दो सहस्र वर्ष से भी प्राचीन ग्राम है । उस समय इसका प्राचीन नाम दूसरा था। सम्राट् संप्रति का बनवाया हुआ यहाँ एक मन्दिर विद्यमान है, जिसका मंत्री सामंत ने उक्त प्राचार्य के उपदेश से वि० सं०८२१ में जीर्णोद्धार करवाया था।२ १-त. पट्टा पृ०६६. . . . २-हम्मीरगढ़ पृ० २१. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:::...: [द्वितीय .......... कासिन्द्रा के श्री शांतिनाथ-जिनालय के निर्माता श्रे० वामन .. . . वि० सं० १०६१ श्रे० बामन के पूर्वज ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व भिल्लमालपुर में रहते थे। श्रे० वामन के पितामह श्रे० गोलंच्छी भिल्लमाल का त्याग करके कासिन्द्रा ग्राम में आकर बसे थे ।१-२ श्रे० गोलंच्छी के जज्जुक, नम्म और राम तीन पुत्र थे। श्रे० गोलंच्छी अत्यन्त ही धनवान था। उसका राजा महाराजाओं में भारी संमान था। वह गुणरूपी रत्नों की खान माना जाता था और अपने वंशरूपी कमल के लिये सूर्य के समान सुख पहुंचाने वाला था। ऐसे श्रेष्ठिवर्य गोलंच्छी के तीनों पुत्र भी महागुणात्य एवं धर्ममूर्ति ही थे। श्रे० वामन श्रे० जज्जुक का पुत्र था । श्रे० वामन भी महागुणी और सदा मोक्ष की इच्छा रखने वाला शुद्धव्रतधारी श्रावक था । श्रे० वामन ने भगवान् शान्तिनाथ का अति ही मनोहर जिनालय वि० सं० १०६१ में बंधवा कर महामहोत्सवपूर्वक उसको प्रतिष्ठित करवाया और उसमें भगवान् शान्तिनाथ की दिव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। . प्राचीन गूर्जर-मन्त्री-वंश गुर्जरमहाबलाधिकारी दण्डनायक विमल और उसके पूर्वज एवं वंशज गुर्जरसम्राट् वनराज : वि० सं० ८०२ से गूर्जरसम्राट् कुमारपाल : वि० सं० १२३३ पर्यन्त महामात्य निन्नक विक्रम की आठवीं शताब्दी में प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर श्रीमालपुर में निना, निनाक या निन्नक नामक कुलश्रेष्ठि गर्भश्रीमंत प्राग्वाटज्ञातीय एक पुरुष रहता था। वह कुलदेवी अंबिका का परम भक्त था । श्रीमालपुर४ के प्रसिद्ध दंडनायक विमल का प्रपिता. धनीजनों में वह अग्रगण्य था । देववशात् उसका द्रव्य कुछ कम हो गया और उसको मह श्रे० निनक श्रीमालपुर में रहने में लज्जा का अनुभव होने लगा। वह श्रीमालपुर को परित्यक्त करके गूर्जरप्रदेश के अन्तर्गत आये हुये गांभू नगर में जा बसा। वहाँ वह कुछ ही समय में अपनी बुद्धि, पराक्रम १-१० प्र० जै० ले० सं० लेखांक ६२१. २-प्रा० ० ले० सं० भा० २ लेखांक ४२७. ३-श्री विधिपक्ष (अंचल) गच्छीय 'महोटी पट्टावली', जिसका गुजराती-भाषांतर जामनगर निवासी पं० हीरालाल हंसराज ने किया है के पृ०८३-११५ देखिये । निन्नक को काश्यपगोत्रीय नरसिंह का पुत्र होना लिखा है, परन्तु इसकी किसी प्रशस्ति-लेख से पुष्टि नहीं होने के कारण यह मान्य नहीं किया गया है। ४-श्रीमालपुराण, हेमचन्द्राचार्यकृत द्वयाश्रय, उपदेशकल्पवल्ली, विमल प्रबन्धादि प्राचीन ग्रंथों में श्रीमालपुर के भिल्लमालपुर, पुष्पमालपुर, रलमालपुर और भिनमालपुर नाम भिन २ युगों में पड़े हैं का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में यह नगर मरुधरप्रान्त के अन्तर्गत है और 'भिन्नमाल' नगर के नाम से प्रख्यात है। मरुधर प्रान्त की राजधानी 'जोधपुर' से भिन्नमालनगर १७ मील दक्षिण, पश्चिम में ७५ मील दूर तथा अबुंदगिरि से वायव्य कोण में लगभग ५० मील दूर तथा अणहिलपुरपत्तन (गुजरात) से उत्तर में ८० मील पर है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और दंडनायक लहर :: एवं परिश्रम से पुनः वैसा ही कोटीश्वर एवं प्रसिद्ध हो गया। जब वि० सं०८०२ में वनराज ने अणहिलपुरपत्तन की नींव डाली, तब वह निन्नक को बड़े सम्मान के साथ अणहिलपुरपत्तन में स्वयं लेकर आया. और उसको मन्त्रीपद पर आरूढ़ किया । गूर्जरेश्वर वनराज निन्नक का सदा पितातुल्य सम्मान करता रहा । निनक ने भी गूर्जरभूमि एवं गूर्जरेश्वर की तन, मन, धन से सेवा की। निनक ने अणहिलपुर में ऋषभ-भवन (आदीश्वरजिनमन्दिर) बनाया तथा उक्त मन्दिर को ध्वन-पताकाओं से सुशोभित किया । ___गूर्जरेश्वर वनराज पर शीलगुणसूरि तथा निन्नक का अतिशय प्रभाव था। इन दोनों को वह अपने संरक्षक एवं पितातुल्य समझता था। फलतः उसके ऊपर जैनधर्म का भी अतिशय प्रभाव पड़ा। गूर्जरेश्वर वनराज ने शीलगुणसूरिगुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के अभिप्राय से पंचासर-पार्श्वनाथ वनराज पर जैनधर्म का प्रभाव " नामक एक विशाल जैनमन्दिर बनाया। इसमें निनक के प्रभाव का अधिक फल था । · महामात्य निनक की स्त्री का नाम नारंगदेवी था। नारंगदेवी की कुक्षि से महापराक्रमी पुत्र लहर का जन्म हुआ। लहर अपने पिता के तुल्य ही बुद्धिमान, शूरवीर एवं रणनिपुण निकला। नारंगदेवी वीर एवं धर्मात्मा निचक की स्त्री नारंगदेवी व . पति की धर्मानुरागिणी एवं उदार चित्तवाली पत्नी थी। उसने अणहिलपुरपत्तन में पराक्रमी पुत्र लहर . नारिंगण पार्श्वनाथस्वामी की वि० सं०८३८ में प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। महामात्य निनक ने अपनी पतिपरायणा स्त्री के नाम से नारंगपुर नामक एक नगर बसाया और उस नगर में उसके श्रेयार्थ श्री पार्श्वनाथ-चैत्यालय बनाया, जिसकी प्रतिष्ठा शंखेश्वरगच्छीय श्रीमद् धर्मचन्द्रमुरिजी के उपदेश से हुई। सम्राट् वनराज का देहावसान वि० सं० ८६२ में हुआ । इसकी मृत्यु के २-४ वर्ष पूर्व ही महामात्य निन्नक स्वर्गवासी हुआ । महामात्य निनक अपनी अन्तिम अवस्था तक गूर्जर-साम्राज्य की सेवा करता रहा। इसमें कोई शंका नहीं कि अगर गूर्जरसम्राट् वनराज अणहिलपुर एवं अपने वंश का प्रथम गूर्जरसम्राट् था, तो निनक गूर्जरसाम्राज्य की नींव को सुदृढ़ करने वाला प्रथम महामात्य था। वनराज की मृत्यु के पूर्व ही लहर ने अपने योग्य वृद्ध पिता का अमात्य-भार सम्भाल लिया था। दंडनायक लहर क लहर . . गूर्जरसम्राट वनराज को हाथियों का बड़ा शौक था। महामात्य निमक ने भी हाथियों का एक विशाल दल खड़ा किया था। लहर वीर एवं महा बुद्धिमान था। पिता की उपस्थिति में ही वह दंडनायक पद पर प्रारूड़ दंडनायक विमल का पिता. हो चुका था। वह अपने पिता के सदृश ही अजेय योद्धा, महापराक्रमी पुरुष था। एक मह दंडनायक लहर महाबलशाली गूर्जर-सैन्य लेकर विद्याचलगिरि की ओर चला । मार्ग में आई हुई अनेक बाधाओं को पार करता हुआ, विहड़ वन, उपवन, अगम्य पार्वतीय संकीर्ण मार्गों में होकर विद्यगिरि के * बन्धुमइयाह अहिल्लपुरे वणरायनिवइनीएण| विज्जाहरगच्छेरिसहजिणहरं तेण कारवियं ॥ . D. C. M. P. (G. O. V. L XXVI.) P. 253 (चन्द्रप्रभस्वामी-चरित्र), Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय विषम प्रदेश में पहुँचा। अनेक हाथियों को पकड़ा और उनको लेकर अपने देश को लौटा । लहर को इस प्रकार हाथियों को ले जाता हुआ सुनकर, देखकर अनेक नरेन्द्रों ने लहर पर आक्रमण किये । परन्तु महापराक्रमी लहर और उसके वीर एवं दुर्जेय योद्धाओं के समक्ष किसी शत्रु का बल सफल नहीं हुआ। इस प्रकार लहर अनेक उत्तम हाथियों को लेकर अपने प्रदेश गूर्जर में प्रविष्ट हुआ । सम्राट वनराज ने जब सुना कि दंडनायक लहर अनेक उत्तम हाथियों को लेकर सकुशल पा रहा है, वह भी अणहिलपुरपत्तन से लहर का सम्मान करने के लिये संडस्थलनगर पहुंचा । लहर के इस साहस पर सम्राट् वनराज अत्यन्त मुग्ध हुआ और लहर को जागीर में संडस्थलनगर और टंकशाल-अधिकार प्रदान किया। दंडनायक लहर ने संडस्थलनगर में एक विशाल मन्दिर बनवाया और उसमें लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करवाई। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि वह जैसा लक्ष्मी का पुजारी था, वैसा ही अनन्य पुजारी सरस्वती का भी था । दंडनायक लहर को उपरोक्त विजययात्रा में विपुल द्रव्यसमूह की भी प्राप्ति हुई थी। उसने अपनी टंकशाल में उक्त द्रव्य की स्वर्ण-मुद्रायें बनवाकर उन पर लक्ष्मी की मूर्ति अंकित करवाई। लहर दीर्घायु था और वह लगभग डेढ़ सौ (१५०) वर्ष पर्यन्त जीवित रहा. तथा लगभग १३० वर्ष वह दंडनायक और अमात्यपद जैसे महान् उत्तरदायी पदों पर रहकर गूर्जर-भूमि एवं गूर्जर-सम्राटों की अमूल्य सेवा करता रहा । महामात्य निन्नक तथा दंडनायक लहर की दीर्घकालीन एवं अद्वितीय सेवाओं का ही प्रताप था कि - *चावड़ावंश के शासकों के नामों में तथा उनके शासनारूढ़ होने के संवतों में जो भ्रम है, वह तब तक दूर नहीं होगा, जब तक कोई अधिक प्रकाश डालने वाला आधार प्राप्त नहीं होगा। फिर भी जैसा अधिक इतिहासकार कहते हैं कि चावड़ावंश का राज्य वि० सं०८०२ से वि० सं०६६३ तक रहा, मैं भी ऐसी ही मान्यता रखता हूँ। वनराज चावड़ा का महामात्य निन्नक, नानक नाम वाला पुरुष था, जिसको मैंने निचक करके वर्णित किया है। महामात्य निनक का अन्तिम पुत्र लहर और लहर का अन्तिम पुत्र वीर था । बनराज वि० सं०८०२ में शासनारूढ़ हुआ और बालक मूलराजचालूक्य वि० सं० ६६३ में । इस १६१ वर्ष के अन्तर में केवल निनक और लहर का ही अमात्यकाल प्रवाहित रहा, यह कुछ इतिहासकारों को खटकता है। वनराज की आयु जब ११० वर्ष और उसके पुत्र योगराज की आयु १२० वर्ष की थी, तब समझ में नहीं आता इतिहासकार लहर को दीर्घायु मानने में क्यों शंका करते हैं। 'History stands on its own legs and not others' provided'. वनराज के अन्तिमकाल में लहर ने अपने पिता निनक का अमात्यभार सम्भाल लिया था। लहर ने लगभग वि० सं०८६० में अमात्यपद ग्रहण किया और वह इस पद पर आरूढ़ होने के पश्चात् लगभग १३० वर्ष पूर्ण महामात्य रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं, अगर हम उसकी आयु १५० वर्ष के लगभग मानने में आश्चर्य नहीं करते है तो। वे इतिहासकार जो लहर को इतना दीर्घायु होना नहीं मानते, वीर को लहर का पुत्र होना भी नहीं मानते हैं, क्योंकि वीर मूलराज चालूक्य का महामात्य था, जो वि० सं०६६८से शासन करने लगा था। श्री हरिभद्रसूरिविरचित 'चन्द्रप्रभस्वामी चरित्र' के अन्त में दी हुई श्री विमलशाह के वंश की प्रशस्ति वि० सं० १२२३ के अनुसार भी वीर लहर का पुत्र सिद्ध होता है, क्योंकि इस प्रशस्ति में लहर और वीर के बीच किसी अन्य पुरुष का वर्णन नहीं है। अर्बुदगिरिस्थ विमलवसति में वि० सं०१२०१ का दशरथ का शिलालेख है। जिससे सिद्ध है कि दशरथ वीर मंत्री के पौत्र का पौत्र (प्रपौत्र-पुत्र) था और वीर मंत्री का शरीरान्त वि० सं०१०८५ में हुश्रा । इस प्रकार वीर से पांचवीं पीढ़ी में दशरथ हुआ है। दशरथ जैसा प्रतिभासम्पन्न पुरुष सौ वर्ष से कम पूर्व हुये अपने प्रपितामह के विश्रत पिता और प्रपितामह के नामों को नहीं जाने या अपनी अति विश्रत मात्र पांच या छः पीढ़ियों के क्रमवार नाम उत्कीर्ण करवाने में भूल कर जाय अमाननीय है । वीर जब चालूक्य मूलराज का, जो वि० सं०६८ में शासन चलाने लगा था, महामात्य है और वह वि० सं०१०८५ में स्वर्गवासी हुभा, तथा वह लहर का पुत्र था, सहज सिद्ध हो जाता है कि लहर दीर्घायु था और उसका अमात्यकाल १३० एक सौ तीस वर्ष पर्यन्त रहा है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-चंश और महामात्य महात्मा वीर :: चावड़ावंशीय सम्राट् गूर्जर-साम्राज्य को जमाने में सफल हो सके। लहर ने क्रमशः पाँच गूर्जर सम्राटों की सेवायें की। निन्नक और लहर की सेवाओं का गूर्जरभूमि एवं गूर्जर-सम्राटों पर अद्वितीय प्रभाव पड़ा और परिणाम यह हुआ कि निन्नक के वंशज उत्तरोत्तर गूर्जर सम्राट् कुमारपाल के शासनकाल तक अमात्य तथा दंडनायक जैसे महोत्तरदायी पदों पर लगातार आरूढ़ होते रहे। दंडनायक लहर का वीर नामक पुत्र था। लहर के समय में ही वह योग्य पद पर आरूढ़ हो चुका था। अपने पिता के समान ही वीर भी शूरवीर, नीतिज्ञ एवं दीर्घायु हुआ । इसने चालूक्यवंशीय प्रथम गूर्जर-सम्राट दंडनायक विमल के पिता मूलराज से लेकर उसके पश्चात् गूर्जरभूमि के राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने वाले सम्राट महात्मा वीर चामुण्डराज, वल्लभराज एवं दुर्लभराज की दीर्घकाल तक सेवायें की। और देखिये! गुजरेश्वर सम्राट कुमारपाल के महामात्य पृथ्वीपाल के अर्बुदगिरिस्थ विमलवसतिगत वि०सं०१२०४ के लेख से भी बौर मंत्री लहर का पुत्र था और लहर निनक का पुत्र था सिद्ध होता है। पृथ्वीपाल और दशरथ में से एक या दोनों ने अपने क्रमशः पितामह धवल और लालिग को देखा होगा और धवल और लालिग में से एक या दोनों ने अपने दीर्घायु पितामह वीर को देखा होगा और वीर के मुंह से उन्होंने निचक और लहर को कीर्तिकथानों का कभी वर्णन सुना ही होगा और अपने पौत्र पृथीपाल और दशरथ को उनकी कौर्तिकथायें कभी कही ही होंगी। भाज भी अगर हम किसी प्रौढ़ समझदार व्यक्ति से उसके कुछ पूर्वजों के नाम पीढ़ीकम से पूछना चाहें तो शायद ही कोई व्यक्ति मिलेगा जो क्रमशः अपने ४-५ पीढियों में हुये परंपरित पूर्वजों के नाम नहीं बता सकता हो। यह बात केवल साधारण श्रेणी के पुरुषों के लिये है। असाधारण प्रतिभासम्पन पुरुषवरों के लिये क्रमशः अपने असाधारण पराक्रमी ५-६ पीढियों में उत्पन हुये पूर्वजों के नाम जानना कोई जाचर्य की बात नहीं। इतना अवश्य मानना पड़ेगा और सिद्ध भी हो जाता है कि दीर्घायु लहर निनक का अन्तिम पुत्र था और लहर का वीर अन्तिम पुत्र, जिसका जन्म लहर की सौ वर्ष की आयु पश्चात् हुना होगा । इस विषमकाल में आज भी कोई न कोई ऐसे दीर्घायु पुरुष मिल ही जावेंगे, जिनकी आयु १५० वर्ष के लगभग होगी। अतः मुनिराज साहब जयंतविजयजीका अपनी 'अ० प्रा० ० ले० संदोह' के अवलोकन भाग पृ० २७१ की चरणपंक्तियों में यह लिखना कि 'मै० वीर लहर नो खाश पुत्र नहीं, पण तेमना वंश मा अमुक पेढीये उत्पच थयैल मानी शकाय'-इतने प्राचीन लेख, प्रशस्ति श्रादि की विद्यमानता पर केवल कल्पना प्रतीत होती है। इतिहासकारों के निकट अर्वाचीन कल्पनाओं की अपेक्षा प्राचीन शिलालेख एवं प्रशस्तियों का मूल्य अधिक है। विमल-प्रबन्ध के कर्ता ने लिखा है 'नीन मंत्रि गांभू जाणीउ, बेटा लहिर सहित भाणीउ। यह लिखना कि निबक जब महामात्यपद पर आरूढ़ हुभा था, लहर उत्पन्न हो चुका था-अमान्य है। विमलप्रवन्ध के कर्ता का उद्देश्य केवल चरित्रनायक की कीर्चि ग्रंथित करने का था; अतः अगर ऐतिहासिक तत्त्वों की ऐसे प्रसङ्गों पर अवहेलना हो जाती है तो सम्भाव्य है। वगततुरयघट्टस्स विझगिरिसंनिवेसपत्तस्स । समग्गगहियकुंजरघडस्स तह निययपुरसमुह ॥ श्रागमिरस्स रिजहिं तग्गयगहणूसुएहिं सह समरे । जस्सेह विझवासिणीदेवी धणुहम्मि अवाना ॥ ता पत्तसत्तविजएण तेण सा विझवासिणीदेवी। पणयजणपूरियासा ठविया रू (सं) डत्थलग्गामे ॥ मह लच्छि-सरस्सईओ सद्धम्मगुणाणुरंजियाओ च । जस्सुझियईसाउ मुचंति न संनिहाणं पि॥ तह सिरिवलो बद्धो वित्तपड़ो जेण टकसालाए । संठविभो लच्छी उण निवेसिया सयलमुद्दासु ।। D.C. M. P.(G.O. V. LXXVI.) P. 254. (चन्द्रप्रमस्वामी-चरित्र) लंणइ लहिर लहिर पापणी, वेगि गयु बंध्याचल भणी । 'गरथ बडई गज घट ल्यावीउ', तु राजा सम्मुख मानीउ ॥४४॥ वि० प्र० ख०३ पृ०१०० चिह्नित पंक्ति का अर्थ लालचन्द्र भगवानदास यह करते हैं कि 'गरथ वड़े गज घटा लाव्या' परन्तु, अर्थ यह है कि 'गज घटा रूपी बृहद् द्रव्य को लाया' । उक्त प्रकार विमल-प्रबन्ध के कर्ता विद्याचल के संनिवेश में से हाथियों के लाने की घटना का ही वर्णन करते है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ द्वितीय • भारतवर्ष के इतिहास में दशवीं एवं ग्यारहवीं शताब्दी उस समय के छोटे-बड़े राजाओं में चलती प्रतियोगिता एवं प्रतिद्वंद्वताओं के लिये अधिक कुप्रसिद्ध है, जिसके परिणामस्वरूप भारतवर्ष पर यवनों के आक्रमण हुये हैं । इन शताब्दियों में समूचा उत्तर-भारत धीरे २ यवन- आक्रमणकारियों से पद्दलित हुआ, अपने गौरव एवं मान से भ्रष्ट हुआ। ऐसे विषम एवं महाविपत्तिपूर्ण समय में कोई जो लगातार चार महापराक्रमी सम्राटों का महामात्य रहा हो वह कितना वौर, योग्य एवं दृढ साहसी व बुद्धिमान होगा और वह भी फिर गूर्जर भूमि जैसी सम्पत्ति एवं बैभवपूर्ण धरा काः । सम्राट् चामुण्डराज की महामात्य वीर पर अधिक प्रीति रही। इसका कारण यह था कि चामुण्डराज की अधिक हो जाने पर भी उसको पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई । एक समय महाप्रभावक श्राचार्य वीरगणि हिलपुरपत्तन में पधारे । सम्राट् चामुण्डराज श्राचार्य वीरगणि का बड़ा भक्त था । एक दिन सम्राट् चामुण्डराज ने महामन्त्री वीर को कहा कि मेरे तुम्हारे जैसा महात्मा महामात्य है और महाप्रभावक वीरसूरि जैसे गुरु हैं, फिर भी सोडवलेली मेहलाण, गज देषी राथ्यु हराए । सांडथलू' तव किद्ध पसाइ, लोक भइ न वराशिङ राइ ॥४५॥ चिहुँ दिशि मुहुत हिरनि चड्यो, टंकसालि सोनैया पड्या । टंकसाल कीधी आपणी, राजन मया करि छ घणी ॥४६॥ - वि० प्र० ख० ३ पृ० १००-१०२. यह पूर्व ही चरणपंक्ति में लिखा जा चुका है कि चावडावंश के सम्राटों के नामों में तथा उनके शासनारूढ़ होने के संयतों में भ्रम है । परन्तु यह तो सिद्ध है कि प्रथम चालूषयसम्राट् मूलराज वि० सं० ६६८ से शासन करने लगा था । रासमाला १ - वनराज ८०२-८६२ २ - योगराज ८६२ - ८६७ ३ - क्षेमराज ८६७-६२२ ४ - भुवड़ (बिथु ) ६२२-६५१. ५- वैरीसिंह (विजयसिंह ) ६५१-६७६. ६ - रत्नादित्य ( रावतसिंह ) ६७६-६६१ ७- सामंतसिंह ६६१-६६८ १६.६ शासन-काल ( विक्रम संवतों में ) प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास १- वनराज ८२१-८३६ २ - चामुंडराज ८३.६-८६२ ३- योगराज ८६२ - ८६१ ८६१-८६४ ४ - रत्नादित्य ५-बैरीसिंह ६- क्षेमराज ६०५-६३७ ८६४-६०५ ७ - चामुंडराज ६३७-६६४ ८- घाघड़ E-भूभूट ६६५-६६२ ६६३.२०१७ १६६ प्रबन्ध चिन्तामणि १ - वनराज ८०२-८६२ २- योगराज ८६२ ८६.७. ३- क्षेमराज ८६७-६२२ ४-भूवड...... ६२२-६५१ ५- वैरीसिंह ६५१-६७६. ६-रत्नादित्य् ६७६-६६१ ७ - सामंतसिंह ६६१-६६८ १६६ रा० मा० भा० १ पृ० ३६, ३७, ३८. प्र० चि० पृ० १४, १५. (वनराजादि प्रबन्ध ) सो चालुक्कभिरिमुलराय-चामुण्डरायरज्जेंसु । वल्लहराय-राराहिवदुल्लहरायाणमवि काले || निच्च पि एक्कमंती जाओ पज्जंतचरियचारित्तो । सिरिमूलरायनश्व इरज्जालयं कुरो वीरो ॥ - D. C. M. P. ( G. O. V.no. LXXVI.) (चन्द्रप्रभस्वामी - चरित्र) P. 254. श्रीमन्मूलनरेन्द्रसनिधिसुधानि दसेिकित प्रज्ञापात्रमुदात्तदान चरितस्तसूनुरासीद (द्व) रः ||४|| निजकुल कमल दिवाकर कल्पः कार्थसार्थक कल्पतरु | श्रीमद् वीरमहत्तम इति यः ख्यातः क्षमावलयेः ।।५।। - श्र० प्र० जै० ले० स० भा० २ लेखांक ५.१ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य महात्मा वीर :: एक चिंतारूप ज्वर मुझको रात-दिन पीड़ित करता रहता है। महात्मा वीर ने राजा की चिंता के कारण को वीरसूरिजी के समक्ष निवेदन किया । सूरिजी महाराज ने वीर मन्त्री को अभिमन्त्रित वासक्षेप प्रदान किया और कहा कि इसको राणी के मस्तिष्क पर डालने से राजा को यथावसर पुत्र की प्राप्ति होगी। यथावसर राजा को वल्लभराज एवं दुर्लभराज दो पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हुई। सम्राट चामुण्डराज महात्मा वीर का आयु भर आभार मानता रहा और उसके पश्चात् उसके दोनों पुत्रों ने भी महात्मा वीर का मान अक्षुण्ण बनाये रक्खा । वीर की स्त्री का नाम वीरमति था । वीरमति की कुक्षी से नेढ़ और विमल नामक दो महामति एवं पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुये । वीर जैसा योग्य महामात्य था, शूरवीर योद्धा था, वैसा ही उत्तम कोटि का श्रावक एवं धर्मवीर वीर की स्त्री और उसके पुत्र था। उसने अपनी अन्तिम अवस्था में समस्त सांसारिक वैभव, अतुल सम्पत्ति, प्रिय नेढ़ और विमल स्त्री, पुत्र, कलत्र, महामात्यपद को छोड़कर चारित्र (साधुपन) ग्रहण किया और इस प्रकार परलोकसाधन करता हुआ वि० सं० १०८५ में स्वर्गवासी हुआ ।४ उसके दोनों पुत्र नेढ़ और विमल उसकी १-राडेरकगच्छीय चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य प्रभाचन्द्रसूरि ने वि० सं०१३३४ में 'प्रभावकचरित्र' नामक एक अमूल्य ग्रंथ की रचना की है । उक्त ग्रंथ में १५वा वीरसरि-प्रबन्ध है । इस प्रबन्ध में उक्त घटना का वर्णन है। घटना सच्ची प्रतीत होती है, परन्तु पीरगणी का समय ग्रंथकर्ता ने इस प्रकार लिखा है, जो मिथ्या है। ___ जन्म-२०६३८ दीक्षा-२०६८० निर्वाण स-६६१। सम्राट् चामुण्डराज का शासनकाल वि. सं०१०५३-६६, इन शासन-संवतों से तो यही प्रतीत होता है कि तब " वल्लभराज का , १०६६-६६३ दशवीं शताब्दी में उत्पन्न वीरसरि और कोई दूसरे प्राचार्य , दुलेभराज का " " १०६१३-७७ J होंगे। इस नाम के अनेक आचार्य हो गये हैं। या ग्रंथकर्ता ने भूल से अन्य इसी नाम के प्राचार्य का काल उक्त आचार्य का निर्देश कर दिया है। २-श्रीमन्नेढो धीधनो धीरचेता बासीन्मंत्री जैनधर्मकनिष्ठः। आद्यः पुत्रस्तस्य मानी महेच्छ: त्यागी भोगी बंदुपद्माकरेन्दुः॥६॥ द्वितीय को द्वैतमतावलंबी दण्डाधिपः श्री विमलो बभूव ।..... ............."||७|| अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ लेखांक ५१ (विमलवसतिगत लेख) वीरकुमर गेहड़ी मझारी, वीरमती परणाविउ नारि । राजकाज छोड्या व्यापार, मनशुद्धई माडिउ व्यवहार ॥५०॥ जोउ जोउ विमल जनम हूउरे, जोउ जोउरे हौत्रा त्रिभुवन जाण तु ।" ........""""||६२॥ वि० प्र० पृ०१०२,१०५ विमलप्रबन्ध के कर्ता का उद्देश्य चरित्रनायक की कीर्तिकथा वर्णन करने का है. नहीं कि ऐतिहासिक दृष्टि से कारणकार्य पर विचार करते हुए समय, स्थान का पूर्ण ध्यान रखते हुये घटनाओं का क्रम सजाने का। जैसा सिद्ध है कि विमल का ज्येष्ठ भ्राता नेढ़ था, परन्तु विमल प्रबन्धकर्ता ने नेढ़ का यथास्थान उल्लेख नहीं किया है जो अखरता है। पञ्चासवी गाथा की द्वितीय पंक्ति भी यहां अखरती है । 'राज्यकार्य छोड़ दिया, आत्मा की शुद्धि में लग गये और फिर ६२वी (बासठवी) गाथा में पुत्रोत्पत्ति का वर्णन करना रचनाशैली की दृष्टि से आलोच्य है। उत्तमकोटि का श्रावक वह ही कहा जा सकता है जो श्रावक के १२ बारह व्रतों का परिपालन करने का व्रत लेता है और यथा विध उनको श्राचरता है। ३-प्राणिवधो मृषावादो२ ऽदत्त मैथुनं ४ परिग्रहश्चैव" । दिगद भोगो दंड: सामायिक देशस्तथा १० पोषधा विभाग: १२॥ ४-उपदेशकल्पवल्ली और विमल-प्रबन्ध में लिखा है कि जब मंत्री वीर के स्वर्गारोहण के पश्चात् विधवा वीरमती दारिद्रय से अति पीड़िता हो उठी और द्वेषी मनुष्यों से सताई जाने लगी, तब वह पत्तन छोड़ कर अपने पुत्रों सहित अपने पिता के घर चली गई और वहीं दुःख के दिवस निकालने लगी। यह कथा असत्य एवं निराधार प्रतीत होती है। कारण कि वि० सं०१०८८ में विमलशाह ने अर्बुदगिरि पर विमलवसति नामक जगद्विख्यात मन्दिर १८,५३,००,०००) रुपये व्यय करके विनिर्मित करवाया तथा कई वर्ष इससे पहिले वह विवाहित हो चुका था, सम्राट भीमदेव उसकी वीरता एवं पराक्रम से प्रसन्न होकर उसको महादंडनायकपद पर आरूढ़ कर चुके थे, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट इतिहास :: ६६ ] [ द्वितीय जीवित अवस्था में ही क्रमशः महामात्यपद एवं दंडनायकपदों पर आरूढ़ हो चुके थे । पत्तनवासी श्रे० श्रीदत्त की गुणशीला एवं अति रूपवती कन्या श्रीदेवी के साथ में विमल का विवाह हुआ था । महामात्य नेढ़ जैसा ऊपर कहा जा चुका है, नेढ़ महात्मा वीर का ज्येष्ठ पुत्र था । नेढ़ प्रखर बुद्धिमान, धर्मात्मा एवं शान्तप्रकृति पुरुष था । गुर्जर सम्राट् भीमदेव प्रथम के शासन समय में यह महामात्य रहा । गूर्जर - महामात्यों में दंडनायक विमल का ज्येष्ठ अपने स्वाभिमान के लिये प्रसिद्ध रहा है । अतिरिक्त इन अनेक गुणों के वह आता महामात्य नेद महादानी तथा दृढ़ जैन श्रावक था । महाबलाधिकारी दंडनायक विमल यह नेढ़ का कनिष्ठ भ्राता था। यह बचपन से ही अत्यन्त वीर एवं निडर था । विमल को धनुषविद्या, घुड़सवारी और अन्य अस्त्र-शस्त्र के प्रयोगों में बड़ी रुचि थी। वह ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ, उसकी वीरता एवं निडरता की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी । विमल जैसा वीर एवं निडर था, वैसा विमल का दंडनायक बनना ही द्वितीय रूपवान, गुणवान, ब्रह्मत्रती, धर्मव्रती था । विमल को अनेक गुणों में अद्वितीय देखकर उस समय के लोग कल्पना करने लगे थे कि उसको ये सारे विशिष्ट गुण आरासण की अम्बिकादेवी ने उसके शील और धर्मव्रत पर प्रसन्न होकर प्रदान किये हैं । कुछ भी हो विमल अद्वितीय धनुर्धर - योद्धा वह सौराष्ट्र, कुंकण, दम्भण, सजाये, चीखली, सौपारक आदि अनेक प्रदेशों के राजाओं को परास्त कर चुका था तथा चन्द्रावती को अधीन करके वहीं शासन कर रहा था । उपरति इनके वि० सं० २०८५ में पिता की मृत्यु के समय और इससे भी पूर्व नेढ़ और विमल योग्य एवं महत्वशाली पदों पर आरूढ़ हो चुके थे। *तत्थ य निहरिणयदोसो पर्यायकमलोदश्रो दिणयरो व्व । सिरिभीमएवरज्जे नेढ़ो त्ति महामई पढ़मो ॥ D. C. M. P. (G. O. V, LXX VI.) P. 254 ( चन्द्रप्रभस्वामि-चरित्र) श्रीमन्नेदौ धीधनो धीरचेता श्रासीन्मंत्री जैनधर्मै कनिष्ठः । श्राद्यः पुत्रस्तस्य मानी महेच्छः भोगी बन्धुपद्माकरेंदुः ॥ ६ ॥ श्र० प्रा० जै० ले० स० भा० २ लेखाङ्क ५१ (विमलवसतिगत प्रशस्ति) विमलवसति से सम्बन्धित हस्तिशाला में विनिर्मित दश हाथियों में एक हाथी महामात्य नेढ़ के स्मरणार्थ बनवाया गया है:(४) सं० १२०४ फागु (ल्गु) ण सुदि १० शनौ दिने महामात्य श्री नेढ़कस्य । - प्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ लेखाङ्क ३५१ महामात्य नेढ़ का इससे अधिक उल्लेख नहीं मिलता है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर-मन्त्री - वंश और महाबलाधिकारी दंडनायक विमल :: [ ६७ था । अद्वितीय धनुर्धर विमल की ख्याति को गुर्जरसम्राट् भीमदेव तक पहुंचने में अधिक समय नहीं लगा । सम्राट् भीमदेव ने विमल को गूर्जर - महासैन्य का महाबलाधिकारी दंडनायक नियुक्त किया ।* गुर्जरसम्राट भीमदेव प्र० के समय में महमूद गजनवी के आक्रमणों का प्रकोप, जो उसके पिता सम्राट् दुर्लभराज के समय में उत्तर भारत में प्रारम्भ हो चुका था, अत्यन्त बढ़ गया और गूर्जर भूमि महमूद गजनवी के महमूद गजनवी और भीम- क्रमणों की भयंकरता से त्रस्त हो उठी । वि० सं० २०८२ में महमूद अजमेर को देव में प्रथम मुठभेड़ जीतकर, गूर्जर भूमि में होता हुआ सोमनाथ की विजय को बढ़ा। मार्ग में गूर्जरसम्राट् भीमदेव ने अपनी महाबलशाली सैन्य को लेकर महमूद का सामना किया, परन्तु महमूद की प्रगति को रोकने में असफल रहा। महमूद जब सोमनाथ मन्दिर पर पहुंचा, तब भी भीमदेव महागुर्जर सैन्य को लेकर सोमनाथ की *नव यौवन नवलु संयोग, देषी देवइ वंबई भोग । कूं और कहइ परनारी नीम अणपरणिइ कुहू मानूं किम ॥७१॥ शील लगइ तूठी अम्बिका, त्रिणि वर दीधा पोतइ थेका । बांण प्रमाण गाउ ते पंचे, हय लक्षेणनां लक्ष प्रपंच ॥ ७२ ॥ नव नव रूपे निरतई निर्मला, त्रीजी अद्भुत अक्षर कला । ॥७३॥ विमल जब १३ वर्ष का था, तब आरासणनगर की अम्बिकादेवी ने उसके रूप पर मुग्ध होकर उसके शील की परीक्षा करनी चाही। अम्बिका ने एक परम रूपवती कन्या का रूप धारण किया और विमल के आगे केली-क्रीड़ा करके उसको विमोहित करने लगी । परन्तु विमल अपने ब्रह्मचर्यव्रत में अडिग रहा। अन्त में देवी ने प्रसन्न होकर विमल को तीन वरदान दिये कि वह बाणविद्या, अक्षर-कला एवं अश्वपरीक्षा में अद्वितीय होगा । उक्त किंवदन्ती से हमको मात्र इतना ही आशय लेना चाहिये कि विमल सुरबालाओं को विमोहित करने वाले अद्वितीय रूप-सौन्दर्य का धारक था। वह जैसा रूपवान था, वैसा अद्वितीय धनुर्धर एवं सफल अश्वारोही था । विमल का बाण बहुत दूर २ तक जाता था । अर्बु'दगिरिस्थ विमलवसति नामक जगविख्यात आदीश्वरचैत्य में दंडनायक विमल ने भारासण की खान का आरासण नामक प्रस्तर का उपयोग किया है । नारासणस्थान वहां पर अवस्थित अम्बिकादेवी के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक है । प्रादीश्वरचैत्य के बनाने में श्रारासण की अम्बिकादेवी ने विमल की सहायता की थी। क्योंकि बिना किसी देवी- सहायता के ऐसा अलौकिक, अद्भुत देवों से भी दुर्विनिर्मित चैत्य कैसे बनाया जा सकता है, ऐसा उस समय के तथा पीछे के लोगों ने अनुमान किया है। अनेक देशों के महापराक्रमी राजाओं को जीतने में भी विमल को अवश्य किसी दैवीशक्ति का सहाय रहा हुआ होगा, ऐसी कल्पना करना भी उस समय के या पीछे के लोगों के लिये सहज था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोगों ने पराक्रमी विमल के विषय में उसके बचपन से ही यह अनुमान लगा लिया कि आरासण की अम्बिका उसको अपने ब्रह्मचर्यव्रत में अडिग देखकर उस पर अत्यन्त प्रसन्न हुई और विमल जब तक जीवित रहा, उस पर उसकी कृपा सदा एकसी बनी रही। एक दिवस गुर्जर सम्राट भीमदेव प्र० अपने अजेय योद्धाओं की बाणकला का अभ्यास देख रहे थे। अनेक योद्धाओं के बाण निशानें तक नहीं पहुँच रहे थे । अनेक बाण निशान के इधर उधर होकर निकल जाते थे। स्वयं सम्राट भी निशाना बँधने में असफल रहे । विमल यह सब दूर खड़ा खड़ा देख रहा था और हँस रहा था। सम्राट् ने विमलशाह को निकट बुलाया और निशाना बंधने का आदेश दिया । त्रिमल ने बात की बात में निशाना बँध दिया। इस पर सम्राट अत्यन्त प्रसन्न हुआ और यह जान कर कि विमल का बा १० मील तक जाता है और वह पत्र-बींधन, कर्णफूल- छेदन जैसे महा कठिन कलाभ्यासों में भी प्रवीण है, उसने विमल को पांच सौ अश्व और एक लक्ष रुपयों का पारितोषिक देकर महाबलाधिकारी पद से विभूषित किया । विमल-प्रबन्धकर्त्ता ने वि० प्र० खं० ६ के पद्य २१, २७ में पृ० १८२, १८३ पर उक्त घटना का वर्णन किया हैं । हमको उक्त घटना से केवल यह ही अर्थ लेना है कि विमल धनुर्विद्या में अद्वितीय कलावान था और उसमें साहस, निडरता, स्वाभिमान जैसे वे समस्त गुण थे, जो एक सफल सैनाधीश में होने चाहिए । विमल की माता का विमल को लेकर अपने पिता के घर जाकर रहना, वहाँ विमल का पशु चराना और ऐसी ही अन्य बातें लिख देना - ये सब विमल प्रबन्ध के कर्ता की केवल कविकल्पना है। जिसका वंश ही मंत्री-वंश हो और जिसका ज्येष्ठ भ्राता महामात्य हो, उसको इतना निर्धने लिख देना कितना सत्य-संगत हो सकता है - विचारणीय है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय रक्षार्थ पहुँचे । महमूद भीमदेव की इस चेष्टा से अत्यन्त कुपित हुआ । भीमदेव सोमनाथ से लौटकर खान्दादुर्ग में पहँचा और महमद से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। महमूद भी अपने धर्मान्ध सैन्य को लेकर उक्त दुर्ग की ओर बढ़ा और उसको चारों ओर से घेर लिया। अन्त में महमद की विजय हई। परन्तु महमद के हृदय पर गूर्जरसैन्य के पराक्रम का भारी प्रभाव पड़ा और भीमदेव से सन्धि करके वह गजनी लौट गया। इन रणों में गूर्जरमहाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह का पराक्रम एवं शौर्य कम महत्व का नहीं रहा होगा ।१ महमूद गजनवी के सोमनाथ के आक्रमण के समय भीमदेव प्र० का राज्य मात्र कच्छ, सौराष्ट्र और सारस्वत तथा सतपुरामण्डल पर ही था । महमूद गजनवी जब गजनी लौट गया तो भीमदेव ने दंडनायक विमल२ की तत्त्वावधानता में गूर्जरसैन्य को लेकर सिंध के राजा पर आक्रमण किया और उसको परास्त किया और फिर तुरन्त सौराष्ट्र और कच्छ के माण्डलिकों को जो महमूद गजनवी के सोमनाथ-आक्रमण का लाभ उठाकर स्वतन्त्र हो चुके थे, परास्त कर डाला और उनके राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इससे भीमदेव प्र० का राज्य और सम्पत्ति अतुल बढ़ गई। महाबलाधिकारी दंडनायक विमल ने इन रणों में भारी पराक्रम प्रदर्शित किया । जिसके फलस्वरूप उसको अपार धनराशि भेंट तथा पारितोषिक रूप में प्राप्त हुई। इस प्रकार भीमदेव प्र. के लिये यह कहा जा सकता है कि महमूद गजनवी के आक्रमणों से उसको अर्थ-हानि होने के स्थान में लाभ ही पहुंचा और इसका अधिक श्रेय उसके योग्य मन्त्रियों को है जिनमें महामात्य नेढ़ और दंडनायक विमल भी है। दंडनायक विमल की बढ़ती हुई ख्याति, शक्ति एवं समृद्धि को प्रतिस्पर्धी मन्त्रीगण एवं अन्य राजमानीता व्यक्ति सहन नहीं कर सके । भीमदेव प्र० को उन लोगों ने विमलशाह के विरुद्ध बहकाना, भड़काना प्रारम्भ किया । अन्त में विमलशाह को पता हो गया कि भीमदेव के हृदय में उसके प्रति डाह उत्पन्न हो गई है और पत्तन में अब १-भारतवर्व में आज तक लिखे गये प्राचीन, अर्वाचीन समस्त इतिहास केवल मात्र राजपुत्रों, राजाओं एवं सम्राटों तथा उनके परिजनों के इतिहास मात्र रहे हैं। अन्य वर्ण, वर्ग, ज्ञाति, गोत्रों के महापराक्रमी पुरुषों का वर्णन इनमें आज तक किसी ने नहीं किया है। अतः अगर गुर्जरमहाबलाधिकारी दण्डनायक विमल की वीरता का वर्णन हमको उक्त इतिहासों में तथा ऐसे अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों में नहीं मिलता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। महाबलाधिकारी-पद से ही हम सहज समझ सकते हैं कि उक्त पद का अधिकारी कोई अद्वितीय रण निपुण, महापराक्रमी अजेय योद्धा ही हो सकता है और वह किसी भी प्रबल शत्रु के द्वारा किये गये आक्रमण को विफल करने के लिये किसी भी यत्न में अनुपस्थित नहीं रह सकता है । विमल के पराक्रम की पुष्टि एक इस घटना से भी हो जाती है कि विमलशाह ने रोमनगर में बारह सुलतानों को एक साथ परास्त किया था। इस घटना का वर्णन प्रसंगवश आगे किया जायगा। M. I. by Ishwariprasad P. 102-107 २-येन सिंधुधराधीश संग्रामे दारुणे पुनः । व्यधायि वीररत्नेन, सहारयं निजभूभुजः ॥१५॥ व० च० प्र०८ (i) In 1025 A.C...............Bhim was just a vassal king ruling over Sarasvata and Satyapura Mandalas, and Kachha and parts of Saurastra, V. P. 135. Bhim was one of the leaders of the pursuing army and obtained a victory over the king of Sind. VI. P. 141. : His dominions had grown rich in money and architecture, for, it was in 1030 A.C. that his minister Vimala built the world famous temples at Abu. V. P. 136 - G. G. Part III. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर-मन्त्री-वंश और महाबलाधिकारी दंडनायक विमल :: अधिक ठहरना संकटविहीन नहीं है। दंडनायक विमल चाहता तो उपद्रव खड़ा कर सकता था, जिसको शान्त करना भीमदेव के लिये सरल नहीं था और भीमदेव को भारी मूल्य चुकाना पड़ता, परन्तु धर्मव्रती एवं स्वामिभक्त विमल के लिये ऐसा सोचना भी तुच्छता थी। वह तुरन्त अपने चुने हुये योद्धाओं, पैदलों तथा सहस्रों घोड़ों और सुवर्ण और चाँदी, रत्न, जवाहरातों से भरे ऊँटों को लेकर पत्तन छोड़कर चल निकला ।* उस समय चन्द्रावती का राजा धंधुक भीमदेव की आज्ञाओं की अवहेलना कर रहा था तथा स्वतन्त्र होने का प्रयत्न कर रहा था । विमल अपना विशाल सैन्य लेकर चन्द्रावती की ओर ही चल पड़ा। चन्द्रावतीनरेश धंधुक ने जब सुना कि दंडनायक विमल मालवण तक आ पहुंचा है और चन्द्रावती पर आक्रमण करने के लिये भारी सैन्य के साथ बढ़ा चला आ रहा है, वह चन्द्रावती छोड़कर सपरिवार भाग निकला और मालवपति सम्राट भोज की शरण में जा पहुंचा । बिना युद्ध किये ही विमल को चन्द्रावती का राज्य प्राप्त हो गया। विमल जैसा पराक्रमी, शूरवीर था, वैसा ही स्वामिभक्त था। वह चाहता तो आप चन्द्रावती का स्वतन्त्र शासक बन सकता था, लेकिन ऐसा करना उसने अपने कुल में कलंक लगाना समझा। तुरन्त उसने चन्द्रावती राज्य में महाराजा भीमदेव प्रथम की - Bhim no doubt emerged stronger through his conflict with Mahmud. In 1026 A. C. he had added Saurastra and Kachha to his dominions. Vimala, the son of Mahatma Vira, was as great minister as a military chief. V. P. 142 G. G. Part III. *भीमदेव प्रथम और दंडनायक विमल में अन्तर कैसे बढ़ता गया का वर्णन वि० प्र० सं० ६,७ में निम्न प्रकार दिया है और उससे पाठकों को केवल इतना ही तात्पर्य ग्रहण करना है कि विमल की उन्नति उसके दुश्मनों को सहन नहीं हो सकी और अन्त में विमल को पत्तन छोड़ कर जाना उचित लगा। १-विमल के शत्रुओं ने राजा को बहकाया कि विमल आपको नमस्कार नहीं करता है, वरन् वह जब आपके समक्ष झुकता है, उस समय वह अपने दाये हाथ की अंगुलिका की अंगुठी में रही हुई जिनेश्वरदेव की चित्रमूर्ति को ही नमस्कार करता है । भीमदेव प्र० ने जांच की तो बात सत्य थी कि विमल दाँये हाथ को आगे करके ही प्रणाम करता है। २-शत्रओं ने राजा भीमदेव प्र०को बहकाया कि विमल के घर इतनी धन-समृद्धि है कि उतनी किसी राजा के घर नहीं होगी। भीमदेव प्र० कारण निकालकर एक दिवस दंडनायक विमल के घर प्राहुत हुआ और विमल के वैभव को देख कर दंग रह गया और भय खाने लगा कि विमल मेरा एक दिवस राज्य छीन ही लेगा; अतः उसको किसी युक्ति से मरवा डालना चाहिये । परन्तु यह काम . सरल नहीं था। ३-विमल के शत्रओं से मंत्रणा करके राजा भीमदेव प्र० ने नगर में एक भयंकर सिंह को पिंजरे में से छुड़वा दिया। यह सिंह नगर में उत्पात मचाने लगा। नगरजन स्त्री-पुरुष, बाल-बच्चे सर्व भयभीत होकर अपने २ घरों में घुस बैठे । भीमदेव प्र० ने राज्य-सभा में विमल की ओर देख कर कहा, "विमलशाह! कोई वीर है जो इस सिंह को जीवित पकड़ लावे ।" इतना सुनना था कि दंडनायक विमल उठा और सिंह के पीछे दौड़ा और सिंह को पकड़ कर राज-सभा में ला उपस्थित किया। विमल के शत्रओं के तेज ढीले. पड़ गये। ४-विमल के शत्रुओं ने विमल के लिये भीमदेव प्र० के एक महाबली मल्ल से भिड़ने का षड़यंत्र रचा । परन्तु विमल उसमें भी सफल हुआ और मल्ल विमल से परास्त हुआ। ५-विमल के शत्रों ने जब देखा कि उनके सारे यत्न निष्फल जा रहे हैं, तब अन्त में उन्होंने राजा भीमदेव को यह सम्मति दी कि वे विमल से छप्पनकोटि का कर्ज जो उसके पूर्वजों में राज्य-कोष का शेष निकलता है चुकाने को कहे। विमल जब निधन हो जावेगा, तब उसका यश, मान एवं पराक्रम अपने आप कम पड़ जावेगा। विमल ने जब यह सुना तब वह समझ गया कि राजा को मुझसे ईर्ष्या, उसन होने लग गयी है, अतः अब यहाँ रहना उचित नहीं है, ऐसा सोच कर वह पत्तन छोड़ कर चन्द्रावती की ओर चला गया। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::.प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय भान प्रबर्ता दी और महाराजा भीमदेव के पास पत्तन में यह शुभ समाचार अपने दूत द्वारा भिजवा दिया। महाराजा भीमदेव विमल की स्वामिभक्ति पर अत्यन्त ही मुग्ध हुआ और उसने अपने मन्त्रियों को बहुमूल्य उपहारों के साथ चन्द्रावती भेजा और चन्द्रावती-राज्य का शासक दंडनायक विमल को ही बना दिया ।१ दंडनायक विमल तो धर्मव्रती श्रावक था, वह किसी अन्य के धन, राज्य का उपभोक्ता कैसे बनता । चन्द्रावती-नरेश धंधुक को, जो मालवपति भोज की शरण में था बुलाकर और समझा-बुझाकर उसे पुनः महाराजा भीमदेव की आधीनता स्वीकार करवाने और चन्द्रावती का राज्य उसको पुनः सौंप देने का विचार रखता हुआ दंडनायक विमल महाराजा भीमदेव के प्रतिनिधि के अधिकार से चन्द्रावती के राज्य पर शासन करने लगा। नाडोल के राजा ने विमलशाह को स्वर्णसिंहासन अर्पण किया और जालोर, शाकंभरी के राजाओं ने भी अमूल्य मेंटें भेजकर विमलशाह की प्रसन्नता प्राप्त की। विमल यवनों का कट्टर शत्रु था। महमूद गजनवी के यद्यपि आक्रमण अब बन्द हो गये थे। फिर भी उसकी कुछ फौजें, जो हिन्दुस्तान में रह रही थीं, उत्पात करती थीं और लोगों को हैरान करती थीं।२ १-अह भीमएव नरवइवयोण गहीयसयलरिउविहवो। चड्डावल्लीविसयं स पहुवलद्धं ति भुजंतो ।' ___D.C. M. P. (G. O. V. LXX. VI) P. 254. (चन्द्रप्रभस्वामी-चरित्र) He (Vimala) is credited with having quelled a rebellion of Dhandhuka, the Paramara king of Candravati near Abu. ___G. G. Part III VI. P. 152. 'जै मन्दिरि सामहणी करी, साढ़ि सोलसिई सोविन भरी। पक्खरि पंचसया असवार, बीजा पंच सहस तोषार ॥१४॥ पायक सहस मिल्या दस सार, अवर अनेरा वर्ण अढ़ार । पोताना गज सथिई लीध, बीजा तुरी अडाणी कीद्ध ॥१५॥' -वि० प्र० ख०७ पृ०२१२ 'चन्द्रावती को प्राकृत में चड्डावली कहते हैं। 'चड्डावलीविसयं स पहुवलद्धं ति मुँजंतो।' D.C.M. P. (G.O. V. LXXVI.) P.254 (चन्द्रप्रभस्वामी-चरित्र) चन्द्रावती-प्रदेश को अर्बुदप्रदेश, अष्टादशशत (ती) मंडल-अष्टादशशतग्राम-मण्डल भी कहते हैं। जिसका अर्थ यह है कि चन्द्रावती-राज्य में १८०० ग्राम, नगर थे। चन्द्रावती सम्बन्धी न्यूनाधिक वर्णन, परिचय हरिभद्रसरिकृत चन्द्रप्रभस्वामि-चरित्र के अन्त में दी गई विमल-प्रशस्ति में, विमल-चरित्र में, हेमद्वयाश्रय में, विनयचन्द्रसूरिकृत काव्य-शिक्षा में, प्रभाचन्द्ररिकृत प्रभावक-चरित्र में विमलवसति के तथा लणिगवसति के अनेक लेखों में तथा अन्य अनेक ग्रंथों में मिलता है। ... अन्य प्राचीन ग्रंथ एवं पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में रची गयी तीर्थमाला के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रावती अत्यन्त विशाल एवं समृद्ध नगरी थी। इस में ८४ चौटा थे, महा विशाल एवं भोयरावाले अट्ठारह जिन मन्दिर थे। 'बम्बई सरकार की भोर से वि० सं०१८८७ में प्रकाशित 'गुजरातसर्वसंग्रह' के आधार पर जाना जाता है कि चन्द्रावती अर्बुदाचल से १२ माईल के अन्तर पर वसी हुई थी। पांचवी शताब्दी से लगाकर १५वी शताब्दी तक यह अत्यन्त समृद्धिशाली नगरी रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी में सुल्तान अहमदशाह ने चन्द्रावती के भव्य एवं विशाल. भवनों को तोड़ कर, प्राप्त सामग्री का उपयोग अहमदाबाद को रमणीक नगर बनाने में किया था । यह परमार राजाओं की राजधानी रही है । व्यापार, धन, समृद्धि, रमणीकता आदि अनेक बातों से यह अति प्रसिद्ध नगरी थी। .. -वि० प्र० ख० ७. २-रोमनगर के युद्ध की घटना को इतिहासकार एक दम सच्ची नहीं मानते हैं । इसका एक ही कारण यह है कि रोमनगर नाम तो पाश्चात्यशैली का नाम है और इस नाम का नगर अभी तक सुनने में भी नहीं आया है। दूसरा कारण यह है कि जब यवनों का राज्य १२वीं शताब्दी में जमने लगा था, उसके बहुत पूर्व ११वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान में यवनसुल्तानों का होना और वह एक नहीं बारह Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर मंत्री-वंश और महाबलाधिकारी दंडनायक विमल :: [ ७१. विमलशाह ने युद्ध की तैयारी की और एक बहुत बड़ा सैन्य लेकर उक्त यवनों से युद्ध करने चल पड़ा । रोमनगर के स्थान पर दोनों के बीच भारी संग्राम हुआ । यवन - सैन्य जो महमूद गजनवी के प्रसिद्ध बारह सैन्यपदाधिकारी सामन्तों, जिन्हें सुल्तान भी कहते हैं की अधीनता में थीं, परास्त हुई। उक्त बारह सुल्तानों ने अपने ताज विमलशाह को अर्पण करके उसकी आधीनता स्वीकार की। इस प्रकार जय प्राप्त कर विमल चन्द्रावती लौट आया । चन्द्रावती आकर उसने धंधुक को, जो मालवपति की शरण में रह रहा था बुलवाकर समझाया । जब उसने भीमदेव प्र० की अधीनता पुनः स्वीकार कर ली, तब दंडनायक विमल ने भीमदेव प्र० की आज्ञा लेकर चन्द्रावती का राज्य उसको लौटा दिया। विमल के त्याग, शौर्य, औदार्य और निस्पृह गुणों का यहाँ परिचय मिलता है । चन्द्रावती का राज्य धंधुक को पुनः देकर दंडनायक विमलशाह ने चार कोटि स्वर्ण-मुद्रायें व्यय करके विशाल संघ के साथ में श्री विमला चलतीर्थ (शत्रुंजय महातीर्थ ) की यात्रा की । इस संघयात्रा में गुर्जर, मालव एवं राजस्थान के अनेक संघपति, सामन्त, श्रीमन्त एवं सद्गृहस्थ लाखों की संख्या में सम्मिलित हुये थे। ऐसा विशाल संघ कई वर्षों से नहीं निकला था। संघ में सहस्रों बैलगाड़ियां, शकट और सुखासन थे। संघ की रक्षा के लिये विमल के चुने हुये वीर योद्धा एवं अनेक सामन्त और मांडलिक राजा थे। संघयात्रा करके जब विमलशाह चन्द्रावती लौटा तो उसने बहुत बड़ा सधार्मिक वात्सल्य करके सधर्मी बन्धुओं की अपार संघभक्ति की और विपुल द्रव्य दान दिया । सम्राट् भीमदेव विमलशाह के शौर्य एवं पराक्रम से पहिले तो भयभीत-सा रहता था, परन्तु उसकी चन्द्रावती की जय और चन्द्रावती-राज्य में गूर्जरपति के नाम से शासन की घोषणा, पुनः गूर्जर भूमि के कट्टर शत्रु यवनों की विमल के हाथों पराजय श्रवण करके वह विमल को तथा उसकी देश एवं राजभक्ति को भली विध पहिचान गया । ऐसे न्यायी, निस्वार्थ एवं अद्वितीय योद्धा का अपमान करके भीमदेव अत्यन्त दुःख एवं पश्चात्ताप करने लगा । उसने विमल को प्रसन्न करने के अनेक प्रयत्न किये, एनः पत्तन में आकर सम्राट् की सेवा में रहने का आग्रह किया; परन्तु विमल ने चन्द्रावती और उसके प्रदेश में ही रहने का अपना दृढ़ निश्चय प्रकट किया। जब विमलशाह विमलाचलतीर्थ की संघयात्रा करके चन्द्रावती लौटा तो गुर्जरसम्राट् भीमदेव प्र० ने दंडनायक विमलशाह को चन्द्रावती एवं अन्य गुर्जरराज्य के अधीन राजाओं के ऊपर निरीक्षक नियुक्त कर दिया। अजमेर, शाकंभरी और उन सब को एक स्थान पर परास्त करना अघटित-सी लगती है। मेरी समझ में ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ एकदम सांगोपांग असत्य नहीं हो सकती हैं। वर्णन में अंतर भले ही न्यूनाधिक जा सकता है । महमूद के चले जाने पर भी गुजरात, कन्नौज, सिंध, उत्तर-पश्चिमी भारत पर उसका अवश्य प्रभाव रहा है। अतः यह बहुत सम्भव है कि विमलशाह जैसे पराक्रमी दंडनायक से उसकी फौज से अवश्य मुठभेड़ हुई है। यह अधिक सम्भव लगता है कि यवनसैन्य में बारह उन्च कोटि के सामन्त अथवा सैन्य- पदाधिकारी होंगे। उन्च यवनपदाधिकारी सुल्तान भी कहे जा सकते हैं। H. M. 1. खरतरगच्छ की एक पट्टावली में जिसकी रचना सत्तरवीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती है, वर्द्धमानसूरि का परिचय देते हुए लेखक ने लिखा है, 'गाजण वि १३ पातिशा होना छत्रोना उछालक, चन्द्रावती नगरीना स्थापक विमल दंडनायके करविल विमलवसति मी ध्यानबलथी, वश करेल वालीनाह क्षेत्रपाले प्रकट करेल वज्रमय आदीश्वर मूर्तिना तेश्रो स्थापक हता ।' - गू० म० पृ० ६७ पर दिये चरण लेख नं० १७. गाजणावि का अर्थ गजनवी है। उक्त अंश से भी यही सिद्ध होता है कि दंडनायक विमल ने १३ गजनवी सुल्तानों को परास्त: किया था | कहीं २ बारह और कही २ तेरह सुल्तानों को विमल ने परारत किये के उल्लेख मिलते हैं । जै० सा० सं० इति पृ० २१० Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास : [द्वितीय के राजा, नाडोल तथा जालोर के राजाओं के साथ में गूर्जरसम्राट् की अनबन थी, इस दृष्टि से भी दंडनायक जैसे पराक्रमी एवं नीतिज्ञ व्यक्ति का ऐसे स्थान में, जहाँ से वह शत्र राजाओं की हलचल को सतर्कता से देख सकता था तथा उनपर अंकुरा रख सकता था, रहना उचित ही था। चन्द्रावती ही एक ऐसा स्थान था जो सर्व प्रकार से उपयुक्त था । अतः विमलशाह अपने अन्तिम समय तक चन्द्रावती में ही रहा । वैसे चन्द्रावती से विमलशाह को व्यक्तिगत स्नेह भी था। विमलशाह ारासण की अम्बिकादेवी का परमभक्त था। आरासणस्थान चन्द्रावती के सन्निकट तथा चन्द्रावती-राज्य के अन्तर्गत ही था। उसके लिये चन्द्रावती में रहने के विभिन्न कारणों में प्रबल कारण एक यह भी था ।* विमलशाह ने अपने शासन-समय में चन्द्रावतीनगरी की शोभा बढ़ाने में अतिशय प्रयत्न किया था। विमलशाह के वहाँ रहने से वह नगरी अत्यन्त सुरक्षित मानी जाने लगी थी। उसका व्यापार, कला-कौशल एक दम उन्नत हो उठा था। अनेक श्रीमन्त जैनकुटुम्ब और प्रसिद्ध कलामर्मज्ञ, शिल्पकार वहाँ आकर बस गये थे। कुम्भारियातीर्थ तथा अर्बुदगिरितीर्थ के जैन एवं जैनेतर मन्दिरों के निर्माण में अधिक श्रम चन्द्रावती के प्रसिद्ध एवं कुशल कारीगरों का है, ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं है। धंधुक को चन्द्रावती का राज्य पुनः सौंप देने से भी चन्द्रावती की बढ़ती हुई शोभा एवं उन्नति में कोई अन्तर नहीं आया था, क्योंकि महापराक्रमी एवं अतुल वैभवशाली दंडनायक विमल चन्द्रावती तथा अचलगढ़ दुर्ग में ही अन्तिम समय तक अपने प्रसिद्ध अजेय सैन्य के साथ रहा था । समस्त चन्द्रावती-प्रदेश से ही उसको संमोह-सा हो गया था। अभी जहाँ जगद् विख्यात विमलवसतिका अवस्थित है, वहाँ उस समय चम्पा के वृक्ष उगे हुये थे। किसी एक चम्पा वृक्ष के नीचे भगवान् आदिनाथ की जिनप्रतिमा निकली। दंडनायक विमल को जब यह आनन्ददायी समाचार प्राप्त हुये वह अर्बुदगिरि पर पहुंचा और उक्त प्रतिमा के दर्शन कर अति आनन्दित हुआ। प्रतिमा को उसने सुरक्षित स्थान पर रखवा दी और पूजन-अर्चन की समस्त व्यवस्था करके चन्द्रावती लौट आया। उन्हीं दिनों में चन्द्रावती में प्रसिद्ध आचार्य धर्मघोषसूरि विराजमान थे। दंडनायक विमल उनकी सेवा में पहुंचा और उनसे उक्त प्रतिमा सम्बन्धी वर्णन निवेदन किया। दंडनायक विमल को महान् धर्मात्मा जानकर आचार्यजी ने • *ध्यानलीन मनास्तथी, विमलोऽपि ततः स्थिरम् । अम्बिकापि जवादित्य, तमाचष्टिति तद्यथा ॥४७॥ व० च० प्र०८पृ०११७ सचिरमर्बुदाधिपत्यमभुनक, गुज्जरेश्वर प्रसत्तेः। प्र० को०१४७ पृ० १२१ (व०प्र०) चन्द्रावती-राज्य अर्बुदप्रदेश कहाता था। अर्बुदाचल से ठीक थोड़ी दूरी पर पूर्व, दक्षिण में मेदपाट, पूर्वोत्तर में नाडोल, उत्तर में अजमेर तथा पश्चिमोत्तर में जालोर के राज्य थे। चन्द्रावती अवशेष हो गई, परन्तु अन्य सर्व नगर आज भी विद्यमान हैं। अर्बुदाचल से बीस मील दक्षिण पूर्व में पारासण की पर्वतमाला श्राई हुई है। इस पर्वतश्रेणी के मध्य में पारासणनगर बसा हुआ था। पीछे से गरासीज्ञाति के कुम्भा नामक किसी व्यक्ति ने आरासण पर अपना अधिकार स्थापित किया। उस समय से यह स्थान कुम्भारिया नाम से प्रसिद्ध हुआ । वर्तमान में यह दाताभवानगढ़-राज्य के अन्तर्गत है । विमल पारासण की अम्बिकादेवी का परम भक्त था। जैसा ऊपर कहा गया है कि श्रारासण चन्द्रावती-राज्य के अन्तर्गत था, दंडनायक विमल अर्बुदाचल की रमणीय एवं उन्नत पर्वतश्रेणियों, पार्वतीय समतल स्थलों से भलीभांति परिचित ही नहीं था, लेकिन उनसे उसको अति मोह भी हो गया था । पारासण जाते-आते इन्हीं स्थलों में होकर जाना पड़ता है तथा शत्रुओं को छकाने में भी इन स्थलों का उपयोग बड़ा ही लाभकारी सिद्ध हो चुका था। विमल जैसे पराक्रमी एवं धर्मवती पुरुष को अगर ऐसे स्थलों से अधिक मोह उत्पच हो जाय तो आश्चर्य की बात नहीं थी। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर-मन्त्री - वंश और महाबलाधिकारी दंडनायक विमल :: [ ७३ उसी स्थान पर जहाँ मूर्त्ति प्रकट हुई थी, एक अति विशाल एवं शिल्पकला का ज्वलंत उदाहरणस्वरूप जिनप्रासाद बनवाकर उक्त प्रतिमा को उसमें प्रतिष्ठित करने की सुसम्मति दी । विमलशाह आचार्यश्री की सम्मति "पाकर बड़ा ही आनन्दित हुआ और घर आकर अपनी पतिपरायणा, धर्मानुरागिणी स्त्री से सर्व घटना कह सुनाई । दोनों स्त्री-पुरुषों ने विचार किया कि संतान प्राप्ति की इच्छा तो एक मोह का कारण है और सन्तान कैसी निकले यह भी कौन जानता है, परन्तु जिनशासन की सेवा करना तो कुल, ज्ञाति, देश एवं धर्म के गौरव को बढ़ाने वाला है। ऐसा विचार कर विमलशाह ने उक्त स्थान पर श्री आदिनाथ - बावन जिनालय बनवाने का दृढ़ संकल्प कर लिया । जैसलमेर के श्री सम्भवनाथ मन्दिर की एक बृहद् प्रशस्ति में लिखा है कि खरतरविधिपक्ष के आचार्य श्रीमद् वर्धमानसूरि के वचनों से मन्त्री विमल ने अर्बुदाचल पर जिनालय बनवाया । विमलवसहि की प्रतिष्ठा के अवसर “पर भिन्न २ गच्छों के ४ चार आचार्य उपस्थित थे, ऐसा तो माना जाता है । वह स्थान जहाँ पर आदिनाथ - जिनालय बनवाने का था, वैष्णवमती ब्राह्मणों के अधिकार में था । दंडनायक विमल जैसा धर्मात्मा महापुरुष भला ब्राह्मणों के स्वत्व को नष्ट करके कैसे अपनी इच्छानुसार उक्त स्थान को उपयोग में लाने का और वह भी धर्मकृत्य के ही लिये कैसे विचार करता । उक्त स्थान को उसने चौकोर स्वर्णमुद्रायें बिछाकर मोल लिया । इस कार्य से विमल की न्यायप्रियता, धर्मोत्साह जैसे महान् दिव्य गुण सिद्ध 'चन्द्रकुले श्री खरतर विधिपक्षे श्रीवर्धमानाभिधसूरि राजो जाताः क्रमादर्बु' दपर्वताग्रे । मंत्रीश्वर श्री विमलाभिधानः प्राची करद्यद्वचनेन चैत्यं' ॥१॥ जै० ले० सं० भा० ३. पृ० १७ ले० २१३६ (१०) उक्त घटना को विमलशाह सम्बन्धी ग्रंथों में निम्न प्रकार वर्णित किया गया है: एक रात्रि को आरासण की अम्बिकादेवी ने विमलशाह को स्वप्न में दर्शन दिया और वरदान मांगने को कहा । विमलशाह ने दो वरदान मांगे। एक तो यह कि उसके पराक्रमी सन्तान उत्पन्न होवे, द्वितीय यह कि वह अर्बुदगिरि पर जगद्-विख्यात श्रादिनाथ जिनालय बनवाना चाहता है, उसमें वह सहायभूत रहे। देवी ने उत्तर में कहा कि वह उसका एक विचार पूर्ण कर सकती है। इस पर विमलशाह ने अपनी पतिपरायण एवं धर्मानुरागिणी स्त्री की संमति लेकर अम्बिका से प्रार्थना की कि वह आदिनाथ - जिनालय बनवाना चाहता है | देवी ने तथास्तु कह कर उक्त कार्य में पूर्ण सहायता करने का अभिवचन दिया । यह अनुभवसिद्ध है कि मुहुर्मुहु हम जिस बात का अधिक चिंतन करते हैं, तद्संबन्धी स्वप्न होते ही हैं । अतः विमलशाह को स्वप्न का आना असत्य अथवा अस्वाभाविक कल्पना मानना मिथ्या है। प्राचीन समय के लोगों में अपने दृष्ट स्वप्मों में पूर्ण विश्वास होता था और वे फिर उसी प्रकार वर्तते भी थे । अनेक प्राचीन ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं । प्र० को० ४७, पृ० १२१ (१० प्र०) मूर्ति सम्बन्धी घटना इस प्रकार है कि जब विमलशाह का विचार अर्बुदगिरि पर आदिनाथ - जिनालय के बनवाने का निश्चित हो गया तो उसने कार्य प्रारम्भ करना चाहा, परन्तु वैष्णवमतानुयायियों ने यह कह कर अड़चन डाली कि अर्बुदगिरि आदिकाल से वैष्णवतीर्थं रहा है, अतः उसके ऊपर जिनालय बनवाना उसके धर्म पर आघात करना है। इस पर फिर विमलशाह को स्वप्न हुआ। कि अमुक स्थान पर भगवान् श्रादिनाथ की प्रतिमा भूमि में दबी हुई है, उसको बाहर निकालने से अर्बुदगिरि पर जैनमन्दिर पहिले मी सिद्ध हो जायगा । दूसरे दिन विमलशाह ने उक्त स्थान को खुदवाया तो भगवान् आदिनाथ की अति प्राचीन भव्य प्रतिमा निकली और इस प्रकार अर्बुदगर जैनतीर्थ भी सिद्ध रहा । इस बाधा के हट जाने पर जब मन्दिर बनवाने का कार्य प्रारम्भ किया जाने को था तो वैष्णव ब्राह्मणों ने यह आन्दोलन किया कि वह भूमि जहाँ मन्दिर बनवाया जा रहा है, उनकी है । अतः अगर वहां मन्दिर बनवाना अभिष्ट हो, तो उक्त जमीन को चौकोर स्वर्ण-मुद्राएँ बराबर बराबर faछा कर मोल लेवें । विमलशाह ने ऐसा ही करके उक्त भूमि को मोल ली । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द्वितीय होते हैं। इस प्रकार नि: चं० १०६ में मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुमा । संसार के प्रति प्राचीनतम एवं शिल्पकला के प्रति प्रसिद्ध एवं विशाल नमूतों में विमलनसति का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा भव्य जिनालय वि० सं० १०८ में बन कर तैयार हो गया । उक्त मन्दिर के बनाने में कुल १,५३,००,०००) रुपयों का सद्व्यम हुमा । १५०० कारीगर और २००० इनार मजदूर नित्य काम करते थे ऐसा लिखा मिलता है। दण्डनायक विमलशाह द्वारा अनन्य शिल्प-कलावतार श्री अर्बुदमिरिस्थ आदिनाथ-विमलवसहि की व्यवस्था वि० सं० १०८८ में स्नात्र-महोत्सव करके दंडनायक विमलशाह ने १८ भार (एक प्रकार का तोल) वजन में स्वामिश्रित पीत्तलमय सपरिकर ५१ एक्कावन अंगुल प्रमाण श्री आदिनाथवि को ध्वजाकलशारोहण के साथ प्रतिष्ठित करवा कर श्री विमलवसहि के मूलगर्भगृह में श्री मूलनायक के स्थान पर संस्थापित करवाया। मन्दिर की देख-रेख रखने के लिये तथा प्रतिदिन मन्दिर में स्नात्रपूजादि पुण्यकार्य नियमित रूप से होते रहने के लिए दंडनायक विमल ने अर्बुदगिरि की प्रदक्षिणा में आये हुये मुंडस्थलादि ३६० ग्रामों में प्राग्वाटकुलों को बसाया और प्रत्येक ग्राम अनुक्रम से प्रतिदिन विधिसहित मन्दिर में स्नानादि पुण्यकार्य करें ऐसी प्रतिज्ञा से जनको अनुबंधित किया। उक्त ३६० ग्रामों में बसने वाले प्राम्याटकुलों को राज्यकर से मुक्त करके तथा अनेक मांति से उन पर परोपकार करके उनको महाधनी बनाया, जिससे वे मन्दिरजी की देख-रेख सहज और सुविधापूर्वक नित्य एवं नियमित तथा अनुक्रम से कर सकें। तीसरी बाधा फिर यह उत्पन्न हुई कि जब मन्दिर का कार्य प्रारम्भ हुना तो उक्त स्थान पर रहने वाले बालिनाह नामक एक भयंकर यक्ष ने उत्पात मचाना शुरू किया। दिन भर में जितना निर्माण कार्य होता वह यक्ष रात्रि में नष्ट कर डालता। अन्त में बालिनाह और विमल में द्वंद्व युद्ध हुआ। उसमें बालिनाह परास्त हुश्रा और अपना स्थान छोड़ कर अन्यत्र चला गया। तत्पश्चात् निर्माण कार्य निरापद चालू रहा। विमलशाह के समय में मजदूरी अत्यन्त ही सस्ती थी। आज के एक साधारण मजदूर को जो रोजाना मिलता है, उतना उस समय में १०० मजदूरों को मिलता था। अब पाठक अनुमान लगा लें। कितने सहस्त्र मजदूर एवं कारीगर कार्य करते होंगे। ___पं० श्री लालचन्द्रजी भगवानदासजी बालिनाह को उस भूमि का कोई ठक्कुर-भूमिपति बालिनाथ नाम का होना अनुमान _ 'चन्द्रावतीनगरीशेन श्री विमलदण्डनायकन सक- 'बुदाचलमण्डन श्री विमलवसति मूलनायक १८ भारमितस्वर्णमिश्ररीरीमय सपरिकर ५१ अंगुल प्रमाणाऽऽदीश्वरस्य प्रत्यह स्नात्राध्वजारोपोत्सवार्थ मुण्डस्थलादि ३६० ग्रामेषु प्राग्वाट वासिताः सर्वप्रकारकरम्वेच्यनेकोपकारकरणेच महाधनाढ्याः कृत्ताः, ततः प्रत्यहं स्वचारकक्रमेण मुण्डस्थलादि श्री संधैः स्नात्रादिपुण्यानि व्यधीयन्ता ।। इत्यर्थोपदेशः ४४॥ उ०.त० पृ० २२४ Page #212 --------------------------------------------------------------------------  Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुजयतीर्थस्थ श्री विमलवसहि । देखिये पृ० ७५ पर । श्री साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद के सौजन्य से। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब] :: प्राचीन गूर्जर मंत्री और महामात्य पृथ्वीपाल :: श्री महातीर्थ में विमलवसहि श्री शत्रुंजय महातीर्थ की सर्व दूँकों एवं मन्दिरों में श्री आदिनाथ ट्रॅक का महत्व सर्वाधिक है। श्री आदिनाथदूँक को मोटी ट्रॅक और दादा की टँक भी कहते हैं। इस ट्रॅक का प्रथम द्वार रामपोल है । रामपोल के पश्चात् ही विमलवसहि का स्थान है । वाघणपोल के द्वार से हस्तिपोल के द्वार तक के भाग को विमलवसहि कहते हैं । विमलवसहि के दोनों पक्षों पर अनेक देवालय और कुलिकाओं की हारमाला है । विमलशाह द्वारा विनिर्मित यहाँ इस समय न ही कोई देवालय ही है और न ही कोई अन्य देवस्थान | श्री शत्रुंजयमहातीर्थ पर यवन - श्राततायियों के अनेक बार आक्रमण हुये हैं और अनेक जिनालय नष्ट-भ्रष्ट किये गये हैं। पश्चात् उनके स्थानों पर नवीन २ जिनालयों का निर्माण होता रहा है। विमलवसहि नाम ही अब महाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह का नाम और उसके द्वारा महातीर्थ की की गई महान् सेवाओं का स्मरण कराता है । महामात्य धवल का परिवार और उसका यशस्वी पौत्र महामात्य पृथ्वीपाल 1 महामति नेढ़ के धवल और लालिग नामक दो प्रतिभाशाली पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र धवल धर्मात्मा, विवेकवान, गम्भीर, दयालु, महोपकारी, साधु एवं साध्वियों का परम भक्त तथा बुद्धिमान एवं रूपवान पुरुष था । मन्त्री धवल और उसका गुर्जरसम्राट् कर्णदेव के यह प्रसिद्ध मन्त्रियों में से था धवल के आनन्द नामक महामति पुत्र था । पुत्र मन्त्री श्रानन्द आनन्द भी महाप्रभावशाली पुरुष था। पिता के सदृश महामति, गुणवान एवं धर्मानुरागी था । वह गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह के प्रति प्रसिद्ध मन्त्रियों में था । आनन्द के दो स्त्रियाँ थीं । पद्मावती और सलूखा । दोनों स्त्रियाँ पतिपरायणा एवं धर्मानुरागवती थीं । पद्मावती के पृथ्वीपाल नामक अति प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न हुआ । सगा के नाना नामक पुत्र था । पृथ्वीपाल का विवाह नामलदेवी नामक अति रूपवती कन्या से तथा नाना का विवाह त्रिभुवनदेवी नामक कन्या से हुआ । पृथ्वीपाल के जगदेव और धनपाल नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये और जै० ती० इति ० पृ० ५२ से ६३. अ० प्रा० जे० ले० सं० भाग २ ले० ५१, पृ० २६ श्लोक ८ में लालिग का नाम आया है। अह ने महामण सिरिकञ्चएवरज्जमि । जानो निजय सधवलियमुक्णो घवलो ति सचिविंदो ॥ तचो रेवतक पसाय संपत्त उत्तिमसमिद्धी । हा विदेव यास निहाल मिषट्टउषसन्गो ॥ जयसिंहदेवरज्जै गुरुगुणक्म उतमाहप्पी । जाओ मुवाणंदी आणंदो नाम सन्चिविंदो ॥ D. C. M. P. (G. O. V, LXX VI.) P. 255 (चन्द्रप्रमस्वामि-चरित्र) Dhawalaka, the son of Vimala's brother Mantri Nedha, was also a minister of his (Karna ). G. G. Part III VI. P.157. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय पाल नाना के भी नागपाल और नागार्जुन दो पुत्र थे। जगदेव का विवाह मालदेवी से तथा धनपाल का रूपिणी के साथ हुआ । जगदेव और धनपाल के महणदेवी नामक एक छोटी बहिन थी। मन्त्री धवल के परिवार में पृथ्वीपाल अति प्रसिद्ध पुरुष हुआ । यह महाबुद्धिशाली, उदारहृदय, कुशलनीतिज्ञ एवं धर्मात्मा पुरुष था । गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल का यह अत्यन्त विश्वासपात्र मन्त्री था। महामहिम महामात्य पृथ्वी- पृथ्वीपाल के अनेक गुणों एवं सुकृत कार्यों के कारण मन्त्री धवल के परिवार की ___ ख्याति राज्य, समाज एवं राजसभा में अत्यधिक बढ़ गई । पूर्वजों के सदृश मन्त्री पृथ्वीपाल ने अपने अतुल धन को नव जिन-मन्दिरों के बनाने में, नवजिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाने में तथा जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करने में श्रद्धा एवं भक्ति के साथ व्यय किया। . अणहिलपुरपत्तन में मन्त्री पृथ्वीपाल ने जालिहरगच्छ के आदिनाथ-जिनालय में पिता के श्रेयार्थ, पंचासरापार्श्वनाथमंदिर में माता के श्रेयार्थ तथा चंद्रावतीगच्छ के जिनमंदिर में अपनी मातामही (नानी) के श्रेयार्थ मंडप पत्तन और पाली में निर्माण- बनवाये । मरुधर-प्रदेश के अन्र्तगत पाली एक प्रसिद्ध नगर है। पाली को प्राचीन ___ ग्रंथों में पल्लिका लिखा है । पाली के महावीर-मंदिर में जिसको नवलखामन्दिर भी कहते हैं, मंत्री पृथ्वीपाल ने अपने कल्याण के लिये भ० अनंतनाथ और भ० विमलनाथ के बिंबों की वि० सं० १२०१ ज्येष्ठ कृ. ६ रविवार को प्रतिष्ठा करवाई । नवलखामन्दिर एक भव्य एवं प्राचीन जिनालय है। रोह आदि पारह ग्रामों का एक मंडल है । इस मंडल में आये हुये सायणवाड़पुर में अपने मातामह अर्थात् नाना के श्रेयार्थ श्रीशांतिनाथ-जिनालय बनवाया । इस से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वीपाल का अपने नाना और नानी के प्रति कितना भक्तिभरा प्रेम था। कार्य महवा ................."श्री पृथ्वीपालात्मजमहामात्य [धनपालेन महामा] त्य श्री पृथ्वीपालसत्कमातृश्रीपद्मावतीश्रेयार्थ श्री अभिनं] दनदेवप्रतिमा कासहृदगच्छे श्री सिंहमारिभिः॥' अ० प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले १०३ 'संवत् १२१२ [व.] माघ सुदि बुधे दशम्या महामात्य श्रीमदानन्द महं० श्री सलूणयोः पुत्रेण ठ० श्री नानाकेन ठ० श्री......" 'त्रिभुवनदेवीकुक्षिसमुद्भुतस्वसुत..." अ० प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले०१६६ ..............."श्री पृथ्वीपालभार्या महं० श्री नामलदेव्या आत्मश्रेयसे............. अ० प्रा० जै० ले० स० भा०२ ले १०४ 'तस्स (आणंदस्स) ससिविमलसीलालंकारविरायमाणसव्वंगी। गुरु विणय............" ...........""रत्तमणा ।। .............." मंजूसा। पउमावइ." ............"पिययमा जाया ।। D.C. M. P. (G.O. V. LXX VI.) P. 254 (चन्द्रप्रभस्वामि-चरित्र) 'श्री शांतिनाथस्य ॥ संतत् १२४५ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरौ महामात्यश्रीपृथीपालात्मजमहामात्यश्रीधनपालेन वृ० भ्रातृ ठ० श्री जगदेवश्रेयसे श्री शांतिनाथ प्रतिमा..............." अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०६८ 'श्री मदानन्द सुत ठ० श्रीनाना सुत ठ० श्रीनागपालेन मात त्रिभुवनदेव्याः, अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०१५३ .."10 श्री नानाकेन ठ० श्री त्रिभुवनदेवीकुक्षिसमुद्भुतस्वस्त दंड० श्री नागार्जुन 'अ० प्रा० जै० ले०सं०भा० २ ले०१६६ ......""श्री पृथ्वीपालात्मज ठ० श्री जगदेवपनि ४० श्रीमालदेव्या..............." अ० प्रा० ले० जे० सं०भा०२ ले०१०८ "प्राग्वाटवंशतिलकायमान [महा मात्य श्रीधनपालभार्या महं० श्री०रूपिन्या(गया)""०प्रा०ले०सं०भा० २ ले०१०६ -: गु० प्रा० मं० २० परि० नं०२ पृ०११६३. 'जालिहरगच्छ विद्याधरगच्छ की एक शाखा थी। इस शाखा में प्रसिद्ध विद्वान् देवसरि हुये हैं, जिन्होंने वि० सं०१२५४ में बढ़वाण नगर में 'पद्मप्रभ चरित्र' नामक ग्रंथ की प्राकृत भाषा में रचना की है। -गु० प्रा० म० वंश पृ०११६० च० ले० नं०१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर-मन्त्री-वंश और महामात्य पृथ्वीपाल :: [ ७७ अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति की जो हस्तिशाला है, उसका निर्माण मं० पृथ्वीपाल ने करवाया और उसमें वि० सं० १२०४ फाल्गुण शुक्ला दशमी शनिश्चरवार को महामात्य निन्नक, दंडनायक लहर, महामात्य विमलवसति की हस्तिशाला वीर और नेढ़ तथा सचिवेन्द्र धवल, आनंद और अपने स्मरणार्थ सात हाथियों को का निर्माण बनवाकर प्रतिष्ठित किया और प्रत्येक हाथी पर उक्त व्यक्तियों में से एक एक की मूर्ति स्थापित की और प्रत्येक मूर्ति के पीछे दो-दो चामरधरों की मूर्तियाँ भी निर्मित करवाई तथा हस्तिशाला के द्वार के मुख्य भाग में विमल मंत्री की घुड़सवार मूर्ति स्थापित की। ... मंत्री पृथ्वीपाल का प्रसिद्ध एवं अति महत्वशाली कार्य अर्बुदगिरिस्थ विमलवसति का अद्भुत जीर्णोद्धार है । यह जीर्णोद्धार उसने वि० सं० १२०६ में करवाकर श्रीमद् शीलभद्रसूरि के शिष्यप्रवर श्रीमद् चन्द्रसूरि के विमलवसति का जीर्णोद्धार - करकमलों से प्रतिष्ठित करवाया । मं. पृथ्वीपाल ने इस शुभ अवसर पर अर्बुदगिरि की संघ सहित यात्रा की और प्रतिष्ठा-कार्य अति धाम-धूम से करवाया। समुद्धार बैसा गौरवशाली कार्य और वह भी फिर अर्बुदाचल पर विनिर्मित अति विशाल, सुख्यात विमलवसति का, जिसमें अतुल धन व्यय किया गया होगा, मं० पृथ्वीपाल ने उसका लेख एक साधारण श्लोक में करवाया, इससे उसकी निरभिमानता, निरीहता और सत्यधर्मनिष्ठा प्रतीत होती है। मंत्री पृथ्वीपाल अपने नाम के अनुसार ही सचमुच पृथ्वीपालक था। जैसा वह धर्मानुरागी था, वैसा ही साहित्यसेवी एवं प्रेमी भी था। वह स्त्री और पुरुषों की परीक्षा करने में अति कुशल था। हाथी, घोड़े और रत्नों का भी वह अद्वितीय परीक्षक था। इन्हीं गुणों के कारण वह श्रीकरण जैसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित था। 'अह निचयकारावियजालिहारयगच्छरिसहजिणभवणे । जणयकए जणणीए उण पंचासरयपासगिहे ।। चड्डावल्लीयमि उ. गच्छे मायामहीए सुहहेउं । भणहिल्लवाडयपुरे काराविया मंडवा जेण ॥ ....""जो रोहाइयवारसगे सायणवाड़यपुरे उ संतिस्स | जिराभवणं कारवियं मायामहवोल्हस्स कए । ता अन्चुयगिरिसिरि नेढ़-विमल जिणमन्दिरे करावेउं । मउयकमइन्बजयं मज्झे पुणो तस्स ।।' D. C. M. P. (G.O. V. LXXVI.) P. 255. (चन्दप्रभस्वामि-चरित्र) १-प्रा० ० ले० सं० भा• २ ले०३८.. २-अ० प्रा० जैकले०सं०भा०२ ले०२३३. सं०१२०६॥ 'श्री शीलभद्रसूरीणां शिष्यैः श्रीचन्द्रसूरिभिः । विमलादिसुसंघेन युतैस्तीर्थमिद स्तुते ।। अयं तीर्थसमुद्धारोऽत्यदभूतोऽकारि धीमता । श्रीमदानन्दपुत्रेण श्रीपृथ्वीपालमंत्रिणा ।।' अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०७२ अंचलगच्छीय 'मोटी पट्टावली' (गुजराती) प्रकाशित वि० सं० १९८५ कात्तिक शु० पूर्णिमा पृ०११७ पर पृथ्वीपाल के पितामह धवल के लघु भ्राता लालिग के पौत्र दशरथ के नेढ़ा और वेढा नामक दो पुत्रों का होना तथा उनका गुर्जर-सम्राट् कर्ण के मंत्री होना, उनके द्वारा भारासण, चंद्रावती में अनेक जिनमन्दिरों का बनवाना तथा विमलवसति की हस्तिशाला का भी उन्हीं के द्वारा बनवाया - जाना लिखा है, परन्तु इतने शिलालेखों में नेढ़ा-वेढा का कोई लेख प्राप्त नहीं हुआ है अतः विमलवंश में उनकी यहाँ परिगणना नहीं की गई है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ द्वित्तीय महामात्य पृथ्वीपाल की स्त्री का नाम नामलदेवी था। उसकी कुची से दो प्रसिद्ध पुत्रों का जन्म हुआ । ज्येष्ठ पुत्र जगदेव या जगपाल था और कनिष्ठ पुत्र धनपाल था । धनपाल अपने पिता के समान प्रख्याव महामात्य धनपाल और हुआ । धनपाल ने अर्बुदाचलतीर्थस्थ विमलवसतिका में समय २ पर अनेक जीर्णोद्धार और नवीन विवप्रतिष्ठादि के धर्मकार्य करवाये । महामात्य पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित हस्तिशाला में विनिर्मित दश हस्तियों में से सात स्वयं महामात्य पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित हैं और दो हस्ति महामात्य धनपाल ने एक अपने ज्येष्ठ भ्राता जगदेव के नाम पर और दूसरा अपने नाम पर बनवाकर वि० सं० १२३७ अषाढ़ शु० अष्टमी बुधवार को प्रतिष्ठित करवाये । उसका ज्येष्ठ भ्राता जगदेव तथा धनपाल द्वारा हस्तिशाला में तीन हाथियों की संस्थापना महा • धनपाल ने कासहृदगच्छीय श्री उद्योतनाचार्थीय श्रीमसिंहसूरि की तत्त्वावधानता में श्री अर्बुदाचलतीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाव्यतीर्थ की अपने समस्त परिवार तथा अन्य प्रतिष्ठित नगरों के अनेक प्रसिद्ध कुलों और व्यक्तियों के सहित यात्रा की। जाबालीपुरनरेश का प्रसिद्ध मंत्री यशोत्रीर भी धनपाल द्वारा श्री विमलवसतिकातीर्थ में सपरिवार अपने कुटुम्ब सहित इस अवसर पर अर्बुदतीर्थ के दर्शन करने आया था । श्रे० जसहड़ प्रतिष्ठादि धर्मकृत्यों का करवाना का पुत्र पार्श्वचन्द्र भी अपने विशाल परिवार सहित इस यात्रा में सम्मिलित हुआ था । 'अन्य कुल भी आये थे । प्रसिद्ध २ व्यक्तियों का यथासंभव वर्णन दिया जायगा । महा० धनपाल ने विमलवसतिका की वीवों, चौवीसवीं, पच्चीसवीं और छब्बीसवीं देवकुलिकाओं का जीर्णोद्धार करवाया और उनमें वि० सं० १२४५ वैशाख कृ० ५ पंचमी गुरुवार को श्रीमद् सिंहसूरि के करकमलों से क्रमशः अपने ज्येष्ठ भ्राता ठ० जगदेव के श्रेयार्थ श्री ऋषभनाथप्रतिमा और श्री शांतिनाथप्रतिमा, अपने कल्याणार्थ श्री संभवनाथप्रतिमा, अपनी मातामही पद्मावती के श्रेयार्थ श्री अभिनन्दनदेवप्रतिमा प्रतिष्ठित करवाकर स्थापित करवाई । महामात्य धनपाल की स्त्री रूपिणी ( अपर नाम पिसाई) ने अपने कल्याणार्थ तीसवीं देवकुलिका का जीर्णोद्धार करवाकर उसमें उपरोक्त शुभावसर पर श्रीसिंहसूरि के कर-कमलों से ही श्रीचन्द्रप्रभबिंब की प्रतिष्ठा करवाई । जगपाल धनपाल की स्त्री रूपिणी ने भी वसवीं देवकुलिका और उसकी स्त्री मालदेवी ने उनतीसवीं देवकुलिका का तथा जगदेव और उसकी जीर्णोद्धार करवाया और दोनों ने क्रमशः अपने २ श्रेयार्थ उनमें श्री पद्मप्रभविंग और स्त्री द्वारा जीर्णोद्धार कार्य श्री सुपार्श्वबिंबों की स्थापना उक्त आचार्य के द्वारा उपरोक्त शुभावसर पर ही करवाई । महामात्य पृथ्वीपाल की पत्नी श्रीनामलदेवी ने भी इसी शुभावसर पर अपने श्रेयार्थ सत्तावीसवीं देवकुलिका का जीर्णोद्धार करवाया और उसमें श्रीसुमतिनाथ प्रतिमा को श्रीसिंहरि द्वारा प्रतिष्ठित करवाई । नाना आनन्द का छोटा पुत्र था । यह पृथ्वीपाल का लघुभ्राता था । जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि नाना का विवाह त्रिभुवनदेवी के साथ हुआ था । त्रिभुवनदेवी की कुक्षी से दो पुत्र नागार्जुन और नागपाल नामक गाना और उसका परिवार उत्पन्न हुये । नागपाल का पुत्र आसवीर था । विमलवसति के जीर्णोद्धार कार्य में तथा उनके द्वारा प्रतिष्ठा, नाना ने भी यथाशक्ति भाग लिया । तरेपनवीं देवकुलिका में वि० सं० १२१२ मार्ग जीर्णोद्धार कार्य शुक्ला १० बुद्धवार को श्रीसम्भवनाथबिंब की प्रतिष्ठा श्रीमद् वैरस्वामिसूर के द्वारा १ - 'मल्लिनाथ चरित्र की प्रशस्ति' गु० प्रा० मं० ० चरणलेख पृ० ११६१ २ - प्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ० २३३ ३- " 33 " ले०६५, ६८, १००, १०३, १०६. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] :: प्राचीन गूर्जर मंत्री सफर ड्रेसर और दशरथ :: [ ७६ मे उमेठ पुत्र साकार्जुन के श्रेय के लिये करवाई। नाना के कविष्ट पुत्र नागपाल से अपनी माता त्रिभुवनदेवी के तालीसवीं देवकुलिका में वि० सं० १२४५ वैशाख ० ५ गुरुवार को श्री महावीरविज श्रम खि सूरि के करकमलों से स्थापित करवाया तथा पुत्र आसवीर के श्रेयार्थ श्रीमद् देवचन्द्रसूरि के द्वारा नेमनाथशतिमा को प्रतिष्ठित करवाया । मंत्री लालिग का परिवार और उसके यशस्वी पौत्र हेमरथ, दशरथ जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि महामात्य नेढ़ का लालिंग छोटा पुत्र था । यह भी अपने far एवं ज्येष्ठ भ्राता के सदृश उदारचेत्ता, धर्मात्मा, दीनबन्धु, नीतिनिपुण और अत्यन्त रूपवान था । लालिम लालिग और उसका पुत्र का अधिकतर मन सुकृत करने में ही लगता था । लालिग का पुत्र महिंदुक भी अति महिंदुक धर्मात्मा, सत्संगी, महोपकारी एवं अनेक उत्तम गुणों की खान था । वह जिनेश्वरदेव एवं साधु-साध्वियों का परम भक्त था। महिंदुक ने अपने पापकर्मों का क्षय करने के लिये अनेक सुकृत किये और विपुल यश प्राप्त किया । महिंदुक के दो यशस्वी पुत्र उत्पन्न हुये । बड़ा पुत्र हेमरथ अत्यन्त विवेकवान, शान्त, अत्यन्त दयालु, निस्पृह, शरणवत्सल, सदाचारी एवं सुविचारी, उच्चकोटि का आगम - रहस्य को समझने वाला जैन श्रावक था । छोटा पुत्र दशरथ भी सर्वगुणसम्पन्न, दृढ़ जैनधर्मी, गम्भीर दानी, सद्पुरुषार्थी एवं कुलदेवी अम्बिका का परम भक्त था । उसने विमलवसति की सर्वश्रेष्ठ दशमी देवकुलिका का जीर्णोद्धार करवाया और उसमें अपने और अपने ज्येष्ठ भ्रातृ हेमरथ के श्रेयार्थ वि० सं० १२०१ ज्येष्ठ माह की [कृ० या शु०] एकम शुक्रवार को भगवान नेमिनाथ की अत्यन्त मनोहर प्रतिमा तथा एक मन्त सुन्दर मूर्त्तिषट जिसमें निमक, लहर, वीर, नेढ़, विमल, लालिंग तथा हमरथ और स्वयं दशरथ की मूर्तियाँ अंकित हैं, स्थापित करवाये । दशस्थ पथमि पहिलपुरपचन में रहता था, परन्तु अपने पूर्वजों की मातृभूमि प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी श्रीमालपुर को नहीं भूला था। श्रीमालपुर नगरी के प्रति उसके हृदय में वही सम्मान था, जो एक सच्चे मातृभूमिभक्त के हृदय में होता है । इस देवकुलिका में हेमरथ और दशरथ और उनके द्वारा दशवी देवकुलिका का जीर्णोद्धार और उसमें जिनबिंब और पूर्वजपट्ट की स्थापना ऋ० प्रा० जे० ले० सं० भ० २ ० १५३, १६६, १४४. ० प्रा० जे० ले० सं० भा० २ ० ५१ [ बिमलवसहि की प्रसिद्ध प्रशस्ति ] स्व० मुमिराज जयन्तविजयजी और पं० लालचन्द्र दास गांधी का यह मत है कि उक्त प्रशस्ति के द्वितीय लोक के. प्रथम चरण की आदि में 'श्रीमाल कुलोथ के स्थान पर 'श्रीमालपुरीख' चाहिए था । मुनिराज जयन्तविजपची फिर इस शंका में भी रखते प्रतीत होते हैं कि मंत्री बिक की मस्ता श्रीमाल ज्ञाति की थी और पिता पोरवाड्ज्ञाति के थे। वे कहते हैं कि माता कौ ज्ञाति के नाम से कुल और पिता की ज्ञाति के नाम से बेस के नाम पड़ते हैं। इस दृष्टि से 'श्रीमाल कुलोत्थ' का प्रयोग संगत ही प्रतीत Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... : प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय दशरथ ने १७ सत्रह श्लोकों की एक प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीणित करवाई, जिसमें उसने अपने महागौरवशाली कीतिवंत पूर्वजों एवं उक्त प्रतिष्ठा का सविस्तार वर्णन करवाया तथा मंगलाचरण के पश्चात् श्रीमालपुर का नामोल्लेख द्वितीय श्लोक में बड़े आदर के सहित करवाया। होता है। यह समाधान केवल अनैतिहासिक कल्पना है जो अर्थ तथा संगति बैठाने की दृष्टि से गढ़ी गई है। प्रथम मत पर विचार करते समय में भी यहाँ यह मान लेता हूँ, जैसा अनुभव कहता है कि नकल करने वाले ने 'पुरोत्थ' के स्थान पर 'कुलोत्थ' उत्कीर्ण कर दिया और लेख शिला पर होने के कारण पुनः शुद्ध नहीं करवाया जा सका । दशरथ जैसे बुद्धिमान् एवं श्रीमंत ने यह अशुद्धि सहन कैसे कीयह प्रश्न उठता है। इस शंका का निराकरण इस अर्थ से हो जाता है कि 'श्री श्रीमालकुलोत्थ' श्रीमालपुर (भिन्नमाल) के कुल से उत्पच अर्थात् यह प्राग्वाटवंश श्री श्रीमालपुर में निवास करने वाले कुल से जैनदीक्षित होकर संभूत हुआ है और 'श्री श्रीमालपुरोत्थ' का अर्थ भी यही है कि श्री श्रीमालपुर से उत्पन्न अर्थात् श्रीमालपुर इस प्राग्वाटवंश का आदि पैतृक जन्म-स्थान है। दोनों अर्थों का आशय एक ही है, कुछ भी अन्तर नहीं है। अतः दशरथ ने इस शिला-लेख के आरोपण में अधिक श्रागा-पीछा विचार करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं समझी । परन्तु बात यह नहीं होनी चाहिए। अ० प्रा० जै० ले० सं०भा०२ लेखांक ४७ में, जो दशरथ के द्वारा ही उत्कीणित करवाया हुआ है 'श्रीमालकुलोद्भव' का प्रयोग किया गया है । अतः यह प्रयोग समझ कर ही किया गया है सिद्ध होता है। यह दशरथ की पैत्रिक जन्म भूमि के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का प्रतीक है ही माना जायगा। ... मुनिराज जिनविजयजी ने भी 'श्रीमालकुलोद्भव' शब्द को लेकर अपनी प्रा० जै० ले० सं० भा०२ के अवलोकन-विभाग ०१४ के लिख दिया है, 'वीर महामन्त्री अने नेढ़ आदि तेना पुत्र-पौत्रों प्राग्वाट नहीं पण श्रीमालज्ञातिना हता' - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवड ] :: प्राचीन मूर्जर-मन्त्री-वंश :: श्रीमाल पुरोत्थ प्राग्वाट वंशाक्तंस प्राचीन गुर्जर-मन्त्री- कोष्ठक प्राचीन गुर्जर वनराज चावड़ा वि० सं० ८०२ से ८६२ सोलंकी मूलराज वि० सं० ६६८ से १०५२ चामुण्डराज वि० सं० १०५२ से १०६५ वल्लभराज वि० सं० १०६५ से १०७७ I भीमदेव प्रथम वि० सं० १०७७ से ११२० देव वि० [सं० ११२० से ११५० जयसिंह वि० सं० १९५० से ११ ह T कुमारपाल वि० [सं० १९६६ से १२३० f अजयपाल वि० [सं० १२३० से १२३३ मूलराज द्वितीय वि० सं० १२३३ से १२३५ 1 भीमदेव द्वितीय वि० सं० १२३५ से १२६६ (६८) दंडनायक लहर I महामात्य वीर वि० सं० २०८५ में स्वर्गवासी महामात्य नेद सचिवेन्द्र धवल महामात्य आनन्द महामात्य पृथ्वीपाल महामात्य ठक्कुर निनक I महामात्य धनपाल वि० सं० १२४५ [ दंडनायक विमल Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय श्रीमालपुरोत्थ प्राग्वाटवंशावतंस प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश-वृक्ष महामात्य ठ० निन्नक [नारंगदेवी] दंडनायक लहर महामन्त्री वीर [वीरमति] महामात्य नेद दंडनायक विमल [श्रीदेवी] महामात्य धवल लालिग महिंदुक, महामात्य आनन्द [पद्मावती, सलूणा] महामात्य पृथ्वीपाल [नामलदेवी] नाना [त्रिभुवनदेवी] हेमरथ दशरथ जगदेव [मालदेवी] महामात्य धनपाल [रूपिणी] महणदेवी नागार्जुन नागपाल पासवीर प्र०चि० (संस्कृत) पृ०१४,१५,१६,२०,५४, ५५,७६,६६,६७. D.C. M. P.(G. O. V. LXX. VI) P. 253-56. (चन्द्रप्रभस्वामी-चरित्र) अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० ४७, ५०, ५१ तथा विमलवसहि की देवकुलिकाओं के विमलवंशसम्बन्धी अनेक लेख, हस्तिशाला का ले. २३३ इत्यादि । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमळवसहि के निर्माता गूर्जरमहाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह की हस्तिशाला में प्रतिष्ठित अश्वारूढ मूर्ति । अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमळवसहि की भ्रमती के उत्तर पक्ष के एक मण्डप में सरस्वतीदेवी की एक सुन्दर आकृति । एक ओर हाथ जोड़े हुये विमळशाह और दूसरी ओर गज लिये हुये सूत्रधार हाथ जोड़े हुये दिखाये गये हैं। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमळवसहि का बाहिर देखाव । देखिये पृ० ८३ पर । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: [ ३ अनन्य शिल्प-कलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय मूलगंभारा, गूढमण्डप, नवचौकिया, रंगमण्डप, भ्रमती और सिंहद्वार आदि का शिल्पकाम अर्बुदाचल पर जो बारह ग्राम बसे हैं, देलवाड़ा भी उनमें एक है। ग्राम तो वैसे इस समय छोटा ही है और स्थान के अध्ययन से यह भी प्रतीत हुआ कि पहिले भी अथवा वहाँ जो मन्दिर बने हैं, उनके निर्माण-समय _ में भी वह कोई अति बड़ा अथवा समृद्ध नहीं था, क्योंकि जैसे अन्य बड़े और समृद्ध दलवाड़ा और उसका महत्व नगर, ग्रामों के वासियों के अनेक शिलालेख अथवा अन्य धर्मकृत्यों का उल्लेख सहज मिलता है, वैसा यहाँ के किसी वासी का नहीं मिलता। वैसे देलवाड़ा ऐसी जगह बसा है, जहाँ बड़े और समृद्ध मगर का बसना भी शक्य नहीं, परन्तु देलवाड़ा जैनमन्दिरों के कारण छोटा होकर भी बड़े नगरों की इर्षा का भाजन बना हुआ है । यहाँ वैष्णव धर्मस्थान भी छोटे २ अनेक हैं । यह जैन और वैष्णव दोनों के लिये तीर्थस्थान है। देलवाड़े के निकट एक ऊँची टेकरी पर पाँच जैन-मन्दिर बने हैं। १-दंडनायक विमलशाह द्वारा विनिर्मित विमलवसति, २-दंडनायक तेजपाल द्वारा विनिर्मित लूणवसति, ३-भीमाशाह द्वारा विनिर्मित पित्तलहरवसति, टेकरी पर पाँच जैन-मन्दिर ४-चतुर्मुखी खरतरवसति और ५-वर्द्धमान-जिनालय । वैसे तो महाबलाधिकारी दंड और उनमें विमलवसतिका नायक विमल का इतिहास लिखते समय विमलवसति का निर्माण कब और क्यों हुआ पर लिखा जा चुका है । यहाँ उसका वर्णन शिल्प की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य समझ कर देना चाहता हूँ। एक जैन-मन्दिर में जितने अंगों की रचना होनी चाहिए वह सब इसमें है; जैसे मूलगंभारा, चौकी, गूढमंडप, नवचौकिया और उसमें दोनों ओर आलय, सभामण्डप, भ्रमती, देवकुलिका की चतुर्दिक हारमाला और उसके आगे स्तम्भवती शाला, सिंहद्वार और उसके भीतर, बाहर की चौकियाँ और चतुर्दिक परिकोष्ट इत्यादि । विमलवसति सर्वाङ्गपूर्ण ही नहीं, सर्वाङ्ग सुन्दर भी है । दूर से इसका बाहरी देखाव जैसा अत्यन्त सादा और कलाविहीन है, उतना ही इसका आभ्यन्तर नख-शिख कलापूर्ण और संसार में एकदम असाधारण है, जो पूर्णरूपेण अवर्णनीय और अकथनीय है। .... .. परिकोष्ट देवकुलिकाओं के पृष्ट भाग से बना है । इसकी ऊँचाई मध्यम और लम्बाई १४० फीट और चौड़ाई १० फीट है । यह इंट और चूने से बना है। इसमें पूर्व दिशा में द्वार है, जो इसके अनुसार ही छोटा और सादा है और यह ही द्वार सर्वाङ्गपूर्ण और सर्वाङ्गसुन्दर जगद्-विख्यात शिल्पकलाप्रतिमा, परिकोष्ट और सिंह-द्वार बार देवलोकदुर्लभ, इन्द्रसभातीत विमलवसति का सिंह-द्वार है। सिंह-द्वार के आगे भृङ्गार-चौकी है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय आज की निर्माणरुचि और पद्धति इससे उल्टी है। श्राज मन्दिर और धर्मस्थानों का बाह्यान्तर उनके आभ्यन्तर की अपेक्षा अधिकतम कलापूर्ण और सुन्दर बनाने की धुन रहती है। यह निष्फल और व्यर्थ प्रयास है। शीत, वात, आतप और वर्षा के व्याघातों को खाकर वे सर्व सुन्दर बाह्यांग विकृत, खण्डित और मैले और रूपविहीन हो जाते हैं और फल यह होता है कि दर्शकों को लुभाने, उनमें रुचि और पुनः २ यात्रा करने की भावना और भक्ति को उत्पन्न और वृद्धिंगत करने के स्थान में उनकी रुचि से उतर जाते हैं। इस प्रकार बाह्यान्तर को सजाने में व्यय किया हुआ पैसा कुछ वर्षों तक प्रभावकारी रहकर फिर अवशिष्ट भविष्य के लिये उस स्थान के महत्व, प्रभाव और लाभ को सदा के लिये कम करने वाला रह जाता है । विमलशाह इस विचार से कितना ऊँचा बुद्धिमान् ठहरता है-समझने का वह एक विषय है। हमारे पूर्वज बाहरी देखाव, आडम्बर को पाखण्ड, झूठा, अस्थायी, निरर्थक, समय-शक्ति-द्रव्य-ज्ञान-प्रतिष्ठा-गौरव का नाश करने वाला समझते थे और इसीलिये वे आभ्यन्तर को सजाने में तन, मन और धन सर्वस्व अर्पण कर देते थे—यह भाव हमको इस अलौकिक सुन्दर विमलवसति के बाहर और भीतर के रूपों को देखने से मिलते हैं-शिक्षा की चीज है। विमलवसति का मूलगंभारा और गूढमण्डप दोनों सादे ही बने हुये हैं। इन दोनों में कलाकाम नहीं है। शिखर नीचा और चपटा है। फलतः गूढमण्डप का गुम्बज भी अधिक ऊँचा नहीं उठाया गया है। गूढमण्डप मूलगम्भारा और गूढ़मंडप चौमुखा बना हुआ है। प्रत्येक मन्दिर का मूलगम्भारा और गूढमण्डप उसका मुख और उनकी सादी रचना में भाग अर्थात् उत्तमांग होता है । अन्य अंगों की रचना कलापूर्ण और अद्वितीय हो और विमलशाह की प्रशंसनीय ये सादे हो तो इसका कारण जानने की जिज्ञासा प्रत्येक दर्शक को रहती है। विमलविवेकता शाह ने अपनी आँखों सोमनाथ-मन्दिर का विधर्मी महमूद गजनवी द्वारा तोड़ा जाना और सोमनाथ प्रतिमा का खण्डित किया जाना देखा था। सोमनाथ मन्दिर समुद्रतट पर मैदान में आ गया है। बुद्धिमान् एवं चतुर नीतिज्ञ विमलशाह ने उससे शिक्षा ली और विमलवसति को अतः निर्जन, धनहीन भूभाग में आये हुये दुर्गम अर्बुदाचल के ऊपर स्तह से लगभग ४००० फीट ऊँचाई पर बनाया, जिससे आक्रमणकारी दुश्मन को वहाँ तक पहुँचने में अनेक कष्ट और बाधायें हों और अन्त में हाथ कुछ भी नहीं लगे, धन और जन की हानि ही उठाकर लौटना पड़े या खप जाना पड़े। कोई बुद्धिमान् विधर्मी आक्रमणकारी दुश्मन ऐसा निरर्थक श्रम नहीं करेगा ऐसा ही सोचकर विमलशाह ने ऐसे विकट एवं दुर्गम और इतने ऊँचे पर्वत पर विमलवसति का निर्माण करवाया और मूलगम्भारा और गूढमएडपों की रचना एकदम सादी करवाई, जिससे विधर्मी दुश्मन को अपनी क्वेच्छाओं की तृप्ति करने के लिये तोड़ने फोड़ने को कुछ नहीं मिले और इस प्रकार मूल पूज्यस्थान क्षुद्रहृदयों के विधर्मी-जनों के पामर हाथों से अपमानित होने से बच जाय । यहाँ हमें विमलशाह में एक विशेषता होने का परिचय मिलता है। वह प्रथम जिनेश्वरोपासक था और पश्चात् सौन्दर्योपासक । वह अत्यन्त सौन्दर्यप्रेमी था, विमलवसति इसका प्रमाण है, परन्तु इससे भी अधिक वह जिनोपासक था कि उसने मूलगंभारे और गूढमण्डप में सौन्दर्य को स्थान ही नहीं दिया और उन्हें एक दम आकर्षणहीन और सौन्दर्य-विहीन और सुदृढ़ बनाया, जिससे उसको उसके प्रभु जिनेश्वर की प्रतिमा का गुण्डेजनों के हाथों अपमानित होने का कारण नहीं बनना पड़े। मन्दिर के शिखर और गुम्बज अधिक ऊँचे नहीं बने हैं-इसका तो कारण यह है कि अर्बुदाचल पर वर्ष में एक-दो बार भूकम्प का अनुभव होता ही रहता है। अतः उनके अधिक ऊँचे होने पर टूटने और गिरने की शंका Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाग सुन्दर अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्य श्री विमल सनि देलवाड़ा दक्षिण • उत्तम कोरदार देव कुलिकायें - सुन्दर " ★ साधारण पच्छिम TRACED BY D Riding DRAWN BY thems मूल भारा मं 0000000 YYYYY देवकुलि कामों की गणना सिंहद्वार दक्षिण से प्रारंभ होती है सांकेतिक चि | A देवकुलि कार्यों के उपर शिवर तोरण • देवकुलि कामे कि मध्यकासाधारण 0 गुंबज (छत्र के उपर) अनि सुन्दर स्तंभ - दिवार हस्ति शाला पूर्व उत्तर # देवकुलिका की द्वारशाखा साधारण स्तंभ Page #227 --------------------------------------------------------------------------  Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदायलस्थ श्री विमलवसति :: सदा बनी रहती है, नीचे होने से कैसा भी भयंकर भूकम्म क्यों नहीं आये, उसका उनपर कोई हानिकर. भयंकर प्रभाव नहीं पड़ पाता । यहाँ भी चिमलशाह और विमलक्सति के शिल्पियों की प्रशंसनीय विवेकला, बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का परिचय मिलता है। फिर भी दुश्मन के हाथों से मन्दिर पूर्णतया सुरक्षित नहीं रह सका । यवन प्रथम तो भारत्र में आक्रमणकारी ही रहे । परन्तु महमूद गौरी ने पृथ्वीराज को परास्त करके भारत का शासन छीन लिया और अपना प्रतिनिधि दिल्ली में नियुक्त कर दिया। स्थानीय शासक रहकर भी अगर कोई विधर्मी शासक अन्य धर्मों के धर्मस्थानों को तोड़े, नष्ट-भ्रष्ट करें, तो उसका तो विवशता एवं परतन्त्रता की स्थिति में उपाय ही क्या । देलवाड़े के जैन-मन्दिरों को जो स्थानीय विधर्मी शासकों ने हानि पहुँचाई, उसका यथास्थान आगे वर्णन किया जायगा। मूलगंभारे में वि० सं० १०८८ में विमलशाह ने वर्धमानसरि द्वारा श्री आदिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवा कर शुभमुहूर्व में प्रतिष्ठित किया। परन्तु इस समय वह बिंब नहीं है । उसके स्थान पर वि० सं० १३७८ ज्येष्ठ कृष्णा ६ सोमवार को. माण्डव्यपुरीय संघवी सा० लाला और वीज द्वारा श्री धर्मघोषसरि के पट्टधर श्री ज्ञानचन्द्रसरि के उपड्रेन से प्रतिष्ठित अन्य पंचतीर्थी परिकर वाली श्री आदिनाथ-प्रतिमा संस्थापित है। मूलगंभारे के बाहर सुदृढ़ चौकी है। इसमें उत्तर और दक्षिण की दिकारों में दो आलय हैं। चौकी से लगता हुआ ही गूढमण्डप है। गूढमण्डप के उत्तर और दक्षिण दिशाओं में भी द्वार हैं और चौकियाँ हैं। दोनों मोर के चौकिरने के स्कमों, स्तम्भों के ऊपर की शिला-पट्टियों में सुन्दर कलाकृतियाँ हैं । मूलगंभारे के बाहर तीनों दिशाओं में तीनों आलयों में एक-एक सपरिकर जिनप्रतिमा विराजमान हैं और प्रत्येक प्रालय के ऊपर तीन २ जिनमुर्तिक और छः २ कायोत्सर्गिक मूर्तियों की आकृतियाँ विनिर्मित हैं। इस प्रकार कुल २७ मूर्तिआकतियाँ बनी। १-मूलगंभारे में वि० सं० १६६१ में महामहोपाध्याय श्री लब्धिसागरजी द्वारा प्रतिष्ठित श्री हीरविजयसूरि की सपरिकर प्रतिमा बाई ओर विराजमान है। २-गृढमण्डप में प्रतिष्ठित सपरिकर प्रार्श्वनाथ भगवान् की दो कायोत्सर्मिक प्रतिमायें । प्रत्येक के परिकर में दो इन्द्र, दो भाव, ते अविकरये और चौबीमा जिनेबरों की मूर्चि-प्राकृतियाँ खुदी हुई हैं। ३-घात-मूर्तियाँ दो। ४-पंचतीर्थी परिका बाली मूर्तियाँ तीन। ५-सामान्य परिकर पाली भूर्तियाँ ४ चार । ६-परिकार हित मूर्चियाँ २१ इक्कीस : ७-संगमरमरप्रस्तुर का जिन-चौवीसी पट्ट १ एक। ८-श्रावक और श्राविकाओं की प्रतिमायें ५ पांच : (१) गोसल (२) सुहागदेवी (३) गुणदेवी (४) मुहणसिंह (५) मीणलदेवी ह-अम्बिकाजी की प्रतिभा ? एक । १०-धातु-चौवीशी? एक। ११-धातु-पंचतीर्थी २ दो। १२-धातु की छोटी प्रतिमायें २ दो। इस प्रकार गृढ-मण्डप में इस समय ३५ जिन-बिंब, २कायोत्सर्गिक-बिंब,१ चौबीसी-पट्ट, अम्बिकाप्रतिमा, २ श्रावकप्रतिमा, ३ श्राविकामूत्तियाँ हैं। आबू भा०१पृ० ४२. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय गूढ़मण्डप का द्वार, उसकी बाहर की दोनों भित्तियाँ, दोनों ओर की भित्तियों में बने हुये दोनों चालय, नव चौकियाँ के बारह स्तंभ, नव मण्डपों का प्रत्येक पत्थर, पट्टी, स्तंभ, देहली - मस्तिका, रिक्तभाग (गाला), कोण, छत, शिखर, चाप, इधर-उधर, ऊपर-नीचे कहीं से भी बिना उत्तम प्रकार की कलाकृति के कोई भी अल्पतम अंग नहीं बना है। ऐसा तिल भर भी स्थान नहीं है, जहाँ शिल्पकार की कुशलटांकी का जादू नहीं भरा हो। इनको देख कर ही तृप्ति हो सकती है, पढ़कर तो दर्शन करने के लिये श्रातुरता और व्याकुलता बढ़ेगी । गूढ़मण्डप का द्वार और नवचौकिया १- गूढ़मण्डप के द्वार के बाहिर नवचौकिया में दोनों ओर की भित्ति में आये हुये दोनों स्तंभों में पांच २ खण्डों में अभिनय करती हुई नर्तकियों के दृश्य हैं । २–गूढ़मण्डप के द्वार के दाहिनी ओर के स्तंभ के और दाहिनी ओर के आालय के बीच के रिक्तभाग (गाला) में सात खण्ड करके कुछ दृश्य अंकित किये गये हैं। ऊपर के प्रथम खण्ड में एक श्राविका हाथ जोड़ कर खड़ी है । उसके पास ही में एक श्रावक भी खड़ा है। दूसरे खण्ड में पुष्पमाला लिये हुए दो श्रावक और एक अन्य श्रावक हाथ जोड़ कर खड़ा है । तीसरे खण्ड में गुरु महाराज दो शिष्यों को क्रिया कराते हुये उनके मस्तिष्क पर वासक्षेप डाल रहे हैं। गुरु महाराज उच्च आसन पर बैठे हैं और उनके सामने छोटे २ आसनों पर उनके शिष्य बैठे हैं । बीच में स्थापनाचार्य एक पट्टे पर प्रतिष्ठित हैं । नीचे के चारों खण्डों में क्रमशः तीन साधु, तीन साध्वियाँ, तीन श्रावक और तीन श्राविकायें खड़ी हैं । ३- इसी प्रकार द्वार के बाहे स्तंभ और बाहे पक्ष के आलय के बीच के रिक्तभाग में भी ऐसे ही दृश्य अंकित हैं । प्रथम सर्वोच्च भाग में एक श्रावक हाथ जोड़ कर चैत्यवंदन कर रहा है और पास में एक श्राविका हाथ जोड़ कर खड़ी है और इसके पास में एक अन्य श्राविका और खड़ी है। दूसरे खण्ड में श्रावक अपने हाथों में पुष्पमालायें लिये हुये हैं। तीसरे में गुरु महाराज उपदेश कर रहे हैं। इसके नीचे के चारों खण्डों में क्रमशः तीन साधु, तीन साध्वियाँ, तीन श्रावक और तीन श्रकिकायें खड़ी हैं। ४ - नवचौकिया तीन खण्ड में विभाजित है । प्रत्येक खण्ड में तीन चौकी हैं। प्रथम खण्ड गूढ़मण्डप के द्वार से लगा है । द्वितीय खण्ड मध्यवर्त्ती और तृतीय खण्ड रंगमण्डप से लगा हुआ है । नवचौकिया के नव मडरूपों के कलादृश्यों का वर्णन गूढ़मण्डप के द्वार से लगे हुये प्रथम खण्ड की मध्यवर्त्ती चौकी के मण्डप से प्रारम्भ किया गया है, जो उत्तर से पूर्व, फिर दक्षिण और फिर पश्चिम दिशाओं के मण्डपों का परिक्रमण - विधि से परिचय देता हुआ मध्यवर्त्ती खण्ड की मध्य चौकी के मण्डप का अन्त में परिचय देता है । १. प्रथम खण्ड का मध्यवर्त्ती मण्डप – यह मण्डप पाँच ऐकेन्द्रिक वृत्तों से बना है । प्रत्येक वृत्त समान आकार के काचला ( Semi round parts ) अर्थात् अर्ध गोल खण्डों से गर्भित है । केन्द्रस्थ गोल खण्ड पूर्ण है, नवचौकिया के मण्डपों के कला- दृश्यों का वर्णन संख्या (१) एक से प्रारम्भ किया गया है। वर्णन का परिक्रमण-ढंग इंस संख्या कोष्ठक के अनुसार है । ८ १ २ ७ ε ३ ६ ५ ४ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के नवचौकिया के एक मण्डप की छत में कल्पवृक्ष की अद्भुत शिल्पमयी आकृति । देखिये पृ० ८७ (७) पर । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के रङ्गमण्डप के पूर्व पक्ष की भ्रमती के मध्यवर्ती गुम्बज के बड़े खण्ड में भरत बाहुबली के बीच हुये युद्ध का दृश्य । देखिये पृ० ८८(६) पर। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ as ] :: प्राचीन गूर्जर - मंत्री-वंश और अबुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: [ at केन्द्र दण्डहीन है । इस मण्डप में आठ देवियों की नाट्यमुद्रायें हैं। वृत्तों के आधार में वायव्य कोण में एक ध्यानस्थ जिन बिंबा कृति है, जिसके आस-पास श्रावक पूजोपकरण लेकर खड़े हैं। इसके सामने आग्नेय कोण में दूसरी और एक आचार्य आसन पर बैठे हैं। उनको एक शिष्य साष्टांग नमस्कार कर रहा है, श्रावक हाथ जोड़ कर खड़े हैं। अवशिष्ट भाग में संगीत और नृत्य के पात्र हैं । इस आधार - वृत्ताकार पट्टी के बाहिर चारों कोणों में एक-सी आकृति की चार सुन्दर देवी- श्राकृतियाँ हैं, जिनके पास में पुप्पमालादि लिये हुये अन्य आकृतियाँ हैं । २. नवचौकिया के वायव्य कोण में बना हुआ मण्डप भी काचलागर्भित ऐकेन्द्रिक वृत्तों से बना है । केन्द्र में लटकता हुआ दण्ड है । दण्ड में, वृत्ताधार में, नीचे की चतुर्दिशी पट्टियों के चारों कोणों में अभिनय करती कृतियाँ और अनेक सुन्दर देवी आकृतियाँ हैं । ३. यह मण्डप भी काचलागर्भित ऐकेन्द्रिक वृत्तों से बना है। नीचे की चतुर्दिशी पट्टियों और उनके कोणों में अनेक देवी आकृतियाँ हैं । ४. यह मण्डप त्र्येकैन्द्रिक वृत्ताकार है, केन्द्र में कलाकृति है । इसके प्रथम वलय में पैदल सैन्य, द्वि० वलय में अश्वारोहीदल और तृ० वलय में हस्तिशाला का देखाव है । नीचे की चतुर्दिशी पट्टियों के भीतर की ओर आग्नेय कोण में अभिषेकसहित लक्ष्मीदेवी की आकृति और वायव्य कोण में दो हाथियों का युद्ध-दृश्य है । ५. यह भी काचलायुक्त ऐकैन्द्रिक वृत्तों से बना है । केन्द्र और द्वितीय वलय के प्रत्येक काचले में दण्ड हैं। केन्द्र के दण्ड में, प्रथम वलय में और द्वितीय वलय के दो-दो दण्डों के मध्य में अभिनय करती आठ देवीआकृतियाँ हैं, जो आधार-वलय में चैत्यवंदन करती स्त्री-मुद्राओं के पृष्ट भागों पर स्थित पट्टों पर आरूढ़ हैं । आधारवलय के बाहर चतुर्दिशी पट्टियों के भीतर की ओर उनके कोणों में हाथी, घोड़े आदि वाहनयोग्य पशु-आकृतियाँ हैं, जिनकी नंगी पीठों पर मनुजाकृतियाँ हैं । ६. काचलायुक्त त्र्येकैन्द्रिक वृत्तमयी यह मण्डप है । द्वितीय और तृतीय वलयों में बतकों की पंक्तियाँ और आधारवलय में अलग-अलग प्रासादों में बैठी हुई देवी आकृतियाँ हैं । 1 ७. इस मण्डप की छत में कल्प वृक्ष का देखाव है । इसके नीचे की चतुर्दिशी आधार शिलापट्टियों पर प्रासादस्य अनेक देवी- श्राकृतियाँ खुदी हैं तथा इसके नीचे के तल पर काचलाकृतियाँ हैं । ८. काचलायुक्त त्र्येकैन्द्रिकवृत्तमयी यह मण्डप है । केन्द्र में दण्ड है। चारों दिशाओं में स्त्री-आकृतियों के पृष्ठ भागों पर रक्खी हुई पट्टियों के ऊपर अभिनय करती देवी आकृतियाँ तथा आधारवलय में भी देवीभाकृतियाँ हैं । ६. इस मण्डप में केवल वृत्तों में अर्ध-गोल खण्ड अर्थात् अतिसुन्दर काचलों का संयोजन है । उपरोक्त मण्डपों के वर्णन से मण्डपों की भीतरी रचना दो प्रकार से अधिक होती सिद्ध होती है-वलयाकृत और भुजाकृत । ऐकैन्द्रिक वृत्त - एक हो बिन्दु पर एक से अधिक वृत्त अलग परिधि के बने हों वे ऐकेन्द्रिक वृत्त कहलाते हैं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: : प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय यह बारह स्तम्भों पर बना वसति का सबसे बड़ा मण्डप है । बारह स्तम्भों पर बारह तोरण लगे हैं। मण्डप मैं पारह वलय हैं, जो पाठ स्तम्मों पर आधारित हैं । मण्डप में विशेष उल्लेखनीय भिन्न २ आयुध-शस्त्र और नाना सामण्डपं और उसके दृश्यों प्रकार के वाहनों पर पारूढ़ सोलह विद्यादेवियाँ भिन्न २ मुद्रात्रों में खड़ी हैं। केन्द्र में का वर्णन एक लटकन और उसके पास के दूसरे वलय में काचलों से बने चतुष्कोणक्षेत्रों में भिन्न २ बारह लटकन लटक रहे हैं। मण्डप के नैऋत्य कोण में अम्बिकादेवी की सुन्दर मूर्ति बनी है (५C) अन्य तीन कोणों में भी ऐसी ही सुन्दर देवी-मूर्तियाँ बनी हैं। प्रत्येक स्तम्भ के सबसे नीचे के भाग में अद्भुत और आनन्ददायी बाव्य करती हुई स्त्री-आकृतियाँ हैं । यह मण्डप अधिकतम कलापूर्ण और शिल्पविशेषज्ञों की प्रतिभा और टांकी की नौंक और उसकी क्रिया का ज्वलंत उदाहरण है। तोरण और स्तम्भों की कोरणी इतनी उत्तम है कि सभामण्डप इन्द्रसभा-सा प्रतीत होता है। सचमुच नवचौकिया और सभामण्डप दोनों मिलकर इन्द्र के बैठने के स्थान और देवों के बैठने की सुसज्ज देवसभा का स्थान पूर्णरूपेण धारण किये हुये-से इन्द्रसभा की साक्षात् प्रतिमा ही हैं। देख कर मूक सहसा जिह्वायुक्त हो जाता है और इतना आनन्दविभोर और आत्मविस्मृत हो जाता है कि वाह-वाह विखे बिना रह ही नहीं सकता। सभामण्डप, नवचौकिया, गूढमण्डप और मूलगंभारा के चारों ओर फिरती भ्रमंती बनी है । सभामण्डप के उत्तर, दक्षिण और पूर्व पक्षीं पर यह गुम्बजवती छतों से ढकी है ; शेष खुली है। उपरोक्तं तीनों पक्ष की छतों ग्रंमती और उसके दृश्य में तीन-तीन गुम्बज हैं। सभामण्डप के उत्तर पक्ष की भ्रमती के मध्यवर्ती (५A) गुम्बज की उत्तर दिशा की भींत में सरस्वती की सन्ति और दक्षिण पक्ष की भ्रमती के मध्यवर्ती (B) गुम्बज की दक्षिण दिशा की मीत में लक्ष्मीदेवी की मूर्ति खुदी है और इनके इधर-उधर नाटक के पात्र विविध नाट्य कर रहे हैं। उपरोक्त दोनों मूर्तियाँ एक-दूसरे के ठीक सामने-सामने है। (६) सभामण्डप के पूर्व पक्ष की भ्रमती के मध्यवर्ती गुम्बज के बड़े खण्ड में भरत-बाहुबली के बीच लुपै युद्ध का दृश्य है । वह इस प्रकार है :. दृश्य के आदि में एक ओर अयोध्या (६A) नगरी का देखाव है और देसरी ओर तक्षशीला नगरी (६B) का देखाव है । अयोध्यानगरी (६०) की प्रतोली में अलग २ पालकियों में बैठी हुई क्रमशः भरत की बहिन ब्राह्मी, माता सुमंगलादि समस्त अन्तःपुर की स्त्रियों, जिनमें प्रमुखा स्त्रीरत्न सुन्दरी है का देखाव है। प्रत्येक स्त्री-प्राकृति पर उस स्त्री का नाम लिखा हुआ है। इसके पश्चात् संग्राम करने के लिये रवाना होती हुई चतुरंगिणी सैन्य का देखाव है, जिसमें पाटहस्ति विजयगिरि और उस पर बैठा हुआ वीरवेश में महामात्य मंतिसागर, सेनापति सुसेन और.श्री भरत चक्रवर्ती श्रीदि की मूर्तियाँ सनाम खुदी हुई हैं। तत्पश्चात हाथी, घोड़े, रथ, पैदलसैन्यों का प्रदर्शन है। अम्बिकादेवी की मूर्ति को ५ से चिह्नित किया हुआ है। . -आबू Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारला BIO CONVESTMERA BADRINAKERasiya अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमळवसहि के अद्भुत शिल्पकलापूर्ण रङ्गमण्डप अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमळवसहि के अद्भुत शिल्पकलापूर्ण रङ्गमण्डप का दृश्य। देखिये पृ० ८८ पर। के सोलह देवीपुत्तलियोंवाले घुमट का देखाव । देखिये पृ०८८ पर। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि के उत्तर पक्ष पर विनिर्मित देवकुलिकाओं की हारमाला का एक आन्तर दृश्य । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: [८६ दूसरी ओर तक्षशिला नगर (६ B) के दृश्य में क्रमशः पुत्री जशोमती और रण करने के लिये प्रस्थान करती हुई चतुरंगिणीसैन्य, सेनापति सिंहरथ, हाथी पर कुँ सोभयश, अन्य हाथी पर मंत्री बहुलमति, पालकी में अंत:पुर की स्त्रियां, जिनमें प्रमुखा स्त्री-रत्न सुभद्रा और तत्पश्चात् हाथी, घोड़े, रथ और पैदलसैन्य का दर्शन है। प्रत्येक मूर्ति और प्रदर्शन पर अपने २ नाम लिखे हैं। एक रथ में रणवस्त्रों से सुसज्जित होकर एक पुरुष बैठा है, सम्भव है वह स्वयं बाहुबली है । इस पर नाम नहीं है (६c) रणक्षेत्र का दृश्य है। एक मृत मनुष्य पर अनिलवेग और दूसरे मनुष्य पर सेनापति सिंहरथ, पाटहस्ति विजयगिरि पर बैठा हुआ आदित्यजस, घोड़े पर बैठा हुआ सुवेगदत की आकृत्तियां बनी हैं। सब पर अपने २ नाम खुदे हुये हैं। तत्पश्चात् द्वंद्वरण का दृश्य है (६D), दो पंक्तियों में भरत, बाहुबली के बीच हुआ छः प्रकार का युद्ध-दृश्य-दृष्टियुद्ध, वाक्युद्ध, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध, दंडयुद्ध, चक्रयुद्ध अंकित हैं और प्रत्येक युद्ध-दृश्य पर उसका नाम लिखा है—जैसे भरतेश्वर-बाहुबली-दृष्टियुद्ध इत्यादि। . उपरोक्त दृश्य के पश्चात् कायोत्सर्गावस्था में बाहुबली का तप करने, लताजाल से आवृत्त होने, ब्राह्मी, सुन्दरी की बाहुबली को समझाती हुई मुद्राओं में मूर्तियाँ, बाहुबली को केवल ज्ञान और उसके पास ही पुनः व्रतिनी बांभी (ब्रामी) सुन्दरी की मूर्तियाँ आदि दृश्य (६E) खुदे हुये हैं और प्रत्येक पर नाम लिखा है । ___ उपरोक्त दृश्य के पश्चात् भगवान् ऋषभदेव के तीन गढ़, चौमुखजी सहित समवशरण की रचना का दृश्य (६F) है । जानवरों के कोष्ट में 'मंजारी-मूषक, सर्प-नकुल, सिंह-वत्स सहित गौ और सिंह तथा श्राविकाओं के कोष्ठ में सुनन्दा, सुमंगला, तत्पश्चात् पुरुषसभा और ब्राह्मी और सुन्दरी की विनय करती हुई खड़ी मूत्तियाँ और भगवान् की प्रदक्षिणा करते हुए भरत चक्रवर्ती की मूर्ति के दृश्य खुदे हैं। एक ओर अंगुली को देखते हुए भरत महाराज को केवलज्ञान होने का देखाव है और उनको रजोहरण प्रदान करते हुये देवों की मूर्तियों के दृश्य अंकित हैं। इस गुम्बज के पास में जो सभामण्डप का तोरण पड़ता है, उसमें उसके मध्य भाग में दोनों ओर भगवान् की एक प्रतिमा खुदी है। (७) उपरोक्त गुम्बज के दक्षिण पक्ष पर आये हुये गुम्बज की चतुर्दिशी नीचे की पट्टियों में से पूर्व दिशा की पट्टी में एक जिनप्रतिमा और दोनों कोणों में आसनस्थ दो गुरु-मूर्तियाँ खुदी हुई हैं । पास में पूजा-सामग्री लिये श्रावकगण खड़े हैं। उत्तर दिशा की पट्टी में भी एक जिनप्रतिमा खुदी है। दक्षिण दिशा की पट्टी में तीन स्थानों पर सिंहासनारूढ़ राजा अथवा कोई प्रधान राजकर्मचारी बैठे हैं और उनके पास में सैनिकगण आदि मूर्तित हैं। पश्चिम दिशा की पट्टी में मल्लयुद्ध का दृश्य है। गुम्बज के मध्य में चतुर्विंशति कोण वाली काचलामयी रचना है । प्रत्येक कोण की नोंक पर हाथ जोड़ी हुई एक-एक मूर्ति खुदी है । (८) उत्तर पक्ष पर बने गुम्बज के नीचे की चतुर्दिशी पट्टियों में राजा, सैनिक आदि के दृश्य हैं। उत्तर दिशा की पट्टी में आसनारूढ़ आचार्य की, उनके पास में दो खड़े श्रावकों की, ठवणी और पश्चात् बैठे हुये श्रावक लोगों की मूर्तियां खुदी हैं। उपरोक्त दृश्य ६A, ६B, C, D, E, GF से दिखाये गये हैं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितोय (8-१०) सिंहद्वार के भीतर जो पहला गुम्बज है, उसमें झूमर की प्रथम पंक्ति में व्याख्यान-सभा का दृश्य है, जिसमें भासनारूढ़ प्राचार्य-मूर्ति, ठवणी और पास में बैठे हुये श्रोता श्रावकगणों की मूर्तियाँ हैं (8)। दूसरा गुम्बज (१०) सिंह-द्वार और उसके भीतर सिंह-द्वार के भीतर देवकुलिकाओं की भ्रमती में पड़ता है। इसमें आर्द्रकुमार-हस्तिप्रतिके दो गुम्बजों का दृश्य बोध का दृश्य है। दृश्य में एक हाथी अपनी सँड और अगले दोनों पैर झुका कर साधु महाराज को नमस्कार कर रहा है । साधु महाराज उसको उपदेश दे रहे हैं। उनके पीछे दो अन्य साधु हैं। कोण में भगवान महावीर कायोत्सर्ग-ध्यान में हैं । हाथी के एक ओर एक मनुष्य और सिंह में मल्ल-युद्ध हो रहा है। देवकुलिकायें और उनके गुम्बजों में, द्वार-चतुष्कों में, गालाओं में, स्तम्भों में खुदे हुये ___ कलात्मक चित्रों का परिचय ( सिंह-द्वार के दक्षिणपक्ष से उत्तरपक्ष को) दे० कु. १-काचलाकृतियाँ दोनों मण्डपों के वृत्ताकार आधारवलयों में चारों ओर सिंहाकृतियाँ । ,, , २-काचलाकृतियाँ । प्र० मण्डप के प्रथम वलय में नाट्य-प्रदर्शन और द्वितीय वलय में हस्तिदल तथा द्वि० मण्डप में अश्वदल । ,, ३-काचलाकृतियाँ । प्र० मण्डप में अश्वदल और द्वि० मण्डप में सिंहदल । उपरोक्त तीनों देव-कुलिकाओं के मुखद्वार, द्वार-चतुष्क, स्तम्भ और इनके मध्य का अन्तर भाग आदि सर्व अति सुन्दर शिल्पकृति से मण्डित हैं। दे० कु. २, ३ के द्वारों के बाहर के दोनों ओर के दृश्यों (११) में श्रावकश्राविकायें पूजा-सामग्री लेकर खड़े हैं । दे० कु. ४-साधारण । , , ५- , ,, ६–देवकुलिका के बाहर का भाग सुन्दर कोरणी से विभूषित है। मण्डपों की रचना सादी ही है। ,,, ७-प्र० मण्डप की चतुर्भुजाकार आधार-पट्टियों पर बतकों की आकृतियाँ। और द्वि० मण्डप (१२) के नीचे की पट्टियों में उपाश्रय का दृश्य है । एक ओर दो साधु खड़े हैं और एक श्रावक उनको पंचांग नमस्कार कर रहा है और अन्य तीन श्रावक हाथ जोड़कर खड़े हैं। दूसरी ओर एक साधु कायोत्सर्ग-अवस्था में है। तीसरी ओर एक कोण में आसन पर प्राचार्य महाराज बैठे हैं। एक शिष्य उनकी चरण-सेवा कर रहा है, एक शिष्य नमस्कार कर रहा है और श्रावक और साधुगण खड़े हैं । ,,, -प्रथम मण्डप (१३) के केन्द्र में समवशरण और चौमुखजी की रचना है। द्वितीय और तृतीय वलयों में एक-एक व्यक्ति सिंहासनारूढ़ हैं और अवशिष्ट भागों में घोड़े, मनुष्यादि की आकृतियाँ हैं । पूर्वदिशा Page #238 --------------------------------------------------------------------------  Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SH CHODI ACADERSTANDA अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की दक्षिण पक्ष पर बनी हुई देव- अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की दक्षिण पक्ष पर बनी हुई देवकुलिका सं० १० के प्रथम मण्डप की छत में श्री नेमिनाथ चरित्र का दृश्य। कुलिका सं० १२ के प्रथम मण्डप की छत में श्री शांतिनाथ भगवान् के देखिये पृ० ९१ (दे० कु. १०)। पूर्वभव का दृश्य । देखिये पृ० ९१ (दे० कु. १२)। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरडत :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: की पंक्ति में एक ओर भगवान् की प्रतिमा और दूसरी ओर एक कायोत्सर्गिक प्रतिमा खुदी हैं । पश्चिम दिशा की पंक्ति में एक कोण में दो साधुओं की आकृतियाँ हैं। तत्पश्चात् आसनारूढ़ आचार्य उपदेश दे रहे हैं । उनके सामीप्य में स्थापनाचार्य और श्रोतागणों का देखाव है। द्वितीय मण्डप (१४) के नीचे की पश्चिम दिशा की पंक्ति के मध्य में तीन साधु खड़े हैं, एक श्रावक अभुट्टिो खमा रहा है, अन्य श्रावक हाथ जोड़ कर खड़े हैं। पूर्व दिशा की पंक्ति के मध्य में दो साधु खड़े हैं और उनको एक तीसरा साधु पंचाँग नमस्कारपूर्वक अब्भुट्ठिो खमा रहा है, अन्य श्रावक हाथ जोड़ कर खड़े हैं। इसके पास ही एक दृश्य में एक हाथी मनुष्यों का पीछा कर रहा है और वे भाग रहे हैं। दे० कु. ६-प्रथम मण्डप (१५) में पंच-कल्याणक का दृश्य है। प्रथम वलय में जिनप्रतिमायुक्त समवशरण, द्वि० वलय में च्यवन-कल्याणक अर्थात् माता पलंग पर सोती हुई चौदह स्वप्न देख रही है, जन्मकल्याणक अर्थात् इन्द्र भगवान् को गोद में लेकर जन्माभिषेक-महोत्सव कर रहे हैं, दीक्षा-कल्याणक अर्थात् भगवान् खड़े २ लोच कर रहे हैं, केवलज्ञान-कल्याणक अर्थात् समवशरण में बैठे हुये भगवान् देशना दे रहे हैं। दूसरे वलय में भगवान् कायोत्सर्ग-अवस्था में ध्यान कर रहे हैं अर्थात् मोक्ष सिधारे हैं। तीसरे वलय में राजा, हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्यों की आकृतियाँ हैं । द्वि० मण्डप में आधार-पट्टियों में चारों ओर सिंह-दल और काचलाकृतियाँ बनी हैं । दे० कु. १०-प्रथम मण्डप (१६) में श्री नेमिनाथ-चरित्र का दृश्य है । प्रथम वलय में श्री नेमिनाथ के साथ श्री कृष्ण और उनकी स्त्रियों की जल-क्रीड़ा का दृश्य । द्वि० वलय में श्री नेमिनाथ का श्रीकृष्ण की आयुधशाला में जाना, शंख बजाना और श्री नेमिनाथ एवं श्रीकृष्ण की बल-परीक्षा, तृ. वलय में राजा उग्रसेन, राजिमती, चौस्तम्भी (चौरी), पशुओं का बाड़ा, श्री नेमिनाथ की बरात, श्री नेमिनाथ का लौटना, दीक्षा-उत्सव समारोह, दीक्षा एवं केवलज्ञान-उत्पत्ति के दृश्य दिखलाये गये हैं। द्वि० मण्डप की आधार-पट्टियों में हस्तिदल और काचलाकृतियाँ हैं । इस देवकुलिका के द्वार के बाहर बाँयी ओर दिवार में (१७) वर्तमान् चौवीसी के १२० कल्याणकों की तिथियाँ, चौबीस तीर्थङ्करों के वर्ष, दीक्षातप, केवलज्ञानतष तथा निर्वाणतपों की तिथिसूची-पट्ट लगा है। दे०कु०११-इस देवकुलिका के द्वार के बाहर दोनों ओर द्वार-चतुष्कट, स्तम्भ और इनके मध्य के अन्तर भाग में अति सुन्दर शिल्पकाम है। प्रथम मण्डप में चौदह हाथ वाली (१८) देवी की मनोहर मूर्ति बनी है और द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और अश्वदल का दृश्य है। दे० कु. १२-प्रथम मण्डप में शान्तिनाथ-प्रभु के पूर्वभव के मेघरथ राजा के रूप से सम्बन्धित कपोत और बाज का दृश्य तथा पंचकल्याणक का दृश्य अङ्कित है । (१६) गुम्बज के नीचे की चारों दिशाओं की चारों पट्टियों के मध्य में एक-एक जिनप्रतिमा और उसके आस-पास में पूजा-सामग्री लिये हुये श्रावकगणों की मूर्षियाँ खुदी हैं । द्वि० मएडप में हस्तिदल है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] : प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय दे० कु. १३-प्रथम मण्डप की छत में देवी-आकृतियाँ और आधार-पट्टियों पर अश्वारोहीदल तथा उनके नीचे नृत्य ' प्रदर्शन के दृश्य हैं । द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और सिंहदल । दे० कु०१४-प्रथम मण्डप में काचलाकृतियाँ, देवी-नृत्य का दृश्य और दूसरे वलय में प्रमुख देवियाँ और आधार पट्टियाँ पर सिंह-दल । द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और सिंहदल । दे० कु. १५-साधारण । दे. कु०१६-प्रथम मण्डप (२०A) में पंच-कल्याणक का दृश्य है। प्रथम वलय के मध्य में जिनप्रतिमा सहित समवशरण की रचना है। दे० कु० १७–प्रथम मण्डप की आधार-पट्टियों पर सिंहाकृतियाँ, उनके नीचे प्रासादस्थ देवियाँ और काचलायुक्त रचना । द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और अश्वारोहियों की घुड़दौड़। दे० कु. १८-साधारण । देवकुलिका सं० ८ से १८ तक की में एक कुलिका सं० ११ का द्वार का बहिर भाग अति सुन्दर शिल्पकाम से अलंकृत है। अन्य कुलिकाओं के द्वारों के बहिर भाग शिल्पकाम की दृष्टि से साधारण ही है। केसर घोटने का स्थान–देवकुलिका अट्ठारहवीं के पश्चात् दो देवकुलिकाओं के स्थान जितनी जगह खाली है, अन्य कुलिकाओं के बराबर का स्थान खुला छोड़ कर दो कोठरियाँ बनी हैं। खाली स्थान में केसर घोटी जाती है । दे० कु. १६-द्वि० मण्डप में नीचे की पट्टी में बीच-बीच में पाँच स्थानों पर जिनबिंब खुदे हैं और उनके आस-पास श्रेणी में श्रावकगण चैत्यवंदन करते हुये, हाथों में पूजा की विविध सामग्री जैसे पुष्पमाला, कलश, फल, फूल, चामरादि लिये तथा विविध प्रकार के वायंत्र लेकर बैठे हैं । दे० कु. २०-यह एक बड़ा गंभारा है। शिल्पकाम की दृष्टि से इसमें कोई अंग उल्लेखनीय नहीं है । भिन्न २ कालों के प्रतिष्ठित अनेक बिंब इसमें विराजमान हैं। दे० कु० २१-इसमें अंबिकादेवी की प्रतिमा है। शिल्पकाम बिल्कुल नहीं है। "" २२-साधारण । ,,, २३-प्रथम मण्डप (२०B) में अन्तिम वृत्ताकार पंक्ति के नीचे उत्तर और दक्षिण की दोनों सरलरेखाओं के मध्य में भगवान् की एक-एक प्रतिमा खुदी है। उनके पास में पुष्पमालादि लेकर श्रावकगण खड़े हैं। अवशिष्ट भाग में प्रथम वलय में वतकें और द्वि० वलय में नाटक-दृश्य वाद्यंत्र आदि खुदे हैं । . मण्डप के केन्द्र में काचलाकृतियाँ हैं । ,,, २४-काचलाकृतियाँ । प्र० वलय में मल्ल-युद्ध और आधार-पट्ट में नाटक-दृश्य । " , २५–काचलाकृतियाँ । प्र० वलय में नृत्य । द्वि० वलय में अश्वारोहीदल और त. वलय ने हस्तिदल । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: दे. कु. २६-काचलाकृतियाँ । प्रथम वलय में बतकें । गोल आधार-पट्ट में नृत्य । . ,,, २७-काचलाकृतियाँ । प्र० वलय में बतकें । आधार-पट्ट में अश्वारोहीदल । ,, ,, २८-काचलाकृतियाँ । गोल आधार-वलय में सिंह-दल । ,, ,, २६-प्रथम मण्डप (२१) में कृष्ण-कालीयअहिदमन का दृश्य है। केन्द्र में कालीय सर्प भयंकर फण करके खड़ा है। कृष्ण उसके कन्धे पर बैठकर उसके मुँह में नाथ डाल रहे हैं और उसका दमन कर रहे हैं। सर्प थक कर विनम्रभाव से खड़ा है। उसके आस-पास उसकी सात नागिनियाँ खड़ी २ हाथ जोड़ रही हैं। मण्डप के एक ओर कोण में पाताल लोक में श्री कृष्ण शय्या पर सो रहे हैं, लक्ष्मी पंखा झल रही है, एक सेवक चरणसेवा कर रहा है । इस दृश्य के पास में कृष्ण और चाणूर नामक माल का द्वन्द्व-युद्ध दिखाया गया है। दूसरी ओर श्रीकृष्ण, राम और उनके सखा गेंद डण्डा खेल रहे हैं। ,,, ३०-३१-काचलाकृतियाँ । मण्डप के चारों कोणों में प्रासादस्थ एक-एक देवी-आकृति । दोनों देवकुलि कायें एक ही कोण के दोनों पक्षों पर बनी हैं, अतः दोनों का मण्डप भी एक ही है । ,,, ३२-काचलाकृतियाँ । नीचे की चतुर्भुजाकार पट्टियों में उत्तर दिशा की पट्टी पर विविध नाट्य-दृश्य और शेष तीन ओर की पट्टियों पर राजा की सवारी का दृश्य है। , ३३-काचलाकृतियाँ। मण्डप के प्र० घलय में विविध अंगचालन-क्रियायें। द्वि० वलय में भिन्न २ प्रासादों में बैठी हुई देवियों की आकृतियाँ। द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और चतुर्भुजाकार आधार पट्टियों पर हस्तिदल का देखाव।। ,, ,, ३४-प्र० मण्डप (२२) में नीचे की पूर्व दिशा की शिलपट्टी के मध्य में एक कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा । द्वि० मण्डप (२३) में चारों आधार-पट्टियों के मध्य में भगवान् की एक-एक प्रतिमा और उसके आसपास पूजा-सामग्री लिये हुये श्रावकगणों का देखाव । - देवकुलिका १६ से ३४ तक की में सं० २३ से २८ के द्वारों के बाहर दोनों ओर सुन्दर शिल्प काम है। शेष कुलिकाओं के द्वारों के बाहरी भाग शिल्पकाम की दृष्टि से साधारण ही हैं । दे० कु. ३५-प्रथम मण्डप (२४) के नीचे की चारों ओर की पंक्तियों के मध्यभागों में एक-एक कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा है। प्रत्येक के आस-पास पूजा सामग्री लेकर श्रावकगण खड़े हैं। द्वि० मण्डप (२५) में सोलह भुजाओं वाली एक सुन्दर देवी की आकृति लगी है। , ३६-काचलाकृतियाँ । अनेक देवियों की प्राकृतियाँ। द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ और प्रासादस्थ देवी-मूर्तियाँ। ,, ३७–प्र० मण्डप में काचलाकृतियाँ और नृत्य का देखाव । द्वि० मण्डप में नीचे की आधार-पट्टियों में प्रासादस्थ देवी-आकृतियाँ। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?? 18] ܙ 27 :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय " ३८ - प्र० मण्डप (२६) के नीचे की चारों पंक्तियों के मध्य में भगवान् की एक-एक प्रतिमा है । एक ओर एक जिनप्रतिमा के दोनों पक्षों पर एक-एक कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा है । प्रत्येक जिनप्रतिमा के दोनों पक्षों पर एक-एक कायोत्सर्गिक प्रतिमा है । प्रत्येक जिनप्रतिमा के आस-पास पूजा सामग्री लेकर श्रावकगण खड़े हैं । द्वि० मण्डप (२७) में देव - देवियों की सुन्दर मूर्तियाँ हैं । 1 ०कु० ३६ - प्र० मण्डप का देखाव साधारण । काचलाकृतियाँ और प्रासादस्थ द्वि० मण्डप ( २८ ) में हंसवाहिनी सरस्वतीदेवी तथा देवियाँ । गजवाहिनी लक्ष्मीदेवी की मूर्तियाँ हैं । द्वि० मण्डप (२६) के बीच लक्ष्मीदेवी की मूर्ति है । उसके आस-पास अन्य देव - देवियों की आकृतियाँ हैं । मण्डप के नीचे की चारों ओर की पंक्तियों के बीच २ में एक २ कायोत्सर्गिक मूर्त्ति, प्रत्येक कायोत्सर्गिक मूर्त्ति के आस-पास हंस और मयूर पर बैठे हुये विद्याधर हैं, जिनके हाथों में कलश और फल हैं। घोड़ों पर मनुष्य अथवा देव, हाथों में चामर लिये हुये हैं । देवकुलिका सं० ३५ से ४० में से सं० ३७ के द्वार के बाहर का शिल्पकाम साधारण और अन्य कु० के द्वार के बाहर सुन्दर हैं 1 दे०कु० ४१ - इस देवकुलिका के द्वार-चतुष्क, स्तंभ तथा इन दोनों के मध्य का अन्तर भाग आदि अति सुन्दर शिल्पकाम से मंडित है । मण्डप के केन्द्र में विकसित कमल-पुष्प और कमलगट्टों के दृश्य हैं । प्र० वलय में विविध देवी - नृत्य हैं। दोनों मण्डपों के नीचे की आधार पट्टियों में प्रासादस्थ देवियों के देखाव हैं। 1 1 ,, ४० - प्र० मण्डप में विकसित कमल-पुष्प । प्र० वलय में हाथ जोड़ी हुई मनुजाकृतियाँ । द्वि० वलय में मन्दिरों के शिखर । तृ० वलय में गुलाब के पुष्प हैं । ,, ४२- प्र० मण्डप 'देवी नृत्य के दृश्य और अश्वारोही दल हैं । द्वि० मण्डप (३०) के नीचे की दोनों ओर की पट्टियों पर अभिषेक सहित लक्ष्मीदेवी की सुन्दर मूर्त्तियाँ खुदी हैं । ,, ४३, ४४, ४५ - इन तीनों देवकुलिकाओं के प्रथम मण्डप तो साधारण बने हैं । प्रत्येक के द्वितीय मण्डप (३१, ३२, ३३) में १६ सोलह भुजावाली एक २ देवी की सुन्दर मूर्त्ति खुदी है । कुलिका ४४ के द्वार का बाहिर भाग भी अति सुन्दर है । कुलिका ४२, ४३ का सुन्दर और ४५ का साधारण है । ४३ प्र० मण्डप में काचल्ला कृतियाँ । नीचे की पट्टी में प्रासादस्थ देवियाँ और उनके नीचे वृक्षाकृतियाँ । ४४ प्र० मण्डप में चारों ओर आधार- पट्टियों पर अश्वारोहीदल और उनके नीचे चौवीस प्रासादों में चौवीस देवियों की अलग २ मूर्त्तियाँ । कुलिका ४५वीं के प्रथम मण्डप (३४) के नीचे को चारों पंक्तियों के बीच २ में भगवान की एक २ मूर्ति है । पूर्वदिशा की जिनप्रतिमा के दोनों ओर एक २ कात्सर्गिक मूर्ति है । प्रत्येक Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति :: जिनमूर्ति के दोनों ओर हंस तथा घोड़े पर देव या मनुष्य बैठे हैं और उनके हाथ में फल अथवा कलश और चामर हैं। ,, ४६-प्रथम मण्डप (३५) के नीचे की चारों ओर की पट्टियों के बीच २ में एक २ प्रभुमूर्ति है। उत्तर दिशा की प्रभुमूर्ति के दोनों ओर एक २ कायोत्सर्गस्थ मूर्ति है। प्रत्येक प्रभुमूर्ति के आस-पास श्रावक पुष्पमालायें लेकर खड़े हैं । द्वि० मण्डप (३६) में नरसिंह द्वारा हिरण्यकश्यप के वध करने का दृश्य है । देवकुलिका के द्वार के बाहर दोनों ओर शिल्पकाम साधारण ही है। दे० कु. ४७-प्रथम मण्डप (३७) में छप्पन दिक्कुमारियाँ भगवान् का जन्माभिषेक कर रही हैं। प्रथम वलय में भगवान् की मूर्ति है । दूसरे और तीसरे वलयों में देवियाँ कलश, पंखा, दर्पण आदि सामग्री लेकर खड़ी हैं। अतिरिक्त इन दृश्यों के तृतीय वलय में एक ओर देवियाँ भगवान् अथवा उनकी माता का स्नेह-मर्दन कर रही हैं, दूसरी ओर स्नान कराने का दृश्य है। चारों ओर की नीचे की आधार-पट्टियों के मध्य में चारों दिशा की पंक्ति में दो कायोत्सर्गिक मूर्तियाँ बनी हैं। इनके आस-पास में श्रावकमस पुष्प-मालायें लेकर खड़े हैं। द्वि० मण्डप में काचलाकृतियाँ । द्वार के बाहर का भाग साधारण है। ,,,, ४८-प्रथम मण्डप की रचना साधारण है । वृक्ष और पुष्पों के दृश्य हैं। दि० मण्डप (३८) के केन्द्र में अति सुन्दर शिल्पकाम है। यह वीस खण्डों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड में अलग २ कृतकाम है । एक खण्ड में भगवान् की मूर्ति और एक दूसरे अन्य खण्ड में उपाश्रय का दृश्य है । आसन पर आचार्य बैठे हैं, एक शिष्य एक हाथ शिर पर रख कर पंचांग नमस्कार कर रहा है, अन्य दो शिष्य हाथ जोड़ कर खड़े हैं। ,,, ४६-देवकुलिका सं० ४८ के अनुसार ही इसके प्रथम मण्डप में बीस खण्ड हैं और उनमें भिन्न २ प्रकार का शिल्पकौशल दिखाया गया है। ,, ५०, ५१-कृतकाम की दृष्टि से दोनों देवकुलिकाओं के दोनों मण्डप अति सुन्दर है। ,, ५२-प्रथम मण्डप में काचलाकृतियाँ । द्वि० मण्डप के प्रथम वलय में शृंखलायें । द्वि० वलय में गुलाब के पुष्प तथा नीचे की पट्टी पर हाथ जोड़े हुये मनुष्यों की मूर्तियां और नीचे के अष्टभुजाकार आधारों पर प्रासादस्थ देवियाँ। ,,, ५३-प्रथम मण्डप (४०) के नीचे की पट्टी में एक ओर भगवान् कायोत्सर्गावस्था में मूर्तित हैं। उनके आस-पास श्रावक खड़े हैं। दूसरी ओर प्राचार्य महाराज बैठे हैं, उनके समीप में ठवणी है और श्रावक हाथ जोड़ कर खड़े हुये हैं। द्वि० मण्डप में काचलाकृत्तियाँ । अष्टभुजाकार आधार की पट्टियों पर प्रासादस्थ देवियाँ । इसके नीचे चारों कोणों में लक्ष्मीदेवी की एक सुन्दर मूर्ति और अन्य देवियाँ । ,, ,, ५४-प्रथम मण्डप (४१) नीचे की पंक्ति में चारों ओर हाथियों का देखाव है। तत्पश्चात् उत्तर दिशा की नीचे. की पंक्ति में एक कायोत्सर्गिक मूर्ति है। आस-पास में. श्रावक पूजा-सामग्री Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय लेकर खड़े हैं । मण्डप के केन्द्र में काचलाकृतियाँ । वृत्ताकार आधार-वलय में हस्तिदल । नीचे के भाग पर विविध स्त्री-नृत्य । द्वि० मण्डप में आठ देवियों का देखाव है : देवकुलिका ४८, ४६, ५०, ५१ और ५२, ५३, ५४ के द्वारों के बाहर के दोनों ओर के शिल्पकाम क्रमशः सुन्दर और अति सुन्दर हैं । इस वसति का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है : १ - सशिखर मूलगंभारा और उसके द्वार के बाहर की चौकी । २ - विशाल गुम्बजदार गूढ़मण्डप, जिसके उत्तर और दक्षिण में दो चौकियाँ । ३ - नवचौकिया जिसमें दो झरोखे । ४ - नवचौकिया से चार सीढ़ी उतर कर सभा मण्डप | ५ - सभा - मण्डप में अति सुन्दर बारह तोरण | ६ - बावन देवकुलिका और एक अम्बिकादेवी की कुलिका तथा एक मूलगंभारा - कुल ५४ । इनमें देवकुलिका सं० १, २, ३, ११, ४१, ४४, ५२, ५३, ५४ के द्वारों के बहिर भाग अति सुन्दर शिल्पकाम अलंकृत हैं। देवकुलिका सं० ६, ७, २३, २४, २५, २६, २७, २८, ३५, ३६, ३८, ३६, ४०, ४२,४३,४८, ४६, ५०, ५१ के द्वारों के बहिर भाग सुन्दर शिल्पकाम से सुशोभित हैं। शेष कुलिकाओं के द्वारों के बहिर भाग और उनके स्तंभ साधारण बने हैं । ७- ११६ मण्डप हैं | ३ – गूढ़मण्डप १ और उसके उत्तर तथा दक्षिण की चौकियों के । १६–सभामण्डप १ और उसके उत्तर ६, दक्षिण ६, पूर्व में भ्रमती में ३ । ६ - नवचौकिया के । ६१ - देवकुलिकाओं के । ८-५६ गुम्बज छत पर बने हैं : ६ - नवचौकियों के । ३ - गूढ़ मण्डप के ऊपर और दोनों चौकियों के ऊपर | १६ – सभामण्डप का १ और भ्रमती के ऊपर १५ । १२ - पूर्व दिशा की पश्चिमाभिमुख देवकुलिकायें सं ०१, २, ३, ५२, ५३, ५४ के मंडपों के ऊपर दो-दो । ३ - सिंहद्वार १ और उसके भीतर २ । ४ - देवकुलिका १६, २०वीं । ८ - पश्चिम पक्ष पर देवकुलिकाओं के । १– देवकुलिका ३३वीं । ६ - २१३ स्तंभ हैं, जिनमें से १२१ संगमरमर के हैं: ८- गूढ़मण्डप में । ८- दोनों चौकियों के । १२ - नव चौकिया के । १८ – सभामण्डप के ] अति सुन्दर । ६१ - देवकुलिकाओं की मुखभित्ति के । ८७ - देवकुलिकाओं के मण्डपों के (५०+३७ । १२ - देवकुलिका १६, २०वीं । ३ - अंबिका कुलिका के भीतर । ४- सिंहद्वार और चौकी साधारण । Page #246 --------------------------------------------------------------------------  Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री विमलवसहि की हस्तिशाला । प्रथम हस्ति पर महामंत्री नेढ़ और तृतीय हस्ति पर मंत्री आनन्द की मूर्त्तियां विराजित हैं। देखिये पृ० ९७-९८ पर । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विसवसति हस्तिशाला :: [ ६७ खण्ड ] १०- ५८ शिखर हैं। देवकुलिकाओं के ५७ और १ मूल शिखर । ११ - वसति की लम्बाई १४० फीट और चौड़ाई ६० फीट है।. १२ - देवकुखिका सं० २८ और १६ के मध्य में जो खाली भाग है, जहाँ पर केसर घोटी जाती है, उसके पीछे दो खाली कोठरियाँ हैं। एक में परिचूर्ण सामग्री रक्खी जाती है और दूसरी में तलगृह है । इस तलगृह में पत्थर और धातु की खण्डित प्रतिमायें रखी हुई हैं, जो १४वीं शताब्दी के पश्चात् की हैं । मन्त्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसति हस्तिशाला पूर्वाभिमुख बिमलवसति के ठीक सामने पश्चिमाभिमुख एक सुदृढ़ कक्ष में हस्तिशाला बनी है। दोनों के मध्य में रंगमण्डप की रचना है, जो इन दोनों को जोड़ता है । इस हस्तिशाला का निर्माण बिमलवसति की कई एक देवकुलिकाओं का जीर्णोद्धार करवाते समय वि० सं० १२०४ में मंत्री पृथ्वीपाल ने करवाकर इसमें अपनी और अपने छः पूर्वजों की सात हस्तियों पर सात मूर्त्तियाँ और महाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह की मूर्चि एक अश्व पर विराजित करवाई । हस्तियों पर महावतचिंत्र बैठाये और प्रत्येक पूर्वज-मूर्त्ति के पीछे दो-दो चामरधरों की प्रतिमाओं की रचना करवाई । प्रत्येक हस्ति को अंबावाड़ी, कामदार झुल, मस्तिष्क, पृष्ट आदि अंगों के सर्व प्रकार के आभूषणों से युक्त विनिर्मित करवाया । विमलशाह की प्रतिमा अश्व पर आरूढ़ करवाई । अश्व अपने पूरे साज से सुसज्जित करवाया गया । विमलशाह के पीछे अश्व की पृष्ट के पिछले भाग पर एक छत्र धर की प्रतिमा बैठाई, जो विमलशाह के मस्तिष्क पर छत्र किये हुये हैं । विमलवसति के मूलगंभारा में विराजित मू० ना० आदिनाथप्रतिमा के ठीक सामने उसके दर्शन करती हुई अश्वारूढ़ विमलशाह की मूर्ति है तथा दायें हाथ में कटोरीथाली आदि पूजा की सामग्री है। मूर्तियों की स्थापना उनके जन्मानुक्रम के अनुसार तीन पंक्तियों में है । पद और गौरव को लेकर भी मूत्रियों के सिर की रचनाओं में अन्तर रक्खा गया है। महामन्त्री निन्नक, उसके पुत्र लहर और विमलशाह के ज्येष्ठ भ्राता नेढ़ को पुत्र धवल की मूर्तियाँ इस समय विद्यमान नहीं हैं, अतः नहीं कहा जा सकता कि उनकी मूर्तियों की रचना में क्या अधिकता, विशेषता थी । शेष पूर्वजों की मूर्तियों की शिर की रचना इस प्रकार है। दंडनायक लहर के पुत्र धर्मात्मा वीर के सिर पर शिखराकृति की पगड़ी बंधी है । विमलशाह के ज्येष्ठ भ्राता वयोवृद्ध नेढ़ के सिर पर गाँठदार कलशाकृति की पगड़ी बंधी है और लम्बी दाढ़ी है, जो ज्येष्ठभाव को प्रकट करती है । विमलशाह की मूर्ति अखारूढ़ है, जो उसके सैनिकजीक्त को प्रकट करती है। उसके शिर पर सुन्दर मुकुट की रचना है और उसके पीछे अस्त्र की पृष्ट के पिछले भाग पर बैठी हुई बत्रधर की मूर्ति लब किये हुये है Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय जो उसके महाबलाधिकारी दंडनायकपन और राजत्व को सिद्ध करती है और दाहें हाथ में पूजा-सामग्री उसके विनयी भक्तरूप को दिखाती है। इसकी रचना कक्ष के मध्य में ठीक द्वार के भीतर ही वसति के मूलगंभारे में प्रतिष्ठित मू० ना० आदिनाथ-प्रतिमा का दर्शन करती हुई की गई है, जो उसके अनन्य पूजारी एवं वसति के निर्मातापन को अथवा वसतिविषय में उसकी प्रमुखता को सिद्ध करती है । महामन्त्री नेढ़ के पुत्र आनन्द के शिर पर गूजरी भाँत और बेड़ादार पगड़ी बंधी है, जो उसके वैभव और सुखी-जीवन का परिचय देती हैं । पृथ्वीपाल की मूर्ति के शिर पर भी पगड़ी है और पीछे दो चामरघरों की रचना है, जो उसके मन्त्री होने को सिद्ध करती है । समस्त मन्त्रियों के शिर पर लम्बे २ केश हैं, जो पीछे को सवारे गये हैं और पीछे उनमें ग्रन्थी दी हुई है। प्रत्येक महावतमूर्ति के मस्तिष्क पर गुंगरदार केश हैं, सवारे हुये हैं, पीछे को उनमें ग्रन्थी दी हुई है तथा मस्तिष्क नंगे हैं । समस्त मंत्रियों के शिर पर पगड़ी की रचना उनके श्रेष्ठिपन को तथा श्रीमन्तभाव को सिद्ध करती है और हस्ति पर उनकी आरूढ़ता उनके मन्त्रीपन को प्रकट करती है तथा चामरधरों की मूर्तियाँ सम्राटों द्वारा प्रदत्त उनके विशेष सम्मान और गौरव को प्रकट करती हैं। मं० पृथ्वीपाल ने हस्तिशाला में तीन पंक्तियों में उपरोक्त प्रतिमाओं को निम्नवत् संस्थापित करवाया। दक्षिण पक्ष पर द्वार के सामने उत्तर पक्ष पर १-महामन्त्री निनक ५-महाबलाधिकारी विमल ४-महामन्त्री नेढ़ २-दंडनायक लहर [समवशरण की रचना] ६-महामन्त्री धवल ३-महामन्त्री वीर ८-मन्त्री पृथ्वीपाल ७–मन्त्री आनन्द 8-समवशरण यह तृगढ़ीय समवशरण विमलशाह के अश्व के ठीक पीछे लहर और धवल के मध्य में बना है। इसमें तीन दिशाओं में साधारण और चौथी दिशा में त्रय तीर्थी के परिकरवाली जिनप्रतिमा विराजमान हैं । यह वि० सं० १२१२ में कोरंटगच्छीय नन्नाचार्य-संतानीय ओसवालज्ञातीय मन्त्री धंधुक ने बनवाया था। ८, 8 और १० वाँ हस्ति पृथ्वीपाल के कनिष्ठ पुत्र धनपाल ने अपने तथा अपने ज्येष्ठ भ्राता जगदेव और अपने किसी एक परिजन के निमित्त वि० सं० १२३७ में बनवा कर निम्नवत् संस्थापित किये हैं। जगदेव धनपाल द्वारा तीन हस्ति की मूर्ति हस्ति पर झूल पर ही बैठाई गई है। इसका आशय यह हो सकता है कि विनिर्मित वह मन्त्रीपद से अलंकृत नहीं था। १०-किसी परिजन ११-मंत्री धनपाल १२-जगदेव (अंगरक्षक) - आठवें और दशवें हस्ति पर महावतमूर्तियाँ और नौवें हस्ति पर अंबावाड़ी बनी है। शेष अन्य वस्तुयें विशेष हैं । विमलवसति के पूर्व पक्ष में एक ओर कोण में लक्ष्मी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मंत्री पृथ्वीपाल द्वारा विनिर्मित विमलवसति-हस्तिशाला :: [ t हस्तिशाला आठसौ वर्ष प्राचीन है। फिर भी हस्तियों के लेख, हस्तियों पर भारूड़ मूर्तियों के पूर्ण अथवा खण्डित रूपों के अवलोकन से विमलशाह के वंश की प्रतिष्ठा और गौरव का भलीविध परिचय मिलता है कि इस वंश ने गूर्जरदेश और उसके सम्राटों की सेवायें निरन्तर अपनी आठ पीढ़ी पर्य्यन्त की। विमलशाह उन सर्व में अधिक गौरवशाली और कीर्तिवान् हुआ। इस आशय को उसके वंशज पृथ्वीपाल ने उसकी छत्र—मुकुटधारीमूर्ति बनवाकर तथा अश्व पर आरूढ़ करके उसको स्वविनिर्मित-हस्तिशाला में प्रमुख स्थान पर संस्थापित करके प्रसिद्ध किया । एक भी चामरधर की मूर्ति इस समय विद्यमान नहीं है, केवल उनके पादचिह्न प्रत्येक हस्ति की पीठ पर विद्यमान हैं। महावत-मूर्तियों में से केवल नेढ़ और आनन्द के हस्तियों पर उनकी मूर्तियाँ रही हैं, शेष अन्य हस्तियों पर उनके लटकते हुये दोनों पैर रह गये हैं । जगदेव के हस्ति के नीचे एक घुड़सवार की मूर्ति है । इसका आशय उसके ठक्कुर होने से है ऐसा मेरा अनुमान है। विशेष बात जो इस हस्तिशाला में हस्तियों पर आरूढ मूर्तियों के विषय में लिखनी है वह यह है कि प्रत्येक मूर्ति के चार-चार हाथ हैं। चार हाथ आज तक केवल देवमूर्तियाँ के ही देखे और सुने गये हैं। मेरे अनुमान से यहाँ पुरुषप्रतिमाओं में चार हाथ दिखाने का कलाकार और निर्माता का केवल यह आशय रहा है कि इन सच्चे गृहस्थ पुरुषवरों ने चारों हाथों अपने धन और पौरुष का धर्म, देश और प्राणी-समाज के अर्थ खुल कर उपयोग किया ।* हस्तिशाला चारों ओर दिवारों से ढके एक कक्ष में है। इसके पूर्व की दिवार में एक लघुद्वार है, जो अभी बन्द है। इस द्वार के बाहर चौकी बनी हुई है। चौकी के अगले दोनों स्तंभों में प्रत्येक में आठ-आठ करके जिनेश्वर भगवानों की १६ सोलह मूर्तियाँ खुदी हुई हैं । इन स्तम्भों पर तोरण लगा है । तोरण के प्रथम वलय में पाठ, दूसरे में अट्ठाईस और तीसरे वलय में चालीस; इस प्रकार कुल छहत्तर जिनेश्वर मूर्तियाँ बनी हुई हैं । इस प्रकार स्तम्भ और तोरण दोनों में कल बानवें मूर्तियाँ हुई। हो सकता है चौवीस अतीत, चौवीस अनागत, चौवीस वर्तमान और बीस विहरमान भगवानों की ये मूत्तियाँ हों। इसी तोरण के पीछे के भाग में बहत्तर जिनप्रतिमायें और खुदी हुई हैं । ये तीनों चौवीसी हैं । चौकी के छज्जे में भी दोनों तरफ जिन चौवीसी बनी है। समस्त हस्तिशाला के बाहर के चारों ओर के छज्जों के ऊपर की पंक्ति में पद्मासनस्थ प्रतिमायें खुदवा कर एक चौवीसी बनाई गई है । हस्तिशाला के पश्चिमाभिमुख द्वार के दोनों ओर की अवशिष्ट दिवाल झालीदार पत्थरों से बनी है। *अविवाहित दो हाथ वाला और विवाहित चार हाथ वाला अर्थात् गृहस्थ कहलाता है। यहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ने अपने चारों हाथों से रहस्थाश्रम को धन, बल, पौरुष का उपयोग करके सफल किया। वैसे तो सब ही गृहस्थ चार हाथ वाले होते हैं, परन्तु चार हाथ वाले सफल और सच्चे मृदस्थ तो वे हैं, जिन्होंने अर्थात् दोनों स्त्री और पुरुष ने धर्म, देश और समाज के हित तन, मन, धन का पूरा २ उपयोग किया हो। मैं ता०२२-६-५१ से २६-६-५१ तक विमलवसति और लूणवसति का अध्ययन करने के हेतु देलवाड़ा में रहा । जैसा मैंने देखा और समझा वैसा मैंने लिखा है। मुनिराज साहब श्री जयन्तविजय जीविरचित 'आबू' भाग ? मेरे अध्ययन में सहायक रहा है। -लेखक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ féo] * प्राग्वाट इतिहास :: गुर्जर सम्राट भीमदेव प्रथम का व्ययकरणमंत्री प्राग्वाटज्ञात्तीय जाहिल उसका पुत्र महत्तम नरसिंह और पौत्र महाकवि दुर्लभराज विक्रम संवत् ग्यारहवीं शताब्दी से विक्रम संवत् तेरहवीं शताब्दी पर्यन्त [ द्वितीय व्ययकरणमंत्री जाहिल गुर्जर सम्राट् भीमदेव प्रथम के राजमंत्रियों में प्राग्वादज्ञांतीय मंत्रीयों का स्थान अधिक ऊँचा रहा है । महामात्य नेद, महाबलाधिकारी विमलशाह और अन्य अनेक ऐसे ही प्रतिष्ठित प्राग्वाट कुलोत्पन्न मंत्री थे, जिनमें व्ययकरणमंत्री, जिसको मुद्रांव्यापारमंत्री भी कहते थे, प्राग्वाटज्ञातीय जाहिल नामक अर्थशास्त्र का महापंडित, नीतिज्ञ एवं चतुरं व्यक्ति था । वह गणित में अद्वितीय था । वह जैसा बुद्धिमान् एवं चतुर था, वैसा ही नेक और विश्वासपात्र था । सम्राट भीमदेव उसका बड़ा विश्वास करता था । साम्राज्य के समस्त राजकीय व्यय पर जाहिल का निरीक्षण था । यह जाहिल की ही बुद्धिविलक्षणता का परिणाम था कि सम्राट भीमदेव का कोष सदा समृद्ध एवं अनन्त द्रव्य से पूर्ण था और वह अवंति के सम्राट् सरस्वतीपुत्र, विद्वानों का आश्रय, कविकुलपोषक महाराजा भोज की विद्वानों, कवियों को आश्रय देने में, पारितोषिक देने में बराबरी कर सका था । व्ययकरणमंत्री जाहिल का पुत्र नरसिंह था । नरसिंह भी पिता के सदृश चतुर और नीतिज्ञ था । सम्राट् भीमदेव प्रथम की नरसिंह पर सदा कृपादृष्टि रहीं । सम्राट् ने नरसिंह की कार्यकुशलता से प्रसन्न होकर उसको महत्तम नरसिंह और उसका मन्त्री का पद प्रदान किया था । महत्तम नरसिंह का पुत्र महाकवि दुर्लभराज हुआ है। पुत्र महाकवि दुर्लभराज दुर्लभराज अति ही प्रतिभासम्पन्न पुरुष था । दुर्लभराज अपने पाण्डित्य एवं काव्यशक्ति के लिये राजसभा के अग्रगण्य विद्वानों एवं कवियों में था । दुर्लभराज ने वि० सं० १२१६ में 'सामुद्रिकतिलक' नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह ग्रन्थ ज्योतिषविषय के उत्तम ग्रन्थों में गिना जाता है । सम्राट् कुमारपाल ने इसको इसके ज्योतिषज्ञान से प्रसन्न होकर अपने मन्त्रियों में महत्तम का पद देकर नियुक्त किया था । महत्तम कविमन्त्री दुर्लभराज का पुत्र जगदेव था । जंगदेव भी विद्वान और कवि था । One Jahilla was the minister of finance. G. G. part lll; P.154 जै० सा० सं० इति० पृ० २७७-७८. श्रीमान् दुर्लभराजस्तदपत्यं बुद्धिधाम सुकविरभूत् । यं श्री कुमारपालो महत्तमं क्षितिपतिः कृतवान् ॥ - सामुद्रिके तिलक Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: नाडोलनिवासी श्रे० शुभंकर के यशस्वी पुत्र पूतिंग और शालिग :: [ १०१ नाडोल निवासी सुप्रसिद्ध प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० शुभंकर के यशस्वी पुत्र पूतिग और शालिग विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नाडूलाई अथवा नाडोल में विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में सुश्रावक शुभंकर अति प्रसिद्ध जैन व्यक्ति हो गया है। उसके पुत्र पूतिंग और शालिग अति ही धार्मिक, साधुवती और दृढ़ जैनधर्मपालक एवं हिंसा के परमोपासक हो गये हैं। ये दोनों भ्राता अपने दृढ़ अहिंसावत के पालन के लिए गुर्जर, सौराष्ट्र, राजस्थान में दूर २ प्रसिद्ध हो गये थे । नाडोल के राजा की राज्यसभा में भी इनका पूरा २ सम्मान था तथा नाडोल का राजा धर्मसंबंधी इनके प्रत्येक प्रस्ताव की सम्मान प्रदान करता था । अन्य राजाओं की राजसभा में तथा ग्रामपतियों की सभाओं में भी इनका बड़ा भारी सम्मान था । रत्नपुर नामक ग्राम जोधपुर-राज्य के अन्तर्गत है और दक्षिण में आया हुआ है। वहाँ के ग्रामस्वामी पूनपाक्षदेव की महारानी श्री गिरिजादेवी से, जिसने संसार की असारता को भलीविध समझ लिया था प्राणियों रत्नपुर के शिवालय में को अभयदान दिलाने के लिये इन दोनों भ्राताओं ने उनकी कृपा प्राप्त करके अभयदानपत्र अभयदान - लेख प्राप्त किया, जिसको श्री पूनपाक्षदेव ने स्वहस्ताक्षर करके प्रमाणित किया और परीक्षक लक्ष्मीर के पुत्र ठ० जसपाल ने प्रसिद्ध किया और फिर वह रनपुर के शिवालय में आरोपित किया गया, जो आज उन दयावतार दोनों भ्राताओं की अहिंसाभावना का ज्वलंत परिचर्य दे रहा है । इस अभयदानपत्र का भावार्थ 'इस प्रकार है: 'महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर, पार्वतीपति लब्धप्रौढप्रताप श्री कुमारपालदेव के राज्यकाल में महाराज भूपाल श्री रामपालदेव के शासन - समय में रत्नपुर नामक संस्थान के स्वामी पूनपाक्षदेव की महाराणी श्री गिरिजादेवी ने संसार की असारता को विचार कर प्राणियों को अभयदान देना महादान है ऐसा समझकर, नगरनिवासी समस्त ब्राह्मण, आचार्य (पुजारीगण ), महाजन, संबोली आदि सर्व प्रजाजनों को सम्मिलित करके उनके समक्ष इस प्रकार अभयदान-पत्र लिखकर प्रसिद्ध किया कि अमावस्या के पर्वदिन पर स्नान करके देवता और पितृजनों को तर्पण देकर तथा नगरदेवता की पूजा करके इहलोक और परलोक में पुण्यफल प्राप्त करने और कीर्ति की वृद्धि करने की इच्छा से प्राणियों को अभयदान देने के निमित्त यह अभयदानपत्र प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी और श्रमावस्या - कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की इन तिथियों को कोई भी किसी भी प्रकार की जीवहिंसा हमारे राज्य की भूमि में नहीं करें तथा हमारी संतति में उत्पन्न प्रत्येक व्यक्ति, हमारा प्रधान, सेनापति, पुरोहित और सर्व जागीरदार इस आज्ञा का पालन करें और करावें । जो कोई इस आज्ञा का उल्लंघन करे तो उसको दंड देवे । अमावस्या के दिन ग्राम के कुम्भकार भी कुम्भ आदि को पकाने के लिये आरम्भ नहीं करें। इन तिथियों में जो कोई व्यक्ति आज्ञा का उल्लंघन करके जीवहिंसा करेगा उस पर चार (४) द्राम का दंड होगा । नाडोलनगर के निवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० शुभंकर के पुत्र पूर्तिग और शालिंग ने जीवदयातत्पर रह कर प्राणियों के हितार्थ विनती करके यह शासन प्रकट करवाया है ।' Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय गुर्जरसम्राट् कुमारपाल के राज्य में किरातकूप, लाटहद, और शिवा के सामन्तराजा, महाराजा श्री अल्हण - देव के शासनसमय वि० सं० १२०६ माघ कृ० १४ शनिश्वर को शिवरात्रि के शुभ पर्व पर श्रे० पूतिग और किराडू के शिवालय में शालिग की विनती पर महाराजा अल्हणदेव ने अभयदानपत्र प्रसिद्ध किया, जिसको महाराजपुत्र केल्हण और गजसिंह ने अनुमोदित किया । इस आज्ञापत्र को सांधिविग्रहिक बेलादित्य ने लिखा था । अभयदानलेख को लिखवा कर किरातकूप, जिसको हाल में किराडू कहते हैं के शिवालय में आरोपित किया, जो आज भी विद्यमान है । अभयदानलेख का सार इस प्रकार है: अभयदान - लेख १०२ ] 'प्राणियों को जीवितदान देना महान् दान है ऐसा समझ कर के पुण्य तथा यशकीर्त्ति के अभिलाषी होकर महाजन, तांबुलिक और अन्य समस्त ग्रामों के मनुष्यों को प्रत्येक माह की शुक्ला और कृष्णा अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी के दिनों पर कोई भी किसी भी प्रकार के जीवों को नहीं मारने की आज्ञा की है । जो कोई मनुष्य इस आज्ञा की अवज्ञा करेगा और कोई भी प्राणी को मारेगा, मरवावेगा तो उसको कठोर दण्ड की आज्ञा दी जावेगी । ब्राह्मण, पुरोहित, अमात्य और अन्य प्रजाजन इस आज्ञा का एक सरीखा पालन करें । जो कोई इस आज्ञा का भंग करेगा, उसको पाँच द्राम का दण्ड दिया जायगा, परन्तु जो राजा का सेवक होगा, उसको एक द्राम का दण्ड मिलेगा ।' * इस प्रकार इन धर्मात्मा श्रे० पूतिग और शालिग ने, जिनका सम्मान राजा और समाज दोनों में पूरा २ था और जो अपनी अहिंसावृत्ति के लिए दूर २ तक बिख्यात थे, नहीं मालूम कितने ही पुण्यकार्य किये और करवाये होंगे, परन्तु दुःख है कि उनकी शोध निकालने की साधन-सामग्री इस समय तक तो अनुपलब्ध ही है । नाडोलवासी प्राग्वाट ज्ञातीय महामात्य सुकर्मा वि० सं० १२१८ नाडोल के राजा अल्हणदेव बड़े धर्मात्मा राजा थे। इनकी राजसभा में जैनियों का बड़ा आदर-सत्कार था । इन्होंने जैन-शासन की शोभा बढ़ाने वाले अनेक पुण्यकार्य किये थे । इनका महामात्य प्राग्वाट कुलावतंस श्रे० वरणिग का पुत्र सुकर्मा था । सुकर्मा पवित्रात्मा प्रतिभासम्पन्न, लक्ष्मीपति और जैनशासन की महान् सेवा करने वाला नरश्रेष्ठ था । उसके वासल नामक सुयोग्य पुत्र था । अमात्य सुकर्मा की विनती पर महाराज अल्हणदेव ने संडेरकगच्छीय श्री महावीर जिनालय के लिए पाँच द्राम मंडपाशुल्क प्रतिमाह धूपवेलार्थ प्रदान करने की आज्ञा इस प्रकार प्रचारित की । ‘सं० १२१८ श्रावण शु० १४ ( चतुर्दशी) रविवार को चतुर्दशीपर्व पर स्नान करके, श्वेत वस्त्र धारण करके, त्रयलोकपति परमात्मा को पंचामृत अर्पित करके, विप्रगुरु की सुवर्ण, अन्न, वस्त्र से पूजा करके, ताम्रपत्र को श्रीधर नामक प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३४५, ३४६. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: महूअकनिवासी महामना श्र० हांसा और उसका यशस्वी पुत्र जगडू :: [ १०३ प्रसिद्ध लेखक से लिखवाकर और स्वहस्ताक्षरों से उसको प्रमाणित करके प्रसिद्ध किया। यह ताम्रपत्र श्री आदिनाथ - जिनालय भी विद्यमान है और महामात्य सुकर्मा और महाराज अल्हणदेव के यश एवं गौरव का परिचय दे रहा है । ऐसे प्रसिद्ध पुरुषों का समुचित परिचय प्राप्त करने का साधन-सामग्रियों का अभाव अत्यधिक खटकता है । में महूअकनिवासी महामना श्रे० हांसा और उसका यशस्वी पुत्र श्रे० जगडू विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अन्त में महूक (महुआ ) में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० हांसा एक अति श्रीमन्त श्रावक हो गया है । वह जैसा धनी था वैसा लक्ष्मी का सदुपयोग करने वाला भी था । उसकी धर्मपत्नी जिसका नाम मेघारुदेवी था, बड़ी ही धर्मात्मा पतिपरायणा स्त्री थी । इनके जगडू नामक महाकीर्त्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुआ । ० हांसा सम्पूर्ण आयु भर दान, पुण्य करता रहा और धर्म के सातों ही क्षेत्रों में उसने अपने द्रव्य का अच्छा सदुपयोग किया वह जब मरने लगा, तब उसने अपने आज्ञाकारी पुत्र जगडू को बुलाकर अपनी इच्छा प्रकट की और कहा कि उसने सवा-सवा कोटि मूल्य के जो पाँच रत्न उपार्जित किये हैं, उनमें से एक को श्रीशत्रुंजयतीर्थ पर भ० आदिनाथ प्रतिमा के लिये, एक श्री गिरनारतीर्थ पर श्री नेमिनाथप्रतिमा के लिये, एक श्री प्रभासपत्तन में श्री चन्द्रप्रभप्रतिमा के लिये और दो श्रात्मार्थ व्यय कर देना । श्रे० जगडू अपने धर्मात्मा पिता का धर्मात्मा पुत्र था । वह अपने कीर्त्तिशाली पिता की आज्ञा को कैसे टाल सकता था । उसने तुरन्त पिता को आश्वासन दिलाया कि वह पिता की आज्ञानुसार ही उन अमूल्य रत्नों का उपयोग करेगा । श्रे० हांसा ने पुत्र के अभिवचनों को श्रवण करके सर्वजीवों को क्षमाया और श्री आदिनाथ भगवान् का स्मरण करके अपनी इस असार देह का शुक्ल-ध्यान में त्याग किया। श्रे० जगडू योग्य अवसर देख रहा था कि उन अमूल्य रत्नों का पिता की आज्ञानुसार वह उपयोग करें। थोड़े ही वर्षों के पश्चात् गूर्जर सम्राट् कुमारपाल ने अपना अन्तिम समय आया हुआ निकट समझ कर कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य की आज्ञा से उनकी ही तत्त्वावधानता में श्री शत्रुंजयतीर्थ, गिरनारतीर्थ एवं प्रभासपत्तनतीर्थों की संघयात्रा करने के लिये भारी संघ निकाला, जिसमें गूर्जर - राज्य के अनेक सामन्त, राजा, माएडलिक, ठक्कुर, जैन श्रावक, संघपति दूर २ से आकर सम्मिलित हुये थे । श्रे० जगड़ भी अपनी विधवा माता के साथ में इस संघ में सम्मिलित हुआ था। संघ सानन्द श्री शत्रुंजयतीर्थ पर पहुँचा, संघ में सम्मिलित श्रावकों ने, अन्य जनों ने, आचार्य, साधुओं ने श्री आदिनाथ- प्रतिमा के दर्शन किये और अपनी संघयात्रा को सफल किया। संघ ने सम्राट् कुमारपाल को संघपति का तिलक करने के लिये महोत्सव मनाया। मालोद्घाटन के अवसर पर माला की प्रथम बोली श्रीमाल - ज्ञातीय गूर्जरमहामन्त्री श्रे० उदयन के पुत्र महं० वागभट की चार लक्ष रुपयों *जै० ले० सं० १ ले ८३६. 3 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] [ द्वितीय 4 वह बढ़ते बढ़ते सना कोटि रुपयों तक पहुंच गई । ली होने पर कोटि की बोली बोलावे काले सज्जन को खड़ा करने की सम्राट् महं० बागभट को आज्ञा दी। थे वागभद के सम्बोधन पर मलीनवस्त्रधारी, दुर्बलगात, निर्धन -सा प्रतीत होता हुआ ० जगडू उठा । थे. जमडू की मुखाकृति एवं उसकी वेषभूषा को देखकर किसी को भी विश्वास नहीं हुआ कि वह इतना धनी होगा कि सवा कोटि रुपया दे सके । उसको देखकर कई हँसने लगे, कई उसका उपहास करने लगे और कई क्रोधित भी हो गये । स्वयं सूरीश्वर हेमचन्द्राचार्य्य और सम्राट् कुमारपाल भी विचार करने लगे । इतने में श्रे० जगडू ने मलीन वस्त्र की एक पोटली को खोलकर, उसमें से सवा कोटि मूल्य का एक जगमग करता माणिक निकाला और संघपति को अर्पित किया । संघसभा यह देखकर अवाक् रह गई। तत्पश्चात् श्रे० जगडू ने कहा कि उसका पिता धर्मात्मा हँसराज जब मरा था, तब वह यह कहकर मरा था कि सवा कोटि मूल्य का एक रत्न श्री शत्रुंजयतीर्थ पर, एक श्री गिरनारतीर्थ पर, एक श्री प्रभासतीर्थ में और दो उसके श्रेयार्थ लगा देना | स्वर्गस्थ पिता की अभिलाषा के अनुसार ही मैं यह एक रत्न यहाँ अ० आदिनाथ की प्रतिमा के मुकुट में लगाने के लिये दे रहा हूँ । यह सुनकर सभा अति हर्षित हुई और उसका धन्यवाद करने लगी । श्रे० जगडू के कथन पर माला उसकी विधवा माता मेधादेवी को पहनाई गई । श्रे० जगडू ने तत्काल स्वर्णमुकुट बनवा कर उसमें उक्त रत्न को जटित करवाया और अति आनन्द के साथ में वह मुकुट महामहोत्सवपूर्वक मूलनायक श्री आदिनाथ प्रतिमा को धारण करवाया गया । धन्य है ऐसे योग्य, धर्मात्मा श्रीमन्त पिता और पुत्र को, जिनके चरित्रों से यह इतिहास उज्ज्वल समझा जायगा । कु० प्र० प्र० पृ० ६७. 'मालोदघट्टन प्रस्तावे कण्ठाभरणं राजा कारयामास ।' :: प्राग्वाट इतिहास :: 'तेन जगन वणिजा तन्माणिक्यं हेम्ना खचित्वा ऋषभाय Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और गूर्जरमहामात्य चंडप और मुद्राव्यापारमंत्री चंडप्रसाद :: [१०५ मन्त्री-भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश वीरशिरोमणि गुर्जरमहामात्य वस्तुपाल एवं गुर्जरमहावलाधिकारी दंडनायक तेजपाल और उनके पूर्वज एवं वंशज गुर्जरसम्राट भीमदेव प्रथम से महामण्डलेश्वर विशलदेव पर्यन्त गूर्जरमहात्मात्य चंडप और मुद्राव्यापारमंत्री चंडप्रसाद प्राग्वाटज्ञाति में चंडप नामक एक महान् राजनीतिज्ञ एवं वीरपुरुष हुआ है। गूर्जर-प्रदेश की राजधानी भणहिलपुरपत्तन में वह रहता था। वस्तुपाल-तेजपाल के वंश का वह मूलपुरुष कहा जाता है। उसने नागेन्द्रमूल पुरुष चंडप और गच्छ के महा प्रभावक प्राचार्य महेन्द्रसरि को अपना धर्मगुरु स्वीकृत किया था ।१ चंडप उसका पुत्र चंडप्रसाद जैसा वीर था, वैसा ही महादानी एवं उदारहृदय भी था । गूर्जरसम्राट के मन्त्रियों में वह मन्त्री-मुकुट माना जाता था। गुर्जरसम्राट भीमदेव प्रथम एवं कर्ण के शासनकाल में इसने महामन्त्री-पद पर आरूढ़ रहकर गूर्जर-भूमि की प्राणपण से सेवा की थी। उसने अपनी नीतिज्ञता से, बुद्धिमत्ता से जो गूर्जरसम्राटों की सेवा की थी, उसका उल्लेख मिलता है ।२ उसकी स्त्री का नाम चांपलदेवी था३, जो अत्यन्त गुणगर्भा थी। चांपलदेवी से चण्डप्रसाद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । चण्डप्रसाद भी वीरता में, उदारता में अपने पिता के सदृश ही था । सरस्वती का वह अनन्य भक्त था। गूर्जरसम्राट् कर्ण की चण्डप्रसाद पर वैसी ही कृपा थी, जैसी उसके महान् वीर पिता चण्डप पर। वह कर्ण का अति विश्वासपात्र मन्त्री था और राज्य का मुद्राव्यापार-कार्य४ (कोषाध्यक्ष) वही करता था । चण्डप्रसाद उदारहृदय होने से महादानी हुआ। कवि और विद्वानों का वह सदा समादर करता था। उसकी उदारता एवं दान की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। चण्डप्रसाद की पतिपरायणा स्त्री का नाम जयश्री था। १-'आसीच्चण्डपमंडितान्वयगुरुनागेन्द्रगच्छश्रियश्चूड़ारत्नमयप्रसिद्धमहिमासरिर्महेन्द्राधिपः ॥६॥ अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०२५० 'प्र' के स्थान में 'ल' तथा 'त्र' श्री जिनविजयजी एवं मुनिराज जयन्तविजयजी द्वारा प्रकाशित लेख-संग्रह ग्रंथों में छपा है। २-'वाग्देवताचरणकाञ्चननूपुरश्रीः श्रीचंडपः सचिवचक्रशिरोऽवतंसः। प्राग्वाटवंशतिलकः किल कर्णपूरलीलायितान्य धितगुर्जरराजधान्याः ॥४॥ मतिकल्पलता यस्य मनः स्थानकरोपिता। फलं गुर्जरभूपाना सङ्कल्पितमकल्पयत् ।।४।। वाग्देवीप्रसादः सूनुश्चण्डप्रसाद इति तस्य । निजकीतिवैजयन्त्या अनयत गगनाङ्गणे गङ्गाम् ॥४२॥" ह० म०म० परि० प्र० पृ०६ (व० ते० प्र०) ३-प्र० प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले० ३२० (हस्तिशालास्थलेख) ४-'गेहिन्येव वदान्योयं नृपव्यापारमुद्रया | की० को००२१ (मंत्रीस्थापना) 'जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स' के सन् १६१५ के विशेषांक में प्रकाशित 'तपगाछ-पट्टावली के आधार पर 'पोरवाड़ महाजनों के इतिहास' के लेखक ने पृ०६१ पर वस्तुपाल तेजपाल का गोत्र 'उवरड़' लिखा है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय स्वाभिमानी कोषाधिपति मन्त्री सोम शूर और सोम का पूरा नाम शूरसिंह तथा सोमसिंह हैं। जयश्री? के ये दो पुत्र उत्पन्न हुये । शूररे अति पराक्रमी और वीर था। सोम३ परम शांत और कुशाग्रबुद्धि था । वह गूर्जरसम्राट् सिद्धराज का रत्नकोषाध्यक्ष था । शूर और सोम सोम अपने जिनधर्म में दृढ़ एवं वचनों में अडिग था। उसने जिनेश्वरदेव के अतिरिक्त किसी अन्य देव को देव नहीं माना, धर्मगुरु हरिभद्रसूरि के अतिरिक्त किसी अन्य साधु, आचार्य को गुरु नहीं माना तथा गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह के अतिरिक्त किसी अन्य सम्राट को उसने अपना स्वामी नहीं माना । पूर्वजों के सदृश ही वह भी महादानी एवं उदारहृदयी था। सोम की स्त्री का नाम सीता था। सीता से सोम को अश्वराज, त्रिभुवनपाल (तिहुणपाल) नामक दो पुत्र तथा केलीकुमारी नामक एक पुत्री की प्राप्ति हुई।४ १-'शास्त्रार्थवारिभरहारिहृदालवालसंरोपिता मतिलता वितता नितान्तम् । यस्य प्रकाशितरविग्रहतापवद्भिश्छायार्थिभिनुपकुलैः फलदा सिषेवे ॥६॥ 'पुण्यस्य पापपटली जयिनो जयश्रीरासीत्तदीयदयिता नयभूर्जयश्रीः७।' न० ना० नं० सर्ग१६ 'समजनि जिनसेवानित्यहेवाकवृत्तिःप्रगुणगुणगणश्रीस्तस्य कान्ता जयश्रीः।१०।' ह० म०म० परि० त० (सु०की०क०) २-३-'स श्रीमानुदयाचलोज्ज्वलरुचिमैत्र्यं दधानो जने । शूरः क्रूरतमः समुच्चयभिदाशरः कथं वर्यते ॥१०॥ 'भ्राता वातायन इव धियां तस्य निःसीमकीर्तिस्तोमः सोमः समजनि जनालोकनीयः कनीयान् ।' देवो देवेष्विव जिनपतिर्मानसे मानसेकाद्यस्यावश्यं नृपतिषु पतिः सिद्धराजो रराज ।।१०४॥' ह० म०म० परि० त० (सु० की० क०) 'तत्र श्रीसिद्धराजोपि रत्नकोशं न्यवीविशत् ॥१४॥' की० को०-पृ०२२ (मन्त्री-स्थापना) 'चूडामणिकृतजिनाघ्रिनखप्रपंचः कर्णस्फुरद्गुरुसुवर्णविभूषणश्रीः । सद्वर्त्मनि प्रचलदुर्मदमोहचौर दुसञ्चरेपि विललास य एव शुरः ॥१०॥' 'सोमाभिधस्तदनुजःसुजनाननाब्जसूर्योऽभवद्विबुधसिंधुविशुद्धबुद्धिः। यन्मानसेऽद्भुतरसे विललास वार्द्धिक्षिप्तौर्वतापविधुरेव सरस्वतीयम् ॥१२॥' 'देवःपरंजिनवरो हरिभद्रसूरिः सत्यं गुरुः परिवृढ़ः खलु सिद्धराजः ॥१४॥ न० ना० नं० सर्ग१६ ३-०॥ सं०१२८४ वर्षे।। 'विश्वानन्दकरः सदागुरुरुचिर्जीमूतलीला दधौ, सोमश्वारुपवित्रचित्रविकसह वेशधर्मोनतिः। चके मार्गणपाणि शुक्ति कुहरे यः स्वातिवृष्टिन जैमुक्त मौक्तिकनिर्मलं शुचि यशो दिकामिनीमंडनं ॥१॥ युक्त' य..."सोमसचिवः कुन्देन्दुशुभैर्गुणैरिद्धः: सिद्धनृपं विमुच्य सुकृति चक्रे न कंचिद्विभु। रंगद् (भृ') गमदप्रदच्छदभरः (मदः) श्री सद्मपद्म किमु । सो (स्वो) ल्लासाय विहाय भास्करमहस्तेजोऽन्तरं वाञ्छति ॥२॥ पर्याणैषीदसौ सीतामविश्वामित्रसंगतः अभूतत्रि (?) तमहाधर्मलाघवो राघवोऽपरः॥३॥ जै० स० प्र० वर्ष ३ अङ्क ४ पृ०१४८ (अभ्यासगृहपत्रिका, पाटण वर्ष ६ अङ्क ३) ४-'अनुजोऽस्यापि सुमनुजास्त्रिभुवनपालस्तथा स्वसाकेली अाशाराजस्याजनि जाया च कुमारदेवीति ।।८।। जै० ले० सं० ले०१७६३ (खंभातस्थलेखाः) रासमाला भा०२ पृ० ४६५ पर दिये वंशवृक्ष से जो यहां भी दिया जाता है से प्रगट होता है कि सोम के तीन पुत्र थे। उक्त वंशवृक्ष का आधार रासमाला के गुजरातीभाषान्तरकर्ता ने उक्त पृ० के चरणलेख में लिखा है 'प्राग्वाटवंशवर्णन श्रेवा मथालानु एक प्राचीन पानु अमारी पासे छे, ते कीर्ति कौमुदीना पारशिष्ट अमा, तेमज भावनगर लेखमाला ना पृ०१७४ मा आबू पर्वत ऊपरना देलवाड़ा मा आदिनाथ ना देरासर नी पासे नी धर्मशाला नी एक भीत मा संवत् १२६७ (ई० स०१२११) फाल्गुन बदी१० सोमवार नो शिलालेख छे', ते उपरथी लखेलो छे, कीर्ति-कौमुदी (संस्कृत एवं गुजराती भाषान्तर) के परिशिष्ट अ में उक्त लेख नहीं मिला। लेखक Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मंत्री अश्वराज और उसका परिवार :: [१०७ मंत्री अश्वराज और उसका परिवार सोम का प्रौढ़ आयु में ही शरीरान्त हो गया१ । त्रिभुवनपाल भी अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गया। सोम की मृत्यु के समय अश्वराज भी छोटा ही था । घर का समस्त भार सीता के स्कंधों पर आ पड़ा। अश्वराज जैसा सीता और उसका पुत्र रूपवान् था, वैसा ही गुणवान् भी था । वह अपनी माता का बड़ा आदर करता था अश्वराज और उसका परम आज्ञाकारी पुत्र था । उसने माता सीता को फिर से सुखी बना दिया। वह गूर्जरसम्राट के अति विश्वासपात्र मंत्रियों में से था। वह सोहालकग्राम में प्रमुख राज्याधिकारी था। अपने पूर्वजों के समान ही वह भी महादानी एवं धर्मिष्ठ था । इसने अनेक स्थलों में जहाँ यात्रियों का आवागमन अधिक रहता था अथवा जो तीर्थधामों के मार्गों में पड़ते थे कुएँ बनवाये, वापिकायें खुदवाई और प्रपायें लगवाई।३ चंडप (गूर्जर राजानो मंत्री हतो.(की० को०) चंडप्रसाद (नृपन्यापारमुद्रा धारण करतो हतो) सोम (सिद्धराजनो कोषाधिकारी हतो) विजय तिहणपाल केली (दीकरी) केली (दीकरी) . अश्वराज (प्राशाराज) कुमार देवी-कुंवरबाई लूणिग तेजपाल मल्लदेव [लीलुका-लीलु] वस्तुपाल [ललितादेवी, सौख्यलता] पूर्णसिंह.. ....... जैत्रसिंह (जयन्तसिंह) कुल देवी लूणसिंह ... . , पेथड़ (लावण्यसिंह) १-अश्वराज के विवाह के समय सोम नहीं था। २-त्रिभुवनपाल का विशेष उल्लेख कहीं देखने को नहीं मिला तथा जैसा मन्त्रीमाताओं ने अपने समस्त पूर्वजों और उनकी सन्तानों के श्रेयार्थ और स्मरणार्थ अनेक धर्मस्थलों में स्मारक बनवाये, शिलालेख खुदवाये, उनमें ऐसा कोई लेख अथवा स्मारक नहीं है जो त्रिभुवनपाल की संतति को स्मृत कराता हो । इससे सिद्ध है कि वह अविवाहित तथा अल्प अवस्था में ही स्वर्गस्थ हो गया था । ३-'स्वमातरं यः किलमातभक्तो वहन्प्रमोदेन सुखासनस्थाम् । सप्तप्रभाहप्तयशास्ततानोजयंतशत्रुञ्जयतीर्थयात्राः ।।५।। 'कुपानकूपारगभीरचेता वापीरवापी सरसी रसीमा । प्रपाः कृपावानतनिष्ठ दैव सौधान्यसौं धार्मिक चक्रवती ॥६०॥' 'स तारकीर्ति सुकुमारमूर्ति कुमारदेवीमिह पुण्यसेवी । किलोपयेमे द्रतहमगौरीमूरीकृताशेषजनोपकारः॥१२॥ व०वि० सर्ग०३ पृ०१४ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] :: प्राग्वाट - इतिहास : [ द्वित्तीय अपनी माता सीता के साथ उसने शत्रुंजय और गिरनास्तीर्थों की सात यात्रायें कीं । इस प्रकार उसने पूर्वजों के द्वारा संचित सम्पत्ति का सदुपयोग किया । इन्हीं दिव्य गुणों के कारण वह पुरुषोत्तम कहलाया । उसका विवाह कुमारदेवी से हुआ ।२ कुमारदेवी एक परम रूपवती एवं गुणशालिनी स्त्री थी । वह चौलूक्य सम्राट् भीमदेव द्वि० के दण्डाधिपति श्रीमालज्ञातीय आभू की स्त्री लक्ष्मीदेवी की कुक्षी से उत्पन्न हुई थी। १०. संसर्ग ३ पृ० २५. श्लोक ५१ से ५३ व० च प्रस्ताव १ पृ० १ श्लोक ३१ से ३६ ५० २ श्लोक ६३ न० ना० नं० सर्ग १६ पृ० ६० श्लोक २१ से २६ ह० म० म० परि०: ३ पृ० ८२ श्लोक १०७ से ११० (सु की० क०) की ० कौ० पृ० २२-२३ श्लोक १७ से २२ ( मन्त्री - स्थापना ) * दण्डाधिपति श्रभू का वंश ( सामन्तसिंह ) 1 शान्ति I ब्रह्मनाग 1 आमदत्त 1 नागड़ श्रभू [ लक्ष्मीदेवी ] 1 कुमारदेवी २ - 'कुमारदेवी बाल विधवा थी और अश्वराज के साथ उसका पुनर्लन हुआ था यह जनश्रुति अधिक प्रसिद्ध है' व० च० में पृ० १ श्लोक ३१ में उसको प्रा० ज्ञा० दण्डेश प्रभू की पुत्री होना लिखा है; परन्तु दण्डेश प्रभू प्रा० ज्ञातीय नहीं था; वरन् श्रीमालज्ञातीय था - यह अधिक माना गया है । वस्तुपाल के समकालीन आचार्यों, लेखकों एवं कवियों की कृतियों में जिनमें 'सुकृत संकीर्तनम्', 'हमीरमदमर्दन', नर-नारायणानन्द, वसन्त विलास, धर्माभ्युदय अधिक विश्रुत हैं और ये सर्व ग्रंथ स्वयं वस्तुपाल तेजपाल के विषय में ही लिखे गये हैं— में ऐसा कोई उल्लेख कहीं भी नहीं दिया गया है जो कुमारदेवी को बाल-विधवा होना कहता हो और अश्वराज के साथ उसका पुनर्लग्न होना चरितार्थ करता हो । जनश्रुति अगर सच्ची भी हो तो भी अश्वराज का जीवन उससे उठता ही है यह निर्विवाद है । मेवाड़ के महाराणाओं का राजवंश अपने कुल की उज्ज्वलता एवं यश, कीर्त्ति, गौरव, प्रतिष्ठा के लिये भारतवर्ष में ही नहीं, जगत् में अद्वितीय है। महाराणा हमीरसिंह का विवाह मालवदेव की बाल विधवा पुत्री के साथ हुआ था। चाहे उक्त विवाह छल-कपट से सम्पन्न हुआ हो । परन्तु उक्त विवाह से महाराणाओं के वंश की मान-प्रतिष्ठा में उस समय या उसके पश्चात् भी कोई कमी प्रतीत हुई हो, इतिहास नहीं कहता है। सो तो उस समय के राजपूत विधवा-विवाह को अति घृणित एवं अपमानजनक मानते थे । मालवदेव की विधवा पुत्री ने अपने प्रथम पति का सहवास प्राप्त करना तो दूर, मुख तक भी नहीं देखा था। ऐसी अनवद्योगी बाल विधवा का उद्धार कर गौरवशाली वंश में उत्पन्न हमीर ने साधारण समाज के समक्ष अनुकरणीय आदर्श रक्खा । अश्वराज भी तो गौरवशाली मन्त्रीकुल में ही उत्पन्न हुआ था। वह उन्नत विचारशील था और कुमारदेवी भी अनवद्योगी बाल-विधवा थी। वह रूपवती और महागुणवती थी परन्तु अश्वराज कुमारदेवी पर इन गुणों के कारण मुग्ध नहीं हुआ था । श्रश्वराज कुमारदेवी के साथ पुनर्लग्न करने को क्यों तैयार हुआ, वह प्रसंग इस प्रकार है : " कदाचिच्छ्रीमत्पत्तने भट्टारकश्री हरिभद्रसूरिभिर्व्याख्यानावसरे कुमारदेव्यभिधाना काचिद्विधवातीव रूपवती [बाला ] मुहुर्मुहुर्निरीक्ष्यमाणा तत्रस्थितस्याशराजमन्त्रिणश्चित्तमाचकर्ष । तद्विसर्जनानन्तरं मन्त्रिणानुयुक्ता गुरव इष्टदेवतादेशाद् - 'अमुष्या कुक्षौ सूर्याचन्द्रमसोर्भाविनमवतारं पश्यामः । तत्सामुद्रिकानि भूयो भूयो विलोकितवन्तः' इति प्रभोर्विज्ञाततत्त्वः स तामपहृत्य निजी प्रेयसी कृतवान् ।” प्र० चि० पृ० ६८ (वस्तुपाल - तेजपाल प्रबन्धः १० ) अन्तरज्ञातीय विवाह करने के विरोधियों को प्राज्ञा० श्रश्वराज का विवाह श्री०ज्ञा दण्ड० श्रभू की पुत्री कुमारदेवी के साथ होना बुरा लगा हो और पीछे से विधवा होने का प्रबन्ध जोड़ दिया हो-सम्भव लग सकता है। कारण कि उन दिनों में अपने वर्ग में ही कन्या - व्यवहार Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-बंश और मंत्री अश्वराज और उसका परिवार . [१०६ अश्वराज अपनी विधवा माता सीतादेवी के साथ सोहालकलाम में ही रहता था । कुमारदेवी की कुक्षि से क्रमशः लुभिय, मल्लदेव, वस्तुपाल, तेजपाल नामक चार महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए तथा क्रमशः जाल्ह, माउ, साऊ. धनदेवी, सोयगा, वयज और पद्मल या पदमला ये सात पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। अश्वराज का गार्हस्थ्य-जीवन ' अस्वराज और कुमारदेवी का विवाह मूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वितीय के राज्यारोहण के? करना चाहिए के प्रश्न को लेकर समस्त जैनममाज में दो मत चल रहे थे। विरोध करने वालों की संख्या अधिक थी और पक्ष में बोलने वालों की कम और इसी कारण से संभवतः उनके दल बृहत्शाखा और लघुशाखा वर्ग कहलाये । कुमार देवी विधवा थी के भाष की सक्ष्य रेखा कच० और की कौ० में भी मिलती है। परन्तु उनका अर्थ भी विचारणीय है, एकदम मान्य नहीं। 'ततः सरिव्यादिष्टदेवतादेशतोऽभवत् । भार्या कुमारदेवीति, प्रथिता तस्य मन्त्रिणः ॥५॥ अनया प्रियया मन्त्री, श्रियेव पुरुषोत्तमः। लेभे सुमनसा मध्ये, ख्याति लोकातिशायिनीम् ॥६॥ मातुः पितुच पत्युश्च, कुलत्रयमियं सती । गुणैः पवित्रयामास, जाह्नवीव जगत्त्रयम् ॥६॥ तामादाय स्फुरद्भाग्यभङ्गी स्वस्याङ्गिनीमिव । समं स्वपरिवारेण स्वजनानुमतेस्ततः॥१२॥ प्रसन्नेन क्रमादत्ते, भूभा चुलकोद्भवा । अश्वराजो व्यधाद्वासं, पुरे महालकाभिधे ॥६३" व० च० प्रस्ताव १ पृ० २ समय को जानने वाले, अवसर को पहचानने वाले, दीन और दुखियों के सहायक पतितों के उद्धारक को ही तो पुरुषोत्तम कहा जाता है-ग्रन्थकर्ता ने अश्वराज के इन गुणों से मुग्ध होकर ही संभवतः उसको 'पुरुषोत्तम' कहा है। 'प्राक्कृता रेणुकाबाधा स्मरन्ननुशयादिव । मातुर्विशेषतश्चके भक्तिं यः पुरुषोत्तमः ॥२०॥ की कौ० स०३ पृ०२२ 'प्राकृतं रेणुकाबन्धं स्मरननुशयादिव। मातुर्विशेषतश्चके भक्ति यः पुरुषोत्तमः ॥६०॥' व० च० प्र०१ पृ०३ व० च० के कर्ता जिनहर्षगणि ने की० कौ० में से उक्त श्लोक को अपनी रचना में कैसे समाविष्ट किया-यहाँ यह विवाद नही छेड़ना है। तात्पर्य इससे इतना ही लेना है कि वह कौनसी भावना है, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा किया। जहाँ की० को. के कर्चा ने उक्त श्लोक को अश्वराज की महिमार्थ लिखा है, वहाँ व० च० के कर्ता ने वस्तुपाल की महिमार्थ इसका उपयोग किया है। विचारणीय बात जो है वह यह कि रेणुका जैसी अपमानिता स्त्री का स्मरण यहाँ क्यों आया। दोनों ग्रन्थों की रचनाधारा को देखते हुये उक्त प्रसंग ठूसा हुआ प्रतीत होता है। फिर ऐसे सफल ग्रन्थकर्ताओं के हाथों यह हुआ है इसमें कुछ रहस्य है । विशेषतः और 'पुरुषोत्तमः शब्दों के प्रयोगों का भी कोई गुप्त अर्थ है। मेरी समझ में जो पाता है वह यह है कि परशुराम-अवतार में जो माता रेणुका का पिता की आज्ञा से वध किया गया था, उसी का भाशराज तथा वस्तुपाल-अवतार में विधवा स्त्री से विवाह करके तथा पुनर्लमछता माता की अत्यन्त सेवा करके प्रायश्चित्त किया गया। उक्त ग्रन्थकर्ताओं ने खुले शब्दों में पुनर्लग्नप्रसंग का वर्णन नहीं कर अलंकारों की सहायता से उसे ग्रन्थित किया है। फिर भी मेरा इन श्लोकों से उक्त आशय निकालने में यही मत है कि अन्य विद्वानों की जब तक ऐसी ही मिलती हुई सम्मति नहीं प्राप्त हो उक्त आशय को उपयुक्त नही माना जाय। १-१० प्रा० ० ले० सं०भा० २ लेखांक २५० " " " " ३२५, २८, ३३०-३१, ३३७ 'सं०१२४६ वर्षे संघपति स्वपित ठ० श्री आशराजेन समं महं० श्री वस्तुपालेन श्री विमलाद्रौ रैवते.च यात्रा कृता । सं०५० वर्षे तेनैव सम स्थान द्वये यात्रा कृता ।' Waston Museum, Rajkot [व०वि० प्रस्ताव० चरणलेख पृ०११] चारों भाईयों एवं सातो बहिनों के जन्म-संवतों का अनुमानः'महं० श्री जयंतसिंहे सं०७६ वर्ष पूर्व स्तम्भतीर्थ मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वति'-गि० प्र० - उक्त पंक्ति पर विचार करने से जयंतसिंह की आयु सं०१२७६ में लगभग १८-२० वर्ष की तो होनी ही चाहिए। तब वस्तुपाल का विवाह लगभग वि० सं०१२५६-५८ में हुमा होना चाहिए और तेजपाल का विवाह सं०१२६० तक तो हो ही गया होगा। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय . समय जो वि० सं० १२३५ में सम्पन्न हुआ के लगभग ही हुआ होगा । अश्वराज ने सम्वत् १२४६, १२५० में अपनी विधवा माता सीतादेवी के साथ में शत्रुंजय और गिरनारतीर्थों की यात्रायें कीं। इन यात्राओं में लूणिग, मल्लदेव वस्तुपाल भी साथ में थे और चौथा पुत्र तेजपाल शिशु अवस्था में था । अश्वराज ने चारों पुत्रों को अच्छी शिक्षा दिलवाई | सातवीं पुत्री पद्मल के जन्म के आस-पास ही ठ० श्रश्वराज की मृत्यु हो गई । १ कुमारदेवी विधवा हो गई। विधवा कुमारदेवी सोहालकग्राम को छोड़कर मंडिलकपुर में जा रही और वहीं अपने जीवन के शेष दिन बिताने लगी ।२ वस्तुपाल का मन पढ़ने में अधिक लगता था । और फलतः वह अधिक युपर्यन्त पत्तन में विद्याध्ययन करता रहा । प्रथम पुत्र लूशिग का भी निस्सन्तान अल्पायु में ही शरीरान्त हो गया । ३ मल्लदेव जो द्वितीय पुत्र था वह भी एक पुत्र पुण्यसिंह और दो पुत्रियाँ सहजल और पद्मल को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गया ।४ दोनों पुत्रों की असामयिक मृत्यु से विधवा कुमारदेवी को भारी धक्का लगा। कुमारदेवी भी वि० सं० १२७१-७२ के आस-पास स्वर्ग सिधार गई । ५ कुछेक वर्णन ऐसे भी मिले हैं, जिनसे तेजपाल का विवाह वस्तुपाल के विवाहित होने से पूर्व होना प्रतीत होता है। लूणिग और मल्लदेव वस्तुपाल के विवाहित होने से पूर्व ही विवाहित हो चुके थे । ० १२४६ में तेजपाल शिशु अवस्था में था और स० १२५६-५८ में वस्तुपाल का विवाहित होना अनुमान किया जा सकता है, तब वस्तुपाल का जन्म संवत् वि० सं० १२४२-४४ सिद्ध होता है । इस प्रकार लुणिग का सं० १२३८-४०, मल्लदेव का १२४०-४२ और तेजपाल का १२४४-४६ जन्म-संवत् ठहरते हैं। इसी प्रकार दो-दो वर्षों के अन्तर से सातों बहिनों के जन्म संवतों को भी माना जाय तो अन्तिम पुत्री पद्मल का जन्म वि० सं० १२५८-६० में हुआ होना ठहरता है । यह अनुमानशैली अगर उपयुक्त जचती है तो कुमार देवी का पुनर्लग्न या विवाह वि० सं० १२३५ में हुआ होना ही अधिक सत्य है । १ - पद्मल की जन्मतिथि के पश्चात् ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, जिसके आधार पर यह कहा या माना जा सकता हो कि ठ०वराज अधिक समय तक जीवित रहे । अधिकतर विद्वान् यही मानते हैं कि लूलिंग की मृत्यु के समय अश्वराज अनुपस्थित थे। लूगिंग की मृत्यु उसके निःसंतानस्थिति में हुई । इस मत के आधार पर लूगिंग की मृत्यु वि० सं० १२६१-६२ के आस-पास हुई। तब उ० अश्वराजकी मृत्यु का काल सं० १२६० के आस-पास माना जाय तो कोई अनुपयुक्त नहीं। २ - 'त्यत्का तातवियोगातिंपिशुनं तत्पुरं ततः । सुकृत श्रेणितननी ( जननी) जननीं जननीतिवित् ॥८४॥ वस्तुपाल समादाय, विदधे बन्धुभिः समम् । मण्डलीनगरे वासं भूमिमण्डलमण्डने ॥ ८५ ॥ व० च० प्र० १ पृ० ३ ३ - ४ - लूणिग की मृत्यु को मल्लदेव की मृत्यु से पीछे हुई मानना सर्वथा अनुपयुक्त है। लूगिंग अल्पायु में ही निस्संतान मर गया यह अधिक मान्य है और मल्लदेव जो लूगिंग से छोटा था, एक पुत्र और दो पुत्रियाँ छोड़ कर मरा है अवश्य लूलिंग के शरीरात होने के पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ है। ५ - वि० सं० १२७३ में वस्तुपाल तेजपाल ने स्वर्गस्थ पिता, माता के श्रेयार्थ शत्रुञ्जय एवं गिरनार तीर्थों की यात्रा की थी। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी संवत् के पूर्व या इसी के आस-पास कुमारदेवी स्वर्गस्थ हुई । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरात :: [ १११ वस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरात __ महमूद गजनवी के आक्रमणों से समस्त उत्तर भारत की शांति भङ्ग हो चुकी थी। वि० सं० १०८१-२ (ई. सन् १०२५) में सोमनाथ के मन्दिर पर जो महमूद गजनवी का आक्रमण हुआ था वह उत्तर भारत के समस्त राजाओं का पराजय था१ । गूर्जरभूमि ने सम्राट् कर्ण, सिद्धराज, कुमारपाल जैसे महापराक्रमी नरवीर उत्पन्न किये थे, जिन्होंने पुनः गूर्जरप्रदेश को समृद्ध और सुखी बनाया। अणहिलपुरपत्तन इन सम्राटों के काल में भारत के प्रति समृद्ध एवं वैभवशाली प्रमुख नगरों में गिना जाता था । परन्तु सम्राट् कुमारपाल के पश्चात् गूर्जरभूमि के सिंहासन पर अजयपाल और मूलराज राजा आरूढ़ हुये, वे अधिक योग्य नहीं निकले । गुजरात की दशा बराबर बिगड़ती गई । योग्य मन्त्रियों का भी अभाव ही रहा । सामन्त एवं माएडलिक राजागण धीरे २ स्वतन्त्र हो गये । इसके उपरान्त वि० सं० १२४६ (ई० सन् ११६२) में मुहमदगौरी के हाथों तहराइन के रणक्षेत्र में हुई पृथ्वीराज की पराजय का कुप्रभाव सर्वत्र पड़ा। दिल्ली यवनों के अधिकार में आ गया और मुसलमान आक्रमणकारियों का आतंक एवं प्रभुत्व द्रुतवेग से बढ़ चला। कुतुबुद्दीन ऐबक ने भीम द्वि० के समय में वि० सं० १२५४ (ई. सन् ११६७) में गूर्जरभूमि पर भारी आक्रमण किया । सम्राट भीमदेव द्वितीय उसके आक्रमण को निष्फल नहीं कर सके । अणहिलपुरपत्तन पर यवनों का आधिपत्य स्थापित हो गया । इस प्रकार कुतुबुद्दीन ने भीमदेव द्वि० के हाथों हुई मुहमदगौरी की पराजय का पुनः बदला लिया । कुतुबुद्दीन समस्त गूर्जरभूमि को नष्ट-भ्रष्ट कर दिल्ली लौट गया। सैन्य एकत्रित करके भीमदेव द्वि० ने वि० सं० १२५६ (ई. सन् ११६६) में यवनों पर पुनः आक्रमण किया और उन्हें परास्त करके गूर्जरभूमि से बाहर निकाल दिया । सम्राट भीमदेवर और उनके सामन्त जब पत्तन में स्थित यवनशासक को परास्त कर चुके तो यवनशासक पत्तन छोड़कर अपना प्राण लेकर भागा। सम्राट ने उस समय पत्तन के राजसिंहासन पर बैठकर आनन्द एवं हर्ष मनाने के स्थान में यह अधिक उचित समझा कि यवनों को गूर्जरभूमि से ही बाहर निकाल दिया जाय । यह कार्य अभी जितना सरल है, यवनों के पुनः सशक्त एवं संगठित हो जाने पर उतना ही कठिन हो जायगा । ऐसा विचार करके सम्राट ने पत्तन में जयन्तसिंह नामक विश्वासपात्र सामन्त को अपना प्रतिनिधि बनाकर उसको पत्तन की रक्षा का भार अर्पित किया और पत्तन में कुछ सैन्य छोड़कर, सम्राट अपनी विजयी सैन्य के सहित पलायन करते हुये यवनों के पीछे पड़ा और कठिन श्रम एवं अनेक छोटे-बड़े रण करके यवनों को अन्त में वह गूर्जरभूमि से बाहर निकालने में सफल हुआ । गूर्जरभूमि से यवनों को बिलकुल बाहर निकालने के उक्त प्रयत्न में कुछ समय लग ही गया। इस अन्तर में सामन्त जयंतसिंह ने, जिसको सम्राट ने यवनों का पीछा करने के लिये जाते समय अपना प्रतिनिधि बनाकर पत्तन में नियुक्त किया था, पत्तन का सिंहासन हस्तगत कर बैठा और उसने राजसिंहासन पर बैठकर अपने को गूर्जरसम्राट् घोपित कर दिया। सम्राट भीमदेव द्वि० यवनों को गूर्जरभूमि से बाहर करके जब १-H. M. I. (III edi.) P. 22, 102, 148, 154. २-G. G. Part III P. 204,207. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय पत्तन की ओर मुड़े तो उन्होंने विश्वासघातक जयन्तसिंह के पत्तन के राजसिंहासन पर बैठने के समाचार सुने । अन्त में सम्राट् और जयंतसिंह के मध्य भयंकर रण हुआ और जयंतसिंह परास्त होकर सम्राट का बन्दी बना । इस युद्ध में मन्त्री अश्वराज और उपसेनापति अाभूशाह ने बड़ी नीतिज्ञता एवं स्वामिभक्ति का परिचय दिया था तथा जयंतसिंह को परास्त करने में सम्राट की प्राणप्रण से सहायता की थी। मण्डलेश्वर गूर्जरसेनाधिपति लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवल ने प्राणों की बाजी लगाकर यवनों को गूर्जरभूमि से बाहर निकालने में तथा जयंतसिंह को उसके दुष्कृत्य का फल चखाने में सम्राट् की भुजायें बनकर सम्राट के मान और प्रतिष्ठा की पुनः प्राप्ति की एवं सम्राट का पत्तन के राजसिंहासन पर पुनः अधिकार जमाने में पूरी २ सहायता की। ____ सम्राट भीमदेव जब पुनः इस बार पत्तन के राजसिंहासन पर विराजमान हुये तो उन्होंने अपने विश्वासपात्र, सामन्त, माएडलिक, मन्त्री एवं अन्य राज्यकर्मचारियों को एकत्रित करके मण्डलेश्वर लवणप्रसाद को उसकी अमूल्य सेवाओं से मुग्ध होकर महामण्डलेश्वर का पद प्रदान किया तथा महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद के पुत्र वीर, धीर, स्वामीभक्त वीरधवल को अपना युवराज बनाने की इच्छा प्रगट की और इस इच्छा के अनुसार युवराजपद प्रदान करने की घोषणा का दिन निश्चय करने का भार सम्राट् ने स्वयं अपने उपर रक्खा । उपस्थित सर्व सामन्त, मन्त्री, माण्डलिकों एवं नगर के प्रमुख श्रेष्ठियों ने सम्राट की योग्य इच्छाओं का मान करते हुये उनका समर्थन किया । पत्तन का राजसिंहासन जो इस बार सम्राट भीमदेव ने पुनः प्राप्त किया था, उसमें उन्होंने स्वर्गस्थ सम्राट सिद्धराज जयसिंह जैसा शौर्य एवं पराक्रम प्रदर्शित किया था अतः पत्तन के राजसिंहासन पर बैठकर सम्राट ने *'अभिनव सिद्धराज' की उपाधि ग्रहण की। पत्तन का सिंहासन तो प्राप्त कर लिया परन्तु फिर भी वह गूर्जरभूमि कु० च० H. I. G. Part II. *(अ) वि० सं०१२५६ भाद्रपद कृष्णा अमावश्या मंगलवार प्रथम ताम्र-पत्र १४-'पराभूतदुर्जयगर्जनकाधिराज श्री मूलराजदेवपादानुध्यात परमभट्टा १५-क महाराजाधिराज परमेश्वराभिनवसिद्धराज श्रीमद्भीमदेव स्वभुज्य' Ms. No. 158 (ब) वि० सं० १२६३ श्रावण शुक्ला २ रविवार प्रथम ताम्र-पत्र ११-'श्रीमूलराज देवपादानुध्यातपरमभट्टारक महाराजाधिराजपरमेश्वराभिनवसिद्धराज१२-श्रीमद्भीमदेव .......... Ms. No. 160 (स) वि० सं० १२६६. सिंह सं०६६ द्वितीय ताम्र-पत्र ..........."परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वराभिनवसिद्धराज१९-देवबाल नारायणावतार श्रीभीमदेव कल्याण' ..........." Ms. No. 162 'परमेश्वराभिनवसिद्धराज' पद केवल द्वि० भीमदेव के साथ ही लगा है-ऐसा गूर्जरसम्राटों के अनेक शिलालेख एवं ताम्र-पत्रों से सिद्ध होता है। पं० लालचन्द्र भगवान्दासजी गांधी 'जयन्तसिंह के नाम को सिद्धराज जयसिंह' उपाधि के पद 'जयसिंह' का जयन्तसिंह भ्रम से हुआ मानते हैं। वे इस नाम का पुरुष नहीं मानते । १८ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के। गुजरात :: [ ११३ I को पुनः समृद्ध और सुखी बनाने में असमर्थ रहा । कुछ सामन्त एवं माण्डलिक राजाओं के अतिरिक्त सर्व स्वतन्त्र हो गये । भीमदेव द्वि० की राज्य सत्ता पत्तन के आस-पास की भूमि पर रह गई । भीमदेव द्वि० निराश और निर्बल-सा महलों में पड़ा रहने लगा और उदासीन और संन्यासी की भाँति दिन व्यतीत करने लगा । समस्त गुजरात में अराजकता प्रसारित हो गई। चौर और लूटेरों के उत्पात बढ़ गये । व्यापार नष्ट हो गया । यात्रायें बंध हो गई । राजधानी अणहिलपुरपत्तन भी अब शोभाविहीन, समृद्धिहत-सा प्रतीत होता था । वह राजद्रोही एवं विश्वास - घातकों के षड़यन्त्रों की रंगभूमि बन गई । १ 1 मालवा के परमारों और गुजरात के चौलुक्यों में पारस्परिक द्वंद्वता सदा से चली आ रही थी । इस समय मालवा की राजधानी धार में सुभटवर्मा राज्य कर रहा था । उसने गूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वितीय को निर्बल समझ मालपत कर गुजरात पर आक्रमण शुरु कर दिये । वि० सं० १२६६ (ई० सन् १२०१) तक समस्त गुजरात सुभटवर्मा के आक्रमणों से समाक्रांत रहा और उसको पुनः समृद्ध औ आक्रमण संगठित होने का अवसर ही नहीं मिला । २ भरोच के चौहान राजा सिंह ने जो पत्तन का माण्डलिक राजा था. सुभटवर्मा का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। भद्रेश्वर के राजा भीमसिंह ने, गोध्रा के राजा ने भी पत्तन के गुर्जर - सम्राटों से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिये । ये इस प्रकार स्वतन्त्र हुये सामन्त, माण्डलिक, ठक्कुर गुर्जरसम्राटों के शत्रु राजाओं से मिलकर या गुजरात में उत्पात, अत्याचार, लूट-खशोट कर अपनी जड़ सुदृढ़ बनाने लगे । फलतः वि० सं० १२६६ ( ई० सन् १२०६ ) में पत्तन पर हुये सुभटवर्मा के आक्रमण के समय निर्बल गूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वि० के चरण उखड़ गये और वह सौराष्ट्र या कच्छ की ओर भाग गया । सुभटवर्मा ने दावानल की भांति समस्त गुजरात को अपनी क्रोधानल की ज्वालाओं से भस्म कर अपने पूर्वजों का गुर्जरसम्राट् से प्रतिशोध लिया । पत्तन को बुरी तरह नष्ट कर वह शीघ्र ही धार को लौट गया । बि० स० १२६७ (ई० सन् १२१०) में सुभटवर्मा की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र अर्जुनवर्मा धाराधीप बना । मृत्यु से भीमदेव द्वि० को पत्तन पर पुनः अधिकार प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो गया । सन् १२०६ ) के अंत में उसने पत्तन पर अधिकार कर लिया और 'अभिनव सिद्धराज' के आगे 'जयंतसिंह' पद जोड़कर 'अभिनव सिद्धराज जयंतसिंह' की पदवी धारण की । ३ परन्तु अर्जुनवर्मा ने पुनः अभिनवसिद्धराज जयंतसिंह भीमदेव द्वि० को पर्व पर्वत के स्थान पर भीषण रण करके परास्त किया । भीमदेव द्वि० ने पुनः वि० सं० १२७५ सुभटवर्मा की वि० सं० १२६६ ( ई० पत्तन की पुनः प्राप्ति । अर्जुनवर्मा की मृत्यु । देवपाल की पराजय १- की० कौ० सर्ग २, श्लोक १०, १६, ३१, ७४. सु० स० सर्ग २, श्लोक १३, १८, २३, ३४. २ - G. G. Part lil F. 209, 210. 'सतत विततदान क्षीणनिःशेषलक्ष्मीरितसितरुचिकीत्तिर्भीमभूमीभुजङ्गः । बलकवलितमूमीमण्डलो मण्डलेशैश्विरमुपचितचिंताचतिचिंततिरोऽभूत् ॥५१॥ सु० सं० सर्ग २ पृ० १६ ३–(अ) G. G. Part III P. 210. पर कन्हैयालाल मुंशी ने शिलालेखों में, ताम्रपत्रों में उल्लिखित जयन्तसिंह को भीमदेव द्वि० से अलग सम्राट्वत् व्यक्ति माना है, जिसने पत्तन के सिंहासन पर अनधिकार प्रयास किया था ; परन्तु उसका कोई शिलालेख प्राप्त नहीं है । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय (ई० सन् १२१६) में मालवपति देवपाल को, जो अर्जुनवर्मा की मृत्यु के पश्चात् धाराधीप बना था बुरी तरह परास्त कर अपनी खोयी हुई शक्ति प्राप्त की । इन रणों के कारण गूर्जर भूमि अति निर्बल और दीन हो चुकी थी। जा सर्व प्रकार सदा संत्रस्त रहती थी। प्रजा के धन, जन की सुरक्षा करने वाला कोई शासक या अमात्य नहीं था । सर्वत्र लूट-खशोट एवं अत्याचार बढ़ रहे थे । गुजरात के पुनः समृद्ध और सम्पन्न होने की कोई आशा नहीं दिखाई दे रही थी । पत्तन को छोड़कर अनेक बड़े-बड़े श्रीमंत, शाहूकार अन्यत्र चले गये थे । पत्तन अब एक साधारण नगर-सा बन गया था । I धवलकपुर का मांडलिक राजा चालुक्य वंश की बाघेलाशाखा में उत्पन्न महामण्डलेश्वर रायक लवणप्रसाद था । लवणप्रसाद अत्यन्त वीर एवं महान पराक्रमी योद्धा था । उसने गुर्जरसम्राट् भीमदेव द्वि० के साथ रहकर अनेक धवलकपुर की बाघेलाशाखा युद्धों में गुर्जरशत्रुओं के दांत खट्टे किये थे । वि० सं० १२७६ (ई० सन् १२१६) के और उसकी उन्नति प्रारंभ में भीमदेव द्वितीय ने महामण्डलेश्वर राणक लवणप्रसाद को अपना वंशीय एवं सुयोग्य तथा महापराक्रमी समझकर 'महाविग्रहिक' का पद प्रदान करते हुये और उसके पुत्र वीरधवल को 'गुर्जर - युवराजपद' से अलंकृत करते हुए गूर्जरसाम्राज्य के ? शासन संचालन का भार अर्पित किया और आप उदासीन रहकर एक संन्यासी की भांति राजप्रासादों में जीवन व्यतीत करने लगे । इस प्रकार लवणप्रसाद के स्कंधों पर अब भारी उत्तरदायित्व आ पड़ा और उसने अनुभव किया कि बिना योग्य मंत्रियों के शासन का कार्य चलाना (ब) H. I. G. Part 11. वि० सं० १२८० पौष शु० ३ मंगलवार प्रथम ताम्र पत्र १६-१८ - 'राणावतार श्री भीमदेवतदनन्तरं स्वाने (स्थाने )........ १६- दि समस्तवरदावली समुपेत श्रीमदणहिलपुरराजधानी अधिष्ठित अभिनवसिद्धराज श्रीमज्जयंतसिंहदेवो ।' "वीरेत्या In No. 165 वि० सं० १२८३ कार्त्तिक शु० १५ गुरुवार प्रथम ताम्र पत्र १४-१५ - 'धिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक अभिनवसिद्धराज सप्तमचक्रवर्तीश्रीमद्भीमदेवः' Ins. No. 166. उक्त लेखों से दो बात ये प्रकट होती हैं । प्रथम - भीमदेव द्वि० ने जब, जब महान् विजय की कुछ न कुछ अभिनव उपाधि धारण की, जैसे: वि० सं० १२५६ में 'अभिनवसिद्धराज' १२८० में 'अभिनव सिद्धराज श्रीमज्जयन्तसिंह' 33 19 वि० सं० १२६६ में 'बालनारायणावतार' १२८३ में 'अभिनव सिद्धराज सप्तम चक्रवर्ती' द्वितीय बात यह है कि वि० सं० १२८० के ताम्रपत्र में 'जयंत सिंह' नाम देखकर कुछ एक इतिहासकारों को शंका हो गई है कि 'जयंत सिंह' भीमदेव द्वि० से अलग ही व्यक्ति है । परन्तु वि० सं० १२७५ तथा १२८३ के लेखों में 'भीमदेम द्वि०' स्पष्ट उल्लिखित है । अतः वि० सं० १२८३ के लेख में वर्णित 'जयंतसिंह' भीमदेव द्वि० ही है। जयंतसिंह से यहाँ अर्थ सिद्धराज जयसिंह के समान पराक्रम दिखाने वाले तथा उसके समान गुर्जरदेश के अभित्राता से हैं। १-६० म० म० परि० द्वि० पृ० ७६-८१ श्लोक ७४ से ६७ (सु० की ० कौ० सर्ग २. श्लोक ७४-८१ की ० क ) व० च० प्रस्ताव प्र० श्लोक ४६ 'गृहाणवि महोदय सर्वेश्वरपदं मम । युवराजोऽस्तु मे वीरधवलो घवलो गुणैः ॥ ३६॥ सु० सं० सर्ग० ३ | सु० सं० सर्ग ० २ श्लोक १५-४४ । 'भर्णोराजङ्गजात कलकलहमहासाहसिक्यं चुलुक्यं । श्री लावण्य प्रसादं व्यतनुत स निज श्री समुद्धारधुर्यम्' ||३३|| ६० म० म० परि० प्र० (व० ते० प्र०) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खा] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-बंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरात :: [११५ और वह भी इस अवनति के काल में महान कठिन है। रात और दिन लवणप्रसाद पोम्य मंत्रियों की शोध के विचार में ही रहने लगा । परन्तु उसको कोई योग्य मंत्री नहीं मिल रहे थे ।१... वि० सं० १२७१-७२ के आस-पास कुमारदेवी की मृत्यु हो गई । इस समय तक वस्तुपाल तेजपाल प्रौदवय को प्राप्त हो चुके थे। वस्तुपाल की गणना गूर्जरभूमि के महान् पराक्रमी वीर योद्धाओं में और उद्भट विद्वानों में कुमारदेवी का स्वर्गारोहण होने लगी थी । तेजपाल अत्यन्त शूरवीर एवं निडर होने से बहुत ख्यातनामा हो गया और वस्तुपाल का धवलक- था। इन दिनों में धवलक्कपुर की ख्याति महामण्डलेश्वर राणक लवणप्रसाद की वीरता पुर में वसना। एवं साहस के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। युवराज वीरधवल भी धवलक्कपुर में ही रहता था और वहीं रहकर अभिनव राजतंत्र की स्थापना करके गूर्जरभूमि के भाग्य का निर्माण करना चाहता था। फलतः उसके दरबार में वीर योद्धाओं का, रणविशारदों का स्वागत होता था। वह विद्वानों का भी समादर करता था । परिणाम यह हुआ कि थोड़े समय में ही धवलकपुर में अनेक वीर योद्धा और उद्भट विद्वान जमा हो गये । और वह अति सुरक्षित नगर माना जाने लगा। वस्तुपाल तेजपाल ने भी मण्डलिकपुर छोड़कर धवलकपुर में निवास करने का विचार किया। स्वर्गस्थ पिता-माता के श्रेयार्थ वि० सं० १२७३ में इन्होंने शत्रुञ्जय एवं गिरनार तीर्थों की यात्रा की। यात्रा को जाते समय मार्ग में ये हडाला नामक ग्राम में ठहरे। रात्रि को दोनों भाई उक्त ग्राम में किसी स्थल पर एक लाख रुपयों को जो उनके पास में थे गाड़ने को निकले । स्थल खोदने पर उनको सुवर्ण एवं रत्नों से पूर्ण एक कलश प्राप्त हुआ। दोनों भ्राताओं ने तीर्थयात्रा के समय इस प्रकार की धनप्राप्ति को शुभ समझा और तेजपाल की पत्नी गुणवती एवं चतुरा अनोपमा ने उक्त धन को तीर्थों में ही व्यय करने की सुसंमति दी। दोनों भ्राता तीर्थयात्रा करके सकुशल लौटे और आकर धवलक्कपुर में वस गये ।२ .१-'सुतस्तस्यास्ति लावण्यप्रसादो युधि यद्भुजः। असि जिह्वामिवाकृष्य रिपुनासाय सर्पति ॥२०॥...... युद्धमार्गेषु यस्यासिः प्रतापप्रसरोष्मलः अतीवारियशोवारि पायं पाये न निर्ववौ ॥२१॥ प्रतापतापिता यस्य निमज्ज्यासिजले द्विषः । भीताः शीतादिवासेदुः सद्यश्चण्डांशुमण्डलम् ॥२२॥ सर्वेश्वरममुकुर्वन्नुर्वीमण्डलमण्डनम् । भविष्यसि श्रियो भर्चा सुखांभोधिचतुर्भुजः॥२३॥ अस्यास्ति च सुतो वीरधवलः प्रधनाय यः। भार्गवस्य पुनःक्षत्रक्षयसन्धा समीहते ॥२४॥". सु०सै० सर्ग०३ पृ० २२ २-'सोऽवग निर्माय यात्रा त्वं, धवलक्कं यदष्यसि राजव्यापारलाभात्ते, तदा भाव्युदयो महान् ॥२१॥ विधिना शास्त्रदृष्टेन वजन्तौ पथि सौदरौ हडालकपुरं प्राप्ती, बन्धुभिस्तौ समन्वितौ ॥२४॥ विलोक्य गृहसर्वस्वं जातं लक्षत्रयी मितम् । एवं लखं ततो लावा निधातु निशि तौ गतौ ॥२८॥ सुवर्णश्रेणिसम्पूर्णः पूर्णकुम्भः शुभप्रदः श्राविरासीत्क्षणादेव, देवकुम्भनिभस्ततः ॥३०॥ . 'धवलकरं धाम, धर्मकामार्थसम्पदाम् । श्रीवीरधवलाधीशगजधानीमुपागतौ ॥४६॥ वच० प्रस्ताव प्र० पृ०४ 'इतो वस्तुपाल-तेजपाली हट्ट मण्ड यतः। तेजःपालस्य राणकेन सह प्रीतिर्जाता । राजकुले वस्त्राणि पूरयति..." पु० प्र० को०११८) पृ० ५४ (व० ते० प्रबंध० ३५) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... : प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय धवलकपुर की राजसभा में वस्तुपाल तेजपाल को निमंत्रण और वस्तुपाल द्वारा महामात्यपद तथा तेजपाल द्वारा दण्डनायकपद को ग्रहण करना वीरधवल एवं तेजपाल में पूर्व परिचय था१ । राजगुरु सोमेश्वर वस्तुपाल के सहपाठी थे और उसके दिव्य गुणों एवं उसकी विद्वत्ता पर मुग्ध थे । महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी दोनों भ्राताओं के दिव्य गुणों से, उनकी बुद्धिप्रतिभा से, वीरता, निडरता से पूर्ण परिचित हो चुके थे। वैसे दोनों भ्राता गुर्जरभूमि के प्रसिद्ध अमात्य चंडप के वंशज थे अतः उनकी कीर्ति को प्रसारित होने में अधिक समय नहीं लगा। अब वि० सं० १२७६ में गुर्जरसाम्राज्य के शासन-संचालन का भार पाकर राणक लवणप्रसाद और युवराज वीरधवल योग्य मंत्रियों की शोध में अधिक चिंतित तो थे ही । वस्तुपाल, तेजपाल इन पदों के लिये उनको सर्व प्रकार से योग्य प्रतीत हुये । राजगुरु सोमेश्वर की भी यही इच्छा थी कि उक्त दोनों भ्राताओं के हाथों में गुर्जरभूमि का शासनसूत्र समर्पित किया जाय । राजगुरु सोमेश्वर के प्रयत्नों से वि० सं० १२७६ में एक दिन दोनों भ्राता राजसभा में निमंत्रित किये गये । राणक लवणप्रसाद ने दोनों भ्राताओं से अमात्यपद तथा दंडनायकपदों को स्वीकृत करने के लिये कहा३ । इस पर चतुर नीतिज्ञ वस्तुपाल ने कहा-'राजन् ! चापलूश एवं चाटुकारों की सदा राजा और महाराजाओं के यहाँ पटती आई है । अगर आप यह वचन देते हैं कि हमारे विरोध एवं हमारी निंदाओं में कही गई झूठी चर्चाओं की ओर कान और ध्यान नहीं देंगे तथा अगर कुपित होकर कभी हमको राज्यपदों से अलग भी करेंगे तो जो तीन लक्ष १-'प्राग्वाटवंश .............."तत्रायात तेजःपालमंत्रिणा सह सौहार्दमुत्पेदे ।' प्र०चि०१८३) पृ०६८ (कु० प्रबंध) २-'देव्यानिवेदितौ मंत्रिपुङ्गवौ यो भवतपुरः। राजव्यापारधीरेयौ न्यायशास्त्रविचक्षणौ ॥२८॥ द्वासप्ततिकलादक्षौ, सर्वदर्शनवत्सलौ । जिनेन्द्रधर्मधौरेयौ, पुरुषोत्तमसचिभौ ॥२६।। शत्रुजयोज्जयंतादौ, यात्रा कृत्वाऽत्र साम्प्रतम् । राजसेवार्थमायातौ पुरा तौ मिलितौ मम ॥३०॥" 'ततो नृपयुगादेशं, समासाद्य पुगेधसा । तयो समीपमानीतौ तौ विनीतौ सुसंवृतौ ॥३२ व० च० प्रस्ताव प्र०पृ०७ 'अथान्यदा श्रीवीरधवलदेवेन निजव्यापारभारायाभ्यर्थ्यमानःप्राक-स्वसौधे तं सपत्नीकं भोजयित्वा श्रीअनुपमा राजपल्यै श्रीजयतलदेव्यै निज कपूरमयताडङ्कयुग्मं करमयो मुक्ताफलस्वर्णमयमणिश्रेणिभिरंतरिताभिनिष्पन्नमेकावलीहारं प्राभृतीचकार । मंत्रिणः प्राभृतमुपढौकित निषिध्य निजमेवं व्यापार समर्पयन्, 'यत्तवेदानी वर्त्तमानं वित्तं तत्ते कुपितोऽपि प्रतीतिपूर्व पुनरेवाददामीति' अक्षरपत्रान्तरस्थबन्धपूर्वकं श्री तेजःपालाय व्यापारसम्बन्धिनं पञ्चाङ्गप्रसादं ददौ ।' प्राच०१८५) पृ०६८-६९ (व० ते० प्रबंध१०) ३-'भूमिभतुरथ कर्तुमिच्छतस्तस्य सत्पुरुषसंग्रहं श्रिये । एकदा हृदयमागताविमौ दीप्तशीतकिरणाविवाम्बरम् ॥५१॥' 'पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनाहत्य सहजानरीनिर्जित्य श्रीपतिचरितमाश्रित्य च यदि । समुर्दतु' धात्रीमभिलषसि तस्यैष शिरसा धुतो देवादेशः सटमपरथा स्वस्ति भवते ॥७७।। सचिववचनमेतच्चेतसा सोत्सवेन क्षितितलतिलकोयं कृत्स्नमाकर्ण्य सम्यक । भकृतकनकमुद्राकान्तिकिजल्कसान्द्रं करसरसिजयुग्मं मंत्रियुग्मस्य तस्य ॥७८।' की० कौ० सर्ग०३ पृ० २८ 'इमौ ग्रन्थान्धिमन्थानौ पन्थानौ श्रीसमागमे । तुभ्यं समर्यपिष्यामि मंत्रिणौ तौ तु मित्रयोः ॥५७॥ सु० सं० सर्ग०३ पृ०२६ 'विद्येते हृद्यविद्यौ तदनु तदनुजौ धीनिधिवस्तुपालस्तेजःपालब तेजस्तरणितरुणिमस्फुतिरोचिष्णुमृत्तीं। श्रीमन्नेतौ निजश्रीकरणपदकृतव्याप्ती प्रीतियोगात्तुभ्यं दास्यामि विश्वं जयतु नवनवं धाम तन्मन्त्रमित्रम् ॥५०॥ ह०म० म० परि० प्र० पृ०६३ (व० ते. प्र.) 'तदिम मौलिषु मौलि कुरुषे पुरुषेशः सकलसचिवानाम् । क्षितिधवः तत्तव दोष्णोविष्णोरिव भवति विश्रामः||११||' है० म०म० परि० प्र० त० ८३ (सु० की०क०) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरात :: L.११० द्रव्य हमारे पास इस समय है, उसके साथ हमको हमारे परिवार के सहित मुक्त करेंगे तो हम दोनों भाई इस असमय में मातृभूमि गुर्जरदेश की सेवा करने को तैयार हैं।" राणक लवणप्रसाद एवं युवराज वीरधवल ने वस्तुपाल को उसकी प्रार्थना के अनुसार वचन प्रदान किया और सोमेश्वर ने मध्यस्थ का स्थान ग्रहण करते हुये अन्त में अपने को इस कार्य में साक्षी रूप स्वीकार किया । फलतः वस्तुपाल ने महामात्यपद तथा तेजपाल ने दण्डनायकपद स्वीकृत किया । सम्राट् भीमदेव द्वि० की भी वस्तुपाल तेजपाल की नियुक्ति के उपर सम्मति एवं श्रज्ञा प्राप्त कर ली गई थी । १ इस प्रकार वीरहृदय एवं नीतिनिपुण वस्तुपाल की महामात्यपद पर और रणकुशल महाबली तेजपाल की महाबलाधिकारी दंडनायक के पद पर वि० सं० १२७६ से नियुक्तियाँ हुई |२ ‘१ – इमौ ग्रन्थाब्धिमन्थानौ पन्थानौ श्री समागमे । तुभ्यं समर्पयिष्यामि मन्त्रिणौ तौ तु मित्रयोः ॥५७॥ सु० सं० सर्ग० तु० पृ०२६. ' इत्युक्त्वा मुदिते वीरधवलेऽसौ घराघवः । श्राहूय तौ स्वयं प्राह नमन्मौली सहोदरौ ॥ ५८ ॥ 'युवा नरेन्द्र व्यापारपारावारे कपारगौ । कुरुता मन्त्रिता वीरधवलस्य मदाकृतेः ॥५६॥ स्वप्न स्त्री एवं पुरुषों को आते हैं, इससे तो कोई इन्कार नही कर सकता। ऐसी भी अधिकतम मान्यता है और वह अधिकतम सच्ची भी है कि जैसा चिन्तन होता है, स्वप्न भी वैसा ही न्यूनाधिक मिलता हुआ होता है। और यह भी सत्य है कि प्राचीन लोगों का स्वप्न को सा मानने का स्वभाव था । कोई इसको उपहास्य समझता है तो वह विचारहीन ही नहीं, शिथिल - जीवन है । उत्कृष्ट चिन्तनशील अवस्था में जो भी स्वप्न श्रायगा, उसमें उपस्थित समस्या का उपयुक्त हल होगा । ऐसी अनेक नहीं सहस्रों कथा, कहानियें, वार्त्तायें भारतीय प्राचीन वाङ्गमय में संग्रहित हैं । उपरोक्त मान्यताओं को दृष्टि में रखकर हम यहां भी विचार कर सकते हैं कि लवणप्रसाद या वीरधवल, जिनके ऊपर समस्त गुर्जरभूमि के उद्धार का भार था और वह भी ऐसे असमय में पड़ा जबकि सामन्त, मोडलिक, ठक्कुर स्वच्छन्द और स्वतन्त्र हो चुके थे, गूजरभूमि लूट-खसोट, चौरी, डकैती, अन्याय, अत्याचारों का प्रमुख स्थल बॅन चुकी थी, वस्तुपाल, तेजपाल को गुर्जर महाराज्य के प्रमुख सचिव बनाने का कैसे विचार नहीं करते, जबकि दोनों भ्राता उद्भट वीर योद्धा, नीतिनिपुण, न्वायशील, धर्मिष्ट, बुद्धिमान्, प्रतिभासम्पन और अनेक गुणों के भण्डार और रूपवान् थे । विशेषता इन सबके ऊपर जो थी, वह यह कि वे उस कुल में उत्पन्न हुये थे, जिस कुल ने गत चार पीढियों में गुर्जरसम्राटों की भारी सेवायें करके कीर्त्ति प्राप्त की थी और अब भी जो गुर्जर भूमि के प्रसिद्धकुलों में गिना जाता था । भीमदेव द्वि०, राणक लवणप्रसाद तथा वीरधवल भी जिससे अधिकतम परिचित थे । भला ऐसे परिचित, प्रसिद्ध एवं पीढ़ियों के सेवक कुल में उत्पन्च नरवीरों की सेवाओं को कौन समय में प्राप्त करना नहीं चाहता है ? परिणाम यह हुआ कि स्वप्न हुआ और उसमें कुलदेवी ने दर्शन दिये। प्राचीन समयों में, जब रण, संपामों की ही युग में प्रधानता थी कुलदेवी की अधिकतम पूजा और मान्यता होती थी; अतः अगर स्वप्न में कुलदेवी ने दर्शन देकर वस्तुपाल तेजपाल को मंत्री - पदों पर आरूढ करने का आदेश दिया हो तो कोई मिथ्या कल्पना या झूठ नहीं । की० कौ० सर्ग० २ श्लोक ८३-१०७ । व० च० प्रस्ताव प्र० श्लोक ५३-२०० । प्र० को ० प्र० २४ पृ० १०१ की० कौ० के कर्ता राक लवणप्रसाद को स्वप्न हुआ कहते हैं और व० च के कर्त्ता वीरधवल को स्वप्न हुआ वर्णन करते हैं । जहाँ तक स्वप्न का प्रश्न है, दोनों स्वप्न के होने का वर्णन करते हैं । की ० कौ० सर्ग० ३ श्लोक ५३-७६ । न० ना० नं० सर्ग० १६ श्लोक ३५ । च० वि० सर्ग० ३ श्लोक ६६-८२ । सु० सं० सर्ग ० ३ श्लोक ५७-६० । है० म० म० परि०० पृ० ८६ श्लोक ११६-११८ (सु० कौ० क०) २-‘श्रीशारदा प्रतिपचापत्येन महामात्य श्री वस्तुपालेन तथा अनुजेन (वि) सं० (१२) ७६ वर्ष पूर्वं गुर्जर मण्डले घवलक्कप्रमुखनगरेषु ।' प्रा० जै० ले० सं० मा० २ ले० ३८-४३ ( गिरनार - प्रशस्ति) मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [ द्वितीय धवल्लकपुर में अभिनव राजतन्त्र की स्थापना जब से सम्राट भीमदेव द्वि० ने महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद और युवराज वीरधवल के कन्धों पर गुर्जरसाम्राज्य का भार रक्खा, तब से ही दोनों पिता-पुत्र गुर्जरभूमि में फैली हुई अराजकता का अन्त करने, निरंकुश हुये सामन्त एवं माण्डलिकों को वश करने की चिंताओं में ही डुवे रहने लगे। पत्तन में राजकर्मचारी आये दिन नित नवीन षड़यन्त्र, विश्वासघात के कार्य और मनमानी कर रहे थे। अन्त में दोनों पिता-पुत्रों ने सम्राट भीमदेव की सम्मति से पत्तन से दूर धवल्लकपुर में नवीन राजतन्त्र की स्थापना करने का दृढ़ निश्चय किया और अभिनव राजतन्त्र की शीघ्रतर स्थापना करने का प्रयत्न करने लगे। राजगुरु सोमेश्वर ने तथा धवल्लकपुर के नगरसेठ यशोराज ने इस नव कार्य में पूरा २ सहयोग देने का वचन दिया। दोनों पिता-पुत्रों ने अपने विश्वासपात्र सामन्त एवं सेवकों का संगठन किया और धवल्लकपुर में जाकर रहने लगे। जैसा लिखा जा चुका है, दोनों मंत्री भ्राताओं की जब महामात्यपद और दंडनायक पदों पर नियुक्ति हो गई. अभिनव राजतन्त्र के संचालन करने के लिये समिति का निर्माणकार्य पूर्ण-सा हो गया। दोनों मन्त्री भ्राताओं के सामने गर्जरसाम्राज्य के शासनकार्य के अतिरिक्त गुर्जरभूमि में फैली अराजकता का अन्त करने का कार्य प्रथम आवश्यक था । महामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद, युवराज वीरधवल और राजगुरु सोमेश्वर, नगरसेठ यशोराज आदि ने एकत्रित होकर नवराजतंत्र का निम्न प्रकार का कार्य-क्रम निश्चित किया । १-युवराज वीरधवल को 'राणा' पद से सुशोभित करना । २-सर्व प्रथम स्वार्थी एवं स्वामीविरोधी ग्रामपतियों को वश करना तत्पश्चात् निरंकुश जीर्णाधिकारियों को दण्डित करके तथा नव राजकर्मचारियों की नियुक्तियाँ करके शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करना और राजकोष को समृद्ध बनाकर शासन-व्यवस्था का सुचारुरूप से संचालन करना । ___ ३–स्वतन्त्र बने हुए अभिमानी ठक्कुर, सामन्त, माण्डलिकों को क्रमशः अधीन करना और सर्वत्र गुर्जरभूमि में पुनः सम्राट भीमदेव द्वि० की प्रभुता प्रसारित करनी । ४-मालवा, देवगिरि एवं दिल्लीपति यवन-शासकों की बढ़ी हुई राज्य एवं साम्राज्य-लिप्सा का ग्रास बनती हुई गुर्जरभूमि की रक्षा के निमित्त सबल सैन्य का निर्माण करना । ५-पड़ोसी मरुदेश के छोटे बड़े राजाओं, सामन्तों एवं माण्डलिकों, ठक्कुरों को पुनः मित्र अथवा अधीन करना। महामात्य वस्तुपाल ने अभिनव राजतन्त्र के कार्यक्रम के अनुसार कदम बढ़ाने के पूर्व सम्राट भीमदेव को उक्त कार्यक्रम से परिचित करवा कर उनका अनुमोदन प्राप्त कर लिया, जिससे सम्राट के समक्ष धूर्ती, चालाकों एवं राजद्रोही, चाटुकारों की युक्तियाँ सफल नहीं हो सके । सम्राट का अनुमोदन प्राप्त हो जाने पर महामात्य वस्तुपाल ने ऊपरलिखित व्यक्तियों की एक समरसमिति का निर्माण किया । उक्त समिति में वह ही व्यक्ति, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मंत्री भ्राताओं का अमात्य-कार्य :: [११६ सामन्त, ठक्कुर, राजकर्मचारी सम्मिलित किया जा सकता था, जो अनेक अवसरों पर सच्चा बीर, सच्चा देशभक्त और नवराजतन्त्र का समर्थक सिद्ध होता था। अभिनव राजतन्त्र का अधिष्ठाता और प्रमुख पद्यपि महामण्डलेश्वर और राणक वीरधवल थे; परन्तु उसका संचालक वस्तुतः महामात्य वस्तुपाल ही था। महामात्य वस्तुपाल सब में बढ़कर धीर, उदात्त, चतुर, नीतिज्ञ था । देशभक्त एवं देश की रक्षा पर प्राणों की सच्ची बाजी लगाने वाले सुपुत्र कभी मानापमान का विचार तनिक भी नहीं करते, वरन् वे तो योग्यतम को अपना पथदर्शक एवं अगुवा अथवा नेता बनाकर अपना इष्ट साधने में जुट जाते हैं। विषाक्त वातावरण से पूर्ण गूर्जरभूमि की राजधानी पत्तन से दूर एक माण्डलिक राजा की धवल्लकपुर नामक राजधानी में गुर्जरभूमि की पुनः समृद्धि लौटाने के लिए अभिनव राजतन्त्र की स्थापना हुई और अभिनव राजतन्त्र के समर्थक एवं पोषक मन्त्री, दंडनायक, राजकर्मचारियों ने तथा विश्वासपात्र ठक्कुर, सामन्तों ने उस समय महामात्य वस्तुपाल का नेतृत्व स्वीकार करके गूर्जरभूमि में राजकता स्थापित करने में, साम्राज्य को समृद्ध बनाने में, विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त करने में वस्तुतः जो अपना तन, मन, धन का प्राणप्रण से योग दिया, वे वस्तुतः धन्यवाद के ही नहीं प्रलयकाल तक के लिये स्मरणीय एवं प्रशंसनीय महान विभूतयाँ हैं ।१ मंत्री भ्राताओं का अमात्य-कार्य सर्वप्रथम वस्तुपाल ने राज्य की शासन-व्यवस्था की ओर ध्यान दिया । ऐसे जीर्णाधिकारी तथा ग्रामपतिर जो कई वर्षों से राज्यकर भी राजकोष में नहीं भेज रहे थे तथा अपनी मनमानी कर प्रजा को अनेक प्रकार से तंग . करके अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे थे वे या तो निकाल दिये गये या बड़ी २ सजायें महामात्य का प्राथमिक कार्य _देकर उनका दमन किया गया। इस प्रकार राज्यकोष में कई वर्षों का कर और दंड रूप में प्राप्त धन की अपार राशि एकत्रित हो गई और वह तुरन्त ही समृद्ध बन गया। दंडनायक तेजपाल ने इस . धनराशि का उपयोग सैन्य की वृद्धि करने में, उसको समर्थ और सुसज्जित बनाने में किया। शीघ्र ही एक सबल और . ?-'It was harrassed by enemies without and within, Gujrat had triumphed by the valour of Veer Dhawala, the loyalty of Lawan prasad, and the statesmanship of Vastupal and the wise Somesvara had succeeded beyond his dreams.' Of them four, Vastupala was the greatest. Under his careful ministry Gujrat became rich. G.G. Part 1|| P.217.218 २-ध्यात्वेति सचिवो ज्येष्ठो दुष्टं,जीर्णाधिकारिणम् | लम्चाप्रपत्रितश्रीकं कसेंजपगणाधिपम् ।।१५।। दण्डयित्वा बृहद्रम्मशतानामेकविंशतिम् । विनवं ग्राहयामास कुशिष्यमिव सद्गुरुः॥१६॥ तन्ययेनाकरोत्सारभटाप्यादिवलं कियत् ।" ............||१७॥ ततब सैन्यसामर्थ्याद्धनमन्यायकारिण।। अमोचयदयं ग्रामपामण्याश्चिरसंचितम् ॥१EI १००वि०प्र०पू०१५ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय मुयोग्य गूर्जर-सैन्य तैयार हो गया। खम्भात की स्थिति इस समय बहुत ही खराब हो रही थी। वस्तुपाल खम्भात में शान्ति और व्यवस्था स्थापन करने के लिये तुरन्त ही रवाना हो गया । तेजपाल और महाराणक वीर धवल सौराष्ट्र-विजय को निकले। महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद धवल्लकपुर में ही रहकर यादवगिरि के राजा सिंगण और मालवपति देवपाल की गूर्जरभूमि पर आक्रमण करने की हलचल को देखने लगे। सौराष्ट्र के सामन्त, ठक्कुर गूर्जरसम्राट् की इस विषम परिस्थिति का लाभ उठाकर स्वतन्त्र हो गये थे और लूट-पाट करते ग्रामीण जनों को दुःख देते तथा यात्रियों को अनेक यातनायें पहुंचाते थे । बड़े २ जैन तथा वैष्णव सौराष्ट्र-विजय का उद्देश्य तीर्थ गुजरात में अधिकतर सौराष्ट्रप्रान्त में ही आये हुये हैं। शत्रुजय, गिरनार, तारंग और अराजकता का अंत गिरि आदि । इन तीर्थों के दर्शनार्थ यात्रियों का जाना-बाना बंद-सा हो गया । धर्मिष्ठ एवं प्रजावत्सल मंत्रीभ्राताओं को यह एकदम असह्य हो उठा। सौराष्ट्र पर आक्रमण करने का एक विचार यह भी था कि सौराष्ट्र के सामन्त कितने ही धनी एवं बली क्यों नहीं हो गये हों, फिर भी गूर्जरसम्राट की सेनाओं के मागे टिकने की न ही तो उनमें शक्ति ही थी और न ही इतना साहस । भीमदेव की निर्बलता और प्रमाद के कारण इनको मनमानी करने का अवसर मिल गया था । अतः वीरधवल और मन्त्रीभ्राताओं ने सौराष्ट्रविजय को प्रथम आवश्यक समझा और यह भी समझा कि इस विजय से धनी बने हुये सामन्त और ठक्कुरों के दमन से अनन्त धन हाथ लगेगा जो गुर्जरसैन्य के बढ़ाने और उसको सबल बनाने में बड़ा लाभदायक होगा । दंडनायक तेजपाल ने प्रथम सौराष्ट्र के छोटे २ ठक्कुरों को कुचलना प्रारम्भ किया और उनसे लूट का धन तथा खिरणी (खंडणी) प्राप्त करता हुआ वह वर्धमानपुर पहुँचा । वर्धमानपुर के गोहिलवंशी ठक्कुर अत्यन्त बली एवं बढ़े हुये थे। तेजपाल की शिक्षित एवं समृद्ध सैन्य के समक्ष वे नहीं टिक सके और उन्होंने भी खिरणी में अनन्त धनराशि देकर वीरधवल को अपना स्वामी स्वीकार किया । यहाँ से तेजपाल ने वामनस्थली की ओर प्रयाण किया । मार्ग में आते हुये ग्रामों के ठक्कुरों को कुचलता हुआ तथा खिरणी प्राप्त करता हुआ वह वामनस्थली के समीप पहुँचा । वीरधवल एवं तेजपाल ने प्रथम एक दूत भेजकर वामनस्थली के सामन्त सांगण और चामुण्ड को, जो वीरधवल के साले थे समझाना चाहा; परन्तु प्रयत्न निष्फल गया। वीरधवल की राणी स्वयं जयतलदेवी जो सांगण एवं चामुण्ड की सहोदरा थी, अपने भ्राताओं को समझाने के लिये गई; परन्तु उसको भी अपमानिता १-'न्यायं निवेशयन्नुा निर्व्याजः स्वजनः सताम् । स्तम्भतीर्थ जगाम श्रीवस्तुपालो विलोकितुम् ॥३॥ की कौ० सर्ग० ४ पृ० २८ 'अथ श्री वस्तुपालः शुभेमुहूर्त स्तम्भतीर्थ गतः।' प्र० वस्तुपाल प्रबन्धः १२७ । पृ०१०८ २-'एवं कोशबलोपेतं, निर्माय नृपति निजम् । तीर्थाना स्वहं मार्ग', कर्नु कामोऽब्रवीदयम् ॥३४॥ . महाराज ! सुराष्ट्रासु, राष्ट्रषु द्विष्टचेतसः। भूभृतः सन्ति पापिष्ठा, द्रव्यकोटिमदोद्धताः ॥३५।।' व० च० द्वि० प्रस्ताव पृ०१६ 'इत्यादि ध्यात्वा वस्त्राणि परावृत्त्य श्रीवस्तुपाल: सपरिजनो बुभुजे । गृहीतताम्बूलो राजकुलमगमत् । एवं दिनसप्तके गते, प्रथमतद्राज्यजीर्णाधिकारी एक एकविंशतिलक्षाणि बृहद्रम्माणां दण्डितः। पूर्वमधिनीतोऽभूत् । तदनु] विनयं ग्राहितः । तैर्द्रव्यैः कियदपि हयपत्तिलक्षणं सारं सैन्यं कृतम् । तेजपालेन पश्चात्सैन्य बलेन धवलकप्रतिबद्धग्रामपञ्चशतीग्रामण्यश्चिरसञ्चितं धनं हक्यैव दंडिताः, वीर्णब्यापारिणो निश्चयोतिताः । एवं मिलितं प्रभूतं खम् । ततः स्वबलसैन्यसंग्रहपटुतेजसं श्रीवीरधवलं सहेवादाय सर्वत्र देशमध्यऽभ्रमन् मन्त्री । अदण्डयत् सर्वम् । ततोऽद्भुतर्द्धिवीरधवलस्तेजःपालेन जगदे-देव ! सुराष्ट्रगष्ट्रऽत्यन्तधनिनःठक्कुरास्ते दण्ड्यन्ते । ततोऽचलदयम् ।' प्र० को० वस्तुपालप्रबन्ध पृ०१०३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली मूर्जर-मंत्री वश और मंत्री भ्राताओं का अमात्य-कार्य :: [१२१ होकर लौटना पड़ा। विवश होकर वीरधवल एवं तेजपाल को उनके साथ रण में उतरना पड़ा। सांगण एवं चामुण्ड दोनों भ्राता रण में मारे गये १ । तेजपाल की सैन्य ने वामनस्थली में प्रवेश किया। दण्डनायक तेजपाल के हाथ सांगण और चामुण्ड के पूर्वजों द्वारा संचित अगणित तोला सुवर्ण, चाँदी, मौक्तिक, माणिक,रत्न लगे । चौदह सौ दिव्य एवं पाँच सहस्र अतिवेगवान घोड़े भी प्राप्त हुये२ । उन्होंने सांगण के पुत्र को वामनस्थली का राजा बनाया और प्रति वर्ष खिरणी भेजने का उससे प्रतिबंध स्वीकृत कराया। वामनस्थली में हेमकुम्भांकित चैत्य विनिर्मित करवाया तथा मन्त्री तेजपाल ने भगवान महावीर की मूर्ति उस चैत्य में प्रतिष्ठित की३ । वीरधवल और तेजपाल ने गिरनारतीर्थ के दर्शन करने की अभिलाषा से प्रेरित होकर धवल्लकपुर जाने के लिये गिरनार और द्वारिका होकर जाने का निश्चय किया। मार्ग में वाजा, नगजेन्द्र, चूड़ासमा, वालाक आदि स्थानों के ठक्करों से खंडणी५ प्राप्त की, गिरनारतीर्थ के दर्शन किये, भगवान् नेमिनाथ एवं भुवनेश्वर की प्रतिमाओं का पूजन किया और व्यय के निमित्त एक ग्राम भेट किया । इस प्रकार विजय और तीर्थ-दर्शनानन्द का लाभ प्राप्त करते हुये दोनों राजा और मन्त्री धवल्लकपुर लौट आये । धवल्लकपुर में इनका प्रवेश भारी महोत्सव के साथ हुआ और प्रतिदिन उत्सवमहोत्सव होने लगे। . सौराष्ट्रकी विजय-यात्रा में वीरधवल और तेजपाल को इतना धन-द्रव्य प्राप्त हुआ कि धवल्लकपुर का राज्यकोष आशातीत समृद्ध हो गया, सैन्य अगणित एवं सज्ज हो गया। सौराष्ट्र में सर्वत्र शान्ति प्रसारित होगई । 'अथ वर्धमानपुर-गोहिलवाट्यादिप्रभून् दण्डयन्तौ प्रभु-मन्त्रिणौ वामनस्थली आगताम्"""""""जयतलदेवी मध्ये प्राहेषीत् ।...." भगिनीवचः श्रुत्वा मदाध्माती पोचतुः,..." "मा स्म चिन्ता कृथाः। श्रमु' त्वत्पति हत्वापि ते चारु गृहान्तर करिष्यावः' । प्र० को० व० प्र०१२२) पृ०१०३-१०४ रासमाला (गुजराती) भाग २ पृ०.४३१ 'महाराज! सुराष्ट्रास, राष्ट्रसु द्विष्टचेतसः। भूभृतः सन्ति पापिष्ठा, द्रव्यकोटिमदोद्धतां ॥३५॥ 'मानेन वर्धमानाङ्ग, वर्धमानपुराधिपम् । गोहिलावलिभूपश्चि, राजान्वयभुवस्तथा ॥३८॥ 'बलेन करदीकृत्य, मोचयित्वा महद्धनम् । जगाम वामनस्थल्या, कर्षन् शल्यानि शोभितः ॥३॥ व० च० वि० प्र० पृ०१६ 'मा स्म चिन्ता कृथा भद्रे, हत्वामु त्वत्पतिं युधि । करिष्यावस्तव प्रौढ़, नव्यं भव्य ग्रहान्तरम् ॥६॥ . व० च०वि०प्र० पृ०१७ रासमाला (गुजराती) भा०२ पृ० ४३३ १-'सबन्धु साङ्गणं हत्वा.......||१५|| २-...........""दशकोटिमितं हेम, प्रेमभिन्नृपतिर्ललो ॥२२॥ _.. 'पूर्वजैः सञ्चिताने का, मणिमाणिक्यमण्डलीः। दिन्यान्यस्त्राणि, स्थूलमुक्ताफलावलिः ॥२॥ ___ 'चतुर्दशशतान्युच्चैः श्रवःसोदरतेजसाम् । तथा पञ्चसहस्राणा, सामान्यानां च वाजिनाम् ॥२४॥ ३-'चैत्यं तस्मिन् विर्निमाय, हेमकुभांकितं नवम् । बिबं वीरजिनेन्द्रस्यातिष्ठियत्सचिवः पुनः॥२६॥ ४-'तदासनतमं श्रुत्वा, विश्वत्रितयविश्रुतम् । गिरनारमहातीर्थ, भवकोटिरजोऽपहम् ॥२७॥ ..............."स ययौ मन्त्रिणा समम् ॥२८॥ ५-ततः श्री नेमिमभ्यर्च्य, भक्तितो भुवनेश्वरम् .........." 'ग्राममेकं ददौ दाये, देवपूजाकृते कृती। अगाच्च मंत्रिणा सार्क, नृदेवो देवरत्तनम् ॥४१॥ 'कुर्वन् मानगजेन्द्रादीन्, भूमिपालान्निरंकुशान् । स्वस्य देयकरान् प्रापत् , कौतुकी द्वीपपत्तने ॥४४॥ व. च० द्वि०प्र०पृ०१८-१९ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] . :: प्राग्वाट-इतिहास:,.. .. [द्वितीय लूटपाट बंद हो गई और यात्रीजन सुखपूर्वक यात्रायें करने लगे। इस विजययात्रा से वीरधवल की ख्याति और यश तो बढ़ा ही, परन्तु सर्वत्र गुजरात के लुटेरे, ठक्कुर एवं निरंकुश हुये सामन्तों पर मन्त्रीभ्राताओं की भी धाक बैठ गई और शान्ति स्थापना का कार्य अत्यन्त सरल हो गया या यह कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कि अतिरिक्त दो-चार सामन्तों के राज्यों के सर्वत्र गूर्जर-साम्राज्य में इस विजययात्रा के अन्त के साथ लूट-पाट और अत्याचार का एक प्रकार से अन्त हो गया । सर्वत्र उत्सव, महोत्सव होने लगे। खम्भात के शासक के रूप में महामात्य वस्तुपाल और लाट के राजा शंख के साथ वस्तुपाल का युद्ध तथा खंभात में महामात्य के अनेक सार्वजनिक सर्वहितकारी कार्य शान्ति एवं शासन-व्यवस्था स्थापित करके, वीरधवल एवं तेजपाल की सौराष्ट्र के लिये विजययात्रा का समृद्ध एवं सबल प्रबन्ध करके, मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद को धवलकपुर-राज्य में रहने की सम्मति देकर तथा मालवनरेश देवपाल और यादवगिरि के राजा सिंघण के निकट भविष्य में गूर्जरभूमि पर होने वाले आक्रमणों की तैयारी को विफल करने का अपने अतिकुशल एवं विश्वासपात्र गुप्तचरों को कार्य सम्भला कर, डाक का अत्यन्त सुन्दर प्रबन्ध कर महामात्य वस्तुपाल वि० सं० १२७७ (सन् १२२०) के प्रारम्भ में खम्भात का शासन सम्भालने के लिये रवाना हया। खम्भात पर राणक वीरधवल का अधिकार हये अधिक समय नहीं हया था। जब लाट का राजा शंख जिसको संग्रामसिंह और सिंधुराजभू भी कहते हैं१, यादवगिरि के राजा सिंघण से परास्त होकर यादवगिरि की कारा में बंद थां, राणक वीरधवल ने इस अवसर का लाभ उठाकर खम्भात पर आक्रमण करके उसको विजय कर लिया था। वैसे भी खम्भात सदा से गूर्जरसम्राटों के अधिकार में ही रहा है, परन्तु भीमदेव द्वि० की निर्बलता के कारण लाट के शासकों ने खम्भात पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। महामात्य वस्तुपाल का खम्भात नगर में प्रवेश प्रजा ने बड़े धूमधाम से करवाया२ । लाट के शासकों के कुछ हिमायती अब भी खम्भात में उपस्थित थे, नौवित्तक सदीक उनमें प्रमुख था। शंख भी यादवगिरि के सिंघण की कारागार से मुक्त होकर लाट में आ चुका था। नौवित्तक सदीक अति धनी एवं ऐश्वर्यशाली था । वह शंख का उसके यहाँ नौकर, चाकर अश्वारोही भारी संख्या में रहते थे। दूर २ देशों में जहाजों द्वारा वह व्यापार १-ख्यातः संग्रामसिंहो वा शलो वा सिंधूराजभः ॥१३॥ H.M.M. app. 11 P.86. (सु० कृ० क०) २-स्तंभतीर्थ जगाम श्रीवस्तुपालो विलोकितुम् ॥३॥ की कौ० स०४ पृ० २८ की० कौ० सर्ग० ४ श्लोक १० से ४१ में पुर-प्रवेशोत्सव का वर्णन भी अच्छे रूप से दिया गया है। -But he acquired influence over the Yadava king; a treaty was signed between the two and Devpala, and Sankha was restored to his kingdom. G. G. Part III P. 214 ४-'तेन (शंखेन) माणितं मंत्रिणे मंत्रिन् ! मदीयमेकं नौवित्तक न सहसे । मदीयं मित्रमसौ ज्ञेयः। प्र० को० व० प्र०१२७) पृ०१०८-१०६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मंत्री भ्राताओं का अमात्य कार्य :: [१२३ करता था। सदीक महाधूर्त एवं कुटिलप्रकृति था । खम्भात की समस्त जनता के दुःख और कष्ट का एकमात्र कारण सदीक था। चतुर एवं नीतिज्ञ महामात्य वस्तुपाल ने सदीक को छेड़ने से प्रथम ठीक यही समझा कि खम्भात की जनता को प्रथम आकृष्ट किया जाय । अयाचारी राजकर्मचारियों को दण्ड दिया, साधु एवं सज्जनों को दुःख देने वाले दुष्टों का दमन किया, व्यभिचारियों को कड़ी यातनाएँ दीं, वेश्याओं को अपमानित कर वेश्यापन का अन्त किया। महामात्य के इन कार्यों से सन्त एवं सज्जन सन्तुष्ट होकर उसका गुणगान करने लगे, दुष्ट, लम्पट एवं चौर सब छिप गये । व्यापारीजन अन्य देशों से जब लौट कर आते थे तथा भारतवर्ष से अन्य देशों में व्यापारार्थ जाते थे, अपने साथ दास क्रीत करके लाते और ले जाते थे, महामात्य ने इस अमानुषिक दासक्रय-विक्रयता का भी अन्त कर दिया। चारों वर्ण एवं सर्वधर्मानुयायी के यहाँ तक की मुसलमान तक महामात्य के गुणों की प्रशंसा करने लगे । कुछ दिनों में ही खम्भात कुछ का कुछ हो गया । महामात्य ने खुले हाथ दान दिया। नंगों, बुभुक्षितों को वस्त्र-अन्न दिया । सर्वत्र सुख और शान्ति प्रसारित हो गई । अत्याचार, लूट का अन्त हो गया। महामात्य ने अब सदीक से जलमण्डपिका एवं स्थलमण्डपिका कर माँगे। अभिमानी सदीक न जब देने से अस्वीकार किया तो महामात्य ने उसके घर को घेर लिया। इस विग्रह में सदीक के कुछ आदमी मारे गये । महामात्य के हाथ सदीक की अनन्त धनराशि लगी, जिसमें अगणित मौक्तिक, माणिक, हीरे, पन्ने एवं अपार सुवर्ण, चाँदी थी । सदीक भाग कर लाट पहुँचा और अपने मित्र लाटनरेश शंख को खम्भात पर आक्रमण करके उसके हुये अपमान का बदला लेने की प्रार्थना की। शंख जलमार्ग से चढ़कर आया । शंख के साथ में दो सहस्र अश्वारोही और पाँच सहस्र पददल सैनिक थे । उधर वस्तुपाल भी तैयार था । वस्तुपाल की सैन्य में केवल ५० पच्चास अश्वारोही और अड्दाइ सौ पददल सैनिक थे३ । वस्तुपाल के ये रणबाँकुरे सैनिक समस्त दिनभर समुद्रतट के उस भाग पर जो शंख के सैनिकों से भरे जहाजों के ठीक दृष्टि-पथ में था अनेक बार आवागमन करते रहे । सैनिकों के पुनः २ आवागमन से धूल आकाश और दिशाओं में इतनी धनी छा गई कि शत्रु को यह पता नहीं लग सका कि वस्तुपाल के पास कितना सैन्य है । शत्रु ने यही समझा कि वस्तुपाल के पास अपार सैन्य हैं । अतिरिक्त इसके वस्तुपाल ने इस अवसर पर एक चाल और चली थी। वह यह थी कि युद्ध किसी भी प्रकार दिन के पिछले प्रहर में प्रारम्भ हो और ऐसा ही हुआ । वस्तुपाल के सैनिकों ने शंख की सैन्य को समुद्रतट पर अवतरित होने नहीं दिया। दोनों में भीषण रण प्रारम्भ हुआ। १-पु०प्र०सं०व० ते० प्र०१४६) पृ०५६। २-'स जलमार्गेणाचसहस्र २, मनुष्यसहस्र ५ समानीय समुद्रतटे समुत्तीर्णः। प्र०चि० कु० प्र० १८९) पृ० १०२ (वस्तुपाल और शंख के युद्ध का वर्णन समकालीन एवं कुछ वर्षों के पश्चात् हुए कवि एवं ग्रंथकारों के ग्रंथों, प्रशस्तियों में पूरा-पूरा परस्पर मिलता नहीं है। शंख को वस्तुपाल ने दो युद्ध में परास्त किया था और लवणप्रसाद ने शख के साथ संधि द्वितीय युद्ध की समाप्ति पर की थी। कुछ ग्रंथों में दोनों युद्धो का वणेन मिलाकर एक ही युद्ध की घटना बना दी है। सोमेश्वर जैसे महाकवि ने भी एक ही युद्ध के वर्णन में दोनों का वर्णन मिला दिया है। ३-'मंत्री अश्ववार ५० मनुष्यशतद्वयेन बहिर्निर्गतः।" पु०प्र०सं०व० ते०प्र०१४६) पृ०५७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय संध्या का समय आया हुआ जानकर वस्तुपाल के कुछ सैनिक एवं नागरिक लोग अपने दोनों हाथों में दो-दो जलती हुई मशालें लेकर कोलाहल मचाते हुए तथा जय सोमनाथ की बोलते हुये भयंकर वेग से नगर में से दौड़ते हुये बाहर निकले । बस शंख की सैन्य का धैर्य छूट गया। वैसे शंख के सैनिकों में वस्तुपाल की सैन्य अपार है का डर तो छाया हुआ था ही, यह कौतुक देखकर वे भाग खड़े हुए। शंख अपने प्राण लेकर भागा । शंख की भागती हुई सैन्य का वस्तुपाल के सैनिकों ने पीछा किया । जहाजों पर गोले बर्षाये । वस्तुपाल की यह जीत एक अद्भुत ढ़ंग की थी। शंख हारकर तो लौटा, परन्तु खम्भात विजय करने की उसकी अभिलाषा एवं अपमान का प्रतिशोध लेने की इच्छा तीव्रतर हो उठी । द्वितीय युद्ध की तैयारी करने लगा । इधर वस्तुपाल ने अत्याचारी एवं अन्यायी राजकर्मचारियों को दण्डित करके तथा जीर्ण व्यापारियों से जलमण्डपिका एवं स्थलमण्डपिका-करों को उद्ग्रहीत कर अनन्त धन एकत्रित किया, जिससे राजकोष अति समृद्ध हो गया और वह सैन्य को समृद्ध और सशक्त बना सका । इस धन से उसने अनेक सुकृत्य के कार्य करने प्रारम्भ कर दिये । स्थान स्थान पर कुऐं, वापिकायें खुदवाई, प्रपायें लगवाई। चारों वर्णों के लिये ठहरने योग्य धर्मशालायें विनिर्मित करवाई । अ जैन, शैव एवं वैष्णव मन्दिर तथा मस्जिदें बनवाई' । जैन यतियों के लिये उपाश्रय, पौषधशालायें तथा संन्यासियों के लिये मठ, लेखकों के लिये लेखनशालायें बनवाई | खम्भात में ब्रह्मपुरी नाम की एक बसती बसाई तथा अनेक ब्राह्मणों को भूमि दान दी। श्री लक्ष्मीजी और वैद्यनाथ - महादेव के अति सुन्दर विशाल मन्दिर बनवाये । भट्टादित्य-मन्दिर में प्रतिमा की उत्तान पीठिका और मुकुट (स्वर्ण) और भीमेश्वर मन्दिर के शिखर पर स्वर्णकलश और ध्वजादण्ड करवाये । श्री सालिग मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया । जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार में भी पुष्कल द्रव्य व्यय किया । इस प्रकार महामात्य वस्तुपाल ने सर्व धर्मों एवं सर्व वर्ण तथा ज्ञातियों के धर्मों का मान किया । उनसे अपना निकट सम्पर्क स्थापित किया । दीनों, अनाथों, हीनों एवं निर्धनों के लिये भोजनशालायें स्थापित कीं, जहाँ उनको भोजन के अतिरिक्त वस्त्र और विश्राम भी मिलते थे । लेखकों एवं कवियों के लिये पोषण की अति सुन्दर व्यवस्थायें कीं । कुछ ही समय में खम्भात अति समृद्ध नगर गिना जाने लगा । पत्तन एवं धवल्लकपुर से उसकी समता की जाने लगी । खम्भात का व्यापार अति समुन्नत हो गया । खम्भात की शोभा भी कई गुणी हो गई, क्योंकि महामात्य ने अनेक सुन्दर बगीचे, बाग भी लगवाये थे । महामात्य वस्तुपाल ने सर्व वर्ण एवं ज्ञातियों को अपने दिव्य गुणों से मोहित कर लिया और वे पत्तन के सम्राटों के लिए प्राणप्रण से सेवायें करने को तैयार हो गये । इधर खम्भात में ये सुकृत के कार्य किये, उधर धवल्लकपुर में भी उसने खम्भात में प्राप्त हुए अनन्त धन का समुचित भाग भेजकर सैन्य की वृद्धि करने एवं समृद्ध बनाने का कार्य पूर्ण शक्ति से प्रारम्भ करवाया । शंख यद्यपि हारकर तो अवश्य लौटा था, परन्तु उसकी खम्भात जीत लेने की महत्त्वाकांक्षा का अन्त नहीं हो पाया था । अतः खम्भात में भी वस्तुपाल ने अपने सैन्य को अति बढ़ाया और समृद्ध किया । *Sankha suffered defeat. But he returned to Lata only to bide his time. Within a few months a confederate force of the Yadava Singhana, Devapala of Malwa and Sankha was marching on Cambay. G. G. part Ill; P. 217 की० कौ० सर्ग ४ श्लोक १० से. ४१ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खल्ड :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मन्त्री भ्राताओं का अमात्य कार्य :: [१२५ दंडनापक तेजपाल और राणक वीरधवल ज्योंहि सौराष्ट्र-विजय करके लौटे कि उन्होंने गोधा के निरंकुश राजा घोघुल को अधीनता स्वीकार करने के लिए दूत भेजकर कहलाया। घोघुल ने प्रत्युत्तर में अपना एक दूर दंडनायक तेजपाल के हाथों वीरधवल की राजसभा में भेजा। उस समय वस्तुपाल भी धवल्लकपुर में ही गोध्रापति घोघुल की पराजय आया हुआ था। घोघुल के दूत ने राजसभा में एक कंचुकी, एक साड़ी और कज्जल की एक डिब्बिया लाकर वीरधवल के समक्ष रक्खी१ । ठक्कुरों, सामन्तों, मन्त्रीगण घोघुल की इस गर्वपूर्ण धृष्टता पर दाँत काटने लगे। घोघुल शूद्रहृदय तो भले ही था, लेकिन था बड़ा बलवान् । उसके पराक्रमों की कहानी गुजरात में घर-घर कही जाती थी। ऐसे भयंकर शत्रु से लोहा लेने के लिये प्रथम कोई तैयार नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी था कि अभी तक सैन्य इतना समृद्ध और योग्य भी नहीं बन पाया था कि जिसके बल पर ऐसे भयंकर शत्रु से युद्ध किया जाय । निदान दंडनायक तेजपाल ने घोघुल को जीवित पकड़ लाने की उठकर प्रतिज्ञा ली और अपने चुने हुये वीरों को लेकर गोध्रा के प्रति चला । घोघुल यद्यपि अत्याचारी था; परन्तु था गौ और ब्राह्मणों का अनन्य भक्त । तेजपाल जैसा अजय योद्धा था, वैसा बड़ा बुद्धिमान् भी था। उसने एक चाल चली। दंडनायक तेजपाल ने गोध्रा की समीपवर्ती भूमि में पहुँच कर अपने कुछ सैनिकों को तो इधर-उधर छिपा दिया और कुछ साथ लेकर गोध्रा नगर के समीप पहुँचा। संध्या का समय था । गौपालकगण गौओं को जंगल में से नगर की ओर ले जा रहे थे । तेजपाल और उसके सैनिकों ने गोध्रा के गौपालकों को घेर लिया और उनकी गौओं को छीन कर हाँक ले चले । घोघुल ने जब यह सुना तो एक दम आगबबूला हो गया और चट घोड़े पर चढ़ कर लूटेरों के पीछे भागा। उधर तेजपाल और उसके सैनिक गौओं को लेकर उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ तेजपाल ने अपने सैनिक छिपा रक्खे थे । घोघुल भी पीछा करता हुआ वहाँ पहुँच गया । घोघुल को तेजपाल के छिपे हुये सैनिकों ने चारों ओर से निकल कर घेर लिया तथा घोघुल के साथ ही जो कुछ सैनिक चढ़कर आये थे, उनको तेजपाल के सैनिकों ने प्रथम मार गिराया। अन्त में घोघुल भी भयंकर रण करता हुआ पकड़ा गया । तेजपाल ने गौओं को तो छोड़ दिया और घोघुल को कैद कर और वे ही स्त्री के कपड़े पहनाकर जो उसने वीरधवल के लिये भेजे थे धवलकपुर की ओर ले चला। धवल्लकपुर पहुँच कर घोघुल ने आत्म-हत्या कर ली। इस प्रकार इस भयंकर शत्रु का भी दंडनायक तेजपाल के हाथों अन्त हुआ। वि० सं० १२७७ में लाटनरेश शंख, देवगिरिनरेश सिंघण एवं मालवनरेश में शंख की यादवगिरि की कारागार से मुक्ति के समय सन्धि हो चुकी थी कि खम्भात पर जब लाटनरेश शंख आक्रमण करे, तब एक ओर से मालवनरेश मालवा. देवगिरि और लाट और दूसरी ओर से यादवनरेश भी आक्रमण करें और इस प्रकार लाटनरेश की खम्भात के नरेशों का संघ और लाट- को पुनःप्राप्त करने में दोनों मित्रनरेश सहायता करें । तदनुसार उत्तर और पूर्व से मालवनरेश शंख की पूर्ण पराजय नरेश की चतुरंगिनी सैन्य ने एवं दक्षिणपूर्व से यादवनरेश की अजय सैन्य ने सं० १२७७ के अन्तिम महिनों में लाटनरेश को खम्भात के आक्रमण में सहायता देने के लिए प्रस्थान किया । गूर्जरभूमि पर इस आई हुई महाविपत्ति को देखकर तथा इस असमय का लाभ उठाने की दृष्टि से मरुदेश के चार सामन्त राजा, जिनकी १-प्र० को० व०प्र०१२६) पृ०१०७ २-व० च०प्र०३ प०३४ श्लोक ६८ से १०३६ श्लोक ३५ तक Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय लावण्यप्रसाद से शत्रुता थी और जो बाघेलाशाखा की उन्नति नहीं चाहते थे, जिनमें चन्द्रावती के परमार, नाडौल के चौहान, गौडवाड़ का चौहान राजा धांधल तथा जालोर के राजा थे। ये लावण्यप्रसाद पर एक ओर से आक्रमण करने को रवाना हुये । गोध्रानरेश घोघुल भी इसी प्रतीक्षा में था कि सिंघण और मालवपति के आक्रमणों के समय वह भी वीरधवल पर एक ओर से आक्रमण करेगा; लेकिन वह तो कुछ ही समय पूर्व दंडनायक तेजपाल के हाथों कैद होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। गूर्जरनिवासी मातृभूमि पर चारों ओर से होते हुए आक्रमण देखकर घबड़ा उठे। सर्वत्र गुजरात में खलबली मच गई। यादवनरेश सिंघण के नाममात्र से गूर्जरनिवासी लतावत काँपते थे, क्योंकि सिंघण शत्रुजनता के साथ दुर्व्यवहार करने में सर्वत्र विश्रुत था । दूरदर्शी, महान् नीतिज्ञ वस्तुपाल से परन्तु यह सब कुछ अज्ञात नहीं था। मित्र राजाओं के सम्मिलित रूप से होने वाले आक्रमण को विफल कर के लिये उसने बहुत पहिले से ही सफल प्रयत्न करने प्रारम्भ कर दिये थे । आप स्वयं खम्भात में रहा । मरुधरदेश से आने वाले चार राजाओं की प्रगति रोकने के लिए राणक वीरधवल को प्रबल सैन्य के साथ जाने की अनुमति दी । महामण्डलेश्वर राणक लावण्यप्रसाद एवं तेजपाल को यादवगिरि के नरेश सिंघण को तापती के तट से आगे बढ़ने से रोकने के लिए अति बलशाली सैन्य को साथ लेकर जाने को कहा। लाटनरेश शंख ने१-२ भरौच (भृगुकच्छ) से महामात्य वस्तुपाल के पास अपना एक दूत भेजा और यह सन्देश कहलाया कि अगर महामात्य खम्भात शंख को दे देगा तो शंख भी महामात्य को ही खम्भात का मुख्याधिकारी बनाये रक्खेगा। ऐसा करने में ही महामात्य का हित है, कारण कि राणक वीरधवल चारों ओर से दुश्मनों से घिर चुका है और उसकी जय होना असम्भव है । ऐसी स्थिति में महामात्य को अपने प्राण संकट में नहीं डालना चाहिए। वैसे महामात्य ज्ञाति से महाजन है और रण में उतरना वैश्यों का कर्म भी नहीं है कि जिससे लज्ज भावे । महामात्य वस्तुपाल ने यह विरोचित उत्तर देकर दूत को विदा किया कि मैं रणक्षेत्र रूपी हाट पर बैठकर शत्रों के मस्तिष्क रूपी द्रव्य को तलवार रूपी तराज में तोलकर स्वर्गगति रूपी मूल्य देकर मोल लेने वाला योद्धा रूपी बणिया हूँ ।३ महामात्य का यह उत्तर सुनकर शंख आगबबूला हो गया और दो सहस्र अश्वारोही एवं दश सहस्र पददल सैनिक लेकर खम्भात के समुद्र तट के सन्निकट आ पहुँचा४ । उधर महामात्य वस्तुपाल भी सर्व प्रकार से तैयार था। धवलकपुर से भी पर्याप्त सैन्य आ चुका था और खम्भात के सैन्य को भी पर्याप्त बढ़ा लिया था । की० कौ० सर्ग ४ श्लोक ४२, ४७, ५०, ५५, ५७ १-'अद्य वीरधवलः सबलोऽपि त्वत्प्रभु सुबहुभिर्मरुभूपैः । वेष्ठितः खरममरीचिवान्दै श्यतेऽपि न जयः क नु तस्य ॥२४॥ २-'एकतस्त्रिदशमूर्तिभिरणोराजसूनुभिरुपेत्य बिलग्नः। मालवक्षितिधरं बत मध्ये कृत्य कृत्यविदुषाऽन्यत एव' ॥२॥ 'श्रीभटेन बलिनकतभेनोल्लोडिताद्यदिह विग्रहवाइँः। कालकूट मुदगाद्यदुसैन्यं तंन्यवर्त्तयदयं ननु भीमः' ॥३०॥ ३-दूत रे ! वणिगह रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलया कल यामि । मौलिभाण्डपटलानि रिपूणा स्वर्गवेतनमथो वितरामि' ॥४४॥ व०वि० सर्ग ५ पृ०२२-२३ ४-अश्वसहस्र २, मनुष्यसहस्र १० दक्षकेन समाययौ । ५-धवलकाद्भरि सैन्यमानाय्याभ्यषेणयत् । प्र० को १२७) पृ०१०८ पु०प्र० सं०१४६) पृ०५६ की कौ०, सु०सं०, न० ना० न०,ह० म०म० श्रादि ग्रन्थों के समकालीन ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में समान घटना का अथवा छोटी-बड़ी घटनाओं का अलग-अलग या विस्तृत वर्णन नहीं दिया है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और मन्त्री भ्रताओं का अमात्य-कार्य :: [१२७ इस संकट के समय गुप्तचरों ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया। मालवनरेश और सिंघण की बढ़ती हुई गति को गुप्तचरों ने भेदनीति चलाकर शिथिल कर दिया । फलतः वे निश्चित समय तक खम्भात तक पहुँचने में असफल रहे । परिणाम यह रहा कि लाटनरेश शंख को अकेला युद्ध में उतरना पड़ा । यद्यपि इस युद्ध में महामात्य वस्तुपाल के भुवनपाल, वीरम, चाचिंगदेव, सोमसिंह, विजय, भोमसिंह, भुवनसिंह, विक्रमसिंह, अभ्युदयसिंह (हृदयसिंह), कुन्तसिंह जैसे महापराक्रमी वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुये, परन्तु शंख का सैन्य गूर्जरसैन्यों की वीरता के समक्ष अधिक नहीं ठहर सका और भाग खड़ा हुआ ।१ महामात्य वस्तुपाल और शंख में चार दिन तक भयंकर रण हुआ और अन्त में शंख परास्त हुआ ।२ शंख अपने प्राण लेकर भाग गया । शंख को परास्त हुआ सुनकर मालवनरेश और सिंघण की सेनायें पुनः अपने २ राज्यों को लौट गई। महामण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद वीरधवल की सहायतार्थ पहुँचा । मरुदेश के राजागणों ने जब शंख की पराजय, सिंघण एवं मालवनरेशों की लौटे हुये सुना तथा महामण्डलेश्वर लावएयप्रसाद को भी वीरधवल की सहायतार्थ आया हुआ सुना तो वे संधि करने को तैयार हो गये । मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद ने उनसे संधि कर ली और उन्होंने गूर्जरसम्राटों के सामन्त बनकर रहना स्वीकार कर लिया । आगे चलकर ये चारों मरुदेश के राजा गूर्जरसम्राटों के अति स्वामीभक्त एवं असमय में प्राणों पर खेलकर सहायता करने वाले सिद्ध हुये । लावण्यप्रसाद मरुराजाओं से संधि कर खम्भात पहुँचा और पराजित हुये लाटनरेश शंख से सन्धि कर धवल्लकपुर में लौट आया । राणक वीरधवल और दण्डनायक तेजपाल उससे पूर्व धवलल्लकपुर में पहुँच चुके थे। ____ महामात्य वस्तुपाल भी अब खम्भात से धवल्लकपुर आने की तैयारी कर रहा था। सर्वत्र गूर्जरभूमि में ही नहीं, दूर-दूर तक अन्य प्रान्तों एवं राज्यों में वस्तुपाल की कुशल नीति एवं तेजपाल की वीरता की प्रसिद्धि फैल गई थी। एक वर्ष के अति अल्प समय में ही इन दोनों कुशल भ्राताओं ने गूर्जरसाम्राज्य में शान्ति स्थापित कर दी। वाह्य शत्रुओं का भय भी कुछ काल के लिये नष्ट हो गया । गूर्जरसैन्य को अजय एवं असंख्य बना दिया । गूर्जरसम्राट भीमदेव द्वितीय की शोभा एक बार पुनः पूर्ववत् स्थापित हो गई। गूर्जरभूमि एक बार पुनः सुख और शान्ति का अनुभव करने लगी। की० कौ० सर्ग ५ श्लोक ४८ से६६ 'Vastupala and Tajahpala's son Lavanyasimba stood the ground. In the meantime Singhana and Devapala fell out and withdrew. Vastupala making prudence the better part of valour, entered into a treaty with Sankha.' G.G. Part lll P. 217. २-'एवं दिन ३,चतुर्थदिने प्रहरेक समये मन्त्रिणा पाश्चात्यस्थेन जानुना लत्तादानात् शङ्खः पातितः । तत्कालं शिरश्छेदमकरोत् । पु० प्र० सं १४६) पृ०५६ व० वि के कर्ता शंख का भागना तथा की० कौ० में मोमेश्वर महाकवि शंख के साथ संधि करने का वर्णन करते हैं । पु० प्र०सं० के इस निबंध के कर्ता ने शंख का शिरोच्छेद किया गया का वर्णन कर अतिशयोक्ति की है ऐसा प्रतीत होता है। सोमेश्वर तथा बालचन्द्रसरि महामात्य के समकालीन थे; अतः उनका कथन अधिक मान्य है।। 'श्रीवस्तुपालसचिवादचिरात्प्रणष्टः शंखस्तथा पथि विशृङ्खलवाहवेगः। तत्पृष्ठयातभयभङ्गरचित्तवृत्तिःश्वास यथा भृगुपुरे गत एव भेजे ॥१०॥ व०वि० सर्ग०६पृ०२८ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ । :: प्राग्वाट-इतिहास : [द्वितीय — महामात्य खम्भात से रवाना हुआ । उसके साथ में अनन्त धनराशि से भरे ऊँट, घोड़े और शकट थे, जिनमें अपार सोना और चाँदी, असंख्य मौक्तिक, माणिक, हीरे, पन्ने थे। तेजतुरी नाम की एक स्वर्ण-धूल से भरी अनेक धवलकर में महामात्य बैल-गाड़ियाँ थीं। यह धूल और अधिकांश धन नौवित्तिक सदीक के यहाँ से प्राप्त का प्रवेशोत्सव किया हुआ था । धवल्लकपुर के आबालवृद्ध नर और नारी तथा स्वयं राणक वीरधवल, महामण्डलेश्वर राणक लावण्यप्रसाद तथा दंडनायक तेजपाल, महाकवि राजगुरु सोमेश्वर तथा अन्य सर्व प्रतिष्ठित पुरुषों ने महामात्य का नगर-प्रवेश बड़ी धूमधाम और सजधज से करवाया । राणक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद ने अति प्रसन्न होकर महामात्य को पंचांगप्रसाद तथा तीन उपाधियाँ प्रदान की-सदीकवंशसंहारी, शंखमानविमर्दन, वराहावतार तथा स्वर्ण-धूल तेजतुरी और अन्य बहुमूल्य मौक्तिक, माणिक पारितोपिक रूप में प्रदान किये । शेष द्रव्य राज्यभण्डार में रक्खा गया। धवल्लकपुर में कुछ दिनों तक ठहर कर महामात्य पुनः अपने वीरों सहित खम्भात पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने पहले वेलाकूलप्रदेश के (चंदर) राजाओं के शत्रुओं का दमन किया और शान्ति स्थापित कर वेलाकूलप्रदेश जना में गूर्जरसम्राट् की सत्ता स्थापित की। खंभात में गुरु नरचन्द्रसूरि के सदपदेश से दानकलप्रदेश के शत्रों का शालार्य स्थापित की। भृगुकच्छ में कैलाशपर्वत की समता करने वाले एक अति दमन तथा खम्भात में अनेक विशाल प्राचीन जिनमन्दिर में सुव्रतस्वामी की धातुप्रतिमा विराजमान की और मंदिर का धर्मकृत्यों का करना* जीर्णोद्धार करवाया। मन्दिर के द्वार को तोरण से मंडित करवाया, दो सत्रागारों से उसको युक्त किया, परिकोष्ट बनवाया और उसमें वापी, कूप और प्रपा करवाई, बीस जिनेश्वरों की प्रतिमायें स्थापित की। अतिरिक्त इनके चार जिनमन्दिर और बनवाये, जिनमें शकुनिविहार-चैत्य अधिक प्रसिद्ध है। उनमें तीर्थङ्करों की धातु प्रतिमायें स्थापित की, देवकुलिकायें बनवाई । उनको स्वर्ण-कलश एवं ध्वजादण्डों से सुशोभित किया । अपने पूर्वजों के अभिकल्याणार्थ नर्मदा नदी के तट (रेवापगातट) पर पाँच लाख, शुक्लतीर्थ पर दो लाख का दान-पुण्य किया । ब्राह्मण वेदपाठकों के लिए तथा अन्य जनों के लिये सत्रागार बनवाये । भृगुकच्छ में महामात्य ने कुल दो करोड़ रुपये धर्मार्थ व्यय किये । राज्य-व्यवस्था सुदृढ़ की और धवल्लकपुर लौट आया। सिद्धाचलादितीर्थों की प्रथम संघ-यात्रा और महामात्य की अमूल्य तीर्थ-सेवायें वि० सं० १२७७ एक दिन महामात्य वस्तुपाल प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर दर्पण के आगे खड़ा होकर वस्त्र धारण कर रहा था कि शिर में एक श्वेत बाल देखकर उसने लम्बी श्वांस खींची और विचारने लगा कि अभी तक न ही तो _ मैंने तीर्थयात्रायें ही की हैं और न ही भव-बन्धन को काटने वाला कोई प्रखर पुण्य ही संघयात्रा का विचार किया है और यमराज का सन्देश तो यह आ पहुंचा है। ऐसा सोचकर वह उपाश्रय प्र०को०व०प्र०१२७) पृ०१०६ । पु०प्र०संवन्ते० प्र०१४६) पृ०५६।१२० च० प्र०४ श्लोक ४५ से ७० पृ० ५८, ५६ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और. श्री सिद्धाचलादि तीर्थों की प्रथम संघयात्रा । । १२६ में पहुँचा । साथ में दंडनायक तेजपाल भी था। दोनों प्राता सविनय, सविधि, सादर गुरुवन्दन करके मनधारी गुरुनरचन्द्रसरि के आगे बैठे और महामात्य वस्तुपाल ने अपने विचार प्रदर्शित किये कि भगवन् ! ऐसा मार्ग बताइये कि जिससे मैं पुण्योपार्जन कर सद्गति प्राप्त कर सकूँ । श्रीमद् नरचन्द्रसरि ने अपने व्याख्यान में सम्यक्त्व तथा सिद्धाचलजी की यात्रा का माहात्म्य समझाया । महामात्य वस्तुपाल एवं दंडनायक तेजपाल दोनों भ्राताओं ने बहु व्यय करके अपूर्व संघभक्ति की तथाः सधार्मिक वात्सल्य एवं उद्यापन करवाया और सिद्धगिरि की संघयात्रा करने का संकल्प कर श्रीमद् नरचन्द्रसूरि गुरु से संघ के अधिनायक श्राचार्य बनने की प्रार्थना की । परन्तु नरचन्द्रमरि ने यह कह कर अस्वीकार किया कि तुम्हारे मलधारीगच्छ के प्राचार्य मातृपक्ष से गुरु हैं और पितृपक्ष से गुरु नागेन्द्रगच्छ के आचार्य हैं । नागेन्द्रगच्छीय विजयसेनमरि मरुप्रदेश में विचरण कर रहे हैं। उनको ही बुलाना चाहिए, ऐसा करना ही मर्यादासंगत है। महामात्य वस्तुपाल ने यह प्रथम चतुर्विध संघयात्रा सं० १२७७ में निकाली । इस संघयात्रा के अधिनायक आचार्य कुलगुरु नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसरि अपने अनेक शिष्यों के साथ थे। अन्य कई विश्रुत आचार्य, साधु एवं साध्वी भी इस संघयात्रा में सम्मिलित हुये थे, जिनमें अति प्रसिद्ध आचार्य मलधारीगच्छीय नरचन्द्रसूरि, वायटगच्छीय जिनदत्तसूरि, संडेरकगच्छीय शान्तिसूरि, गल्लक-कुलीय कर्द्धमानसूरि थे । संघपति स्वयं वस्तुपाल था । दंडनायक तेजपाल साम्राज्य का संचालन करने के लिये धवल्लकपुर में ही रहा । लाट, खम्भात, पत्तन, कच्छ, मरुदेश, मेदपाट आदि अनेक प्रान्त, नगरों एवं प्रदेशों से आकर स्त्री-पुरुष इस संघ-यात्रा में सम्मिलित हुए थे। 'रलदपेण सहकान्त .............................."ए पलितमालोan ....... ............."एक पलितमालोक्य,...................॥२३॥ 'इत्यालोचे : स्वयं चित्ते, संवेगरसपूरितः। धर्मकार्योद्यमं सम्यग ,कर्तु कामो विशेषतः॥१४॥ ... 'आगम्य धर्मशालाया, ततोऽसौ बन्धुभिः समम् । ववन्दे भक्तिरंगेण, नरचन्द्रगुरोः पदौ ॥१५॥ व० च० प्र०५ पृ० ६२ 'श्रुत्वैवं सद्गुरोर्वाचः। सम्यक्तत्त्वसुधामुचः। "वात्सल्यमुच्चेविदधे विधिज्ञः' ॥६५, ६८॥ व० च० प्र०५ पृ०६६ 'श्रीनागेन्द्रगणाधीशा, विजयसेनसरयः कुलक्रमागताः सन्ति, गुरवो वो गुणज्ज्वला ॥४॥ 'गुरवस्तव मंत्रीश मातृपक्षगताः पुनः । मलधारिंगणाचारधुरंधर पुरस्कृताः' ।।५।। 'पाहूय बहुमानेन ततस्तानमुनिपुङ्गवान् ॥८॥ बच० प्र०६ पृ०८० ..."""वयं ते मातपक्षे गुरवः, न पितृपक्ष । पितृपक्षे तु" "विजयसेनसरयः "पिलूआइदेशे (जिस देश में पीलू अधिक होते हैं, वह देश अर्थात् मरुप्रदेश) वर्तन्ते । ते वासनिक्षेपं कुर्वन्तु न वयम् ।। प्र० को०२४ व०प्र०१३६)पृ०११३ 'एकाङ्गिमेकं सुरमुत्तरन्तं दिवो ददर्शाऽतिशयैः स्फुरन्तम् । मण्डलाधिपतिभिश्चतुभिरावासितं नृपनिदेशितैरिह' ॥२४॥ 'लाटगौडमरुडाहलावन्तिबङ्गविषयाः समन्ततः। तत्र संघपतयः समायुयुस्तोयधाविव समस्तसिन्धवः ॥२५॥ 'संघराट् बलभिपत्तनावनीमण्डलेऽतिसुरमण्डलेश्वरः। उत्प्रयाणकमचीकरत् कृती संघलोकसुखदप्रयाणकः' ॥४२॥ 'अङ्गलीकिसलयाप्रसंज्ञया दर्शितो (विमलगिरि) विजयसेनसरिभिः ॥४३॥ व०वि० स०१० 'महामात्य! १२७६ एष संवत्सरोऽतिनीतः (Ps तीवः)। समयवशेन वर्ष २८ श्रीशत्रुम्जय-गिरिनारयोर्वम केनापि न वाहितम् । [Ps मन्त्रीपदं विना मण्डली वार मेकं गतः नापरः। तत्र यात्रार्थे यतनीयमिति' । पृ०५८ 'अथ चलितः सुशकुनः संघः। मार्गे सप्तक्षेत्राण्युद्धरन् श्रीवर्धमानपुरासचमावासितः। तदा "बहुजममाभ्यः श्रीमान् रखनामा श्रावको वसति । तद्गेहे दक्षिणावर्चः शंखः पूज्यते । प्र० को० पृ०११४ 'प्र०को में वर्णित संघयात्रा 'व०च' में वर्णित संघयात्रा से वर्णित वस्तु में अधिक अंशों में मिलती है। 'अथ सं०१२७७.वर्षे सरस्वतीकण्ठाभरण-लघुभोजराज-महाकवि महामात्यश्रीवस्तुपालेन महायात्रा प्रारंभ। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] : प्राग्वाट-इतिहास :: . द्वितीय चार मण्डलेश्वर राजा भी संघ की रक्षार्थ महाराणक वीरधवल की आज्ञा से इस संघ में सम्मिलित हुये थे। इस संघ-यात्रा का वैभव दर्शनीय था। ___ नागेन्द्रगच्छीय विजयसेनसरि संघाधिष्ठाता थे । संघपति महामात्य वस्तुपाल था। महामात्य ने स्वविनिर्मित शत्रुजयावतार नामक मन्दिर में संगीत, नृत्य करवाया और महापूजा करवाई, संघवात्सल्य किया । तत्पश्चात संघ का वैभव तथा उसका शुभमुहूर्त में धवलकपुर से सङ्घ का प्रस्थान हुआ । सङ्घ-रचना इस प्रकार थीप्रयाण महासामन्त ४, वीर अश्वारोही ४००० (१०००), रणवीर ३६०, प्रसिद्ध हाथी ८, हाथीदाँत के बने हुये रथ २४, तेज चलने वाली बैलगाड़ियाँ १८००, छत्रधारी संघपति ४, श्रीकरण १६००, लाल साँदनियाँ ___७००, सहजगाड़ियाँ १८००, पालखियाँ ५००, तपस्वीजन - १२०० (२२००), दिगम्बर साधु ११०० (३००), श्वेताम्बर साधु २१००, आचार्य ३३० (३३३,७००), मागध ३००, शिविरमन्दिर (तम्बुओं में जिनालय), .. शिविरगृह ७०००, सतोरण मन्दिर ७००, लघुमन्दिर अगणित, हाड़ियाँ ५००, कुदालियाँ ५००, बैलगाड़ियाँ ४००० (५५००), भट्ट ३३००, जैनगायक ४५० (४८४), श्रावकजन ७०००० (१०००००) ____ संघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, चारण, मागध, बंदीजन, अंगरक्षक, अश्वारोही आदि सर्वजनों की संख्या एक लक्ष के लगभग थी। संघपति महामात्य वस्तुपाल ज्योंहि देवालय के प्रस्थान का शुभमुहूर्त करने लगा कि दाहिनी दिशा से दुर्गादेवी का स्वर सुनाई पड़ा। मरुप्रदेश के निवासी एक वयोवृद्ध ने बतलाया कि यह दुर्गा १२॥ हाथ ऊँची दीवार पर बैठकर स्वर कर रही है, जिसका अर्थ यह होता है कि महामात्य वस्तुपाल १२॥ संघयात्रायें अपने जीवन में 'श्रथ स मरुवृद्धो 'देवी भवतः सार्द्धत्रयोदशसंख्या यात्रा अभिहितवती । 'संघरक्षाधिकारिणञ्चत्वारो महासामन्ता'। प्र.चि. च० प्र०१८७) पृ०१०० 'संवत्सरोऽस्ति मन्त्रीन्द्र, सप्ताश्वरवि (१२७७) संमिता ॥२६॥ प्र०५पृ०७४ .........."विजयसेनसरयः । कुलक्रमागताः संति गुरवो वो गुणोज्ज्वला ॥४॥.८० 'तथा विधियता तीर्थयात्रा पात्रार्थसाधनम् । भवद्भिनिंजसाम्राज्य-सौराज्यस्थितिसचिनी' ३॥ प्र०.६ ०८२ 'सोमसिंहादयः प्रौढा-श्चत्वारस्तत्र भूभुजः। नियुक्ताः संघरक्षायै, सचिवाभ्या सहाचलन्। . श्लोक ६ प्र०६ पृ० ८३ ..........""कमेणापतुर्वर्द्धमाननाममहापुरे॥४८॥ प्र०६ १०८४ व० च० ..........."अस्ति रत्नाभिधः श्रेष्ठी...... |५|| 'तस्यागारे .. .......||५३।। 'शंखोऽस्ति दक्षिणावर्तः............ ||५४॥ व० च०प्र०६ पृ०८४ 'एवं चलति देवालये दक्षिणदिग्भागे दुर्गा जाता। तत्रैको मारव......"देव'... "भवतामित्थं ॥१२॥ 'यात्रा भविष्यन्ति [Ps एषा प्रथमा तासा मध्ये'।] . पु०प्र०सं०व० ते०प्र० पृ०५६ रचनाशैली, कथावस्तु आदि कतिपय विषयों में कीर्तिकौमुदी, सुकृतसंकीर्तन, वसंतविलास महाकाव्य परस्पर अत्यधिक मिलते हैं । सर्गों के नाम तो तीनों में प्रायः कम से मिलते हुए हैं । शंखयुद्धवर्णन के पश्चात् तीनों काव्यों में यात्रावर्णन आता है और वह वर्णन भी एक ही संघयात्रा का प्रत्येक ग्रन्थ में है। तीनों ग्रन्थों में तो संघयात्रा का वर्णन मिलता हुआ है ही अतिरिक्त इसके Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और श्री सिद्धाचलादि तीर्थों की प्रथम संघयात्रा :: [१३१ करेंगे । (प्रबन्धचिंतामणि के कर्ता १३॥ संघयात्रायें करने की बात कहते हैं ) यह पूछने पर कि अर्थ यात्रा से क्या अर्थ है, उसने बतलाने से अस्वीकार किया । महामात्य ने संघ के साथ आगे प्रयाण किया। संघ की शोभा अवर्णनीय थी। मार्ग में थोड़े २ अन्तर पर विश्राम, जलपान की व्यवस्था होती थी। पथ में आते हुये नगर, ग्राम, पुरों के निवासियों का प्रेम और श्रद्धापूर्ण सत्कार-संमान, धर्मोल्लास, पतित और अधर्मी पुरुषों को भी सज्जन बनाने वाला था। आगे आगे सतोरण देवालयों की स्वर्ण कलशावली और ध्वजादण्डपंक्ति, श्रृंगारित सुखासन, बैलगाड़ियाँ, सहस्रों सुसज्जित संघरक्षक अश्वारोहियों का दल, छत्रधारी संघपतिगण, सुन्दर रथों में बैठी हुई देवबालायें जैसी मंगल गीत गाती हुई स्त्रियें, शान्त, दान्त, उद्भट विद्वान् आचार्यगण, परमतपस्वी साधुगण, गायक, नर्तक, मागध, चारण, बंदीजनों का कीर्तिकलरव, वाद्यंत्रियों का मधुररव-यह सर्व अद्भुत प्रदर्शन महामात्य वस्तुपाल की महान् धर्मभावनाओं का मूर्तरूप था। प्रातः और सायंकाल गुरुवंदन, देवदर्शन, धर्मोपदेश के कार्य तथा सर्वत्र संघ में स्थल-स्थल पर दान-पुण्य के कृत्य होते थे। रात्रिभोजन कभी भी नहीं होता था। इस प्रकार मार्ग में पड़ने वाले सात क्षेत्रों का उद्धार करता हुआ, नगर, ग्रामों के मन्दिरों में पूजा, नवप्रतिमायें प्रतिष्ठित करता हुआ, ध्वजा-दण्ड-कलशादि चढ़ाता हुआ तथा विविध प्रकार के अन्य सुकृत करता हुआ यह चतुर्विध संघ वल्लभीपुर पहुँचा । वल्लभीपुर में महाधनी एवं पुण्यात्मा श्रावक रत्नश्रेष्ठि ने संघ का अति स्वागत किया और प्रीतिभोज दिया तथा संघपति महामात्य वस्तुपाल को दक्षिणावर्त्त नामक सर्वसिद्धिकारक शंख अर्पित किया। महामात्य ने अति संकोच के साथ यह कल्पवृक्ष समान मनःकामना पूर्ण करने वाला शंख स्वीकृत किया । संघ यहाँ से आगे बढ़ा और शनैः शनैः पादलितपुर में पहुंचा और उस क्षेत्र में जहाँ आज महामात्य वस्तुपाल उपरोक्त ग्रन्थों में आये हुये वर्णनों में भी प्रमुख विषय जैसे पुरुषों के नाम, समय, विशिष्ठ उल्लेख, कार्य प्रादि परस्पर मिलते हुए होने से यह मानना अधिक समीचीन होगा कि इन ग्रन्थों में भी वस्तुपाल की प्रथम संघयात्रा का ही वर्णन है, जो उसने सं०१२७७ में की थी। 'अथानुचेलनरचन्द्रसरयो लसत्त्रसस्तोमविलोकनच्छलात्।१०।। अथाचलन् वायटगच्छवत्सलाः कलास्पदं श्रीजिनदत्तसूरयः ।११।। प्रचालि सण्डेरकगच्छरिभिः प्रशान्तसूरैरथ शांतिरिभिः ॥१२॥ स वर्द्धमानाभिधसूरिशेखरस्ततोऽचलद्गलकलोकभास्करः ॥१३॥ सु० सं० स० ५ पृ० ३८, ३६ 'श्रीवीरधवलतेजःपालाभिधसचिवमध्यगः सचिवः । त्रिपुरुषरीतिस्थापितहर इव हरति स्म तत्र मनः ॥११॥ सु०सं० स०११०८५ उक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि महामात्य वस्तुपाल का शुभागमन-उत्सव राणक वीरधवल तथा तेजपाल ने सोत्साह किया था अर्थात् तेजपाल इस संघयात्रा में नहीं जाकर धवलकपुर में ही रहा था। 'वस्तुपाल सचिवेन्द्रशासनं तेजपालसचिवः समाददे ॥१॥ 'तीर्थवन्दनकृते ततः कृती तेजभालमयमात्मनोऽनुजम् । तं च वीरधवलं क्षितीन्द्रमापृच्छय संघपतिरुच्चचाल सः ||३१|| व०वि० स०१०१०५०-५१ इतना सिद्ध कर लेने पर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उक्त ग्रन्थ प्रथम संघयात्रा से कुछ या अधिक वर्षों पश्चात् लिखे गये थे और पश्चात्वर्ती संघयात्राओं का वर्णन कुछ अंशों में इस प्रथम संघयात्रा के वर्णन में यत्र-तत्र समाविष्ट हो गया है, जिसको अलगअलग संघयात्राओं के अनुसार अलग करना महा कठिन कर्म है। ..वच० प्रचि०१८७) पृ०१००। (अ) प्र० को० पृ० ११४ । (ब) व० च० प्र० ६ श्लोक ५१-५४ पृ०८४ । (स) की० को० स० ६ पृ० ६१-६२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '११२। प्राग्वाट-इतिहास : [द्वितीय द्वारा विनिर्मित महावीर-चैत्यालय से सुशोभित ललित-सरोवर बना हुआ है पड़ाव डाला । कपर्दियक्ष को सर्वप्रथम नमस्कार कर संघपति पवित्र शत्रुजयगिरि पर चढ़ा और परम श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दोनों कर जोड़ कर आदिनाथमन्दिर में पहुँचा। वंदन, कीर्तन के पश्चात् महामात्य ने सविधि प्रभुप्रतिमा का प्रक्षालन, अर्चन, पूजन किया और उसी प्रकार समस्त संघ ने प्रभु-पूजा की। महामात्य वस्तुपाल ने शत्रुञ्जयगिरि पर अनेक धर्मकृत्य करने की प्रतिज्ञा ली तथा अनेक धर्मस्थान समय २ पर बनवाये जो समय पाकर पूर्ण होते गये । उनमें प्रसिद्ध कृत्य इस प्रकार हैं: १ मुख्य मन्दिर श्री आदिनाथ-चैत्यालय में स्वर्णकलश तथा तोरण चढ़ाये । २ दो प्रौढ़ जिनमूर्तियाँ स्थापित की तथा ३ मन्दिर के आगे इन्द्रमण्डप की रचना करवाई और नंदीश्वरद्वीपावतार नामक प्रासाद बनवाया। ४ सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की। ५ सात पूर्वजों की मूर्तियाँ स्थापित की। ६ महाराणक वीरधवल तथा महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद की गजारूढ़ दो मूर्तियाँ बनवाई तथा चौकी में आराधक७ ज्येष्ठ भ्राता लूणिग, मल्लदेव की प्रतिमायें बनवाई। र सात गुरुओं की सात मत्तियाँ प्रतिष्पित करवाई। ह सात बहिनों के श्रेयार्थ सात देवकुलिकायें विनिर्मित करवाई। १० शकुनिकाविहार और सत्यपुरावतार मन्दिरों का निर्माण करवाया और उनके आगे चाँदी के तोरण बनवाये। ११ संघ के योग्य कई उपाश्रय बनवाये । १२ श्री मोढेरावतार श्री महावीर चैत्य विनिर्मित करवाया और उसमें १३ श्री महावीर भगवान के यक्ष की प्रतिमा विराजित की तथा १४ देवकुलिकायें बनवाई और १५ मण्डप के दोनों ओर दो-दो चौकी की पंक्ति बनवाई । १६ प्रतोली (पोली), १७ अनुपमा-सरोवर । १८ कपर्दियक्ष-मण्डपतोरण आदि करवाये। १६ कुमारपालविहार में ध्वजादंड तथा स्वर्ण-कलश चढ़ाये । २० पालीताणा में पौषधशाला, एवं प्रपा बनवाई और अनेक धर्मकृत्य किये। की० को० सर्ग०६ श्लोक १ से ३७ . प्र०चि० व० ते०.०१८७) पृ०१०० २०१०प्र०६पृ०६६ श्लोक ३३ से १७ तक पृ०१०१ सु० सं० सर्ग०११ श्लोक १५ मे २८ तक [जैन समाज में किसी भी धर्मकृत्य के करने की प्रतिज्ञा (बोली) श्रीसंघ के समक्ष जयध्वनि के साथ पहिले हो जाती है और कार्य फिर यथावसर होते रहते हैं।] ... 'सु०सं०' में भी उक्त धर्मस्थानों का वर्णन यात्रावर्णन में सम्मिलित नहीं दिया है, वरन् सर्ग ११ में वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित धर्मस्थानों की सूची देते समय (उक्त धर्मस्थानों का उल्लेख) यथास्थान दे दिया है, जिसको देख कर यह निश्चित नहीं किया जा सकता Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ) : मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और श्री सिद्धाचलादि तीर्थो की प्रथम संघयात्रा :: [१३३ एक दिन एक मूर्तिकार संघपति की माता कुमारदेवी की अति सुन्दर मूर्ति बनाकर लाया। महामात्य वस्तुपाल अपनी माता की मूर्ति देखकर रोने लगा और कहने लगा कि आज मेरी माता होती तो वह अपने हाथों से यह सर्व मंगलकार्य करती और संघ की सेवा कर सर्वसंघ की प्रसन्नता एवं मेरे कल्याण का कारण होती, लेकिन कर्मगति विचित्र है। इस पर मलधारी श्रीमद् नरचन्द्रसूरि ने महामात्य को समझाया और आशीर्वाद देते हुये कहा कि पुरुषों के सर्व मनोरथ पूर्ण नहीं होते हैं । संघ अष्टाह्निका-तप करके गिरनारतीर्थ की यात्रा को रवाना हुआ। मार्ग में अनेक नगर, ग्रामों में संघपति महामात्य ने जो सुकृत के कार्य किये, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं जो यथासमय पूर्ण हुए। १ तालध्वजपुर में शिखर पर आदिनाथ-मन्दिर बनवाया । २ मधुमति में जावड़शाह के महावीर-मन्दिर में ध्वज और स्वर्ण-कलश चढ़ाये । ३ अजाहपुर में मन्दिर का जीर्णोद्धार तथा नववाटिका करवाई। ४ कोटीनारीपुर में श्री नेमिनाथमन्दिर में ध्वज और स्वर्ण-कलश चढ़ाये । ५ देवपत्तन में श्री चन्द्रप्रभस्वामी की विशेष धूम-धाम से पूजा की और पौषधशाला पनवाकर उसमें चन्द्र प्रभ स्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित की। ६ सोमनाथपुर में महाराणक वीरधवल के श्रेयार्थ श्री सोमेश्वर महादेव की पूजा की तथा माणक्यखचित मुण्डमाला अर्पित की । सत्रालय, वेदपाठकों के लिये ब्रह्मशाला बनवाई। ७ वामनस्थली में मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया। इस प्रकार संघपति महामात्य वस्तुपाल अनेक धर्मकृत्य करता हुआ जीर्णदुर्ग (जूनागढ़) तीर्थ पहुँचा। . संघपति महामात्य ने उज्जयन्तगिरि की उपत्यका में पहुँच कर तेजपाल के नाम पर बसाये गये तेजलपुर में विश्राम किया। तेजलपुर में श्राशराजविहार और कुमारदेवी-सरोवर की अनुपम शोमा देखकर संघ अति प्रसन्न हुआ। संघपति महामात्य के ठहरने के लिये धवल-गृह नामक एक सुन्दर प्रासाद बनवाया गया था। महामात्य ने देखा कि साधुओं के ठहरने के लिये कोई पौषधशाला नहीं बनी हुई है, शीघ्र एक पौषधशाला बनवाना प्रारम्भ किया जो दो दिनों में बनकर तैयार हो गई। तब तक महामात्य भी साधु गुरुओं के साथ बाहर मैदान में ही ठहर कर तीर्थाराधना करता रहा । पहुँचने के दूसरे दिन प्रातःकाल संघ गिरनारपर्वत पर चढ़ा और नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा का भक्तिभाव से कीर्तन, अर्चन, पूजन किया। है कि अमुक धर्मस्थान कब और कैसे बने। प्र०को० तथा पु०प्र०सं० में भी यात्रा-वर्णन करते समय उक्त धर्मस्थानों के निर्माण की ओर कोई संकेत किया हुआ नहीं मिलता है। वच० में प्र०६ के अन्त में वस्तुपालतेजःपाल द्वारा विनिर्मित तीर्थगत धर्मस्थानों का वर्णन एक साथ कर दिया गया है। 'तदा सूत्रधारेणकेन दारवी कुमारदेव्या मातुतिमहन्तकायनवीनघटिता दृष्टौ कृता । . ."दृष्ट्वा रुदित...। 'यदि तु सा मे माता इदानी स्यात् , तदा स्वहस्तेन मङ्गलानि कुर्वत्यास्तस्या मम च मङ्गलानि कारयतः "लोकस्य कियत्सुखं भवेत् । अष्टाहिकायां गतायां ऋषभदेवं गद्गदोक्त्वा मन्त्री आपृच्छत्-' प्र०को० व. प्र० १३६ पृ०११४-११५ 'एवमष्टदिनी कुर्वचानापूजामहोत्सवान् । 'नवीनघटितां मातुमूति ज्योतिरसाश्मना' ॥६॥ 'वीक्ष्य म्लानमुखाम्मोजो, रुरोद निभृतध्वनि ॥६॥ वच० प्र०६ पृ०६३ की०कौ० सर्ग०६ श्लोक ७० से ७३ से प्रतीत होता है कि गिरनारतीर्थ से लौटते समय ये सुकृत किये गये थे। व०च०प्र०६ श्लोक २० पृ०६५ से श्लोक ५८पृ०६६ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१३४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय __ अतिशय प्रभावना दी,अतिशय दान दिया और अतिशय संघभक्ति की। अंब, अवलोकन, शांब, प्रद्युम्न नामक पर्वतों पर अनेक धार्मिक कृत्य करवाये, धर्मस्थान बनवाये, जो समय पाकर निम्न प्रकार पूर्ण हुयेः १ श्री शत्रुञ्जयमहातीर्थावतार श्री आदितीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवप्रासाद, २ स्तम्भनकपुरावतार श्री पार्श्वनाथदेवचैत्य, ३ सत्यपुरावतार श्री महावीरदेवचैत्य, . ४ प्रशस्तिलेख सहित श्री कश्मीरावतार श्री सरस्वती नामक चार देवकुलिका, ५ अजितनाथ तथा वासुपूज्यस्वामी के दो बिंब, ६ अम्ब, अवलोकन, शांव और प्रद्युम्न शिखरों पर श्री नेमिनाथ भगवान् द्वारा विभूषित चार देवकुलिका, ७ आदिनाथ-चैत्यालय मंडप में अपने पितामह चंडप्रसाद की विशाल प्रतिमा, ८ पितामह सोम और पिता आशराज की दो अश्वारूढ़ मूर्तियाँ, ह तीन मनोहर तोरण, १० अपने पूर्वज, अग्रज, अनुज, पुत्रादियों की मूर्तियाँ, ११ गर्भग्रह के द्वार की दक्षिणोत्तर दिशा में अपनी और तेजपाल की गजारूढ़ दो प्रतिमा, १२ सुखोद्घाटनकस्तम्भ । संघ जीर्णगढ़तीर्थ पर बहुत दिनों तक ठहर कर पुनः प्रभासपत्तन, सोमेश्वरपुर होता हुआ धवलकपुर पहुंचा। महाराणक वीरधवल तथा दण्डनायक तेजपाल ने बृहद् समारोह के साथ संघपति वस्तुपाल का स्वागतोत्सव किया । संघपति ने संघ में आये हुए जनों को विशाल भोज देकर विदा किया। प्रा० ० ले० सं०भा० २ ले०३८से ४३ [गि० प्र०] उक्त प्रशस्तियां यद्यपि वि० सं० १२८८ की हैं । परन्तु जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि जैन समाज में कोई धर्मकृत्य करवाना होता है तो उसकी प्रथम संघ के समक्ष प्रतिज्ञा की जाती है। यह रीति हो जाने के पश्चात् वह धर्मकृत्य किया जाता है। सर्व उपलब्ध ग्रन्थों में महामात्य वस्तुपाल की सिद्धगिरि-संघयात्राओं का वर्णन कथा-रूप से किया गया है। किस संवत् की। संघयात्रा का कौनसा, किस ग्रन्थ में वर्णन है प्रमुखतः वर्णन कई ग्रन्थों में मिलते हुवे होने पर भी निश्चित करना अत्यन्त कठिन है। जैसे 'व०च०' के कर्ता ने संघयात्रा का वर्णन करते हुये वस्तुपाल द्वारा सिद्धगिरि पर विनिर्मित करवाये हुये सर्व ही धर्मस्थानों, मूर्तियों का वर्णन कर दिया है, यद्यपि वे भिन्न-भिन्न संवतों में बनी हैं। 'व०च' में सब ही वर्णन इसी प्रकार के हैं। संघ में संमिलित हुये प्रत्येक जाति के वाहन, श्रावक, साधु, सामंत, सैन्य, रथ, हस्ति, ऊंट, घोड़े आदि की निश्चित संख्या दी है,जो अन्य ग्रन्थों में वर्णित संख्याओं से कहीं मिलती है और कहीं नहीं और किसी में है ही नहीं। प्रतीत ऐसा होता है कि व०च० के कर्ता ने उपलब्ध सर्व ग्रन्थों के आधार पर तथा वस्तुपाल के वंशजों एवं वृद्धजनों के अनुभव और स्मृतियों के आधार पर व०च० की रचना की है। 'संवत्सरोऽस्ति मन्त्रीन्द्र, सप्ताश्वरवि (१२७७) समिते' ॥२६।। प्र० ५ पृ०७४ से सिद्ध है कि यह संघयात्रा सं०१२७७ की है और अन्य बात यह भी है कि 'वच' में केवल एक संघयात्रा का ही वर्णन है। 'व०च.' की रचना 'विक्रमाकोंन्मिते वर्षे, विश्वनंदषिसंख्यया (१४६७) में चित्रकूटपुरे पुण्ये ।।११।। प्र०८१०१३५ तेजपाल की मृत्यु के लगभग ६६ वर्ष पश्चात् ही हुई है, जब कि वस्तुपाल की संघयात्राओं की कथायें घर-घर कही जा रही होंगी । इतिहास-रचना तो पूर्वाचार्यो का कम ही दृष्टिकोण रहा है, अतः आश्चर्य नहीं 'व०च०' में वर्णित संघयात्रा को वस्तुपाल द्वारा की गई सर्व संघयात्राओं की महिमा, विशेषता, शोभा से अलंकृत कर दिया गया हो । 'की० कौ०, व०वि०, प्र०को०, प्र०चि, घ०भ्यु०, सु०सं०, पु०प्र०सं०' इन सर्व यन्थों में वर्णन तो प्रमुख संवत् १२७७ की संघयात्रा को ही लेकर किया गया है, परन्तु यशस्वी नायक के यश का वर्णन करते समय वे एक साथ जितना लिख सके उतना लिख गये प्रतीत होता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपाल : [ १३५ महामात्य वस्तुपाल का राज्यसर्वेश्वरपद से अलंकृत होना .. ___ महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद तथा युवराज वीरधवल दोनों पिता-पुत्र महामात्य वस्तुपालके गुणों से मुग्ध होकर राज्य के सर्वैश्वर्य को महामात्य के करों में वि० सं० १२७७ में अर्पित करके श्राप महामात्य की सम्मति के अनुसार राज्य का चालन करने लगे। वैसे तो वस्तुपाल महामात्य के पद पर वि० सं० १२७६ से ही आरूड़ हो चुका था, परन्तु युवराज वीरधवल की प्रीति से प्राप्त करके समस्त राज्य के सर्वैश्वर्य को प्रदान करने वाला सच्चा महामात्यपद उसने वि० सं० १२७७ में स्वीकृत किया समझना चाहिए। ___ जब राणक वीरधवल और महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद तथा मन्त्री भ्राता गूर्जरप्रदेश की अराजकता का अन्त करने में लगे हुये थे और बाहर के दुश्मनों से गूर्जरभूमि की रक्षा करने में संलग्न थे। उनके इस संकटपूर्ण समय भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह का लाभ उठाकर भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और राणक वीरधवल पर विजय की आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया। राणक वीरधवल ने भद्रेश्वरनरेश को परास्त करने के लिये एक सेना भेजी, परन्तु वह परास्त होकर लौटी। जाबालिपुरनरेश चौहान उदयसिंह के तीन दायाद भ्राता सामंतपाल, अनंतपाल और त्रिलोकसिंह जो प्रथम वीरधवल की सेवा में उपस्थित हुये थे, महामात्य वस्तुपाल के बहुत कहने पर भी राणक वीरधवल ने वेतन अति अधिक माँगने के कारण नहीं रक्खे थे, जाकर भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह के समक्ष उपस्थित हुये और भीमसिंह ने उनको मुंहमाँगा वेतन देकर रख लिया । ये तीनों भ्राता अत्यन्त बली एवं रणनिपुण थे। भद्रेश्वरनरेश इनका बल पाकर अधिक गर्वोन्नत हो उठा। राणक वीरधवल को चौहान वीरों को निराश एवं तिरस्कृत कर लौटाने का अब फल प्रतीत हुआ । क्रोध में आकर वीरधवल अकेला सैन्य लेकर वि० सं० १२७८ में भद्रेश्वरनरेश पर चढ़ चला, महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी संग में गये । धवल्लकपुर में शासन की सुव्यवस्था करके पीछे से महामात्य वस्तुपाल और दण्डनायक तेजपाल भी अति चतुर रणवाँकुरे योद्धाओं के साथ जा पहुंचे। ___भद्रेश्वरनरेश और वीरधवल में अति घोर संग्राम हुआ और वीरधवल आहत होकर रणभूमि में गिर पड़ा। ठीक उसी समय मंत्री भ्राता भी अपने वीर योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जा पहुँचे । सायंकाल का समय हो चुका था, दोनों ओर की सेनायें समस्त दिनभर भयंकर युद्ध करती हुई थक भी गई थीं और विश्राम चाहती थीं। भद्रेश्वरनरेश के योद्धाओं ने मन्त्री भ्राताओं का ससैन्य आगमन सुनकर साहस छोड़ दिया तथा भद्रेश्वरनरेश से कहने लगे कि राणक वीरधवल के साथ संधि करना ही श्रेयस्कर है । भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह ने भी कोई उपाय नहीं देखकर तुरन्त राणक वीरधवल की अधीनता स्वीकार कर ली और सामन्तपद स्वीकार किया। शनैः शनैः भीमसिंह की शक्ति कम की गई और उसकी मृत्यु के पश्चात् भद्रेश्वर का राज्य पत्तन-साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया और भीमसिंह के चौदह सौ राजपुत्र वीर योद्धाओं से तेजपाल ने अपनी अति विश्वासपात्र सहचारिणी 'सं० ७७ वर्षे श्रीशत्रयोज्जयन्तप्रतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमदेवाधिदेवप्रसादासादितसंघाधिपत्येन चौलवयवुलनभस्तलप्रकाशनकमार्तण्डमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाददेवसुतमहाराजश्रीवीरधवल देवप्रीतिप्रतिपन्नराज्यसर्वैश्वर्येण श्रीशारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्य श्रीवस्तुपालेन तथा अनुजेन सं०७६ वर्ष पूर्व गूर्जरमण्डले धवल ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापारान् व्यापूरावता' प्रा० ० ले० सं०भा०२ले० ३८-४३ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ द्वितीय सैन्य बनाई, जो अनेक युद्धों में तेजपाल के साथ दुश्मनों से लड़ी और जिसने गूर्जर भूमि की भविष्य में संकटापन्न स्थितियों में प्रबल सेवायें की । भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह को परास्त करके तथा उसको अपना सामन्त बना करके राणक वीरधवल अपनी विजयी सैन्य एवं मन्त्री भ्राताओं और मण्डलेश्वर के साथ में काकरनगर को पहुँचा और वहाँ कतिपय दिवसपर्यन्त ठहर कर उस प्रान्त में लूट-खसोट करने वाले डाकुओंों को बंदी बनाया और उदंड बने हुए ठक्कुरों की निरंकुशता को कुचल कर प्रजा में सुख और शान्ति का प्रसार किया । महामात्य वस्तुपाल ने अपना विचार मरुधरदेश की ओर बढ़ने का राणा के समक्ष रक्खा । फलतः राणक वीरधवल और दंडनायक तेजपाल यादि धवल्लकपुर लौट आये और महामात्य वस्तुपाल कुछ दिवस पर्यन्त काकरनगर में ही ठहर कर मरुधरप्रदेश की ओर बढ़ा । महामात्य वस्तुपाल का मरुघरदेश में श्रागमन और कार्य महामात्य वस्तुपाल का यह नियम-सा हो गया था कि वह जिस ग्राम में होकर निकलता था, वहाँ अवश्य कोई मन्दिर बनवाता था और जिस मार्ग में, जंगल में होकर निकलता वहाँ कुआ, बाव अथवा प्याऊ का निर्माण करवाता था । उसने इस विजय यात्रा में निम्नवत् पुण्य कार्य करवाये थे: १ काकरनगर में श्री आदिनाथ जिनालय बनवाया । २ भीमपल्ली में श्री पार्श्वनाथ - जिनालय बनवाया । महादेव और पार्वती का श्री राणकेश्वर नामक शिवालय बनवाया । ३ जेरंडकपुर में विविध जिनालय बनवाये । ४ वायग्राम में श्री महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया । ५ सूर्यपुर में श्री सूर्यमन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया । वेदपाठ के निमित्त ब्रह्मशालायें, दानशालायें बहुत द्रव्य व्यय करके बनवाई' । महामात्य काकरनगरी से अपनी विजयी सैन्य के सहित मरुधरप्रदेश की ओर बढ़ा। मार्ग में ग्रामों में, नगरों में मन्दिर बनवाता हुआ, जंगलों में एवं थरपारकर प्रदेश (रेगिस्थान) में कुएं, बाव बनवाता हुआ, प्रपायें लगवाता हुआ साचोरतीर्थ में पहुँचा । थराद में महामात्य ने अनेक धर्मकृत्य किये थे, अनेक मन्दिरों का र्णोद्धार करवाया था और बहुत द्रव्य दान एवं अन्य धर्मकृत्यों में व्यय किया था। मार्ग के ग्राम एवं नगरों के ठक्कुर और सामंतों को वश करके पुष्कल द्रव्य एकत्रित किया था। जब वह साचोर पहुँचा, तब तक महामात्य के पास में पुष्कल द्रव्य एकत्रित हो गया था । साचोर में पहुँच कर महामात्य ने भगवान महावीरप्रतिमा के भक्तिपूर्वक दर्शन किये और सेवा-पूजा का लाभ लिया । साचोरतीर्थ के जीर्णोद्धार 'बहुत द्रव्य का सदुपयोग किया, दान और अन्य पुण्यकार्य किये । वह साचोर में कुछ दिवस पर्यंत ठहरा और समीपवर्त्ती भिन्नमालप्रगणा एवं बांगलभूमि के ठक्कुरों, सामंतों को वश करके उनसे पुष्कल द्रव्य भेंट में प्राप्त किया । साचोर से महामात्य पुनः लौट पड़ा और काकरनगर में पुनः होता हुआ राज्य और प्रजा का निरीक्षण करता हुआ अगणित धनराशि लेकर धवलकपुर में प्रविष्ट हुआ। महामात्य ने राजसभा में पहुँच कर राणक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर को अभिवादन किया और मरुधरप्रदेश की विजययात्रा में प्राप्त पुष्कल धन को अर्पित किया । I Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशालीः गूर्जर मंत्री वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपालः: समस्तगूर्जरभूमि में अब सुराज्यव्यवस्था जम गई थीं। निरु कुरा ठक्कुर, सामंत, माण्डलिक पुनः पत्तन अधीनता स्वीकार कर चुके थे । धवल्लकपुर अब पूर्णरूपेण गुर्जर भूमि का राजनगर बन चुका था । वस्तुपाल ने भी अपना निवास अत्र धवलकपुर में ही स्थायीरूप से बना लिया था । अराजकता का नाश करने में, निरु कुश ठक्कुर, सामंत, माण्डलिकों को वश करने में, अभिनवराजतंत्र के संस्थापकों को लगभग तीन वर्ष से ऊपर समय लगा अर्थात् वि० सं० १२७६ तक यह कार्य पूर्ण हुआ । श्रत्र महामात्य के आगे प्रमुखतः समीपवर्त्ती दुश्मन राजाओं से गूर्जर भूमि की सतत् रक्षा करने का कार्य तथा गुर्जर भूमि को समृद्ध बनाने का कार्य था । ये कार्य पहिले के कार्यों से भी अधिकतम कठिन एवं कष्टसाध्य थे । अतः मंत्री भ्राताओं ने धवल्लकपुर में ही राणक और मडलेश्वर के साथ में रातदिन रह कर राज्य की सेवा करना अधिक अच्छा समझा । अतः महामात्य वस्तुपाल ने वि० सं० १२७६ में अपने स्थान पर अपने योग्य पुत्र जेत्रसिंह को खंभात का प्रान्तपति बना कर खंभात का राज्यकार्य करने के लिये भेज दिया और आप वहीं रहकर अभिनव राजतंत्र का सुचारुरूप से संचालन करने लगा । खड ] [ १३७ जैसी ख्याति महामात्य वस्तुपाल और तेजपाल की बढ़ रही थी, उसी प्रकार महामंडलेश्वर लवणप्रसाद भी गूर्जर - भूमि के अजेय योद्धा और सुपुत्र समझे जाते थे। राणक वीरधवल भी प्रजा - वत्सलता, वीरता और अनेक दिव्य गुणों के राज्य-व्यवस्था और गुप्तचर- लिये प्रसिद्ध था । राजगुरु महाकवि सोमेश्वर धवल्लकपुर की पुरुषोत्तम व्यक्तियों की विभाग का विशेष वर्णन माला में सचमुच सुमेरुमणि थे । राजसभा में आये दिन दूर-दूर से प्रसिद्ध विद्वान् श्रते । थे और राणक वीरधवल भी उनका यथोचित आदर-सत्कार करता था । राणक वीरधवल शैव था, फिर भी जैनधर्म और जैनाचार्यों का बड़ा सत्कार करता था । महामात्य वस्तुपाल के प्रत्येक धर्मकृत्य में दोनों पिता-पुत्र का सहयोग और सम्मति रहती थी । यहाँ तक कि महामात्य वस्तुपाल को बिना पूछे राज्य के कोष में से धर्मकार्यों के लिये द्रव्य - व्यय करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी । महामात्य वस्तुपाल ने राज्य की व्यवस्था अनेक विभाग और उनकी अलग २ समितियाँ बनाकर की थीं । सेना-विभाग और गुप्तचर-विभाग हर प्रकार से विशेषतः समृद्ध और पूर्ण रक्खा जाता था । मालगुजारी का विभाग भी प्रति समुन्नत था । भूमि- कर लेने की व्यवस्था इतनी अच्छी की गई थी कि कोई भी राजकर्मचारी कृषकों से उत्कोच और राज्य का पैसा नहीं खा सकता था । न्याय यद्यपि अधिकतर जबानी किये जाते थे, लेकिन महामात्य जैसे पुरुषोत्तम के लिये राव-रंक का रंगभेद अकृतकार्य था । सर्व धर्म, वर्ण और ज्ञातियों को सामाजिक, धार्मिक क्षेत्रों में पूर्ण स्वतन्त्रता ही नहीं थी, बल्कि राज्य की ओर से यथोचित मान और सहयोग भी प्राप्त था । संरक्षकविभाग का कार्य भी कम स्तुत्य नहीं था। चोर, डाकू, ठगों और गुण्डों का एक प्रकार अन्त ही कर दिया गया था । गूर्जरराजधानी पत्तनपुर का सारा राज्यकार्य धवल्लकपुर में होता था । महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राणक वीरधवल के हाथों में गूर्जरसाम्राज्य की सारी शक्तियाँ और अधिकार केन्द्रित थे, फिर भी इन्होंने कभी भी अपने को स्वतन्त्र महाराजा या सम्राट् घोषित करना तो दूर रहा, करने का स्वप्न में भी विचार नहीं किया । 'महामात्य श्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० श्रीललितादेवी कुक्षि सरोवरराजहंसायमाने महं० श्रीजयन्तसिंह सं० ७६ वर्ष पूर्व स्तम्भतीर्थे मुद्रा व्यापारं व्यापृण्वति सति' प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३८ से ४३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय ऐसे निर्लोभी, संयमी, देशसेवक राजा और धीर-बीर, नीतिज्ञ अमात्य पाकर एक बार गूर्जरदेश धनी हो उठा । लेकिन बाहर से आये हुए यवनशासक भारतभूमि में कहीं भी पनपता हुआ ऐसा समृद्ध साम्राज्य कैसे सहन कर सकते थे। अतिरिक्त इसके मालवा और दक्षिण के शक्तिशाली सम्राट् भी गूर्जरभूमि की बढ़ती हुई उन्नति को तिर्की दृष्टि से देख रहे थे। गुप्तचरविभाग का वर्णन देना कतिपय दृष्टियों से अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। महामात्यपद पर आरूढ होते ही वस्तुपाल ने इस विभाग की अति शीघ्र स्थापना की थी और विश्वासपात्र स्वामीभक्त, चतुर, बहुभाषाभाषी, बहुभेषपड, वाक्पटु और प्राणों पर खेलने वाले गुप्तचरों को रक्खा था । वस्तुपाल की सम्पूर्ण सफलता की कुंजी यही बिभाग था । वस्तुपाल अपने गुप्तचरों का बड़ा मान करता था। गुमचरों की अनुपस्थिति में गुप्तचरों के परिवार का सम्पूर्ण पोषण राज्यकोष से किया जाता था। तेजपाल का पुत्र लावएयसिंह गुतचर-विभाग का अध्यक्ष था। इस विभाग के प्रत्येक कार्यवाही से तथा साम्राज्य में चलती शत्रु-मित्र की प्रत्येक हलचल से वस्तुपाल को अवगत रखना इस विभाग के अध्यक्ष का प्रमुख कर्त्तव्य था । वस्तुपाल जहाँ कहीं भी हो इस विभाग की दैनिक कार्यवाही का विवरण उसको नियमित मिलता रहता था और वस्तुपाल के संकेत, आदेश, सम्मतियाँ एवं आज्ञायें गुप्तचर सर्वत्र सम्बन्धित व्यक्तियों को पहुँचाते थे । वस्तुपाल यद्यपि खंभात चला गया था, फिर भी सौराष्ट्र के रणों का, धवलकपुर का, तथा शत्रुराजा एवं सामंतों की हलचलों और योजनाओं का पता उसको नियमित और यथावत् मिलता रहता था । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गूर्जरभूमि पर होने वाले रणों में, पत्तन में, धवलकपुर में, शत्रुओं की गोष्ठियों में सर्वत्र वस्तुपाल के गुप्तचर विद्यमान रहते थे। वस्तुपाल भी राणक वीरधवल, मंडलेश्वर लवणप्रसाद, दंडनायक तेजपाल तथा महाकवि राजगुरु सोमेश्वर को समय समय पर मुख्य २ सूचनायें पहुँचाता रहता था और उन्हें अपनी योजनाओं से प्रत्येक समय अवगत रखता था तथा तदनुसार अपने आदेशों एवं संकेतों को पहुँचाया करता था । इस विभाग का कार्य यंत्रवत् नियमित एवं प्रबंधपूर्ण था । गुप्तचर नाम एवं वेष परिवर्तित कर राजस्थान, मालवा, सौराष्ट्र, दक्षिण, संयुक्तप्रान्त में भ्रमण करते थे । कहीं जाकर वस जाते थे, कहीं शत्रुराजा के विश्वासपात्र सेवक बनकर रहते थे, कहीं शत्रुराजाओं एवं सामंतों के श्रद्धेय साधु, संन्यासी बन कर रहते थे । यादवगिरि के राजा सिंघण के आक्रमण को विफल करने वाले, यवनसेनाओं का मंडोर, रणथंभोर पर हुये आक्रमणों के समाचार देने वाले, बादशाह की वृद्धा माता की हजयात्रा के लिये गूर्जरभूमि में होकर जाने की सूचना देने वाले, सिंघण, लाट के राजा शंख एवं मालवपति देवपाल के आयोजित मित्रसंघों को फूट डालकर तोड़ने वाले, म्लेच्छ आक्रमणकारी के प्रयास को नष्ट करने वाले, गूर्जरभूमि के शत्रु बने हुए सामंतों, माण्डलिकों एवं ठक्कुरों की दुष्प्रवृत्तियों एवं दुर्भावनाओं से साम्राज्य की रक्षा करने वाले तत्त्वों को सजग रखने वाले ये ही गुप्तचर थे। ह० म०म० सर्ग०२ पृ०१० से २४ ह० म० म० में कुवलयक, शीघ्रक, निपुणक, सुवेग, सुचरित्र, कुशालक और कमलक आदि जो गुप्तचरों के नाम मिलते हैं, अगर हम इनको कल्पित पात्र भी मान लेते हैं, फिर भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बिना गुप्तचर विभाग के हुये, कल्पित नाम देना भी लेखक को स्मरण कैसे आता! उक्त नाटक की भूमिका एवं रचना से स्पष्ट है कि गुप्तचर विभाग अत्यन्त ही समुन्नत एवं सुदृढ़ स्थिति में था। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड ] : मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपाल :: [१३६ महामात्य वस्तुपाल के धवल्लकपुर में ही रहने से धवलकपुर थोड़े ही दिनों में भारत के उन प्रमुख नगरों में गिना जाने लगा जो विशालता में, रमणीकता में, सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-व्यापार-वाणिज्य की दृष्टियों धवल्ल कपुर का वैभव और से धन-सम्पन्नता के कारण जगविख्यात थे। अतिरिक्त इसके धवल्लकपुर अपने दृढ़ महामात्य का व्यक्तित्व साहसी वीर योद्धा, अजेय रणचतुर सेनापतियों के लिये अधिक प्रसिद्ध था । धवल्लकपुर में बहुल संख्यक विशाल मन्दिर, ऊँचे २ राजप्रासाद, गगनचुम्बी महालय एवं अनेक राजभवन बन चुके थे। इन सब के ऊपर वह एक बात थी जो अनेकों युगों में इतिहास नहीं पा सका था। महामात्य वस्तुपाल एक महान् उदार धार्मिक महामात्य था, जो सर्व धर्मों का समान समादर करने वाला और सर्व ज्ञातियों का समान मान करने वाला था। राग-द्वेष, लोभ-मोह, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े धनी-निर्धन के भेदों से वह छू तक नहीं गया था। हिन्दू, जैन, मुसलमान और अन्य सर्व धर्मावलम्बी उसको अपना ही नेता समझते थे। धवल्लकपुर में सर्व धर्मों के साधु-संन्यासियों का, सर्व भाषाओं के भारतप्रसिद्ध विद्वानों का, सर्वकलाविशेषज्ञों का सदा जमघट लगा रहता था। बड़े २ विषयों पर आये दिन वाद-विवाद, धर्मों के शास्त्रार्थ, विशेषज्ञों एवं कलावानों में प्रतियोगितायें होती रहती थीं। नगर में स्थल-स्थल पर यात्रियों, विद्वानों, अतिथियों के लिये ठहरने आदि का समस्त प्रबन्ध महामात्य की ओर से होता था। दीन, दुखियों, अपंगों के लिये शरणस्थल, भोजनशालायें, दानगृह खुले हुये थे। नगर के सर्व मन्दिरों में, धर्मस्थानों में अधिकांश द्रव्य महामात्य का व्यय होता था। यह राम-व्यवस्था धवल्लकपुर में ही नहीं, पत्तनसाम्राज्य के अनेक नगर, ग्रामों में प्रसारित होती जा रही थी । सैकड़ों नवीन जैन, शैव, इस्लाम, हिन्दु मन्दिरों का निर्माण, सैकड़ों जीर्णमन्दिरों का उद्धार किया जा रहा था । नवीन प्रतिमाओं की स्थापना, पौषधशाला, धर्मशाला, दानगृह, भोजनशाला, लेखकनिवास, सत्रागार, प्रपायें, वापी, कूप, सरोवर, और ज्ञान-मण्डार प्रसिद्ध एवं उपयुक्त स्थलों पर लक्षों व्यय करके बनवाये जा रहे थे । इसीलिये महामात्य धर्मपुत्र, निर्विकार, उदार, सर्वजनश्लाघनीय, उत्तमजनमाननीय, ऋषिपुत्र, गम्भीर, दातार-चक्रवर्ती, लघुभोजराज, सचिवचूड़ामणि, ज्ञातिगोपाल, ज्ञातिवराह, शान्त, धीर, विचारचतुर्मुख, प्राग्वाटज्ञाति-अलंकार, चातुर्य-चाणक्य, परनारी-सहोदर, रुचिकन्दर्प, आदि गौरवगरिमाशाली चौवीस उपनामों से गुर्जरप्रदेश में ही नहीं, मालवा, राजस्थान, काश्मीर, सिंध, पंजाब, संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, दक्षिणभारत सर्वत्र संबोधित किया जाने लगा था। प्राणग्राहक रिपु भी महामात्य को अपने शिविरों में देखकर उसका मान करते थे और अपने को पवित्र हुआ मानते थे और महामात्य के शिविर में पहुँचकर अपने को सुरक्षित समझते थे । वधूयें, पुत्रिये उसको अपना पिता और भ्राता मानती थी। इस प्रकार प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न भारतमाता का यह सुपुत्र समस्त भारतवासियों का बिना ज्ञाति, धर्म, मत, प्रदेश, प्रान्त, राज्य के भेदों के एकसा प्रेम, स्नेह, सौहार्द प्राप्त कर रहा था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि महामात्य वस्तुपाल जैसा सच्चा ऐश्वर्यशाली था, वैसा ही सच्चा जैन था, सरस्वती का अनन्य भक्त था, एकनिष्ठ कलाप्रेमी था, अजेय योद्धा था, सफल राजनीतिज्ञ था, सच्चा देशभक्त था, सच्चा राष्ट्रसेवक था । वह श्रीमन्त योगीश्वर था; क्योंकि उसका तन, मन और सर्व वैभव ज्ञाति, समाज, देश और धर्म की सेवा में व्ययशील था जो ईश्वर की सच्ची आराधना, उपासना है। प्र० को० व० प्र०१२४)१२५) पृ०१०४,१०५ व० च० प्र० २ पृ०२० श्लोक ६६ से पृ० २४ श्लो० २५ पु० प्र०सं० वि० ती० क०व०प्र०। की कौ० (प्रस्तावना) पृ० ३६ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय दोनों सहोदर रात्रि के एक प्रहर रहते नित्य उठते और उठकर सामायिक प्रतिक्रमण करते । पश्चात् देवदर्शन करते और गुरुदर्शन करने को भी प्रायः साथ २ जाते । गुरुदर्शन करके सीधे राणक वीरधवल और महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद की सेवा में उपस्थित होते । वहाँ से लौट कर घर आते और श्रद्धा, भक्ति मंत्री-भ्राताओं की दिनचर्या भाव से प्रभुपूजन करके उपाश्रय में गुरु का सदुपदेश श्रवण करने के लिये नित्य नियमित रूप से जाते । गुरु, साधु-साध्वियों, संन्यासियों, अतिथियों की वे पहिले अभ्यर्थना, भोजन - सत्कार करते और फिर सर्व परिजनों के साथ श्राप भोजन करते । भोजनसंबंधी व्यवस्थायें समितियें बनाकर की गई थीं। दोनों भ्राताओं के भोजन करने के समय तक या पूर्व दोनों ही समय संध्या और प्रात: भूखों को, वस्त्रहीनों को, अपनों को, दीन और शरणार्थियों को भोजन, वस्त्र दे दिया जाता था । इसमें प्रतिदिन एक लाख रुपया तक व्यय होता था । दोनों भ्राता कभी भी रात्रि को भोजन और जलपान नहीं करते थे और प्रातःकाल भी एक घटिका दिन निकल आने पर दंतधावन श्रादि नियमित क्रियायें करते थे । भोजन कर लेने के पश्चात् दोनों भ्राता अपने २ श्रास्थानकक्षों में (बैठकों में बैठते और क्रमवार सर्व राजकीय तथा निजीय विभागों के आये हुये प्रधानों, कर्मचारियों से भेंट करते और आये हुये पत्रों का उत्तर देते । विवादास्पद प्रश्नों, कंकटों को निपटाते, भेंट करने के लिये आने वाले सज्जनों, सामंतों, मांडलिकों, श्रीमन्तों, विद्वानों, कलाविदों से भेंट करते और उनका यथायोग्य सत्कार करते । विद्वानों को साहित्यिक रचनाओं पर, कलाविदों को कलाकृतियों पर प्रतिदिन सहस्त्रों मुद्रायें पारितोषिक रूप प्रदान करते । प्रांतप्रमुखों, सेनानायकों, प्रमुख गुप्तचरों, सर्व धार्मिक, सामाजिक, तीर्थ-मंदिर, मस्जिद, धर्मशाला, लेखकशाला, पौषधशाला, वापी, कूप, सरोवर, प्रतिमाओं की निर्माणसंबंधी, व्यवस्थासंबंधी समितियों के प्रमुख कार्यकर्त्ता एवं शिल्पियों से भेंट करते, उनके कार्यों का निरीक्षण करते, विवरण सुनते और नवीन आज्ञायें, आदेश प्रचारित करते । वैसे तो सर्व राजकीय एवं निजीय विभाग भिन्न २ योग्य व्यक्तियों के नीचे विभाजित किये हुवे थे, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति को महामात्य से भेंट करने की पूरी २ स्वतंत्रता थी। इन कार्यों से निवृत्त होकर दोनों भ्राता राजसभा में जाते और प्रान्तों, प्रमुख नगरों से आयी हुई सूचनाओं से रायक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर लवणप्रसाद को सूचित करते, शत्रुसंबंधी गतिविधियों पर चर्चा करते । राजकीय सेनाविभाग, गुप्तचरविभाग जिसके गुप्तचर सर्वत्र साम्राज्य एवं रिपुराज्यों में फैले हुये थे, सुरक्षाविभाग जिसके अधिकार में राज्य के दुर्ग और नवीनदुर्गों का निर्माण, सीमासंबंधी देख-रेख, नवीन सैनिकों एवं योद्धाओं की भत्तीं, पर्याप्त सामरिक सामग्री की व्यवस्था रखने संबंधी कार्य थे, तत्संबंधी प्रश्नों और नवीन योजनाओं पर विचार करते । देश-विदेश में राज्य के विरुद्ध चलने वाली हलचलों पर सोच-विचार करते । ये सर्व मन्त्रणायें गुप्त रखी जाती थीं । महाकवि सोमेश्वर इस प्रकार की प्रत्येक मन्त्रणा में सम्मिलित रहते थे । पत्तन के सामन्तों, राज्य के श्रीमंतों, मांडलिकों, परराज्यों के दूतों से राणक बीरधवल एवं मण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी स्वयं भेंट करते और वार्तालाप करते । महामात्य न्याय, सेना, सुरक्षा, राजकोष, धर्मसंबंधी अत्यन्त महत्त्व के विषय राजसभा में राणक वीरधवल के समक्ष निर्णीत करते । राजसभा में वीरों का मान, विद्वानों का सम्मान और सज्जन, साधु-ऋषियों का सत्कार होता था । राजसभा से निवृत्त होकर महामात्य और दंडनायक दोनों अश्वस्थलों, सैनिक शिविरों, अस्त्र-शस्त्र के भण्डारों का निरीक्षण करते । राजकीय कार्यों से निवृत्त होकर ही प्रायः घर लौटते थे। घर लौट कर स्नानादि क्रिया करके भोजन करते । भोजन के पश्चात् नगर में 'चलती हुई धार्मिक संस्थाओं जैसे सत्रागारों, लेखकशालाओं, पौषधगृहों, धर्मशालाओं, दानशालाओं, भोजनशालाओं Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली पूर्जर-मंत्री-वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपाल ।१४१ का निरीक्षण करने जाते, मन्दिरों के दर्शन करते और उपाश्रयों में साधु-बुनिराजों से अनेक धार्मिक विषयों पर चर्चा करते । वहाँ से आकर शयनागार में जाने के पूर्व कुछ क्षण अपने आस्थान में बैठकर परिजनों से, सम्बन्धियों से देश-विदेश में तीर्थों, पर्वतों, जंगलों, पुर, नगर, ग्रामों में होते निजीय धार्मिक कार्यों पर चर्चायें करते । कभी-कभी राजकीय विषयों पर महाकवि सोमेश्वर, सुनीतिज्ञ स्त्रीरत्न अनुपमा, जैत्रसिंह, लावण्यसिंह से अधिक समय तक चर्चायें करते । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दोनों ही महामात्य भ्राता एक साथ धार्मिक एवं राज्यपुरुष थे और फलतः धार्मिक और राज्यक्रियायें दोनों ही उनकी दिव्य थीं। दिल्ली के तख्त पर इस समय गुलामवंश का द्वितीय बादशाह अल्तमश था। अल्तमश ने गुलामवंश की नींव दृढ़ की तथा समस्त उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य सुदृढ़ किया । जालोर के चौहान राजा उदयसिंह यवन-सैन्य के साथ युद्ध को वि० सं० १२६८ और १२७४ के बीच सम्राट् अल्तमश ने परास्त किया, और उसकी पराजय और ज्योहिं वह दिल्ली पहुंचा, उदयसिंह ने दिल्ली से संबंध-विच्छेद कर दिया और वीरधवल की अधीनता स्वीकार कर ली । उदयसिंह ने अपने राज्य को खूब बढ़ाया, यहाँ तक कि नाडोल, भिन्नमाल, मंडोर और सत्यपुर (साचोर) पर भी उसका अधिकार हो गया। उधर भेदपाट (मेवाड़) का महाराजा जैतसिंह भी स्वतन्त्र था । जैतसिंह का राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ था। नागदा (नागद्रह) उसकी राजधानी थी । गूर्जरदेश भी स्वतंत्र था और गूर्जरसाम्राज्य उत्तरोत्तर समृद्ध और बली होता जा रहा था । यह सब अल्तमश कैसे सहन कर सकता था। उसने एक समृद्ध सेना वि० सं० १२८३ (सन् १२२६ ई०) में राजस्थान की ओर भेजी । इस सेना ने रणथंभोर और मंडोर पर अधिकार कर लिया और गूर्जरभूमि की ओर बढ़ना चाहा। उधर महामात्य वस्तुपाल ने गूर्जर सैन्य को सजाया । महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल, दोनों प्राता एक लाख सैन्य लेकर अर्बुदाचल की उपत्यका में पहुँचे । राणक वीरधवल भी साथ था। चंद्रावती का राजा धारावर्ष भी अपने वीर पुत्र सोमसिंह के साथ विशाल सैन्य लेकर गूर्जरभूमि की यवनों से रक्षा करने के लिये गूर्जरसैन्य में आ सम्मिलित हुआ। उधर जालोर का चौहान राजा उदयसिंह मी अपने वीरसैन्य को लेकर इनमें आ मिला। अर्बुदाचल की तंग उपत्यका में आकर शाही सैन्य दो ओर से पर्वतमालाओं से और दो ओर से गूर्जर-सैन्य से घिर गया। उधर मेदपाट का राजा जैतसिंह भी उत्तर पूर्व से यवनसैन्य को दबा रहा था । पश्चिम में ग्वालियर का स्वतन्त्र शासक था। कुछ दिनों तक यवनसैन्य उपत्यका में ही घिरा रहा। यवनसैन्य को गूर्जरभूमि को जीत कर सिंध की ओर जाने की आज्ञा थी, क्योंकि सम्राट अन्तमश सिन्ध के शासक नासीरुद्दीन कुबेचा पर वि० सं०१२८४ (१२२७ ई०) में आक्रमण करने की तैयारियाँ कर चुका था । यवनसैन्य अब पीछे भी नहीं लौट सकता था क्योंकि पीछे से धारावर्ष यवनसैन्य को दबा रहा था । अन्त में शाही सैन्य को आगे बढ़ना ही पड़ा । आगे गूर्जरसैन्य तैयार खड़ा था । दोनों दलों में घमासान युद्ध हुआ। यवनसैन्य परास्त हुआ और बहुत ही कम यवनसैनिक अपने प्राण बचा कर माग सके । विजयी गूर्जरसैन्य महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल तथा राणक वीरधवल का जयनाद 'Ranthambhor fell in 1226 A. D. and Mandor in the Siwalik hills followed quite a year later' M. I. P. 175 (a) 'Under him (Udaisingh) Jhalor became powerful and his kingdom not only included Naddula, but Mandor, north Jodhpur, Bhillamal and Satyapura.' (b) 'Then he (Jaitrasingh) began harassing the invador on one side.' G.G. Part lll P. 216 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ द्वितीय करता हुआ धवलकपुर लौट गया । इस विजय का पूर्ण श्रेय महामात्य वस्तुपाल को हैं । महामात्य अपनी वीरता से, रणनीतिज्ञता से तथा अपनी चातुर्य्यता से गूर्जर भूमि को यवनश्राततायियों से पदाक्रांत होने से बचा सका । राणक वीरधवल का कौशल भी यहाँ कम सराहनीय नहीं है । दिल्ली के बादशाह के साथ संधि और दिल्ली के दरबार में महामात्य का सम्मान बादशाह अल्तमश ने जब यह सुना कि अर्बुदघाटी के युद्ध में समस्त यवनसैन्य नष्ट हो चुका है, अत्यन्त क्रोधित हुआ । परन्तु सिन्ध में नासिरुद्दीन कुबेचा की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी और बादशाह को सर्व बादशाह अल्तमश को गुज- प्रथम यह उचित लगा कि पहिले कुबेचा को परास्त किया जाय और यह ठीक भी रात पर आक्रमण करने के था, क्योंकि बादशाह को यह भय था कि कहीं कुबेचा दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर लिये समय का नहीं मिलना बैठे । वि० सं० १२८४ (सन् १२२७ ) के अंत में कुबेचा को परास्त करके बादशाह दिल्ली लौटा तो बंगाल की राजधानी लखनौती में खिल्जी मलिकों के विद्रोह के समाचार मिले | तुरन्त सेना लेकर वह लखनौती पहुँचा और वहाँ विद्रोह शांत किया । इस समय के अंतर में महामात्य वस्तुपाल ने बादशाह के संबंधियों के साथ सम्मान और उदारतापूर्वक ऐसा सद्व्यवहार किया कि बादशाह ने गूर्जरदेश पर आक्रमण करने का विचार ही त्याग दिया । श्रेष्ठ पूनड़ का स्वागत नागपुर निवासी श्रेष्ठ देल्हा का पुत्र पूनड़ बादशाह अल्तमश की बीबी का प्रतिपन्न भाई था । उसने वि० सं० १२८६ के प्रारम्भ में द्वितीय बार शत्रुंजयतीर्थ की यात्रा करने के लिये विशाल संघ निकाला । इस संघ में १८०० अट्ठारह सौ बैल गाड़ियाँ थीं । यह विशाल संघ माण्डलिकपुर में जो वस्तुपाल तेजपाल की जन्मभूमि थी, पहुँचा । दंडनायक तेजपाल संघ का स्वागत करने के लिये वहाँ पहुँचा और संघ को सादर धवलकपुर में लाया । महामात्य ने और रागक वीरधवल ने पूनड़ का बड़ा सत्कार किया । स्वयं महामात्य संघ में सम्मिलित हुआ और उसको बादशाह की बीबी ने जब यह सुना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुई और बादशाह से के विषय में बहुत कुछ कहा । शत्रुंजयतीर्थ की यात्रा करवाई । महामात्य वस्तुपाल की उदारता दूसरी घटना यह घटी कि स्वयं बादशाह की वृद्धा माता बादशाह के गुरु मालिम ( नामक या मौलवी) के साथ मख (मक्का) की यात्रा करने वि० सं० १२८७ में निकली और वह चलकर पत्तन (गुजरात) नगर के समीप ज्योंही आई महामात्य वस्तुपाल समाचार मिलते ही पत्तन पहुँचा और बादशाह की माता का और बादशाह के गुरु का बड़ा सत्कार किया । बादशाह की माता पत्तन से चलकर खम्भात पहुँची और एक नौवित्तिक के यहाँ ठहरी । रागक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर लवणप्रसाद की संमति लेकर महामात्य वस्तुपाल ने यहाँ एक बादशाह की वृद्धा माता की हजयात्रा और महामात्य का उसको प्रसन्न करना और दिल्ली तक पहुँचाने जाना Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और दिल्ली के दरबार में महामात्य का सम्मान :: [१४३ चाल चली । वह खम्भात पहुँचा और युक्ति से बादशाह की वृद्ध माता का द्रव्य चोरों द्वारा लुटवा लिया। बादशाह की वृद्धा माता ने महामात्य वस्तुपाल को खम्भात आया हुआ जानकर वस्तुपाल के पास अपने द्रव्य का चोरों द्वारा लूटा जाने का समाचार भेजा। यह तो महामात्य की स्वयं की चाल थी। उसने तुरन्त द्रव्य सुधवा मंगवाया और बादशाह की माता के पास स्वयं लेकर पहुँचा । वृद्धा माता अपने खोये हुये द्रव्य को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और वस्तुपाल को आशीर्वाद देने लगी। महामात्य ने अपनी ओर से मक्कातीर्थ के लिये एक तोरण भेंट किया और अपने चुने हुए संरक्षक देकर बड़े सम्मान के साथ बादशाह की माता को मक्का को रवाना किया। वृद्धा माता हज करके पुनः खम्भात लौटी । महामात्य वस्तुपाल भी तब तक वहीं उपस्थित था। उसने उसका बड़ा सत्कार किया और आप स्वयं दिल्ली तक पहुँचाने गया। बादशाह की वृद्धा माता जब राजधानी दिल्ली में पहुंची और अपने पुत्र बादशाह अल्तमश से मिली तो उसने वस्तुपाल की महानता, भक्ति एवं उदारता का वर्णन किया। महामात्य वस्तुपाल को अपनी माता के साथ महामात्य का बादशाह के आया हुआ तथा नागपुरवासी पूनड़ श्रेष्ठि के यहाँ ठहरा हा जान कर बादशाह दरबार में स्वागत और अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसको राजसभा में बुला कर उसका भारी सम्मान किया। स्थायी सन्धि का होना बादशाह वस्तुपाल की बातों एवं मुखाकृति से अत्यन्त प्रभावित हुआ और वस्तुपाल को कुछ माँगने का आग्रह किया। बादशाह के पुनः पुनः आग्रह करने पर महामात्य ने बादशाह से दो बातें. माँगी। प्रथम-गूर्जरभूमि के सम्राट के साथ बादशाह की स्थायी मैत्री हो और द्वितीय-शत्रुजयतीर्थ के ऊपर मंदिर बनवाने के लिये बादशाह अपने साम्राज्य में से वस्तुपाल को मम्माणीखान के पत्थर ले जाने की आज्ञा प्रदान करें। बादशाह ने दोनों बातें स्वीकार की। महामात्य लौटकर धवल्लकपुर आया और महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राणक वीरधवल को दिल्लीपति के साथ हुई सन्धि के समाचार सुनाये। उन्होंने महामात्य का भारी सम्मान किया और दशलाख स्वर्णमुद्रायें पारितोषिक रूप में प्रदान की। इस प्रकार गूर्जरभूमि को यवनों के आक्रमणों का अब भय नहीं रहा और सुख और समृद्धि की अधिकाधिक वृद्धि होने लगी। .. २ अल्तमश का नाम जैन ग्रन्थों में मउजुद्दीन लिखा मिलता है। G.G. Pt. III Page 216 प्र० को०२४ व० पृ०१४२) पृ०११७ M. I. Ps. 176 to 178. प्र० को०२४ व०प्र०१४३) पृ०११८ । व०च०स०प्र०श्लोक २१ से पृ० १०८ से ११०. प्र० को २० प्र.१४४) पृ० ११६। पु० प्र० सं० व०ते० प्र० श्लोक १४२) पृ० ६७ १५४) पृ० ७० व-च०स० प्र० श्लोक २०६६ पृ०११० से ११२। प्रचि० ०० प्र०१६१) पृ०१०३ यह घटना उक्त और अन्य ग्रन्थों में थोड़े २ अन्तर से मिलती हुई उल्लिखित है । अधिक ग्रन्थों में बादशाह की वृद्धामाता द्वारा की गई हजयात्रा का उल्लेख है । प्रबधचिन्तामणि में लिखा है कि बादशाह के गुरु मालिम ने मक्का की यात्रा की। किसी ग्रन्थ में पत्तनपुर और किसी में खंभात में नौनितिक के घर में बादशाह की माता का या मालिम गुरु का ठहरना, चोरी होना, महामात्य वस्तुपाल. द्वारा उनका सत्कार किया जाना लिखा है। बात वस्तुतः यह है कि हजयात्रा बादशाह की वृद्धा माता ने ही की थी और साथ में मालिम मौलवी भी थे। दिल्ली से खंभात के मार्ग में पत्तनपुर पड़ता है । चतुर महामात्य ने वृद्धामाता को पत्तन में पधारने के लिये अवश्य प्रार्थना की ही होगी। अल्तमश क्रीत गुलाम था। अतः इस कारण को लेकर यह मान लेना कि दिल्ली में उसकी माता कहाँ से आ सकती थी पूर्ण सत्य तो नहीं है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] :: प्राम्बाट-इतिहास :: [द्वितीय बाहरी आक्रमणों का अंत और अभिनव राजतंत्र के उद्देश्यों की पूर्ति गूर्जरभूमि पर फिर भी यादवगिरि के राजा सिंघण के पुनः आक्रमण का भय बना हुआ था। वि० सं० १२८८ में सिंघण एक विशाल चतुरंगिणी सैन्य लेकर गूर्जरभूमि पर चढ़ आया । महामात्य के गुप्तचरों से यह सब वि० सं० १२८८ में छिपा नहीं था। महामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, स्वयं महामण्डलेश्वर सिंघण का द्वितीय आक्रमण लावण्यप्रसाद गुर्जरभूमि के चुने हुये वीरों का सैन्य लेकर माही नदी के किनारे पर और स्थायी संधि। शिविर डाल कर सिंघण के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। उधर सिंघण मार्ग में पड़ते ग्रामों, नगरों को नष्ट-भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता चला आ रहा था। भरौंच का समस्त प्रदेश नष्ट करके ज्योहि उसने आगे बढ़ना चाहा, उसके गुप्तचरों तथा महामात्य वस्तुपाल के भेष बदले हुये गुप्तचरों से उसको यह सब पता लग गया कि कई गुणे सैन्य के साथ मण्डलेश्वर माही नदी के तट पर पड़ा हुआ है । बहुत दिवस निकल गये, लेकिन किधर से भी पहिले आक्रमण करने का साहस नहीं हो सका । अन्त में महामात्य वस्तुपाल के चातुर्य एवं उसके गुप्तचरों के कुशल प्रयास से दोनों में वि० सं० १२८८ वैशाक शु० १५ को संधि हो गई । सिंघण संधि करके पुनः अपने देश को लोट गया। सिंघण और राणक वीरधवल में फिर सदा मैत्री रही। अब गूर्जरदेश बाहर तथा भीतर सर्व प्रकार के उपद्रवों, विप्लवों, आक्रमणों से मुक्त हो गया । दिल्ली और यादवगिरि के शासकों के साथ हुई संधियों के विषय में श्रवण कर मालवपति भी शाँत बैठ गया और उसने भी दिल्लीपति और सिंधण के गूजेरदेश पर आक्रमण करने का विचार मस्तिष्क में से ही निकाल दिया और फिर बादशाह साथ हुई संधियों का अल्तमश ने जब वि० सं० १२६०-६१ में ग्वालियर को विजय करके दूसरे वर्ष मालवा मालवपति पर प्रभाष पर आक्रमण किया और भीलसा का प्रसिद्ध दुर्ग जीता तथा प्रसिद्ध नगर उज्जैन को नष्ट-भ्रष्ट करके महाकालकेश्वर के मन्दिर को लूटा तब तो इससे और भी मालवपति देवपाल की शक्ति क्षीण हो गई । इस अवसर से लाभ उठाकर दंडनायक तेजपाल ने राणक वीरधवल को साथ में लेकर वि० सं० १२६५ में लाट पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि लाटनरेश शंख राणक वीरधवल से वि० सं० १२६३ में पुनः दृढ़ मैत्री लाटनरेश शंख का अन्त कर चुका था । परन्तु फिर भी वह मालवपति और सिंघण से मिलकर छिपे २ षड़यन्त्र और लाट का गुर्जरभूमि में रचता रहता था, अतः महामात्य ने ऐसे शत्रु का अन्त करने के लिये यह बहुत ही मिलाना उपयुक्त समय समझा । इस युद्ध में शंख मारा गया और स्वयं राणक वीरधवल घायल होकर अश्व पर से पृथ्वी पर गिर पड़ा। वि० सं० १२६६ (सन् १२३६) में दंडनायक तेजपाल को वहाँ का शासक नियुक्त करके भरौंच सदा के लिये गूर्जरसाम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया । यद्यपि वैसे तो गूर्जरभूमि का यह पतनकाल था । जिस गुर्जरभूमि के सम्राटों का लोहा महमूदगौरी, मुहमद मजनवी, कुतुबुद्दीन मान चुके थे, धाराधीप भोज गुर्जरसम्राट की तलवार का भक्ष्य बन चुका था, भारत के किसी मन्त्री भ्राताओं के शौर्य भी प्रान्त, प्रदेश का कोई भी राजा और सम्राट् गूर्जरभूमि पर आक्रमण करने का का संक्षिप्त सिंहावलोकन साहस नहीं कर सकता था, भीम द्वितीय के इस शासनकाल में स्वयं गुर्जरभूमि के G. G. Pt. II P.218 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री बंस और महामात्य की नीतिज्ञता से गृहकलह का उन्मूलन :: [ १५५ सामंत, ठक्कुर, माएडलिक पत्तन से अपना संबंध बिच्छेद कर चुके थे और अपने को स्वतन्त्र सजा समझने समे श्रे और जिनको भीमदेव द्वि० पुनः वश में नहीं कर सका था तथा बाहर से होने वाले आक्रमणकारियों को भी वह रोकने में सदा विफल रहा; वहाँ राणक वीरधवल और महामण्डलेश्वर इन दो मंत्री भ्राता वस्तुपाल, तेजपाल के बल, शौर्य, बुद्धि और चातुर्य की सहायता पाकर गूर्जरसांमतों, ठक्कुरों, माण्डलिकों को पुनः गूर्जरसम्राट् के आज्ञावी बना सके और दिल्लीपति, यादवमिरिनरेशों के आक्रमणों को विफल करने में सफल हो सके-मंत्री भ्राताओं का अमात्यकार्य कैसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता है। महामात्य की नीतिज्ञता से मृहकलह का उन्मूलन राणक वीरधवल का स्वर्गारोहण और वीशलदेव का राज्यारोहण तथा वीरमदेव का अंत वि० सं० १२६५ (ई० सन् १५३८) में भरौंच के युद्ध में वीरधवल अति घायल हुआ और धवलकपुर में पहुंचते ही वीरगति को प्राप्त हो गया । समस्त गूर्जरप्रदेश में हाहाकार मच गया; क्योंकि वीरधवल ही एक ऐसा शासक था जो गूर्जरभूमि को निर्बल गुर्जरसम्राट् द्वितीय भीमदेव के अकुशल एवं शिथिल शासनकाल में बाहरी आक्रमणों से तथा भीतरी उपद्रवों से बचा सका था। वीरधवल के साथ उसकी मानिता राणियाँ तथा उसके १२० कृपापात्र अंगरक्षक भी जल कर स्वर्गगति को प्राप्त हुये । दिग्मूढ-सा महामात्य वस्तुपाल भी वीरधवल की चिता में जलने के लिये बहुत उत्साहित हुआ, लेकिन राजगुरु सोमेश्वर के सदुपदेश से वह रुक गया। अनेक सामंत और ठक्कुर भी चिता में जलने को तैयार हुये, लेकिन दंडनायक तेजपाल ने अपने अंगरक्षक सैनिकों की सहायता से उनको भी जलने से रोका । महामात्य वस्तुपाल ने वीरधवल के छोटे पुत्र वीशलदेव को जो बड़े पुत्र ऐयाशी वीरमदेव से अधिक उदार एवं बुद्धिमान था सिंहासनारूढ़ करना चाहा। वीरमदेव को वीरधवल भी नहीं चाहता था । वीरधवल की मृत्यु सुन कर वीरमदेव अपने साथी सामंत और ठक्कुरों को लेकर महामात्य वस्तुपाल से युद्ध करने को तैयार हुआ । वीरमदेव हारा और अपने श्वसुर जालोर के राजा उदयसिंह चौहान के पास सहायतार्थ पहुँचा । G. G. Pt. || P. 219 व० च० अ० प्र० श्लो० ४ से ४३ पृ० १२७,१२८ । प्र० चि० (हिन्दी) कु० प्र० १६४) १९५) पृ० १२८,१२६ प्र० को० व० प्र०१५०) पृ०१२४,१२५ G.G. Pt. 1|| P. 219 अनेक ग्रंथों में ऐसा लिखा मिलता है कि वीरधवल अपने संबंधी पंचग्राम के राजा अर्थात् राणी जयतलदेवी के भ्राता सांगण और चामुण्ड के साथ युद्ध करता हुश्रा रणभूमि में घोड़े पर से घायल होकर गिर पड़ा और मृत्यु को प्राप्त हुआ। यह युद्ध तो वि० सं० १२७७ में हुआ था और वीरधवल का स्वर्गारोहण वि० सं० १२६५ में हुआ अतः पंचग्राम के भूपतियों के साथ युद्ध करता हुश्रा वीरधवल घायल होकर गिर पड़ा और अंत में मृत्यु को प्राप्त हुआ, अमान्य है। वीरधवल का घायल होना और घोड़े पर से गिर पड़नेवाली एक घटना भद्रेश्वर के राजा भीमदेव के साथ हुये युद्ध की भी है। लेकिन इस युद्ध में वीरधवल घायल अवश्य हुआ था, लेकिन मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ था । वि० सं०१२६५ में सुअवसर देखकर उसने लाटनरेश शंख के ऊपर आक्रमण किया। इस युद्ध में शंख भी मारा गया और वीरधवल भी अत्यन्त घायल हुआ और अन्त में धवलकपुर में वीरगति को प्राप्त हुमा । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय महामात्य का इस आशय का पत्र चौहान राजा उदयसिंह के पास पहुँचा कि वीरमदेव भाग कर श्राया है, अगर उसकी तुमने सहायता की तो अपने प्राण भी खोओगे और राज्य भी गुमाओगे । वीरमदेव कुछ दिनों के बाद मार दिया गया और उसका सिर धवलकपुर भेज दिया गया। वीरमदेव को मरवाये जाने का एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि वह अपने श्वसुर उदयसिंह को मारकर स्वयं जालोर का शासक बनने का प्रयत्न करने लगा था तथा आने जाने वाले यात्रियों को लूट कर उनको बड़ा तंग करने लगा था। अंत में उदयसिंह ने अपने वीर सैनिकों को भेज कर उसको मरवा डाला । गूर्जर भूमि एक बार फिर गृहकलह की अग्नि में पड़ कर भस्म होने से बच गयी । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी इस समय जीवित थे । वीरमदेव उनको वीशलदेव से अधिक प्रियतर था । लेकिन वीरमदेव एक बार स्वयं मण्डलेश्वर को मारने पर उतारु हो गया था । अतः उन्होंने भी वीरमदेव की सहायता करने का तथा उसको सिंहासनारूढ़ करवाने का विचार ही नहीं किया । गूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वि० भी वीरमदेव को नहीं चाहते । महामात्य वस्तुपाल के बल और बुद्धि से वीशलदेव का राज्य अब निष्कंटक हो गया। का प्रयत्न करने लगा । वि० सं० १२६५ में लाटप्रदेश को वीरधवल ने जीत लिया था गूर्जरप्रदेश के सर्व सामन्तों ने, ठक्कुरों ने एवं माण्डलिकों ने राणक वीशलदेव को अपना शिरोमणि स्वीकार कर लिया, लेकिन एक डाहलेश्वर नरसिंहदेव जो कर्ण का वंशज था और बाघेलावंश की हुई उन्नति और वीशलदेव की सार्वभौमता बढ़ते हुये गौरव को देखकर जलता था, वीरधवल का स्वर्गारोहण सुनकर स्वतन्त्र होने और डाइलेश्वर का दमन और अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था । शंख का पुत्र भी डाहल के राजा से जा मिला और उसने भी अपने पिता का खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त करना चाहा। वीशलदेव अभी अभिनव और अनुभवहीन शासक था, वह यह देखकर भयभीत हो उठा। लेकिन महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ने इससे घबराने का कोई कारण नहीं समझा । दंडनायक तेजपाल विशाल सैन्य लेकर डाहलेश्वर का सामना करने को चला । डाहलेश्वर परास्त हुआ और उसने वीशलदेव की अधीनता स्वीकार की । तेजपाल को डाहलेश्वर ने एक लक्ष स्वर्णमुद्रायें और अनेक बहूमूल्य वस्तुयें भेंट कीं । तेजपाल बहूमूल्य वस्तुयें और एक लक्ष स्वर्णमुद्रायें लेकर वीशलदेव की राजसभा में पहुँचा । वीशलदेव ने उठकर तेजपाल का पितातुल्य स्वागत किया और पारितोषिक रूप में एक लक्ष स्वर्णमुद्रायें जो डाइलेश्वर ने भेंट रूप में भेजी थीं, तेजपाल को ही भेंट में प्रदान कर दीं । रा०मा० (वीरम अने वीशल, वीरमसंबंधी बीजी हकीकत) पृ० ४७८ - ४८२ रा० मा० (वीसलदेव ने डाहलेश्वर बच्चे संग्राम) पृ० ४८३) से ४८५ व० च० श्रष्टम प्र० श्लोक ५५ से ७६ पृ० १२८, १२६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य का पदत्याग और उसका स्वर्गारोहण : [१४७ महामात्य का पदत्याग और उसका स्वगारोहण महाराणक बीशलदेव का अब राज्य निष्कंटक हो चुका था। उत्तराधिकारी वीरमदेव भी स्वर्गस्थ हो चुका था । समस्त गूर्जरसाम्राज्य में एकदम शांति और सुव्यवस्था थी । यद्यपि महाराणक वीरधवल के अकस्मात् देहावसान से गूर्जरराज्य को एक बहुत बड़ा धक्का लगा था। परन्तु फिर भी मन्त्री भ्राताओं के तेज, बल, पराक्रम, प्रभाव और व्यक्तित्व से स्थिति बिगड़ नहीं पाई। राज्यकोष भी परिपूर्ण था। बाह्य शत्रुओं का भी अन्त-सा हो गया था। गूर्जरसैन्य अत्यन्त समृद्ध और विस्तृत था । वीशलदेव के नाम पर मंत्री भ्राताओं ने अगणित धन व्यय कर वीशलदेव नामक एक अति रमणीक नगर बसाया । उसको समृद्ध राजप्रासादों, उद्यानों, सरोवर, वापी, कूप और मन्दिरोंहाट-बाटों से सुसज्जित बनाया । सर्वत्र शान्ति एवं सुव्यवस्था थी, लेकिन फिर भी महामात्य को अपना अभिन्न मित्र महाराणक वीरधवल के स्वर्गस्थ हो जाने से चैन नहीं पड़ती थी। निदान अपना भी अन्त समय निकट आया हुआ जानकर एक दिन महामात्य ने राजसभा में महाराणक वीशलदेव के समक्ष राज्यमुद्रा अर्पित करते हुये अब राज्यकार्य करने से अपनी अनिच्छा प्रकट की । महाराणक वीशलदेव के बार-बार प्रार्थना करने पर भी वस्तुपाल अपने निश्चय से नहीं टले । अन्त में वस्तुपाल की प्रार्थना मान्य करनी पड़ी । महाराणक वीशलदेव ने वह राज्य-मुद्रा दंडनायक 'एतक्कि पुनरात्मनैव सजनैराच्छिद्यमानोप्यसौ मंत्रीशस्य मुशायते स्म निभृतं देहेऽस्य दाहज्वरः ॥२६॥ 'वर्षे हर्षनिषण्णषण्णवतिके श्रीविक्रमोवीभृतः कालाद् द्वादशसंख्यहापनशतात् मासेऽत्र माघाहये । पंचम्या च तिथौ दिनादिसमये वारे च भानोऽस्तवोद्वोदु सद्गतिमस्ति लग्नमसमं तत्त्वर्यता त्वर्यताम् ॥३७॥ 'विज्ञाप्येति निगूढ़मन्यु ललितादेव्या विसृष्टोऽनुगानापृच्छयाश्रुपरान्पुरीपरिसरे पौरान्समस्ताननु । राज्योद्धारनयप्रचारविधये मंत्रीश्वरः शिक्षयंस्तेजःपालमसावदः समलसद्यानस्थितः प्रस्थितः ॥४७॥ व०वि० सं०१४ पृ० ७७-७८ प्र. को० पृ०१२७ । रा०मा० भा० २१०४६३,४६४ । महामात्य वस्तुपाल का स्वर्गारोहण वि० सं० १२६८ में पु० प्र० सं० पृ०६८।व० च० प्रस्ताव ८, पृ०१३० श्लो० ४२ । लिखा है। उक्त सर्व ग्रंथ रचनाकाल की दृष्टि से महामात्य वस्तुपाल के पीछे के हैं और 'वसंतविलास' नामक नाटक की रचना महामात्य वस्तुपाल के पुत्र जैत्रसिंह के विनोदार्थ वस्तुपाल के समाश्रित तथा समकालीन कवि बालचन्द्रसरिकृत है, अतः यह ग्रंथ अधिक प्रमाणित है। (A) Mr. T. M. Tripathi B. A. informs that he has found the following dates of the deaths of the two brothers in an old leaf of a paper ms. 'सं०१२६६ महं० वस्तुपालो दिवंगतः। सं० १३०४ महं० तेज पालो दिवंगतः। (B) ao fào Introduction P. VIII 'स्वस्ति सं० १२६६ वर्षे वैशाख शुदि ३ श्रीशत्रुजयतीर्थे महामात्यतेजःपालेन कारित' प्रा०जैल ० सं० ले०६६ व०वि० Introduction P.XI वि० सं० १६५ में महाराणक वीरधवल की मृत्यु हुई और वि० सं० १२६६ में महामात्य की। इस एक वर्ष के काल में वीरमदेव का युद्ध, डाहलेश्वर का युद्ध और वीशलदेव का राज्यारोहण और फिर ऐसी स्थिति में महाबली, पराक्रमी, यशस्वी, धर्मात्मा, न्यायशील महाप्रभावक महामात्य वस्तुपाल को पदच्युत करने की कथा और उसके कतिपय बार अपमानों की वार्ता और वे भी वीशलदेव के द्वारा जो अभी नवशासक है और जिस स्वयं के ऊपर महामात्य के अनंत उपकार हैं, महामात्य के प्रभाव से ही जिसको राज्यगद्दी प्राप्त हुई है- कल्पित और पीछे से जोड़ी हुई हैं। फिर भी प्रसिद्ध २ अपमानजनक घटनाओं का उल्लेख चरणलेखों में कर देता हूँ। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्बाट-इतिहास:: [द्वितीय तेजपाल को अर्पित की और भरी राजसभा में महामात्य वस्तुपाल का पितातुल्य सम्मान और अर्चन किया और अपने सामन्तों, उच्च राज्यकर्मचारियों और प्रसिद्ध सुभट तथा योद्धाओं तथा राज्य के पंडितों और श्रीमन्तों के सहित वह महामात्य को उसके घर तक पहुँचाने गया। राणक वीरधवल के साम्राज्य का विस्तार, भीतरी एवं बाहरी शत्रुओं के भय का नाश एक मात्र महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल के बुद्धि, बल एवं कुशलता से हो सका था । स्वयं वीशलदेव जो राज्यसिंहासन का अधिकारी न होते हुए भी सिंहासनारूढ़ हो सका था यह भी प्रताप मन्त्री माताओं का था । परन्तु वीशलदेव अनुभवहीन होने के कारण मन्त्री भ्राताओं के वैभव और तेज-प्रताप को देखकर मन ही मन कुढ़ने लगा। मन्त्री भ्राताओं के दुश्मनों एवं निंदकों को अब अच्छा समय मिला और वे इन मंत्री-भ्राताओं के विषय में अनेक झूठी-सच्ची बातें बनाकर वीशलदेव को इन पर अधिक कुपित करने लगे। वि० सं० १२६६ के प्रारंभ में एक दिन वीशलदेव ने दंडनायक तेजपाल को राज्यमुद्रा अपने मित्र नागड़ को अर्पण कर देने की आज्ञा दी। महामात्य वस्तुपाल ने सहर्ष राज्यमुद्रा अर्पण करवा दी। राणक वीशल देव ने महामात्य वस्तुपाल को श्रीकरण के पद से हटाकर लघुश्रीकरण का पद दिया । समयज्ञ एवं अनुभवशील चतुर मन्त्री भ्राताओं ने यह अपमान सहन कर लिया। महाकवि सोमेश्वर, मण्डलेश्वर लवणप्रसाद ऐसे परम उपकारी देशभक्त, धर्मवीर, रणवीर मन्त्री भ्राताओं का यह अपमान देखकर अत्यन्त दुःखी हुए। वे भी अब वृद्ध हो चुके थे और स्वयं मन्त्री भ्राता भी अब वृद्ध हो चुके थे और थोड़े समय में तो अवकाश ग्रहण करने वाले ही थे, इसके अतिरिक्त सिंहासन का सन्चा अधिकारी वीरमदेव भी स्वर्ग को पहुँच चुका था, ऐसी स्थिति में उन्होंने हठाग्रही और कुविचारी वीशलदेव को हितोपदेश देने में लाभ के स्थान में हानि ही होती सोची और श्रतः चुप रह गये। रा०मा० भा०२ पृ० ४८६ राज्ञा पूर्वप्रीत्या [वृद्धनगरीय नागड़नामा विप्रः प्रधानीकृतः । मन्त्रिणः पुनर्लघुश्रीकरणमात्रं दत्तम् । प्र० को० ३०प्र०१५१) पृ० १२५ वीशलदेव का समराक नामक प्रतिहार था । यह महामात्य वस्तुपाल द्वारा किसी अपराध के कारण पहिले दण्डित हो चुका था। वीशलदेव का यह कृपापात्र हो चला था । अब इसने प्रतिशोध लेने का यह अच्छा अवसर समझा । इसने निर्बुद्धि वीशलदेव के मन में यह बात गहरी जमा दी कि मन्त्री भ्राताओं के पास जो अतुल वैभव और धन-सम्पत्ति है वह सब राज्य की है और इन्होंने धर्मस्थानों 1 में, तीर्थों में, नगर, पुर, ग्रामों में जो धन व्यय किया है, वह सब भी राज्य का ही धन था । राज्यकोष भी अब वैसा समृद्ध नहीं रह गया था, जैसा राणक वीरधवल के समय में था । मन्त्री भ्राताओं के पदों में अवनति करने के पश्चात् राज्यकोष में बाहर से आने वाली श्राय भी कम पड़ गई थी। राणक वीरधवल की पुण्यस्मृति में मन्त्री भ्राताओं ने वीशलदेव के आदेश से वीशलपुर नामक नगर अति धन व्यय करके बसाया था । अनेक मन्दिर बनवाये गये थे। इनमें ब्रह्माजी का मन्दिर अत्यन्त धन व्यय करके बनवाया गया था और वह कला की दृष्टि से अधिक प्रसिद्ध था। यह नगर हर प्रकार से समृद्ध एवं वैभवशाली बनाया गया था। इस नगर के वसाने में राज्यकोष का बहुत द्रव्य लगा था। इस नगर के वस जाने के थोड़े दिनों पश्चात् ही वीशलदेव ने मन्त्री भ्राताओं का अपमान करना प्रारंभ कर दिया और राज्यमुद्रा भी छीन ली। अतः वह रिक्त हुआ राज्यकोष पुनः समृद्ध नहीं हो सका। दुर्बुद्धि वीशलदेव ने मन्त्री भ्राताओं पर राज्यद्रव्य खाने का अपराध लगा कर उनके अगणित द्रव्य को छीन कर रिक्त होते जाते राज्यकोष को भरने का समराक की बातों में श्राकर अनुचित विचार किया। रा० मा० भाः २ पृ० ४८७ "निजनाम्ना निवेश्योा , नगरं मन्त्रिणा नवं । श्री वीसलनृपोऽनेकधर्मस्थानमनोहरम् ॥४७॥ व०च०१०प्र० पृ० १२८ 'एकसमराकनामा प्रतिहारो.................देव । अनयोः पार्वेऽनन्तधनमस्ति तदाच्यताम् । प्र०को० १५१) पृ० १२५ राणक वीशलदेव ने एक दिन दोनों मंत्री भ्राताओं को आज्ञा दी कि वे अपना समस्त धन लेकर राजसभा में उपस्थित होवें। मंत्री भ्राताओं ने कहा कि उनके पास जितना द्रव्य संचित हुआ था वह अधिकांश में शत्रुञ्जयादि तीर्थों में व्यय किया जा चुका है। राजा ने हठ पकड़ ली और अंत में जब मंत्री भ्राता राजा की उक्त आज्ञा पालने में तत्पर होते नहीं दिखाई दिये तो राजा ने दुष्ट राजसमासदों की बातों में आकर एक घट में काला सर्प रखवाया और उस सर्प को घट में से निकाल कर सत्यता का परिचय देने के लिये मंत्री माताओं से कहा । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद ने वीशलदेव को बहुत समझाया, परन्तु वह निर्बुद्धि राजा नहीं माना | अंत में ज्योहि महामात्य वस्तुपाल राजसभा के मध्य में रक्खे हुए घट में से सर्प निकालने को उठा महाकवि सोमेश्वर जो अब तक वीशलदेव की मूर्खता को देखकर मन में कुढ़ रहे थे और सोच रहे थे कि ऐसे राजाधम शासक को क्यों न सिंहासन से च्युत कर दिया जाय जो गूर्जरभूमि के एकमात्र सुपुत्र, परम भक्त, महाधार्मिक, सर्वगुणसम्पन, अजेय योद्धा पर राज्यमद में आकर अत्याचार करने पर उतार हो रहा है, उठे निवेश्योग रा० मा० भाद्रव्य को ही Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और महामात्य का पदत्याग और उसका स्वर्गारोहण :: [ १४६ एक दिन महामात्य वस्तुपाल को ज्वर चढ़ आया । महामात्य वस्तुपाल ने अपना अन्तिम दिवस निकट आया समझ कर शत्रुंजयतीर्थ की अन्तिम यात्रा करने की तैयारी की । महाराणक वीशलदेव और समस्त सामंत, चतुरंगिणी सैन्य, नगर के श्रीमंत, पंडित, आबालवृद्ध जन और महामात्य के संबंधी और परिजन महामात्य को धवलक्कपुर के बाहर बहुत दूर तक विदा करने आये । महामात्य ने सर्वजनों से क्षमत- क्षमापना किये और महाराणक वीशलदेव को आशीर्वचन देकर तीर्थ की ओर प्रस्थान किया । यह महामात्य की तेरहवीं तीर्थयात्रा थी । महामात्य के साथ में उसकी दोनों स्त्रियाँ और सारा परिवार था । मार्ग में अंकेवालिया नामक ग्राम में महामात्य का स्वर्गवास वि० सं० १२६६ माघ शुक्ला ५ (पंचमी) रविवार के दिन हो गया । महामात्य का अन्तिम संस्कार और महामात्य वस्तुपाल को सर्प निकालने से रोकते हुये राणक वीशलदेव को भर्त्सना देने लगे और उन मंत्री भ्राताओं के सारे परोपकार, महत्त्व के कार्य जो उन्होंने राज्य, राजपरिवार, राणक वीरधवल और स्वयं वौशलदेव को सिंहासनारूढ कराने के लिये किये थे कह सुनाये और कहा कि राजन् ! अगर ऐसे राज्य के महोपकारी पुरुषोत्तम के ऊपर भी तुम्हारी कुदृष्टि हो सकती है तो हम भी आपके विषय में क्या विचार कर सकते हैं सोच लेना चाहिए। ये मंत्री भ्राता सरस्वती के और धर्म के पुत्र हैं। इन्हें कौन जीत सकता है और इन पर कौन अत्याचार करने में समर्थ हैं । ये तुम्हें मात्र अपना बालक समझकर क्षमा कर रहे हैं। ये विपरीत हो जाँय तो तुम्हारे चाटुकार राज्यसभासद् जिन्होंने तुम्हारे मस्तिष्क को बिगाड़ दिया है, एक पलभर के लिए इनके समक्ष नहीं ठहर सकेंगे। जब रागक वीरघवल ने इनको महामात्यपदों का भार संभालने के लिये आमंत्रित किया था, उस समय राणक वीरधवल मंत्री भ्राताओं के द्वारा निमंत्रित होकर पहिले इनके घर भोजन करने गया था। उस समय इन दूरदर्शी मंत्री भ्राताओं ने राणक वीरधवल से यह वचन ले लिया था कि अगर राजा कभी कुपित भी हो जाय तो इनके पास जितना अभी द्रव्य है, उतना इनके पास रहने देकर मुक्त कर दिया जाय । महाकवि की भर्त्सना से राणक वीशलदेव का क्रोध शांत पड़ गया और मंत्री भ्राताओं के उपकारों को स्मरण कर वह रोने लगा और सिंहासन से उठकर मन्त्री भ्राताओं से क्षमा मांगता हुआ अपने किये पर पश्चात्ताप करने लगा और कहने लगा कि वे अपना राज्यसंचालन का भार पुनः संभालें । मंत्री भ्राताओं ने वृद्धावस्था आ जाने के कारण वह अस्वीकार किया ? परन्तु वीशलदेव हठी था, उसने एक नहीं मानी । अन्त में तेजपाल महामात्यपद पर आरूढ किया गया और महामात्य वस्तुपाल ने विरक्त जीवन व्यतीत करने की अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट करते हुए एक वीशलदेव से उसको राज्यकार्य से मुक्त करने की प्रार्थना की। राणक वी शलदेव को भारी हृदय के साथ महामात्य की अन्तिम इच्छा को स्वीकार करना पड़ा और वह महामात्य को उसके घर तक पहुँचाने बड़े समारोह के साथ गया । एक दिन मामा सिंह अपने प्रासाद से राजप्रासाद को जा रहे थे । मार्ग में जब वे पालखी में बैठे हुए निकल रहे थे, एक जैन उपाश्रय की ऊपरी मंजिल से किसी जैन साधु ने कूड़ा-कर्कट डाल दिया और वह रथ में बैठे हुये मामा सिंह पर उडकर गिर पड़ा। यह देखकर मामा सिंह अत्यन्त क्रोधित हुये और रथ से उतर कर उपाश्रय की ऊपर की मंजिल पर गये और साधु को प्रताड़ना दी । उक्त साधु रोता हुआ महामात्य वस्तुपाल के पास पहुँचा । महामात्य उस समय भोजन करने बैठा ही था, यह कथनी श्रवण कर वह उठ बैठा और अपने सेवकों को बुलाकर कहा कि क्या कोई ऐसा वीर योद्धा है, जो धर्म और गुरु का अपमान करने वाले अपराध के दंड में मामा सिंह का बाँया हाथ काट कर ला सके । भुवनपाल नामक एक वीर आगे बढ़ा और महामात्य ने उसको सज्जित होकर जाने की आज्ञा दी और शेष सब सेवकों को विशेष परिस्थिति के लिये तैयार रहने की तथा जो मरने से डरते हो उनको घर जाने की आज्ञा दी । भुवनपाल घोड़े पर चढ़ कर दौड़ा और मामा सिंह के पास जा पहुँचा । नमस्कार करके संकेत किया कि महामात्य का कोई संदेश लेकर आया हूँ । मामा सिंह ज्योंहि संदेश सुनने को झुका कि भुवनपाल ने उसका बाँया हाथ काट लिया और तुरंत घोड़ा दौड़ाकर महामात्य के पास पहुँचा और कटा हुआ हाथ आगे रक्खा । महामात्य ने उसको धन्यवाद दिया और युद्ध की तैयारी करने की आज्ञा दी । मामा का हाथ मन्त्रीप्रासाद के सिंहद्वार के बाहर दिवार पर दिखाई देता हुआ लटका दिया गया कि जिससे लोग समझ सके की किसी धर्म का अपमान करने का कैसा फल होता है। उधर मामा सिंह का हाथ काटा गया है जेठवाजाति के लोगों ने सुनकर महामात्य को नीचा दिखाने के लिये युद्ध की तैयारी प्रारंभ की। बात की बात में सारे नगर में खलबली मच गई। मामा सिंह राजसभा में पहुंचा और महाराएक वीशलदेव को जो उसका भानजा था, महामात्य वस्तुपाल के सेवक द्वारा अपने हाथ के काटे जाने की बात कही। वीशलदेव ने प्रत्युत्तर में कहा कि Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय श्रीशत्रुजयपर्वत पर विविध सुगन्धित पदार्थों, कपूर, चन्दन, श्रीफलों से किया गया । महामात्य के स्वर्गारोहण से समस्त गूर्जरसाम्राज्य में महाशोक छा गया। महामात्य तेजपाल तथा जैत्रसिंह ने दाहसंस्थान पर जहाँ महामात्य वस्तुपाल का अग्निसंस्कार किया गया था, स्वर्गारोहण नामक प्रासाद विनिर्मित करवाया और उसमें नमि और विनमि के साथ में श्री आदिनाथ-प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया। मंत्री भ्राताओं का अद्भुत वैभव और उनकी साहित्य एवं धर्मसंबंधी महान सेवायें वस्तुपाल ने अपनी सफल नीति एवं चातुर्य से, तेजपाल ने रणकौशल एवं जयमाला से अथात् दोनों भ्राताओं ने अपने २ बुद्धि, बल, साहस, पराक्रम से धवलकपुर के मण्डलेश्वर राणक वीरधवल को सार्वभौम सत्ताधीश, महावैभवशाली, अजेय राजा बना दिया । धवलकपुर के राजकोष में धन की प्रचंड बाढ़ आ गई थी, सैन्य में अनंत वृद्धि एवं समृद्धि हो गई थी। इसके बदले में महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद एवं राणक वीरधवल ने भी समय-समय पर दोनों भ्राताओं का अपार धनराशि, मौक्तिक, माणिक, गज, अश्व पारितोषिक रूप से प्रदान कर अद्भुत मान-सम्मान सहित स्वागत किया. जिसके फलस्वरूप वस्तपाल-तेजपाल का ऐश्वर्य वणर्नातीत हो गया और ये दोनों मंत्री भ्राता महामात्य वस्तुपाल जैसा धर्मात्मा और न्यायशील पुरुष कभी भी ऐसा कोई कार्य अकारण नहीं कर सकता। राजगुरु सोमेश्वर को महाराणक वीशलदेव ने महामात्य वस्तुपाल के पास भेजा कि वे पता लगा कि इस घटना का कारण क्या है और महामात्य वस्तुपाल को राजसभा में लावें । सोमेश्वर महामात्य के प्रासाद को पहुंचे और मन्त्री के पास उपस्थित हुए। मन्त्री को सुसज्जित देखकर और मन्त्री के मुख से आदि से अन्त तक की कहानी श्रवण कर सोमेश्वर ने कहा, 'मन्त्रीप्रवर! छोटी-सी बात को इतना बढ़ा दिया, सिंह महाराणक का मामा है, जेठवाजाति प्रतिशोध लेने के लिये तैयार हो चुकी है, सारा नगर भयत्रस्त हो चुका है। अब आप राजसभा में चलें और किसी प्रकार समझौता कर लें।' महामात्य ने सोमेश्वर से कहा, 'मित्रवर ! धर्म का अपमान मैं नहीं देख सकता । सारे सुख और वैभव भोगे । अन्तिम अवस्था है। मेरी हार्दिक इच्छा भी अब यही है कि जैसे धर्म के लिये जिया उसी प्रकार धर्म के लिए मरू' सोमेश्वर महामात्य का दृढ़ निश्चय देखकर वहाँ से विदा हुये और राजसभा में पहुँच कर महाराणक वीशलदेव को सारी स्थिति, महामात्य का दृढ़ निश्चय समझा दिया। महाराणक वीशलदेव ने सोमेश्वर से पूछा । 'गुरुदेव ! ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, कुछ समझ में नही आता।' सोमेश्वर ने कहा-'वीशलदेव ! महामात्य वस्तुपाल महाधर्मात्मा, न्यायशील, सरस्वतीभक्त, उच्चकोटि का विद्वान् है और गूर्जरसाम्राज्य के ऊपर तथा आप स्वयं के उपर उसने अपार उपकार किये हैं, जिनका बदला कभी भी नहीं चुकाया जा सकता और फिर यहाँ तो मामा जेठवा का अपराध पहिले हुआ है । महामात्य को सन्मानपूर्वक राजसभा में बुलवाना चाहिए और मामा जेठवा महामात्य से अपने द्वारा किये गये धर्म का अपमान करने वाले अपराध की क्षमा मांगे और तत्पश्चात् महामात्य को सम्मानपूर्वक विदा करके घर पहुंचाना चाहिए । महामात्य एक ऐसे अमूल्य व्यक्ति हैं, जो समय पर काम देने वाले हैं।' महाराणक ने महामात्य को सम्मानपूर्वक राजसभा में लाने के लिये अपने प्रसिद्ध २ सामन्तों को भेजा । महामात्य उसी वीर-वेष में राजसभा में आये। महाराणक वीशलदेव ने उनका पिता तुल्य सम्मान किया । मामा जेठया ने अपने किये गये अपराध की चरणों में पड़कर क्षमा मांगी। महामात्य वस्तुपाल ने महाराणक वीशलदेव को शासन किस प्रकार करना चाहिए पर अनेक रीति संबंधी हितोपदेश दिया और आशीर्वचन देकर विदा लौ । महाराणक वीशलदेव ने प्रतिज्ञा ली कि आगे वह कभी भी अपने शासनकाल में जैन-साधुओं का अपमान नहीं होने देगा और जो अपमान करेगा उसको वह कठोर दण्ड देगा। तदुपरांत महामात्य को उसके घर पर अत्यन्त सम्मान और समारोह के साथ पहुँचाया। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्मसंबंधी सेवायें :: [१५१ जैसी समाज, देश और धर्म की तथा कला, विज्ञान और विद्या की सेवा कर सके, वैसा श्रमात्य संसार में आज तक तो कोई नहीं हुआ जिसने इनसे बढ़कर अपने धन का, तन का और शुद्धात्मा का उपयोग इस प्रकार निर्विकार, वीतराग, स्नेह-प्रेम-वत्सलता से जनहित के लिये बिना ज्ञाति, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त, देश के भेद के मुक्तभाव से किया हो । महामात्य की समृद्धता का पता निम्न अंकनों से स्वतः सिद्ध हो जाता है । नित्य वस्तुपाल की सेवा में क्षत्रियवंशी उत्तम सुभट तेजपाल की सेवा में महातेजस्वी रणबांकुरे राजपुत्र मज्ञातीय घोड़े १८०० १४०० ५००० २००० १०००० ३०००० २००० १००० १००० 27 १००० दास-दासी १०००० अनेक राजा महाराजाओं से भेंट में प्राप्त उत्तम हाथी ३०० स्वर्ण चांदी रत्न, माणिक, मौक्तिक नकद रुपये ५००००००००) अनेक भांति के वस्त्र आभूषण ५००००००००) के द्रव्य के भंडार ५६ जैसे राजकार्य विभागों में विभक्त था, ठीक उसी प्रकार महामात्य ने अपने घर के कार्यों को भी विभागों में विभक्त 97 "" 11 11 " " " " 11 "" 19 पवनवेगी घोड़े साधारण घोड़े उत्तम गायें बैल " " " ऊंट भैसें सांडनियाँ ८ (४)०००००००) का ८०००००००) की अगणित की ० कौ० (गुजराति भाषांतर) पृ० ३८, ३६ 'यः स्वीयमातृपितृपुत्रकलत्रबन्धुपुण्यादिपुण्यजनये जनयाञ्चकार, सद्दर्शनत्रजविकाशकृते च धर्मस्थानावलीयनीमवनीनशेषाम्' न० ना० न० स० १६ श्लो० ||३७|| ५० ६१ 'तेन भ्रातृयुगेन या प्रतिपुरमामाध्वशैलस्थलं वापीकूपनिपानकाननसरः प्रासादसत्रादिका । धर्मस्थानपरंपरा नवतरा चक्रेऽथ जीर्णोद्धृता तत्संख्यापि न बुध्यते यदि परं तद्वेदिनी मेदिनी ॥ ६६ ॥ प्रा० जै० ले० सं० [अर्बुदाचल - प्रशस्ति ] 'दक्षिणस्था श्रीपर्वतं यावत् पश्चिमायां प्रभासं यावत् उत्तरस्या केदारं यावत् तयोः कीर्तनानि सर्वाग्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दशलक्षा श्रष्टादश सहस्राणि श्रष्टशतानि लोष्ठिकत्रितयोनानि द्रव्यव्ययः' । वि० ती० क० ४२ पृ० ८० इन श्लोकों से यह स्पष्ट मानने योग्य है कि ऐसे अगणित धर्मकृत्य कराने वालों के पास इतने वैभव, घन और वाहनों का होना कोई आश्चर्यकारक बात नहीं । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय कर रक्खा था । मुख्य विभाग येथे- भोजन-विभाग, सैनिक-विभाग, धार्मिक-विभाग, साहित्य-विभाग, गुप्तचर-विभाग, निर्माण विभाग, सेवक-विभाग । इन सर्व विभागों के अलग २ अध्यक्ष, कार्यकर्ता थे। भोजन-विभाग यह विभाग दंडनायक तेजपाल की स्त्री अनुपमादेवी की अध्यक्षता में था। महा० वस्तुपाल की स्त्री ललितादेवी संयोजिका थी । भोजन प्रति समय लगभग एक सहस्र स्त्री-पुरुषों के लिए बनता था। जिसमें साधु-सन्त, अभ्यागत, अतिथि,नवकर, चारकर, चारकरणी, प्रमुख कार्यकर्ता,अंगरक्षक,परिजन भोजन करते थे। स्वयं अनुपमादेवी,ललितादेवी, सोख्यकादेवी, सुहड़ादेवी और महामात्यों की भगिनियें नित्यप्रति भक्ति एवं मानपूर्वक अपने हाथों से सर्व को भोजन कराती थीं। भोजन सर्वजनों के लिये एक-सा और अति स्वादिष्ट बनता था। महाराणक वीरधवल भी एक दिन अतिथि के वेष में भोजन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अनुपमादेवी, ललितादेवी के मुखों से पुनः २ यह श्रवण कर कि यह सर्व महाराणक वीरधवल की कृपा का प्रताप है कि वे सेवा करने के योग्य हो सके हैं, वस्तुतः इस सर्व का यश और श्रेय महाराणक वीरधवल को है, महाराणक वीरधवल इस उच्चता और श्रद्धा-भक्ति को देखकर गद्गद् हो उठा और अन्त में प्रकट होकर धन्यवाद देकर राजप्रासाद को गया। जैन, जैनेतर कोई भी रात्रि-भोजन नहीं कर सकता था । कंदमूल, अभक्ष्य पदार्थ भोजन में नहीं दिये जाते थे। निजी सैनिक-विभाग यह विभाग वस्तुपाल के पुत्र जैत्रसिंह की अधिनायकता में था । इसके सैनिक दो दलों में विभक्त थेमहामात्य वस्तुपाल के अंगरक्षक और दंडनायक तेजपाल के रणनिपुण सुभट । महा पराक्रमी एवं कुलीन अंगरक्षक अट्ठारह सौ १८०० और सुभट १४०० चौदह सौ थे । इस विभाग में वे ही सैनिक प्रविष्ट किये जाते थे जो उत्तम कुलीन, प्राणों पर खेलने वाले, गूर्जरसम्राट और साम्राज्य के परम भक्त हों तथा जिन्होंने अनेक रणों में शौर्य प्रकट किया हो, आदर्श स्वामिभक्ति का परिचय दिया हो। इस प्रकार यह साम्राज्य के चुने हुये वीर, दृढ़ साहसी, विश्वासपात्र सैनिकों का एक दल था, जिस पर दोनों मन्त्री भ्राताओं, राणक और मंडलेश्वर का पूर्ण विश्वास था। भद्रेश्वरनरेश भीमसिंह के चौदह सौ सुभट राजपुत्र ही तेजपाल के सुभट थे। राज्य का सैनिक-विभाग इससे अलग था। ये सैनिक तो केवल महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल के अत्यन्त विश्वासपात्र सुभट थे। ये सदा मन्त्री भ्राताओं की सेवा में तत्पर रहते थे। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्म संबंधी सेवायें :: [१५३ साहित्य-विभाग और महामात्य के नवरत्न __ यह विभाग महामात्य ने विद्वत्सभा बनाकर संस्थापित किया था, जिसके अध्यक्ष महाकवि सोमेश्वर थे। पं० हरिहर, महाकवि नानाक, मदन, सुभट, पाल्हण, जान्हण, प्रसिद्ध शिल्पशास्त्री शोभन और महाकवि अरिसिंह नाम के सुप्रसिद्ध नव विद्वान् थे । ये सर्व विद्वान् एवं कवि लघुभोजराज वस्तुपाल के नवरत्न कहलाते थे । जैन कवि और प्रखर विद्वान् आचार्य-साधु जैसे विजयसेनमूरि, अमरचन्द्रसूरि, उदयप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसरि जयसिंहमूरि, बालचन्द्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि आदि अनेक विद्वान् साधु इस सभा से सम्बन्धित थे। इनमें से प्रत्येक ने अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ लिखकर साहित्य की वह सेवा की है, जो धारानरेश भोज के समय में की गई साहित्य की सेवा से प्रतियोगिता करती है। महामात्य वस्तुपाल स्वयं महाकवि था और उसने भी संस्कृत के कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। महामात्य विद्वानों, पंडितों का बड़ा समादर करता था। उसने अपने जीवन में लक्षों रुपये विद्वानों को पारितोषिक रूप में दिये । वह अनेक विद्वानों को भोजन, वस्त्र और अनेक बहुमूल्य वस्तुयें दान करता था । महामात्य को इसीलिये 'लघुभोजराज' कहते हैं। इस विभाग की देख-रेख में ५०० पाँच सौ लेखकशालायें प्रमुख २ नगरों में चल रही थीं। ये लेखक नवीन ग्रन्थ लिखते और अनेक विषयों के प्राचीन जैन, जेनेतर ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करते, संस्कृत में, प्राकृत में भाषा-टीका करते और अनुवाद करते थे। हर एक ग्रन्थ की तीन प्रतियाँ तैयार की जाती थीं, जो खम्भात, पत्तन, भृगुपुर के बृहद् ज्ञानभण्डारों में एक २ भेजी जाती थीं और वहाँ पर अत्यन्त सुरक्षित रक्खी जाती थीं । इस विभाग की तत्त्वावधानता में १८०००००००) अट्ठारह कोटि रुपया महामात्य ने व्यय किया था। प्रथम रत्न महाकवि सोमेश्वर थे। राजगुरु भी ये ही थे। पत्तन और धवलकपुर की राज्यसभाओं में इनका पूरा पूरा मान था । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद, राणक वीरधवल, महामात्य वस्तुपाल इनको बिना पूछे और इनकी बिना सम्मति लिये कोई महत्व का कदम नहीं उठाते थे। महामात्य के ये सहपाठी सोमेश्वर ___ होने के नाते अधिक प्रिय मित्र थे। राजा और अमात्यों के बीच की ये कड़ी थे। वस्तुपाल तेजपाल को महामात्यपदों पर आरूढ़ कराने में इनका अधिक हाथ था। सारे जीवन भर थे महामात्य के सुख-दुःख के साथी रहे। ये महाराणक वीरधवल और मण्डलेश्वर लवणप्रसाद से भी अधिक दोनों मन्त्री भ्राताओं का मान करते थे। महामात्य भी इनका वैसा ही सम्मान करता था । सोमेश्वर अपनी विद्वत्ता के लिये भारत में दूर २ तक प्रसिद्ध थे । एक दिन महाराणक वीरधवल की राजसभा में गौड़देश से पं० हरिहर आया । पं० हरिहर सोमेश्वर का गौरव सहन नहीं कर सका और उसने इनकी बनाई हुई वीरनारायण नामक प्रासाद विषयक १०८ श्लोकों की प्रशस्ति को चुराई हुई वस्तु कह कर भरी सभा में इनका बड़ा अपमान किया। पं० हरिहर ने जब उक्त प्रशस्ति को कंठपाठ कर सुना दिया, तब तो सच्चा महाकवि सोमेश्वर बहुत ही लज्जित हुआ। परन्तु महामात्य वस्तुपाल को सोमेश्वर जैसे महाकवि के चोर होने की बात नहीं अँची। हरिहरकृत एक अभिनव कृत्ति की महामात्य ने दूसरे दिन ताबड़तोड़ एक प्राचीन-सी प्रतिलिपि करवाई और उसको खंभात के ज्ञानभंडार पु० प्र०सं०व० ते० प्र०१३६) पृ०६५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय में रातोंरात पहुँचा दिया । महामात्य ने पं० हरिहर से खंभात का ज्ञानभंडार देखने की प्रार्थना की। पं० हरिहर के साथ महामात्य और सोमेश्वर भी खंभात गये । ज्ञानभंडार देखते २ पं० हरिहर ने उक्त ग्रंथ ज्योंहि देखा, उसका लज्जा से मुंह ढँक गया । अंत में पं० हरिहर ने स्वीकार किया कि वह महाकवि सोमेश्वर का गौरव सहन नहीं कर सका; इसलिये उसने सारस्वतयंत्र की शक्ति से सोमेश्वरकृत प्रशस्ति की १०८ गाथायें सुना कर सच्चे महाकवि का अपमान किया । वीरनारायणप्रासाद की प्रशस्ति सोमेश्वरकृत । इस प्रकार महामात्य ने बड़ी चतुराई से सोमेश्वर का कलंक दूर किया । सोमेश्वर राजनीति का भी धुरंधर पण्डित था । सोमेश्वर ने अपनी रचनायें संस्कृत में की हैं, जो संस्कृत-साहित्य की अमूल्य निधि हैं। सोमेश्वरकृत प्रसिद्ध ग्रंथ १ कीर्त्तिकौमुदी २ सुरथोत्सव ३ रामशतक ४ उल्लाघराघवनाटक प्रसिद्ध हैं । ५ अर्बुदगिरि पर विनिर्मित लूणसिंहवसहिका की ७४ श्लोकों की प्रशस्ति और गिरनार मंदिरों की ६ प्रशस्तियाँ भी सोमेश्वरकृत हैं । ७वीं उपरोक्त वीरनारायणप्रासाद - प्रशस्ति है । हरिहर – नैषध - महाकाव्य के कर्त्ता श्री हर्ष का यह वंशज था। संस्कृत का दिग्गज विद्वान् था । दक्षिण के अनेक राजाओं की राजसभा में इसने अनेक विद्वानों को जीता था । यह गौड़देश का रहने वाला था । महामात्य वस्तुपाल की कृपा प्राप्त करने के लिये यह धवलक्कपुर आया था। नवरत्नमणि सोमेश्वर का स्थान प्राप्त करने के लिये इसने राणक वीरधवल की भरी हुई राजसभा में सोमेश्वर की 'वीरनारायणप्रासादप्रशस्ति' नामक कृति को अन्य की कृति सिद्ध कर सोमेश्वर का भारी अपमान किया था, जिसका बदला महामात्य ने बड़ी चतुराई से लेकर सोमेश्वर का कलंक दूर किया था । महामात्य की विद्वत्सभा में यह भर्ती हो गया था। नवरत्नों में यह भी एक अमूल्य रत्न था । हरिहरकृत कोई ग्रंथ अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ, फिर भी सोमनाथ स्तुति जो इसने सोमनाथ के दर्शन करते समय बोली थी इसके महाकवि होने का प्रमाण देती है । महामात्य वस्तुपाल इसका बड़ा संमान करता था । मदन - यह भी संस्कृत का उद्भट विद्वान् था । इसका लिखा हुआ अभी तक कोई ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आया है। सम्राट् सुभह – यह प्रसिद्ध नाटककार था । 'दूतांगद' इसका प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है । यह नाटक पत्तन त्रिभुवनपाल की आज्ञा से खेला गया था । अरिसिंह नानाक — यह भी नवरत्नों में से एक विद्वान् था । इसकी ख्याति महाराणक वीशलदेव के समय में बहुत बढ़ी हुई थी । यह नागरज्ञातीय था और इसका गोत्र कापिल्ल था । यह गुंजाग्राम का माफीदार था । इ-ठक्कुर लवणसिंह का पुत्र था । ठक्कुर लवणसिंह महामात्य के विश्वासपात्र व्यक्तियों में से एक था । अरिसिंह अद्वितीय कलाविज्ञ था | अनेक ग्रन्थों के कर्त्ता प्रसिद्ध विद्वान् अमरचन्द्रसूरि का यह कलागुरु था । अनेक फुटकल रचनाओं के अतिरिक्त 'सुकृतसंकीर्त्तन' नामक काव्य इसकी प्रमुख रचना है, जिसमें महामात्य वस्तुपाल, तेजपाल के द्वारा कृत पुण्यकर्मों का लेखा है । पाल्हण – इसने 'आबूरास' नामक ग्रन्थ लिखा है । 'सुभटन पदन्यास सः कोऽपि समितौ कृतः । येनाऽधुनाऽपि धीराणां रामाज्यो नापचीयते' । की ० कौ० वस्तुपाल तेजपाल पर इन सर्व कवि एवं श्राचायों ने अनेक ग्रन्थ, प्रशस्ति आदि लिखे हैं, जिनका परिचय यथास्थान करवा दिया गया है। उन ग्रन्थों से ही यह ज्ञात किया गया है कि मंत्री भ्राताओं का और इनका क्या सम्बन्ध था । 'मदनः, हरिहरपरिहर गर्व कविराजगजांकुशो मदनः । हरिहरः मदन विमुद्रय वदनं हरिहरचरितं स्मरातीतम्” ॥की ० कौ। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद] : मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्म-संबंधी सेवायें :: [ १४५ बाल्हण -इसका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'मुक्तिमुक्तावली है। शोभन—अर्बुदगिरिस्थ लूणसिंहवसति का बनाने वाला प्रसिद्ध शिल्पविज्ञ । समाश्रित प्राचार्य, साधु और उनका साहित्य विजयसेनरि—ये महामात्य के धर्मगुरु होने से अधिक सम्मानित थे। ये नागेन्द्रगच्छीय हरिभद्रसरि के शिष्य थे। धार्मिक विभाग के भी ये ही अधिष्ठाता थे । विद्वान् भी उच्चकोटि के थे । इनका लिखा हुआ 'रेवंत गिरिरासु' इतिहास की दृष्टि से एक महत्त्व का ग्रन्थ है। उदयप्रभसूरि-कुलगुरु विजयसेनसरि के ये शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत के ये प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके लिखे प्रसिद्ध ग्रन्थ ये हैं:(१) 'धर्माभ्युदय' (संघपतिचरित्र)-इसमें शत्रुजयादि तीर्थों के लिये संघ निकालने वाले संघपतियों का जीवन-चरित्र संक्षिप्त रूप से लिखा है । (२) 'उपदेशमालाकर्णिका'-यह एक टीका ग्रंथ है जो धर्मदासगणिकृत 'उपदेशमाला ग्रंथ' पर वि० सं० १२६६ में धवलकपुर में लिखी गई है। (३) 'नेमिनाथ-चरित्र'-वि० सं० १२६६ । (४) 'आरम्भ-सिद्धि'-यह ज्योतिष ग्रंथ है । (५) सं० १२६८ में लिखी गई वस्तुपाल तेजपाल की गिरनारतीर्थ की प्रशस्तियों में एक लेख इनका भी है। छोटे-मोटे अनेक लेख और प्रशस्तियाँ उपलब्ध हैं, जो इनको उच्च कोटि के विद्वान् होना सिद्ध करती हैं । 'सुकतकीर्तिकल्लोलिनी' नामक अति प्रसिद्ध प्रशस्ति काव्य भी इनका ही लिखा हुआ है। अमरचन्द्रसूरि—ये 'विवेकविलाश' के कर्ता वायड़गच्छीय सुप्रसिद्ध जिनदत्तसूरि के शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत के महान् विद्वान् थे। इन्होंने छंद, अलंकार, व्याकरण, काव्य आदि अनेक विषयक ग्रन्थ लिखे हैं। महाकवि अरिसिंह से इन्होंने काव्य-रचना सीखी थी। इनके रचे हुये प्रसिद्ध ग्रन्थ इस प्रकार हैं:१-बालभारत, २-काव्यकल्पलता (वृत्तिपरिमल सहित), ३-अलंकारवोध, ४-छंदोरत्नावली, ५ स्यादिशब्दसमुच्चय, ६-पद्मानन्दकाव्य, ७-सुक्तावली, ८-कलाकलाप, 8-कविशिक्षावृत्ति (टीका) नरचन्द्रसूरि – ये हर्षपुरीय अथवा मलधारीगच्छ के देवप्रभसूरि के शिष्य थे। वस्तुपाल इनका अत्यधिक सम्मान करता था । संस्कृत, प्राकृत के प्रकांड विद्वान् होने के अतिरिक्त ये ज्योतिष के विशिष्ठ विद्वान् थे। इनके लिखे हुये ग्रंथ इस प्रकार हैं:१-कथारत्नाकर, २-ज्योतिषसार ( नारचन्द्रज्योतिषसार ), ३-अनर्घराघवटिप्पन, ४-प्रश्नशत, ५-ज्योतिषप्रश्नचतुर्विंशिका, ६-प्राकृतप्रबोध-व्याकरण, ७-(जिनस्तोत्र) ८-अनधराघवनाटकटीका, ह-सं० १२८८ की वस्तुपाल तेजपाल सम्बन्धी गिरनारतीर्थ की प्रशस्तियों में दो लेख इनके Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय लिखे हुये हैं, १०-न्यायकंदली (टीका), ११-वस्तुपाल-प्रशस्ति आदि अनेक प्रबन्धग्रंथों में इनके लिखे हुये सुभाषित एवं स्तुति-काव्य मिलते हैं । नरेन्द्रप्रभसूरि—ये नरचन्द्रसूरि के शिष्य थे। ये महान् परिश्रमी एवं स्वाध्यायशील थे । प्रथम श्रेणी के पंडित होते हुये भी ये अत्यन्त विनयशील और निरभिमानी थे । इनके रचे हुये ग्रन्थ इस प्रकार हैं:१ अलंकारमहोदधि इस ग्रंथ की रचना महामात्य वस्तुपाल की प्रार्थना से नरचन्द्रसूरि की आज्ञा से वि० सं० १२८२ में की गई थी। २ विवेकपादप, ३ विवेककलिका ( सुक्तिसंग्रह ), ४ वस्तुपालप्रशस्ति (दो काव्य अ० म० परि० पृ० ४०४-४१६), ५ काकुत्स्थकेलि (नाटक), ६ सं० १२८८ की वस्तुपाल तेजपाल सम्बन्धी गिरनारतीर्थ की प्रशस्तियों में एक लेख इनका है । बालचन्द्रसूरि-चन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरि के ये शिष्य थे। छन्द, अलंकार, भाषा के ये प्रकाण्ड पंडित थे। इनका आचार्यपदोत्सव महामात्य ने करवाया था। इनके ये ग्रंथ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं:१-करुणाबजायुध नामक नाटक-यह नाटक शत्रुजयतीर्थ के उपर महामात्य द्वारा निकाले गये एक संघ के अवसर पर खेला गया था । २-वसन्तविलासकाव्य (वस्तुपालचरित्र)-यह जैत्रसिंह की प्रेरणा से लिखा गया था । ३-विवेकमंजरी टीका वि० सं० १२६८ । ४-उपदेशकंदलीटीका । जयसिंहसूरि —ये संस्कृत, प्राकृत के प्रसिद्ध विद्वान थे । 'हम्मीरमदमर्दन' नामक नाटक इतिहास और साहित्य की दृष्टि से इनकी एक अमूल्य रचना है। अर्बुदाचल पर विनिर्मित लूणसिंहवसहिका की वस्तुपाल तेजपाल सम्बन्धी ७४ श्लोकों की प्रशस्ति भी इनको प्रसिद्ध विद्वान् होना सिद्ध करती है। माणिक्यचन्द्रसूरि —ये राजगच्छीय सागरचन्द्रसूरि के शिष्य थे। ये संस्कृत और विशेष रूप से अलंकार विषय के सुप्रसिद्ध पंडित थे। इन्होंने महापंडित मम्मट की लिखी हुई 'काव्यप्रकाश' नामक कृति पर अति प्रसिद्ध १-'संकेत' नामक टीका लिखी है । २-शान्तिनाथ-चरित्र । ३-वि० सं० १२७६ में पार्श्व नाथचरित्र, जो उच्चकोटि का महाकाव्य है, इन्होंने लिखा है। जिनभद्रसूरि - महामात्य वस्तुपाल के पुत्र जैत्रसिंह के श्रेयार्थ इन्होंने सं० १२६० में 'प्रबन्धावली' नामक ग्रन्थ लिखा है । ये नागेन्द्रग० उदयप्रभसूरि के शिष्य थे। अतिरिक्त इनके दामोदर, जयदेव, वीकल, कृष्णसिंह, शंकरस्वामि आदि अनेक कवि एवं चारण समाश्रित थे । महामात्य वस्तुपाल स्वयं महाकवि एवं प्रखर विद्वान् था । १-नरनारायणानन्द नामक महाकाव्य, २-श्री आदीश्वरमनोरथमयंस्तोत्र उसकी अमूल्य रचनायें हैं, जो उसको उस समय के अग्रणी विद्वानों में गिनाने के लिये पर्याप्त हैं। वह कवियों में 'कविचक्रवती' कहलाता था और आश्रयदाताओं में 'लघुभोजराज' कहा जाता था। अ०म० परि० ४ पृ० ४०१-४०३, ४०४-४१६ वस्तुपालनु विद्यामण्डल अने बीजा लेखो पृ०१ से ३४ 'भलंकारमहोदधि' By नरेन्द्रप्रभसरिजी (गायकवाड ओरियन्टल सीरीज XCV व्यो० निकला है) की पं० लाल चन्द भगवानदास द्वारा लिखित प्रस्तावना । श्रीजिमरत्नकोष ग्रन्थविभाग प्रथमः Vol.1 B. O. R. I. Poona Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गुर्जर-मंत्री वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्म संबंधी सेवायें :: [ १५७ धार्मिक विभाग और मंत्री भ्रताओं के द्वारा विनिर्मित धर्मस्थान और उनकी श्रागम-सेवायें यह विभाग दंडनायक तेजपाल की स्त्री अनोपमादेवी की अध्यक्षता में चलता था । अनोपमादेवी अपने कुलगुरु विजयसेनसूर के आदेश और उपदेश के अनुसार तथा अपने ज्येष्ठ महामात्य वस्तुपाल की आज्ञानुसार इस विभाग का संचालन करती थी । इस विभाग में सैकड़ों उच्च कर्मचारी और धार्मिक विभाग सहस्रों मजदूर कार्य करते थे । अर्बुद, गिरनार, शत्रुंजय, प्रभासपत्तन आदि प्रमुख तीर्थों में इस विभाग की शाखायें संस्थापित थीं । इस विभाग का कार्य था दक्षिण में श्री पर्वत, उत्तर में केदारगिरि, पूर्व में काशी और पश्चिम में प्रभाषतीर्थ तक के सर्व तीर्थों, धर्मस्थानों, प्रसिद्ध नगरों, मार्ग में पड़ने वाले वन, ग्रामों में धर्मशालायें स्थापित करना, वापी, कूप, सरोवर बनवाना, निर्माण समितियें स्थापित करना, नये मंदिर बनवाना, जीर्ण मंदिरों का उद्धार करवाना, नवीन बिंत्र स्थापित करना । महामात्य वस्तुपाल वर्ष में तीन बार संघ को निमंत्रित करता था। संघ की अभ्यर्थना करना भी इसी विभाग के कर्मचारियों का कर्तव्य था । यात्रा के समय साधु, मुनिराजों की यह ही विभाग सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करता था । महामात्य ने जो १२॥ (१३॥) संघ गिरनार और शत्रुंजयतीर्थ के लिये निकाले थे, उन सर्व संघों की योग्य व्यवस्था करना भी इसी विभाग का कार्य था । यह विभाग सब ही धर्मों का मान करता था । इस विभाग ने सब ही धर्मानुयायियों के लिये मंदिर, मस्जिद, भोजनशालायें, धर्मशालायें, बनवा कर अभूतपूर्व सेवायें की हैं। निर्माण कार्य सुव्यवस्थित एवं नियंत्रित था । गिरनार और शत्रुंजयतीर्थ पर होने वाले निर्माण कार्य विशेषतया महामात्य वस्तुपाल और उसकी स्त्री ललितादेवी की देख-रेख में होते थे । अर्बुदगिरि पर लूणसिंहवसहिका का निर्माण दंडनायक तेजपाल और नोपमा की देख-रेख में होता था । इस विभाग ने जो धर्मकृत्य किये उनका संक्षिप्त व्ययलेखा इस प्रकार है । धर्म संबंधी विवध कार्यों में मंत्री ताओं ने लगभग रु० ३००१४१८८००) व्यय किये थे । रु० १८६६०००००) नवीन बिंबों के बनवाने में । रु० १८६६०००००) शत्रुंजयतीर्थ पर | रु० १२५३०००००) अषु दगिरि पर । रु० १८५३०००००) अथवा १८८०००००० ) अथवा १२८३०००००) गिरनारतीर्थ पर | रु० १३०००००) अथवा ६४०००००) व्यय करके तोरण बनवाये । रु० १८०००००००) व्यय करके जैन और शैव पुस्तकें लिखवाई' । रु०३०१४१८८००) का अन्य साधारण व्यय । कुछ धर्मकृत्यों का विवरण इस प्रकार है: १ – नवमन्दिरों का निर्माण - १३०४ (१३१३) जैन मन्दिर, ३०२ (३००२) ३२०० ) शिवमंदिर, ६४ (८४) मस्जिद 'श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि श्री पर्वतं यावत्, पश्चिमायां प्रभासं यावत्, उत्तरस्या केदार पर्वतं यावत्, पूर्वस्यां वारणारसीं यावत्, तयोः कीर्त्तनानि । सर्वाग्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दशलक्षा अष्टादशसहस्राणि अष्टशतानि द्रव्यव्ययः ।' प्र० को ०व०प्र० १५६ ) पृ० १३० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय बनवाई। प्रस्तर विनिर्मित ४००० चार सहस्र मठ बनवाये । प्रसिद्ध मंदिरों के नाम नीचे अनुसार हैं: शत्रुञ्जयपर्वत पर नेमनाथ और पार्श्वनाथ नामक चैत्यालय । गिरनारपर्वत पर आदिनाथ, सम्मेतशिखर, अष्टापद और कपर्दियक्ष नामक चैत्यालय । धवलकपुर में ऋषभदेव-चैत्यालय । प्रभास में अष्टापद-मन्दिर। अर्बुदपर्वत पर नेमिनाथ, मल्लदेव, आदिनाथ नामक चैत्यालय । खम्भात में वकुलादित्य और वैद्यनाथ के शिव मन्दिरों के अनेक अंश नवनिर्मित करवाये । वनस्थली और द्वारका में कई मन्दिर बनवाये । २-६०००००० नवीन जैन बिंब तथा १००००० शैव लिंग स्थापित करवाये । ३–जीर्णोद्धार-२००३ (२३००) ३३००) जीर्ण मंदिरों का उद्धार करवाया। जिनमें अणहिलपुरपत्तन में पंचासरपार्श्वनाथदेवालय का तथा धवलक्कपुर में राणक-भट्टारक मंदिर का उद्धार अधिक प्रसिद्ध है । खंभात में वकुलादित्य और वैद्यनाथ के शिवमंदिरों का जीर्णोद्धार भी कम प्रसिद्ध नहीं है। तीर्थस्थान एवं नगर, ग्रामों के अनुक्रम से यथाप्राप्त निर्माण-उल्लेख निम्नवत हैं:पत्तन में- वनराज के द्वारा विनिर्मित पंचाशरपार्श्वनाथमंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। धवलक्कपुर में आदिनाथमंदिर बनवाया। दो उपाश्रय बनवाये । भट्टारकजी का राणक नामक मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। बावड़ी खुदवाई । प्रपा बनवाई। शत्रुजयपर्वत पर-आदिनाथमंदिर के आगे इन्द्रमंडप बनवाया तथा उसको तोरणों से सुसज्ज किया । पर्वत पर मार्ग बनवाया । स्वरस्ती की मूर्ति बनवायी । पूर्वजों की मूर्तियां बनवायीं । अपने पुत्र जैत्रसिंह, तेजपाल और महाराणक वीरधवल इन तीनों की तीन मूर्तियां बनवा कर गजारूढ़ की। गिरनारपर्वत के चार शिखर अवलोकन, अंब, शांच और प्रद्युम्न का प्रतिरूप करवाया। भरौंच के सुव्रतस्वामी, साचौर के महावीरस्वामी (सत्यपुरतीर्थावतार) के मंदिर बनवाये । आदिनाथबिंब के नीचे बहुमूल्य प्रस्तर और स्वर्ण का सुन्दर पट्ट लगवाया। गूढमण्डप में स्वर्ण तोरण बनवाया । पालीताणा-क्षेत्र में ललितसरोवर बनवाया । एक उपाश्रय बनवाया। प्रपा बनवाई । अंकवालिया ग्राम में-सरोवर बनवाया। स्तंभननगर में—भट्टादित्यमंदिर के आगे उत्तानपट्ट बनवाया और उसका शिखरस्वर्णमयी बनवाया। मंदिर में कुआ खुदवाया । अशातनाओं से बचाने के लिये Sour Milk के लिये ऊँची दिवारोंवाला एक हौज बनवाया। दो उपाश्रय बनवाये । आनंदभवन बनवाया, जिसमें दोनों ओर दिवारों में गोलाकार-खिड़कियां थीं। पार्श्वनाथमंदिर का पुनरोद्धार करवाया और उसमें आपकी और पुत्र जयंतसिंह की दो सुन्दर प्रतिमायें स्थापित की। पाषाण के अस्सी सुन्दर एवं विविध तोरण बनवाकर विभिन्न जैनमंदिरों में लगवाये । श्री शांतिनाथजिनालय के गर्भमण्डप का जीर्णोद्धार करवाया । सुभट लूणपाल की स्मृति में लूणपालेश्वरप्रासाद बनवाया। चालुक्यराजा द्वारा विनिमित श्री आदिनाथचैत्य में एक कंचनस्तंभ बनवाया और वहौत्तर दण्ड सहित स्वर्णकुंभ स्थापित किये । अन्य जिनालयों सु०सं०। प्रा० ० ले० सं० ले० ५४३ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्मसंबंधी सेवायें :: [ १५६ में कहीं स्वर्सकलश, कहीं तोरण, कहीं नववित्र स्थापित किये । पार्श्वनाथमंदिर के सामीप्य में दो प्रपा बनवाई। डबोई में- वैद्यनाथमंदिर के शिखर पर स्वर्णकलश और सूर्यमूर्ति स्थापित की। तारंगगिरितीर्थ पर-दंडनायक तेजपाल ने श्री आदिनाथजिनबिंब सहित खत्तक बनवायी। नगरग्राम में ( मारवाड़-राजस्थान ) महा. वस्तुपाल द्वारा वि० सं० १२६२ अषाढ़ शु० ७ रविवार को एक राजुलदेवी की प्रतिमा और दूसरी रत्नादेवी की प्रतिमा संस्थापित करवाई गई। गाणेसरग्राम (गुजरात) में महा० वस्तुपाल ने ग्राम में प्रपा बनवाई, गाणेश्वरदेव के मंडप के आगे तोरण बनवाया और प्रतोलीसहित परिकोष्ट विनिर्मित करवाया। ४-६४ (८४) सरोवर । ४८४ (२८४) लघुसरोवर (तलैया), इनमें अधिक प्रसिद्ध शत्रुजयतीर्थ पर बने हुए ललितसर और अनूपसर तथा गिरनारतीर्थ पर बना हुआ कुमारदेवीसर है। विभिन्न मार्गों में १०० प्रपायें लगवाई। ७०० कुएँ खुदवाये । ४६५ वापिकायें बनवाई। शत्रुजयगिरि की तलहटी में ३२ वाटिकायें और गिरनारगिरि की तलहटी में १६ वाटिकायें लगवाई। ५-१००२ धर्मशालायें विभिन्न तीर्थों, स्थानों में विनिर्मित करवाई। ६-७०० ब्राह्मणशालायें स्थापित करवाई, जहाँ ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र दान में दिये जाते थे और ७०० ब्राह्मणपुरियाँ निवसित करवाई। ७-७०० तापस-मठ बनवाये, जहाँ तपस्वी रहते थे और धर्माराधना करते थे। ८-६८४ पौषधशालायें बनवाई। इनमें व्रत, उपवास, आंबिल करने वालों के लिये तथा साधु-मुनिराजों के ठहरने, आहारादि की विधिपूर्वक व्यवस्थायें रहती थीं। 8-५०० पांजरापोल बनवाई। इनमें रोगी, अपंग पशु रखे जाते थे और उनकी चिकित्सा की जाती थी। १०-७०० सदाव्रतशालायें खुलवाई गई थीं। इनमें से अधिक तीर्थों और तीर्थों के मार्गों में स्थापित थीं। ११-२५ (२१) समवशरण तीर्थों में विनिर्मित करवाये । १२-तोरण—तीन तोरण तीन लक्ष मुद्रायें व्यय करके शत्रुजयतीर्थ पर, " , , , , , गिरनारतीर्थ पर, दो , दो , , , खम्भात में बनवाये । १३-५०० सिंहासन (दांत एवं काष्ठमय) १४-५०५ रेशम के समवशरण, ५०५ जवाहिरविनिर्मित समवशरण, ५०५ हस्तिदंतचिनिर्मित समवशरण तीर्थयात्राओं में साथ ले जाने के लिये तैयार करवाये गये थे। १५–२१ आचार्यपदमहोत्सव करवाये ।। १६-विभिन्न स्थानों में ५०० ब्राह्मण वेदपाठ करते थे, जिनको भोजन नित्य मंत्री भ्राताओं की ओर से मिलता था । महामात्य प्रतिवर्ष ३ वार संघपूजा करता था और २५ वार संघवात्सल्य करता था। सोमेश्वरमन्दिर पर उसने १००००००००) दश कोटि द्रव्य व्यय किया था, जैन और शैव देवालयों में ३००० जै० ले० सं० (नाहरजीकृत) ले०१७१३-१४-८८ पु० प्र०सं०व० ते०प्र०पू०६५ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय तीन हजार तोरण करवाये थे । अर्बुदाचलस्थ अचलेश्वर - प्रासाद पर एक लक्ष १०००००) रुपया लगाया था । एक सहस्र गौ उसने ब्राह्मणों को दान में दी थीं । भृगुस्नान करके उसने पाँच लक्ष रु० ५०००००) का दान दिया था । रेवानदी के तट पर तथा दर्भावती में उसने क्रमशः २०००००) दो लक्ष, १२००००) एक लक्ष और बीस हस्र रुपयों का दान किया था । वाणारसी में विश्वनाथदेव की पूजार्थ १०००००) एक लक्ष रुपया भेंट किया था । प्रयागतीर्थ में एक लक्ष रु० १०००००) का दान किया था । द्वारका में देवपूजार्थ एक लक्ष इकषठ हजार एक सौ १६११००) रु० व्यय किया था । गंगातीर्थ पर पाँच लक्ष ५०००००) रुपयों का व्यय किया था । इसी प्रकार स्तम्भनतीर्थ में १०००००) एक लक्ष, संखेश्वर में दो लक्ष २०००००), सोपारा - आदिनाथ में चार लक्ष मन्त्रिवस्तुपालकृतसुकृतसूचिः 'मह श्रीवस्तुपालेन श्रष्टादशभिर्वर्षैर्यावन्मात्रं सुकृतं कृतं तावन्मात्र वैतरणीतीरे सन्तिष्ठमानसोपारा - आदिनाथदेवालय [स्थि] तप्राकृतप्रशस्तैर्ज्ञेयम्' । सिंहासन ५००। जिनप्रासाद श्री शत्रु जयपर्वते कोड १८ ल० ६६ । सोमेश्वरे कोडि १० । ब्रह्मशाला ७०० । पाखाणबद्ध सरोवर २८४ । जादरमय समोसरण ५०५ । तीर्थयात्रा वार १२ । । प्रतिवर्ष संघपूजा वार २३ । प्रतिवर्ष संघवात्सल्य वार २५ । तोरण सह० ३ जैन माहेशप्रासादेषु । नानामार्गे प्रपा १०० । माहेश प्रा० ३००२ । ब्राह्मण ५०० वेदपाठं कुर्वन्ति । श्राचार्यपद कारापित २१ । जीर्णोद्धार प्रासाद २०००, शत ३०० जैन- माहेश्वराणाम् । पाखाणमयमढ सह० ४००० । कूप ७०० । श्रीगिरनारि व्यये कोटि १२ ल० ८० । अर्बुदाचले १२ कोडि, लक्ष ३५ लूणिक सत्या पुण्यवरः । श्री अचलेश्वरं प्रति वृद्धदेवलोकजनानां दत्तद्रव्यलक्ष १, प्रतिदिनावासे कार्यटिकाना १ सह० भोजनम् । ब्राह्मणदत्तगौ १००० । ब्रह्मपुरी कारिता शत ७०० । वापीनां शत ४६५ । श्रीमृगे स्नानं कृत्वा दत्ता लक्ष ५ । श्रीभृगुपुरे श्रीजैन प्रासादमध्ये दत्ता को ० २ । जैन - माहेश्वरग्रंथलेखने कोडि १८ द्रव्यव्ययः । रेवातीरे शुल्कतीर्थे स्नानं विधाय श्वेतवाराहं नवा दत्ता लक्ष २ । दर्भावत्यां वैद्यनाथे १२०००० शत १ दत्ता | श्रीसेरीशके श्रीपार्श्वनाथं प्रणम्य दत्त लक्ष १ सह० १३ शत १६५ । नानास्थाने कारि दुर्ग ४१६ । पाखाणमया ३२ । वारणारस्या देवविश्वनाथपूजार्थ प्रहितद्रव्य ल० १ | श्रीद्वारिकाया देवपूजार्थ प्रहितद्रव्य लक्ष १ स० ६१ ० १ । प्रयागतीर्थे प्रतिद्रव्य लक्ष १ । गंगातीर्थे प्रहितद्रव्य ल० ५ (?) । श्रीस्तंभने द्रव्य ल० १ | श्रीसंखेश्वरं द्रव्य ल० २ सोपाराचादिनाथ ये द्रव्य ल० ४। ग (गौ) दावर्या द्रव्य ल० १ । तपत्या प्रहित द्रव्य ल० १ । मसीति ६४ । हजतो ० १ । प्र० को० परि०१ पृ० १३२ श्रीजिनबिंव ल० १ स० लेकतपोधनसत्कमठ ७०० । पोषधसाला ६८४ । १३५७४ । तेषा मध्ये हेमकुम्भमय २४ | जैनतपोधनावासे अन्नपानं विहरंति पंचदश, सह० १५००० 'येन त्रयोदशशतानि नवीन जैनधाम्नां त्रयोदशयुतानि च काशतानि । भूमौ शतत्रययुतत्रिसहस्रमानं, जैनेन्द्रजीर्णसदनानि समुद्धृतानि ॥ ४४ ॥ सपादलक्षा जिनबिंबसंख्या, गिरीशलिङ्गानि तथैकलक्षम् । मिथ्यादृश 1 देवगृहाः सहस्रत्रयीसमेता हि शतद्वयेन || ४५|| पञ्चाशता सप्तशती समेतास्ता ब्रह्मशालाः सुतरां विशालाः । एकाधिका सप्तशती तपस्विस्थानानि सत्राणि शतानि सप्त ॥ ४६ ॥ निर्मापिता चतुरशीतियुत यतीनां रम्या नवानवशती किलपुण्यशालाः । द्वात्रिंशदश्ममयनूतनतुङ्गदुर्गाश्वारूण्यथो चतुरशीति सरोवराणि ॥ ४७ ॥ शतानि चत्वारि च पुष्करिण्यः, पुण्याश्वतुः सष्टयधिकाः स्वकीयै । कोशाः शतं च श्रुतदेवतानां कृतास्त्रिषष्टिः समरास्तथैव ||४८ || यात्रास्त्रयोदशकृताः सुकृताभिलाषा, लेभे जिनेश्वर मिता विरुदावली च । श्रीवस्तुपाल सचिवः कलिकालकालः सोऽयं लिलेख निजनामशशाङ्क बिम्बे' ॥४६॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्म संबंधी सेवायें :: [ १६१ ४०००००), तपोवनों में एक लक्ष १०००००), सेरीशपार्श्वनाथ को प्रणाम करके एक लक्ष तेरह सहस्र एक सौ पैंषठ ११३१६५), गोदावरी के तट पर एक लक्ष १०००००), भृगुपुर के जैनप्रासाद में दो लक्ष २०००००) रुपयों का दान-पुण्य किया था। प्रतिदिन एक सहस्र गरीबों को भोजन दिया जाता था। अनेक स्थलों पर ४१६ दुर्ग बनवाये, जिनमें ३२ सुदृढ़ प्रस्तरविनिर्मित थे । संघयात्रा की सामग्री निम्नवत् स्थायी रहती थी शिविर-देवालय बैलगाड़ियाँ सुखासन दन्तरथ संघ-रक्षक सामन्त जैनगायक अन्य गायक ६४ १८०० ७०० २४ ५०० संघ के साथ चलने वाले शकट ४५०० (४०००) স্বপ্ন ४००० पालखियाँ ऊँटनियाँ श्रीकर १६०० सुभट ३३०० नर्तकी १०० ४००० (१)४५० १००० 'येन भूमिवलयेऽश्मनिर्मिताः कारिताः शतमिताः प्रपा पुनः। इष्टिकाविरचिताः शतत्रयी, श्रावलितप्तवारिका ॥५०॥ बङ्गारकेण सहिताश्ममयीमशीतिः श्री स्तम्भतीर्थपुरि तेन कृता कृतिना (रेद्वपलक्षजाता) काराप्य तोरणमसौ सचिवो हजायामस्थापयन्मलिनवैभवकारणेन ॥५१।। वर्षासनाना च सहस्रमेकं, तपस्विना वेदमिताः सहस्रा । दत्ताश्चतुर्विशतिवास्तुकुम्भहेमारविन्दोज्वलाजादराणम् ॥५२॥ अन्ये चैव सत्रागारशतानि सप्त विमलावाप्यश्चतुःषष्टयः, उच्चैः पौषधमंदिराणि शतशो जैनाश्च शैवा मठाः। विद्यायाश्च तथैव पञ्चयतिका: प्रत्येकतः प्रत्यहं, पञ्चत्रिशशतानि जैनमुनयो गृह्णन्ति भोज्यादिकम् ॥५३।। श्रीसंघपूजाखिल संयताना, वर्षम्प्रति त्रिः सहसंघभक्तया । स्नात्रार्थकुम्भाक्षतपट्टसरिसिंहासनाना न हि कापि संख्या ॥५४|| व० च० प्र०८पृ०१३३,१३४ पु•३० सं० २० ते० प्र०१३८)१३६) पृ०६५ वि० ती० कल्प व० ते० प्र० ४२) पृ० ७६ मंत्री भ्राताओं के द्वारा करवाये गये मंदिरों की,वापी, कूप, सरोवरों की तथा प्रतिष्ठित जैन-शैव मूर्तियों की संख्या तथा तीर्थों में, प्रसिद्ध नगरों में जैन-शैव-प्रासादों पर व्यय किये गये अर्थ के अङ्कन-एतद् सम्बन्धी ग्रंथों में एक तथा दूसरे ग्रंथ में के लेखनों से अनेक स्थानों में यद्यपि कम मिलते हैं, फिर भी यह तो अनुमान लग सकता है कि मंत्री भ्राताओं ने जनहितार्थ एवं धर्मार्थ कई कोटि द्रव्य व्यय किया था। 'संघचालता शकटशत ४५००, वाहणिशत १८, सुखासन ७००,पालषी ५००, दंतरथ २४, रक्तसाढि ७००। संघरक्षणाय राणा ४, सीकरि १६०० । श्वेताचर सह०२०००, शत १००, दिगंबर ११००। जैनगायिनि ४००० (१) ४५०, भट्टशत ३३००, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] ..... : प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय नरवैद्य कुदालियाँ ५०० अतिरिक्त इस सुविधा-सामग्री के सहस्रों श्वेताम्बर और दिगंबर साधु, साध्वी, आचार्य भी धवलकपुर और धवलक्कपुर के निकटवर्ती ग्रामों एवं नगरों में भ्रमण-विहार करते रहते थे, जो निमन्त्रण पाकर तुरन्त संघ में सम्मिलित हो जाते थे। अश्ववैद्य कुहाड़ियाँ महामात्य वस्तुपाल की तीर्थयात्रायें माता-पिता के साथः १-वि० सं० १२४६ में शत्रुञ्जयतीर्थ की । २-वि० सं० १२५० में शत्रुञ्जयतीर्थ की । स्वर्गस्थ माता-पिता के श्रेयार्थ सपरिवारः १-वि० सं० १२७३ में शत्रुञ्जयतीर्थ की। महाविस्तार के साथ संघपति रूप से और सपरिवारः १-वि० सं० १२७७ में शत्रुञ्जयगिरनारतीर्थों की। २-वि० सं० १२६० शत्रुञ्जयगिरनारतीर्थों की । ३- , १२६१ ४- १२६२ ५- , १२६३ सपरिवारः ६-वि० सं० १२८३ में शत्रुञ्जयतीर्थ की। ७-वि० सं० १२८४ में शत्रुञ्जयतीर्थ की। - , १२८५ , ६- " १२८६ ." १०- , १२८७ ११- , १२८८ में शत्रुञ्जयतीर्थ की यात्रा करते हुये गिरनारतीर्थ पर स्वविनिर्मित मंदिरों की प्रतिष्ठार्थ यात्रा की। १२-वि० सं० १२८६ में शत्रुञ्जयतीर्थ की। १२॥-वि० सं० १२६६ शत्रुञ्जयतीर्थ की। अपरगायिन सह० १०००। सरस्वतीकण्ठाभरण [ आदि ] विरद २४ । नर्तकी १०० । वेसर शत १ संप्रदायसम (१) अश्ववैद्य १०, नरवैद्य १०० 'श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि श्रीपर्वतं यावत् कीर्तनानि । 'संग्रामे श्रीवीरधवल कार्ये वार ६३ जेत्र(a)पदम् । सर्वाग्रे त्रीणि कोटिशतानि,१४ लक्ष, १८ सहस्र,८ शतानि द्रव्यव्ययः।' प्र० को परि०१ पृ०१३२ वि० सं० १२८७ में अबुंदगिरि पर बसे हुये प्राम देउलवाड़ा में तेजपाल और अनुपमा की देख-रेख में बनी लूणसिंहक्सहिना के नेमनाथचैत्यालय में भगवान् नेमनाथ की प्रतिमा फा० कृ०३ रविवार को कुलगुरु श्रीमद् विजयसेनसरि के हाथों प्रतिष्ठित करवाने के लिये महामात्य वस्तुपाल ने धवलकपुर में एक विशाल चतुर्विध संघ निकाला था। अगर यह संघयात्रा भी गिनी जाय तो महामात्य की १३॥ ही यात्रा हुई कही जा सकती है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य वस्तुपाल और उसका परिवार :: [१६३ मन्त्री भ्राता और उनका परिवार वि० सं० १२३८ से वि० सं० १३०४ पर्यन्त महामात्य के ज्येष्ठ भ्राता लूणिग और मल्लदेव अश्वराज-कुमारदेवी का ज्येष्ठ पुत्र लूणिग था। इसका जन्म सम्भवतः वि० सं० १२३८ और वि० सं० १२४० के अन्तर में हुआ था । लुणिग धार्मिक प्रवृत्ति का एक होनहार बालक था । अश्वराज ने इसको पढ़ने लूणिग और उसकी स्त्री के लिये पत्तनपुर में भेजा था। छोटी आयु में ही इसका विवाह कर दिया गया था। लूणादेवी वि० सं० १२५६-५८ के लगभग इसकी मृत्यु हो गई । * लूणिग की पत्नी का नाम लूणादेवी था । विवाह के थोड़े समय पश्चात ही लूणिग की मृत्यु हो जाने से इसके कोई सन्तान नहीं हो सकी । लूणादेवी भी वि० सं० १२८८ के पूर्व स्वर्ग को सिधार गई। अश्वराज-कुमारदेवी का द्वितीय पुत्र मालदेव था, जिसको मल्लदेव भी कहते हैं। इसका जन्म वि० सं० १२४०-४२ के लगभग हुआ। मल्लदेव के दो स्त्रियाँ थीं। लीलादेवी और प्रतापदेवी। लीलादेवी की कुक्षी से मालदेव या मल्लदेव और र पूणसिंह नामक पुत्र और सहजलदेवी और सद्मलदेवी नामक दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई उसकी दोनों स्त्रिया लीला- थीं। इसकी मृत्यु भी युवावस्था में ही हो गई । पुण्यसिंह, जिसे पूणसिंह भी कहा गया देवी, प्रतापदेवी व पुत्र है का विवाह अल्हणदेवी से हुआ था । अल्हणदेवी से पुण्यसिंह को एक पुत्र पेथड़ पुण्यसिंह या पूणसिंह नामक और एक पुत्री वलालदेवी प्राप्त हुई थी। अर्बुदगिरि पर विनिर्मित लूणिगवसहिका के नेमनाथ-चैत्यालय में दंडनायक तेजपाल ने अपने परिजनों के श्रेयार्थ वि० सं० १२८८ में अनेक देवकुलिकायें बनवाई थीं। क्रम से दूसरी देवकुलिका अल्हणदेवी के, पाँचवीं पेथड़ के, छट्ठी पुण्यसिंह के और आठवीं वलालदेवी के श्रेयार्थ बनवाई थीं। महामात्य वस्तुपाल और उसका परिवार . . ... अश्वराज-कुमारदेवी का यह तृतीय पुत्र था। इसका जन्म वि० सं० १२४२-४४ के अन्तर में हुआ होना चाहिए । पिता ने वस्तुपाल की शिक्षा भी पत्तन में ही करवाई थी। यह महा प्रतिभावान एवं कुशाग्रबुद्धि बालक वस्तुपाल और उसकी दोनों था। इसका विवाह लगभग १५-१६ वर्ष की आयु में ही प्राग्वाटवंशी ठक्कुर कान्हड़स्त्रियाँ ललितादेवी और देव की सुपुत्री ललितादेवी के साथ हो गया था। फिर भी इसने अपना अध्ययन वेजलदेवी अक्षुण्ण रक्खा । लगभग पच्चीस वर्ष की आयु के पश्चात् यह विद्याध्ययन समाप्त कर गुरु * वि० सं०१२८८ के पूर्व लुणादेवी का स्वर्गवास होना इस बात से सिद्ध होता है कि अर्बुदगिरि पर विनिर्मित वसहिका में तत्संवत् में तथा तत्संवत् पश्चात् कोई देवकुलिका लुणादेवी के श्रेयार्थ नहीं बनवाई गई। और न ही लूणिग की संतान के श्रेयार्थ ही कहीं कोई धर्मकृत्य किये गये का उल्लेख है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय की आज्ञा से घर आया । ललितादेवी की छोटी बहिन सुहवदेवी थी । सुहवदेवी का विवाह भी महामात्य वस्तुपाल के साथ ही हुआ था। ऐसा लगता है कि इस विवाह में ललितादेवी का भी आग्रह रहा हो । ललितादेवी की कुक्षी से महाप्रतापी बालक जैत्रसिंह जिसको जयंतसिंह भी कहते हैं, उत्पन्न हुआ। सुहवदेवी के प्रतापसिंह नामक पुत्र हुआ।१ प्रतापसिंह के पुत्र के श्रेयार्थ जैत्रसिंह ने एक पुस्तक लिखवाई । वेजलदेवी के भी एक से अधिक सन्तान उत्पन्न नहीं हुई थी। वस्तुपाल अपनी दोनों स्त्रियों का समान आदर करता था । ललितादेवी बड़ी होने से घर में भी प्रधान थी। वस्तुपाल ने अपनी दोनों स्त्रियों के नाम चिरस्मरणीय रखने के लिये कई मठ, मन्दिर, वापी, कूप, सरोवर विनिर्मित करवाये थे । गिरनारपर्वत पर, शत्रुजयतीर्थ पर जितने धर्मस्थान वस्तुपाल ने करवाये, उनमें से अधिक इन दोनों सहोदराओं के श्रेयार्थ ही बनवाये गये थे। ललितादेवी और वेजलदेवी दोनों अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की उच्च कोटि की स्त्रियाँ थीं । वस्तुपाल के प्रत्येक कार्य में इनकी सहमति और इनका सहयोग था । दोनों का स्वभाव बड़ा उदार और हृदय अति कोमल था । नित्य ये सहस्रों रुपयों का अपने करों से दान करती थीं। अभ्यागतों की, दीनों की सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। अगर इनमें इन गुणों की कमी होती तो वस्तुपाल अनन्त धनराशि धर्मकार्यों में व्यय नहीं कर सकता था । ललितादेवी वस्तुपाल के अपार वैभवपूर्ण घर की सम्पूर्ण आंतरिक व्यवस्था को, जो एक बड़े राज्य के कार्यभारतुल्थ थी बड़ी कुशलता एवं तत्परता के साथ अपने परिवार की अनुपमादि अन्य स्त्रियों के सहयोग से स्वयं करती थी। तीर्थों में, नगर, पुर, ग्रामों में होते धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यों में भी यह रुचि लेती थी । वस्तुपाल युद्ध एवं राज्यसम्बन्धी कार्यों में भी इसकी सम्मति लेता था। वस्तुपाल के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक छोटे-बड़े सर्व कार्य ऐसी आज्ञाकारिणी, धर्मप्रवृत्ति वाली पत्नी की सहचरता एवं इसके द्वारा प्राप्त सुख-साधन के कारण अत्यन्त सरल और सुन्दर हो सके थे । ललितादेवी और सोखुका दोनों बहिनें उच्च कोटि की वीराङ्गनाएँ थीं। अगर ऐसा नहीं होता तो वस्तुपाल छोटे-बड़े ६३ तरेसठ संग्रामों में कैसे भाग ले सकता था और कैसे सफलता प्राप्त कर सकता था । समर में जाते समय अपने पति एवं पुत्र की वेष-भूषा ये स्वयं सजाती थीं और उनको सहर्ष युद्ध के लिये मंगलगीत गाकर भेजती थीं। अनेक बार ऐसे भी अवसर आते थे कि वस्तुपाल, तेजपाल, जैत्रसिंह, लावण्यसिंह और स्वयं राणक वीरधवल, मण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राज्य के समस्त प्रसिद्ध वीर, सामन्त सर्व या इनमें से अधिक धवलकपुर छोड़ कर संग्रामों में चले जाते थे, तब उस समय ये ही बहिनें महाराणी आदि के साथ मिलकर नगर और प्रान्त की रक्षा का भार सम्भालती थीं। संघयात्राओं में सम्मिलित हुये पुरुषों की अभ्यर्थना में स्वयं अधिक भाग लेती थीं। ये उदारचेत्ता रमणीय, वीरांगनाएं, देश और धर्म की सर्वस्वत्यक्ता सेविकायें कला और साहित्य की भी प्रेमिकायें थीं । वि० सं० १२६६ में शत्रुजयतीर्थ की १३वीं यात्रा को जाते समय अंकेवालियाग्राम में माघ शुक्ला ५ मी सोमवार को महाभात्य की मृत्यु हुई, तब तक ये जीवित थीं ।२ १-जै० पु० प्र० सं० प्र० ७ पृ०६ २-५० वि० ५० XI चरणलेख १, ३ शत्रजयतीर्थ के लिये १२॥ और अर्बुदगिरि के लिये एक तीर्थयात्रा-इस प्रकार वस्तुपाल की संघपति रूप से निकाली हुई तीर्थयात्रायें १३॥ होती है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य वस्तुपाल और उसका परिवार :: [१६५ यह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। इसका जन्म लगभग वि० सं० १२६० में हुआ होगा। इसके तीन स्त्रियाँ थीं। १ जयतलदेवी, २ जंभणदेवी और ३ रूपादेवी। जैत्रसिंह वस्तुपाल तेजपाल के निजी सैनिक जैत्रसिंह या जयंतसिंह विभाग का अध्यक्ष था। राज्यकार्य में भी यह अपने पिता के समान ही निपुण था । महामात्य वस्तुपाल जब वि० सं० १२७६ में खंभात से धवलकपुर में आया था, तब जैत्रसिंह को ही वहां का कार्यभार संभलाकर तथा खंभात का प्रमुख राज्यशासक बना कर आया था। जैत्रसिंह ने खंभात का राज्यकार्य बड़ी तत्परता एवं कुशलता से किया । महामात्य वस्तुपाल ने जैत्रसिंह की देख-रेख में खंभात में एक बृहदू पौषधशाला का निर्माण वि० सं० १२८१ में करवाया था और उसकी देख-रेख करने के लिये १ श्रे० रविदेव के पुत्र पयधर, २ श्रे० वेला, ३ विकल, ४ श्रे० पूना के पुत्र वीजा बेड़ी उदयपाल ५ आसपाल ६ गुणपाल को गोष्ठिक नियुक्त किये थे। खंभात पर लाटनरेश शंख का सदा दांत रहा और मालपनरेश और यादवगिरि के राजा भी शंख को सदा खंभात जीत लेने के कार्य में सहायता देने को तैयार रहते थे। ऐसी स्थिति में जैत्रसिंह का महान् चतुर और कुशल शासक होना सिद्ध होता है कि खंभात का शासन और सुरक्षा सदा सुदृढ़ रही और शंख के प्रयत्न सदा विफल रहे । जैत्रसिंह जैसा राजनीति में चतुर था, वैसा ही धर्म में दृढ़ और साहित्यसेवी था। भरौंच के मुनिसुव्रतचैत्यालय के आचार्य वीरसूरि के विद्वान् शिष्य जयसिंहमूरिकृत 'हम्मीरमदमर्दन' नामक प्रसिद्ध नाटक जैत्रसिंह की प्रेरणा से लिखा गया था और खंभात में भीमेश्वरदेव के उत्सव के अवसर पर प्रथम बार उसकी ही तत्त्वावधानता में खेला गया था। महान् पिता के प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक एवं स्थापत्यकलासंबंधी कार्यों में उसकी सम्मति और सहयोग रहा। स्थापत्यकला तथा संगीत का यह अधिक प्रेमी था । राज्यसभा में भी इसका पिता के समय में तथा पिता की मृत्यूपरांत अच्छा संमान रहा । इतना अवश्य हुआ कि वस्तुपाल के स्वर्गगमन के पश्चात् वीशलदेव राणक की राजसभा में धर्म के नाम पर दलबंधियों का जोर बढ़ गया और वस्तुपाल तेजपाल के सर्वधर्मप्रेमी वंशजों को राज्यैश्वर्य से वंचित होना पड़ा। किसी भी ग्रंथ, शिलालेख एवं पुस्तक-प्रशस्ति में जैत्रसिंह की कोई संतान का उल्लेख नहीं मिलता है। अगर संतान हुई होती तो यह निर्विवाद रूप से निश्चित है कि वस्तुपाल अपने पौत्र या पौत्री के श्रेयार्थ जैसे अपने अन्य परिजनों के श्रेयार्थ धर्मस्थान और धर्मकृत्य करवाये हैं, करवाता और उसका कहीं न कहीं अवश्य उल्लेख मिलता। 'मह उ० श्री ललितादेवीकुक्षिसरोवरराजहंसायमाने महं० जयंतसिंहे सं० ७६ वर्ष पूर्व मुद्राच्यापारान् व्यापृस्वति सति' प्रा०० ले० सं० भाग २ ले०३८-४३-गिरनार प्रशस्तियाँ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय महामात्य का लघुभ्राता गुर्जर महाबलाधिकारी दं० तेजपाल और उसका परिवार श्रश्वराज - कुमारदेवी का यह चतुर्थ पुत्र था । इसका जन्म वि० सं० १२४४-४६ में हुआ था । लूणिग और वस्तुपाल के साथ ही श्वराज ने तेजपाल को भी पढ़ने के लिये पत्तन भेज दिया था । लेकिन तेजपाल का मन तेजपाल और उसकी स्त्रियां पढ़ने में कम लगता था । खेल-कूद, कुस्ती में इसकी अधिक रुचि थी । लूगिंग की अनुपमादेवी और सुहड़ादेवी मृत्यु के पश्चात् यह विद्याध्यन छोड़ कर अपने माता-पिता के साथ ही रहने लगा था । धनुर्विद्या में, घोड़े की सवारी में, तैरने में और तलवार और भाले छीं के प्रयोगों में ही उसको आनंद आता था । १८ - २० वर्ष की आयु में इसकी वीरता और निडरता की बातें मण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राणक वीरधवल के कानों तक पहुँच गई थीं। तेजपाल जैसा बहादुर था वैसा ही व्यापारकुशल था । लूणिग और मल्लदेवी की मृत्यु के पश्चात् घर का सारा भार तेजपाल के कंधों पर आ पड़ा था । अश्वराज वृद्ध हो चुके थे और उनकी आय इतनी अधिक नहीं थी कि दो पुत्र, दो पुत्र बधुओं और सात पुत्रियों का तथा पौत्र और पौत्रियों का निर्वाह कर सकते थे और वस्तुपाल भी बड़ी आयु तक पत्तन में विद्याभ्यास ही करता रहा था। तेजपाल ने बड़ी योग्यता से व्यापार खूब बढ़ाया । यही कारण था कि वस्तुपाल बड़ी आयु तक पत्तन में रह कर निश्चिन्तता के साथ विद्याध्यन करता रहा था । तेजपाल का विवाह चन्द्रावती के निवासी प्रसिद्ध प्राग्वाटवंशीय शाह धरणिग की स्त्री त्रिभुवनदेवी की कुक्षी से उत्पन्न अनुपमादेवी के साथ हुआ था । अनुपमा गुणों में चन्द्रिका थी । वस्तुपाल, तेजपाल के घर की समृद्धि ही अनुपमा थी । अनुपमा की सम्मति लिये बिना दोनों मंत्री भ्राता कोई भी महत्व का कार्य, चाहे राजनीतिक हो, धार्मिक एवं साहित्यिक हो, सामाजिक हो, कला तथा निर्माणसम्बन्धी हो कभी भी नहीं करते थे । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद तथा राणक वीरधवल और महाराणी जयतलबा भी अनुपमा का बड़ा मान करते थे और उचित अवसरों पर उसकी सम्मति लेते थे । अनुपमा जैसी महा बुद्धिशाली स्त्री अगर वस्तुपाल तेजपाल के घर में नहीं होती तो वस्तुपाल तेजपाल की जो आज राज्यनीति और धर्मनीति के क्षेत्र में कीर्ति और स्तुति है वह बहुत न्यून होती और धार्मिकक्षेत्र में तो संभवतः नाममात्र की ही होती । अर्बुदगिरि पर विनिर्मित ' लूणिगवस्ति' जो की आज भारत के ही नहीं, यूरोप, अमेरीकादि समुन्नत देशों के कलामर्मज्ञों को आश्चर्यान्वित करती है अनुपमा की ही एकमात्र बुद्धि, सम्मति और श्रम का परिणाम है । अधिकांश महत्वशाली धार्मिक कार्य जैसे साधर्मिकवात्सल्य, संघपूजा, तीर्थयात्रा, सूरिपदोत्सव, उद्यापन - तप, प्रतिष्ठायें, नवीन चैत्यादि के निर्माण संबंधी प्रस्ताव प्रथम अनुपमा की ओर से ही प्रायः आते थे और वे सभी को सर्वमान्य होते थे । वस्तुपाल की बड़ी पत्नी ललितादेवी यद्यपि कुलमर्यादा के अनुसार घर में बड़ी गिनी जाती थी, लेकिन वह भी अनुपमा का उसके सुन्दर गुणों के और सुन्दर स्वभाव के कारण अपने से कुल बड़ी स्त्री के समान मान करती थी । नित्य अनुपमा अपनी देखरेख में भोजन बनवाती और अपने हाथ से अभ्यागतों, अतिथियों, साधु-मुनिराजों को भोजन दान कर लेने के पश्चात् दीनों, हीनों की याचनायें पूर्ण कर लेने के पश्चात् तथा मन्त्री भ्राताओं के भोजन कर लेने के पश्चात् कुल की सर्व स्त्रियों के साथ भोजन करती थी । सैनिक, अंगरक्षक, दासदासी की भोजन-वस्त्र संबंधी पूरी संभाल करती थी। सच तो यह है कि वस्तुपाल तेजपाल जो ऐसे समय में Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और दंडनायक तेजपाल और उसका परिवार :: [१६७ गूर्जरसाम्राज्य की सेवायें करने में समर्थ हो सके एवं धार्मिक और साहित्यिक महान् सेवायें कर सके वह सामर्थ्य और सुविधा चतुरा गुणवती एकमात्र अनुपमा से ही प्राप्त हुआ था। ___ तेजपाल और अनुपमा में अत्यन्त प्रेम था। अनुपमा रात और दिन धार्मिक, सामाजिक और सेवासंबंधी कार्यों में इतनी व्यस्त रहती थी कि आगे जाकर उसको अपने योग्य पति तेजपाल की सेवा करने का भी समय नाममात्र को मिलने लगा और इसका उसको पश्चाताप बढ़ने लगा। निदान अनुपमा के प्रस्ताव पर तेजपाल ने दूसरा विवाह वि० सं० १२६० या १२६३ के पश्चात् पत्तननिवासी मोढनातीय ठकुर झाल्हण के पुत्र ठक्कुर प्राशराज की पुत्री ठक्कुराणी सन्तोषकुमारी की पुत्री सुहड़ादेवी के साथ किया । अनुपमा की कुक्षी से वीर और तेजस्वी पुत्र लावण्यसिंह जिसके श्रेयार्थ लूणिगवसतिका निर्माण करवाया गया था, उत्पन्न हुआ और वउलदेवी नाम की एक पुत्री उत्पन्न हुई । सुहड़ादेवी के एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम सुहड़सिंह ही रक्खा गया था। ___ अनुपमादेवी का देहावसान महामात्य वस्तुपाल की मृत्यु के १ या १॥ वर्ष पूर्व हो गया था। अनुपमा की मृत्यु से दोनों मन्त्री भ्राता ही नहीं समस्त गुजरात दुःखी हुआ। तेजपाल बहुत दुःखी रहने लगा। तेजपाल की यह अवस्था श्रवण कर वस्तुपाल के कुलगुरु विजयसेनसूरि धवलकपुर में आये और तेजपाल को संसार की असारता समझा कर सान्त्वना दी । परन्तु महामात्य और अनोपमा की मृत्यु के पश्चात् तेजपाल उदासीन-सा ही रहने लगा था । निदान वह राज्य और धर्म की सेवा करता हुआ वि० सं० १३०४ में स्वर्ग को प्राप्त हुआ। स्त्रीरत्न अनोपमा का यह इकलौता पुत्र था। लूणसिंह को लावण्यसिंह भी कहते थे। लूणसिंह वीर और प्रतिभासम्पन्न था । मंत्री भ्राताओं को लूणसिंह का पद-पद पर सहयोग प्राप्त होता रहा था। विशेष कर लूणसिंह सामलूणसिंह और उमका सौतेला रिक व्यवस्थाओं में देश-विदेश में चलती हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में अत्यन्त भ्राता सुहसिंह कुशल था। गुप्तचर विभाग का यह अध्यक्ष था। लाटनरेश शंख की प्रथम पराजय इसके और महामात्य वस्तुपाल के हाथों हुई थी । लूणसिंह जैसा वीर था, वैसा ही साहित्यप्रेमी भी था। विद्वानों का, कवियों का वह सदा समादर करता था । हेमचन्द्रसूरिकृत 'देशीनाममाला' नामक ग्रंथ की एक प्रति आचार्य जिनदेवमूरि के लिये उसने अपनी पंचकूल की प्रमुखता में भृगुकच्छ में वि० सं० १२६८ में लिखवाई थी। जिसको कायस्थज्ञातीय जयतसिंह ने लिखा था। लूणसिंह के दो स्त्रियाँ थीं । रयणदेवी और लक्ष्मीदेवी रयणदेवी के गउरदेवी नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। लूणसिंह के कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था। तेजपाल की दूसरी स्त्री सुहड़ादेवी की कुक्षि से सुहड़सिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। इसके सुहड़ादेवी और सुलखणादेवी नामकी दो स्त्रियां थीं । दंडनायक तेजपाल ने अर्बुदगिरि पर विनिर्मित हस्तिशाला में दशवाँ गवाक्ष सुहड़सिंह और उसकी दोनों स्त्रियों के श्रेयार्थ करवाया था । प्र०चि०० ते. प्र०१६६) पृ० १०४) १६७) पृ०१०५ । जै० प्र० पु० सं० १६१) पृ०१२३ D. C. M. P. (G O. S. Vo.- LXX VI) P.60 (पत्तनभंडार की सूची) अ० प्रा० ० ले० सं० ले० २५० Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६८ 1 :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय महामात्य की सप्त भगिनियाँ महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के जाल्हु, माऊ, साऊ, धनदेवी, सोहगा, वयजू और पद्मा नाम की गुणवती, सुशीला और दृढ़ जैनधर्मिनी सात भगिनियें थीं । योग्य आयु प्राप्त करने पर इनमें से छह का विवाह योग्य वरों के साथ में कर दिया गया था। परन्तु वयजू जो छट्ठी बहिन थी आयु भर कुमारी सप्त भागनिया तथा व विरहिन रही। भवणपाल नामक व्यक्ति से जो महामात्य वस्तुपाल का अत्यन्त विश्वासपात्र वीर सेवक था वयजू की सहगति (सगाई) हो गई थी। भुवणपाल लाटनरेश शंख के साथ हुये द्वितीय युद्ध में भयंकर संग्राम करता हुआ मारा गया। महामात्य वस्तुपाल ने अपने वीर सेवक की पुण्यस्मृति में भुवणपालेश्वर नामक एक विशाल प्रासाद खंभात में विनिर्मित करवाया जो आज तक उस वीर के नाम को चरितार्थ करता आ रहा है। भुवणपाल की वीरगति सुन कर कुमारी वयजू ने विधवा के वस्त्र धारण कर लिये और आयु भर भुवणपाल के वृद्ध माता-पिता की सेवा करती रही। वयजू के इस त्याग और निर्मल प्रेम में मानव-मानव में भेद मानने वालों के लिये कितना उपदेश भरा है, सोचने और समझने की बात है। पद्मल सर्व से छोटी बहिन थी। लूणिगवसति में दंडनायक तेजपाल ने अपनी सातों बहिनों के श्रेयार्थ २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ३५वीं देवकुलिकायें उनके नामों के क्रमानुसार वि० सं० १२६३ में विनिर्मित करवाकर प्रतिष्ठित करवाई थीं। जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि मंत्री भ्राताओं के सात बहिनें थीं, जिनमें पद्मा सर्व से छोटी होने के कारण अधिक प्रिय थी । पद्मा बचपन से ही नारी-अधिकार को लेकर अग्रसर होती रही थी। वैसे तो मंत्री-भ्राताओं की - सात ही बहिनें अत्यधिक गुणवती एवं पतिव्रतायें थीं। परन्तु पद्मा में स्त्री का अभिमान पद्मा का कुछ जीवन परिचय ___ था। वह स्वाभिमानिनी थी। पद्मा का विवाह धवल्लकपुर के नगर सेठ प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि यशोवीर के पुत्र जयदेव के साथ में हुआ था । महामात्य ने जैत्रसिंहके पश्चात् खंभात का राजचालक जयदेव को ही बना कर भेजा था । जयदेव बुद्धिमान् तो अवश्य था ही उसने खंभात का शासन बड़ी योग्यता से किया था। लुणिगवसति की देवकुलिकाओं के लेख:प्रा० ० ले० सं० ले०६४,६५,६६,६७,६८,६६,? H. I. G. Pt. I ले० २०६ श्लो०१७ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री-वंश और उनका प्राचीन गूर्जर-मन्त्री-वंश-वृक्ष :: प्राग्वाटवंशावतंश मंत्री भ्राताओं का प्राचीन गुर्जर - मंत्री-वंश-वृक्ष पेड़ १ जाल्हू अश्वराज पूर्णसिंह सहजलदेवी सदमलदेवी [अल्हणदेवी] वलालदेवी २ माऊ शूर लूगि मल्लदेव वस्तुपाल तेजपाल [लूणादेवी] [१लीलादेवी 'प्रतापदेवी] [१ललितादेवी २सोखुकादेवी (वेजलदेवी ) ] [ १ अनोपमा २ हड़ादेवी ] ३ चंडप [ चांपलदेवी ] T चंडप्रसाद [ जयश्री ] विजयसिंह साऊ जयंत सिंह प्रतापसिंह वउलदेवी लावण्यसिंह [१जयतलदेवी २जंभणदेवी रूपादेवी] [१यणदेवी लखमादेवी] ४ सोम [ सीता ] तिहूणपाल धनदेवी श्र० प्रा० जै० ले० सं० ले० २५० पृ० ६२ । लूणिगवसतिका की देवकुलिका १ से ८, १७ से २१, २६ से ३१, श्र० प्रा० जे० ले० सं० लूणवसतिलेखाः । केलिकुमारी ५ सोहगा | सि गरदेवी [१ सुहड़ादेवी सुलखणादेवी ] ६ वयज् [ १६६ ७ पद्मला जै० पु० प्र० सं० प्र० ७ पृ० ६ (जैत्रसिंहले खितपुस्तिका प्र० ) ३५, ४२ से ४८ के शिलालेखाः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय प्राग्वाटवंशावतंस मन्त्री-भ्राताओं के श्री नागेन्द्रगच्छीय कुलगुरुओं की परम्परा श्री महेन्द्रसूरि* श्री महेन्द्रसरिसंतानीय श्री शांतिसरि १. पाणंदमूरि २. अमरचन्द्रसूरि श्री हरिभद्रसूरि श्री विजयसेनसूरि श्री उदयप्रभसूरि स्त्रीरत्न अनोपमा के पिता चन्द्रावतीनिवासी ठ० धरणिग का प्रतिष्ठित वंश वि० सं० १२८७ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में चन्द्रावती में प्राग्वाटज्ञातीय ठक्कुर सावदेव हो गया है। ठ, सावदेव का पुत्र ठ० शालिग हुआ और ठ० शालिग का पुत्र ठ० सागर हुआ। ठ० सागर के पुत्र का नाम ठ० गागा था । ४० गागा ठ० धरणिग का पिता और स्त्रीरत्न अनीपमा का पितामह था । ठ० गागा के ठ० धरणिग से छोटे चार पुत्र और थे-महं० राणिग, महं० लीला, ठ० जगसिंह और ठ० रत्नसिंह । ठ० धरणिग की स्त्री का नाम त्रिभुवनदेवी था। उसको तिहुणदेवी भी कहते हैं । त्रिभुवनदेवी के एक पुत्री अनुपमा और तीन पुत्र खीम्बसिंह, प्रांबसिंह और उदल नामक थे। *अ० प्रा० जै० ले० सं० ले. २५० श्लो०६६ से ७१ पृ० ६२ मुनिश्री जयंतविजयजी ने जगसिंह और रत्नसिंह को लीला के पुत्र होना माना है। अ० प्रा० ० ले० सं० ले. २५१ में उक्त व्यक्तियों के नाम निर्देशित हैं तथा पुत्र, भ्रात जैसे संबंधबोधक शब्दों से प्रत्येक नाम संयुक्त है। ठ० धरणिग का भ्राता महं० लीला था। लेख में उक्त पुरुषों का नाम लिखते समय लिखा है. 'तथा महं० लीलासुत महं० श्री लूणसिंह तथा भ्रातृ ठ० जगसिंह ठ० रत्नसिंहाना समस्तकुटुम्बेन' । जगसिंह रत्नसिह महं० लीला के भ्राता है, न की पुत्र । Page #322 --------------------------------------------------------------------------  Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वांग सुन्दर शिल्पकला वतार अर्बुदाचलस्यश्रीलूणसिंहवसहि देलवाड़ा दक्षिण बकि VinyVV उनम कोरचीचार पश्चिम मंजिकाहि A देबकुनिका कि शिवर चोरण • स्तंभ '0 गुनासोर) .बड़े संभ ।। कार -वेदिका देसकुलियों की मानवहिबार के उपमपमहान हैं। .मागरण -बजक DRAWN BY Auth19-8 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और अबुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाव्य :: [ १७१ मह० लीला के पुत्र का नाम लूणसिंह था । अनुपमा का पितृ-परिवार चन्द्रावती के प्रतिष्ठित कुलों में से एक कुल था । दण्डनायक तेजपाल ने वि० सं० १२८७ में श्री अबु दगिरिस्थ लूणसिंहवसति की प्रतिष्ठा के छात्रसर पर तीर्थ की व्यवस्था एवं देख-रेख करने के लिये अति प्रतिष्ठित पुरुषों की एक व्यवस्थापिका समिति बनाई थी, उसमें अनुपमा के तीनों भ्राता तथा महं० राणिग और महं० लीला, जगसिंह, रत्नसिंह तथा इनकी परंपरित सन्तान को स्थायी सदस्य होना घोषित किया था । ऐतत्सम्बन्धी प्रमाणों से सम्भव लगता है कि वि० सं० १२८७ के लगभग अथवा पूर्व ठ० धरणिग की मृत्यु हो गई थी । खण्ड ] अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ - जिनालय लूणसिंहवसहिका का निर्माण दण्डनायक तेजपाल ने अपनी पत्नी अनुपमा की देखरेख में वि० सं० १२८६. में प्रारम्भ किया था । तेजपाल अपनी प्यारी पत्नी अनुपमा का बड़ा आदर करता था। अनुपमा की कुक्षी से उत्पन्न सहिका का निर्माण और पुत्र लावणसिंह जिसे लूणसिंह भी कहते हैं, बड़ा तेजस्वी और वीर था । तेजपाल ने प्रतिष्ठोत्सव लूसिंह और अपनी पत्नी अनुपमा के कल्याणार्थ इस वसहिका का निर्माण करवाया था । अनुपमा चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठि धरणिग की पुत्री थी। अनुपमा अतुल वैभव एवं मान प्राप्त करके भी अपनी जन्मभूमि चन्द्रावतीनगरी को नहीं भूली थी । चन्द्रावती ही नहीं, अनुपमा के हृदय में चन्द्रावती की सम्पूर्ण राज्यभूमि के प्रति श्रद्धा और महा मान था । बचपन में अपने पिता के साथ अर्बुदगिरि पर बसे हुये देउलवाड़ा में विनिर्मित विमल वसहिका के उसने अनेक बार दर्शन किये थे और विमलवसहिका के कलापूर्ण निर्माण का प्रभाव उसके हृदय पर अंकित हो गया था । वस्तुपाल जैसे महाप्रभावक एवं धन-बल-वैभव के स्वामी ज्येष्ठ को तथा तेजपाल जैसे महापराक्रमी शील और सौजन्य के अवतार पति को प्राप्त कर उसको अपनी अन्तरेच्छा पूर्ण सिंहवसहिका का निर्माण वस्तुपाल तेजपाल के ज्येष्ठ भ्राता लुणिग जो अल्पायु में स्वर्गस्थ हो गया था के स्मरणार्थ करवाया गया है, ऐसी कुछ भ्रांति कतिपय इतिहासकारों को हो गई है। क्योंकि उसका नाम भी लूगिंग था और वसहिका का नाम भी लूणिगवसहिका है। निम्न श्लोकों से सिद्ध है कि इस वसहिका का निर्माण तेजपाल ने अपने पुत्र लूणसिंह और अपनी पत्नी अनुपमा के श्रेयार्थ करवाया था । 'अनुपमा पत्नी तेजःपालस्य मंत्रिणः । लावण्यसिंहनामा यमायुष्मानेतयोः सुतः॥ ५६ ॥ तेजःपालेन पुण्यार्थं तयोः पुत्रकलत्रयोः । हर्म्य श्री नेमीनाथस्य तेने तेनेदमर्बुदे ॥ ६० ॥ प्रा० जै० ले० सं० ले० ६४ पृ० ८३ वित्रपुत्रमहं० श्री लूणसिंहस्य च पुण्यय शोभिवृद्धये श्रीलूणसिंहवस हिकाभिधानश्रीनेमिनाथदेव प्रा० जै० ले० सं० ले० ६५ पृ० ८५-८६ 'श्री तेजःपालेन स्वकीयभार्या महं० श्री अनुपमदेव्यास्तत्कुक्षि (सं०) श्रीमदबुदाचलोपरि देउलवाड़ा ग्रामे समस्तदेव कुलिकालंकृतं विशालहस्तिशालोपशोभितं चैत्यमिदं कारितं ' ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय करने की अभिलाषा हुई। दोनों मंत्रीभ्राताओं ने अनुपमा के प्रस्ताव का मान किया और वि० सं० १२८६ में लूणसिंहवसहिका का निर्माण शोभन नामक एक प्रसिद्ध शिल्पशास्त्री की अध्यक्षता में प्रारम्भ कर दिया । अर्बुदगिरि चन्द्रावतीपति के राज्य में था। उस समय चन्द्रावतीपति प्रख्यात धारावषे था। वह यद्यपि पत्तनसम्राट का माण्डलिक राजा था; परन्तु महामात्य वस्तुपाल की आज्ञा लेकर दण्डनायक तेजपाल चन्द्रवतीनरेश से मिलने के लिए चन्द्रावती गया और अर्बुदगिरि पर श्री नेमनाथजिनालय बनवाने की अपनी भावना व्यक्त की। धारावर्ष ने सहर्ष अनुमोदन किया और हर कार्य में सहायता करने का वचन दिया । अनुपमा भी अचूदगिरि पर बसे हुये देउलवाड़ा ग्राम में ही जाकर रहने लगी। मजदूरों और शिल्पियों की संख्या सहस्रों थी, परन्तु उनको खाने-पीने का प्रबन्ध सर्व अपने हाथों करना पड़ता था । इस स्थिति से अनुपमा को निर्माण में बहुत अधिक समय लग जाने की आशंका हुई। तुरन्त उसने अनेक भोजनशालायें खोल दी और श्रोढने-बिछाने का उत्तम प्रबन्ध करवा दिया। रात्रि और दिवस कार्यचल कर वि० सं० १२८७ में हस्तिशालासहित वसहिका बनकर तैयार हो गई। वैसे तो वसहिका में देवकुलिकायें और छोटे-मोटे अन्य निर्माणकार्य वि० सं० १२६७ तक होते रहे थे, लेकिन प्रमुख अंग जैसे मूलगर्भगृह, गूढमण्डप, नवचतुष्क (नवचौकिया) रंगमण्डप, वलानक, खत्तक और भ्रमती तथा विशाल हस्तिशाला, जिनमें से एक-एक का निर्माण संसार के बड़े २ शिल्पशास्त्रियों को आश्चर्यान्वित कर देता है, दो वर्ष के समय में बनकर तैयार हो गये। अनुपमा की कार्यकुशलता, व्यवस्थाशक्ति, शिल्पप्रेम, धर्मश्रद्धा और तेजपाल की महत्वभावना, स्त्री और पुत्रप्रेम, अर्थ की सद्व्ययाभिलाषा, धर्म में दृढ़ भक्ति और साथ में शोभन की शिल्पनिपुणता, परिश्रमशीलता, कार्यकुशलता लूणसिंहवसहिका में आज भी सर्व यात्रियों को ये मूर्तरूप से प्रतिष्ठित हुई दिखाई पड़ती हैं। इस बसहिका के निर्माण में राणक वीरधवल की भी पूर्ण सहानुभूति और पूर्ण सहयोग था। चन्द्रावती के महामण्डलेश्वर धारावर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसका योग्य पुत्र सोमसिंह चन्द्रावती का महामण्डलेश्वर बना था । सोमसिंह ने भी अपनी पूरी शक्तिभर अनुपमा को वसहिका के निर्माण में जन और श्रम से तथा राज्य से प्राप्त होने वाली अन्य अनेक सुविधाओं से सहयोग दिया था। लूणसिंहवसहिका जब बनकर तैयार गई तो धवलकपुर से महामात्यवस्तुपाल सपरिवार विशाल चतुर्विधसंघ के साथ में अर्बुदगिरि पर पहुँचा । वि० सं० १२८७ फा० कृ० ३ रविवार (गुज० चै० कृ. ३) के दिन मंत्री भ्राताओं के कुलगुरु नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के हाथों इस वसहिका की प्रतिष्ठा हुई और वसहिका में स्थित नेमनाथबावनचैत्यालय में भगवान् नेमनाथ की प्रतिमा विराजमान की गई। प्रतिष्ठोत्सव के समय चन्द्रावती का मण्डलेश्वर वसहिका के गृढमण्डप के सिंहद्वार का लेख 'नृपविक्रमसंवत् १२८७ वर्षे फाल्गुण सु (व) दि ३ सोमे (खौ) अद्यह श्रीअर्बुदाचले श्रीमदरणहिल पुखास्त० प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचण्डप श्रीचण्डप्रसाद महं श्री सोमान्वये महं० श्रीश्रासराजसुत महं० माल देव महं० श्रीवस्तुपालयोरनुजभात महं० श्री तेज [] पालेन स्वकीय भार्या महं० श्री अनुपमादेवि (वी) कुक्षिसंभूत सुत महं० श्री लूणसीह पुण्यार्थ अस्यां श्री लूणावसाहिकायाँ श्री नेमिनाथमहातीर्य कारितं ॥छाछ। अ० प्रा० ० ले० सं० ले०२६० गुजराती वर्ष एक महा पश्चात् शुरु होता है। राजस्थान में जब चैत्र माह होता है, गुजरात में फाल्गुण माह होता है। हमारी मान्यतानुसार लूणसिंहवसहिका की प्रतिष्ठा वि० सं० १२८७ चैत्र कृ०३ रविवार और गुजराती मान्यतानुसार फा० कृ०३ रविवार को हुई। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलरथ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य :: [१७३ सोमसिंह अपने राज-परिवार के साथ उपस्थित था। महाकवि राजगुरु सोमेश्वर तथा पत्तन-राज्य के बड़े बड़े अनेक पदाधिकारि, सामंत और ठकुर महामात्यवस्तुपाल के साथ में संघ में आये थे । जाबालिपुर के चौहान राजा उदयसिंह का प्रधान महामात्य यशोवीर भी जो शिल्पशास्त्र का धुरंधर ज्ञाता था आया था। मंत्रीभ्राताओं ने यशोवीर से वसहिका के निर्माण के विषय में शिल्पशास्त्र की दृष्टि से अपनी सम्मति देने की कही। यशोवीर ने महाकुशल शिल्पशास्त्री शोभन को वसहिका में शिल्प की दृष्टि से रही हुई अनेक त्रुटियाँ बतलाई, जैसे देवमंदिरों में पुतलियों के क्रीडाविलास के आकार, गर्भगृह के सिंहद्वार पर सिंहतोरण और चैत्यालय के समक्ष पुरुषों की मूर्तियों से युक्त हाथियों की रचना निषिद्ध है आदि । चन्द्रावती-राज्य से तथा जाबालिपुर, नाडौल, गौड़वाड़-प्रांत और मेदपाटप्रदेश के राज्यों से इस प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर अनेक संघ और स्त्री-पुरुष आये थे। प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर ही महामात्यवस्तुपाल, तेजपाल ने श्रीमद् विजयसेनमूरि की अध्यक्षता में एक विराट सभा की थी, जिसमें उपस्थित सर्व सामंत, ठक्कुर और आये हुए संघ संमिलित थे। भिन्न २ ग्रामों के श्रीसंघों को प्रतिवर्ष अष्टाह्निका-महोत्सव की व्यवस्था करने का जिस प्रकार भार सौपा गया तथा चन्द्रावती के राजकुल ने, मंत्री भ्राताओं के संबंधीकुलों ने जिस प्रकार वसहिका की सेवा-पूजा और रक्षा के कार्यों को अपने में विभाजित किया, उनका उल्लेख निम्न प्रकार है । व्यवस्थापिका समितिः श्री लूणसिंहवसति नामक श्री नेमिनाथमन्दिर की व्यवस्था करने वाली समिति के प्रमुख सदस्यों की शुभ नामावली:१. मन्त्री श्री मल्लदेव, २. मन्त्री श्री वस्तुपाल, ' । । और इन तीनों भ्राताओं की परंपरित सन्तान ३. मन्त्री श्री तेजपाल श्री लूणसिंह के मातृकुलपक्षी चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटज्ञातीय ठक्कुर श्री ४. मन्त्री श्री राणिग । सावदेव के पुत्र ठ० श्री शालिग के पुत्र ठ० श्री सागर के पुत्र ठ० श्री गागा के ५. महं० श्री लीला ) पुत्र ठ० श्री धरणिग के भ्राता तथा इनकी परंपरित संतान । ६. ४० श्री खीम्बसिंह) ७. ठ० श्री आम्बसिंह ठ. श्री धरणिग की पत्नी ठ० श्री तिहूणदेवी के पुत्र तथा महं श्री अनुपमा८. ठ० श्री ऊदल ) देवी के भ्रातागण तथा इनकी परंपरित सन्तान । ६. मन्त्री श्री लूणसिंह ] महं श्री लीला का पुत्र तथा इसकी परंपरित सन्तान । १०. मन्त्री श्री जगसिंह ] महं श्री लीला का भ्राता तथा इसकी परंपरित सन्तान । ११. मन्त्री श्री रत्नसिंह ] " , " " " " " " " प्रोक्त सर्व सज्जनों के कुटम्बीजन तथा वंशज इस धर्मस्थान में स्वात्रपूजा आदि सर्व प्रकार के कार्य नित्य करने और करवाने के लिये उत्तरदायी हैं। तथा श्री नेमिनाथदेव की प्रतिष्ठा-जयन्ती प्रति वर्ष स्नात्र-पूजा आदि मंगलकार्य करके निम्न ग्रामों के अधिवासी श्रावकगण अष्ट दिवस पर्यन्त प्रति दिन क्रमशः मनावेंगेः-- Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [ द्वितीय १ प्रतिष्ठामहोत्सव की प्रारंभ-तिथि देवकीय चैत्र कृष्णा ३ तृतीया (गुजराती फाल्गुण कृ० ३ तृतीया) के दिन प्रति वर्ष श्री चन्द्रावती का निवासी समस्त महाजन-सङ्घ और जिनमन्दिरों के व्यवस्थापक तथा गोष्ठिक एवं कार्यकर्तागण आदि सर्व श्रावक समुदाय तथा ऊंवरली और कीवरली ग्रामों के अधिवासी:प्राग्वाटज्ञातीय शेठ रासल आसधर, धर्कटज्ञातीय शेठ नेहा साल्हा " , माणिभद्र आल्हण , , धउलिग श्रासचन्द्र " , देल्हण खीमसिंह , ,, बहुदेव सोम सावड़ श्रीपाल " , पासु सादा , ,, जींदा पाल्हण श्रीमालज्ञातीय पूना साल्हा आदि , पूना साल्हा २. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ४ चतुर्थी (गुज० फा० कृ० ४) के दिन कासहृदग्राम के अधिवासीःओसवालज्ञातीय शेठ सोही पाल्हण प्राग्वाटज्ञातीय शेठ सांतुय देल्हण " शलखण वलण " , गोसल आल्हा श्रीमालज्ञातीय ,, कडुयरा कुलधर " , कोला अम्बा " " पासचन्द्र पूनचन्द्र " जसवीर जगा , ब्रह्मदेव राल्हा आदि ३. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ५ पंचमी (गुज० फा० कृ० पंचमी) के दिन वरमाणग्राम के अधिवासी:प्राग्वाटज्ञातीय महाजन आमिग पूनड़ ओसवालज्ञातीय महाजन धांधा सागर पाल्हण उदयपाल साटा वरदेव वीरदेव अमरसिंह " , आवोधन जगसिंह , शेठ धनचन्द्र रामचन्द्र श्रीमालज्ञातीय , वीसल पासदेव आदि ४. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ६ षष्ठी (गुज० फा० कृ. ६) के दिन धवलीग्राम के अधिवासी:प्राग्वाटज्ञातीय शेठ साजन पासवीर प्राग्वाटज्ञातीय शेठ राजुय सावदेव , वोहड़ी पूना " , दुगसरण साहणीय , जसडुय जेगण ओसवालज्ञातीय सलखण मन्त्री जोगा " साजण भोला , शेठ देवकुमार आसदेव आदि , पासिल पूनुय ५. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ७ सप्तमी (गुज० फा० कृ० ७) के दिन मुण्डस्थलमहातीर्थ (मूङ्गथला) के अधिवासी:. प्राग्वाटज्ञातीय शेठ संधीरण गुणचन्द्र पाल्हा " ,, सोहिय आंबेसर , जोजा खांखण श्रीमालज्ञातीय शेठ वापल गाजण आदि [फीलिणीग्राम के निवासी ।]. .......... ........... दफालिगोग्राम के निवासी। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्रो भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और अबु दाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य :: [ १७५ ६. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ८ अष्टमी (गुज० फा० कृ० ८ ) के दिनं हंडाउद्रा ( हणाद्रा) और डवाणी ग्रामों के अधिवासी: श्रीमालज्ञातीय शेठ आंबु जसरा " 11 " 19 " 71 27 " " " "" 19 ,, जिनदेव जाला " देला वीसल " 11 " ७. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा ६ नवमी (गुज० फा० कृ० ६ के) दिन मडाहड़ (मदार ) ग्राम के अधिवासी : प्राग्वाटज्ञातीय शेठ देसल ब्रह्मशरण प्राग्वाटज्ञातीय शेठ श्रबुय बोहड़ी " जसकर घणिया " वोसरी पूनदेव " देल्हण श्रल्हा वीरुय साजण " " वाल्हा पदमसिंह 99 " पाहुय जिनदेव ८. प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा १० दशमी (गुज० फा० कृ० १०) के दिन साहिलवाड़ा ग्राम के अधिवासी: सवालज्ञातीय शेठ देल्हा आल्हण सवालज्ञातीय शेठ जसदेव वाहड़ नागदेव देव सीलण देल्हण लखमण सू असल जगदेव सूमिग धनदेव " " काल्हण असल वोहिथ लाखण गोसल वहड़ा 11 श्रीमालज्ञातीय शेठ थिरदेव विरुय " गुणचन्द्र देवधर हरिया हेमा 11 " 11 " 17 प्राग्वज्ञातीय 17 17 17 " 19 27 " " सधर सल 11 आसल सादा लखमण कडुया आदि " ," वहुदा " महधरा धनपाल 11 तथा श्री अर्बुदाचल के ऊपर स्थित श्री देउलवाड़ा के निवासी सर्व श्रावकसमुदाय श्री नेमिनाथदेव के पंचकल्याणक-दिवसों में प्रतिवर्ष स्नात्र - पूजा आदि महोत्सव करें। " पूनिग वाघा आदि इस प्रकार यह व्यवस्था, श्री चंद्रावतीनरेश राजकुल श्री सोमसिंहदेव, उनके पुत्र युवराजकुमार श्री कान्हड़देव और अन्य प्रमुख राजकुमारगण, राज्यकर्मचारीगण, चन्द्रावती के स्थानपति भट्टारक (आचार्य अर्थात् धर्माचार्यगण), गूगुलि ब्राह्मण (पंडा-पूजारीगण ), सर्व महाजन संघ, जैनमंदिरों के व्यवस्थापकगण और इसी प्रकार अर्बुद गिरि पर स्थित श्री अचलेश्वर और श्रीवशिष्ठ स्थानों के तथा समीपवर्ती ग्राम १ देवलवाड़ा २ श्री माता का महबु ग्राम ३ आबुय ४ रसा ५ उत्तरछ ६ सिहर ७ सालग्राम ८ हेडऊंजी ६ श्राखी १० धांधलेश्वरदेव की कोटड़ी आदि बारह ग्रामों में रहने वाले स्थानपति ( आचार्य, महंत), तपोधनसाधु, गूगुलि ब्राह्मण और राठिय आदि.. सर्वजनों ने तथा भालि, भाड़ा आदि ग्रामों में निवास करने वाले श्री प्रतिहारवंश के प्रमुख राजपुत्रों ने अपनी अपनी इच्छा से श्री ' लूणसिंहवसति के मूल नायक श्री नेमिनार्थदेव' के मंडप में एकत्रित होकर मंत्री श्री तेजपाल के कर से अपनी स्वेच्छापूर्वक श्री ' लूणसिंह वसति' नामक इस धर्मस्थान की रक्षा करने का भार स्वीकृत किया । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय ऐतदर्थ अपने वचनों के पालन करने में सदा तत्पर रहनेवाले ये सर्व सज्जन और इन सर्व सज्जनों की आनेवाली परंपरित संतान जहाँ तक सूर्य और चन्द्र जगतीतल पर प्रकाशमान रहे, तहाँ तक सब प्रकार से इस धर्मस्थान की रक्षा करें । शास्त्रों में भी कहा है___ पात्र, कमएडल, वल्कलवस्त्र, श्वेत, लालवस्त्र, जटा आदि के धारण करने से क्या ? उन्नत प्रात्माओं का स्वीकृत कार्य अथवा अपने वचनों का परिपालन करना ही निर्मल अर्थात् सुन्दर व्रत है। तथा महारावल श्री सोमसिंहदेव के द्वारा इस 'श्री लूणसिंहवसति' के श्री नेमिनाथदेव की पूजा-भोग के लिये डवाणीग्राम प्रदान किया गया है। श्री सोमसिंहदेव की प्रार्थना से जब तक सूर्य और चन्द्र प्रकाशमान रहे, तब तक परमारवंश इस प्रतिज्ञा का पालन करता रहेगा। ____ महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ने उक्त सर्व कार्यवाही को एक श्वेत संगमरमरप्रस्तर की शिला पर बहुत सुन्दराक्षरों में उत्कीर्णित करवाकर लूणसिंहवसहिका के दक्षिण दिशा में आये हुये प्रवेशद्वार के ऊपर विनिर्मित मण्डप की बाहे हाथ की ओर की दिवार में बने हुये एक गवाक्ष में लगवा दिया है। सम्पूर्ण लेख मात्र तीन श्लोकों के अतिरिक्त गद्य में है। इस शिलालेख के ठीक पास में ही महामात्य भ्राताओं ने एक और दूसरा शिला-लेख लगवाया था, जिसमें सोमेश्वरकृत प्रशस्ति सूत्रधार केल्हण के पौत्र चन्द्रेश्वर ने उत्कीर्णित की है और जिसमें प्रथम सरस्वती की स्तुति और तत्पश्चात् भगवान् नेमिनाथ की वंदना है। तत्पश्चात् अणहिलपुर के मंत्री भ्राताओं के वंश का और उनके यश का, चौलुक्यवंश तथा चंद्रावती के परमार राजाओं का, अनुपमा के पितृवंश का, नेमनाथचैत्य का, मंत्री भ्राताओं के पुण्यकर्मों का, गुरुवंश का वर्णन दिया गया है। यह शिला-लेख एक काले प्रस्तर पर अत्यन्त सुन्दराक्षरों में उत्कीर्णित किया गया है ।* इस प्रतिष्ठोत्सव के पश्चात् भी निर्माण-कार्य यथावत् चालू रहा और निम्न प्रकार देवकुलिकायें बन कर तैयार हुई। मं० मालदेव और उसके परिवार के श्रेयार्थःदेवकुलिकाओं की क्रम-संख्या किसके श्रेयार्थ किस विंब की स्थापना किस संवत् में पहली मं० मालदेव की पुत्री सद्मलदेवी । १२८८ मं० मालदेव के पुत्र पुण्यसिंह की स्त्री आल्हणदेवी १२८८ तीसरी मं० मालदेव की द्वि० भार्या प्रतापदेवी १२८८ चौथी मं० मालदेव की प्र० भार्या लीलादेवी पांचवीं मं० मालदेव के पुत्र पुण्यसिंह का पुत्र पेथड़ १२८८ छट्ठी मं० मालदेव का पुत्र पुण्यसिंह १२८८ सातवीं मं० मालदेव १२८८ आठवीं मं० पुण्यसिंह की पुत्री वलालदेवी १२८८ मं० वस्तुपाल और उसके परिवार के श्रेयार्थःबैयालीसवीं मं० वस्तुपाल की द्वि० स्त्री सोखुकादेवी १२८८ दूसरी rr UUUUU UUUUUU कप० प्रा० ० ले०सं० ले०२५०, २५१ पृ०६२ से १७६ . Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और अर्बुदाचनस्थ श्री लूणसिंहवसतिकास्य : [ १७७ १२८८ तैयालीसवीं मं० वस्तुपाल की प्र० स्त्री ललितादेवी १२८८ चौमालीसवीं , का पु० जयंतसिंह १२ पैंतालीसवीं , के पु० जयंतसिंह की प्र० स्त्री जयतलदेवी ... १२८८ छियालीसवीं वा " , द्वि० स्त्री सुहवदेवी ... १२८८ सैतालीसवीं त. स्त्री रूपादेवी ... १२८८ अड़तालीसवीं मं० मालदेव की पु० सहजलदेवी म० तेजपाल और उसके परिवार के श्रेयार्थःसतरहवीं मं० तेजपाल के पुत्र लूणसिंह की प्र० स्त्री रयणादेवी १२६० अट्ठारवीं , , की द्वि० स्त्री लक्ष्मीदेवी ... १२६० उन्नीसवीं मं० तेजपाल की स्त्री अनुपमादेवी - मुनिसुव्रत १२६० बीसवीं पु० वउलदेवी १२६० इक्कीसवीं लूणसिंह की पु० गउरदेवी ... १२६० मन्त्री भ्राताओं की भगिनियों के श्रेयार्थःछब्बीसवीं मन्त्री भ्राताओं की भगिनि जाल्हूदेवी सीमंधरस्वामि चै. कृ.८ शु. १२६३ सत्ताईसवीं माऊदेवी युगंधरस्वामि . १२६३ अट्ठाईसवीं साऊदेवी श्रीवाहुस्वामि , १२६३ उनत्तीसवीं धणदेवी सुवाहुस्वामि , १२६३ तीसवीं सोहगादेवी ऋषभदेवस्वामि , १२६३ इकत्तीसवीं वयजूदेवी वर्धमानस्वामि , १२६३ पैतीसवीं पद्मलदेवी वारिषेणस्वामि चै. कृ.७ १२६३ [चौतीसवीं ,, के मामा पुण्यपाल तथा उसकी स्त्री पुण्यदेवी चन्द्राननस्वामि , १२६३ गर्भगृह के द्वार के दोनों ओर नवचौकिया तेजपाल की खी सुहड़ादेवीर १० १. शांतिनाथ १२६७ में दो गवाक्ष-देराणी-जेठाणी के आलय - दंडनामक तेजपाल का सहड़ादेवी के साथ विवाह वि० सं० १२६० के पश्चात् हुआ है ऐसा प्रतीत होता है; क्योंकि वि० सं०१२६० में विनिर्मित देवकुलिकाओं में, जिनका निर्माण तेजपाल ने अपने ही परिवार के श्रेयार्थ करवाया था, कोई देवकुलिका तेजपाल की द्वि० स्त्री सुहडादेवी के श्रेयार्थ नहीं है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.] : प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय मन्त्री भ्राताओं द्वारा विनिर्मित लूणसिंहवसति-हस्तिशाला नेमनाथचैत्यालय के मूलगर्भगृह के पीछे के भाग में तेजपाल ने विशाल हस्तिशाला का निर्माण करवाया था। इस हस्तिशाला में संगमर्मरप्रस्तर के १० दश हस्ति निम्नवत् बनवाये और प्रत्येक हस्ति की पीठ पर पालखी बनवाई और उसमें निम्नवत् अपने एक परिजन की मूर्ति, एक हस्तिचालक की मूर्ति और परिजन की मूर्ति के पीछे छत्र को हाथ में उठाये हुये एक छत्रधर-मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई । हाथी के चरण के नीचे आधार-प्रस्तर पर परिजन का नाम खुदवाया । इस समय एक भी परिजन की मूर्ति किसी भी हस्ति पर विद्यमान नहीं है । मूर्तियाँ थीं, ऐसे चिह्न प्रत्येक हस्ति पर अवशिष्ट हैं। महावतों की मूर्तियाँ भी प्रायः सर्व खण्डित हो चुकी हैं, परन्तु प्रत्येक हस्ति पर इस समय महावत-मूर्ति के दोनों पैर लटकते हुये अभी भी विद्यमान हैं। पहला हाथी महं० श्री चण्डप . दूसरा हाथी महं० श्री चण्डप्रसाद तीसरा , , , सोम चौथा " " " आसराज पाँचवां, , , लूणिग छट्ठा , , ,, मल्लदेव सातवां वस्तुपाल आठवां, , , तेजपाल नौवां , , ,, जैत्रसिंह " " " लावण्यसिंह हस्तिशाला में इन हाथियों के पीछे दिवार में तेजपाल ने दश श्रालयों में जिनको खत्तक कहते हैं, निम्नवत् मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करवाई:खत्तकों में प्रतिष्ठित मूर्तियाँ:खत्तक प्रतिष्ठित मूर्तियाँ पहला १. आचार्य उदयप्रभसूरि २. प्राचार्य विजयसेनसूरि ३. महं० श्री चण्डप ४. महं० श्री चांपलदेवी दूसरा १. श्री चण्डप्रसाद २. महं० श्री जयश्री तीसरा १. महं० श्री सोम २. महं० श्री सीतादेवी ३. महं० श्री आसण चौथा १. महं० श्री आसराज २. महं० श्री कुमारदेवों पांचवां १. महं० श्री लूणिग २. महं० श्री लूणादेवी छट्ठा १. महं० श्री मालदेव २. महं० श्री लीलादेवी ३. महं० श्री प्रतापदेवी सातवां १. महं० श्री वस्तुपाल २. महं० श्री ललितादेवी ३. महं श्री वेजलदेवी आठवां १. महं० श्री तेजपाल २. महं० श्री अनुपमादेवी अ० प्रा० ज० ले सं० ले० ३१६-३२० तेजपाल का सुहड़ादेवी के साथ विवाह अवश्य हस्तिशाला के बन जाने के पश्चात् ही हुआ है। क्योंकि पाठवें खत्तक में उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित नहीं है । नेमनाथ-चैत्यालय के रंगमण्डप के दो गवाक्षों में वि० सं०१२६७ के शिलालेख सहडादेवी के नाम से है। अतः यह सिद्ध है कि तेजपाल का इसके साथ विवाह वि० सं०१२६० या १२६३ के पश्चात् ही हुआ है। चण्डप्रसाद की स्त्री का नाम जयश्री था-न० ना० नं० स०१६ श्लो०७ पृ० ५६ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTHHAMARIES अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिहवसहि की हस्तिशाला का दृश्य । हस्ति :-उत्तर से दक्षिण को। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्ति- अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि को शाला में हस्तियों के मध्य में विनिर्मित त्रिमंजिला हस्तिशाला में पुरुषों के खत्तकों के मध्य तथा सुन्दर समवशरण। पृ०१७८ । श्री समवशरण के ठीक पीछे एक खत्तक में विराजित सुन्दर परिकरसहित भव्य जिनप्रतिमा। पृ०१७८। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Indian Film अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में (उत्तर पक्ष से ) प्रथम पांच (एक से पांच) खत्तकों में प्रतिष्ठित मंत्री भ्राताओं की पूर्वजप्रतिमायें। देखिये पृ० १७८ पर (१) उदयप्रभसूरि, विजयसेनसूरि, महं० चण्डप, महं० चापलदेवी । (२) महं० चण्डप्रसाद, महं० जयश्री । (३) महं० सोम, महं० सीतादेवी, महं० आसण | (४) महं० आशराज, महं० कुमारदेवी । (५) महं० लूणिग, महं० लूणादेवी । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की हस्तिशाला में अन्य पांच (छः से दस) खत्तकों में प्रतिष्ठित मंत्रीभ्राता तथा उनके पुत्रादि की प्रतिमायें। देखिये पृ० १७८ पर । (६) महं० मालदेव, महं० लीलादेवी, महं० प्रतापदेवी । (७) महं० वस्तुपाळ, महं० ललितादेवी, महं० वेजलदेवी। (८) महं० तेजपाळ, महं० अनुपमादेवी । (९) महं० जैत्रसिंह, महं० जयतलदेवी, महं० जंभणदेवी, महं० रूपादेवी । (१०) महं० सुहडसिह, महं० सुहड़ादेवी, महं० सलखणादेवी। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] नौवां १. महं० श्री जैत्रसिंह दशवां १. महं० श्री सुहड़सिंह मंत्री भ्राताओं की यात्रायें: किसने यात्रा :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और अबु दाचलतीर्थार्थ मंत्री नाताओं की यात्रायें :: [e १. २. कब वि० संवत् १२७८ फाल्गुण कृ० ११ गुरु• १२८७ कृ० ३ रविवार १२८८ १२६० १२६३ चैत्र कृ० ७-८ १२६३ वै० शु० १४-१५ ७. १२६७ वै० कृ० १४ गुरुवार " 19 प्रथम यात्रा - महामात्यवस्तुपाल ने महामात्य बनने के लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात् वि० सं० १२७८ फाल्गुण क्र० ११ गुरुवार को की थी। उस समय केवल विमलशाह द्वारा विनिर्मित विमलवसतिका ही अनुदस्थ जैनधर्मस्थानों में प्रसिद्ध तीर्थ था । महामात्य ने उपरोक्त तीर्थ के दर्शन किये और अपने स्वर्गस्थ ज्येष्ठ भ्राता श्री मालदेव के श्रेयार्थ खत्तक बनवाया । ३. ४. ५. ६. श्री अगिरतीर्थार्थ श्री मन्त्री भ्राताओं की संघ - यात्रायें और तदवसरों पर मन्त्री भ्राताओं के द्वारा तथा चन्द्रावतीनिवासी अन्य प्राग्वाटज्ञातीय बंधुओं के द्वारा किये गये पुण्यकर्मों का संक्षिप्त वर्णन महा० वस्तुपाल महा वस्तुपाल तेजपाल दंडनायक तेजपाल 11 २. महं० श्री जयतलदेवी ३. महं० श्री जंभणदेवी ४. महं० श्री रूपादेवी २. महं० श्री सुहड़ादेवी ३० महं० श्री सलखणादेवी " 19 27 19 "" " " " द्वितीय यात्रा - दोनों भ्राताओं ने सपरिवार एवं विशाल संघ के साथ में वि० सं० १२८७ फा० कृ० ३ रविवार को की थी और जैसा लिखा जा चुका है मन्त्री भ्रताओं ने श्री लूणसिंहवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ चैत्यालय का प्रतिष्ठा - महामहोत्सव राजसी सज-शोभा के साथ श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से करवाया था । तृतीय यात्रा - वि० सं० १२८८ में दंडनायक तेजपाल ने अपने सम्पूर्ण कुटुम्ब के साथ में की थी । महामात्य वस्तुपाल विशिष्ट राज-कार्य के कारण इस यात्रा में सम्मिलित नहीं हुए थे । इस अवसर पर करवाये गये धर्मकृत्य तथा विनिर्मित स्थानों के प्रतिष्ठादि कार्य भी मुख्यतया तेजपाल के ही श्रम के परिणाम थे और अतः वे तेजपाल के नाम से ही किये गये थे। इस यात्रावसर पर तेजपाल ने लूणसिंहवसतिका की पन्द्रह देवकुलिकाओं में, जिनका निर्माण हो चुका था अपने ज्येष्ठ भ्राता मालदेव और ज्येष्ठ भ्राता वस्तुपाल के समस्त परिवार के एकएक व्यक्ति के श्रेयार्थ जिन - प्रतिमायें स्थापित की थीं । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय र चतुर्थ यात्रा भी दंडनायक तेजपाल ने वि० सं० १२६० में अपने परिवार सहित की और अपने ही पांच परिजनों के श्रेयार्थ अलग २ देवकुलिकाओं में जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई। पांचवीं और छट्ठी यात्रायें-दंडनायक तेजपाल की वि० सं० १२६३ में चै० कृ०७.८और वै० शु०१४-१५ पर हुई। इन दोनों अवसरों पर उसने अपनी सातो बहिनों के श्रेयार्थ देवकुलिकायें विनिर्मित करवा कर उनमें जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित की तथा एक अलग देवकुलिका में अपने मामा और मामी के श्रेयार्थ जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई । इन्हीं यात्राओं के अवसरों पर चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठियों ने भी अपने और अपने पूर्वज तथा परिजनों के श्रेयार्थ जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें करवाई। उनका भी उल्लेख यहीं देना समुचित है। मेरा अनुमान है कि ये अंष्ठिजन तेजपाल के श्वसुरालय-पक्ष से कुछ संबंध रखते हों, क्योंकि तेजपाल की बुद्धिमती एवं गुणवती स्त्री अनोपमा चन्द्रावती की थी। श्रे० साजण वि० सं० १२६३ चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटज्ञातीय महं० कउड़ि के पुत्र श्रे० साजण ने अपने काका के लड़के भ्राता वरदेव, कडुया, धर्मा, देवा, सीहड़ तथा भ्रातृज आसपाल आदि कुटुम्बीजनों के सहित तथा देवी, रत्नावती और झणकूदेवी नामक बहिनों और बड़ग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय व्यव० मूलचन्द्रभार्या लीबिणी,मोंटग्रामवासी व्य० जयंत, आंबवीर, विजइपाल और प्रचारिका बीरा, सरस्वती तथा अपनी स्त्री झालू आदि की साक्षी से श्री अर्बुदाचलतीर्थस्थ श्री लूणवसतिकाख्य नेमिनाथचैत्यालय में पन्द्रवी देवकुलिका करवा कर उसमें आदिनाथप्रतिमा को श्री नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से वि० सं० १२६३ चैत्र कृ. ८ शुक्रवार को प्रतिष्ठित करवाई तथा श्री आदिनाथपंच-कल्याणकपट्ट भी करवाकर प्रतिष्ठित करवाया ।* वंश वृक्ष ___ महं० कउड़ि ' साजण देवी रत्नावती झणक वरदेव कया धर्मा देवा सीहड़ | आशपाल । *अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले० २८६, २६० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और अबु दाचलतीर्थार्थ उनकी यात्रायें तथा श्र० कुमरा :: | १६१ श्रे० ० कुमरा वि० सं० १२६३ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में प्राग्बाटज्ञातीय श्रे० सांतणाग और जसणाग नामक दो भ्राता चन्द्रावती में हो गये हैं | श्रे०जसणाग के साहिय, सांवत और वीरा नाम के तीन पुत्र थे । साहिय के दो पुत्र थे, बकुमार और गागउ | सांवत के भी पूनदेव और वाला नामक दो पुत्र थे और वीरा के भी देवकुमार और ब्रह्मदेव नामक दो ही पुत्र थे । श्रे० देवकुमार के दो पुत्र वरदेव और पाल्हण तथा चार पुत्रियाँ देल्ही, आल्ही, ललतू और संतोषकुमारी हुई । ब्रह्मदेव के एक पुत्र बोहड़ि नामक और एक पुत्री तेजू नामा हुई । श्रे० वरदेव के कुमरा नामक प्रसिद्ध पुत्र हुआ और श्रे० पाल्हण के जला और सोमा नामक दो पुत्र और सीता नामा पुत्री हुई. श्रे० कुमरा के दो पुत्र, आंबड़ और पूनड़ तथा दो पुत्रियाँ नीमलदेवी और रूपलदेवी नामा हुई । श्रे० कुमरा ने अपने पिता श्रे० वरदेव के श्रेय के लिये श्री नागेन्द्रगच्छीय पूज्य श्री हरिभद्रसूरिशिष्य श्रीमद् विजयसेनसूरिके करकमलों से श्री नेमिनाथदेवप्रतिमा से सुशोभित बावीसवीं देवकुलिका वि० सं० १२६३ वैशाख शु० १४ शुक्रवार को श्री अर्बुदाचलस्थित श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथचैत्यालय में प्रतिष्ठित करवाई और उसी वसर पर श्री नेमिनाथदेव का पंचकल्याणकपट्ट भी लगवाया । वि० सं० १३०२ चैत्र शु० १२ सोमवार को ० कुमरा के पुत्र बड़, पूनड़ ने अपनी पितामही पद्मसिरी के श्रेयार्थ बावीसवीं देवकुलिका करवाई और कुमरा की स्त्री लोहिणी ने जिनप्रतिमा भरवाई, जो इसी बावीसवी देवकुलिका में अभी विराजमान है । 1. आंबड़ सांतणाग कुमार सोहिय वरदेव (पद्म सिरी) कुमरा ( लोहिणी) 1 पूनड़ गागउ जसयांग पूनदव पाल्हण देल्ही सावत | वाला आल्ही वीरा देवकुमार शुभ ब्रह्मदेव सन्तोष ललतू बोहड़ी नीमलदेवी रूपलदेवी जला सोमा सीता श्र० प्रा० जे० ले० सं० भा २ ले० ३०५ - ३०८५० १२६-७ । ले० ३०५ में वर्णित देदा ही देवकुमार है । तेजूदेवी Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय श्रा० रतनदेवी वि० सं० १२६३ चन्द्रावतीनिवासी गौरवशाली प्राग्वाटज्ञातीय अजित नामक वंश में उपत्म महं० श्री भाभट के पुत्र महं० श्री शान्ति के पुत्र महं० श्री शोभनदेव की धर्मपत्नी महं• श्री माऊ की पुत्री ठ० रत्नदेवी ने अपने माता, पिता के श्रेयार्थ श्री अर्बुदाचलस्थतीर्थ श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथचैत्यालय में तेतीसवीं देवकुलिका बनवा कर उसमें श्री पार्श्वनाथप्रतिमा को वि० सं० १२६३ चै० ० ८ शुक्रवार को प्रतिष्ठित करवाया ।* वंशवृक्ष . . अजितसंतानीय महं० प्राभट महं० शान्ति महं० शोभनदेव [महं० माऊ] ठ. रत्नदेवी श्रे० श्रीधरपुत्र अभयसिंह तथा श्रे० गोलण समुद्धर वि० सं० १२६३ विक्रम की बारहवीं शताब्दी में चंद्रावती में प्राग्वाटजातीय श्रे० वीरचन्द्र हुआ है। उसकी स्त्री श्रीयादेवी के साददेव और छाहड़ नामक दो पुत्र हुये। - श्रे० साढ़देव के माऊ नामा स्त्री थी। श्रा० माऊ की कुक्षी से आसल, जेलण, जयतल और जसपर नामक चार पुत्र हुये । श्री जेलण के समुद्धर नामक पुत्र हुआ और श्री जयतल के देवधर, मयधर, श्रीधर और बड़ नामक चार पुत्र हुये । श्रे० श्रीधर के अभयसिंह नामक प्रसिद्ध पुत्र हुआ। श्रे. जसधर के आसपाल और श्रे० आसपाल के सिरपाल नामक पुत्र थे। श्रे० साढ़देव के कनिष्ठ भ्राता श्रे० छाहड़ की स्त्री थिरदेवी की कुक्षी से घांघस, गोलण, जगसिंह और पाल्हण नामक चार पुत्र हुये। *अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले० ३३४ पृ०११६ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलतीर्थार्थ उनकी यात्रायें तथा श्रे० पाल्हण :: [ER ..श्रे० गोलण के वीरदेव, विजयसिंह, कुमरसिंह, पद्मसिंह और रत्नसिंह नामक पांच पुत्र हुए । श्रे. विजयसिंह के अरसिंह नामक पुत्र था। गोलण के लघभ्राता जगसिंह के सोमा नामक पत्र था। श्रे. जसधर के पत्र प्रासपाल, श्रे० गोलण के सर्व पुत्र, श्रे० जगसिंह के पुत्र सोमा, आसपाल के पुत्र सिरपाल, श्रे० विजयसिंह के पुत्र अरिसिंह, श्रे० श्रीधर के पुत्र अभयसिंह और श्रे० गोलण तथा समुद्धर ने मिलकर नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवमूरिसंतानीय श्रीमद् धर्मघोषसूरि के करकमलों से वि० सं० १२६३ वैशाख शु. १५ शनिवार को श्री अर्बुदाचलतीर्थस्थ श्री लुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथचैत्यालय में श्री शांतिनाथबिंब तथा पंचकल्याण-पट्ट प्रतिष्ठित करवाये ।* वीरचन्द्र [श्रियादेवी] साढ़देव [माऊ] छाहड़ [थिरदेवी] प्रासल जेलण जयतल जसपर पांघस गोलण जगसिंह पाल्हण समुद्धर सोमा वीरदेव विजयसिंह कुमरसिंह पनसिंह रत्नसिंह देवधर मयधर श्रीधर अभयसिंह श्रे० पाल्हण वि० सं० १२६३ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में चन्द्रावती में प्राग्वाटज्ञातीय वीशल श्रेष्ठि हुआ है। उसके शांतू (शांतिदेवी) नामा स्त्री थी । श्री. शांतू के मुणिचन्द्र, श्रीकुमार, सातकुमार और पाल्हण नामक चार पुत्र हुये। *० प्रा० ० ले०सं० भा०२ ले०२८७-८पृ०१२०॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] :प्रान्वाह-इतिहास : [द्वितीय ... श्रे० श्रीकुमार के तीन पुत्र और एक पुत्री हुई और क्रमश वील्हा, आंब, साउदेवी और आसधर उनके नाम थे । ज्येष्ठ पुत्र वील्हा के आम्रदेव नामक पुत्र हुआ । आम्रदेव के आसदेव और प्रासचन्द्र नामक दो पुत्र हुये। श्रे० पाल्हण की धर्मपत्नी सील्हू नामा के आसपाल और मांटी नामा दो पुत्र हुये । श्रे० पाल्हण ने अपने प्रात्मकल्याण के लिये श्रीनागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से वि० सं० १२६३ वैशाख शु० १५ शनिश्चर को श्री अर्बुदाचलतीर्थस्थ श्री लुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथचैत्यालय में प्रतिष्ठित श्रीनेमिनाथप्रतिमा से अलंकृत तेवीसवीं देवकुलिका करवाई ।* पासिलसंतानीय वीशल [शांतू] । मुणिचन्द्र । श्रीकुमार सातकुमार पाल्हण [सील्ह] वील्हा प्रांब साउ आसधर आसपाल मांटी आम्रदेव । भासदेव आसदेव . प्रासचन्द्र ठ० सोमसिंह और श्रे० आंबड़ वि० सं० १२६३ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में चन्द्रावती में प्राग्वाटज्ञातीय ठ० सहदेव हुआ है । ठ० सहदेव के ठ० शिवदेव नामक पुत्र हुआ। ठ० शिवदेव का पुत्र ठ० सोमसिंह अधिक प्रख्यात हुआ। ठ० सोमसिंह के दो छोटे भ्राता भी थे, जिनका नाम ठ० खांखण और सोमचन्द्र थे। ठ० सोमसिंह की पत्नी का नाम नायकदेवी था। नायकदेवी की कुक्षी से सांवतसिंह, सुहड़सिंह और संग्रामसिंह नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुये । ज्येष्ठ पुत्र सांवतसिंह के सिरपति नामक एक पुत्र हुआ। चन्द्रावती में अन्य प्राग्वाटज्ञातीय कुल में श्रे. बहुदेव के पुत्र श्रे० देल्हण की स्त्री जयश्री की कुक्षी से पांच पुज-रत्न आंबड़, सोमा, पूना, खोषा और आशपाल उत्पन्न हुये थे, जिनमें आंबड़ अधिक प्रसिद्ध हुआ । श्रे० *प्र० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० ३१३ पृ० १२८. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ]:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूजर मंत्री-वंश और अबु दाचलतीर्थार्थ उनकी यात्रायें तथा श्र० उदयपाल : [ १८५ आंड़ के रत्नपाल और सोमा के खेता तथा पूना के तेजपाल, वस्तुपाल और चाहड़ नामक पुत्र हुए। चाहड़ की स्त्री धारमति थी और जगसिंह नामक पुत्र था । इन दोनों कुलों में अधिक प्रेम और स्नेहसंबंध था । ठ० शिवदेव के तीनों पुत्र खांखण, सोमचन्द्र और ठ० सोमसिंह ने तथा श्रे० देल्हण के पुत्र बड़ादि ने मिलकर अपने माता, पिताओं के श्रेयार्थ श्रीनागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से वि० सं० १२६३ वैशाख शु० १५ शनिश्वर को श्रीअबुदाचलतीर्थस्थ श्री लूणवसतिकाख्य श्रीनेमिनाथचैत्यालय में श्री पार्श्वनाथबिंब और श्री पार्श्वनाथपंचकल्याणकपट्ट प्रतिष्ठित करवाये | वंशवृक्ष: १ सहदेव शिवदेव सोमसिंह [नायकदेवी] खांखण सांवतसिंह सुहड़सिंह संग्रामसिंह '' सिरपि सोमचन्द्र बड़ I रतनलाल तेजपाल देल्हण [ जयश्री ] I वंशवृक्ष:२ बहुदेव श्रे० उदयपाल वि० सं० १२६३ सोमा खेता वस्तुपाल पूना खोषा आसपाल चाह [धारमति ] जगसिंह चन्द्रावतीनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय ठ० चाचिग की धर्मपत्नी चाचिणी के पुत्र राघवदेवकी धर्मपत्नी साभीय की कुक्षी से उत्पन्न उदयपाल नामक पुत्र था, जिसकी स्त्री का नाम अहिवदेवी था । इसके पुत्र आसदेव की स्त्री सुहागदेवी तथा उसके भ्राता ठ० भोजदेव धर्मपत्नी सूमल तथा भ्राता महं० आणंद स्त्री महं० श्री लुका ने अपने और मातापिता, पूर्वजों के श्रेयार्थ श्री अर्बुदाचलस्थ श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथचैत्यालय में बत्तीसवीं देवकुलिका विनिर्मित *श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले ० २७६, २८० पृ० १८७ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय सखा र वि० सं० १२६३ चै० ० ८ शुक्रवार को उसमें आदिनाथजिनेश्वरबिंब को प्रतिष्ठित करवाया। वंश-वृक्षः3. चाचिग [चाचिणी] राघवदेव [साभीय] उदयपाल [अहिवदेवी] महं० आसदेव [सुहागदेवी] ० भोजदेव [समल] मह० आणंद [लुका] दंडनायक तेजपाल की अन्तिम यात्रा वि० सं० १२६७ सातवीं यात्रा-दंडनायक तेजपाल ने वि० सं० १२६७ वैशाख कृ. १४ गुरुवार को की और नवचौकिया में दो गवाक्षों में अपनी द्वितीय स्त्री सुहड़ादेवी के श्रेयार्थ जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई। दंडनायक तेजपाल ने इस प्रकार मुख्यतः आठ यात्रायें की हैं । एक यात्रा हस्तिशाला में अपने पूर्वज और . प्राताओं के स्मरणार्थ हस्ति-स्थापना के निमित्त की थी। यह यात्रा कब की इसका संवत् प्राप्त नहीं है । परन्तु इतना अवश्य लिखा जा सकता है कि हस्तिशाला का निर्माण संभवतः वि० सं० १२६३-४ तक पूर्ण हो चुका था। *००० ले० सं०भा०२ले० ३३२ पृ०१३५ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देउलवाडा: पावतीयसुषुमा एवं वृक्षराज्ञि के मध्य श्री पित्तल हरवसहि एवं श्री खरतरहरवसहि के साथ मेंअनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि का बाहिर देखाव । देखिये पृ० १८७ पर। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SYSTANEYAPA AUTATML) ना BASARAMAKARMALA I AYDATED 1432PERATOPATI maRSION अत्य Savtwo 5G peopeanutsunmaumawaatimuantuitector SAYERIOTorreADORDER DOREDDY Pa अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रङ्गमण्डप के सोलह देवपुत्तलियोंवाले अद्भुत घूमट का भीतरी दृश्य । देखिये पृ० १८९(१) पर। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्ड ] :: मंत्रो भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और अबु दाचलस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य का शिल्पसौंदर्य :: [ १८७ अनन्य शिल्पकलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री लूणसिंहवसति काख्य श्री नेमिनाथ - जिनालय मूलगंभारा, गूढ़मण्डप, नवचौकिया, भ्रमती और सिंहद्वार आदि का शिल्पकाम मदालस्थलवाड़ाग्राम में जहाँ ऊपर पांच जैन मंदिरों के होने के विषय में कहा गया है, विमलवसति अगर उनमें एक है तो लूणसिंहवसति एक है। दोनों के ऊपर एक ही लेखक लिखने बैठे तो निसन्देह है कि वह विमलवसति और उलझन में पड़ जायगा कि सौन्दर्य और शिल्प की उत्तम रचना की दृष्टियों से वह लूणसिंहवसति किसको प्रधानता दे । यह ही समस्या मेरे भी सामने है। दोनों में मूल अन्तर - विमल - वसति दो सौ वर्ष प्राचीन है और दूसरा प्रमुख अन्तर विमलवसति अगर जीवन लूणसिंहवसति कला का सौन्दर्य है। एक में प्रमुखता जीवन-चित्रों की है और दूसरे कला की । कला जीवन में माधुर्य और सरसता लाती है। जिस जीवन में कला नहीं, वह जीवन ही शुष्क है । और जो कला जीवन के लिये नहीं वह कला भी निरर्थक है । यह बात उपरोक्त दोनों वसतियों से दृष्टिगत होती है । विमलवसति में अनेक जीवन-संबंधी चित्र हैं और वे कलापूर्ण विनिर्मित हैं और लुणवसति में अनेक कलासंबंधी रचनायें हैं और वे सीधी जीवन से संबंधित हैं । का लेखा है तो । संक्षेप में विमलवसति जीवन - चित्र और लूणसिंहवसति कलामूर्त्ति है । अपने २ स्थान में दोनों अद्वितीय हैं । लूणसिंहवसति सर्वाङ्गसुन्दर मन्दिर है। मूलगंभारा, चौकी, गूढ़मण्डप और गूढ़मण्डप के दोनों पक्षों पर चौकियाँ, आगे नवचौकिया और उसमें दोनों ओर गूढ़मण्डप की भित्ति में आलय, फिर सभामण्डप, भ्रमती, देवकुलिकायें और उनके आगे स्तंभवतीशाला, सिंहद्वार और उसके आगे चौकी - इस प्रकार मंदिरों में जितने अंग होने चाहिये, वे सर्व अंग यहाँ विद्यमान हैं । मन्दिर के पीछे सुन्दर हस्तिशाला भी बनी हुई है । परिकोट और सिंहद्वार विमलवसति से ऊपर उत्तर की ओर लगती हुई एक टेकरी आ गई है। उस टेकरी के पूर्वी ढाल के नीचे श्री लूणसिंहवसति बनी हुई है । यह भी विशाल बावनजिनालय है । वस्तुपाल तेजपाल का इतिहास लिखते समय इसके निर्माण, प्रतिष्ठा आदि के विषय में पूर्णतया लिखा जा चुका है, परन्तु यह एक कलामन्दिर है, जिसकी समता रखने वाला अन्य कलामन्दिर जगत में नहीं है । अतः यह श्रावश्यक हो जाता है कि शिल्पकार शोभनदेव की टांकी और उसके मस्तिष्क का यह जादू जो आज भी अपने पूर्ण सौन्दर्य और मनोहार्य से विद्यमान हैं और जो अनन्य भव्यता, मनोमुग्धकारिता, अलौकिकता लिये हुये शिल्पकला की साक्षात् प्रतिमा है अनिवार्यतः कलादृष्टि से वर्णनीय है । सिंहवसति क्षेत्र की दृष्टि से विशाल है, परन्तु ऊंचाई मध्यम लिये हुए है। बाहर से इसका देखाव बिलकुल सादा है, यह मंत्री - भ्राताओं की सादगी और सरल जीवन का उदाहरण है। इसका सिंहद्वार पश्चिमाभिमुख है और उसके आगे चौकी है। सिंहद्वार की रचना भी सादी ही है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: [ द्वितीय । लूणसिंहवसति के परिकोष्ट में दक्षिण दिशा में भी एक द्वार है। आवागमन इसी द्वार से प्रमुखतः होता है । यह द्वार द्विमंजला है। इसके ऊपर चतुष्द्वारा है । विमलवसति से निकलकर उत्तर की ओर मुड़ते हैं और कुछ . चरण चल कर इसमें प्रविष्ट होते हैं। द्वार के दाही ओर एक चतुष्क पर एक लम्बा दक्षिण द्वार और कात्तिस्तम स्तंभ खडा हैं, जिसका शिर-भाग अपूर्ण है। शिर का भाग या तो खण्डित हो गया या खण्डित कर दिया गया है । इस स्तंभ को कीर्तिस्तंभ कहते हैं। __ ये दोनों आकार में विशाल हैं; परन्तु बनावट में एक दम सादे हैं । जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि वि० सं० १२८७ फाल्गुण कृ० ३ रविवार को नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसरि के करकमलों से कसौटी के प्रस्तर की __ चनी हुई श्यामवर्ण की श्री नेमिनाथ भगवान् की विशाल प्रतिमा को इसमें प्रतिष्ठित ७५ किया था । मलगंभारे के द्वार के बाहर चौकी है और उसमें दोनों तरफ दो श्रालय है। मूलगंभारे के ऊपर बना हुआ शिखर छोटा और बैठा हुआ है। गूढमण्डप के ऊपर का गुम्बज भी छोटा और बैठा हुआ ही है । गूढमण्डप आठ बड़े स्तम्भों से बना है । स्तंभ सादे हैं, परन्तु दीर्घकाय हैं । गूढ़मण्डप के उत्तर और दक्षिण में दो द्वार हैं और दोनों द्वारों के आगे एक-एक सुन्दर चौकी बनी है । प्रत्येक चौकी के चारों स्तम्भ और मण्डप की रचना अति सुन्दर और कलापूर्ण है। गूढमण्डप का मुखद्वार पश्चिमाभिमुख है । इसके आगे नवचौकिया की रचना है। लूणसिंहवसति के अत्यन्त कलापूर्ण अंगों में नवचौकिया का स्थान भी प्रमुख है। गूढ़मण्डप का द्वार, द्वारशाखायें, द्वार के बाहर दोनों ओर बने दोनों आलय, आलयों के ऊपर के भाग, छत और स्तंभ तथा नवचौकिया के मण्डप इत्यादि एक से एक बढ़ कर कला को धारण किये हुये हैं। नवचौकिया - जिनका वर्णन करना कलम की कमजोरी को प्रकट करना है। देख कर ही उनका आनंद लिया जा सकता है। फिर भी यथाशक्ति वर्णन देने का प्रयत्न किया है। गूढमण्डप के द्वार के द्वारशाखों और स्तंभों में ऊपर से नीचे तक आड़ी और सीधी गहरी धारायें खोदी गई हैं। प्रत्येक स्तंभ को खण्डों में एक २ गहरी आड़ी धार खोद कर फिर विभाजित किया गया है। स्तंभ के ऊपर के भाग में शिखर और नीचे समूर्ति इस समय निम्नवत् प्रतिमा विराजमान हैं। २-मूलगंभारे में:१-सपरिकर मू० ना० श्री नेमनाथ भगवान् की श्यामवर्ण प्रतिमा । २-सपरिकर पंचतीर्थी । ३, ४ परिकररहित दो मूर्तियां । गृढमण्डप में:१-भगवान् पार्श्वनाथ की कायोत्सर्गिक प्रतिमाये २। २-सपरिकर प्रतिमायें ३। ३-अन्य प्रतिमायें १६ । ४-चौवीशीपट्ट से अलग हुये जिनबिंब२। ५-धातु-पंचतीर्थी २। ६-सुन्दर मूर्तिपट्ट१ । इस पट्टके मध्य में राजीमति की सुन्दर खड़ी प्रतिमा है। नीचे दोनों तरफ दो सखियों की मूर्तियाँ बनी हैं। ऊपर भगवान् की मूर्ति है। यह वि० सं०१५१५ का प्रतिष्ठित हैं। ७-यक्षप्रतिमा। उपरोक्त प्रतिमायें और पट्ट भिन्न २ श्रावकों के द्वारा विनिर्मित हैं और भित्र २ संवतों में प्रतिष्ठित किये हुये है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LaunciationRGANI imirBTAT mount mamaA अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिहवसहि का अद्भुत कलामयी आलय । देखिये पृ० १८९ पर। अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के गूढमण्डप में संस्थापित श्रीमती राजिमती की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के नवचौकिया के एक मण्डप अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रंगमण्डप के के घूमट का अद्भुत शिल्पकौशलमयी दृश्य और उसके बृहद् वलय में बाहर भ्रमती में नैऋत्य कोण के मण्डप के घूमट में ६८ काचलाकृतियों की नौकों पर बनी हुई जिनचौवीशी का अद्भुत संयोजन। अड़सठ प्रकार का नृत्य-दृश्य । देखिये पृ० १९०(४) पर। देखिये पृ० १८९(२) पर। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्य श्री लूणसिंहवसतिकाख्य का शिल्पसौंदर्य :: [ १८४ आधार है। ये स्तंभ ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे एक ही चतुष्क अथवा समान आधार पर बहुमंजिली राजप्रासादमालायें अपना गगनचुम्बी उन्नत साधारण-मस्तक लिये सुदृढ़ खड़ी हों । दोनों ओर के गवाक्षों की भी सम्पूर्ण बनावट इसी शैली से की गई हैं। द्वारस्तंभों और गवाक्षों के मध्य में दोनों ओर जो अन्तर-भाग हैं, उनमें शिल्पकार की टांकी ने प्रस्तर के भीतर ही भीतर घुस २ कर जो अपनी नौक की कुशलता दिखाई है, वह उस स्थान और उन अंगों को देख कर ही समझी जा सकती है। गवाक्षों के शिखर भी सशिखरप्रासाद-शैली के बने हैं। प्रत्येक मंजिल को सुस्पष्ट करने में टांकी ने अपनी अद्भुत नौक की तीक्ष्णता को प्रयोग में लाने के लिये सिद्धहस्त शिल्पकार के हाथों में सौंपा है—ऐसा देखते ही तुरन्त कहा जा सकता है । दोनों गवाक्ष अपनी २ ओर की भित्ति को पूरे भर कर बने हैं। उनके शिखर छत पर्यन्त और उनके आधार नीचे तक पहुंचे हैं। देखने में प्रत्येक गवाक्ष एक छोटे मंदिर-सा लगता है । तेजपाल का कलाप्रेम इन्हीं गवाक्षों में अपना अंतिम रूप प्रकटा सका है ऐसा कहा जा सकता है । सूक्ष्मतम और अद्भुत शिल्पकाम के ये दोनों गवाक्ष उत्कृष्ट नमूने हैं। नवचौकिया के अन्य स्तंभों की रचना भी अधिकतर प्रासाद-शैली से ही प्रभावित है । नवचौकिया में कुल १२ बारह स्तंभ हैं, जिनमें उत्तर, दक्षिण दोनों ओर के किनारों के सुन्दर और बीच के अति सुन्दर हैं अर्थात् ६ सुन्दर और ६ अति सुन्दर हैं। प्रत्येक अतिसुन्दर-स्तंभ कला की साक्षात प्रतिमा ही हैं। १. इसके दक्षिण पक्ष (३) पर दूसरे और तीसरे स्तम्भ के बीच में एक जिनतृचौवीशीपट्ट है । उसके ऊपर के छज्जे पर लक्ष्मीदेवी की एक सुन्दर मूर्ति बनी है । जिनतचोवीशीपट्ट अर्थात् बहत्तर जिनमूर्तियाँ वाला पट्ट। इस पट्ट में विगत, आगत और अनागत तीनों कालों के चौवीश जिनेश्वरों के तीन वर्ग नवचौकिया में कलादृश्य ५ दिखाये गये हैं। पट्ट का सौन्दर्य आकर्षक एवं इतना प्रभावक है कि भक्तगणों का मस्तक तो उसके दर्शन पर स्वभावतः झुकता ही है, नास्तिक भी अपने को भूल कर हाथ जोड़ ही लेता है। २. दक्षिण-पक्ष (४) के दूसरे मण्डप में जो उपरोक्त जिनचौवीशीपट्ट के समक्ष है पुष्पपंक्ति का देखाव है और उसके ऊपर की वलयरेखा पर जिनचौवीशी खुदी है। ३. दक्षिण पक्ष के तृतीयमण्डप (५) के चारों कोणों में हस्तिसहित लक्ष्मीदेवी की मूर्तियाँ खुदी हैं और उनके मध्य २ में ६ जिनप्रतिमायें करके एक पूर्ण जिनचौवीशी खुदी है। नवचौकिया के मण्डपों में काचलाकृतियाँ इतनी कौशलपूर्ण बनी हैं कि वे कागज की बनी हो ऐसा भास होता है । काचलाकृतियों के नौकों और कहीं बीच-बीच में, कहीं २ वलय रेखाओं पर जिनमूर्तियाँ खुदी हैं- इनमें गर्भित अद्भुत शिल्पकौशल सचमुच शिल्पकार की सिद्ध टांकी का कृत्य है। १.रंगमण्डप बारह स्तम्भों पर बना है। इन बारह स्तंभों में उत्तर दिशा के तीन और दक्षिण दिशा का एक स्तम ये चारों स्तंभ सुन्दर और शेष पाठ स्तंभ अति सुन्दर हैं । स्तंभों की रचना अधिकतर नवचौकिया और गूढमण्डप के ___ द्वार के स्तम्भों-सी है। इन पर अति सुन्दर तोरणों की रचना है । पूर्वपक्ष पर मध्य में तोरण रङ्गमण्डप नहीं है । रंगमण्डप बारह वलयों से बना है । केन्द्र में झूमर है । इसमें काचलाकृतियों दोनों गवाक्षों की रचना के कारण के विषय में मिथ्या श्रति चल पड़ी है कि ये दोनों देवराणी और ज्येष्ठाणी के बनाये हुए हैं अथवा उनके श्रेयार्थ बनवाये गये हैं। परन्तु बात यह नहीं है। दंडनायक तेजपाल ने अपनी द्वितीया स्त्री सुहड़ादेवी की स्मृति में और उसके श्रेयार्थ ये दोनों पालय बनवाये हैं । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] :: प्राग्वाट-इतिहास : [ द्वितीय की सुन्दर रचना है। मण्डप इतना सुन्दर है कि देखने वाला देखते २ ही थक जाता है और ग्रीवा दुखने लग जाती है। यह बात तो केवल दर्शक की है ; शिल्पकलामर्मज्ञ और अन्वेषक-दर्शक अपने को भूल ही जाता है और अति तृप्त होकर जब जाग्रत होता है तो अनुभव करता है कि उसकी गर्दन में दर्द होने लग गया है । (६) मण्डप में सोलह देवियाँ भिन्न २ वाहनों और शस्त्रों से युक्त स्तम्भों के ऊपर बनी हुई हैं । इनकी रचना और बनावट अत्यन्त ही रमणीय है। उपरोक्त सोलह (विद्या) देवियों के नीचे की पंक्ति में तृजिनचौवीशी (७) बनी है। तथा नीचे की ओर एक वलयरेखा (८) पर साठ प्राचार्य महाराजों की मूर्तियाँ खुदी हैं । २. रंगमण्डप के पूर्व पक्ष के उत्तर (EA) और दक्षिण (63) दोनों कोणों में इन्द्रों की सुन्दर मूर्तियाँ बनी हैं तथा नीचे नवचौकिया में जाने के लिये बनी सीढ़ियों के दोनों पक्षों के रंगमण्डप की (२८-२६) तरफ के भागों के आलयों में एक २ इन्द्र की मूर्ति बनी है । ३. रंगमण्डप के दक्षिण-पक्ष के दो स्तम्भों में अलग २ (१०) जिनचौवीशी बनी हैं। ४. रंगमण्डप के बाहर भ्रमती में नैऋत्य कोण में बने मण्डप में ६८ अड़सठ प्रकार का नृत्य-दृश्य है, जो एक अध्ययन की वस्तु है। १. रंगमण्डप के पश्चिम भाग की भ्रमती में तीन लम्बे २ मण्डप हैं। जिनमें उत्तम शिल्पकाम किया हुआ है। आजू-बाजू के मण्डपों की पश्चिम दिशा की पंक्तियों के मध्य में (११) एक-एक अम्बाजी की सुन्दर मूर्ति भ्रमती और उसके दृश्य बनी है और नृत्य का देखाव भी है, जो अति सुन्दर है। २. रंगमण्डप के दक्षिण पक्ष में पश्चिम से पूर्व को जाने वाली भ्रमती के प्रथम मण्डप में अति सुन्दर शिल्पकाम है और (१२) श्रीकृष्ण के जन्म का दृश्य है। देवकी पलंग पर काराग्रह-महालय में सो रही है । इस महालय के तीन गढ़ और प्रत्येक गढ़ में एक-एक दिशा में एक-एक द्वार है, इस प्रकार इस महालय के बारह द्वार हैं और ये बारह ही द्वार बंध हैं। श्रीकृष्ण का जन्म हो चुका है । माता देवकी के पार्श्व में कृष्ण सो रहे हैं । एक स्त्री पंखा झल रही है। एक स्त्री पास में बैठी है। समस्त द्वारों के इधर-उधर तीनों गढ़ों में हाथियों, देवियों, सैनिकों और गायकों की आकृतियाँ सुन्दर ढंग से खुदी हुई हैं।। ३. इसके पास के मध्य के मण्डप में (१३) श्रीकृष्ण और उनकी गोकुल में की गई कुछ बाल-लीलायें, जैसे गौ-चारण आदि तथा उनके फिर राजा होने के दृश्य हैं । मण्डप के नीचे की पंक्तियों में दो ओर आमने-सामने श्रीकृष्ण और गोकुल का भाव है। उसमें पूर्व की मोर की पंक्ति के एक कोण में एक वृक्ष है। इस वृक्ष की एक डाली में झूला बंधा है और कृष्ण उसमें सो रहे हैं। वृक्ष के नीचे दो पुरुष बैठे हैं। इनके पार्श्व में एक गौपाल अपने दोनों कन्धों पर आड़ी लकड़ी अपने दोनों हाथों से पकड़ कर खड़ा है । पास में एक कक्ष की टांड पर घी, दूध अथवा दही भरने की पांच मटकियाँ रक्खी हैं । .. इस दृश्य के पार्श्व में एक अन्य गोपाल सुन्दर लकड़ी के सहारे खड़ा है । उसके पार्श्व में पशु चर रहे हैं । तत्पश्चाद दो स्त्रियों के छाछ बनाने का दृश्य है । उसके पास में यशोदा कृष्ण को अपने गोद में लिये बैठी है । तत्पश्चात् दो झाड़ों में एक झूला बंधा है और श्रीकृष्ण उसमें झूल रहे हैं तथा बाहर निकलने का प्रयत्न कर रहे हैं। उस झूले के पार्श्व में एक हस्ति पर श्रीकृष्ण द्वारा मुष्ठि-प्रहार करने का दृश्य है । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपनी दोनों भुजाओं Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANGA SHREE AnswMON DETANA अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के रङ्गमण्डप के सुन्दर स्तंभ, नवचौकिया, उत्कृष्ट शिल्प के उदाहरणस्वरूप जगविश्रत आलय और गूढमण्डप के द्वार का मनोहर दृश्य। देखिये पृ० १८९ पर। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि के सभामण्डप के घूमट की देवीपुत्तलियों के नीचे नृत्य करती हुई गंधर्वो की अत्यन्त भावपूर्ण प्रतिमायें। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की भ्रमती के दक्षिण पक्ष के प्रथम मण्डप की छत में श्री कृष्ण के जन्म का यथाकथा दृश्य । देखिये पृ० १९० (२) पर । 200 अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की भ्रमती के दक्षिण पक्ष के मध्यवर्त्ती मण्डप को छत में श्री कृष्ण द्वारा की गई। उनकी कुछ लीलाओं का दृश्य देखिये पृ० १९० (३) पर । Page #355 --------------------------------------------------------------------------  Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री-वंश और अबु दाचत्तस्थ श्री लूणसिह वसतिकारूप का शिल्पसौंदर्य :: [ १६१ में अलग २ वृक्षों को दबा कर खड़े हैं। इन सर्व दृश्यों के पश्चात् उनके राजारूप का दृश्य है । वे सिंहासन पर बैठे हैं, उनके ऊपर छत्र लटक रहा है, पार्श्व में अङ्गरक्षक और अन्य राजकर्मचारी खड़े हैं। तत्पश्चात् हस्तिशाला और अश्वशालायें बनी हैं । अन्त में राजप्रासाद है, जिसके भीतर और द्वारों में लोग खड़े हैं । ४. श्रीकृष्ण - गोकुल के दृश्य वाले मण्डप के और रंगमण्डप के बीच के खण्ड के मध्यवर्त्ती मण्डप के नीचे पूर्व और पश्चिम की (१४) पंक्तियों के मध्य में एक २ जिनमूर्त्ति खुदी है । ५. गूढ़मण्डप की दोनों ओर की चौकियों के आगे (१५) के स्तंभों में आठ-आठ भगवान् की मूर्तियाँ खुदी हैं । ६. पश्चिमाभिमुख सिंहद्वार के भीतर तृतीय मण्डप के भ्रमती की ओर के (१६) आगे के दोनों स्तंभों में आठ २ भगवान् की छोटी-छोटी और सुन्दर मूर्त्तियाँ खुदी हैं । ये दोनों स्तंभ दीर्घकाय तथा सीधी धारी वाले और सिंहद्वार के भीतर तृतीय सुन्दर शिल्पकाम से मंडित हैं । इसी (१७) मण्डप के ठेट नीचे की पंक्ति में उत्तर और मण्डप का दृश्य दक्षिण में अम्बिकादेवी की अति सुन्दर और मनोहर मूर्त्तियाँ खुदी हैं । देवकुलिकायें और उनके मण्डपों में, द्वारचतुष्कों में, स्तम्भों में खुदे हुये कलात्मक चित्रों का परिचय ( सिंहद्वार के उत्तरपक्ष से दक्षिणपक्ष को ) लूणसिंहवसति का सिंहद्वार पश्चिमाभिमुख है, अतः देवकुलिकाओं तथा उनके द्वारस्तम्भों, मण्डपों, भित्तियों का शिल्पकला की दृष्टि से वर्णन लिखना पश्चिमाभिमुख सिंहद्वार के उत्तरपक्ष पर बनी देवकुलिकाओं से प्रारंभ किया जाना ही अधिक संगत है । १. प्रथम देवकुलिका के प्रथम मण्डप में (१८) अंबिकादेवी की सुन्दर और बड़ी मूर्ति खुदी है। देवी- मूर्ति दो झाड़ों के बीच में है और झाड़ों के इधर उधर एक श्रावक और श्राविका हाथ जोड़ कर खड़े हैं २. देवकुलिका सं० ६ के द्वितीय मण्डप में (१६) द्वारिकानगरी, गिरनारतीर्थ और भगवान् नेमनाथप्रतिमा के सहित समवशरण की रचना है । मण्डप के एक ओर कोण में समुद्र दिखाया गया है। इस समुद्र में से खाड़ी निकाल कर उसमें जलचर क्रीड़ा करते दिखाये हैं | खाड़ी में जहाज हैं। खाड़ी के तट पर आये हुये जंगल का दृश्य भी अंकित है । इस जंगल में एक मंदिर दिखाया गया है। मंदिर में प्रतिमा विराजमान है । यह दृश्य द्वारिकानगरी का है । मण्डप के दूसरे कोण में गिरनारतीर्थ का दृश्य अंकित है । कुछ मंदिर भगवान् की कायोत्सर्गिक प्रतिमा है। मंदिर के चारों ओर वृक्ष आ गये हैं। चामरादि पूजा और अर्चन की सामग्री लेकर मंदिर की ओर जा रहे हैं। आगे २ छः साधु चल रहे हैं। उनके बनाये गये हैं। मंदिर के बाहर श्रावकगण कलश, फूलमाला, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ द्वितीय हाथों में घा और मुहपत्तिकायें हैं। एक साधु के हाथ में तरपणी है और एक अन्य साधु के हाथ में दण्ड है । अन्य पंक्तियों में हाथी, घोड़े, पालकी, नांटक के पात्र, वाद्यन्त्र, पैदल- सैन्य तथा पुरुषाकृतियाँ खुदी हैं । इस प्रकार राजवैभव के साथ श्री कृष्ण आदि समवशरण की ओर जा रहे मण्डप के मध्य में तृगढ़ीय समवशरण की रचना है । समवशरण के मध्य में सशिखर मंदिर है, जिसमें प्रतिमा विराजमान है । समवशरण के पूर्व में ऊपर की ओर साधुओं की बारह बड़ी और दो छोटी खड़ी मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक साधु के एक हाथ में दण्ड, दूसरे में मुहपत्ति और बगल में ओवा दवा है । प्रत्येक श्रापिण्डली चद्दर पहिने हैं । दाहिना हाथ खुला है । तीन साधुओं के हाथों में छोटी २ तरपणियाँ हैं । दूसरी ओर इसके पश्चिम में ऊपर को श्रावकगण और उनके नीचे श्राविकायें हाथ जोड़ कर बैठी हैं। ३. देवकुलिका सं० ११ के मण्डपों में एक एक (२०, २१) हंसवाहिनी सरस्वतीदेवी की सुन्दर और मनोहर मूर्ति खुदी है। दृश्य है । मण्डप द्वितीय खण्ड में ४. देवकुलिका सं० १९ के द्वितीय मण्डप (२२) में श्री नेमिनाथ के बरातिथिसमारोह का सात खण्डों में विभाजित है । प्रथम खड हाथी, घोड़े और नाटक हो रहे हैं का दृश्य है । श्री कृष्ण और जरासंध में युद्ध हो रहा है। तृतीय खण्ड में नेमनाथ की बरातिथि का दृश्य है । चतुर्थ खण्ड में मथुरा और मथुरा में राजा उग्रसेन के राजप्रासाद का देखाव है । राजप्रासाद के ऊपर दो सखियों के सहित राजीमती खड़ी २ नेमनाथ के बरातिथिसमारोह को देख रही है । प्रासाद में अन्य पुरुषों का और द्वार में द्वारपाल के खड़े होने का दृश्य है । राजप्रासाद के द्वार के पास ही अश्वशाला है, जिसमें अश्वसेवक दो घोड़ों को मुंह में हाथ डाल कर कुछ खिला रहे हैं। दो घोड़े चारा चर रहे हैं । अश्वशाला के पश्चात् हस्तिशाला का दृश्य है । तत्पश्चात् विवाहलग्नार्थं बनी चौस्तंभी (चौरी) बनी है । इसके आस-पास में स्त्री, पुरुष खड़े हैं। चौस्तंभी के पीछे पशुशाला बनी । पशुशाला के पास में पहुंचे हुए भगवान् नेमनाथ के रथ का देखाव है । पाँचवें खण्ड का दृश्य घटनाक्रम की दृष्टि से सातवें खण्ड में आना चाहिए था । मण्डप के बनाने वाले ने इस पट्टी को भूल से इस स्थान पर लगा दिया प्रतीत होता है । इस पट्टी के दृश्य का वर्णन आगे यथास्थान पर देना उचित है । छड्डे खण्ड में द्वारिकानगरी का पुनः दृश्य है । अश्वशाला और हस्तिशाला का देखाव है । तत्पश्चात् भगवान् वर्षीदान दे रहे हैं, उनके पार्श्व में द्रव्य-राशि का ढ़ेर पड़ा है । पश्चात् उनके महाभिप्रयाण करने का दृश्य है । सातवें खण्ड में भगवान् के दीक्षा कल्याणक का दृश्य है। जिसमें भगवान् अपने केशों का पंचमुष्टिलोच कर रहे हैं और हाथी, घोड़े और पैदल सैन्य खड़े हैं । पांचवें खण्ड में भगवान् कायोत्सर्ग-अवस्था में ध्यान कर रहे हैं और उनको वंदन करने के लिये चतुरंगी समारोह जा रहा है । ५. देवकुलिका सं० १४ (२३) का द्वितीय मण्डप आठ दृश्यों में विभाजित है । सब से नीचे की प्रथम पट्टी में हस्तिशाला, अश्वशाला का ही दृश्य है और तदनन्तर राजप्रासाद बना हैं। राजप्रासाद के बाहर सिंहासन पर राजा विराजमान है । एक पुरुष राजा के ऊपर छत्र किये हुए हैं । एक मनुष्य राजा पर पंखा झल रहा है । इस दृश्य के पश्चात् दूसरी पट्टीपर्यंत सैनिक, हाथी और घोड़ों आदि के दृश्य हैं। तीसरी पट्टी के मध्य में Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की देवकुलिका सं० ९ के द्वितीय मण्डप (१९) में द्वारिकानगरी, गिरनारतीर्थ और समवशरण की रचनाओं का अद्भुत देखाव । देखिये पृ० १९१-९२(२) पर । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S MhLACHKHEL अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि की देवकुलिका सं० ११ के द्वितीय मण्डप में श्री नेमनाथ को वरातिथि का मनोहारी दृश्य। देखिये पृ० १९२(४) पर। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचनस्थ श्री लूणसिंहवसतिकाख्य का शिल्पसौंदर्य :: [ १६३ अभिषेकयुक्त लक्षमीदेवी की मूर्ति है । मूर्ति के दाही तरफ तिपाई पर कुछ रक्खा है । इसके पास में सप्तमुखी (सप्ताश्व) घोड़ा है और उस पर सूर्य की प्रतिमा है । घोड़े के पार्श्व में फूलमाला है। तदनन्तर एक वृक्ष है । वृक्ष के दोनों ओर दो आसन बिछे हैं। तत्पश्चात् नाटक हो रहा है । पात्र ढोलकियाँ बजा रहे हैं। लक्ष्मी की मूर्ति के बाही ओर हाथी है । हाथी के ऊपर चन्द्र का देखाव है तथा हाथी के पार्श्व में महालय अथवा कोई विमान का दृश्य है । तत्पश्चात् नाटक का दृश्य है। पात्र ढोलकियां बजा रहें हैं । चौथी, पांचवीं, छट्ठी, सातवीं और आठवीं पट्टियों में चतुरंगिणी सैन्य का दृश्य है। ६. देवकुलिका सं० १६ (२४) के द्वितीय मण्डप में सचित्र सात पट्टियाँ हैं। नीचे की प्रथम पट्टी के बाहे कोण में हाथी, घोड़े हैं । तदनन्तर तृतीय पंक्तिपर्यंत स्त्री-पुरुष के जोड़े नृत्य कर रहे हैं । चौथी पट्टी के मध्य में भगवान् पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग अवस्था में खड़े हैं । उनके ऊपर सर्प छत्र किये हुये हैं । दोनों ओर श्रावकगण कलश, धूपदान, फूलमाला आदि पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं । शेष पट्टियों में किसी राजा अथवा बड़े राजकर्मचारी का अपनी चतुरंगिणी सैन्य के साथ में भगवान के दर्शन करने के लिये आने का दृश्य है। ७. देवकुलिका सं० ३३ (२६) के दूसरे मण्डप में अलग २ चार देवियों की सुन्दर मूर्तियाँ खुदी हैं। ८. देवकुलिका सं० ३५ (२७) के मण्डप में एक देव की सुन्दर मूर्ति बनी है। संक्षेप में इस वसति का वर्णन इस प्रकार है: १. एक सशिखर मूलगंभारा और उसके द्वार के बाहर चौकी । २. गुम्बजदार सुदृढ़ गूढमण्डप, जिसके उत्तर और दक्षिण दिशाओं में एक २ चौकी । ३. नवचौकिया और उसमें अति सुन्दर दो गवाक्ष । ४. नवचौकिया से चार सीढ़ी उतर कर सभामण्डप, जिसमें बारह अति सुन्दर स्तंभ, ग्यारह तोरण और सोलह देवियों की मतियों से अलंकृत बारह वलययक्त विशाल मण्डप । ५. इस वसति में अड़तालीस देवकुलिकायें हैं । जिनमें भ्रमती में बने दोनों तरफ के दो गर्भगृह और अंबाजी ___ की कुलिका भी सम्मिलित है। एक खाली कोटड़ी है। देवकुलिकाओं के द्वार शिल्प की दृष्टि से __ साधारण कलाकामयुक्त हैं। ६. ११४ मण्डप हैं: ३ गूढमण्डप १ और उसके उत्तर तथा दक्षिण द्वारों की दो चौकियों के । ६ नवचौकिया के १६ सभामण्डप १ और उससे जुड़े हुये उत्तर में ६, दक्षिण में ६, पश्चिम में ३ भ्रमती में । ८६ देवकुलिकाओं के, तथा दक्षिण द्वार के ऊपर के चौद्वारा के ७ ४६ गुम्बज (छत पर बने) हैं। ३ गूढमण्डप १ और उसकी उत्तर तथा दक्षिण द्वारों की दोनों चौकियों के २ । देवकुलिका सं०१६ (२५) के भीतर पूर्व की ओर दिवार में अश्वावबोध और समलीविहार-तीर्थ के सुन्दर दृश्य का एक पट्ट लगा हुआ है । यह पट्ट वि० सं० १३३८ में पारासणाकरवासी पाग्वाटज्ञातीय आशपाल ने बनवाया था। इसका विस्तृत वर्णन श्री मुनिजयन्तविजयजीविरचित 'आब' में देखें। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: ७ नवचौकिया के ११ सभामण्डप १ और उसकी भ्रमती के ऊपर १० । १० पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख देवकुलिकाओं के मण्डपों के ऊपर कोणों में २ और शेष ८ । ६ दक्षिणाभिमुख उत्तर दिशा में बनी कुलिकाओं के मण्डपों के ऊपर । ६ उत्तराभिमुख दक्षिण दिशा में "" "" ८. २३२ स्तम्भ हैं। २४ गूढ़मण्डप में और उसकी दोनों ओर की दो चौकियों में १२ और नवचौकिया में १२ । २६ सभामण्डप में १२ और सभामण्डप के तीनों ओर भ्रमती में १४ । ८६ देवकुलिकाओं के मण्डपों के ७८ और दक्षिण द्वारके चौद्वारा के ८ | ५८ देवकुलिकाओं की मुखभित्ति में ५२ और सिंहद्वार में ६ | १० वसति की पूर्व दिशा की भित्ति में, जिसमें हस्तिशाला का प्रवेशद्वार है १० । [ द्वितीय २८ हस्तिशाला के भीतर और उसकी पृष्ठभित्ति में । ६. ६४ वसति और हस्तिशाला दोनों के कुलिकाओं और खत्तकों के ऊपर की छत पर शिखर हैं । इस प्रकार इस विशाल वसति में ११४ मण्डप, ४६ गोल गुम्बज, २३२ स्तम्भ और ६४ छोटे-मोटे शिखर हैं । (२) मन्दिर - श्री स्तंभनकपुरावतार श्री पार्श्वनाथदेव । (३) मन्दिर - श्री सत्यपुरावतार श्री महावीरदेव । उज्जयंतगिरितीर्थस्थ श्री वस्तुपाल- तेजपाल की हूँ क महामात्य वस्तुपाल ने वि० सं० १२७७ में जब शत्रुंजयतीर्थ की संघपति रूप से प्रथम वार यात्रा की थी, गिरनारतीर्थ की भी की थी और उस समय उसने जो कार्य किये अथवा करवाने के संकल्प किये, उनका वर्णन पूर्व दिया जा चुका है । आशय यह है कि गिरनारतीर्थ पर मंत्रि भ्राताओं ने निर्माणकार्य वि० सं० १२७७ से ही प्रारम्भ कर दिया था। छोटे-मोटे अनेक निर्माण कार्यों के अतिरिक्त उनके बनाये हुए तीन जिनालय अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । ये तीनों जिनालय एक ही साथ एक पंक्ति में आये हुए हैं। मध्य के मन्दिर की पूर्व और पश्चिम की दिवारों में एक २ द्वार है, जो पक्ष के मंदिरों में खुलते हैं । इन तीनों मन्दिरों को वस्तुपाल - तेजपाल की हूँक कही जाती है । गिरनारतीर्थपति भगवान् नेमिनाथ की दूँक के सिंहद्वार, जो अभी बन्ध है के अग्रभाग में अर्थात् नरसी - केशवजी के आरामगृह को एक ओर छोड़कर संप्रति राजा की टँक की ओर जानेवाले मार्ग के दाहिनी ओर यह वस्तुपाल - तेजपाल की ट्रॅक आयी हुई है। इस दूँक में: (१) मन्दिर - श्री शत्रुञ्जय महातीर्थावतार श्रादितीर्थंकर श्री ऋषभदेव । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गिरनारपर्वतस्थ श्री वस्तुपालट्रक । देखिये पृ० १९४ पर । श्री साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद के सौजन्य से । Page #363 --------------------------------------------------------------------------  Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री-वंश और उज्जयंतगिरितीर्थस्थ श्री वस्तुपाल - तेजपाल दूँक :: [ १६५ १. श्री ऋषभदेव - मन्दिर – यह चौमुखा मन्दिर मध्य में बना हुआ है । इसको वस्तुपाल- विहार भी कहते हैं । महामात्य ने इसको स्वर्णकलश से सुशोभित कर इसमें भ० श्रादिनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी तथा आदिनाथप्रतिमा के दोनों ओर भ० अजितनाथ तथा भ० वासुपूज्य के बिंब स्थापित करवाये थे । अतिरिक्त इनके शेष कार्य निम्न प्रकार करवाये थे: (१) मण्डप में : १. अपने मूलपूर्वज चंडप की एक विशाल मूर्ति । २. कुलदेवी अम्बिकादेवी की एक प्रतिमा । ३. महावीर भगवान् की एक प्रतिमा । ४. मण्डप के गवाक्षों में दाहिनी ओर के गवाक्ष में अपनी और द्वि० स्त्री ललितादेवी की दो मूर्त्तियाँ । ५. बायी और के गवाक्ष में अपनी और प्र० स्त्री सोखुकादेवी की दो मूर्त्तियाँ । (२) गर्भगृह के द्वार के :– १. दक्षिण में अपनी एक अश्वारूढमूर्त्ति । २. उत्तर में अपने लघुभ्राता तेजपाल की अश्वारूढ़ मूर्त्ति । यह मन्दिर अष्टापदमहातीर्थावतारप्रासाद के नाम से भी प्रसिद्ध है । २. श्री पार्श्वनाथदेव - मंदिर - यह चौमुखा मंदिर 'वस्तुपालविहार' के बाये हाथ की पक्ष पर उससे मिला हुआ ही बनाया गया है । इसको स्तंभनकपुरावतारप्रासाद कहा गया है। इस मंदिर के पश्चिम, पूर्व और दक्षिण में अलग-अलग करके तीन द्वार है । इसमें भ० पार्श्वनाथ आदि वीश तीर्थङ्करों की मूर्त्तियाँ स्थापित की थीं । ३. श्री महावीरदेव - मन्दिर – इस चौमुखा मन्दिर को सत्यपुरावतारप्रासाद कहा गया है। यह मंदिर वस्तुपालविहार के दाहिनी और बनवाया गया है। इस मन्दिर में भी चौवीस ही जिनेश्वरों के बिंबों की स्थापना करवाई गई थीं। इसी मंदिर में माता कुमारदेवी की तथा अपनी सात भगिनियों की मूर्तियाँ स्थापित की थीं । तीनों मन्दिरों का निर्माण वस्तुपाल ने अपने लिये और अपनी दोनों स्त्रियाँ प्र० ललितादेवी और द्वि० सोखुकादेवी के श्रेयार्थ करवा कर बाजू के दोनों मन्दिरों के प्रत्येक द्वार पर निम्नश्रेयाशय के वि० सं० १२८८ फा० शु० १० बुद्धवार को शिलालेख आरोपित करवाये थे । (१) पार्श्वनाथमन्दिर के पश्चिम द्वार पर - अपने और प्र० स्त्री ललितादेवी के श्रेयार्थ पूर्व द्वार पर - अपने और प्र० स्त्री ललितादेवी के श्रेयार्थ दक्षिण द्वार पर अपने और प्र० स्त्री ललितादेवी के श्रेयार्थ " (२) महावीर मन्दिर के पश्चिम द्वार पर - अपने और द्वि० स्त्री सोखुकादेवी के श्रेयार्थ पूर्व द्वार पर अपने और द्वि० स्त्री सोखुकादेवी के श्रेयार्थ " उत्तर द्वार पर — अपने और द्वि० स्त्री सोखुकादेवी के श्रेयार्थ इन तीनों मन्दिरों पर तीन स्वर्णतोरण चढ़ाये थे और मध्य के मन्दिर वस्तुपालविहार के पृष्ठ भाग में कपर्दियक्ष का चौथा मन्दिर बनवाकर उसमें कपर्दियक्ष और श्रादिनाथप्रतिमायें वि० सं० १२८६ श्राश्विन शु० १५ सोमवार को प्रतिष्ठित की थीं तथा एक मरूदेवीमाता की गजारूढ़ मूर्त्ति भी विराजमान करवाई थीं । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय इस प्रकार वस्तुपाल ने स्थापत्यकला के उत्तम प्रकार के वे चार मन्दिर वनवाये थे । अतिरिक्त इन चारों मन्दिरों के निम्न कार्य और करवाये थे। १. तीर्थपति नेमिनाथ भगवान् के विशाल मन्दिर के पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के द्वारों पर तीन मनोहर तोरण करवाये थे तथा इसी मन्दिर के मण्डप में निम्न रचनायें करवाई थीं:(१) मण्डप के दक्षिण भाग में पिता अश्वराज की अश्वारूढ़ मूर्ति । (२) मण्डप के उत्तर भाग में पितामह सोम की अश्वारूढ़ मूर्ति । (३) माता-पिता के श्रेयार्थ भ० अजितनाथ और शान्तिनाथ की कायोत्सर्गस्थ प्रतिमायें । - (४) मण्डप के आगे विशाल इन्द्रमण्डप ।। (५) मन्दिर के अग्रभाग में पूर्वज, अग्रज, अनुज और पुत्रादि की मूर्तियों से युक्त भ० नेमिनाथ की प्रतिमा वाला सुखोद्घाटनक नामक एक अति सुन्दर और उन्नत स्तम्भ । (६) प्रपामठ के समीप में शत्रुजयावतार, स्तम्भनकावतार और सत्यपुरावतार तथा प्रशस्तिसहित काश्मीरा वतार सरस्वतीदेवी की देवकुलिकायें करवाई थीं। (७) मन्दिर के मुख्य द्वार पर स्वर्णकलश चढ़ाये थे। २. (१) अम्बिकादेवी के मन्दिर के आगे विशाल मण्डप बनवाया था। (२) अम्बिकादेवी की मूर्ति के चारों ओर श्वेत संगमरमर का सुन्दर परिकर बनवाया था । ३. अम्बशिखर पर चण्डप के श्रेयार्थ एक देवकुलिका बनवा कर, उसमें भ० नेमिनाथ की एक प्रतिमा, एक चण्डप ___ की प्रतिमा और एक अपने ज्येष्ठ भ्राता मल्लदेव की इस प्रकार तीन प्रतिमायें स्थापित की थीं। ४. अवलोकनशिखर पर चण्डप्रसाद के श्रेयार्थ एक देवकुलिका बनवाकर, उसमें चण्डप्रसाद की, भ० नेमिनाथ की, और अपनी एक-एक मूर्ति इस प्रकार तीन प्रतिमायें स्थापित करवाई थीं। ५. प्रद्युम्नशिखर पर सोम के श्रेयार्थ एक देवकुलिका बनवाकर उसमें सोम की, भ० नेमिनाथ की और लघुभ्राता तेजपाल की एक-एक मूर्ति इस प्रकार तीन मूर्तियाँ स्थापित की थीं। ६. शांबशिखर पर पिता आशराज के श्रेयार्थ एक देवकुलिका बनवाकर, उसमें आशराज, माता कुमारदेवी तथा भ० नेमिनाथ की एक-एक मूर्ति इस प्रकार तीन मूर्तियाँ विराजमान की थीं। __इन तीनों मन्दिरों तथा काश्मीरावतार श्री सरस्वती-देवकुलिका और चारों शिखरों पर बनी हुई देवकुलिकाओं की प्रतिष्ठा वि० सं० १२८८ फा० शु० १० बुद्धवार को मन्त्रि भ्राताओं के कुलगुरु श्रीमद् विजयसेनसूरि के हाथों हुई थी। मन्त्री भ्राता इस प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर विशाल संघ के साथ धवलकपुर से चल कर शत्रुजयमहातीर्थ की यात्रा करते हुये गिरनारतीर्थ पर पहुँचे थे । संघ में मलधारीगच्छीन नरचन्द्रसरि और अन्य गच्छों के भाचार्यगण भी अपने-अपने शिष्यमण्डली के साथ सम्मिलित थे । महाकवि राजगुरु सोमेश्वर भी सम्मिलित थे । प्रा० जे ० सं० ले०२८ से ४३ पृ०४८ से ६८ (गरनार -प्रशस्ति) Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गिरनारपर्वतस्य श्री शत्रुञ्जय महातीर्थावनार श्री सत्यपुरावतार श्रीमहावीर चैत्य DRAWN BY Author द्वार सिंहद्वार! 40 मूलगं भाषा गूढ़ मंडप सभा मंडप सिंहद्वार उत्तर श्री वस्तुपालक श्रीसादितीर्थकर श्रीसादि नाथ चैत्म श्रीस्तंभनपुरावतार श्रीपार्श्वनाथ चैत्य पच्छिम सांकेतिक चिह्न ● संभ - द्वास्थास्वः - दिवार Page #367 --------------------------------------------------------------------------  Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और उज्जयंतगिरितीर्थस्थ श्री वस्तुपाल - तेजपाल - टूक :: [ १६७ तीनों मंदिरों के मंदिरों के समस्त बाहरी तीनों मन्दिरों की निर्माण शैली और उन में कलाकाम भीतर उतना कलाकाम नहीं है, जितना उनके बाहरी भाग पर है। शिखर, गुम्बज और भागों पर अनेक देवियों, इन्द्रों, पशुओं जैसे सिंहों, हस्तियों आदि के आकार तथा भित्तियों पर चारों ओर नृत्य-दृश्य के अनेक प्रकार बनाये गये हैं । ये सर्व लगभग आठ सौ वर्ष पर्यन्त से भी अधिक वर्षा, श्रातप, भूकम्प और ऐसे ही प्रकृति के अन्य छोटे-बड़े प्रकोप सहन कर भी अपने उसी रूप में आज भी नवीन से प्रतीत होते हैं । चौमुखा आदिनाथमुख्यमंदिर के बाहें पक्ष पर जुड़ा हुआ चौमुखा श्री स्तंभनकपुरावतार नामक श्री पार्श्वनाथदेव का मंदिर बना है । उसमें अवश्य उत्तम प्रकार का शिल्पकाम देखने को मिलता है । इन तीनों मंदिरों के निर्माण में जो शिल्पकौशल देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दिखाई नहीं देता । किसी ऊंची टेकरी पर से देखने पर इन तीनों मंदिरों का देखाव एक उडते हुए कपोत के आकार का है। चौमुखा श्री महावीरचैत्यालय और चौमुखा पार्श्वनाथचैत्यालय मानों आदिनाथचैत्यालय रूपी कपोत के खुले हुये पंख हैं । आदिनाथचैत्यालय अपने पक्ष पर बने दोनों मंदिरों से आगे की ओर चौंच-सा कुछ और पीछे की ओर पूछ-सा अधिक लंबा निकला हुआ है । कपोत की चौड़ी पीठ की भांति आदिनाथचैत्यालय का गुम्बज और शिखर भी चौड़े और चपटे हैं। तीनों मंदिरों की स्तंभमाला भी समानान्तर और एक-से स्तंभों की है। स्तंभों की और मण्डपों की संख्या न्यूनाधिक है । आदिनाथचैत्यालय में ६४, पार्श्वनाथचैत्यालय में ४२ और महावीरचैत्यालय में ३८ स्तंभ हैं । आदिनाथचैत्यालय में दो बड़े विशाल मण्डप और इन दोनों विशाल मण्डपों के मध्य में एक मध्यम आकार का मण्डप तथा इसके पूर्व और पश्चिम में कुलिकाओं के आगे बने हुये दो छोटे २ मण्डप और आगे के बड़े मण्डप के पूर्व, पश्चिम में अन्तरद्वारों के आगे एक २ छोटा मण्डप - इस प्रकार दो बड़े मण्डप, एक मध्यम और चार छोटे मण्डप हैं। शेष दोनों मंदिरों में द्विमंजिले स्तंभों पर एक एक अति विशाल मण्डप बना है । श्री महावीरचैत्यालय के बाहर के तीनों द्वारों, श्री आदिनाथचैत्यालय के दोनों द्वारों और श्री पार्श्वनाथचैत्यालय के तीनों द्वारों के आगे एक एक चौकी इस प्रकार इन तीनों मंदिरों के आठ द्वारों के आगे आठ चौकियाँ बनी हैं। महं० जिसघर द्वारा ३०० द्रामों का दान वि० सं० १३३६ ज्येष्ठ शु० ८ बुधवार को श्रमवाण (सर्वाण) वासी प्रा० ज्ञा० महं० जिसधर के पुत्र महं० पुनसिंह ने भार्या गुरु श्री के श्रेयार्थ श्री उज्जयंतमहातीर्थ की पूजार्थ नित्य ३०५० पुष्प चढ़ाने के निमित्त ३००) द्राम अर्पित किये थे । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८1 :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसतिकाख्य चैत्यालय तथा हस्तिशाला में अन्य प्राग्वाट-बन्धुओं के पुण्य-कार्य साहिलसंतानीय परिवार और पल्लीवास्तव्य श्रे० अम्बदेव वि० सं० ११८७ श्री अर्बुदाचलस्थ विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथजिनालय की बत्तीसवीं देवकुलिका में रुद्रसिणवाड़ास्थानीय प्राग्वाटज्ञातीय साहिलसंतानीय श्रे० पासल, संतणाग, देवचन्द्र, आसधर, आंबा, अम्बकुमार, श्रीकुमार, लोयण आदि श्रावक तथा शांति, रामति, गुखश्री और पडूही नामा उनकी बहिन-बेटियाँ और पल्लड़ीवास्तव्य श्रे० अम्बदेव आदि समस्त श्रावक और श्राविकाओं ने अपने मोक्षार्थ बृहद्गच्छीय श्री संविज्ञविहारि श्री वर्द्धमानसूरि के चरणकमलों के सेवक श्री चक्रेश्वरसूरि के द्वारा वि० सं० ११८७ फाल्गुण कृ० ४ सोमवार को श्री ऋषभदेवप्रतिमा को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित करवाया ।१ पत्तननिवासी श्रे० आशुक अणहिलपुरपत्तन के जैन-समाज में अग्रणी कुलों में प्रतिष्ठित प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठिवर्ग में मोतीमणिसमान ऐसा श्रे० लक्ष्मण विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हो गया है। श्रे० लक्ष्मण के श्रीपाल और शोभित नामक दो अति प्रसिद्ध एवं गौरवशाली पुत्र हुये । श्रीपाल गूर्जरसम्राट् प्रसिद्ध सिद्धराज जयसिंह का राजकवि था और राज-विद्वत्-परिषद् का वह अध्यक्ष था । इसका वर्णन पूर्व दिया जा चुका है। महाकवि श्रीपाल से छोटा श्रे० शोभित था। शोभित की स्त्री का नाम शांतिदेवी और पुत्र का नाम आशुक था । श्रे० शोभित के पुत्र आशुक ने विमलवसतिका की हस्तिशाला के समीप के सभामण्डप के एक स्तंभ के पीछे एक छोटे प्रस्तर-स्तंभ में पिता शोभित की प्रतिमा, माता शांतादेवी की प्रतिमा और अपनी प्रतिमा साथ साथ में उत्खनित करवाई और उसी प्रस्तर-स्तंभ के पृष्ठ-भाग में अपनी एक अश्वारूढ़ मनोहर प्रतिमा कोतराई। शिल्प-कला की दृष्टि से शोभित और उसके परिवार की इस छोटे-से स्तंम में कोतरी हुई प्रतिमायें अति ही मनोहर एवं आनन्ददायिनी हैं ।२ १-१० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०११४ २-१० प्रा० जै• ले० सं०भा० २ ले०२३७ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: अर्बुदगिरिस्थ श्री विमलवसति में अन्य प्राग्वाट बंधुओं के पुण्यकार्य - महं० वालम और धवल :: विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय सदेव हो गया है । आसदेव की स्त्री का नाम देवकी था । देवकी की कृती से महं॰ बहुदेव, धनदेव, सूमदेव, जसहू और रामा नामा पाँच पुत्र उत्पन्न हुए । धनदेव के श्रा॰ वोल्हा और मीलाई (शिलाई ) नामा पत्नियाँ थीं । इन से धनदेव को वाल और धवल नामक दो पुत्ररत्न और शांतिमती नामा पुत्री की प्राप्ति हुई । महं० बहुदेव महं० वालण और धवल वि० सं० १२०२ श्रे० ० वालण और धवल ने श्रीमद् ककुदाचार्य के करकमलों से अपने पिता धनदेव के श्रेयार्थ मू० ना० प्रथम देवकुलिका में श्री धर्मनाथबिंव और बहिन शांतिमती के श्रेयार्थ तीसरी देवकुलिका में मू० ना० श्री शांतिनाथ - बिंब की बड़े समारोह के साथ वि० सं० १२०२ आषाढ़ शु० ६ सोमवार को प्रतिष्ठा करवाई । १-२ इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर अन्य ज्ञातीय अनेक श्रावककुल भी उपस्थित हुए थे । उनमें से सूत्र • सोढ़ा की धर्मपत्नी साईदेवी के पुत्र सूत्र० केला, बोल्हा, सहव, लोयपा, बागदेव आदि ने कुंथुनाथप्रतिमा और ठ० अमरसेन के पुत्र महं० जाजू ने अपने पिता के श्रेयार्थ श्री अरनाथप्रतिमा और ठ० जसराज ने अपने पिता ठ० धवल के कल्याणार्थ श्री ऋषभनाथबिंब की श्री ककुदाचार्य के कर कमलों से ही प्रतिष्ठा करवा कर श्री विमलवसतिकातीर्थ में उनको स्थापित करवाया । ३ वालय धवल वंश-वृक्ष:श्रासदेव [देवकी] धनदेव [१ वोल्हा, २ मीलाई ] शान्तिमती सूमदेव [ १६ १ - श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले २४, २८ २ - प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० १३६ में मिलाई के स्थान पर शिलाई लिखा है । ३- श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३४, ४०, ४५ जसहू | रामा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: ० यशोधन वि० सं० १२१२ [ द्वितीय विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० देव हो गया है । देव के संधीरण नामक एक योग्य पुत्र था । श्रे० संधीरण का पुत्र यशोधन था । यशोधन बड़ा यशस्वी हुआ । इसके यशोमती नामा स्त्री और अम्बकुमार, गोत, श्रीधर, आशाधर और वीर नामक पाँच पुत्र થે 1 वि० सं० १२१२ ज्येष्ठ कृ० ८ कमलों से श्रे० यशोधन ने अपने पिता के और उसको श्री विमलवसतिका नाम से करवाया मंगलवार को श्रीकोरंटगच्छीय श्री नन्नाचार्य पट्टधरश्रीककसूरि के करकल्याणार्थ श्री आदिनाथविंव की महामहोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई प्रसिद्ध श्री आदिनाथ - जिनालय के गूढ़मण्डप के गवाक्ष में स्थापित इस अवसर पर अन्य जैनज्ञातीय श्रावककुल भी उपस्थित हुये थे। जिनमें कोरंटगच्छीय नन्नाचार्यसन्तानीय श्रवंशीय वेलापल्ली वास्तव्य मंत्रि धाधुक प्रसिद्ध है । धाधुक ने आदिनाथ - समवसरण करवा कर श्री विमलवसतिका की हस्तिशाला में उसको प्रतिष्ठित करवाया । श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसति की संघयात्रा और कुछ प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं के पुण्यकार्य । वि० सं० १२४५ श्री दातीर्थ की जो अनेक तीर्थयात्रा एवं संघयात्राओं का वर्णन जैन-इतिहास में उपलब्ध है, उनमें महामात्य पृथ्वीपालात्मज महामात्य धनपाल द्वारा की गई वि० सं० १२४५ की यात्रा का भी अधिक महत्व है । यह यात्रा कासहृदगच्छीय श्री उद्योतनाचार्यीय श्रीमसिंहसूरि के अधिनायकत्व में की गई थी । श्रीमद् यशोदेवसूरि के शिष्य श्रीमद् देवचन्द्रसूरि भी इस यात्रा में सम्मिलित हुये थे | अनेक नगरों से भी प्रतिष्ठित जैनकुल इस यात्रा में सम्मिलित हुये थे । जाबालीपुरनरेश का महामात्य श्रोसवालज्ञातीय यशोवीर भी आया था । इस यात्रा का वर्णन महामात्य पृथ्वीपाल के परिवार द्वारा किये गये निर्माणकार्य का परिचय 'प्राचीन गूर्जर - मंत्री - वंश और महामात्य पृथ्वीपाल' के प्रकरण में पूर्ण दिया जा चुका है । इस शुभावसर पर अन्य अनेक ग्रामों के अन्य प्रतिष्ठित श्रावककुल भी उपस्थित हुये थे । उन्होंने जो धर्मकृत्य किये कुछ का वर्णन इस प्रकार है: *म० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०८, २२६ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : अर्बुदगिरिस्थ श्री विमलवसति की वि० सं० १२४५ की संघयात्रा-श्रे० देसल और लापरण: [२०१ श्रे० आम्रदेव प्राग्वाटज्ञातीय अबोकुमार के पुत्र आम्रदेव ने धर्मपत्नी साणीदेवी, पुत्र आसदेव और अवेसर सहित श्री पार्श्वनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया । * श्रे० जसधवल और उसका पुत्र शालिग प्राग्वाटज्ञातीय शिवदेव का पुत्र जसधवल अपने परिवार सहित इस महोत्सव में सम्मिलित हुआ था । जसधवल की स्त्री का नाम लक्ष्मीदेवी और पुत्र का नाम शालिग था। पिता और पुत्र दोनों उदारमना और धर्मभक्त थे । जसधवल ने शान्तिनाथदेव का पंचकल्याणकपट्ट, उसकी स्त्री लक्ष्मीदेवी ने श्री अनन्तनाथप्रतिमा और श्री अनन्तनाथपंचकल्याणकपट्ट तथा उसके पुत्र शालिग ने अपने कल्याणार्थ श्री अरनाथप्रतिमा और अरनाथपंचकल्याणकपट्ट तथा एतदर्थ देवकुलिका करवा कर उनकी प्रतिष्ठा करवाई। * श्रे० देसल और लाषण प्राग्वाटज्ञातीय ठ० देसल और उसके लघु भ्राता लाषण ने अपने पिता और आसिणी नामा भगिनी के श्रेयार्थ श्री सुविधिनाथबिंत्र को श्री यशोदेवसरिशिष्य श्री देवचन्द्रसूरि के द्वारा प्रतिष्ठित करवाया। * कवीन्द्र-बन्धु मन्त्री यशोवीर जाबालीपुरनरेश का मन्त्री था । इसके पिता का नाम उदयसिंह था । यशोवीर बड़ा विद्वान् और विशेषकर शिल्प-कला का उद्भट ज्ञाता था। यह भी अपने परिवारसहित इस अवसर पर अर्बुदतीर्थ के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ था। इसने अपनी माता उदयश्री के श्रेयार्थ श्रीनमिनाथप्रतिमा और सतोरण देवकुलिका तथा अपने कल्याणार्थ श्री नमिनाथबिंब सहित सुन्दर देवकुलिका विनिर्मित करवा कर उनको श्री देवचन्द्रसूरि के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। श्री देवचन्द्रसूरि के कर-कमलों से अन्य बिंब जैसे धर्मनाथप्रतिमा, शीतलनाथप्रतिमा, कुंथुनाथप्रतिमा, मल्लिनाथप्रतिमा, वासुपूज्यप्रतिमा, अजितनाथप्रतिमा और विमलनाथप्रतिमा तथा ठ० नागपाल द्वारा उसके पिता आसवीर के श्रेयार्थ करवाई हुई श्री नेमिनाथप्रतिमा आदि प्रतिष्ठित हुई। 1 महामात्य पृथ्वीपाल के प्रतिहार पूनचन्द्र ठ० धामदेव, उसके भ्राता सिरपाल तथा भ्रातृव्यक देसल ठ. जसवीर, धवल, ठ० देवकुमार, ब्रह्मचन्द्र, ठ० वीशल रामदेव और ठ० आसचन्द्र ने भी महाभक्तिपूर्वक श्री श्रेयांसनाथप्रतिमा श्री देवचन्द्रसूरि के हाथों प्रतिष्ठित करवाई। श्री कासहदीयगच्छीय श्री उद्योतनाचार्यसंतानीय श्री जसणाग, चांदणाग जिदा का पुत्र जसहड़ का प्रसिद्ध पुत्र पार्श्वचंद्र भी अपने विशाल कुटुम्बसहित आया था। उसने अपने प्रात्म-श्रेयार्थ श्री पार्श्वनाथबिंब की श्री उद्योतनाचार्गीय श्री सिंहसूरि से प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार महामात्य धनपाल द्वारा प्रमुखतः आयोजित और कारित इस प्रतिष्ठोत्सव में अनेक प्राग्वाटज्ञातीय *अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० २६ । ११५, ११८,११६,१२१, १२२।१३२ +१० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले० १५०,१५१. ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०१२४,१२६,१३०,१३४,१३७,१४१,१४२,१४४,१६३. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ) :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय उपकेशज्ञातीय तथा श्रीमालज्ञातीय कुटुम्बों ने अपने और अपने कुटुम्बीजनों के श्रेयार्थ धर्मकृत्य करवा कर अपना जीवन और द्रव्य सफल किया। महा० वस्तुपाल द्वारा श्री मल्लिनाथ-खत्तक का बनवाना वि० सं० १२७८ श्री विमलवसतिका नामक श्री आदिनाथ-जिनालय के गूढमण्डप के दाहिने पक्ष में महामात्य वस्तुपाल ने वि० सं० १२७८ फाल्गुण कृ० ११ गुरुवार को अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री मालदेव के श्रेय के लिये खत्चक बनवा कर उसमें श्री मल्लिनाथ-प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया। श्री सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि विक्रम शताब्दी दशवीं-ग्यारहवीं प्राग्वाट-प्रदेश के रोही-प्रगणा के पलासी नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय यशोवीर नामक श्रेष्ठि रहता था । उसकी सुभद्रा (गुणसुन्दरी) नाम की स्त्री अत्यन्त ही धर्मनिष्ठावती थी। उसकी कुक्षी से वि० सं० ६४७-६५७ वंश-परिचय और आपका में एक महाप्रतापी बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम सौधर्म रक्खा गया । सौधर्म बचपन बचपन में ही अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि था। वह अपनी वय के बालकों में सदा अग्रणी रहता था । उसकी वाणी और उसकी बालचेष्टायें महापुरुषों के बचपन की स्मरण कराती थीं । सौधर्म जब तीन वर्ष का ही था कि वह पाठशाला में बिठा दिया गया था। पांच वर्ष की वय में ही उसने पाठशाला का अध्ययन समाप्त कर लिया। उसके अनेक साथियों में एक ब्राह्मणबालक भी था। वह बडा तेजस्वी और हठी था। सौधर्म के हाथ एक दिन उस ब्राह्मणलड़के की दवात फूट गई। इस पर उस ब्राह्मणलड़के ने हठ पकड़ी कि मैं वैसी ही दवात लूगा। गुरु और लड़कों के समझाने पर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी। जब वैसी दवात नहीं मिली और सौधर्म नहीं दे सका तो उस ब्राह्मणबालक ने क्रोध में आकर प्रतिज्ञा की कि मैं मन्त्र-बल से तेरे कपाल की दवात नहीं करूँ तो ब्राह्मणपुत्र नहीं। इस पर सौधर्म को भी क्रोध आ गया और उसने भी प्रतिज्ञा की कि मैं तेरे मन्त्रबल को विफल नहीं कर डालूँ तो मैं भी चतुर वणिकपुत्र नहीं । इस प्रकार सौधर्म में प्रारंभ से ही निडरता, निर्भीकता थी। १-१० प्रा० ० ले० सं०भा० २ ले०६ २-श्री ज्ञाननन्दिगणि द्वारा वि० सं०१६८३ में रचित संस्कृत-चरित्र में पिता का नाम पुण्यसार और माता का नाम गुणसुन्दरी लिखा है। नाडूलाई के श्री श्रादिनाथ-मन्दिर के वि० सं०१५६७ के लेख में पिता का नाम यशोवीर और माता का नाम सुभद्रा लिखा है, जो अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन है और अधिक विश्वसनीय है। ए०रा० सं० भा० २ पृ० २१,३६ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि . [२०३ सांडेरकगच्छाधिपति आचार्य ईश्वरसूरि बड़े प्रतापी हो गये हैं। वे वि० सं० ६५१-५२ में विहार करते २ मानवप्राणियों को धर्मोपदेश देते हुए मुडारा नामक ग्राम में पधारे । मुंडारा से पलासी अधिक अंतर पर नहीं है । ईश्वरसरिकामडाराग्राम , मुंडारा में उन्होंने सौधर्म की आश्चर्यपूर्ण बाललीलाओं की कहानियाँ सुनीं। ईश्वरमरि में पलासी पाना और के पास में ५०० मुनि शिष्य थे। परन्तु गच्छ का भार वहन करने की शक्तिवाला सौधर्म की मागणी और उनमें एक भी उनको प्रतीत नहीं होता था। वे रात-दिन इसी चिंता में रहते थे कि उसकी दीक्षा। __ अगर योग्य शिष्य नहीं मिला तो उनकी मृत्यु के पश्चात् सांडेरकगच्छ छिन्न-भिन्न हो जावेगा । सौधर्म के विषय में अद्भुत कथायें श्रवण करके उनकी इच्छा सौधर्म को देखने की हुई । विहार करते २ अनेक श्रावक और श्राविकाओं तथा अपने ५०० शिष्य मुनियों के सहित पलासी पधारे । पलासी के श्री संघ ने आपश्री का तथा मुनियों का भारी स्वागत किया । एक दिन प्राचार्य ईश्वरसूरि भी श्रे० पुण्यसागर के घर को गये और स्त्री गुणसुन्दरी से सौधर्म की याचना की। इस पर गुणसुन्दरी बहुत क्रोधित हुई; परन्तु ज्ञानवंत आचार्य ने उसको सौधर्म का भविष्य और उसके द्वारा होनेवाली शासन की उन्नति तथा साधु-जीवन का महत्व समझा कर उसको प्रसन्न कर लिया और गुणसुन्दरी ने यह जान कर कि उसका पुत्र शासन की अतिशय उन्नति करने वाला होगा, सहर्ष सौधर्म को आचार्य को समर्पित कर दिया । लगभग ६ वर्ष की वय में ईश्वरसूरि ने पलासीग्राम में ही सौधर्म को दीक्षा प्रदान की और उसका यशोभद्र नाम रक्खा। दीक्षा लेकर यशोभद्रमुनि शास्त्राभ्यास में लगे और थोड़े ही काल में उन्होंने जैनशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके पंडितपदवी को धारण की । ईश्वरसूरि ने उनको सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतापी जानकर मुंडाराग्राम में उनको सूरिपद रिपद और गच्छ का भार से अलंकृत किया। यशोभद्रसूरि ६ विगयों का त्याग करके आंविल करते हुये विहार वहन करना। . . करने लगे और फैले हुए पाखण्ड का नाश करके जैन-धर्म का प्रभाव बढ़ाने लगे। दुःख है ऐसे प्रभावक आचार्य के विषय में उनके द्वारा की गई शासनसेवा का विस्तृत लेखन प्राचीन ग्रन्थों में ग्रंथित नहीं मिलता है। नाइलाई के श्री आदिनाथ-जिनालय के संस्थापक ये ही आचार्य बतलाये जाते हैं। उक्त मन्दिर के वि० सं० ११८७ के एक अन्य लेख से भी सिद्ध है कि मन्दिर प्राचीन है। एक लेख में मन्दिर की स्थापना का संवत् वैसे वि० सं० ६६४ लिखा है । आपकी निश्रा में सैकड़ों मुनिराज रहते थे। सूरिपद ग्रहण सांडेरागच्छ में हुआ जसोभद्रसूरिराय, नवसे है सतावन समें जन्मवरस गछराय ।।१।। संवत नवसे हैं अड़सठे सूरिपदवी जोय, बदरी सूरी हाजर रहे पुण्य प्रबल जस जोय ॥२॥ सवत नव अगण्यौतरे नगर मुटाडा महि, सांडेरा नगरे वली किधी प्रतिष्ठा त्यौहें ॥३॥ बुहा किन रसी बली खीम रीषिमुनिराज, जसोभद्र चोथा सहु गुरुभाई सुखसाज ॥४॥ बुहाथी गछ निकल्यो मलधारा तसनाम, किन रिसीथी निकल्यो किनरिसी गुणखान ॥५॥ खीम रिसीथीय निपनो कोखंट बालग गछ जेह, जसोभद्र सढिरगछ च्यारे गछ सनेह ॥६॥ आबू रोहाई विचे गाम पलासी माहें, विपुत्र साथे बहु भणता लड़िया त्याहे ॥७॥ खडियो भागो विप्रनो करें प्रतिज्ञा ऐम, माथानो खड़ियो करू तो ब्राह्मण सहि नेम ॥८॥ ते ब्राह्मण जोगी थई विद्या सिखी श्राय, चोमास नडलाई में हुता सरि गछराय ॥1 तिया आयो तिहिज जटिल पुरब देष विचार, बाघ सरप बिछी प्रमुख किधा कई प्रकार ॥११॥ संवत् दश दाहोतरें किया चौराशीवाद, वल्लभीपुर थी प्राणियो ऋषभदेवप्रासाद ॥११॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] :: प्राग्वाट-इतिहास : [द्वितीय करके आप पाली पधारे और वहाँ आपने अनेक विद्याओं की साधना की। उस समय आचार्य, यति, साधु विद्यासाधना करके धर्म का प्रचार करते थे। आप छोटी आयु में ही भारत के विद्या-कलाविदों में अग्रगण्य हो गये। सूचमदर्शिनी, आकाशगामिनी, अंतहितकारिणी, संहारिणी जैसी अद्भुत विद्याओं के ज्ञाता और नवनिधि और अष्टसिद्धि के प्राप्त करने वाले हो गये । नाडूलाई (मरुधर-प्रदेश) में जो ग्राम के बाहर श्री आदिनाथ-जिनालय है उसकी स्थापना की भी एक मनोरंजक और आश्चर्यभरी कहानी है । एक वर्ष सरिजी का नाडूलाई में चातुर्मास था। वहीं अवधूत- शिव योगी श्रीमद् यशोभद्रसूरि का नाडुलाई में चातुर्मास श्रवण करके फिर आया और अनेक विघ्न उत्पन्न करने लगा। अन्त में दोनों में वाद होना ठहरा । वाद में यह ठहरा कि वल्लभीपुर से दोनों एक २ मन्दिर उड़ाकर ले भावे और जो मुर्गे की आवाज के पूर्व नाडूलाई में पहुँच जायगा, वही जयी हुआ समझा जायगा। योगी ने शिवमन्दिर को और यशोभद्रसरि ने श्री आदिनाथमन्दिर को उठाया और दोनों आकाशमार्ग से मन्दिरों को ले चले। सूरिजी आगे चले जा रहे थे। योगी ने देखा भौर फटने वाली है और नाइलाई अब अधिक दूर भी नहीं है, सरिजी मेरे से आगे पहुँच जावेंगे ऐसा विचार करके उसने तुरन्त मुर्गे की आवाज की। सूरिजी ने समझा कि भौर हो गया है मन्दिर को प्रतिज्ञा के अनुसार वहीं तुरन्त स्थापित कर दिया । कपटी योगी ठहरा नहीं और उसने सूरिजी से आगे बढ़कर शिवमन्दिर को स्थापित किया। कपटी योगी के छल का पता जब सूरिजी को लगा तो उन्होंने उसके छल को प्रकाशित कर दिया। इससे योगी की अत्यन्त निंदा हुई। नाइलाई में आज भी दोनों मन्दिर विद्यमान हैं । यह घटना वि० सं०६६४ (१) की कही जाती है । वि० सं०६६६ में आपश्रीने मुंडारा और सांडेराव में प्रतिष्ठायें कीं । अनेक चमत्कारों और आश्चर्यों से सूरिजी का जीवन भरा है। सूरिजी ने अपनी विद्याशक्ति से अनेकों के दुःख दूर किये, अनेक पाखण्डियों के पाखण्ड को खोला और भोले और अन्धश्रद्धालु भक्तों का उद्धार किया। आपके तेज, पाण्डित्य, चमत्कारों से जैन-धर्म खूब फैला । आपने अनेक . मन्दिरों की प्रतिष्ठायें करवाई और आपने अनेक अजैन कुलों को जैन बनाया। अजनों को जैनी बनाना गुगलिया, धारोला, कांकरिया, दुधेड़िया, बोहरा, चतुर, भंडारी, शिशोदिया आदि १२ कुलों के पुरुषों को आपने प्रतिबोध देकर जैन बनाये । गुजरात, राजस्थान, मालवा के समस्त राजा, मांडलिक, सामन्त सब आपका मान करते थे। आगटनरेश तो आपका परम भक्त था । नाडूलाई के राव लाखण के पुत्र राव द्धा को आपश्री ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया था और उसके परिवार वाले भण्डारी कहलाये । ते जोगी पण लावियो सिवदेवरो मन भाय, जैनमति सिवमति बेहु दोय देहरी ल्याय ॥१२॥ ते हमणा प्रासाद छै नडुलाई सेहेर मझार, एहनी वरवण छै बहु कथा कोस विस्तार' ॥१३॥ -सोहमकुल पट्टावली 'श्री उपकेशवंशे रायभण्डारीगोत्रे राउल श्री लाप(ख)णपुत्र श्री मं० दुदवशे मं० मयूर सुत मं० साहुलः। तत्पुत्राभ्यां मं० सीदा समदाभ्यां सद्बाधव मं० कर्मसी धारा लाखादि सुकुटुम्बयुताभ्यां श्री नन्दकुल वत्या पुर्या सं० ६६४ श्रीयशोभद्ररिमंत्रशक्तिसमानीतायां मं० सायरकारितदेवकुलिकाद्धारतः' (नाडूलाई के जैन मन्दिर के सं०१५६७ के लेख का अंश.) प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३३६, ३४३. भावनगर, प्राचीन शोध-संग्रह,भाग पहला' वि०सं०१६४२ पृ०६४-६६ (Published by state press at Bhawanagar.) वि० सं०६६८ में सूरिपद प्राप्त हुआ; अतः वि० सं०६६४ की उक्त घटना सरिपद की प्राप्ति के पूर्व हुई इससे सिद्ध होती है। परन्तु सरिपद की प्राप्ति के पश्चात् अधिक संगत प्रतीत होती है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नडूलाई : श्रीमद् यशोभद्रसूरि द्वारा मंत्रशक्तिबलसमानीत श्री आदिनाथ-बावन जिनप्रासाद । वर्णन पृ० २०४ पर देखिये | Page #377 --------------------------------------------------------------------------  Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचर्य और साधु-सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि :: [२०५ - सूरिजी ने अपना आयुष्य निकट जान कर अपने शिष्यों से कहा कि जब मैं मरूँ, मेरे शिर को फोड़तोड़ कर चूर-चूर कर डालना । अवधूत के हाथ अगर शिर पड़ जायगा तो वह बड़ा भारी पाखण्डवाद और अत्याचार फैलावेगा। निदान जब सूरिजी मरे, उनका शिर चूर २ कर दिया गया। स्वर्गवास सूरिजी का स्वर्गारोहण (वि० सं० १०१० में) श्रवण करके जब अवधूत आया तो आपका समस्त जीवन-चरित्र ही अनेक चमत्कारों का लेखा है । परन्तु मत्र और मंत्र-विद्या में विश्वास करने वालों के लिये तो उनके जीवन की कुछ चमत्कारपूर्ण घटनाओं का लिखना अत्यन्त आवश्यक है। १. संवत् ६६९ में आप सांडेराव में प्रतिष्ठा करवा रहे थे। दैवयोग से प्रीतिभोज में घी की कमी पड़ गई। सरिजी को समाचार होते ही उन्होंने मंत्र पढ़ कर घी के बर्तनों को घी से भर दिया। प्रीतिभोज पूर्ण हो गया। तत्पश्चात् सरिजी ने सांडेराव के श्री संघ को पाली में एक अजैन श्रेष्ठि को घी के दाम चुकाने का आदेश दिया। श्रीसंघ-सांडेराव के मनुष्य जब उस अजैन श्रेष्ठि के पास रकम लेकर पहुंचे तो उसने यह कह कर कि मैंने तो घी नहीं बेचा है, रकम लेने से अस्वीकार किया। रकम चुकाने वालों ने जब उसे अपने घी के बर्तन देखने को कहा तो उसने बर्तन देखे और उन्हें खाली पाया । सरिजी का यह चमत्कार देख कर वह सांडेराव श्राया और रकम लेने से उसने अस्वीकार किया और उसने जैनधर्म स्वीकार किया। इसी वर्ष आपने मुंडारा में भी प्रतिष्ठा करवाई थी। २. एक समय सरिजी श्रागटनरेश के साथ चले जा रहे थे। रास्ते में एक अवधूत ने अपने मुंह से सरिजी का स्पश किया । सरिजी ने अपने दोनों हाथों को तुरन्त ही मसल कर कुछ झाड़ने का अभिनय किया। राजा ने इस संकेत का रहस्य पूछा। सरिजी ने कहा कि उज्जैन में महाकालेश्वरमन्दिर का चन्द्रवा जलने लगा था। अवधूत ने मुझको अपने मुंह से स्पर्श करके संकेत किया । मैंने चन्द्रवा को मसल कर बुझा डाला। उन्होंने राजा को अपने दोनों हाथ दिखाये तो तलियाँ काली थी । राजा ने उज्जैन में अपने विश्वासपात्र सेवकों को उपरोक्त घटना की सत्यता की प्रतीति करने के लिये भेजा। उन्होंने लौट कर कहा कि ठीक उसी दिन, उसी समय चन्द्रवा जल उठा था और वह तुरन्त किसी अदृष्ट देव द्वारा बुझा दिया गया था। सरिजी का यह महान् चमत्कार देख कर राजा आगटनरेश अल्लट ने जैनधर्म स्वीकार किया और वह सरिजी का परम भक्त बना।। ३. सरिजीने प्रागटनगर, रहेट, कविलाण, संभरी और भैसर इन पांचों नगरों में एक ही मुहूर्त में अपने पांच शरीर बना कर प्रतिष्ठायें करवाई थी। इसी विद्या के बल से सरिजी नित्य-नियम से पंचतीर्थी करके फिर नवकारसीव्रत का पालन करते थे। आगटनगर के एक श्रेष्ठि ने सरिजी की अधिनायकता में शत्रजयमहातीर्थ के लिये संघ निकाला था। संघ अल्लहणपुपरत्तन होकर गया था। उस समय पत्तन में गूर्जरसम्राट् मूलराज राज्य करता था। सरिजी का आगमन श्रवण करके वह उनका स्वागत करने अपने सामंत और मण्डलेश्वरों के साथ नगर के बाहर आया और राजसी ठाट-बाट से उनका नगर-प्रवेश करवा कर राजप्रासाद में सूरिजी को ले गया। मूलराज ने सरिजी के अद्भुत कर्मों के विषय में खूब सुन रक्खा था । सम्राट ने सुरिजी से पत्तन में ही सदा के लिये विराजने की प्रार्थना की। परन्तु सरिजी ने उत्तर दिया कि जैनसाधुओं को एक स्थान पर रहना नहीं कल्पता है। सम्राट ने निराश हो कर एक चाल चली। उसने अवसर देख कर जिस कक्ष में सरिजी ठहरे हुये थे, उसके चारों ओर के द्वार एक दम बंद करवा दिये । सरिजी को कक्ष में बंद कर दिया है और अब सम्राट् सरिजी को नहीं आने देगा यह समाचार श्रवण कर के संघ बहुत ही अधीर हुश्रा; परन्तु सम्राट के आगे संघ का क्या चलता। निदान संघ पत्तन से रवाना हो कर शत्र'जयतीर्थ की ओर आगे चला । उधर सरिजी ने देखा कि सम्राट ने छल किया है, वे अपना सूक्ष्म शरीर बना कर किवाड़ों के छिद्र में से निकल कर संघ में जा सम्मिलित हुए। संघ सूरिजी के दर्शन करके कृतकृत्य हो गया। पत्तन की ओर आने वालों में से किसी चतुर के साथ सूरिजी ने सम्राट को धर्मलाभ कहला भेजा । सरि का धर्मलाभ पाकर सम्राट को आश्चर्य हुश्रा और जब उसने उस कक्ष के किवाड़ खोल कर देखा तो वहाँ सूरिजी नहीं थे। संघ बढ़ कर एक तालाब के किनारे पहुँचा । भोजन का समय हो चुका था। तालाब में पानी नहीं देखकर संघपति को चिंता हुई। सरिजी को यह मालूम हुआ कि सरोवर में पानी नहीं है, चट उन्होंने अपना ओघा उठाया और सरोवर की दिशा में उसे घुमाया । सरोवर पानी से छलाछल कर उठा । संघ में इस चमत्कार से अतिशय हर्ष छा गया। इस प्रकार सरिजी के पद-पद पर अनेक चमत्कारों का अनुभव करता हुआ संघ शत्रुञ्जयतीर्थ की यात्रा करके गिरनार पहुंचा। गिरनारतीर्थ पर प्रभु को संघपति ने अमूल्य रत्वजटित श्राभूषण धारण करवाये । रात्रि को वे आभूषण चोरी चले गये । संघपति को यह श्रवण करके अत्यन्त ही दुःख हुआ। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय सूरिजी का शिर जो अनेक विद्या एवं सिद्धमन्त्रों का भण्डार था उसको चूर २ हुआ मिला। वह निराश होकर लौट गया। अंचलगच्छसंस्थापक श्रीमद् आर्यरक्षितसरि दीक्षा वि० सं० ११४६. स्वर्गवास वि० सं० १२३६ विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अर्बुदाचल-प्रदेश के संनिकट ताणा (दंत्राणा) ग्राम में प्राग्वाटशातीयतिलक शुद्धश्रावकव्रतधारी क्रियानिष्ठ एक सद्गृहस्थ रहता था, जिसका नाम द्रोण था। द्रोण जैसा सज्जन, धर्मात्मा और न्यायनिष्ठ था, वैसी ही उसकी शीलवती देदीनामा गृहिणी थी। दोनों स्त्रीवंश-परिचय पुरुषों में अगाध प्रेम था। आर्थिक दृष्टि से ये साधारण श्रेष्ठि थे; परन्तु दोनों संतोषी और धर्ममार्गानुसारी होने से परम सुखी थे । श्रेष्ठि द्रोण दंताणा में दुकान करता था। उसकी दुकान सचाई के लिये प्रसिद्ध थी। वि० सं ११३५ में एक दिवस बृहद्गच्छोत्पन्न नाणकगच्छाधिपति श्रीमद् जयसिंहसूरि दंत्राणा में पधारे । समस्त संघ आचार्य को वंदन करने के लिये गया। श्रावक द्रोण और उसकी स्त्री दोनों भी उपाश्रय में गये और जयसिंहसूरि का पदार्पण सूरिजी को वंदना करके घर लौट आये । वि० सं० ११३६ में देदी की कुक्षी से और द्रोण का भाग्योदय सर्वलक्षणयुक्त पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम गोदुह रक्खा गया, क्योंकि उसके गोदुह का जन्म और वि० गर्भ धारण करते समय देदी ने स्वप्न में गौदुग्ध का पान किया था। वि० सं० सं० ११४६ में उसकी दीक्षा ११४१ में पुनः श्रीमद् जयसिंहसूरि दंत्राणा में पधारे। श्रेष्ठि द्रोण और श्राविका सरिजी ने कहा कि चोर आज के बीसवें दिन आगट (आघात) में पकड़ा जायगा और वैसा ही हुश्रा। चोर पकड़ा गया। आभूषण ज्यों के त्यों मिल गये और पुनः गिरनारतीर्थ पर भेज कर प्रभुबि को वे धारण करवाये गये। , एक वर्ष सरिजी का चातुर्मास वल्लभीपुर में हुआ । वल्लभीपुर में सरिजी का वह ब्राह्मण-साथी, जो अब अवधूत योगी बन कर फिरता था, सरिजी का चातुर्माह श्रवण करके आया और विघ्न डालने का यत्न करने लगा। एक दिन व्याख्यान-सभा में उस अवधूत ने अपनी मूछ के दो बाल तोड़ कर श्रोतागणों के बीच में फैंके । वे दोनों बाल सर्प बन कर दौड़ने लगे । सूरिजी ने यह देखकर अपने शिर के बाल तोड़ पर फैंके । वे नेवला बनकर उन सपों के पीछे पड़े ।अब व्याख्यान बन्द हो गया और सर्प और नेवलों का द्वंद्व चला। अवधूत अपने को पराजित हुआ देखकर बहुत ही शर्माया और सो को पुनः बाल बना दिये। एक दिन एक साध्वी सरिजी को वन्दन करने के लिये आ रही थी। मार्ग में उसको योगी मिला । योगी ने उसको पागल बना दिया। सरिजी को जब साध्वी के पागल होने का कारण मालूम हुआ तो उन्होंने कुछ व्यक्तियों को घास का पुतला बना कर दिया कि इसको लेकर वे श्रवधूत के पास जावें और उससे साध्वी को अच्छा करने के लिए समझावें । इस पर अगर अवधूत नहीं माने तो पुतले की एक अंगुली काट देवें और फिर भी नहीं माने तो पुतला की गर्दन काट डालें। उन व्यक्तियों ने जा कर प्रथम अवधूत को बहुत ही समझाया। जब वह नहीं माना, तब उन्होंने पुतले की एक अंगुली काट डाली । पुतले की अंगुली ज्योहि कटी अवधूत की भी वह ही अंगुली कट कर गिर पड़ी। अवधूत डरा और उसने कहा कि साध्वीको १०८ बार स्नान कराओ वह अच्छी हो जावेगी। इस प्रकार अवधूत योगी ने अनेक विघ्न, छल-छन्द किये, परन्तु तेजस्वी सूरिजी के आगे उसका एक भी कुप्रयत्न सफल नहीं हो सका। अन्त में दोनों में राजसभा में चौरासी वाद हुए और उसमें सरिजी की जय हुई। अवधूत शर्मा कर वहाँ से पलायन कर गया। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु - बृहद् गच्छीय श्रीमद् श्रार्यरक्षितसूरि :: [ २०७ देदी भी पुत्रसहित भक्तिभावपूर्वक वंदना करने के लिये गये । गौदुहकुमार तुरन्त दौड़कर आचार्य महाराज के आसन पर जा बैठा । आचार्यजी ने गौदहकुमार की श्रेष्ठ द्रोण और उसकी स्त्री से मांगणी की । गुरु- वचनपालन करने में दृढ़ ऐसे दोनों स्त्री-पुरुषों ने गौदहकुमार को आचार्यजी को (वि० सं० १९४२ में) समर्पित किया । गौदहकुमार अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि और विनीत बालक था । उसने दश वर्ष की वय तक संस्कृत, प्राकृत का अच्छा अभ्यास कर लिया था । श्रीमद् जयसिंहसूरि ने गौदहकुमार का अभ्यास, उसकी प्रखर बुद्धि और धर्मपरायणता को देख कर उसको वि० सं० १९४६ पौष शु० ३ को राधनपुर में महामहोत्सवपूर्वक दीक्षा प्रदान की और उसका मुनि श्रार्यरक्षित नाम रक्खा । दीक्षा महोत्सव के पश्चात् मुनि आर्यरक्षित ने आचार्यजी से अनेक शास्त्रों का अल्प समय में ही अभ्यास कर लिया। मंत्र-तंत्र की विद्या में पारंगत मुनि राज्यचन्द्र ने मुनि आर्यरक्षित को मन्त्र-तन्त्र की विद्यायें सिखाई शास्त्राभ्यास और आचार्यऔर उनको विनीत और सर्वगुणसम्पन्न जानकर 'परकायाप्रवेशिनी' नामक विद्या पदवी दी। इस प्रकार वि० सं० १९५६ तक श्रार्यरक्षित मुनि षट् शास्त्रों के ज्ञाता और अनेक विद्याओं में पारंगत हो गये । आचार्य महाराज ने उनको सब प्रकार योग्य समझ कर पत्तन में वि० सं० ११५६ मार्गशीर्ष शु० ३ को आचार्यपद प्रदान किया । 1 श्रार्यरक्षितसूरि कठोर तपस्वी और आचार-विचार की दृष्टि से प्रति कठोर व्रती थे । शिथिलाचार उनको नाम मात्र भी नहीं रुचता था। वे स्वयं शुद्ध साध्वाचार का पालन करते थे और अपने साधुवर्ग में भी वैसा ही शुद्ध आचार्यपद का त्याग और साध्वाचार का परिपालन होना देखना चाहते थे । एक दिन श्राचार्य श्रार्यरक्षित ने क्रियोद्धार दशवैकालिकसूत्र की निम्न गाथा का वाचन किया: सीओदगं न सेविज्जा । सिलावुट्ठि हिमाणि य । उसिणोदगं तह फासू । पड़िगाहिज्ज संजो ॥१॥ उपरोक्त गाथा का वाचन करके उन्होंने विचार किया कि गाथा में उबाले हुये पानी को व्यवहार में लाने का आदेश है, जहाँ हम साधु ठण्डे पानी का उपयोग करके शास्त्रीय साधु-मर्यादा का भंग कर रहे हैं। ये उठकर आचार्य जयसिंहसूरि के पास जाकर सविनय कहने लगे कि आज के साधुओं में शिथिलाचार बहुत ही बढ़ गया है । अगर आप आज्ञा दें तो मैं शुद्ध धर्म की प्ररूपणा करूँ । आचार्य महाराज यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और कहा कि जैसा तुमको ठीक लगे वैसा करो। बस दो माह पश्चात् ही वि० सं० १९५६ माघ शु. पंचमी को आचार्यपद का त्याग करके ये अपना नाम उपाध्याय विजयचन्द्र रखकर क्रियोद्धार करने को निकल पड़े । उपा या विजयचन्द्र घोर तपस्या करने लगे और पैदल उग्र विहार करते हुये अपने साधु-परिवार सहित पावागढ़ आये । पावागढ़ में उनको शुद्ध आहार की प्राप्ति नहीं हुई । अतः उन्होंने सागारी अनशनतप प्रारम्भ कर दिया । एक माह व्यतीत होने पर उनको शुद्धाहार का योग प्राप्त हुआ । एक रात्रि को उनको स्वम हुआ, उसमें चक्रेश्वरीदेवी ने उनको कहा कि पास के भालेज नामक ग्राम में शुद्धाहार की प्राप्ति होगी उपाध्याय अपने परिवार सहित भालेज नगर में पधारे और शुद्धाहार प्राप्त करके पारणा किया। एक माह पर्यन्त सागारी अनशन तप करने के कारण वे अत्यंत दुर्बल हो गये थे; अतः कुछ दिनों तक भालेज में ही विराजे । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय भालेजनगर में यशोधन नामक एक श्रीमंत व्यापारी रहता था। उसके पूर्वजों ने श्रीमद् उदयप्रभसूरि के करकमलों से जैनधर्म स्वीकार किया था; परन्तु पीछे से कुसंगति में पड़ कर इस वंश के पुरुषों ने उसका परित्याग भणशाली (भंडशाली) कर दिया था। यशोधन ने अपने परिवार सहित पुनः जैनधर्म को स्वीकार किया और गोत्र की स्थापना उपाध्यायजी ने उसका भणशालीगोत्र स्थापित करके, उसके परिवार को उपकेशज्ञाति में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार धर्म का प्रचार करते हुये उपाध्याय विजयचन्द्रजी भालेज से विहार करके अन्यत्र पधारे। कठिन तप करते हुये आपने अनेक नगरों में भ्रमण किया और साधुओं में फैले हुये शिथिलाचार को बहुत सीमा तक दूर किया। वि० सं० ११६६ वैशाख शु० ३ को भण्डशाली यशोधन के भक्तिपूर्ण निमंत्रण पर आप पुनः भालेज में पधारे। अत्यन्त धूम-धाम से आपका नगर-प्रवेश-महोत्सव किया गया। आचार्य जयसिंहसरि को उपाध्यायजी के नगर-प्रवेश के पूर्व ही वहाँ बुला रक्खा था । श्रेष्ठि यशोधन और संघ के अत्याग्रह को स्वीकार करके आचार्य जयसिंहसूरि ने उपाध्याय विजयचन्द्र को पुनः शुद्धसमाचारी प्राचार्यपद प्रदान किया और आर्यरक्षितसरि पुनः नाम रक्खा । श्रेष्ठि यशोधन ने आचार्यमहोत्सव में एक लक्ष द्रव्य का व्यय किया था। उसी संवत् में आचार्य जयसिंहसूरि भालेज में ही स्वर्ग को सिधार गये । आचार्य आर्यरक्षितमरि के ऊपर गच्छनायक का भार आ पड़ा। आचार्य आर्यरक्षितसूरि के उपदेश से श्रेष्ठि यशोधन ने एक विशाल जिनालय बनवाया । प्रतिष्ठा के पूर्व कई विघ्न आये, उनका निवारण करके शुभ मुहूर्त में मन्दिर की प्रतिष्ठा की गई । प्रतिष्ठोत्सव के पश्चात् श्रेष्ठि यशोधन आर्यरक्षितसूरि के उपदेश ने शत्रुजयमहातीर्थ के लिए संघ निकाला । इस संघ के अधिष्ठायक आचार्य आर्यरक्षितसे यशोधन का भालेज में सूरि ही थे । भालेज से शुभ मुहूर्त में संघ ने प्रयाण किया। मार्ग में संघ के निमित्त जिनमंदिर बनवाना और बनने वाले भोजन में से आर्यरक्षितसरि आहार ग्रहण नहीं करते थे और नहीं मिलता तो शत्रञ्जयतीर्थ को संघ निकालना तथा विधिगच्छ की निराहार ही रह जाते थे । इस प्रकार कठिन तप करते हुये ये संघ के साथ-साथ खेड़ास्थापना नगर में पधारे। खेड़ानगर में शुद्धाहार की प्राप्ति में अनेक विघ्न आये । अन्त में विधिपूर्वक आहार आपको मिला ही । उस समय से विधिगच्छ का प्रारम्भ होना माना गया है । सुरपाटण से आचार्य आर्यरक्षितसूरि अपने साधु-परिवारसहित खिणपनगर में पधारे। वहाँ कोड़ी नामक एक श्रीमंत और अति प्रसिद्ध व्यापारी रहता था । उसके समयश्री नाम की एक कन्या थी। वह आभूषणों आदि बहुमूल्य वस्तुओं की बड़ी शौकीन थी। नित्य एक क्रोड़ रुपयों की कीमत के तो वह आभूषण समय श्री की दीक्षा ही पहने रहती थी। कोड़ी श्रेष्ठि अपनी समयश्री पुत्री के सहित आचार्य महाराज के दर्शन को आया और नमस्कार करके व्याख्यान श्रवण करने को बैठ गया। प्राचार्य महाराज का वैराग्यपूर्ण व्याख्यान श्रवण करके समयश्री को वैराग्य उत्पन्न हो गया। पिता आदि ने बहुत समझाया, लेकिन उसने एक नहीं मानी और अंत में पिता ने उसको दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। निदान आचार्य महाराज ने समयश्री को बड़ी धूम-धाम से दीक्षा देदी । तत्पश्चात् आचार्य जी वहाँ से विहार करके अन्यत्र पधारे। आगे जाकर वह कोड़ी श्रेष्ठि गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह का कोषाध्यक्ष बना । सम्राट ने प्रसन्न होकर कोड़ी श्रेष्ठि को अठारह ग्रामों का स्वामी बनाया। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि :: [ २०१ श्रे० कोड़ी कोषाध्यक्ष के मुंह से आर्यरक्षितसूरि की प्रशंसा श्रवण करके सम्राट सिद्धराज ने आचार्यजी को पत्तन में पधारने का बाहड़ मंत्री को भेजकर विनयपूर्वक निमंत्रण भेना । निमन्त्रण पाकर आचार्य अपने साधु परिवार सहित पत्तन में पधारे। सम्राट ने राजसी ठाट-बाट से महाप्रभावक आचार्य पत्तन में प्राचार्यजी " का नगर-प्रवेश-महोत्सव करवाया और सम्राट ने उनका सभा में मानपूर्वक पदार्पण करवा कर भारी सम्मान किया। आचार्य आर्यरक्षितम्ररि महाप्रभावक आचार्य हो गये हैं, जैसा ऊपर के वर्णन से ज्ञात होता है । आपने कई अजैन कुलों को जैन बनाया और अपने करकमलों से लगभग एक सौ साधुओं और ग्यारह सौ साध्वियों को दीक्षित किया। वीश साधुओं को उपाध्यायपद, सत्तर साधुओं को पंडितपद, स्वर्गारोहण एक सौ तीन साध्वियों को महत्तरापद, ब्यासी साध्वियों को प्रवर्तिनीपद प्रदान किये। इस प्रकार धर्म की प्रभावना बढ़ाते हुए वि० सं० १२३६ (१२२६) में पावागढ़तीर्थ में सात दिवस का अनशन करके सौ वर्ष की दीर्घायु भोग कर आप स्वर्ग को पधारे । १ बृहत्तपगच्छीय सौवीरपायी श्रीमद् वादी देवसूरि दीक्षा वि० सं० ११५२. स्वर्गवास वि० सं० १२२६ गूर्जरभूमि के अन्तर्गत अष्टादशशती नामक मण्डल (प्रान्त) में मद्दाहृतः नामक नगर में परोपकारी सुश्रावक वीरनाग रहता था। यह प्राग्वाटज्ञाति में अपनी सवृत्ति के कारण अधिक संमान्य था। इसकी स्त्री का नाम जिनदेवी था। जिनदेवी अपने नाम के अनुरूप ही जिनेश्वर भगवान् में अनुरक्ता एवं वंश-परिचय पतिपरायणा साध्वी स्त्री थी। तपगच्छीय श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि के ये परम भक्त थे। पूर्णचन्द्र नामक इनके पुत्र था, जिसका जन्म वि० सं ११४३ में हुआ था। यह प्रखर बुद्धि, तेजस्वी एवं मोहक मुखाकृति वाला था। वीरनाग अपनी गुणवती स्त्री एवं तेजस्वी बालक के साथ सानन्द गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे। एक समय मद्दाहृत नगर में भारी उपद्रव उत्पन्न हुआ और समस्त नगरनिवासी नगर छोड़कर अन्यत्र चले गये । सुश्रावक वीरनाग को भी वहाँ से जाना पड़ा। वह अपनी स्त्री और पुत्र पूर्णचन्द्र को लेकर भगुकच्छ नगर में पहुँचा । भृगुकच्छ के श्रीसंघ ने उसका समादर किया और वह वहीं रहने लगा। इतने में उसके गुरु श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि भी भृगुकच्छनगर में पधारे। उस समय तक पूर्णचन्द्र आठ वर्ष का हो गया था। प्राचार्य पूर्णचन्द्र को देखकर अति मुग्ध हुये और उसकी बाल-चेष्टायें, क्रियायें देखकर उनको विश्वास हो गया कि यह बालक आगे जाकर अत्यन्त प्रभावक पुरुष होगा। योग्य अवसर देखकर आचार्य ने वीरनाग से पूर्णचन्द्र की १-म०प० (गुजराती) ॥४७॥ पृ०१२०-१४४ २- सौवीरपायर्याति तदेकवारिपानाद विधिज्ञो विरुदै बभार' ।६६॥ गुर्वावली पृ०७ (संस्कृत) ३-महाहत नगर का वर्तमान नाम महा है। यह नगर अर्बुदगिरि के सामीप्य में विद्यमान है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय माँगी की । वीरनाग और जिनदेवी मुनिचन्द्रसूरि के भक्त तो थे ही, फिर भृगुकच्छ के श्रीसंघ के आग्रह एवं उद्बोधन पर उन्होंने प्राणों से प्यारे तेजस्वी पुत्र पूर्णचन्द्र को श्राचार्य श्री के चरणों में समर्पित कर दिया । भृगुकच्छ के श्री संघ ने वीरनाग एवं जिनदेवी के भरण-पोषण, रहने आदि का समुचित प्रबन्ध संघ की ओर से कर दिया । श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि ने भृगुकच्छनगर में ही वि० सं० ११५३ में पूर्णचन्द्र को उसके माता-पिता की आज्ञा लेकर शुभ मुहूर्त में दीक्षा दे दी और उसका नाम रामचन्द्र रक्खा । योग्य गुरु की सेवा में रहकर मुनि रामचन्द्र पूर्णचन्द्र को दीक्षा, उनका ने खूब विद्याभ्यास किया। कुशाग्रबुद्धि होने से वे थोड़े वर्षों में ही अनेक विषयों में विद्याध्ययन और सूरिपद पारंगत एवं संस्कृत, प्राकृत के उद्भट विद्वान् हो गये । श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि के समस्त शिष्यों में वे अग्रणी गिने जाने लगे। मुनि रामचन्द्र जैसे विद्वान् थे, वैसे उच्च कोटि के श्राचारवान् साधु भी थे। इनकी तर्कशक्ति बड़ी प्रबल एवं अद्वितीय थी। इनके समय में धर्मवादों का बड़ा जोर था । प्रसिद्ध नगरों में आये दिन धर्मवाद होते ही रहते थे । मुनि रामचन्द्र भी धर्मवादों में भाग लेने लगे और अन्य मत एवं धर्मों के वादी आ कर इनसे वाद करने लगे । फलस्वरूप इनको दूर-दूर तक विहार करना पड़ता था | राजस्थान, मालवा, गूर्जर, काठियावाड़, भृगुकच्छ, पंजाब, काश्मीर, दक्षिणभारत इनकी विहार-भूमि रही और इन्होंने अलगअलग प्रसिद्ध नगरों में अलग-अलग वादियों को परास्त किया और अपनी कीर्त्ति फैलाई । इनकी कीर्त्ति, विद्वत्ता, प्रखर वादनिपुणता से मुग्ध होकर श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि ने इनको वि० सं० १९७४ में आचार्यपदवी से विभूषित किया और देवरि नाम रक्खा। कुछ प्रतिवादियों एवं वादस्थलों के नाम निम्नवत् हैं: वादी १. ब्राह्मणपंडित ३. ५. भागवत शिवभूति ७. धरणीधर ६. कृष्णपंडित नगर धवलकपुर सत्यपुर चित्तौड़ धारानगरी भृगुकच्छ वादी २. सागर पंडित ४. गुणचंद्र (दिगम्बर) ६. गंगाधर ८. पद्माकरपंडित मित्रमण्डली के नाम २. प्रभानिधान हरिश्चन्द्र ५. प्राज्ञ शान्तिचन्द्र नगर काश्मीर जो इनकी इन वादों के विषय अधिकतर शैव, अद्वैत, मोक्षादि होते थे । देवसूरि का एक मित्रमण्डल था, हर प्रकार की सहायता करता था । यह मित्रमण्डल वादकला में प्रवीण एवं विद्या में पारंगत विद्वानों का बना हुआ था । १. विद्वान् विमलचन्द्र ४. कुलभूषण पार्श्वचन्द्र * 'वेदमुनी शमिते ऽब्दे ११७४ देवगुरुर्जगदनुत्तरो ऽभ्युदितः ॥७६॥ गुर्वावली पृ० ८. नागपुर गोपगरि पुष्करणी ३. पंडित सोमचन्द्र ६. महायशस्वी अशोकचन्द्र Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि . [२११ सूरिपद पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् इन्होंने धवलकपुर की ओर विहार किया और वहाँ उदय नामक सुश्रावक द्वारा बनवाई हुई सीमंधर-प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। तत्पश्चात् अर्बुदगिरितीर्थ की यात्रा को निकले । इस समय श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि अधिक अस्वस्थ हो गये थे, अतः उनका अन्तिम समय गच्छनायकपन की प्राप्ति निकट जानकर ये तुरन्त अणहिलपुर आये । वि० सं० ११७८ में श्रीमद् मुनिचन्द्रमूरि का स्वर्गवास हो गया और गच्छनायकत्व का भार आप पर और आपके गुरुभ्राता अजितदेवसरि पर आ पड़ा ।१ ___ आप श्री जिस समय अणहिलपुरपत्तन में विराजमान थे, ठीक उन्हीं दिनों में देवबोधि नामक महान् पंडित एवं अजेय वादी वहाँ आया। उसने राजद्वार पर निम्न श्लोक लटकाया और उसका अर्थ मांगा। महान् विद्वान् देवबोधि का गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह बड़ा ही साहित्यप्रेमी सम्राट् था। उसकी विद्वत्सभा में परास्त होना गूर्जरभूमि के बड़े २ विद्वान् पंडित रहते थे । राजसभा में वाद और प्रतियोगितायें सदा चलती ही रहती थीं। ऐसी उन्नत एवं विश्रुत विद्वत् सभा में बड़े बड़े पंडित एवं वादी विद्यमान थे; परन्तु गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की ऐसी विश्रुत विद्वत् सभा का कोई भी विद्वान् निम्न श्लोक का अर्थ नहीं लगा सका। 'एकद्वित्रिचतुःपश्च-पएमेनकमनेनकाः । देवबोधे मयि क्रुद्धे, पएमेनकमनेनकाः ।। महाकवि श्रीपाल के द्वारा सम्राट को मालूम हुआ कि प्रसिद्ध जैनाचार्य देवसूरि पत्तन में आये हुये हैं। सम्राट ने देवसरि को राज्य-सभा में निमंत्रित किया और उपरोक्त श्लोक का अर्थ बतलाने की प्रार्थना की । देवसरि ने अविलंब श्लोक का अर्थ कह बतलाया । राज्यसभा में देवसूरि की भूरी २ प्रशंसा हुई और देवबोधि नतमस्तक हुआ। देवसूरि ने उपरोक्त श्लोकों का अर्थ इस प्रकार बतलायाः-- एक-प्रत्यक्ष प्रमाण के माननेवाले चार्वाक । दो-प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों के मानने वाले बौद्ध और वैशेषिक । तीन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन-प्रमाणों के माननेवाले सांख्य । चार-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान इन चार प्रमाणों के मानने वाले नैयायिक । पांच-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति इन पांच प्रमाणों को मानने वाले प्रभाकर । छः–प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छः प्रमाणों को मानने वाले मीमांसक । श्रीमालज्ञातीय प्रसिद्ध नरवर महामात्य उदयन का तृतीय पुत्र बाहड़ था। इसने पत्तन में महावीरस्वामी का अति विशाल जिनालय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा वादी देवमूरि ने की। प्रतिष्ठाकार्य करके आप नागपुर बाहड़ द्वारा विनिर्मित पधारे । नागपुर के राजाने आपका महोत्सवपूर्वक नगर-प्रवेश करवाया। उसी समय सम्राट जिनमदिर की प्रतिष्ठा सिद्धराज जयसिंह ने नागपुर के राजा पर आक्रमण किया और नागपुर को चारों सम्राट् के हृदय में देवसरि के प्रति श्रद्धा ओर से घेर लिया । परन्तु सम्राट को जब यह ज्ञात हुआ कि नगर में देवसरि विराजमान परिचय . हैं, घेरा उठाकर अणहिलपुर चला आया। तत्पश्चात् सम्राट ने देवमूरि को पत्तन में १-'अष्टहयेमित ११७८ ऽब्दे विक्रमकालाद् दिवं गतो भगवान् ७२॥ 'तस्मादभूदजितदेवगुरु ४२ रीयान्, प्राच्यस्तपः श्रुतनिधिर्जलधिगुणानाम् । श्री देवस रिरपरश्च जगत्प्रसिद्धो, वादीश्वरो ऽस्त गुणचन्द्रमदो ऽपि बाल्ये ॥७३॥ गुर्वावली पृ.७-८. प्र०२० में सम्राट् जयसिंह को अम्बिकादेवी ने स्वप्न में देवसरि को राज्यसभा में निमंत्रित करने का आदेश दिया-लिखा है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] प्राग्वाट-इतिहास : [ द्वितीय निमंत्रित किया और चातुर्मास वहीं करवाया और फिर नागपुर पर आक्रमण करके वहाँ के राजा को परास्त किया । इस घटना से यह सिद्ध होता है कि सम्राट सिद्धराज देवसूरि का कितना मान करता था । कर्णाटकीय वादी चक्रवर्ती कुमुदचन्द्र को देवसरि की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या और गूर्जरसम्राट की राज्यसभा में वाद होने का निश्चय, देवसूरि का जय और उनकी विशालता यह पूर्व ही लिखा जा चुका है कि वह वादों का युग था । आये दिन समस्त भारत के प्रसिद्ध नगरों में, राजधानियों में, राज्यसभाओं में भिन्न २ मतों, सम्प्रदायों, धर्मों के विद्वानों में भिन्न २ विषयों पर वाद होते रहते थे। उस समय जैनधर्म की दोनों प्रसिद्ध शाखा दिगम्बर और श्वेताम्बर में भी मतभेद चरमता को लाँध गया था। कर्णावती के श्वेताम्बर-संघ के अत्याग्रह पर वि० सं० ११८० में देवसूरि का चातुर्मास भी कर्णावती में हुआ। उसी वर्ष दिगम्बराचार्य वादीचक्रवर्ती कुमुदचन्द्र का चातुर्मास भी कर्णावती में ही था। दोनों उच्चकोटि के विद्वान् , तार्किक एवं अजेय वादी थे। कुमुदचन्द्र को देवसूरि की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या उत्पन्न हुई और उन्होंने कलहपूर्ण वातावरण उत्पन्न किया । अन्त में दोनों प्राचार्यों में वाद होने का निश्चय हुआ। इसके समाचार देवसूरि ने पत्तन के श्रीसंघ को भेजे । पत्तन के श्रीसंघ के आग्रह पर वाद अणहिलपुरपत्तन में गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की विद्वत्-परिषद के समक्ष होने का निश्चय हुआ और कुमुदचन्द्र ने भी पत्तन में जाना स्वीकार कर लिया। वि० सं० ११८१ वैशाख शु. १५ के दिन गूर्जरसम्राट् की विद्वत्मण्डली के समक्ष भारी जनमेदनी के बीच गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की तत्त्वावधानता में वाद प्रारम्भ हुआ । वाद का विषय स्त्री-निर्वाण था । वाद का निर्णय देने में सहायता करने वाले सभासद् विद्वत्वयं महर्षि, कलानिधान उत्साह, सागर और प्रज्ञाशाली राम थे। ये सभासद् अति चतुर, भाषाविशेषज्ञ एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। वाद प्रारम्भ करने के पूर्व कुमुदचन्द्र ने सम्राट की स्तुति की और स्तुति के अन्त में कहा कि सम्राट् का यश वर्णन करते हुये 'वाणी मुद्रित हो जाती है। उपरोक्त चारों सभासदों को 'वाणी मुद्रित हो जाती है। पद के प्रयोग पर कुमुदचन्द्र की ज्ञानन्यनता प्रतीत हुई और उन्होंने सम्राट् से कहा, 'जहाँ वाणी मुद्रित हुई ऐसा दिगम्बराचार्य का कथन है, वहाँ पराजय है और जहाँ श्वेताम्बराचार्य का स्त्रीनिर्वाण ज्ञानीनिर्वाण है ऐसा कथन है, वहाँ अवश्य जय है।' देवसरि के पक्ष में प्राग्वाटवंशीय प्रसिद्ध महाकवि श्रीपाल प्रमुख सहायक था तथा महापंडित भानु एवं उदीयमान् प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य थे। उधर कुमुदचन्द्र के सहायक तीन केसव थे। ज्ञान के क्षेत्र में देवसूरि ने अनेक ज्ञानिनी, विदुषी, आत्माढ्या, सती स्त्रियों के उदाहरण देकर ऐतिहासिक ढंग से उनका प्रकर्ष दिखाते हुये सिद्ध किया कि स्त्रियाँ ज्ञान में पुरुषों से कम नहीं हैं। जब वे ज्ञान में कम नहीं पाई जाती हैं तो उसी ज्ञान के आधार पर फलने वाले प्रत्येक कर्म की फलप्राप्ति में वे पीछे या वंचिता कैसे रह सकती हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों की उपस्थिति पर कुमुदचन्द्र विरोध में निस्तेज पड़ गये और सभा के मध्य उनको स्वीकार करना पड़ा कि देवसूरि महान् विद्वान् है । देवसरि का जय-जयकार हुआ और सम्राट ने उनको ‘वादी' की पदवी से विभूषित करके एक लक्ष मुद्रायें भेंट की। परन्तु निःस्पृह एवं निर्ग्रन्थ आचार्य ने साध्वाचार का महत्त्व समझाते हुये उक्त मुद्रायें लेने से अस्वीकार किया तथा राजा से कहा कि मेरे बन्धु कुमुदचन्द्र का उनके निग्रह एवं पराजय पर कोई तिरस्कार नहीं करें। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य एवं साधु- बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि :: [ २१३ इस प्रकार यह प्रचंड वाद समाप्त हुआ । विशाल समारोह के साथ वादी देवसूरि अपनी वसति में पधारे । वादी देवसूरि ने अपने प्रतिवादी के साथ जो सद्व्यवहार एवं भद्र व्यवहार किया, उससे उनकी निरभिमानता, सरलता एवं क्षमाशीलता का परिचय तो मिलता ही है, लेकिन ऐसे अवसरों पर ऐसी निर्ग्रथता एवं निस्पृहता बहुत कम देखने में आई है । वादी देवसूरि जैसे शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे, वैसे ही मंत्र एवं तंत्रों के भी अभिज्ञाता थे । परास्त होकर. कुमुदचन्द्र ने अपनी कुटिलता नहीं छोड़ी। मंत्रादि के प्रयोग करके वे श्वेताम्बर साधुओं को कष्ट पहुँचाने लगे देवसूरि को युग-प्रधानपद अन्त में उनको शांत नहीं होता हुआ देखकर वादी देवसूरि ने अपनी अद्भुत मंत्र- शक्ति की प्राप्ति का उनके ऊपर प्रयोग किया । वे तुरन्त ही ठिकाने आगये और पत्तन छोड़ कर अन्यत्र चले गये । इस प्रचण्डवाद में जय प्राप्त करने से वादी देवसूरि का यश एवं गौरव अतिशय बढ़ा | सिद्धान्तमहोदधि श्रीमद् चन्द्रसूरि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वादी देवसूरि को जिनशासन की धुरा अर्पित की। सम्राट् ने उक्त लक्ष मुद्रा से श्रादिनाथ जिनालय विनिर्मित करवाया । वादी देवसूरि और अन्य तीन जैनाचार्यों ने बड़ी धूम-धाम से उसमें आदिनाथबिंब को वि० सं० १९८३ वैशाख शु० १२ को प्रतिष्ठित किया । वि० की दशवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दियों में श्वेताम्बरचैत्यवासी यतिवर्ग में शिथिलाचार अत्यन्त बढ़ गया था । यह यतिवर्ग मन्दिरों में रहता था और मन्दिरों की आय, जमीन, जागीर का उपभोग अपनीसद्विधि एवं शुद्धाचार का इच्छानुसार बौद्धमत के मठों के समान करने लग गया था। जैन - आचार के विरुद्ध प्रवर्त्तन मन्दिरों में वर्त्तन चलता था। भक्तों को दर्शनों में भी बाधायें उत्पन्न होती थीं । इस प्रकार धीरे २ जैनधर्म के सच्चे उपासकों को भय एवं शंका उत्पन्न होने लगी कि एक दिन जैनधर्म की अपदशा बौद्धधर्म के समान होगी और यह भारतभूमि से उखड़ जायगा । शिथिलाचारी चैत्यालयवासी यतिवर्ग के विरोध में बारहवीं शताब्दी के अन्त में एक शुद्धाचारी साधुदल उठ खड़ा हुआ । इस साधुदल में अग्रगण्य साधुओं में श्रीमद् देवसूरि भी थे । ये ठेट से सुसंस्कृत, शुद्धाचारप्रिय साधु थे । इनका साधुसमुदाय भी वैसा ही शुद्धाचारी था । शिथिलाचारी यतिवर्ग का प्रभाव कम करने में, उनका विरोध करने में, उनका शिथिलाचार नष्ट करने में इन्होंने बड़ी तत्परता से प्रयत्न किया । परन्तु जैनसमाज पर दोनों का प्रभाव बराबर बराबर था । फल यह हुआ कि दोनों वर्गों में विरोध जोर पकड़ गया। आज भी हम देखते हैं कि ऐसे अनेक जैन मन्दिर हैं, जो शिथिलाचारी यतिवर्ग के अधिकार में हैं और उनकी आय को वे अपनी इच्छानुसार खर्चते हैं । मरुधर-प्रान्त के अन्तर्गत जालोर, जिसको ग्रन्थों में जाबालीपुर कहा गया है एक ऐतिहासिक नगर है । यह नगर कंचनगिरि की तलहटी में बसा हुआ है। कंचनगिरि पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ है । इस किले में सम्राट कुमारपाल का जालोर कुमारपालविहार नामक एक जैन चैत्यालय है । इसको गूर्जरसम्राट्र कुमारपाल ने वि० सं० की कंचनगिरि पर कुमारपाल - १२२१ में विनिर्मित करवा कर वादी देवसूरि के पक्ष को सद्विधि की प्रवृत्ति करने विहार का बनवाना और उसको देवसूरि के पक्ष को के लिये समर्पित किया था। इस प्रकार से बनाये हुये चैत्यालय विधिचैत्य कहे जाते थे, अर्पित करना जहाँ प्रत्येक को दर्शन-पूजन का लाभ स्वतंत्रतापूर्वक प्राप्त होता था । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ 1 :: प्राग्वाट-इतिहास:: [ द्वितीय इस प्रकार वादी देवसरि अपनी समस्त आयुपर्यन्त धर्म की सेवा करते रहे । पाखंडियों का दमन किया, जिनशासन की शोभा बढ़ायी । 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक प्रसिद्ध एवं अद्भुत ग्रंथ लिख कर जैन साहित्य का गौरव बादी देवसरि की साहित्यिक बढ़ाया । इनका स्वर्गारोहण वि० सं० १२२६ श्रावण शु० ७ गुरुवार को हुआ। जैन सेवा और स्वर्गारोहण समाज अपनी प्रतिष्ठा एवं गौरव ऐसे महाप्रभावक, युग-प्रधान आचार्यों को प्राप्त करके हो आज तक रख सका है इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं । इनका जैसा प्रभाव सम्राट् सिद्धराज की राज्य सभा में था, वैसा ही सम्राट् कुमारपाल की सभा में रहा। श्री सिद्ध-हेम-शब्दानुशासन' के कर्ता हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि जो देवसरि रूपी सूर्य ने कुमुदचन्द्र के प्रकाश को नहीं हरा होता तो संसार में कोई भी श्वेताम्बरसाधु कटि पर वस्त्रधारण नहीं कर सकता। इससे सहज सिद्ध है कि श्रीमद् वादी देवसूरि एक महान् विद्वान् , तार्किक, शुद्धाचारी, युगप्रभावक आचार्य थे ।* बृहद्गच्छीय श्रीमद् आर्यरक्षितसूरिपट्टधर श्रीमद् जयसिंहसूरिपट्टनायक श्रीमद् धर्मघोषमूरि दीक्षा वि० सं० १२२६. स्वर्गवास वि० सं० १२६८ राजस्थानान्तर्गत मरुधरप्रान्त के महावपुर नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि श्री चन्द्र नामक एक प्रसिद्ध जैन व्यापारी रहता था। उसकी स्त्री का नाम राजलदेवी था। राजलदेवी वस्तुतः राजुल या राजिमती के सदृश वंश-परिचय और दीक्षा- ही धर्मपरापणा स्त्री थी। राजलदेवी की कुक्षी से वि० सं० १२०८ में उत्तम लक्षणयुक्त महोत्सव धनकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वि० सं० १२२६ में श्रीमद् जयसिंहसूरि का महावपुर में पदार्पण हुआ। वैराग्यपूर्ण धर्मदेशना सुन पर धनकुमार ने दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया और अपने संकल्प से अपने माता-पिता को परिचय करवाया। धनकुमार को बहुत समझाया, लेकिन उसने एक की नहीं सुनी। अंत में महामहोत्सवपूर्वक श्रीमद् जयसिंहसूरि ने सोलह वर्ष की वय में वि० सं० १२२६ में धनकुमार को दीक्षा दी और धर्मघोषमुनि उसका नाम रक्खा। दीक्षित हो जाने पर धर्मघोषमुनि विद्याभ्यास में लग गये । चार वर्ष के अल्प समय में ही आपने प्रसिद्ध ग्रंथों का अभ्यास कर लिया और मंत्र-विद्या में अत्यन्त निपुण बन गये। आपके विद्याप्रेम, मंत्रज्ञान और आपका शाकभारी के सामंत शात्रज्ञान को देख कर श्रीमद् जयसिंहसूरि अत्यन्त प्रसन्न हुये और वि० सं० १२३० को. जैन बनाना और में आपको उपाध्यायपद प्रदान किया। अनुक्रम से विहार करते २ वि० सं० १२३४ आचार्यपद की प्राप्ति में श्रीमद् जयसिंहसूरि शाकंभरी में पधारे। नगर में महामहोत्सवपूर्वक आपका प्रवेश हुआ। श्रीमद् उपाध्याय धर्मघोषमुनि भी आपके साथ में थे। युगप्रधान गुरुराज का नगर में आगमन श्रवण कर शाकंभरीसामंत प्रथमराज की राणी भी गुरु के दर्शनार्थ उपस्थित हुई। धर्मघोषमुनि भी वहीं उपस्थित थे। *५० च० में देवरि-प्रबन्ध । जे० सा० सं० इति० पृ० २४७-६(३४३-५)। प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३५२ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहद्गच्छीय श्री धर्मघोषसूरि :: [२१५ सामंत ने उप-प्राचार्य श्री की कीर्ति जब सुनी, वह राणी सहित गुरु और उपाध्याय महाराज के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ। दोनों ने गुरुमहाराज और उपाध्याय श्री को भक्ति-भाव से वंदन किया। गुरु का उपदेश श्रवण करके सामंत ने शिकार नहीं खेलने की, मांस और मदिरा सेवन नहीं करने की प्रतिज्ञा ली और जैन-धर्म अंगीकृत किया । गुरु श्रीमद् जयसिंहरि ने उपाध्याय धर्मघोषमुनि को सर्व प्रकार से योग्य जान कर शाकंभरी में ही आचार्य-पद देने का विचार किया। वि० सं० १२३४ में उपाध्याय श्री को आचार्य-पद महामहोत्सवपूर्वक प्रदान किया गया। इस महोत्सव में सामंत प्रथमराज ने भी एक सहस्र स्वर्ण-मुद्रायें व्यय की थीं। __ श्रीमद् जयसिंहसूरि ने प्राचार्य धर्मघोषसरि को सब प्रकार से योग्य और समर्थ समझ कर अलग विहार करने की आज्ञा देदी । आचार्य धर्मघोषसरि ग्राम-ग्राम और नगरों में भ्रमण और चातुर्मास करके जैनधर्म की आचार्य धर्मघोषसृरि का प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाने लगे। आपकी अद्भुत मंत्र एवं विद्याशक्ति से लोग विहार और धर्म की उन्नति आपके प्रति अधिक आकर्षित होकर आपकी धर्मदेशना का लाभ लेने लगे। आपने अनेक स्थलों में जैन बनाये और अहिंसामय जैन-धर्म का प्रचार किया। वि० सं० १२६८ में श्रीमद् जयसिंहसूरि द्वारा पारकर-प्रदेशान्तर्गत पीलुड़ा ग्राम में प्रतिबोधित लालणजी ठाकुर द्वारा निमंत्रित होकर श्रीमद् आचार्य धर्मघोषसरिजी ने चातुर्मास डोणग्राम में किया। प्राचार्य अपना डोणग्राम में चातुर्मास और उनसठ वर्ष का आयु पूर्ण करके डोणग्राम में स्वर्ग को पधारे । आपके पट्ट पर स्वर्गवास .. श्रीमद् महेन्द्रसूरि विराजमान हुये । धर्मघोषसरि महाप्रभावक आचार्य हुये हैं । वि० सं० १२६३ में इनका बनाया हुआ 'शतपदी' नामक ग्रंथ अति प्रसिद्ध ग्रंथ है। ये प्रसिद्ध वादी भी थे । दिगम्बराचार्य वीरचन्द्रसूरि ने इनसे परास्त होकर खेताम्बरमत स्वीकार किया था । 'धर्मघोष' नाम के अनेक आचार्य भिच्च २ गच्छों में हो गये हैं। एक ही नाम के प्राचार्यों के वृत्तों के पठन-पाठन में पाठकों. को भ्रम हो जाना अति सम्भव है । सुविधा की दृष्टि से उनके नाम संवत्-क्रम से और गच्छवार नीचे लिख देना ठीक समझता हूँ। जै० सा० सं० इति के आधार पर:१. पिप्पलगच्छसंस्थापक शांतिस रिपट्टधर विजयसिंह-देवभद्र-धर्मघोष । इस गच्छ की स्थापना विक्रमी शताब्दी बारह के उत्तरार्ध में हुई। टि० २६६. २. वि० सं०१२५४में जालिहटगच्छ के [बालचन्द्र-गुणभद्र-सर्वानंद-धर्मघोषशिष्य देवसरि ने प्राकृत में पद्मप्रभसरिकी रचना की ४६२ ३. वि० सं०१२६० में बड़गच्छीय (सर्वदेवसू रि-जयसिंह-चन्द्रप्रभ-धर्मघोष-शीलगुणसरि-मानतुंगसरि शि०) मलयप्रम ने 'सिद्ध___ जयंती' पर वृत्ति रची।४६४ ४. वि० सं० १२६१ में चन्द्रगच्छीय चंद्रप्रभसरि-धर्मघोष-चन्द्रेश्वर-शिवप्रभसूरिशिष्य तिलकाचार्य ने 'प्रत्येकबुध-चरित्र' लिखा ४६५ ५. सं०१३२० के आसपास तपागच्छीय धर्मघोषसरि के सदुपदेश से अवन्तीवासी उपकेशज्ञातीय शाह देद पुत्र पेथड़ ने ८० स्थानों में जिनमदिर बनवाये । ५८०, ५८१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [ द्वितीय श्रीमद् तपगच्छनायक विजयसिंहमूरि-पट्टालंकार श्रीमद् सोमप्रभसूरि विक्रमीय तेरहवीं शताब्दी सुधर्मा स्वामी से बयालीसवें पट्टधर आचार्य श्रीमद्विजयसिंहमूरि हुये हैं। इनके पट्टधर श्रीमद् सोमप्रभम्ररि और मणिरत्नमरि हुये । सोमप्रभसरि अधिक प्रभावक एवं प्रसिद्ध विद्वान् थे। इनका जन्म प्राग्वाटवंश में .हुआ था । इनके पिता का नाम सर्वदेव और प्रपिता का नाम जिनदेव था। जिनदेव कुल-परिचय और गुरुवंश आर गुरुवश किसी राजा का मंत्री था । सोमप्रभसूरि ने अल्पायु में ही दीक्षा ग्रहण की थी। ये कुशाग्रबुद्धि एवं कठिन परिश्रमी थे। थोड़े वर्षों में ही ये काव्य, छंद, अलंकार, व्याकरण के उद्भट विद्वान् बन गये तथा संस्कृत-प्राकृत एवं मागधी भाषाओं पर इनका पूरा २ अधिकार हो गया । गुरु विजयसिंहसूरि ने इनको सर्व प्रकार से योग्य समझकर अपना प्रमुख शिष्य बनाया और तदनुसार ये विजयसिंहसरि के स्वर्गगमन के पश्चात् वेतालीसवें आचार्य हुये। ___ श्रीमद् वादी देवसरि और प्रसिद्ध महान् विद्वान् कलिकाल-सर्वज्ञ, गूर्जरसम्राट् कुमारपाल-प्रतिबोधक श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य इनके अभिभावुक थे । गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंहदेव, कुमारपाल, अजयदेव, मूलराज की समकालीन पुरुष और इनकी राज्यसभाओं में इनका सतत् मान रहा । कवि सिद्धपाल तथा आचार्य अजितदेव और प्रतिष्ठा विजयसिंहमूरि जैसे प्रभावक एवं तेजस्वी गुरु विद्वानों का इनको निरन्तर संग प्राप्त रहा । इनके बनाये हुये प्रसिद्ध ग्रन्थ चार हैं। (१) श्रीसुमतिनाथ-चरित्र—यह ग्रन्थ प्राकृत-भाषा में ९८२१ श्लोकों में रचा गया है । ग्रन्थ में उत्तमोत्तम रोचक एवं उपदेशक कथाओं की रचना है। (२) सिंदुर-प्रकर-इसको 'सोमशतक' भी कहते हैं, क्योंकि इसमें सौ श्लोकों की रचना है । इस ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने अहिंसा, सत्य, शील, सौजन्य, क्षमा, दया आदि दिव्य विषयों पर सरल एवं सुन्दर संस्कृत भाषा में बड़े रोचक ढंग से लिखा है। १-५० कल्याणविजयजीरचित श्री तपागच्छपट्टावली। पृ०१५१ २-श्री कुमारपाल-प्रतिबोध की प्रस्तावना (गुजराती) पृ० ५ 'तेस्वादिमाद् विजयसिंहगुरु ४३ र्बभासे, विद्यातपोभिरभितः प्रथमो ऽथ तस्मात् । सोमप्रभो ४४ मुनिपतिविदितः शतार्थीत्यासीद् गुणी च मुगिरलगुरुर्द्वितीयः ॥७७।। गुर्वावली पृ०८ ... 'यम्य प्रथमः शिष्यः शतार्थितया विख्यातः ।। श्री सोमप्रभसरिः, द्वितीयस्तु मणिरत्नसरिया से होती है। यह ग्रंथ प्राकृत में है, परन्तु अन्त की कुछ कथा-कहानया सोपा .श्रीमगिरत्नसरि । जै० स० प्रकाश वर्ष ७ दीपोत्सवी अंक पृ० १४० Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-महाकवि श्रीपाल और उसके पुत्र-पौत्र :: [२१७ (३) शनार्थकाव्य-यह अद्भुत संस्कृतग्रन्थ एक श्लोक का है। श्लोक वसंततिलकावृत्त है । इस श्लोक के सौ अर्थ किये गये हैं । अतः ग्रन्थ शतार्थ-काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ से सोमप्रभसूरि के अगाध संस्कृतज्ञान का तथा प्रखर कवित्व-शक्ति का विशुद्ध परिचय मिलता है। जैन एवं भारतीय संस्कृत-साहित्य का यह ग्रन्थ अजोड़ एवं अमूल्य है तथा बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में भारत की साहित्यिक उन्नति एवं संस्कृतभाषा के गौरव का ज्वलंत उदाहरण है। आपने स्वयं ने उक्त ग्रन्थ की टीका लिखी हैं और चौवीश तीर्थङ्करों, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा नारदादि वैदिक पुरुषों, अपने समकालीन पुरुषबर सम्राट सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल, मूलराज तथा आचार्य वादी देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि और महाकवि सिद्धपाल और अपने स्वयं के ऊपर भिन्न २ प्रकार से अर्थों को घटित किया हैं। (४) कुमारपाल-प्रतिबोध-इस ग्रंथ की रचना आपने सम्राट् कुमारपाल के स्वर्गारोहण के नव या बारह वर्ष पश्चात वि० सं० १२४१ में पत्तन में महाकवि सिद्धपाल की वसति में रहकर ८८०० श्लोकों में की थी। प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य के शिष्य महेन्द्रसूरि तथा वर्धमानगणि और गुणचन्द्रगणि ने कुमारपाल-प्रतिबोध का श्रवण किया था। इस ग्रंथ में उन उपदेशात्मक धार्मिक कथाओं का संग्रह है, जिनके श्रवण करने से पुरुष समार्ग में प्रवृत्त होता है। प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य ने सम्राट् कुमारपाल को कैसे २ उपदेश देकर जैन बनाया—की रूप रेखा बड़ी उत्सम, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक और पौराणिक शैली से दी गई है। श्रीमद् सोमप्रभसूरि व्याख्यान देने में भी बड़े प्रवीण थे। साहित्य की तथा श्रीसंघ की इस प्रकार सेवा करते हुये आपका स्वर्गवास मरुधरप्रान्त में आई हुई अति प्राचीन एवं ऐतिहासिक नगरी भिन्नमाल में हुआ |* कविकुलशिरोमणि श्रीमन्त षड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपाल, महाकवि सिद्धपाल, विजयपाल तथा श्रीपाल के गुणाव्य भ्राता शोभित विक्रम शताब्दी दशवीं-ग्यारहवीं-बारहवीं विक्रम की दशवीं शताब्दी से लगाकर चौदहवीं शताब्दी तक संस्कृत एवं प्राकृत-साहित्य की प्रखर उन्नति हुई और यह काल साहित्योन्नति का मध्ययुगीय स्वर्णकाल कहलाता है । धाराधीप और पत्तनपति सदा सरस्वती गर्जरसम्राटों का साहित्य के परम भक्त, कवि एवं विद्वानों के पोषक और स्वयं विद्याभ्यासी थे। जैसे वे महाप्रेम और महाकवि श्रीपाल प्रतापी, रणकुशल यौद्धा थे, वैसे ही वे तत्त्वजिज्ञासु एवं मुमुक्षु भी थे । अतः उनकी की प्रतिष्ठा राज्य-सभाओं में सदा कवि एवं विद्वानों का सम्मान और गौरव रहा । महाप्रतापी गुर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह भी जैसा समर्थ शासक था, वैसा ही परम सरस्वती भक्त एवं विद्वानों का आश्रयदाता मी था । उसकी राज्य सभा में भी अनेक प्रसिद्ध विद्वान् रहते थे तथा दूर-दूर से विद्वान् आते रहते थे । सम्राट् सिद्धराज *?-जै० सा० सं० इ० पृ० २८२, २८४. २-कु० प्रति० की प्रस्तावना । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय की राज्य सभा के प्रसिद्ध विद्वानों में प्राग्वाटवंशावतंस श्रीलक्ष्मणपुत्र श्रीमंत श्रीपाल महाकवि भी था, जो सम्राट के विद्-मण्डल का प्रधान सभ्य एवं सभापति था। स्वयं सम्राट का यह बाल-मित्र था और सम्राट इसको 'भ्राता' कह कर सम्बोधित करते थे । इसकी प्रखर कवित्व-शक्ति से मुग्ध होकर ही सम्राट ने महाकवि श्रीपाल को कविराज अर्थात् कविचक्रवर्ती जैसी उच्च पदवी से विभूषित किया था। श्रीपाल पर सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों परस्पर विरोधी देवियों की एक-सी अपार प्रीति थी, जो अन्यत्र किसी युग में बहुत कम सरस्वती के भक्तों पर देखने में आई है। श्रीपाल का जैसा विद्वानों एवं सम्राट की राज्व-सभा में मान था, समाज में भी वैसा ही सम्मान था। पत्तन का श्रीसंघ उस समय महान् यशस्वी एवं प्रतापवंत था । यह महाकवि ऐसे पत्तन के श्रीसंघ का प्रमुख नेता था। वादी देवसरि और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य का यह परमभक्त था और उनकी भी इसके प्रति अपार प्रीति ही नहीं, आदर-दृष्टि थी । सम्राट् साहित्यसम्बन्धी कोई कार्य महाकवि श्रीपाल की सम्मति बिना वहीं करता था । बाहर से आने वाले विद्वानों का सम्राट की ओर से आदर-सत्कार करने का उत्तरदायित्व श्रीपाल १-यशचन्द्रकृत 'मुद्रित कुमुदचन्द्रनाटक' में गुजरेश्वर की राजपरिषद का वर्णन देखिये। २-'प्रभाचन्द्रसरिकृत 'श्री प्रभावकचरित्र' में देखो 'श्री देवस रिचरित्र' और 'हेमसरिचरित्र । २-'अये कथं सिद्धभूपालबालमित्र, सूत्रंसकवितायाः कविराजविरुदकमलनाल, श्रीपालमालोकयाम: ?। मुद्रितकुमुदचन्द्रप्रकरणम् पृ८ ३६ ४-अर्बुदाचलस्थ विमलवसति के रंग-मण्डप के एक स्तंभ पर एक मूर्ति का आकार बना हुआ है। इस मूर्ति के नीचे च्या१० पंक्तियों में एक लेख उत्कीर्णित है। जिसमें श्रीपाल कवि का वर्णन है। लेख की केवल चार पंक्तियां ही पढ़ने में आ सकी है। 'प्राग्वाटान्वयवंशमौक्तिकमणः श्रीलक्ष्म (*)णस्मात्मजः, श्रीश्रीपाल कवीन्द्रबन्धुरमलश्चा (*) शालतामण्डपः । श्रीनाभेयजिनाहिपद्मम (*) धुपस्त्यागाद्भुतैः शोभितः श्रीमान् शोभित (*) एष सद्यविभवः (१) स्वरणोंकमासे दिवान्' ।।१।। ..... . प्रा० जै० ले० सं० ले०२७१. उक्त श्लोक के आधार पर और इसके विमलवसति में होने के कारण मु०श्री जिनविजयजी 'द्रौपदी-स्वयंवरम्' नामक नाटक की प्रस्तावना के पृ० २२ पर श्रीपाल को विमलशाह के वंशज होने की संभावना भी करते हैं, परन्तु मेरे निकट यह इतने पर से तो अमान्य है। -'प्राग्वाटान्वयसागरेन्दुरसमप्रज्ञः कृतज्ञः क्षमी, वाग्मी सक्तिसुधानिधानमजनि श्रीपाल नामापुमान् । यं लोकोत्तरकाव्यरंजितमतिः साहित्य विद्यारतिः, श्री सिद्धाधिपतिः कवीन्द्र इति च भ्राते ति च व्याहरत्॥ सोमप्रभसूरि कृत 'श्री सुमतिनाथचरित्र' एवं 'कुमारपाल-प्रतिबोध' ग्रंथों के अन्त में दी गई प्रशस्तियों में।... ६-वादी देवसरि के गुरुभ्राता श्राचार्य विजयसिंह के शिष्य हेमचन्द्र ने 'नाभेय-नेमि-द्विसन्धान' एक प्रबन्धकाम्य लिखा है। उसके अन्तिम पद्य से ऐसा प्रतीत होता है कि उस ग्रन्थ का संशोधन श्रीपाल ने किया था। उस पद्य में श्रीपाल को 'कविचक्रवत्ती एवं 'प्रतिपन्नबन्धु' के विशेषणों से स्पष्ट अलंकृत किया गया है। 'एकाहनिष्पन्चमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती सुधीरिमं शोधितवान् प्रबन्धम् ।। जनहितैषी, भाग १२, सं०६.१० सिक्किमक्तावली और सोमप्रभाचार्य' नामक जिनविजयजी का लेख] ७-'एकाहनि [प] नमहाप्र-धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती प्रशस्तिमंतामकरोत्प्रशस्ताम् ॥३०॥ H. I. G. pit. 1 [बड़नगर-प्रशस्ति] No. 147 १. 'द्रौपदीस्वयंवरम्' की प्रस्तावना में मुनि जिनविजयजी ने श्रीपाल के मान एवं गौरव के उपर अच्छा लिखा है, पढ़ने योग्य है। २. 'प्रभावक-चरित्र में हेमचन्द्र-प्रबन्ध में श्लोक १८२-२०६ देखिये। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # खण्ड ] :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण - महाकवि श्रीपाल और उसके पुत्र-पौत्र [ २१६ पर ही अधिक था । राज्य सभा में होने वाली साहित्यिक चर्चाओं में, विवादों में श्रीपाल अधिकतर मध्यस्थ का कार्य करता था । वह छः भाषाओं का उद्भट विद्वान् था । देववोधि नामक भागवत - सम्प्रदाय का उस समय एक महाविद्वान् था । वह जैसा महान् विद्वान् था, वैसा ही महान् अभिमानी था । एक समय वह अणहिलपुरपत्तन में आया । गूर्जरसम्राट् सिद्धराज के निमन्त्रण पर भी श्रभिमानी देववोधि और उसने राजसभा में जाने से अस्वीकार कर दिया । सम्राट् सिद्धराज और महाकवि श्रीपाल महाकवि श्रीपाल दोनों महाविद्वान् देवबोधि से मिलने गये । देवबोधि ने सम्राट् का यथोचित सत्कार किया और महाकवि श्रीपाल की ओर देखकर पूछा कि यह सभा के अयोग्य अन्धा पुरुष कौन है ? इस पर सम्राट् सिद्धराज ने महिमायुक्त शब्दों में महाकवि श्रीपाल का परिचय दिया कि एक ही दिन में जिस प्रतिभाशाली ने उत्तम प्रबन्ध तैयार किया है और जो कविराज के नाम से विख्यात है वह यह श्रीपाल नामक श्रीमान् गृहस्थ है । इसने दुर्लभसरोवर या सहस्रलिङ्गसरोवर और रूद्रमहालय जैसे प्रसिद्ध स्थानों की अवर्णनीय रसयुक्त काव्यप्रशस्तियाँ की हैं । 'वैरोचन - पराजय' नामक महाप्रबन्ध का यह कर्त्ता है । सम्राट् के मुख से यह सुनकर देवबोधि शर्माया । तत्पश्चात् देवबोधि और श्रीपाल में साहित्यिक चर्चायें और समस्या पूर्त्तियें हुई । देवबोधि ने महाकवि श्रीपाल की दी हुई कठिन तपस्या की पूर्ति कर सम्राट् पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । परन्तु महाकवि श्रीपाल को देवबोधि की निस्पृहता में शंका उत्पन्न हुई। दोनों में वैमनस्य बढ़ता ही गया । देवबोधि मदिरापान करता था । इसका जब पता सम्राट् और विद्वानों को मिल गया तो देवबोधि का राजसभा में प्रभाव बहुत ही कम पड़ गया । ‘सिद्धसारस्वत' नामक उसमें एक अद्भुत गुण था, जो अन्य विद्वानों में मिलना कठिन ही नहीं, असम्भव भी था । प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य इसी गुण के कारण देवबोधि का बड़ा सम्मान करते थे । एक दिन हेमचन्द्राचार्य ने सुअवसर देखकर श्रीपाल महाकवि और देवबोधि में मेल करवाया । देवबोधि के हृदय पर श्रीपाल महाकवि की सरलता एवं सात्विकता का गहरा प्रभाव पड़ा और वह अपने किये पर पश्चात्ताप करने लगा । विक्रम की दसवीं, ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दियों में जैनधर्म की दोनों प्रसिद्ध शाखा श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में भारी कलहपूर्ण वातावरण रहा है। बढ़ते २ वातावरण इतना कलुषित हो गया कि एक शाखा दूसरी शाखा को सर्वथा उखाड़ने का प्रयत्न करने लगी । विक्रम की बारहवीं शताब्दी के सम्राट की राज्य सभा में श्वेताम्बर और दिगम्बर अन्त में श्रीवादी देवसूरि एक श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं। ये अनेक भाषाओं प्रखर शाखाओं में प्रचंड वाद पंडित एवं बाद में अजेय विद्वान् थे। इसी समय दिगम्बर सम्प्रदाय में श्रीमद् और श्रीपाल का उसमें कुमुदचन्द्र नाम के एक महाविद्वान् आचार्य थे । ये अधिकतर दक्षिण में विहार करते यशस्वी भाग थे । कर्णाटक का राजा इनका भक्त था । इन्होंने अनेक वादों में जय प्राप्त की थी। ये वादी चक्रबर्त्ती कहलाते थे । वि० सं० १९८० में उपरोक्त दोनों आचार्यों का चातुर्मास कर्णाटक देश की देवबोधि - "शुक्रः कवित्वमापन्नः, एकाक्षिविकलोऽपिसत् । चतुर्द्वयविहीनस्य युक्ता ते कविराजता" ॥१॥ श्रीपाल - "कुरंग: किं भृंगो मरकतमणिः किं किमशनिः” देवबोधि - "चिरं चित्तोद्याने चरसि च मुखाब्ज पित्रसि च क्षणा देणाक्षणा विषयविषमुद्रा हरसि च । नृपत्वं मानाद्विं दलयसि च किं कौतुककरः । कुरंग किं भृंगों मरकतमणिः किं किमशनि” ॥१॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय राजधानी कर्णावती में था । दोनों प्राचार्यों में वाद होना निश्चित हुआ। गूर्जरसम्राट् सिद्धराज एवं अणहिलपुरपरान के श्रीसंघ के आग्रह पर गूर्जरसम्राट् की राजसभा जहाँ भारत के प्रखर एवं सब धर्मों के विद्वान् सदा रहते थे, वाद करने का स्थान चुनी गई। महाकवि श्रीपाल का प्रयत्न इसमें अधिक था। दोनों सम्प्रदायों में यह प्रतिज्ञा रही कि अगर दिगम्बराचार्य हार जायेंगे तो एक चोर के समान उनका तिरस्कार करके परनपुर के बाहर निकाल दिया जायगा और श्वेताम्बराचार्य हारेंगे तो श्वेताम्बरमत का उच्छेद कर दिगम्बरमत की स्थापना की जायगी। वि० सं० ११८१ वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन गूर्जरसम्राट् की राजसभा में भारी जनमेदनी एवं गूर्जरदेश और अन्य देशों के प्रखर पण्डितों की उपस्थिति में यह चिरस्मरणीय प्रचण्ड वाद प्रारम्भ हुआ । महाकवि एवं कविचक्रवर्ती श्रीपाल वादी देवसरि के मत का प्रमुख समर्थक था और इसने वाद में प्रमुख भाग लिया था। अन्त में श्वेताम्बरमत की जय हुई और इससे कविचक्रवर्ती श्रीपाल का यश, गौरव और प्रतिष्ठा अधिक बढ़ी । पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि श्रीपाल किस कोटि का विद्वान् था और समाज में उसकी कितनी प्रतिष्ठा थी तथा सम्राट् उसका कितना मान, विश्वास करते थे। इन उपरोक्त प्रसंगों से महाकवि श्रीपाल का अगाध चातुर्य एवं उसकी विद्वता, सहिष्णुता, शिष्टता, विचारशीलता एवं उच्चता का परिचय मिलता है। अतिरिक्त इन विशेष गुणों के सम्राट् और श्रीपाल में सचमुच अति प्रेमपूर्ण सम्बन्ध था और श्रीपाल सम्राट का अभिन्न मित्र था भी सिद्ध होता है। सम्राट् सिद्धराज ने जो देवबोधि को महाकवि श्रीपाल का परिचय दिया था, उसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि श्रीपाल की कृतियें निम्नवत् हैं। (१) उत्तम प्रबन्ध (१) (२) दुलर्भसरोवर या सहस्रलिङ्गसरोवर-प्रशस्ति (३) रुद्रमहालय-प्रशस्ति . (४) 'वैरोचन-पराजय' नामक महाप्रबन्ध (५) अत्यन्त प्रसिद्ध बड़नगर-प्रशस्ति । यह प्रशस्ति २६ पद्यों की है। बड़नगर का प्राचीन नाम मानन्दपुर था । सम्राट कुमारपाल ने वि० सं० १२०८ में अति प्राचीन बड़नगर महास्थान के चारों ओर एक सुदृढ़ परिकोष्ट (प्राकार) बनवाया था। महाकवि श्रीपाल ने उक्त परिकोष्ट के वर्णन और स्मरण के अर्थ यह प्रशस्ति रची थी। उनके महाकवि होने का परिचय इस एक कृति से ही भलिविध मिल जाता है। 'Sripala who wrote the prasasti of Sahasralinga Lake was a close associate of the King, who called him 'a brother' G. G. pt III P. 177 श्री पत्तन के श्री-संघ एवं श्वेताम्बर-संघ तथा राज्य सभा में श्रीपाल की प्रधानता थी का परिचय श्री वादी देवसरि और कुमुदचन्द्र के मध्य हुये वाद और देवबोधि का किया गया सत्कार से विशद रूप से मिल जाता है । 'प्रभावकचरित्र' में हेमचन्द्रसरि-प्रबंध 'बाद' का वर्णन अधिक विशद एवं सविस्तार श्रीमद वादी देवसरि का चरित्र लिखते समय दिया गया है। क्यों कि ये भाचार्य प्राग्वाटवंश में उत्पन हुये हैं; अतः प्राग्वाट-इतिहास में इनका चरित्र एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 'द्रौपदीस्वयंवरम्' नाटक की जिनविजयजी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ०८-६ बक्षचन्द्रकृत 'मुद्रित कुमुदचन्द्र नाटक' । यह नाटक इसी वाद को लेकर लिखा गया है। प्रभावक-चरित्र में देवसरि प्रबन्ध 'एकाहविहितस्फीत्रप्रबन्धोऽयं कृतीश्वरः। कविराज इति ख्यातः श्रीपालो नाम भूमिभू॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुए महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-महाकवि श्रीपाल और उसके पुत्र-पौत्र :: [२२१ १(६) 'शतार्थी'–महाकवि ने एक श्लोक के १०० अर्थ करके अपनी विद्वता एवं कल्पनाशक्ति का इस कृति द्वारा सफल परिचय करवाया है । सचमुच यह कृति श्रीपाल को महाकवियों में अग्रगण्य स्थान दिलाने वाली है । (७) श्रीपालकृत २४ चौवीस तीर्थंकरों की २६ पद्यों की स्तुति', यह स्तुति उपलब्ध है । शेष बड़नगरप्रशस्ति के अतिरिक्त कोई कृति उपलब्ध नहीं है ।२ वादी देवसरि के गुरुभ्राता आचार्य विजयसिंह के शिष्य हेमचन्द्र ने 'नाभेय-नेमि-संधान' नामक एक काव्य रचा है, जिसका संशोधन महाकवि श्रीपाल ने किया था । महाकवि पर जैसी कृपा महाप्रतापी गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह की रही, वैसी ही कृपा उसके उत्तराधिकारी अठारह प्रदेशों के स्वामी परमार्हत सम्राट् कुमारपाल की रही। यह स्वयं साधु एवं संतों का परम भक्त एवं जिनेश्वर भगवान् का परमोपासक था । कवि एवं विद्वानों का सहायक एवं आश्रयदाता था। इसके सिद्धपाल नामक पुत्र था । जो इसके ही समान सद्गुणी, महाकवि और गौरवशाली युरुष था । ___महाकवि सिद्धपाल यह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। साधू एवं संतों का सेवक तथा साथी था। कवि और विद्वानों का सहायक, समर्थक, पोषक था । यह जैसा उच्च कोटि का विद्वान् था, वैसा ही उच्चकोटि का दयालु सद्गृहस्थ सिद्धपाल का गौरव और , भी था । सम्राट् कुमारपाल की इस पर विशेष प्रीति थी और यह उसकी विद्वद्-मण्डली प्रभाव में अग्रगण्य था । सन्नाट कभी कभी शांति एवं अवकाश के समय इससे निवृत्तिजनक १- अर्थानुक्रम से- सिद्धराज १, स्वर्ग २. शिव ३, ब्रह्मा ४, विष्णु ५, भवानिपति ६, कार्तिकेय ७, गणपति ८, इन्द्र, वैश्वानर १०, धर्मराज ११, नैऋत १२, वरुण १३, उपवन १४, धनद १५, वशिष्ठ १६, नारद १७, कल्पद्रम १८, गंधर्व १६, दिव्यभ्रमर २०, देवाश्च २१, गरूड़ २२, हरसमर २३, जिनेन्द्र २४, बुद्ध २५, परमात्मा २६, माख्यपुरुष २७, देव-२८, लोकायतपुरुष २६, गगनमार्ग ३०, आदित्य ३१, सोम ३२, अंगारक ३३, युद्ध ३४, बृहस्पति ३५, शनिश्चर ३७, वरुण ३८, रेवन्त ३६, मेष ४०, धर्म ४१, अर्क ४२, कामदेव ४३, मेरु ४४, कैलाश ४५, हिमालय ४६, मंदराद्रि ४७, भूभार ४८, समुद्र - ४६, परशुराम ५०, दाशरथी ५१, बलभद्र ५२, हनुमान ५३, पार्थपार्थिव ५४. युधिष्ठिर ५५, भीम ५६, अर्जुन ५७. कर्णवर ५८, रस ५६, रससिद्धि ६०, रसोत्सव ६१, अवधूत ६२, पाशुपतमुनि ६३, ब्राह्मण ६४. कवि ६५, अमात्य ६६, नौदंडाध्यक्ष विज्ञप्तिका ६७, दूतवाक्य ६८, वर्चरक ६६, वीरपुरुप ७०, नृपराज ७१,नृपतुरंग ७२, वृषभ ७३, करम ७४, जलाशय ०५, दुदुर ७६,भाराम ७७, सिंह ७८, सवृक्ष ७६, सार्थवाह ८०, सायंत्रिक ८१, सत्पुरुष ८२, वेश्यापति ८३, शरत्समय ८४, सिद्धाधिपयुद्ध ८५, प्रति पक्ष ८६, वरणायुद्ध ८७, चोर ८८, जार,प्ट, दुर्जन ६०, शवर ६१, रसातलगम ६२, कमगाधिप६३, महावराह ६४, शेष ६५, वासुकि ६६, कनकचूला ६७ बलिदैत्य ६८, दिग्गज ६६, सारस्वत '१००. श्री अगरचन्द्र नाहटा का लेख. जै०स०प्र० वर्ष०११ अंक १०-११०२८६-७ २-'श्री दुर्लभसरोराजे तथा रुद्रमहालये । अनिर्वाच्यरसैः काव्यैः प्रशस्तिकरोदसौ ॥ महाप्रबन्धं चक्रे च वैरोचनपराजयम् । विहस्य सद्भिरन्यो ऽपि नैवास्य तु किमुच्यते ॥ ५० चि० म० तृ० १० १०३) पृ०६४, चालुक्यवंशाना लेखो पृ०४१ बड़नगर प्रशस्ति नं०१४७. H. I.G.pt.॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ । :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय आख्यान सुना करता था । इसका जैसा मान एवं प्रभाव राज्यसभा में था, वैसा ही प्रभाव बाहिर भी था । गिरनार - तीर्थ की यात्रा करके जब सम्राट् कुमारपाल लौटा और एक दिन राज्य सभा में गिरनारपर्वत के ऊपर सीढ़ियां बनवाने का उसने प्रस्ताव रक्खा, उस समय इसने एक पद्य रचकर महामात्य उदयन मन्त्री के पुत्र सेनापति आम्र की प्रशंसा में कहा । आम्र ने तुरन्त गिरनारतीर्थ पर सीढ़ियाँ बनवाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । यह घटना इसके प्रभाव और धर्म-प्रेम को प्रकट करती है तथा इसके गौरव को बढ़ाती है । सोमप्रभाचार्य का वर्णन पूर्व दिया जा चुका है । इन्होंने 'सुमतिनाथचरित्र' और प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कुमारपाल - प्रतिबोध' सिद्धपाल की पौषधशाला में रहकर लिखे थे । इस द्वितीय ग्रंथ की रचना वि० सं० १२४१ में पूर्ण हुई थी । इससे सिद्ध होता है कि वह श्रीमंत था, विद्वानों का आदर करने वाला था और आप सिद्धपाल और सोमप्रभाचार्य स्वयं महाविद्वान् था | इसमें एक अद्भुत गुण यह था कि वह दूसरों की उन्नति देखकर सदा प्रसन्न होता था तथा उनको सहाय देता और उनका उत्साह बढ़ाता था । जब प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य के सदुपदेश से गूर्जरसम्राट् कुमारपाल ने सिद्धपाल में एक अद्भुत गुण एक बहुत बड़ा सत्रागार (दानशाला) खोला और उसका कार्यभार श्रीमालकुलावतंस और उसकी कवित्वशक्ति नेमिनाग के पुत्र अभयकुमार श्रेष्ठि को समर्पित किया गया, तब अभयकुमार का न्याय, चातुर्य एवं दयालुतापूर्ण सुप्रबन्ध देखकर सिद्धपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उच्चकोटि के दो पद्य बनाकर उसकी पूरी २ प्रशंसा की । इन पद्यों से सिद्धपाल की कवित्वशक्ति का भी परिचय मिल जाता है । सिद्धपाल की जैसी प्रतिष्ठा गूर्जरसम्राट् कुमारपाल के समय में रही, वैसी ही उसके उत्तराधिकारी सम्राट् अजयपाल, मूलराज और द्वितीय भीमदेव के शासन समयों में अक्षुण्ण रही। दुःख यह है कि ऐसे सद्गुणी, सद्गृहस्थ, क्षमाशील, दयालु, परोपकारी, विद्याप्रेमी, गूर्जरसम्राट् की विद्वद्मण्डली का भूषण, गूर्जरसम्राटों के प्रीतिपात्र महाकवि सिद्धपाल की प्रकीर्ण कृतियों के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र कृति प्राप्त नहीं है । सिद्धपाल के विजयपाल नाम का पुत्र था । वह भी महाकवि हुआ । 'सुनस्तस्य कुमारपालनृपतिप्रीतेः पदं धीमतामुत्तंसः कविचक्रमस्तकमणिः श्रीसिद्धपाली ऽभवत् । यं० व्यालोक्य परोपकार करुणा सौजन्यसत्यक्षमा दाक्षिण्यैः कलितं कलौ कृतयुगारंभो जनैर्मन्यते ' ॥ सु मतिनाथ चरित्र की प्रशस्ति कुमारपाल - चरित्र 'कइयावि निव-नियुक्तो कहइ कह सिद्धपाल कई । 'जंपइ सहा - निसन्नो सुगमं पज्जं गिरिम्मि उज्जिते । को कारविंड सक्को ? तो भणि सिद्धवाले || . प्रष्ठा वाचि प्रतिष्ठा जिनगुरुचरण भोजभक्तिर्गरिष्ठा, श्रेष्ठा ऽनुष्ठाननिष्ठा विषयसुखर सास्वादसक्तिस्तवनिष्ठा । बहिष्टा त्यागलीला स्वमतपरमतालोचने यस्य काष्ठा, धीमरनाम्रः स पद्य रचयितुमचिरादुज्जयन्ते नदीष्णः ॥ देव-गुरु-ण-परो परोव यारुज्ज श्री दया-पवरो । दक्खो दक्खिन-निही सच्चो सरलास एसो ॥ क्षिप्त्वा तोयनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो । रेखावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं वद्ध्वा सुवर्णाचलः ॥ दमामध्ये च धनं निधाय धनदो विभ्यत्परेभ्यः स्थितः । किं स्यात्तैः कृपणैः समो ऽयमखिलार्थिभ्यः स्वर्मथं ददत् ॥ कु० प्र० सोमर ने वि० सं० १२४१ में 'कुमारपाल - प्रतिबोध' की रचना महाकवि सिद्धपाल की वसति में रह कर पूर्ण की थी से सिद्ध है कि महाकविक संवत् तक जीवित था । Page #396 --------------------------------------------------------------------------  Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि श्रीपाल के भ्राता शोभित और उसका परिवार। देखिये पृ० २२२ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०-ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० देशल :: [ २२ विजयपाल विजयपाल गुर्जरसम्राट् द्वितीय भीमदेव के समय के प्रसिद्ध विद्वानों में था। इसने द्वि अंकी 'द्रौपदी स्वयंवरम् नामक नाटक संस्कृत में लिखा है, जो सम्राट की आज्ञा से त्रिपुरुषदेव के सामने वसन्तोत्सव के शुभावसर पर अणहिलपुरपत्तन में खेला गया था। जिसे देखकर प्रजाजन अति प्रमुदित हुये थे । इस महाकवि की भी उपरोक्त कृति के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं है। यह भी अपने पिता, प्रपिता के सदृश ही श्रीमान् एर्ष राजमान्य था। महाकवि श्रीपाल का भ्राता श्रे० शोभित महाकवि श्रीपाल का भ्राता श्रे० शोभित था । श्रे० शोभित अति दानवीर एवं जिनेश्वर का परम भक्त था। उसने अपने जीवन में अनेक पुण्य के कृत्य किये और मर कर अमर कर्ति को प्राप्त हुआ। उसकी स्त्री का नाव श्रे० शोभित और उसका शांतादेवी और पुत्र का नाम आशुक था । श्रे० आशुक ने अर्बुदाचलस्थ श्री विमलपरिवार वसतिका नामक श्री आदिनाथचैत्यालय की हस्तिशाला के समीप के सभामण्डप के एक स्तंभ के पीछे एक छोटा प्रस्तर-स्तंभ स्थापित करवाया, जिसमें श्रे० शोभित, उसकी स्त्री शान्ता और अपनी (आशुक) मूर्तियाँ उत्कीर्णित करवाई और जिसके पीछे के भाग में श्रे० शोभित की अश्वारूढ़ प्रतिमा अंकित करवाई। यह छोटा प्रस्तर-स्तंभ आज भी विद्यमान है। न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ श्रेष्ठि देशल वि० सं०.११८४ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में अणहिलपुरपतन में प्राग्वाटज्ञातीय सर्वदेव नामक एक प्रति प्रसिद्ध श्रावक रहता था । उसका कुल बड़ा गौरवशाली और सम्पन्न था। दोनों स्त्री-पुरुष श्रावकाचार के अनुसार जीवन यापन 'प्राग्वाटाहयवंशमौक्तिकमरोः श्रीलक्ष्मणस्यात्मजः श्रीश्रीपालकवीन्द्रबन्धुरमल प्रज्ञालतामण्डपः। श्रीनाभेयजिनाहिपद्ममधुपस्त्यागाद्भुतैः शोभितः श्रीमान् शोभित एष पुण्यविभधैः स्वलोकमासेदिवान् ॥१॥ चित्तोत्कीर्णगुणः समग्रजगतः श्रीशोभितः स्तंभकोत्कीर्णः शांतिकया समं यदि तया लक्ष्म्येव दामोदर । पुत्रोणाशुकसंज्ञकेन च धृतप्रधम्नरूपं(प)श्री(श्रि,या सार्ध नंदत, यावदस्ति वसुधा पाथोधिमुद्रांकिता ॥२॥ अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले० २२. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . :प्राग्वाट-इतिहास:: - [द्वितीय करते थे और धर्म-ध्यान में तल्लीन रहते थे । मंझुल नामक उनके एक पुत्र था । झंझुल भी अपने पिता सर्वदेव और माता महिमावती के सदृश ही गुणवान् और शुद्धव्रती श्रावक था। झंझुल की स्त्री पूर्णदेवी थी। इनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। प्रथम पुत्र देहड़ और द्वितीय देशल था । मोहिनी और पुनिणी नाम की दोनों पुत्रियाँ थीं। वैसे चारों भाई-बहिन स्वभाव से सुन्दर और गुणों की खान थे। परन्तु इन सब में देशल अधिक सहृदय और धार्मिक वृत्ति का था। वह महान् गंभीर, धैर्यवान् , शान्त, सौम्य और अति उदारात्मा था । उसने न्याय से उपार्जित द्रव्य का अनेक पुण्यकार्य कर के सदुपयोग किया था। स्थिरदेवी नामकी शीलगुणसम्पन्ना उसकी बी थी। यशहड़ (बाहड़), सूलण, रामदेव और आल्हण नामक इसके चार पुत्र हुये। इस समय अणहिलपुरपत्तन अपनी उन्नति के शिखर पर था। महाप्रतापी सिद्धराज जयसिंह गुर्जर सम्राट का राज्यकाल था। वि० सं० ११८४ माघ शु० ११ रविवार को श्रेष्ठि देशल ने अपने पुत्र यशहड़, मूलण और रामदेव के कल्याणार्थ श्रीमद् अभयदेवसरि द्वारा टीकाकृत 'श्रीज्ञाताधर्मसूत्रवृत्ति' नामक अंग को ताड़पत्र पर लिखवाया । इसी प्रकार देशल ने अन्य भी अनेक ग्रंथों की प्रतियाँ लिखवायीं और साधु, मुनिराजों को अर्पित की तथा भंडारों में भेंट की ।* वंशवृक्ष सर्वदेव [महिमावती] झंझुल [पूर्णदेवी] देहद देशल स्थिरदेवी] . मोहिणी पुषिणी यशहड वाहड़ा लण रामदेव यशहड़ (बाहड़) रामदेव श्रान्हण . श्रेष्ठि धीणाक वि० सं० ११६. विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय पूर्णदेव हो गया है। उसके सलपण, वरदेव और जिनदेव बाम के तीन पुत्र थे। सलषण बचपन से ही धर्मवृत्ति का था। उसने बड़े होकर जगच्चन्द्रसरि के करकमलों से जिनेन्द्रदीक्षा ग्रहण की और मुनि ज्ञानचन्द्र (धानचन्द्र) उसका नाम पड़ा। पूर्णदेव का दूसरा पुत्र वरदेव था। . . *५० सं० प्र० भा० ता० प्र०२७ पृ० २२-२४ (श्री ज्ञाताधर्मसूत्रवृत्ति) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स] : न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०-शा० सद्गृहस्थ-श्रे० धीणाक :: [२२५ बरदेव की स्त्री वान्हावि नामा थी । वाल्हावि लक्ष्मीस्वरूपा स्त्री थी । उसके सादल और वज्रसिंह नाम के पुत्र और सहजू नाम की सुशीला पुत्री उत्पन्न हुई । बड़े पुत्र साढ़ल का विवाह राणदेवी नामा एक सती-साध्वी कन्या से हुआ । साढ़ल को महासती राण से पाँच पुत्रों की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ पुत्र धीणा था । धीणा शुद्धात्मा और धर्मबुद्धि था। अन्य पुत्र क्षेमसिंह, भीमसिंह, देवसिंह, महणसिंह क्रमशः उत्पन्न हुये। पाँचों पुत्र बड़े धर्मात्मा और उदार हृदया थे। इनमें से दूसरे और चौथे पुत्र क्षेमसिंह और देवसिंह ने श्रीमद् जगच्चन्द्रसूरि के कर-कमलों से दीचा ग्रहण की पत्र धीणा का विवाह कडू नामा कन्या से हुआ था। कड के मोद नामक पुत्र हुआ। धीया के दो भ्राता तो दीक्षा ले चुके थे। जैसे वे धर्मवृत्ति थे, वैसा ही धीणा भी दृढ़ धर्मी और साहित्यसेवी था। एक दिन गुरु जगच्चन्द्रसरि का सदपदेश श्रवण कर इसको स्मरण आया कि भोग और यौवन चंचल एवं अस्थिर हैं। ज्ञानी इनकी चंचलता से सदा सावधान रहते हैं और अपने धन और अपनी देह का सदुपयोग करने में सदा तत्पर रहते हैं। बृहद्मच्छीय श्रीमद् नेमिचन्द्रमरिकृत 'श्री आख्यानमणिकोश' की वि० सं० ११६० में श्रीमद् नेमिचन्द्रसूरि के प्रशिष्य विद्वद्प्रवर श्रीमद् आम्रदेवसरि ने वृत्ति लिखी और श्रेष्ठि धीणा ने 'श्री आख्यानमणिकोशसवृत्ति' को विद्वानों के पढ़नार्थ ताड़-पत्र पर लिखवाकर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया। यह प्रति इस समय खम्भाव के श्री शान्तिनाथ-प्राचीन ताड़पत्रीय जैन ज्ञान-भण्डार में विद्यमान है। वंश-बृक्ष पूर्णदेव सलषण वरदेव [वाल्हावि जिनदेव साढ़ल (राणदेवी) ....."सिंह वज्रसिंह सहजूकुमारी धीणा [कड़ -चेमसिंह भीमसिंह देवसिंह महणसिंह श्री खं० शा० प्रा० ता० जै० ज्ञा० भ० (सूची-पत्र) पृ०१६ प्र०सं० प्र०भा० ता०प्र० ३५ पृ) २६, २७ । जै० पु.प्र. सं० प्र०६० पृ०८३ . (श्री आल्यानमरिएकोशसवृत्ति) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीच श्रेष्ठि मंडलिक वि० सं० ११६१ प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० पूनढ़ की स्त्री तेजूदेवी की कुक्षी से श्रे. मंडलिक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। • मंडलिक ने अमहिलपुरसत्तनाधीश्वर गुर्जरसम्राट सिद्धचक्रवर्ती श्री जयसिंह के राज्यकाल में कि० सं० ११६१ फाल्गुण शु० १ शनैश्चरवार को भद्रबाहुस्वामीकृत 'आवश्यकनियुक्ति' की प्रति लिखवाकर ज्ञान-मंडार में स्थापित करवाई।। श्रेष्ठि वैल्लक और श्रीष्ठि वाजक वि० सं० ११६६ विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे वकुल अत्यन्त ही प्रसिद्ध धर्मात्मा पुरुष हुआ है । वह बड़ा ही संतोषी और उदार था । उसकी निर्मल बुद्धि की प्रशंसा दूर २ तक फैली हुई थी। वैसी ही गुणवती एवं सीता के सदृश पतिपरायणा लक्ष्मीदेवी नामा उसकी धर्मप्रिया थी। दोनों धर्मिष्ठ पति-पत्नी के वैल्लक, वाजक (या वीजल) और वीरनाग नामक तीन अत्यन्त गौरवशाली पुत्र हुये थे। श्रे० वैल्लक कमल के समान हृदय का निर्मल, कुलकीर्ति का आधार, मधुरभाषी, साधुमना, दानवीर और परमदयालु श्रावक था । श्रे० वैल्लक का छोटा भ्राता वाजक भी सद्धर्मसेवी, बुद्धिमान, संतोषी, ज्ञानाभ्यासी, प्रसन्नाकृति, परहितरत और जिनेश्वरदेव का परमोपासक था। तृतीय वीरनाग भी महागुणी, धर्मात्मा एवं सज्जनहृदयी था। इनके वैल्लिका नामा भगिनी थी और इनके पिता वकुल की बहिन जाउदेवी नामा इनकी भुवा थी। श्रे० वैल्लक की स्त्री का नाम शितदेवी था, जो अति ही सुशीला, हृदयसुन्दरा और विवेकमती थी। श्रे० वाजक के दो स्त्रियाँ चाहिणी और शृंगारदेवी नामा थीं। दोनों भ्राता श्रे० वैल्लक और वाजक ने वि० सं० ११६६ आश्विन कृष्ण पक्ष में रविवार को श्री देवभद्रसरिरिचित 'श्री पार्श्वनाथ-चरित्र' को गौड़गोत्रीय आशापल्लीवासी कायस्थ कवि सेल्हण के पुत्र कवि वल्लिग द्वारा ताड़पत्र पर लिखवाया 12 1-D. C. M. P. (G. O. S Vo. No. LXXVI) P. 55 2-D.C.M.P. (G.O.S.Vo. LXXVI) P. 219, 220. (365) Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० यशोदेव : [२२७ श्रोष्ठिः यशोदेव वि० सं० १२१२ विक्रम की बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अति गौरवशाली, विश्रुत, यशस्वी एवं राजमान्य प्राग्वाटवंश में बनीहिल नामक एक रूपातनामा श्रावक हो गया है । उसके धनदेव नामक अति गुणवान् और मितभाषी पुत्र था । धनदेव की स्त्री इन्दुमती थी, जो सचमुच ही नरलोक में चन्द्रिका की प्रतिमा थी। इन्दुमती के गुणरत्न नामक यशस्वी पुत्र हुआ । गुणरत्न का पुत्र यशोदेव था। यशोदेव अपने पूर्वजों की ख्याति और कुल के गौरव को बढ़ाने वाला हुआ । वि० सं० १२१२ आषाढ़ कृष्णा १२ गुरुवार को श्रीमद् धर्मधोषमुरि की निश्रामें रहकर विद्या प्राप्त करने वाले उनके शिष्यशिरोमणि तथा श्रीमद् विमलसूरि के शिष्य श्रीमद् चन्द्रकीर्तिगमि ने 'श्रीसिद्धान्तसारसमुच्चय' नामक ग्रन्थ लिखा, जिसकी प्रति यशोदेव ने देवप्रसाद नामक लेखक से ताड़पत्र पर लिखवाई। ___ यशोदेव के प्रांवि नाम की स्त्री थी। वह अति उदारहृदया थी। सती के समस्त गुण उसमें विद्यमान थे। उसकी कुक्षी से उधरण, आंबिग और वीरदेव नामक तीन पुत्र और सोली, लोली और सोखी नामा तीन पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। वंश-वृच वनीहिल धनदेव [इन्दुमती] गुणरत्न यशोदेव [वि - उधरन आम्बिग वीरदेव सोली लोली सोखी प्र०सं० प्र०भा०ता० प्र०४१पृ. ३५ (श्री सिद्धान्तसारसमुच्चय) . .. .. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: श्रेष्ठ जिह्वा वि० सं० १२१२ विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अन्त में प्राग्वाटज्ञातीय विमलतरमति विश्वविख्यात कीर्तिशाली श्रे० वाहल नामक जिनेश्वरभक्त एवं न्यायशील सुश्रावक हो गया है । उसकी गुणगर्भा साधुशीला जिनमती नामा गृहिणी थी । श्राविका जिनमती के दो पुत्र उत्पन्न हुए थे । ज्येष्ठ पुत्र अक्षदेव था । श्रे० अक्षदेव की स्त्री भोयणीदेवी थी । दोनों पति-पत्नी परम जिनेश्वरभक्त, अति दयालु और धर्मात्मा थे । वे सदा दीन- श्रनाथ जनों की सहायता करते थे । उनके यशोदेव, गुणदेव और जिह्वा नामक तीन अति गुणशाली पुत्र और जासीदेवी नामा पुत्री थी । श्रे० जिह्वा तीनों भ्राताओं में अधिक धर्मी और उदारचेता पुरुष था । वह शास्त्राभ्यास का बड़ा प्रेमी था । उसने उमता नामक व्यास के द्वारा श्री 'आवश्यकनियुक्ति' वि० सं० १२१२ मार्ग० शु० १० रविवार को लिखवाई श्रेष्ठि राहड़ वि० सं० १२२७ द्वितीय विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्रतिष्ठित एवं गौरवशाली प्राग्वाटज्ञातीय एक कुल में सत्यपुर नामक नगर में सिद्धनाग नामक एक विशिष्टगुणी श्रावक हो गया है। उसके पति नामा पतिपरायणा स्त्री थी । इस स्त्री के प्रतिष्ठित चार पुत्र हुये | ज्येष्ठ पुत्र पोढ़क और उससे छोटे क्रमश: वीरड़, वर्धन और द्रोणक थे । चारों भ्राताओं ने दधिपद नामक नगर में श्री शांतिनाथ जिनालय में पीतल की स्वर्ण जैसी सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । ज्येष्ठ पोढ़क बृहद् परिवारवाला हुआ । उसके अम्बुदत्त, आम्बुवर्धन, सज्जन नाम के तीन पुत्र और यशश्री और शिवा नाम की दो पुत्रियाँ हुई । तृतीय पुत्र सज्जन की स्त्री महलच्छिदेवी की कुक्षी से पाँच पुत्र धवल, वीशल, देशल, राहड़ और बाहड़ तथा शान्तिका और धांधिका नामक दो पुत्रियाँ हुई । श्रेष्ठ सज्जन ने श्री पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की निर्मल प्रस्तर की दो प्रतिमायें अपने भ्राता के श्रेयार्थ विनिर्मित करवा कर मड्डाहृत नाम के नगर के महावीरजिनालय में प्रतिष्ठित कीं। इस समय श्रे० सज्जन मड्डाहत नगर में ही रहने लग गया था । श्रेष्ठ धवल सज्जन का ज्येष्ठ पुत्र था । श्रे० धवल की स्त्री का नाम भल्लिणी था । उसके दो प्रसिद्ध पुत्र वीरचन्द्र और देवचन्द्र तथा एक पुत्री सिरी हुई। वीरचन्द्र के विजय, अजय, राजा, यावं और सरण नाम के *D. C.M. P. (G, 0. S. Vo. LXXVI) P. 150 (231) जै० पु० प्र० सं० ता० प्र० ७३ पृ० ७०-७१ (आवश्यकर्नियुक्ति ) Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० राहड़ : [ २२६ पाँच पुत्र हुये । देवचन्द्र के देवराज नाम का एक ही पुत्र हुआ। श्रे० वीशल और देशल दोनों धवल से छोटे भाई थे । इन दोनों भ्राताओं के कोई सन्तान नहीं हुई। श्रे० बाहड़ राहड़ से छोटा और धवल का पाँचवा भ्राता था। वह अत्यधिक जनप्रिय हुआ । उसके जिन मती नाम की स्त्री थी । जिनमती की कुक्षी ने जसडक नाम का पुत्र हुआ । श्रे० सज्जन के पाँचों पुत्रों में श्रे० राहड़ अधिक गुणी, बुद्धिमान् , सुशील, उदार, सुजनप्रिय, ख्यातनामा और बृहद् परिवारवाला हुआ । वह नित्य प्रभुपूजन करता, सविधि कीर्तन करता, साधुभक्ति करता और व्याख्यान श्रवण करता था तथा नित्य नियमित रूप से दान देता और शक्ति अनुसार तपस्या करता था। वह शीलव्रत में अडिग और परिजनों को सदा प्यार करने वाला था। राहड़ की स्त्री देमति थी, जो सचमुच ही देवमति थी। वह राहड़ को धर्मकार्य में अति बल और सहयोग देनेवाली हुई । देमति के चार पुत्र चाहड़, वोहड़ि, आसड़ और आसाधर हुये । इन चारों पुत्रों की क्रमशः अश्वदेवी, माढदेवी, तेजूदेवी और राजूदेवी नाम की स्त्रियाँ थीं, जिनसे यशोधर, यशोवीर और यशकर्ण नाम के पौत्रों की और घेउयदेवी, जासुकादेवी और जयंतुदेवी नाम की पौत्रियों की श्रे० राहड़ को प्राप्ति हुई। श्रे० राहड़ विशेषतः बुद्धिमान्, सुजन-प्रिय, सुशील धर्मात्मा एवं उदारात्मा था । वह बड़ा दानी था । धर्मपर्वो पर दान करता था । वह नित्य नियमित रूप से सविधि प्रभुपूजन-कीर्तन करता और गुरु का उपदेश श्रवण करता था । दान देना और तप करना तो उसका स्वभाव हो गया था। शीलव्रत के पालन करने में वह विशेषतः विख्यात था। जैसा वह धर्मात्मा एवं गुणी था उसकी स्त्री देमति भी वैसी ही धर्मार्थिनी, पवित्रशीलशालिनी, पतिपरायणा और निराभिमानिनी थी। दोनों पति-पत्नी अतिशय धर्माराधना करते और दुःखी एवं दीनों की सहायता करते और सुखपूर्वक दिवस व्यतीत करते थे। इनके पुत्र, पुत्रवधूयें तथा पौत्र भी वैसे ही गुणी और सदाशय थे । राहड़ के द्वितीय पुत्र वोहड़ि की मृत्यु आकस्मातिक एवं असामयिक हुई। राहड़ को इस मृत्यु से बड़ा भारी धक्का लगा और वह संसार से ही विरक्त एवं उदासीन-सा रहने लगा तथा अपने द्वारा न्यायोपार्जित द्रव्य का धर्मकार्यों में अधिकाधिक सदुपयोग करने लगा । उसको जीवन, यौवन, सुन्दर शरीर और सम्पति आदि सर्व महामेघ के मध्य में स्थित एक क्षुद्र एवं चंचल जलबिंदु से प्रतीत होने लगे । दान, शील, तप और भावनायुक्त श्री जिनेश्वर-धर्म का पालन ही एकमात्र सद्गति देने वाला है, ऐसा दृढ़ निश्चय करके उसने देवचन्द्रमूरिरचित 'श्रीशांतिनाथचरित्र' की प्रति ताड़-पत्र पर विक्रम संवत् १२२७ में लिखवाई, जिसकी प्रशस्ति श्रीमद् चक्रेश्वरसूरिशिष्य श्रीमद् परमानन्दसरि ने लिखी । इस समय अणहिलपुरपत्तन में गुर्जरसम्राट् कुमारपाल का राज्य था । राहड़ ने श्रीशांतिनाथ भ० की सत्पीतल की सुन्दर प्रतिमा विनिर्मित करवाई और उसको अपने गृहमन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई। ___D.C.M. P. (G.0. S.VO.No. LXXVI) P. 224-7 । पृ० २२४ पर सिद्धनाग के स्थान पर सिंहनाग, अंपति के स्थान पर प्रदपिनी, पोढ़क के स्थान पर गाढ़ लिखा है । इसी प्रकार कुछ अन्य व्यक्तियों के नामों में भी अन्तर है । जै० पु०प्र० सं० पृ० ५ (शांतिनाथ-चरित्र) प्र०सं० प्र० भा० ता०प्र०११२ पृ०७१ से ७४ (श्री शांतिनाथचरित्र) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्राम्बाढ-इतिहास: [द्वितीय वंशवृक्ष .. सिद्धनाग (सिंहनाग) [विनी] | पोढ़क वीरड़ वर्धन द्रोणक बांधुदत्त आंबुवर्धन सज्जन [महलच्छिदेवी] . यशाश्री शीवादेवी धवल [भल्लणी] वीशल देशल राहड़ [दमती] वाहड़ [जिनमति] शान्तिकादेवी धांधिकादेवी जसडक वीरचन्द्र देवचन्द्र सरी देवराज विजय अजय राज आंच सरण : चाइड अवदेवी] बोहकि भादू देवी] . आसक तिब्देवी आशाधर [राज्दे] प्र०सं० । जै० पु०प्र०सं० और D.C.M.P. इन तीनों पुस्तकों में यह प्रशस्ति मुद्रित है। प्रायः अधिक पुरुषों के नाम में थोड़ा २ अन्तर है। जै० पु० प्र०सं० में प्रदत्त प्रशस्ति में उल्लिखित नाम अधिक उचित प्रतीत होते हैं, अतः उस प्रशस्ति के अनुसार ही व्यक्तियों के नाम दिये हैं। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०मा० सद्गृहस्थ-श्रे० रामदेव :: [ २३९. श्रेष्ठि जगतसिंह वि० सं० १२२८ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में गूर्जरसम्राट् कुमारपाल के राज्यकाल में प्राग्वाटज्ञातीय उ० कटुकराज प्रसिद्ध पुरुष हो गया है । उसके ठ० सोलाक नामक पुत्र और राजूदेवी नामा पुत्री थी। श्राविका राजूदेवी के पुत्र श्रे. जगतसिंह ने वि० सं० १२२८ श्रावण शु० १ सोमवार को देवेन्द्रसुरिकृत १. कर्मविपाकवृत्ति २. योगशास्त्र ३. वीतरामस्तवन को अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का व्यय करके लिखवाये ।। श्रोष्ठि रामदेव वि० सं० १२३६ विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध पुरुष सहवू हो गया है । श्रे० सहन बड़ा मुखी और धर्मात्मा पुरुष था । उसकी स्त्री का नाम गाजीदेवी था। वह बड़ी ही चतुरा, सुशीला और धर्मकर्मरता स्त्रीशिरोमणी नारी थी। श्रा० गाजीदेवी के मणिभद्र, शालिभद्र और सलह नामक तीन पुत्र थे। श्री. मणिभद्र की स्त्री का नाम बाचीवाई था, जो अति गुणवती स्त्री थी। श्रा० बाबीबाई के वेल्लक नामक पुत्र और सहरि नामको शीलगुणधारिणी कन्या थी। श्रे. शालिभद्र की स्त्री का नाम थिरमति था, जिसकी कुक्षी से धवल; वेलिग, यशोधवल, रामदेव, ब्रह्मदेव और यशोदेव नामक छः पुत्र और वीरीदेवी नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी। श्रे० धवल का पुत्र रासदेव बड़ा ही विवेकशील था । श्रे० वेलिग का पुत्र रासचन्द्र भी बड़ा ही कलावान् था । श्रे० रामदेव ने चन्द्रगच्छीय श्रीमद् अभयदेवसरि के पट्टधर हरिभद्रसरि के शिष्यवर अजितसिंहमूरि के शिष्यवर हेमसरि के चरणसेवक श्रीमद् महेन्द्रप्रभु के शास्त्रोपदेश को श्रवण करके श्री नेमिचन्द्रसरिकृत 'श्रीमहावीरचरित्र' को वि० सं० १२३६ ज्येष्ठ शुक्ला १४ शनिश्चर को ताइपत्र पर लिखाया और उस मनोहर अति को श्रद्धापूर्वक श्रीमद् भुवनचन्द्रगति को समर्पित की। 1-D. C. M. P. (G. O. S. VO. No. LXXVI.) P. 104, 105, (158, 159) 2-D.C.M.P. (G.O. SVo. No. LXXVI) P.286-7 (37) . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय वंश-वृक्ष सहवू [गाजीदेवी] मणिभद्र [बाबी] शालिभद्र [थिरमति] सला सलह । वेलक सहरि धवल वेलिग यशोधवल रामदेव ब्रह्मदेव यशोदेव वीरीदेवी । रासदेव रासचन्द्र ठ. नाऊदेवी वि० सं० १२६१ अणहिलपुरपत्तन के महाराज गूर्जरसम्राट भीमदेव द्वि० के विजयराज्यकाल में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि धवलमह की पुत्री श्राविका ठ० नाऊ ने अपने श्रेयार्थ पं० मुजाल से मुंकुशिका नामक स्थान में श्रीमानतुंगमरि कृत 'श्रीसिद्धजयन्तीचरित्र' नामक ग्रन्थ की वृत्ति, जिसको श्रीबड़गच्छीय भट्टारक मलयप्रभसूरि ने लिखा था वि. सं० १२६१ आश्विन कृ. ७ रविवार को लिखवाकर श्रीमद् अजितदेवसूरि को भक्ति पूर्वक समर्पित की। नाऊदेवी का अपर नाम रत्नदेवी भी था । यह गुण रूपी रत्नों की खान थी; अतः रत्नदेवी कहलाती थी। इसका पाणिग्रहण पत्तनवास्तव्य प्राग्वाटकुलावतंस जैन समाजाग्रगण्य अं० श्रीपाल की सती स्वरूपा पत्नी श्री देदी के कुक्षीं से उत्पन्न द्वि० पुत्र यशोदेव के साथ हुआ था। यशोदेव के बड़े भ्राता का नाम शोभनदेव था। शोभन के सहवदेवी और महणूदेवी नाम की दो पत्नियां थीं । श्रे० शोभन के सोढ़ नामा पुत्री थी ।* श्रेष्ठि धीना वि० सं० १२६६ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० धीना एक प्रसिद्ध धनवान् पुरुष हो गया है । उसके पद्मश्री और रामश्री नामा दो स्त्रियाँ थीं। पासचन्द्र नाम का एक पुत्र हुआ । पासचन्द्र के गुणपाल नामक पुत्र ०सं० प्र०भा० ता०प्र०८५ पृ० ५४ (सिद्धजयन्तीचरित्र) जै० सा० सं० इति० पृ० ३४०, ३४३। जै० प्र० सं० प्र०२३६३०२४ (जयन्तीवृत्ति) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०क्षा सद्गृहस्थ-पा० सुहहादेवी :: [ २३३ था। एक दिन श्रे० धीना ने श्रीमद् देवेन्द्रमुनि का सदुपदेश श्रवण किया। इस उपदेश को श्रवण करके उसने ज्ञानदान का माहात्म्य समझा और अपने स्वोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करके उसने पंडितजनों के वाचनार्थ श्री 'उत्तराध्ययनलघुत्ति' नामक ग्रन्थ की एक प्रति ताड़पत्र पर वि० सं० १२६६ चैत्र कृ० १० सोमवार को लिखवाई और वि० सं० १३०१ आ. शु० १२ शुक्रवार को 'श्रीअनुयोगद्वारवृत्ति' और शु० १५ को 'अनुयोगद्वारसूत्र' की प्रतियाँ लिखवाई । श्रे० धीना धवलकपुरवासी श्रे० पासदेव (वासदेव) का पुत्र था ।१ श्रेष्ठि मुहुणा और पूना ___ हुड़ायाद्रपुर (हड़ाद्रा) में श्री पार्श्वनाथजिनालय का गोष्ठिक प्राग्वाटज्ञातीय विख्यात श्रेष्ठि चासपा हो गया है। वह घोषपुरीयगच्छाधिपति श्रीमद् भावदेवसूरि के पट्टधर जयप्रभसूरि का परम श्रावक था। श्रे चासपा की धर्मपरायणा स्त्री जासलदेवी की कुक्षी से गुणसंपन्न लक्षणसम्पूर्ण धर्मसंयुक्त सहदेव, खेता और लखमा नामक तीन अति प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न हुये। ज्येष्ठ पुत्र श्रे० सहदेव की पत्नी नागलदेवी की कुक्षी से श्रे० आमा और आहा नामक विख्यात धर्मधुर तथा दक्ष दो पुत्र पैदा हुये। __श्रे० आमा की पत्नी का नाम रंभादेवी था । श्राविका रंभादेवी सचमुच रंभा ही थी । वह अत्यधिक सुशीला, सुगुणा और प्रसिद्ध पिता की पुत्री थी । उसके मुहुणा, पूना और हरदेव नामक तीन पुण्यशाली पुत्र हुये थे। श्रे० मुहुणा और पूना ने भ्राता हरदेव के सहित माता-पिता के श्रेयार्थ कल्पसूत्र की प्रति गुरुमहाराज को श्रद्धापूर्वक अर्पित की।२ श्रा० सूहड़ादेवी अनुमानतः विक्रम की तेरहवीं शताब्दी भरत और उसका यशस्वी पौत्र पद्मसिंह और उसका परिवार अति गौरवशाली महाप्रतापी प्राग्वाटवंश में भरत नामक अति पुण्यशाली, सदाचारी, धर्मधारी पुरुष हो गया है। भरत का पुत्र यशोनाग हुआ। यशोनाग गुणों का आकर और दिव्य भाग्यशाली था। यशोनाग के पद्मसिंह नामक महापराक्रमी पुत्र हुआ। वह महाराजा का श्रीकरणपद का धारण करनेवाला हुआ। पद्मसिंह की स्त्री तिहुणदेवी थी। तिहुणदेवी ने अपने दिव्य गुणों से पति, श्वसुर एवं परिजनों के हृदयों को जीत लिया था। १-प्र०सं० प्र० भा० ता०प्र०३१ पु०२५ (अनुयोगद्वारवृत्ति), ता० प्र०५८ पृ. ४८ (अनुयोगद्वारसूत्र), ता०प्र०७५ पृ० ५१ (उत्तराध्ययनलघुवृत्ति)। जै• पु० प्र० सं० प्र०१६७ पृ० १२४ (अनुयोगद्वारवृत्ति) २-D.C.M.P. (G.O. S. Vo• No.LxxVI) P. 152 'हुडायाद्रपुर संभव है सिरोहीनराज्यान्तर्गत हणादा ग्राम हो। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] . . : प्राग्वाट-इतिहास : . [द्वितीय पद्मसिंह के यशोराज, आशराज, सोमराज और सणक नामक चार पुत्र उत्पन्न हुये तथा सोढुका और सोहिणी नामा दो पुत्रियाँ हुई। पद्मसिंह का ज्येष्ठ पुत्र यशोराज और उसका परिवार ___ श्रे० यशोराज व्यापारनिष्ठ था। सुहवदेवी नामा उसकी पतिपरायणा स्त्री थी। उसके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीसिंह था, उससे छोटी पेथुका नामा पुत्री और प्रह्लादन और कनिष्ठा पुत्री सज्जना थी। ___ज्येष्ठ पुत्री पेथुका का विवाह प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० आसल से हुआ और उसके चपलादेवी, नरसिंह और हरिपाल नामक तीन संतानें हुई। चपलादेवी के राजलदेवी नामा पुत्री हुई । नरसिंह का विवाह नायकीदेवी नामा गुणवती स्त्री से हुआ । नायकीदेवी की कुक्षी से गौरदेवी नामा पुत्री का जन्म हुआ। हरपाल का विवाह माल्हणीदेवी से हुआ, जिसके तिहुणसिंह, पूर्णसिंह और नरदेव नाम के तीन सुन्दर पुत्र और तेजला पुत्री उत्पन्न हुई। ___व्य० तिहुणसिंह का विवाह रुक्मिणी नामा परम रूपवती कन्या से हुआ। इसके लवणसिंह नामक पुत्र और लक्ष्मा नामा पुत्री हुई। प्रह्लादन प्रह्लादन का विवाह माधला नामा विवेकिनी कन्या से हुआ । श्रा० माधला की कुक्षी से देवसिंह, सोमसिंह नामक दो पुत्र और पद्मला, समला और राणी नामा तीन पुत्रियाँ हुई। सज्जना ___ यशोराज की कनिष्ठा पुत्री सज्जनादेवी का पाणिग्रहण प्राग्वाटज्ञातीय जगतसिंह नामक एक परम चतुर व्यक्ति से हुआ। सज्जना के मोहिणी नामा एक शीलभंगारविभूषिता परम गुणवती कन्या हुई। मोहिणी के पुत्र सोहिय और सहजा का परिवार मोहिणी का विवाह रंगानिवासी कटुकराज के साथ हुआ। इसके दो पुत्रियां पूर्णदेवी और उससे छोटी वयजा तथा क्रमशः चार पुत्र सोहिय, सहजा, रत्नपाल और अमृतपाल हुये। श्रे० सोहिय का विवाह परम सुशीला ललितादेवी और शिलुकादेवी नामा दो कन्याओं से हुआ। ललितादेवी के प्रीमलादेवी नामा कन्या हुई, जिसका विवाह योग्यवय में प्राग्वाटज्ञातीय जैत्रसिंह नामक युवक के साथ हुआ। प्रीमला के धारावर्ष और मल्लदेव नामक दो पुत्र हुये । मल्लदेव की स्त्री का नाम गौरदेवी था। शिलुकादेवी की कुक्षी से भीमसिंह, नालदेवी, प्रतापसिंह और विल्हणदेवी इस प्रकार दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई । प्रतापसिंह का विवाह चाहिणीदेवी नामा गुणवती कन्या से हुआ । सहजा की स्त्री का नाम सुहागदेवी था। सुहागदेवी वस्तुतः शैभाग्यशालिनी स्त्री थी। उसके शीलशालिनी माल्हणदेवी नामा पुत्री हुई । उसने अमृतपाल आदि मातुलजनों को निमंत्रित करके श्री मलधारीगच्छ में साग्रह दीक्षाव्रत ग्रहण किया। . . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] ::न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवानमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रा० सुहड़ादेवी [२३५ राणक और उसका परिवार और सुहड़ादेवी का 'पर्युषणा-कल्प' का लिखाना श्रे० राखक का विवाह प्राग्वाटज्ञातीय व्यवहारीय कुलचन्द्र की धर्मपत्नी जासलदेवी की गुणगर्भा पुत्री राजलदेवी के साथ हुआ । राजलदेवी की कुक्षी से यशस्वी संग्रामसिंह नामक पुत्र हुआ। संग्रामसिंह व्यापारकुशल एवं विश्रुत व्यक्ति था। प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० अभयकुमार की धर्मपत्नी सलक्षणा की कुक्षी से उत्पन्न सुहड़ादेवी नामा दानदयाप्रिया कन्या से संग्रामसिंह का विवाह हुआ। इसके हर्षराज, कटुकराज और गौरदेवी तीन संतानें हुई। हर्षराज का विवाह लक्ष्मीदेवी से हुआ। हर्षराज सुपुत्र और माता-पिता का परम भक्त था । उसकी स्त्री भी पतिव्रता एवं विनीतात्मा थी। ____ संग्रामसिंह का दूसरा पुत्र कटुकराज भी बड़ा ही सज्जन एवं कृपालु था । सुहड़ादेवी ने श्रीमलधारीसरिजी के शुभोपदेश को श्रवण करके अपने पुत्र और पति की सहायता से 'श्रीपर्युषणाकल्पपुस्तिका' पुण्यप्राप्ति के अर्थ लिखवाई । अनुमानतः यह कार्य विक्रमीय तेरहवीं शताब्दी में हुआ है । सोढुका ___ यह पद्मसिंह की ज्येष्ठा पुत्री थी और श्रे०. राणक से छोटी थी। इसने दीक्षा ग्रहण की और चारित्र पाल कर अपने जीवन को सार्थक किया ।। वंश-वृक्ष (१) भरत यशोनाग श्रीकरण पयसिंह [तिहुणदेनी] यशोराज [बहवदेवी] आशराज सोमराज राणक [राजलदेवी] सोदुकादेवी : सोहिणी | संग्रामसिंह [६सुहड़ादेवी] पृथ्वीसिंह २ पेथुका प्रहलादन [माधला] ७सज्जनादेवी । । । हर्षराज लक्ष्मीदेवी] कटुकराज गौरदेवी देवसिंह सोमसिंह पद्मला समला राणी जै० पु०प्र० सं० प्र०१००१२ (पर्युषणाकल्पपुस्तिका) 1-D.C. M. P. (G.O. S. Vo. No. LXXVI.) P. 380-2 (48) Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय (२) आसल पिथुका] रंगानिवासी कडुकराज [७ मोहिणी] चपलादेवी नरसिंह [नायकीदेवी] हरपाल [माम्हणी] | राजलदेवी गौरदेवी पूर्णदेवी वयजादेवी सोहिय सहजा स्तमाल अमृतपाल [१ललिता २ शीलुका] [सुहागदेवी] तिहुणसिंह [रुक्मिणी] पूर्णसिंह नरदेव तेजलादेवी ४ प्रीमलादेवी माल्हणदेवी (साध्वी) सवणसिंह लक्ष्मी भीमसिंह नालदेवी प्रतापसिंह किल्हणदेवी [चाहिणी] (४) (५) (७) कुलचन्द्र अभयकुमार जगतसिंह [प्रीमलादेवी] [जासलदेवी] [सलक्षणा] [सज्जना १ राजलदेवी १ सुहड़ादेवी ३ मोहिणी मल्लदेव [गौरदेवी] जैत्रसिंह घारावर्ष श्रेष्ठि वोसिरि आदि प्राग्वाटज्ञातीय परम जिनेश्वरभक्त पुरुषवर श्रे० शालि के वंश में उत्पन्न श्रे० शक्तिकुमार के पुत्र सोही* की धर्मपत्नी शिवदेवी की कुक्षी से उत्पन्न श्रे० वोसिरि, साढल, सांगण और पुण्यसिंह ने अपने माता-पिता के पुण्यार्थ श्री देवसूरिसंतानीय श्रीमुनिदेवसूरि द्वारा श्री अष्टापदजिनालय की प्रतिष्ठा करवाई तथा उनकी सहायता से उनके ही द्वारा वि० सं० १३२२ में रचे गये 'श्री शांतिनाथचरित्र' की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई ।* *D.C.M.P. (G.0. S. Vo. No. LXXVI) P. 125 पर 'श्रासादी' के स्थान पर 'सोही' लिखा है। प्र०सं०प्र०भा० ता०प्र० १३४ पृ०८३ (शान्तिनाथचरित्र) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ans ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रे० वरसिंह :: [ २३७ श्रेष्ठ नारायण अनुमानतः विक्रम की तेरहवीं शताब्दी संभव है विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय महण (सोहन) एक प्रसिद्ध श्रावक हो गया है । सुहागदेवी उसकी स्त्री थी। नागड़ उसका पुत्र था । नागड़ को उसकी स्त्री सलखू से तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई । नारायण ज्येष्ठ पुत्र था । कडुया और घरणिग दोनों छोटे पुत्र थे । नारायण की स्त्री हंसलादेवी थी। हंसलादेवी के रत्नपाल नामक पुत्र हुआ । कडुया (कडक) और धरणिग की लाखू और जासलदेवी नामा दो पत्नियाँ थीं । नारायण बड़ा धर्मात्मा एवं दृढ़ जैनधर्मी श्रावक था । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का सदुपदेश श्रवण करके उसने प्रसिद्ध पुस्तक 'उत्तराध्ययमलघुवृत्ति की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई। यह प्रति खंमात के श्री शान्तिनाथ- प्राचीन ताड़पत्रीय जैन ज्ञान-भण्डार में विद्यमान है । १ नारायण [हंसलादेवी] रत्नपाल वंश-वृक्ष मोहण [सुहागदेवी] नागड़ [ सलखू] कडुया (कडक) [लाखूदेबी ] श्रेष्ठि वरसिंह धरणिग [जासलदेवी] । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् प्राग्वाटज्ञातीय सुश्रावक मोक्षार्थी पूनड़ नामक हो गया है। उसने सद्गुरु के मुखारविंद से शास्त्रों का श्रवण किया था संसार की असारता को समझ कर अपना न्यायोपार्जित द्रव्य उसने अतिशयं भक्ति-भावनापूर्वक सातों क्षेत्रों में व्यय किया था । उसकी स्त्री का नाम तेजीदेवी था । तेजीदेवी पति की आज्ञापालिनीं एवं दृढ़ जैन-धर्मानुरक्ता त्री थी। उसकी कुर्ची से लिखा और वरसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुये । श्रे० वरसिंह ने गुरु वचनों को श्रवण करके 'हैमव्याकरणावचूरि' नामक ग्रंथ को लिखवाया | २ १- प्र० सं० प्र० भा०ता० प्र० ४३ पृ० ३७ । जै० पु० प्र० सं० ता० प्र० ५४ पृ० ५६ (उत्तराध्ययनलघुवृत्ति) २ - जै० ५० प्र० सं०ता० प्र० ७४ पृ० ७१ (हैमंव्या कर गावचूरि ) D.C.M.P. (G. O. S. Vo. No. LXXVI) P. 170 (289) Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८1 . :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय सिंहावलोकन विक्रम की नववीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक जैनवर्ग की विभिन्न स्थितियाँ और उनका सिंहावलोकन बौद्धमत भारत छोड़ ही चुका था। विक्रम की प्रथम आठ शताब्दियाँ जैन और वेदमत के द्वन्द्व के लिये भारत के इतिहास में प्रसिद्ध रही हैं। प्रारम्भ में जैनधर्म को राजाश्रय अधिक मात्रा में प्राप्त था; परन्तु पीछे से है वह घटने लगा और दोनों में द्वन्द्व बढ़ता ही चला गया। भारत के एक देश का भारत में द्वितीय धर्मक्रांति " अथवा प्रान्त का एक राजा जैनमत का आश्रयदाता बनता तो उसी का कोई वंशज वेदमत का दृढ़ानुयायी होता और इतना ही नहीं; एक मत दूसरे मत को उखाड़ने के सारे प्रयत्नों को कार्य में लेता। जैनमत जैसे कठिन मत के पालन में सर्व साधारण जनता असफल रही और धीरे २ जैनियों की संख्या घटने लगी। कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के प्रबल विरोध ने जैनाचार्यों को चुनौती दी । वे दोनों विद्वान् वेदमत के प्रसारण में बहुत अधिक सफल हुये। जैन मुनियों पर एवं यतियों पर भारी अत्याचार किये गये । जहाँ तपस्वी तक अत्याचारों से त्रस्त हो उठे, वहाँ साधारण गहस्थों के धैर्य की तो बात ही क्या। वे भय के मारे जैन से शेव, शाक्त, वैष्णव बन गये और प्रत्येक वैश्यज्ञाति उसी का परिणाम है कि आज दोनों मतों में विभाजित है। जैनधर्मावलंबियों की संख्या को दिनोदिन घटती हुई देख कर जैनाचार्यों ने विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में पुनः नवीन अजैन कुलों को जैन बनाने का संकल्प-सा ग्रहण किया। इनका यह शुद्धि-कार्य अधिकांशतः स्थान और कुछ मध्यभारत के प्रान्त तक ही प्रायः सीमित रहा था। ये कठिन विहार करने लगे और प्रभावशाली क्षत्रियराजा, भूमिपति, ठक्कुर, सद्गृहस्थ तथा ब्राह्मण और ब्राह्मणश्रेष्ठियों को अपने आदर्शों से प्रभावित करके उनके मनोरथों को पूर्ण करने लगे और जैन धर्म के प्रति उनको आकृष्ट करने लगे । इस विधि में वे बहुत ही सफल हुये और उन्होंने अनेक ऊच्चवर्णीय कुलों को प्रतिबोध देकर नवीन जैन कुलों की स्थापना की । इन्हीं वर्षों में कुलगुरुसंस्था की स्थापना भी हुई। जो अजैन कुल जिन जैनाचार्य के उपदेश से जैनधर्म स्वीकार करता था, वह प्रायः उन्हीं आचार्य को अपना कुलगुरु स्वीकार करता था और उस कुल के परिवार एवं वंशज भी उन्हीं आचार्य की परम्परा को अपने कुल का कुलगुरु मानने लगे थे। इस प्रकार कुलगुरु-संस्था का जन्म हुआ । कुलगुरु-आचार्य भी कालान्तर में नगरों में अपनी पौषधशालायें स्थापित करके रहने लगे और अपनी पौषधशाला के आधीन जैनकुलों का विशिष्ट इतिहास लिखने का कार्य करने लगे। आज जो राजस्थान, गुजरात, मालवा में जैनकुलगुरुओं की पौषधशालायें विद्यमान हैं, इनकी बड़ी शोभा, प्रतिष्ठा रही है और बड़े२ सम्राट् इनके अधिष्ठाताओं को नमस्कार करते आये हैं । इनमें अधिकांशतः उन्हीं वर्षों में संस्थापित हुई हैं अथवा उस समय में स्थापित हुई शालाओं की शाखायें हैं । आज का जैन समाज अधिकांशतः विक्रम की आठवीं, नववीं, दसवीं, ग्यारहवीं शताब्दियों में नवीनतः जैन बने कुलों की ही संतान है । यह शुद्धिकार्य Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २३६ प्रथम तीन शताब्दियों में बड़ा ही सफल रहा और फिर पुनः यवनों के प्रबल आक्रमणों के कारण जैनाचार्यों का इस और स्वभावतः ध्यान और श्रम कम लगने लगा । यवनों को सम्पूर्ण उत्तरी भारत भय की दृष्टि से देखने लगा, अतः जैन और वेदमतों में परस्पर छिड़ा हुआ द्वन्द्व तृतीय शत्रु को द्वार पर आया हुआ देखकर स्वभावतः समाप्तप्रायः हो गया । फिर भी जैन से जैन और जैन से जैन चौदहवीं शताब्दी पर्यन्त कुछ २ संख्याओं में बनते रहे । धार्मिक जीवन आज गिरती स्थिति में भी जैनसमाज अपनी धार्मिकता के लिये अधिक विश्रुत है यह प्रत्येक बुद्धिमान् मनुष्य जानता है । जैन साधु अपने धार्मिक जीवन के लिये सदा दुनिया के सर्व पंथों, मतों, धर्मों के साधुओं में प्रथम ही नहीं, त्याग, संयम, आचार, विचार, वेष भूषा, भाषण, विहार, आहार, तपस्यादि में अग्रगण्य और अति सम्मानित समझे जाते रहे हैं । वे अन्यमती साधुओं की भांति छल नहीं करते थे, किसी को धोखा नहीं देते थे और कंचन और कामिनी के आज भी वैसे ही त्यागी हैं । जैन श्रावक भी इस ही प्रकार सच्चाई, विश्वास, नेकनियत, धर्मश्रद्धा, दया, परोपकारादि के लिये सदा प्रसिद्ध रहा है। जैन श्रमणसंस्था में साधु, उपाध्याय और आचार्य इस प्रकार गुणभेद से तीन प्रकार के मुनि रक्खे गये हैं । ये संसार के त्यागी हैं फिर भी नगरों, ग्रामों में विहार करके धर्मप्रचारादि कार्य करने का इनका कर्त्तव्य निश्चित किया गया हैं। ये धर्म के पोषक और प्रचारक समझे जाते हैं और उस ही प्रकार युग की प्रकृति पहिचान करके ये धर्म की रक्षा करते हैं तथा उसकी उन्नति करने का अहिर्निश ध्यान करते रहते हैं । प्राग्वाटज्ञाति में अनेक ऐसे महातेजस्वी साधु गये हैं, जिन्होंने अल्पायु में ही संसार का त्याग करके जैनधर्म की महान् सेवायें की हैं। ऐसे साधुओं में विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुये सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि, बारहवीं शताब्दी में हुये महाप्रभावक श्रीमद् आर्यरक्षितभूरि एवं बृहद् तपगच्छाधिपति राजराजेश्वर संमान्य श्रीमद् वादि देवसूरि, अंचलगच्छीय श्रीमद् धर्मघोषसूरि आदि प्रमुखतः हो गये हैं। प्राचीन जैनाचार्यों में ये श्राचार्य महान् गिने जाते हैं । उक्त श्राचार्यों के तेज से जैनशासन की महान् कीर्त्ति बढ़ी है। इनका सत्य, शील, साध्वाचार आर्दशता की चरमता को पहुँच चुका था । वैष्णव राजा, वेदमतानुयायी ब्राह्मण-पंडित भी उक्त आचार्यों का भारी सम्मान करते थे । गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा में हुये वाद में जय प्राप्त करके श्रीमद् वादि देवसूरि ने प्राग्वाटज्ञाति की कुक्षी का महान् गौरव बढ़ाया है। 1 श्रावकों में नत्र सौ जीर्स जैनमन्दिरों का समुद्धारकर्ता प्राग्वाटज्ञातिकुलकमलदिवाकर महामंत्री सामंत, महात्मा वीर, गूर्जरमहाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह, गूर्जरमहामात्य वस्तुपाल, महाबलाधिकारी दंडनायक तेजपाल, जिनेश्वरभक्त पृथ्वीपाल, नाडोलनिवासी महामात्य सुकर्मा एवं नाडोलनिवासी महान यशस्वी श्रे० पूर्ति और शालिग आदि अनेक धर्मात्मा महापुरुष हो गये हैं। सच कहा जाय तो विक्रम की इन शताब्दियों में गूर्जर एवं राजस्थान में जैनधर्म की जो प्रगति रही है और उसका जो स्वर्णोपम गौरव रहा है वह सब इन धर्म के महान् सेवकों के कारण ही समझना चाहिए। इन महापुरुषों ने धर्म के नाम पर अपना सर्वस्व अर्पण किया था । अर्बुद और गिरनारतीर्थों के शिल्प के महान् उदाहरण स्वरूप जैनमंदिर मं० विमल, वस्तुपाल, तेजपाल की कीर्त्ति को आज भी अक्षुण्ण बनाये हुये हैं । ये ऐसे धर्मात्मा थे कि अकारण कृमि तक को भी कष्ट नहीं पहुँचाते थे । ये पुरुष महान् शीलवंत, देश और धर्म के पुजारी, साहित्यसेवी, तीर्थोद्धारक और बड़े २ संघों के निकालने वाले हो Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० | :: प्राग्वाट - इतिहास :: गये हैं । इनके समय में जैनधर्म की जो जाहोजलाली रही हैं, वह फिर देखी और सुनी नहीं गई । उस समय के श्रावकों का द्रव्य अभयदानपत्रों के निकलवाने में, मंदिरों के बनाने में, उनका जीर्णोद्धार करवाने में, बड़े २ तीर्थसंघ निकालने में, दुष्कालों में दीन और अन्नहीनों की सेवायें करने में, ज्ञानभंडारों की स्थापनायें करवाने में, मार्गों में प्रपायें लगवाने में, दीक्षामहोत्सवों में, धर्मपर्वों पर, सदावत खुलवाने में, प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाने में, विविध तपोत्सवों में, रथयात्राओं में आदि ऐसे ही अनेक धर्म एवं पुण्य के कार्यों में व्यय होता था। जैनाचाय्यों के चातुर्मासों में भी पर्युषण पर्व और रथयात्रायें आदि पर अतिशय द्रव्य व्यय किया जाता था । [ द्वितीय 1 प्रत्येक स्त्री और जन संध्या और प्रातःसमय रात्रि और दिवससम्बन्धी अपने कृतपापों की आलोचना करता था और उनका प्रत्याख्यान करके प्रायश्चित लेता था । जैन श्रावकों की आदर्शता की उस समय में अन्यमती समाज पर गहरी छाप थी । अन्यमती राजा, मांडलिक, ठक्कुर और स्वयं सम्राट् जैन श्रावकों का भारी मान और विश्वास करते थे । यहाँ तक कि राज्य के बड़े २ उत्तरदायीपूर्ण विभागों एवं प्रान्तों के शासक भी वे जैनियों को ही प्रथम बनाते थे । अपने विश्वासपात्र लोगों में एवं सेवकों में इनको ही प्रथम नियुक्त करते थे । गुर्जरसम्राटों का इतिहास, राजस्थान के राजाओं के चरित्र उक्त कथन की पुष्टि में देखे जा सकते हैं । ये जैनधर्मी थे, परन्तु इनके जैनधर्मी का अर्थ संकुचित दृष्टि से प्रतिबन्धित नहीं था । ये अन्य सर्व ही मतों का मान करते थे और अन्यमती मन्दिरों, धर्मस्थानों और साधुओं का कभी भी अपमान नहीं करते थे । जिस प्रकार अपने सधर्मी बन्धुओं की सेवा करना ये अपना परमधर्म समझते थे, उस ही प्रकार काल, अकाल, दुष्काल, संकट में अन्यमती दोन, श्रमहीन, अपाहिजों की सदा सेवा करने के लिये तत्पर रहते थे । प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न ऐसे महान् धर्मसेवी पुरुषों से जैनसमाज की महान् प्रतिष्ठा बढ़ी है और उसकी उज्ज्वलकीर्त्ति स्थापित हुई है । जैसे-जैसे श्रीमालीवर्ग, ओसवालवर्ग, अग्रवालवर्ग में अन्यमती उच्चवर्णीय कुल जैनधर्म स्वीकार करके प्रविष्ट होते रहे थे, उस ही प्रकार प्राग्वाटश्रावकवर्ग में भी ब्राह्मण, क्षत्रियकुल जैनधर्म की दीक्षा लेकर प्रविष्ट सामाजिक जीवन और होते रहे थे । जैनाचार्य जैन बना रहे थे और जैनसमाज उनको पूर्णतया अपना रहा आर्थिक स्थिति था । कन्या - व्यवहार और भोजन - व्यवहार में उनसे भेद नहीं वर्तता था । धर्मकार्य में और सामाजिक कार्यों में उनके साथ में समानता का व्यवहार किया जाता था । इन शताब्दियों में नवीन बात यह देखने को मिलती है कि जैनसमाज के विभिन्न २ वर्ग अपने २ अलग २ नामों से अपने २ को प्रसिद्ध करने की वेष्टा में लग गये थे, जिसका परिणाम आगे जाकर बहुत ही बुरा निकलने वाला था । दसा, वीसा और फिर पाँचा और ढइया जैसे भेदों की उत्पत्ति भी प्रत्येक वर्ग में अपने २ वर्ग की ममताभावनाओं में ही हुई है। यह किस कारण और किस सम्वत् में अथवा क्यों होने लगा का सत्य कारण आज तक कोई नहीं जान सका । इन शताब्दियों से पूर्व के किसी भी ग्रन्थ में, लेखों में प्राग्वाट, ओसवाल, श्रीमाल, अग्रवाल जैसे वर्ग-परिचायक नामों का प्रयोग देखने में नहीं आता है। यह सब हो रहा था भविष्य के लिये बुरा, परन्तु फिर भी उस समय जनसमाज के सर्व वर्गों में परस्पर ऐक्य और बेटी व्यवहार था ऐसा माना जा सकता है । अगर उनमें परस्पर ऐक्य और बेटी व्यवहार नहीं होता, तो भिन्न संस्कृति, संस्कार और मांसाहारी चत्रियकुलों को वे कैसे अपने में मिलाने Page #416 --------------------------------------------------------------------------  Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य शिल्पकलावतार श्री लूणसिंहवसहि को देवकुलिका सं० १९ में अश्वावबोध और समलीविहार तीर्थों का दृश्य । उन दिनों में जहाज कैसे बनते थे, इस चित्र से समझा जा सकता है। देखिये पृ० २४१ पर। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २४१ की योग्यता रख सकते थे । भिन्न संस्कृति, संस्कारवाले कुलों को मिलाने की जिस वर्ग में योग्यता है, वह वर्ग अपनी समाज के अन्य वर्गों से कैसे सामाजिक सम्बन्ध तोड़ सकता है सहज समझ में आने की वस्तु है । I जैनसमाज उस समय भी बड़ा ही प्रभावक और सम्पत्तिशाली था । भारत का व्यापार जैनसमाज के ही शाहूकारी हाथों में था । जगह २ जैनियों की दुकानें थीं। अधिकांशतर जैन घी, तेल, तिल, दाल, अन्न किराणा, सुवर्ण और चांदी, रत्न, मुक्ता, माणिक का व्यापार करते थे। कृषकों को, ठक्कुरों को, राजा, महाराजाओं को रुपया उधार देते थे । बाहर के प्रदेशों में भी इनकी दुकानें थीं । भरौंच, सूरत, बीलीमोरा, खंभातादि बन्दरों से भारत से माल के जहाज भरकर बाहर प्रदेशों को भेजे जाते थे और बाहर के देशों से सुवर्ण और चांदी तथा भांति २ के रत्न, माणिक भरकर भारत में लाते थे। बड़े २ धनी समुद्री बंदरों पर रहते थे और वहीं से बाहर के देशों से व्यापार करते थे । खंभात, प्रभासपत्तन और भरौंच नगरों के वर्णन जैन ग्रन्थों में कई स्थलों पर मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि भारत के व्यापारिक केन्द्रनगरों में जैनियों की बड़ी २ बस्तियाँ थीं और उनका सर्वोपरि प्रभाव रहता था । वे सम्पत्तिशाली होने पर भी सादे रहते थे और साधारण मूल्य के वस्त्र पहिनते थे । अर्थ यह है कि वे बड़े मितव्ययी होते थे | स्त्री और पुरुष गृह के सर्वकार्य अपने हाथों से करते थे । संपत्ति और मान का उनको तनिक भी अभिमान नहीं था । उनकी वेष-भूषा देखकर कोई बुद्धिमान् भी यह नहीं कह सकता था कि उनके पास में लक्षों एवं कोटियों की सम्पत्ति हैं । जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि जब कोई संघ निर्दिष्ट तीर्थ पर पहुँचकर संघपति को संघमाला पहिनाने का उत्सव मनाता था, उस समय अकिंचन - सा प्रतीत होता हुआ कोई श्रावक माला की ऊंची से ऊंची बोली बोलता हुआ सुना एवं पढ़ा गया है । एकत्रित संघ को उसकी मुखाकृति एवं वेष-भूषा से विश्वास ही नहीं होता था कि वह इतनी बड़ी बोली की रकम कैसे दे देगा। जब उसके घर पर जा कर देखा जाता था तो आश्चर्य से अधिक धन वहाँ एकत्रित पाया जाता था । गूर्जरसम्राट् कुमारपाल जब संघ निकाल कर शत्रुंजयतीर्थ पर पहुँचे थे, माला की बोली के समय प्राग्वाटज्ञातीय जगड़ शाह ने सवा कोटि की बोली बोल कर माला धारण की थी । काल, दुष्काल के समय भी एक ही व्यक्ति कई वर्षों का अन्न अपने प्रान्त की प्रजा के पोषण के लिये देने की शक्ति रखता था । ऐसे वे धनी थे, ऐसा उनका साधारण रहन-सहन था और ऐसे थे उनके धर्म, देश, समाज के प्रति श्रद्धापूर्ण भाव और भक्ति । अपने असंख्य द्रव्य और अखूट अन्न को व्यय करके जैन समाज में जो अनेक शाह हो गये हैं, उनमें से अधिक इन्हीं वर्षों में हुये हैं, जिन्होंने दुष्कालों में, संकट में देश और ज्ञाति की महान् से महान् सेवायें की हैं और शाहपद की शोभा को अक्षुण्ण बनाये रक्खा है। I अपने धर्म के पर्वों पर और त्यौहारों पर अपनी शक्ति के योग्य दान, पुण्य, तप, धर्माराधना करने में पीछे नहीं रहते थे । बड़े २ उत्सव - महोत्सव मनाते थे, जिनमें सर्व प्रजा सम्मिलित होती थी । जितने बड़े २ तीर्थ आज विद्यमान हैं, जिनकी शोभा, विशालता, शिल्पकला दुनिया के श्रीमंतों को, शिल्पविज्ञों को आश्चर्य में डाल देती . हैं; इनमें से अधिकांश तीर्थों में बने बड़े २ विशाल जिनालयों का निर्माण, जिनमें एक २ व्यक्ति ने कई कोटि द्रव्य - व्यय किया है उन्हीं शताब्दियों में हुआ हैं । ये बड़े २ संघ निकालते थे और स्वामीवत्सल ( प्रीतिभोज) करते थे, जिनमें सैंकड़ों कोसों दूर के नगर, ग्रामों से बड़े २ संघ निमंत्रित होकर आते थे। ये संघ कई दिनों तक - ठहराये जाते थे । पहिरामणियों में कई सेर मोदक और कभी २ मोदक के लड्दुओं में एक या दो स्वर्णमुद्रायें रखकर Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय मूल्यवान वस्त्र के साथ में प्रत्येक सधर्मी बन्धु को स्वामी - वत्सल करने वाले की ओर से दिया जाता था । अंजनशलाका-प्रतिष्ठोत्सवों में, दीक्षोत्सवों में पाटोत्सवों में, उपधानादि तपोत्सवों में अगणित द्रव्य व्यय किया जाता था । सारांश यह है कि उस समय के लोग अपने सर्वस्व एवं अपने धन, द्रव्य को समाज की सेवा में और धर्म की प्रभावना करने में पूरा २ लगाते थे । धनपति होकर भी भोग और विलास से वे थे । विलास की अकिंचन सामग्री भी उनके धन से भरे गृहों में देखने तक को नहीं मिलती थी। घर पर आये अतिथि का बिना धर्म, ज्ञाति-भेद के वे स्तुत्य आतिथ्य सत्कार करते थे । घर से किसी को कभी भी क्षुधित नहीं जाने देते थे । जैन समाज अपने साधुओं का बड़ा मान करती थी। उनके ठहरने के लिये, चातुर्मास में स्थिर रहने के लिये और देवदर्शन के लिये प्रत्येक जैन बसति वाले छोटे-बड़े ग्राम, नगर में छोटे बड़े उपाश्रय, पौषधशालायें, मन्दिर होते थे । बड़े २ नगर जैसे अणहिलपुरपत्तन, प्रभाषपाटण, खम्भात, भरौंचादि में कई एक उपाश्रय और पौषधशालायें लक्षों रुपयों के मूल्य की बनाई हुई होती थीं । लड़के और लड़कियों का विवाह बड़ी आयु में होता था । वर और कन्या की परीक्षा संरक्षक अथवा मातापिता करते थे और सम्बन्ध भी उनकी ही सम्मति एवं निर्णय पर निश्चित होते थे। पर्दा की आज जैसी प्रथा बिल्कुल नहीं थी । विवाह होने के पूर्व वर और कन्या अपने भावी श्वसुरालय में निमन्त्रित होते थे और कई दिवसपर्यन्त वहाँ ठहरते थे । वे संघादि में भी साथ २ रह सकते थे । उनको बात-चीत करने की भी पूरी स्वतन्त्रता संयमशील माता-पिताओं की संयमशील, ब्रह्मचर्यव्रत के पालक, कुलमर्यादा एवं मान को अक्षुण्ण बनाये रखने वाली सन्तानें थीं । कन्या - विक्रय, वरविक्रय जैसी समाजघातक कुप्रथायें उन दिनों में ज्ञात भी नहीं थीं। बड़े २ दहेज दिये जाते थे, परन्तु पहिले से उनका परस्पर निश्चय नहीं करवाया जाता था । घर में वृद्धजन पूजनीय और श्रद्धा के पात्र होते थे । समस्त परिवार प्रमुख की आज्ञा में चलता था । बड़े से बड़ा परिवार भी एक चूल्हे रोटी खाता था और सम्मिलित व्यापार करता था। कन्दमूल का भोजन में जहाँ तक होता कम प्रयोग होता था । लहसुन, प्याज जैसी गन्ध देने वाली एवं असंख्य जीवों का पिण्डवाली चीजों का प्रयोग सर्वथा वर्जित था। भोजन में घी, तेल, दूध, दाल, सुखाये हुये शाक, रोटी का ही अधिक प्रयोग था । हरी शाक भी गिनती की होती थी । रात्रिभोजन सर्वथा वर्जित था । अभक्ष्य चीजों का प्रयोग बिलकुल नहीं होता था । अतः वे दीर्घायु होते थे और पूर्ण स्वस्थ रहते थे । ग्रामों और छोटे नगरों में रहने वाले गौ और भैसें रखते थे और अपने पोषण के योग्य अन्नप्राप्ति के लिये कृषि भी करते थे । खेत में वे स्वयं कार्य करते थे और सेवकों से भी सहायता लेते थे । वे किसी के आश्रित नहीं थे । वे किसी के आगे हीन बनकर नहीं रहते थे और नहीं किसी वस्तु के लिये किसी के आगे हाथ ही पसारते थे । जैनसमाज में भिक्षा माँगने की प्रथा नहीं तो कभी थी और आज भी नहीं है । जैन कर्मठ कार्यशील होता है । वह अपने हाथों कमाता है । वह व्यापार में अधिक विश्वास रखता है । वह कार्य अपने हाथ करने में किसी भी प्रकार की लज्जा एवं अपमान का अनुभव नहीं करता है । उसका दिनोंदिन धन की वृद्धि मूल उद्देश्य सदा ही आय कम व्यय करने का होता है और इसी का सुफल है कि वह ही करता रहता है । समय पर अपने संचित द्रव्य का सदुपयोग करने में वह कभी पीछे इस बात को प्रमाणित कर रहा है। उन शताब्दियों में जैनसमाज स्वस्थ, सुखी, समृद्ध, नहीं रहा है । इतिहास सुसंगठित और धर्मभक्त Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २४३ था, तब ही वह हमारे लिये महामाहात्म्यवाले तीर्थ, जिनालय, ज्ञानभण्डार छोड़ गया है, जिनके ही एक मात्र . कारण आज का जैनसमाज भी कुलीन, विश्वस्त, उन्नतमुख और गौरवशाली समझा जाता है। साहित्य और शिल्पकला जैनवाङ्गमय संसार में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । कभी जैनमत राजा और प्रजा दोनों का एक-सा धर्म था और कभी नहीं। विक्रम की इन दुःखद शताब्दियों में जनधर्म को वेदमत के सदृश राजाश्रय कभी भी सत्यार्थ में थोड़े से वर्षो को छोड़ कर प्राप्त नहीं रहा है । यह इन शताब्दियों में जैन साधु और जैन श्रावकों द्वारा ही सुरक्षित रक्खा गया है । अतः जैन- साहित्य बाहरी आक्रमणों के समय में भारत के अन्य राज्याश्रित साहित्यों की अपेक्षा अधिकतम खतरे में और सशंकित रहा है । राजाश्रय प्राप्त करके ही कोई वस्तु अधिक चिरस्थायी रह सकती है, यह बात जैन - साहित्य की रक्षाविधि से मिथ्या ठहरती है । भारत में विक्रम की आठवीं शताब्दी से यवनों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे । महमूद गजनवी और गौरी के आक्रमणों से भारत का धर्म और साहित्य जड़ से हिल उठा था । एक प्रकार से बौद्धसाहित्य तो जला कर भस्म ही कर दिया गया था । वेद और जैन- साहित्य भण्डारों को भी अग्नि की लपटों का ताप सहन करना पड़ा था । धन्य है जैन साधु और श्रीमंत साहित्यप्रेमी जैन श्रावकों को कि जिनके सतत् प्रयत्नों से ज्ञानभण्डारों की स्थापना करने की बात सोची गई थी और वह कार्यरूप में तुरन्त परिणित भी कर दी गई थी। जिस प्रकार जैन मन्दिरों के बनाने में जैन अपना मूल्य धनमुक्तहृदय से व्यय करते थे, उस ही प्रकार वे जैन ग्रन्थों, आगमों, निगमों, शास्त्रों, कथाग्रन्थों की प्रतियाँ लिखवाने में व्यय करने लगे । प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठियों ने भी इस क्षेत्र में भारी और सराहनीय भाग लिया है। श्रेष्ठि देशल, धीरणाक, मण्डलिक, वाजक, जिह्वा, यशोदेव, राहड़, जगतसिह, रामदेव, ठक्कुराज्ञि नाऊदेवी, ० धीना, श्रा० सुहड़ादेवी, श्रे० नारायण, श्रे० वरसिंह आदि आगमसेवी उदारमना श्रीमंतों ने कई ग्रंथों की प्रतियाँ ताड़पत्र और कागज पर करवाई और उनको ज्ञानभण्डारों में तथा साधुमुनिराजों को भेंट स्वरूप प्रदान कीं। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय गुर्जर महामात्य वस्तुपाल की विद्वत्-परिषद् में राजा भोज के समान नवरत्न (विद्वान् ) रहते थे। कई जैनाचार्य उनकी प्रेरणाओं पर जैनसाहित्यसृजन में लगे ही रहते थे । वस्तुपाल की विद्वत्परिषद का वर्णन उसके इतिहास में पूरा २ दिया गया है । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि इन मंत्री भ्राताओं ने अट्ठारह कोटि द्रव्य व्यय करके जैनग्रन्थों की प्रतियाँ करवाई और उनको खंभात, अणहिलपुरपत्तन और भड़ौच में बड़े २ ज्ञानभण्डारों की स्थापना करके सुरक्षित रखवाई गई । जैनसमाज के लिये यह गौरव की बात है कि उसकी स्त्रियों ने भी जैन साहित्य की उन्नति के लिये अपने द्रव्य का भी पुरुषों के समान ही व्यय करके साहित्यप्रेम का परिचय दिया है । शिल्पकला के लिये कहते हुये कह कहना प्रथम आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनियों द्वारा प्रदर्शित शिल्पकला मानव की सौन्दर्यप्यासी रूचि पर नहीं घूमती थी । प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुवर महाबलाधिकारी दण्डकनायक विमल द्वारा विनिर्मित एवं वि० सं० २०८८ में प्रतिष्ठित अर्बुदगिरिस्थ श्रीविमलवसति की शिल्पकला को देखिये । वहाँ जो भी शिल्पकार्य मिलेगा, वह होगा धर्मसंगत, पौराणिक एवं महान् चरित्रों का परिचायक । इस ही प्रकार वि० सं० १२८७ में प्रतिष्ठित हुई अबु दगिरिस्थ श्री नेमिनाथ नामक लूणसिंहवसति को भी देखिये, उसमें भगवान् Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] : प्राग्वाट-इतिहास:: [ द्वितीय नेमिनाथ और राजमति के विवाहविषयक बातों को दिखाने वाला शिल्पकाम होगा । द्वारिका का दृश्य जिसमें समुद्र तटों का देखाव, तटपर के वन, उपवन, गिरि, वसति, गौ आदि पशुओं के झुण्डों के देखाव और चारागाह के हरितम जंगल दिखाये गये हैं, मनोहर हैं। विमलवसहि के निर्माण में अट्ठारह कोटि द्रव्य और लूणसिंहवसहि के निर्माण में बारह कोटि छप्पन लक्ष द्रव्य व्यय हुआ है। ये दोनों जिनालय संसार में शिल्प की दृष्टि से बने भवनों में अपनी विशिष्टता के लिये सर्व प्रथम ठहरते हैं । लूणसिंहवसहिका का निर्माण तो दण्डनायक तेजपाल की प्रतिभासम्पन्ना स्त्री अनोपमा की सम्पूर्ण देखरेख में ही हुआ है । स्त्री अनोपमा में शिल्पकार्य के लिये प्रेमपूर्ण हृदय था । वह शिल्पशास्त्र की ज्ञाता भले नहीं भी थीं, परन्तु वह उत्तम शिल्प की परीक्षा करना जानती थी । उसका यह गुण उक्त वसहिका के प्रकार को देखकर सहज समझा जा सकता है । साधन-सामग्री की पर्याप्त कमी के कारण मैं अन्य प्राग्वाटज्ञातीय शिल्पप्रेमी श्रेष्ठियों के शिल्पकार्यों का इतिहास देने में अवश्य अपने को असफल हुआ मान रहा हूँ। फिर भी जिन शताब्दियों में विमलवसहि और लूणसिंहवसहि जैसी शिल्पकलावतार साकारप्रतिमाओं का अवतरण हुआ है, उन वर्षों में प्रत्येक जैन शिल्प का अतिशय प्रेमी था और उसका वह शिल्पप्रेम ईश्वरोपासक था और धर्मोन्नतिकारक था भलिविधि सिद्ध हो जाता है। वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित गिरिनारपर्वतस्थ श्रीवस्तुपालनामक हूँक भी बारह कोटि द्रव्य से भी अधिक में बनी थी। शिल्प पर इतिहास के पृष्ठों में यथाप्रसंग सविस्तार खूब ही लिखा गया है, अतः यहाँ पक्तियाँ बढ़ाना ठीक नहीं समझता हूँ। जैनवर्ग अथवा जैनसमाज जैसा धर्म में प्रमुख रहा है, वैसा व्यापार और राजनीति के क्षेत्र में भी अग्रिम रहा है । मेरी मति से इसका कारण यही होता है कि धर्म में जो दृढ़ होता है वह सर्वत्र उन्नति करता है और फलता है तथा वह अधिक जनप्रिय, निष्कपट, विश्वस्त, दृढ़, कष्टसहिष्णु, चतुर, न्यायी, दूरराजनैतिक स्थिति दर्शी, परोपकारी, निस्वार्थी, व्यवहारकुशल, सदाचारी विशिष्टगुणों वाला होता ही है । ये गुण राज्यचालन एवं शासनकार्य करने वाले व्यक्ति में होने चाहिए। एतदर्थ राजनीतिक्षेत्र में भी जैन सफल होते देखे गये हैं । इसके पक्ष में सौराष्ट्र,गूर्जरभूमि, राजस्थान,मालव-राज्यों के तथा छोटे-बड़े मण्डलों के इतिहासों से सहस्रों उदाहरण लिये जा सकते हैं। जैन सदा अपने धर्म का अनुव्रती रहा है और एतदर्थ वह देश एवं अपने प्रान्तीय राज्यों की सेवा में पूरा २ सफल हुआ है । भारत का इतिहास स्पष्ट कहता है कि अपने ने स्वामी राजा ए माण्डलिक, ठक्कुर तक को ब्राह्मण और क्षत्रिय मंत्रियों ने समय एवं अवसर पर धोखा दिया है एवं उनके साथ में विश्वासघात किया है और राज्यों में वे बड़े २ घातक परिवर्तनों के कारणभूत हुये हैं। परन्तु इतिहास एक भी ऐसा उदाहरण नहीं दे सकता, जो यह सिद्ध करे कि अमुक जैन महामात्य, मन्त्री, महावलाधिकारी, दंडनायक, कोषाध्यक्ष अथवा विश्वस्त राजकर्मचारी ने अपने स्वामी को अपने स्वार्थ एवं अपना अपमान हुये के कारण नीचा दिखाने का कभी भी प्रयत्न किया हो तथा उसको राज्यच्युत करके आप राजा बना हो। भारत में निवास करने वाली छोटी, बड़ी, ऊँची और नीची प्रत्येक ज्ञाति का कहीं न कहीं और कभी न कभी किसी न किसी प्रान्त में राज्य अवश्य छोटा या बड़ा रहा है, परन्तु किसी भी जैन ने कभी भी, कहीं भी छोटा या बड़ा राज्य स्थापित किया ही नहीं । वह तो धर्म और देश का भक्त रहा है । इतिहास में यह भी कहीं नहीं मिलेगा कि किसी वीरवर एवं महाप्रमविक जैनश्रावक ने कभी राज्यस्थापना करने का प्रयत्न तो दूर, मन एवं स्वप्न में भी उसका Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] ::सिंशवलोकम: [२४ किंधार किया हो । वह तो अपरिग्रह में विश्वास रखने वाला होता है। राज्यचालन में प्रकल्पः उसने पूरा २. योग दिया है, यह उसकी देशभक्ति, प्रजासेवा-भावनाओं का स्पष्ट प्रमाण है। तभी तो यह जनश्रुतिः चलती आई है कि जिस राज्य का महाजन संचालक नहीं, वह राज्य नष्ट हुये बिना रहता नहीं। महाजनवर्ग को जो समय २ पर नगरप्रेष्ठिपद, शाहपद मिलते रहे हैं, इन पदों के पाने वाले अधिक संख्या में जैन श्रीमन्त ही हुये हैं । श्रेष्ठि,श्रीमन्त, शाहूकार जैसे गौरवशालीपद जो उदारता,वैभवत्व, सस्य और सरलतादि गुणों के परिचायक उपाधिपद हैं जैनश्नावकों ने ही अपना अमूल्य धन, तन जनता-जनार्दन के अर्थ लगा कर ही प्राप्त किये हैं। तभी तो कहा जाता है: 'वाणिया बिना रावणनो राज गयो । 'ओसवाल भूपाल है, पौरवाल वर मित्र । श्रीमाली निर्मलमती, जिनके चरित विचित्र' ॥ ये दोहे कब से चले आते हैं समय निश्चित नहीं कहा जा सकता है। प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं के विषय में कुछ पद विमलचरित्र में हैं, जिनसे उनके विशिष्ट गुणों का परिचय मिलता है: 'सप्तदुर्ग प्रदानेन, गुण सप्तक रोपणात् । पुट सप्तकवंतोऽपि प्राग्वाट इति विश्रुता ॥६॥ श्राद्यं १प्रतिज्ञानिाहि, द्वितीयं २प्रकृतिस्थिरा । तृतीयं ३ौदवचन, चतुः ४प्रज्ञाप्रकर्षवान् ॥६६॥ पंचमं ५अपंचज्ञः, शष्ठं ६प्रबलमानसम् । सप्तमं अभुताकांक्षी, प्राग्वाटे पुटसप्तकम् ॥६७॥ अर्थात् पौरवालवर्ग का व्यक्ति प्रतिज्ञापालक, शांतप्रकृति, वचनों का पक्का, बुद्धिमान्, दूरदृष्टा, दृदृहृदयी और प्रगतिशील होता है। इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि प्राग्वाटवर्ग जैसा धर्म एवं कर्तव्य-क्षेत्र में प्रमुख रहा है, रणवीरता में भी उसका वैसा ही अपना स्थान विशिष्ट रहा है। 'रणि राउली शूरा सदा, देवी अंबावी प्रमाण । पोरवाड़ प्रगटमल्ल, मरणिन मूके माण' ॥ प्राग्वाटकुलों की कुलदेवी अंबिका है, जो रणदेवीमाता भी मानी जाती है। प्राग्वाटवर्ग का व्यक्ति वीर होता है, उसकी अपनी कुलदेवी में पूरी प्रास्ता, निष्ठा होती है। वह समरक्षेत्र में वीरता प्रगट करता है और मर कर भी अपने मान को नहीं खोता । विक्रम संवत की आठवीं शताब्दी से लगाकर तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक तथा कुछ चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक के अन्तर में प्राग्वाटश्रावकवर्ग में ऐसे अनेक वरवीर, महामात्य, दंडनायक हो गये हैं, जिनकी तलवार क्षत्रियों से ऊपर रही है। गूर्जरमहाबलाधिकारी मंत्री विमल, गूर्जरमहामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, जिनके इतिहास इस प्रस्तुत इतिहास में सविस्तार दिये गये हैं प्रमाण के लिये पर्याप्त हैं। अकेले विमलशाह के वंश में निरन्तर हुये परंपरित आठ व्यक्तियों ने गूर्जरसाम्राज्य के महामात्य, अमात्य एवं Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय दण्डनायक जैसे महान् उत्तरदायी एवं जोखमभरे पदों पर रहकर आदि से अंत तक गूर्जरसाम्राज्य की महान् से महान् सेवायें की हैं, जिनका परिचय इस ही इतिहास में दिया जा चुका है। महामात्यवस्तुपाल के वंश ने भी गूर्जरभूमि की बड़ी २ सेवायें की हैं-इसी इतिहास में देखिये । यहाँ इतना ही कहना अलं है कि प्राग्वाटवर्ग का राजनीति के क्षेत्र में इन शताब्दियों में पूरा २ वर्चस्व रहा है और गूर्जरसाम्राज्य के जन्म में, उत्थान में और उसको सुदृढ़ और शताब्दियों पर्यन्त स्थायी रखने में प्राग्वाटव्यक्तियों का श्रम, शौर्य और बुद्धि प्रधानतः लगी हैं-गूर्जरभूमि और उसके शासकों का इतिहास इस बात को अक्षरशः सिद्ध कर रहा है। अन्य प्रान्तों में भी प्राग्वाटव्यक्ति इन शताब्दियों में राजनीति में पूरा २ भाग लेने वाले हुये हैं। परन्तु साधन-सामग्री के प्रभाव में उनके विषय में लिखा जाना शक्य नहीं है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास तृतीय खण्ड [ विक्रम संवत् की चौदहवीं शताब्दी से विक्रम संवत् की उन्नीसवीं शताब्दी पर्यन्त । ] Page #425 --------------------------------------------------------------------------  Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास .. तृतीय खंड न्यायोपार्जित स्वद्रव्य को मंदिर और तीर्थों के निर्माण और जीर्णोद्धार के विषयों में व्यय करके धर्म की सेवा करनेवाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ धर्मवीर नरश्रेष्ठ श्री ज्ञान-भण्डार-संस्थापक श्रेष्ठि पेथड़ और उसके यशस्वी वंशज, डूंगर पर्वतादि विक्रम संवत् १३५३ से विक्रम संवत् १५७१ पर्यन्त विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गूर्जरप्रदेश की राजधानी अणहिलपुरपत्तन के समीप के संडेरक नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध श्रेष्ठि सुमति नामक व्यवहारी रहता था । उसके आभू नामक एक पेथड के पूर्वज और अनुज ____ प्रसिद्ध पुत्र था । आभू दृढ़ जैन-धर्मी, दयालु एवं महोपकारी पुरुष था । आभू का पुत्र - आसड़ था। आसड़ भी अपने पिता के सदृश बहुत गुणवान् एवं धर्मात्मा था। वह महान् आसड़ के नाम से ग्रंथों में प्रसिद्ध है। आसड़ के मोखू और वर्द्धमान नामक दो पुत्र थे। 'स्वस्तिश्री प्रदवर्धमान भगव प्रसादत् विम्राजिते,। श्री संडेरपुरे सुरालय ममे प्राग्वाट वंशोत्तमः । आभूर्भुरियशा अभूत् सुमतिभूर्भूमि प्रभु प्रार्थित । स्तज्जातोऽन्वय पद्मभासुररविः श्रेष्ठी महानासडः ॥१॥ सन्मुख्यो मोषनामा नयविनयनिधिः सूनुरासीत्तदीय स्तदाता वर्धमानः समजनि जनतासु स्वसौजन्यमान्यः । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [ तृतीय मोखू अपने पूर्वजों के सदृश ही धनी, मानी एवं उदारहृदय श्रावक था। उसकी स्त्री का नाम मोहनीदेवी था । मोहनीदेवी पतिपरायणा एवं जैनधर्मदृढ़ा श्राविका थी। उसने चार पुत्रों को जन्म दिया । जिनके नाम क्रमशः यशोनाग, वाग्धन, प्रह्लादन और जाल्हण थे। चारों भ्राताओं में अधिक भाग्यशाली वाग्धन हुआ । वाग्धन की धर्मपरायणा स्त्री सीता थी। सीता की कुक्षी से न्याय एवं सत्य का पुजारी चांडसिंह नामक अति प्रसिद्ध एवं गुणी पुत्र हुआ। चांडसिंह के चार बहिनें थीं-खेतू, मूजल, रत्नादेवी और मयणलदेवी । चाण्डसिंह का विवाह प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री बीजा की स्त्री खेतू से उत्पन्न शील एवं सुन्दरता में प्रसिद्ध गौरी नामा कन्या से हुआ। गौरी की कुक्षी से महान् यशस्वी, धर्मवीर नरश्रेष्ठ पृथ्वीभट्ट जिसको जैन ग्रंथकारों ने पेथड़ करके लिखा है का और अन्य छः प्रतापी पुत्र रत्नसिंह, नरसिंह, मल्लराज, विक्रमसिंह, चाहड़ (धर्मण) और मुजाल नामक प्रसिद्ध, दानवीर, श्रीमंत पुत्रों का जन्म हुआ। सातों भ्राताओं में परस्पर अगाध स्नेह-प्रेम था। इनके एक खोखी नामा बहिन भी थी । वह अति धर्मपरायणा एवं सुशीला थी। पेथड़ की स्त्री का नाम सुहवदेवी था । रत्नसिंह का विवाह सुहागदेवी नामा गुणवती कन्या से हुआ था । नरसिंह की स्त्री नयणादेवी थी, जो गृहकार्य में अति दक्ष और निपुणा थी । मल्लराज की स्त्री प्रतापदेवी थी। विक्रमसिंह और चाहड़ की सीटला और चपलादेवी क्रमशः 'अन्यूनान्यायमार्गापनयनरसिकस्तत्सुत श्चेडसिंहः सप्तासजतू (संस्तात्तनूजाः) प्रथितगुणगणाः पेथडस्तेषु पूर्वः ॥२॥ नरसिंहरत्नसिंहौ चतुर्थमल्लस्ततस्तु मुंजालः विक्रमसिंहों धर्मण इत्येतस्यानुजाः कमतः ॥३॥ संडेरकेऽणहिलपाटकपत्तनस्यासन्ने य एवनिरमापय दुच्यचैत्यं । स्वस्वैः स्वकीय कुलदैवत वीरसेशंक्षेत्राधिराज सतताश्रित सन्निधानं' ॥४॥ उपरोक्त दोनों प्रशस्तियाँ जो 'अनुयोगद्वारसत्रवृत्ति' और 'श्रोघनिर्यक्ति' में है वि० सं०१५७१ की हैं जो पर्वत और कान्हा के समय में लिखी गई है। जै० पु० प्र० संग्रह में पृ० १८ पर प्रशस्ति सं० १६ जो 'भगवतीसत्र सटीक' में है मोख के समय वि० सं०१३५३ की लिखी हुई है। दोनों प्रशस्तियों में पुरुषों के नामों के क्रम में अन्तर है । द्वि० प्रशस्ति में मोखू के पुत्र 'वाग्धन' का पुत्र चाडसिंह है और प्र० प्रशस्ति में मोखू का भ्राता 'वर्धमान' और उसका पुत्र चाडसिंह है । द्वि० प्रशस्ति २१८ वर्ष प्राचीन है; अतः अधिक मान्य यही है। 'योऽचीकरन्मंडपमात्मपुण्यवल्लीमिवारोहयितु सुकर्मा । ग्रामे च संडेरकनाम्नि वीरचैत्येऽजनि श्रेष्टीवरः स मोखः॥३॥ मोहिनीनाम तत्पनी चत्वारस्तनयास्तयोः। यशोनागो धर्मधुर्यः वाग्धन: शुद्धदर्शनः ॥४॥ प्रल्हादनो जाल्हणश्च गुणिनोऽमी तनूभवाः । वाग्धनस्य गृहिण्यासीत् सीतू सम्यक् शीलभाक ।।५।। तत्कुक्षिभूस्तत्पुत्रश्चडिसिंहो विशुद्धधीः। सद्धर्मकर्मनिष्णातो विनयी पूज्यपुज्यकः ॥६॥ पंचपु-योऽभवन् खेतू मूजल-रत्नदेव्यथ । मयणल'........"सर्वा निर्मला धर्मकर्मभिः ॥७॥ इतश्च-बीजाभिधोऽभवन्मंत्री खेतू नाम्नि च तत्प्रिया। तत्पुत्री गोरिदेवीति पुण्यकर्मसु सोधमा ।८।। तो तूढवाश्चांडसिंहस्तत्तनूजा गुणोज्ज्वलाः । श्रद्यः पृथ्वीभटो धीमान् रत्नसिंहो द्वितीयकः ॥६॥ वदान्यो नरसिहश्च तुर्यो मल्लस्तु विक्रमी। विवेकी विक्रमसिह-श्चाहडः शुभाशयः ॥१०॥ मजालश्चेत्यमीषां तु कल्याणाय कृतोद्यमा । स्वसा खोखीरता धर्मे पत्न्यश्चैषां क्रमादिमाः ॥११|| प्रथमा सूहवदेवी सुहागदेव्यथापरा । निपुणा नयणादेवी प्रतापदेव्यथा मता ॥१२॥ सीटला चौपलादेवी पुण्याचारपरायणा । पासा च पुत्राः पुत्र्यश्चाभूवन् भाग्यभरांचिताः' ॥१३॥ जै० पु० प्र० सं० प्र०१६ पृ०१८ [भगवतीसूत्र प्रो घनियुक्ति' और 'अनुयोगद्वारवृत्ति' की प्रशस्तियों में 'चाहड़' के स्थान पर 'धर्मण' छपा है,परन्तु ये प्रशस्तिये उक्त प्रशस्ति से बहुत पीछे की हैं, अतः 'चाहड़' नाम ही अधिक सही समझा गया है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० पेथड़। [२५१ धर्मपत्नियाँ थीं । इस प्रकार वाग्धन का परिवार अति विशाल एवं सुखी था। इन सातों भ्राताओं में पेथड़ अधिक प्रसिद्ध हुआ । पेथड़ ने संडेरक में एक भव्य जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था । पेथड़ और उसके भ्राताओं के विविध पुण्यकार्य पेथड़ और संडेरक ग्राम के अधीश्वर के बीच किसी कारण से झगड़ा हो गया। निदान सातों भ्राताओं ने संडेरक ग्राम को छोड़ने का विचार कर लिया । पथड़ ने बीजा नामक एक वीर क्षत्रिय के सहयोग से बीजापुर पेथड का संकिपरको कोड नामक नगर को बसाया और अपने समस्त परिवार को लेकर वहाँ जाकर उसने वास कर बीजापुर का बमाना किया। बीजापुर में आकर बसने वालों के लिये पेथड़ ने कर आधा कर दिया। इससे और वहाँ निवास करना थोड़े ही समय में बीजापुर में घनी आबादी हो गई। पेथड़ ने वहाँ एक विशाल महावीर जैनमन्दिर बनवाया और उसको अनेक तोरण, प्रतिमाओं से और शिल्प की उत्तम कारीगरी से सशोभित क उसमें भगवान महावीर की विशाल पीतलमयी मर्ति प्रतिषित की। एक सन्दर घर-मन्दिर भी बन उसमें र की सुन्दर धातमयी प्रतिमा विराजमान की। वि० सं०१३६० में उक्त प्रतिमा को पुनः अपने बड़े मन्दिर में बड़ी धूम-धाम से विराजमान करवाई। इन धर्म-कृत्यों में पेथड़ ने अपार धन-राशी व्यय की थीं। इन अवसरों पर उसने याचकों को विपुल दान दिया था और अनेक पुण्य के कार्य किये थे। फलतः उसका और उसके परिवार का यश बहुत दूर-दूर तक प्रसारित हो गया। पेथड़ उस समय की जैनसमाज के अग्रणी पुरुषों में गिना जाने लगा। सातों भ्राताओं में अपार प्रेम था। छः ही भ्राता ज्येष्ठ पेथड़ के परम आज्ञानुवर्ती थे । इसी का परिणाम था कि पेथड़ अनेक धर्मकृत्य करके अपने और अपने वंश को इतना यशस्वी बना सका । यवन आक्रमणकारियों ने जैसे भारत के अन्य धर्मस्थानों, मन्दिरों को तोडा और नष्ट-भ्रष्ट किया. उसी प्रकार पथड और उसक भ्राताओं अर्बदगिरि पर बने प्रसिद्ध जैनमन्दिर भी उनके अत्याचारी हाथों के शिकार हये बिना के द्वारा अर्बुदस्थ लुण लूण- नहीं रह सके । अर्बुदगिरि के बहुत ऊंचा और मार्ग से एक ओर होने से अवश्य वे वसहिका का जीणोद्धार जितनी चाहते थे, उतनी हानि तो नहीं पहुँचा सके, परन्तु फिर भी उनकी सुन्दरता को नष्ट करने में उन्होंने कोई कमी नहीं रक्खी। यह समय गूर्जरसम्राट् कर्ण का था । कर्ण अल्लाउद्दीन खिलजी 'संडेर केऽपहिलपाट कपत्तनस्यासन्ने य एवनिरमापय दुच्वचैत्यं । स्वस्वैः स्वकीय कुलदैवत वीरसेश क्षेत्राधिराज सतताश्रित सन्निधानं ॥४॥ वासावनीनेन समे च जाते, कलौ कुतोऽस्थापयदेव हेतोः । बीजापुर क्षत्रिय मुख्य वीजा सौहार्दतो लोककराद्ध कारी ॥५॥ अत्र रीरीमय ज्ञातानंदनप्रतिमान्वितं । यश्चत्यं कारयामास, लसत्तोरणराजितं' ॥६॥ १० सं० द्वि०भा० पृ०७३,७४-७६ (१०२६६,२७०) D. C. M. P. (G. O.S. Vo. No. LxxVI) P. 247 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ 1 :: प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय से परास्त हो चुका था और अपनी परमसुन्दरा प्रिया महाराणी को भी खो चुका था। ऐसे निर्बल सम्राट के शासनकाल में दुश्मनों के अत्याचारों से प्रजा का पीड़ित होना सम्भव ही है। यशस्वी एवं दृढ़ जैनधर्मी पेथड़ ने अर्बुदगिरि के लिये एक विशाल संघ निकाला और बड़ी भावभक्ति से तीर्थ की पूजा-भक्ति की तथा महामात्य वस्तुपाल तेजपाल द्वारा विनिर्मित प्रसिद्ध लूणवसहिका का जीर्णोद्धार प्रारम्भ करवाया। इस जीर्णोद्धार में पेथड़ ने अत्यन्त द्रव्य का व्यय किया । पेथड़ ने यह कार्य अपने यश और मान की वृद्धि के हेतु नहीं किया था । जीर्णोद्धार के कराने वाले जैसे अपनी और अपने वंश की कीर्ति को चिर बनाने की इच्छा से बड़ी २ प्रशस्तिये शिलाओं पर खुदवा कर लगवाते हैं, उस प्रकार उसने अपनी कोई प्रशस्ति नहीं खुदवाई । वसहिका के एक स्तम्भ पर केवल एक श्लोक अंकित करवाया कि संघपति पेथड़ ने सूर्य और चन्द्र रहे, तब तक रहने वाले सुदृढ़ इस लूणवसहिका नामक जिनमन्दिर का अपने कल्याणार्थ जीर्णोद्धार करवाया। इस जीर्णोद्धार से पेथड़ के अतुल धनशाली होने का परिचय तो मिलता ही है, परन्तु वह नामवर्धन एवं आत्मकीर्ति के लिये कोई पुण्य-कार्य नहीं करता था का भी विशद परिचय मिलता है । यह महान् गुण अन्य व्यक्तियों में कम ही देखने में आया है। गूर्जरसम्राट् कर्णदेव के राज्यकाल में वि० संवत् १३६० में पेथड़ ने भारी संघ के साथ में शत्रुजय, गिरनार आदि प्रमुख तीर्थों की यात्रा की । पेथड़ के अन्य छः भ्राता और उनका समस्त परिवार भी इस संघ-यात्रा तीर्थ-यात्रायें और विविध में उपस्थित था । इसी प्रकार उसने भारी समारोह से अपने पूरे कुटुम्ब और भारी संघ के क्षेत्रों में धर्मकृत्य तथा चार साथ में इन्हीं तीर्थों की छः बार पुनः पुनः तीर्थयात्रायें की थीं। श्रीमद् सत्यमूरि के ज्ञान-भण्डारों की संस्थापना सदुपदेश से पेथड़ ने चार ज्ञानभण्डारों की भी स्थापनायें की थीं। अर्बुदाचल के ऊपर बने हुये भीमाशाह के प्रसिद्ध विशाल जिनालय में भीमाशाह द्वारा विनिर्मित आदिनाथ भगवान् की विशाल धातु-प्रतिमा, जो अपूर्ण रह गयी थी, उसको पेथड़ ने सुवर्ण की सेंधे लगाकर पूर्ण करवाई। ६ नव क्षेत्रों में पेथड़ ने अतुल द्रव्य व्यय किया। इस प्रकार पेथड़ ने अनेक धर्मकृत्य किये और भारी यश, कीर्ति प्राप्त की। पेथड़ महान् धर्मात्मा, मातृ-पितृ भक्त, दानी, परोपकारी, सद्गुणी और ज्ञान का पुजारी था। वि० सं० १३७७ में गर्जरभूमि में तृवर्षीय महा भयंकर दुष्काल पड़ा था । उस समय भी पेथड़ ने खुले मन और धन से गरीब मनुष्यों को अन्नदान देकर अपनी मातृभूमि की महान् यशदायी सेवा की थी। 'श्राचन्द्राक्कै नन्दतादेष संघाधीशः श्रीमान् पेथड़ः संघयुक्तः । जीर्णोद्धारं वस्तुपालस्य चैत्ये तेने येनेहाऽर्बुदाद्रौ स्वसारैः ।। अ० प्रा० जै० ले० सं० ले० ३८२ 'योऽकारयत् सचिवपुंगव वस्तुपाल निर्मापितेऽर्बदगिरिस्थित नेमिचैत्ये। उद्धारमात्मन इव बडतोह्यपारसंसार दुस्तरणवारिधिमध्य इध्ध' ||७|| प्र०सं०वि० भा० प्र०सं०२६६, २७० 'समहगतिलधोः श्री कर्णदेवस्य राज्ये ॥॥ 'खरस समयसोमे (१३६०) बंधुभिः षडभिरेव, सहसम सुविधिना साधने सावधानः । 'विमलगिरिशिरः स्थादीश्वरे चोज्जयन्ते । यदुकुलतिलकामं नेमिमानम्य मोदात् ॥१०॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण- जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-मं० मंडलिक :: [ २५३ पेड़ का परिवार और सं० मंडलिक पेथड़ की स्त्री का नाम सूहवदेवी था । सुहवदेवी के पद्म नाम का पुत्र था । पद्म का पुत्र लाडण हुआ । लाडण का पुत्र अल्हणसिंह था । पेथड़ जैसा धर्मात्मा एवं महान् सद्गुणी और परोपकारी श्रावक था, वैसी ही गुणवती उसकी पतिपरायण स्त्री और पुत्र पद्म था । पद्म सचमुच ही पद्म के समान निर्मलात्मा था । दोनों पति-पत्नी अत्यन्त उदारमना और धर्मप्रेमी थे, तब ही तो उनके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी एक से एक बढ़कर धर्मानुरागी, परोपकारी और पुण्यशाली थे । आल्हणसिंह की स्त्री उमादेवी की कुक्षी से मण्डलिक का जन्म हुआ था । यह भी अपने पितामह के सदृश यशस्वी और कीर्त्तिशाली हुआ । वि० सं० १४६८ में गूर्जर भूमि में दुष्काल पड़ा, उस समय इसने गरीबों को अन्न और चुधितों को अन्न- भोजन दे कर मरने से बचाया । इसने श्रीमद् विजयानन्दसूरि के सदुपदेश से अनेक मन्दिर और धर्मशालायें बनवाई तथा अनेक स्वनिर्मित जिनालयों में और अन्य धर्मस्थानों और मन्दिरों में जिनबिम्बों की स्थापनायें कीं । रेवत और अबु दतीर्थादि प्रमुख तीर्थों में जीर्णोद्धारकार्य करवाया, शास्त्र लिखवाये तथा अनेक सुकृत के कार्य किये। वि० सं० १४७७ में शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये भारी संघ निकाल कर तीर्थ-दर्शन किये और स्वामीवात्सल्य करके संघ पूजा की। इसका पुत्र दाइया और ढाइया का पुत्र विजित हुआ । विजित की स्त्री मणकाई थी । मणकाई के तीन प्रसिद्ध पुत्र हुये, पर्वत, डूंगर और नरवद । 'निजमनुजभवं यः, सार्थकं श्रावककार विहितगुरुसपर्यः पालयन् सधिपत्यं' । कल सकल कला सरकौशली निकलंकः । पुनरपि षड़काषीद् यो हि यात्रास्तथैव' ॥ ११ ॥ 'गोत्रे ऽत्रैवाद्यात्पबि, भीमसाधु विधिप्सितं । यं पित्तलमयं हेमदृढ़संधिमकारयत् ॥८॥ 'तत्तनयः पद्माह्न स्तदुद्वहो लाडणस्तदंगभवः । अस्ति स्माल सिंहस्तदंगजो मंडलिक नाम ' ॥१६॥ प्र० सं० द्वि० भा० पृ० ७४-७७ (प्र० सं० २६६, २७० ) 'सं० १४८२ वर्षे फाल्गुनशदि १३ खो "व्य० आल्हणसिंह भार्या व्य० उमादेसुत संघ० व्य ० मंडलेन ........ । जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ६१३ पृ० ११३ 'श्रीरेवतार्बु' दसुतीर्थमुखेसु चैत्योद्धारान कार यदने कपुरेष्यनल्यैः । न्यायार्जितैर्घनभरैर्वरधर्मशाला यः सत्कृतों निखिलमंडल मंडलीकैः वसुरसभुवन प्रमिते (१४६८) वर्षे विक्रमनृपाद विर्निर्जितवान् | दुष्कालं समकालं बहुधानान वितरणाद्यः ॥ १८ ॥ वर्षेषु सप्तसप्तत्यधिक चतुर्दशशतेषु (१४७७) यो यात्रां । देवालय कलिता किल चक्रे शत्रुष्जयाद्येषु ||१६|| श्रुतलेखन संघाचे प्रभृतिनिबहूनि पुण्यकार्याणि । योऽकार्षीद् विविधानि च पूज्यजयानंद सूरिंगिरा ॥ २ ॥ व्यवहार ठाइ श्रख्योऽभूद्दक्षस्तत्तनुज एव विजिताक्षः । वरमणकाई नाम्नी सत्ववती जन्यजानि तस्य ॥२१॥ तत्कुक्ष्यनुपममानस कासार सितच्छादास्त्रयः पुत्राः । अभवन् श्रेष्ठाः पर्वत डूंगर नरवद सुनामानः ॥ २२ ॥ तेष्वस्ति पर्वताख्यो लक्ष्मीकान्तः सहस्रवीरेण पोइ श्रप्रमुख कुटुम्बैः परीवृतो वंशशोभाकृत् ॥ २३॥ डुंगरनामा द्वितीयः स्वचारुचातुर्यत्रर्य मेधावान् । पत्नीतज्जां मंगादेवी रमणः कान्हाख्यसुतपक्षः ॥२४॥ प्र० [सं० प्र० भा०पृ० ७४, ७८ (१० २६६, २७०) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: महायशस्वी डुङ्गर और पर्वत तथा कान्हा और उनके पुण्यकार्य 1 । 1 दोनों भ्राता महान् गुणवान्, धर्मात्मा और उदारहृदय थे । जैनधर्म के पक्के पालक थे । पूर्वज पेड़ और मंडलिक जिस वंश की शोभा और कीर्त्ति बढ़ा गये, उसी कुल में जन्म लेकर इन्होंने उसके गौरव और यश को पर्वत, डूंगर और उनका अधिकही फैलाया। दोनों भ्राताओं में बड़ा प्रेम और स्नेह था । पर्वत की स्त्री का परिवार नाम लक्ष्मीदेवी था सहस्रवीर और पोइया (फोका) नाम के उसके दो पुत्र डूङ्गर की स्त्री का नाम लीलादेवी था। डुङ्गर के मंगादेवी नाम की एक कन्या और हर्षराज, कान्हा नाम के दो पुत्र थे। तीसरे भ्राता नरवद की स्त्री हर्षादेवी थी और उसके भास्वर नाम का पुत्र था । कान्हा के दो स्त्रियां थीं । एक का नाम खोखीदेवी और द्वितीया मेलादेवी थी । मेलादेवी के वस्तुपाल नाम का एक पुत्र था, जिसका विवाह वल्हादेवी नाम की कन्या से हुआ था । फोका की स्त्री देमति थी और उदयकर्ण नामक पुत्र था । वि० सं० १५५६ चै० कृ० ५ सोमवार को इन्होंने बहुत द्रव्य व्यय करके महोत्सव किया और उस अवसर पर स्वविनिर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई तथा वाचकपदोत्सव करके एक मुनिराज को वाचकपदवी से अलंकृत पर्वत और डूंगर के करवाया | पर्वत और कान्हा ने उपा० श्री विद्यारत्नगाणि के सानिध्य में श्री विवेकरत्नधर्मकृत्य सूरि के उपदेश से व्य० डुङ्गर के श्रेयार्थ 'चैत्यवंदनसूत्र- विवरण' लिखवाया । कान्हा दि "प्राग्वाट सं० वीजा (विजिता) भा० मधू (माणकाई ) पुः सं डूङ्गरसी भार्या लीलू पुत्र हर्षा जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ० ११५ Do संताने व्य० परबतभा० लखीसुत व्य० फोका भा० श्रा० देमाई सुतविजय कर्णेन' जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ११३६ 'संवत् १५५६..........व्य० मंडलीकसुत व्य० ढाइ भा० मरणकाई सुत नरवदकेन भा० हरषाई सु० भारवर ....... जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले ०८ 'संवत् १५७८...... षोषी मेलादे सुत वस्तुपालादियुतेन 'संवत् १५६१ वर्षे भावाल्हादे गंधार वास्तव्य 'डूंगरसुत व्य० कान्हाकेन भा० जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० २६४ गंधार वास्तव्य श्री प्राग्वाटज्ञातीय व्य० कान्हा भा० षोषी मेलादेसु० व्य० वस्तुपालेन 'सं० १५५३' [ तृतीय 'संवत् १५४६ वर्षे ..." जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ६७३ 'फोका' को प्रशस्ति-संग्रह की डूंगर और पर्वत की प्र० २६६, २७० और २७२ में पोइया' लिखा है । हो सकता है वस्तुतः नाम पोइा हो और धातु-प्रतिमा के लेखों को पढ़ते समय अक्षर के प्रकृतिभ्रष्ट हो जाने से 'पोइ' के स्थान में 'फोका' पढ़ा गया हो और ऐसा होना संभव भी है। इसी प्रकार 'विजयक' के स्थान में प्रशस्ति सं० २७२ में 'उदयकरण' लिखा है । प्रशस्ति सं० २७२ में श्रा० कक्कू, श्रा०रढ़ी, श्रा० षोषी (खोखी) लिखा है । षोषी का परिचय अन्य लेखों में भी जाता हैं । श्र० ककू और श्रा० रदी श्रावक षोषी से ज्येष्ठा होनी चाहिए। इस दृष्टि से श्रा० ककू हर्षराज की पत्नी और श्रा० रढ़ी नरवद के पुत्र भास्वर की पी मानना अधिक संगत है। लेखांक २६४ में डूंगरसुत 'कान्हाकेन' से यह ध्वनित होता है कि डूंगर का वि० सं० १५७८ के पूर्व ही स्वर्गवास हो चुका था । 'श्री संदेहविषौषधि' की प्रशस्ति में जो प्र० सं० के पृ० ८० पर २७२वी है में भी डूंगर का नाम नहीं है । यह प्रशस्ति वि० सं० १५७१ की है। इससे यह सिद्ध हुआ कि डूंगर १५७१ में जीवित नहीं था । इन कारणों पर यह कहा जासकता है डूंगर की मृत्यु वि० सं० १५६० के पश्चात् हुई । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०क्षा सद्गृहस्थ-श्रे० पेथड़ :: [२५५ वि० सं० १५६० में दोनों भ्राताओं ने सपरिवार एवं अनेक सधर्मी बन्धुओं के साथ में जीरापल्लीतीर्थ और अर्बुदतीर्थों की भक्तिभावपूर्वक दानादि पुण्यकार्य करते हुये यात्रा की। आगमगच्छीय श्रीमद् विवेकरत्नसरि का महामहोत्सवपूर्वक बहुत द्रव्य व्यय करके सरिपदोत्सव किया तथा इनके सदुपदेश से वि० सं० १५७१ पौष कृ. १ सोमवार को गंधारबन्दर में आचार्य श्रीमद् संयमरत्नसरि पर्वत और कान्हा के और उपा० विद्यारत्नगणि की निश्रा में अनेक सुकृत के कार्य किये—जिनबिंबों की सुकृतकार्य प्रतिष्ठा करवाई और तीर्थ यात्रा की। निमन्त्रित संघों और नागरिक व्यापारीवर्ग का स्वामीवत्सलादि से बहुत द्रव्य व्यय करके सत्कार किया । सधर्मी बन्धुओं को दो-दो रुपये की भेंट दी । गंधारबन्दर के समस्त धर्मस्थानों में कल्पसूत्र की प्रतियाँ भेंट की। शीलवतादरण-नंदिमहोत्सव, आचार्यपदोत्सव और उपाध्यायपदोत्सव किये। इन उत्सवों में अनेक ग्राम, नगरों से आये हुये साधु, मुनियों को वस्त्रदान दिया। श्रीमद् विवेकरत्नमरि के वचनों से 'प्रोपनियुक्तिवृत्ति,''श्री संदेह विषौषधि,' 'अनुयोगद्वारवृत्ति' लिखवाई। इस प्रकार इन धर्मिष्ठ काका भ्रातृजा ने अनेक धर्मग्रन्थों का लेखन करवाया, ज्ञानभण्डारों की स्थापना की, जीर्णोद्धार में द्रव्य व्यय किया तथा धर्मशालाओं में, यात्राओं में अन्न-वस्त्रदान में, संघभक्ति एवं स्वामीवात्सल्यों में और इसी प्रकार के अन्य धर्मकृत्यों में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करके उज्ज्वल कीर्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त की। वि० सं० १३५३ से वि० सं० १५७१ तक अर्थात् २१८ वर्षों तक इस कुल का गौरव और प्रतिष्ठा एकसी बनी रहीं। ऐसे ही प्रतापी एवं यशस्वी कुलों से जैनसमाज का गौरव रहा है और जैनधर्म की प्रसिद्धि और प्रचार बढ़ सका है। 'स्वकारिताहत्प्रतिमा प्रतिष्ठा, विधाप्य तौ पर्वत डुङ्गाराभिधौ । वर्षे हि नंदेसु तिथौ १५५६ च चक्रतुः श्रीवाचकस्थापनसन्महोत्सवं । खर्तुतिथिमित (१५६०) समाया यात्रा तौ चक्रतुः सुतीर्थेषु । जीरापल्लीपार्बुिदाचलायेषु सोल्लासं ॥२६॥ गंधारमंदिरे तौझलमलयुगलादिसमुदयोपेताः । श्रीकल्पपुस्तिका अपि दत्वा रिक्थं च सर्वशालाषु ॥२७॥ कृतसंघसत्कृती चावाचयता तौ च रुप्यनाणकयुग । ददश्व (तौ च) सितापुजं समस्ततनागरिकवणिजा ॥२८॥ कृतवंतावित्यादिविहित चतुर्थवतादरी सकृतं । श्रागमगच्छेशश्रीविवेकरत्नाख्यगुरुवचनात् ॥२६॥ अर्थोत्तमौ पर्वतकान्हनामको, सार्थोद्यमौ सरिपदप्रदापने । श्राकारिताना च समानधर्मिणा, नानाविधस्थान समागताना ॥३०॥ पुसा दुकूलादिकदानपूर्वकं, समस्तसद्ददर्शनसाधुपुजनात् । महामहं तेनतुरुत्तरं तौ, पवित्र चितौ जिनधर्मवासितौ ॥३१॥ श्रागम गच्छ विभूता सूरि जयानंदसद्गुरोः क्रमतः । श्रीमद् विवेकरत्नप्रभुसूरीणी सदुपदेशात् ॥३२॥ शशिमुनितिथि (१५७१) मित्त वर्षे समग्र सिद्धानलेखनपराभ्या । व्यवहार परबत कान्हभ्या सु-(?) रसिकाभ्यो ॥३३॥ प्र० सं० पृ० ७५, ७६ (प्र० सं० २६६,२७०) प्र० सं० द्वि० भा०प्र० सं० २७२ पृ० ७६ (श्री संदेह विषौषधि) प्र०सं० द्वि० भा० प्र०६३३ १०१६१ (श्री चैत्यवंदनसूत्र विवरण) जै० गु० क० भा०२ खं० २ पृ० २२३२। पुरातत्त्व वर्ष १ अं०१ में एक ऐतिहासिक जैन प्रशस्ति' नामक लेख देखो Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] [हतीय सुमति भाभू प्रासड़ मोखू [मोहिनीदेवी वर्धमान यशोनाग वाग वाग्धन [सीता] प्रहादन जाल्हा चांडसिंह [गोरी] खेतू पूंजल रत्नदेवी मयणलदेवी पेथड (पृथ्वीभट्ट) रत्नसिंह नरसिंह मल्ल चाहड़ (धर्मण) विक्रमसिंह [सुहवदेवी] [सुहागदेवी] [नयणादेवीं] [प्रतापदेवी] [सीतलादेवी] [चांपलदेवी] | मुंजाल खोखी पद्म लाडण पान्हणसिंह [ऊमादेवी] १२३ सं० मंडलिक डाईमा विजिता [मणकाई] - Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०झा० सद्गृहस्थ-श्रे० श्रीपाल :: [२५७ पर्वत [लक्ष्मी ] डुङ्गर [लीलादेवी] T सहस्रवीर पोइमा (फोका) मंगादेवी हर्षराज [मति] [ककू] उदयकर्ण १ नरवद [हर्षादेवी] I भास्वर [रढ़ी ] कान्हा [खोखीदेवी, मेलादेवी] वस्तुपाल [वल्हादेवी] श्री मुण्डस्थलमहातीर्थ में श्री महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार कराने वाला कीर्त्तिशाली श्रेष्ठ श्रीपाल वि० सं० १४२६ श्रीमुण्डस्थलमहातीर्थ दाचल के नीचे खराड़ी ग्राम से लगभग चार मील के अन्तर पर पश्चिम दिशा मूंगला नाम से छोटे-से ग्राम के रूप में एक जैन मन्दिर के सहारे जैनतीर्थ है। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में जब चन्द्रावती का राज्य पूर्ण समृद्ध और उन्नतशील था, तब आज का मूंगथला ग्राम अनेक जैन मन्दिरों से सुशोभित श्री मुंडस्थलमहातीर्थ के रूप में सुशोभित था । पुत्र अभी जो श्रीमहावीरस्वामी का देवालय विद्यमान् है, उसका जीर्णोद्धार ठ० महीपाल की स्त्री रूपेणी के ० श्रीपाल ने करवा कर वि० सं० १४२६ वैशाख शु० २ रविवार को श्री कोरंटगच्छीय श्रीनन्नाचार्यसंतानीय श्रीककसूरिपट्टालंकार श्रीमद् सावदेवसूरि के करकमलों से कलश- दण्ड प्रतिष्ठित करवाये तथा चौवीस देवकुलिकाथों में बिंबप्रतिष्ठा करवाई और अन्य अनेक जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई | २ १-प्र० सं० प्र० भा० पृ० ५७ ( भगवतीसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति) । प्र०सं० द्वि० भा० पृ० ७२ (अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति की प्रशस्ति ) प्र० सं० द्वि० भा० पृ० ७६ (श्री श्रौषनियुक्ति की प्रशस्ति) । प्र० सं० द्वि० भा० पृ० १६१ (श्रीचैत्यवंदनसूत्र विवरणम् ) जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ले० ११५ । जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ० २६४, ६१३, ६७३, ११३६ प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०८ जै० पु० प्र० सं० प्र० भा० पृ० १८ [१६] (भगवतीसूत्र - पुस्तक प्रशस्ति) । २ - प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले २७४, २७५ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: सिरोही राज्यान्तर्गत कोटराग्राम के जिनालय के निर्माता श्रेष्ठि सहदेव वि० सं० १४६५ कोटरा ग्राम में जो श्रीमहावीर जिनालय है, वह प्राग्वाटज्ञातीय सहदेव ने बनवाया था तथा उसने पूर्व में वि० सं० १२०८ वर्ष में पिप्पलगच्छीय श्री विजयसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठित डींडिला नामक ग्राम के जिनालय के मू० नायक महावीरबिंब को वहाँ से लाकर पश्चात् वि० सं० १४६५ में पिष्पलाचार्य श्री वीरप्रभसूरि द्वारा स्वविनिर्मित जिनालय में मू० नायक के स्थान पर स्थापित करवाया था । १ वीवाड़ा ग्राम के श्री आदिनाथ जिनालय के निर्माता श्रेष्ठि पाल्हा वि० सं० १४७६ [ तृतीय डीडिलाग्राम के महावीर जिनालय के गोष्ठिक श्रेष्ठि द्रोणी संतानीय प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० कुरा के रामदेवी नामा स्त्री की कुक्षी से श्रे० माला का जन्म हुआ था । श्रे० माला की स्त्री जीवलदेवी के पाल्हा नामक यशस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रे० पाल्हा ने वीरवाड़ा में जिनालय बनवाकर वि० सं० १४७५ माघ शु० ११ शनिश्चर को बृहद्गच्छीय पिष्पलाचार्य श्री शांतिस्वरिसंतानीय भ० वीरदेवसूरि के पट्टनायक श्रीवीरप्रभसूरि के करकमलों से श्री आदिनाथप्रतिमा को उसमें महामहोत्सव करके प्रतिष्ठित करवाया । उक्त मन्दिर का मण्डप वि० सं० १४७६ में बनकर पूर्ण हुआ था । मण्डप के पूर्ण होने के शुभोपलक्ष में श्रीमद् वीरप्रभसूरि को तत्वावधानता में श्रे० पाल्हा ने हर्षोत्सव मनाया था |२ उदयपुर मेदपादेशान्तर श्री जावरग्राम में श्रीशांतिनाथजिनालय के निर्माता श्रेष्ठि धनपाल वि० सं० १४७८ मेदपाटनरेश्वर महाराणा मोकलदेव के विजयी राज्यकाल में प्राग्वाटज्ञातीय प्रति प्रसिद्ध श्रावक श्रे० वाना बावरग्राम में रहता था । श्रे० वाना का पुत्र श्रे० रत्नचन्द्र था । रत्नचन्द्र की स्त्री लाखुदेवी महागुणवती एवं १- जै० ले० सं० भा० १ ले० ६६६ । २ श्र० प्र० जै० ले० सं० ले० २७८ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० मंडलिक :: [२५६ धर्मात्मा स्त्री थी । लाखूदेवी का पुत्र श्रे० घणपाल ( धनपाल ) था । धणपाल महायशस्त्री एवं कीर्त्तिशाली श्रावक हुआ है। उसने श्रीशत्रुंजयमहातीर्थ, गिरनारतीर्थ, अर्बुदतीर्थ, जीरापल्लीतीर्थ, चित्रकूटतीर्थ आदि की संघसहित तीर्थयात्रा की और संवपति के पद को धारण किया तथा आनन्दपूर्वक संघयात्रा करके वि० सं० १४७८ पौष शु० ५ को स्वभा० हासूदेवी पुत्र श्रे० हाजा, भोजराज, धनराज, पुत्रवधू देऊदेवी, भाऊदेवी, धाईदेवी, पौत्र देवराज, नृसिंह, पुत्रिका पूनी, पूरी, मृगद, चमकू आदि कुटुम्ब से परिवृत्त होकर स्वविनिर्मित श्री शांतिनाथप्रासाद की प्रतिष्ठा महामहोत्सवपूर्वक तपागच्छनायकनिरुपममहिमानिधानयुगप्रधानसमान श्री श्री सोमसुन्दरसूरि द्वारा करवाई | श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि की निश्रा में भट्टारकपुरंदर श्रीमुनिसुन्दरभूरि, श्रीजयचन्द्रसूरि, श्रीभुवनसुन्दरसूरि, श्रीजिनसुन्दरसरि, श्रीजिनकीर्त्तिसूरि, श्रीविशालराजसूरि, श्रीरत्नशेखरसूरि, श्रीउदयनंदिसूरि, श्रीलक्ष्मीसागरसूरि, महामहोपाध्याय श्री सत्यशेखरगणि, श्रीसूरसुन्दरगणि, श्रीसोमदेवगण, पं० सोमोदयमणि आदि प्रखर तेजस्वी पंडितशिष्यवर्ग था। महोत्सव का महत्व श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के बहुलशिष्यवर्ग की उपस्थिति से ही सहज समझ में आ सकता है कि जिस महोत्सव में इतने प्रखर पंडित एवं तेजस्वी आचार्य, उपाध्याय, साधु और पंडित संमिलित हों, उस महोत्सव में कितना द्रव्य व्यय किया गया होगा और कितने दूर २ एवं समीप के नगर, ग्रामों से संघ, कुटुम्ब एवं श्रावकगण महोत्सव में भाग लेने के लिये तथा युगप्रधानसमान श्रीसोमसुन्दरसूरि और उनके महाप्रभावक शिष्यवर्ग के दर्शनों का लाभ लेने के लिये आये होंगे । १ बालदाग्राम के जिनालय के निर्माता प्राग्वाटज्ञातीय बंभदेव के वंशज वि० सं० १४८५ बालदाग्राम में जो जिनालय हैं, वह प्राग्वाटज्ञातीय धर्ममूर्ति बंभदेव का बनाया हुआ है। श्रे० बंभदेव के वंश में श्रे० थिरपाल नामक अति ही भाग्यशाली श्रावक हुआ । थिरपाल की धर्मपरायणा स्त्री देदीबाई के नरपाल, हापा, तिहुणा, काल्हू, केल्हा और पेथड़ ६ पुत्ररत्न उत्पन्न हुये । श्रे० विहुण के वीक्रम और साढ़ा नामक दो पुत्र थे । श्रे० साढ़ा के काजा, चांपा, सूरा और सहसा नामक चार पुत्र थे । श्रे० पेथड़ की स्त्री का नाम जाणीदेवी था । जाणीदेवी की कुक्षी से थड़सिंह और मं० ऊदा का जन्म हुआ । । मं० हापा के राम नाम का पुत्र था । श्रे० राम के राउल, मोल्हा, कचा और मं० वील्हा नामक चार पुत्र हुये थे । मं० वील्हा के हरभा और हरपाल नामक दो पुत्र हुये थे । कच्छोलीवालगच्छीय पूर्णिमापचीय वाचनाचार्य गुणभद्र से समस्तगोष्ठिकों के सहित छः ही भ्राता नरपाल, २ हापा, तिहुखा, काल्हू, केल्हा और पेथड़ ने वि० सं० १४८५ में जीर्णोद्धार करवाकर ( उसी संवत् में) ज्येष्ट शु० ७ १- प्रा० ले० सं० भा० १ ० ११८ । २ - प्र० प्र० जै० ले० सं० ० २६८, २६६ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय मंगलवार को महामहोत्सव किया और श्रे० तिहुणा, मं० पेथड़, म० हापा के परिजनों ने श्री महावीरबिंब करवा कर श्रीरत्नप्रभसरि के पट्टालंकार भट्टारक श्रीसर्वाणंदररि के उपदेश से उसी दिवस को प्रतिष्ठित करवाया। वंश-वृक्ष थिरपाल [देदीबाई] नरपाल हापा तिहुणा कान्हू केल्हा ... पेथड़ [जाणीदेवी] विक्रम थड़सिंह मं० ऊदा राउल मोल्हा कचा मं० वीन्हा । | काजा चांपा सूरा सहसा हरभा हरपाल पंडित प्रवर लक्ष्मणसिंह वि० सं० १४६३ उदयपुर राज्यान्तर्गत श्री देवकुलपट्टक (देलवाड़ा) नामक अति प्राचीन नगर के श्री पार्श्वनाथस्वामी के बड़े जिनालय में प्राग्वाटज्ञातीय गौष्ठिक श्रे० झाझा की धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई के देवपाल नामक पुत्र हुआ था । देवपाल की स्त्री देवलदेवी के श्रे० कुरपाल, श्रीपति, नरदेव, धीणा और पंडित लक्ष्मणसिंह नामक पुत्र हुये थे। लक्ष्मणसिंह कछोलीवालगच्छीय पूर्णिमापक्ष की द्वितीय शाखा के आचार्य श्री भद्रेश्वरसूरिसंतानीयान्वय में भ० श्री रत्नप्रभसूरि के पट्टालंकार श्री सर्वानंदसूरि का श्रावक था। लक्ष्मणसिंह ने वि० सं० १४६३ वैशाख कृ० ५ को अपने गुरु सर्वाणंदमूरि के सदुपदेश से स्वश्रेयार्थ श्री पार्श्वनाथस्वामी की दो कोयोत्सर्गस्थ प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई।* *जै० ले० सं० भा०२ ले०१६६६ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रे० हीसा, धर्मा :: [ २६१ श्रेष्ठ हीसा और धर्मा वि० सं० १५०३ विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध श्रीमंत देवपाल नामक सुश्रावक देवकुलपट्टक में रहता था । उसके सुहड़सिंह नामक पुत्र था, जिसकी स्त्री का नाम सुहड़ादेवी थी । सुहड़ादेवी के पीछड़ लिया (?) नामक ज्येष्ठ पुत्र था और छोटा पुत्र कर्ण था । कर्ण की स्त्री का नाम चनूदेवी था । चनूदेवी बड़ी सौभाग्यवती एवं गुणगर्भा स्त्री थी । वह जैसी गुणवती थी, वैसी ही पुत्ररत्नवती भी थी । उसके सौभाग्य से सात पुत्र शाह धांधा, हेमा, धर्मा, कर्मा, हीरा, काला और हीसा नामक थे । उक्त पुत्रों में से श्रे० हीसा का विवाह लाखू नामक गुणवती कन्या से हुआ था । लाखूदेवी के आमदत्त आदि पुत्र थे । ० हीसा ने वि० सं० १४६४ फाल्गुन कृ० ५ को तपागच्छाधिपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से अतिसुन्दर श्री सत्तावीसकायोत्सर्गिक जिनप्रतिमापट्टिका को बड़ी धूमधाम एवं महोत्सवपूर्वक समस्त परिवार सहित प्रतिष्ठित करवाई । १ उक्त पुत्रों में से तृतीय पुत्र धर्मा का विवाह धर्मिणी नामा कन्या से हुआ था । धर्मिणी की कुक्षी से सहसा, सालिग, सहजा, सोना और साजण नामक पाँच पुत्र हुये थे । श्रे० धर्मा ने वि० सं० १५०३ आषाढ़ शु० ७ को तपा० श्री जयचन्द्रसूरि के कर-कमलों से महोत्सवपूर्वक ६६ (छिन्नवे) जिनप्रतिमापट्टिका समस्त परिवारसहित प्रतिष्ठित करवाई थी । इसी वि० सं० १५०३ आषाढ़ शु० ७ के शुभावसर पर श्री जयचन्द्रसूरि के कर-कमलों से प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० आका की स्त्रियाँ जसलदेवी और चांपादेवी नामा के पुत्र शा० देल्हा, जेठा, सोना और खीमा ने भी श्री चौवीशीजिनप्रतिमापट्ट करवा कर प्रतिष्ठित करवाया । २ धांधा हमा पीछड़लिया वंश-वृक्ष देवपाल सुहड़सिंह [सुहड़ादेवी] धर्मा [धर्मिणीदेवी] कर्मा सहसा सालिग सोना सहजा १- जै० ले० सं० भा० २ ले १६६८, १६६६ । कर्ण [देव] हीरा काला साजण २- जै० ले० सं० भा० २ ले० १६७३ हीसा [लाखूदेवी] आमदत्त Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ) :: प्राग्वाट-इतिहास :: [तृतीय वीरप्रसविनी मेदपाटभूमीय गौरवशाली श्रेष्ठि-वंश वि० सं० १४६५ से वि० सं० १५६६ पर्यन्त श्री धरणविहार-राणकपुरतीर्थ के निर्माता श्रे० सं० धरणा और उसके ज्येष्ठभ्राता श्रे० सं० रत्ना वि० शताब्दी पन्द्रहवीं के प्रारंभ में नांदियां (नंदिपुर ) नामक ग्राम में, जो सिरोही-स्टेट (सजस्थान) के अंतर्गत है सं० सांगण रहता था। सं० सांगण के कुरपाल नामक प्रसिद्ध पुत्र था। कुरपाल की स्त्री कामलदेवी सं० सांगण और उसका थी। कामलदेवी का अपर नाम कपुरदेवी था। कामलदेवी की कुक्षी से सं० रत्ना पुत्र कुरपाल ___और सं० धरणा (धन्ना) का जन्म हुआ। दोनों पुत्र दृढ़ जैनधर्मी, नीतिकुशल, उदार एवं बुद्धिमान् नरश्रेष्ठ थे। सं० रत्ना बड़ा और सं० धरणाशाह छोटा था। दोनों में अत्यधिक प्रेम था। सं० रत्ना की स्त्री का नाम रत्नादेवी था । रत्नादेवी की कुक्षी से लाषा, सलपा, मना, सोना और सालिग नामक पाँच पुत्र हुये थे। सं० सं० रत्ना और सं० धरणा- धरणा की स्त्री का नाम धारलदेवी था और धारलदेवी की कुक्षी से जाखा और जावड़ शाह नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। सं, रत्ना और सं० धरणा दोनों भ्राता राजमान्य और गर्भश्रीमन्त थे। सिरोही-राज्य के अति प्रतिष्ठित कुलों में से इन का कुल था। दोनों भ्राता बड़े ही धर्मिष्ठ एवं परोपकारी थे । सं० धरणा अपने बड़े भ्राता सं० रत्ना से भी अधिक उदार, सहृदय, धर्म और जिनेश्वर का परमोपासक था । वह बड़ा ही सदाचारी, सत्यभाषी और मितव्ययी था। धर्म के कार्यों में, दीन-हीनों की सहायता में वह अपने द्रव्य का सदुपयोग करना कभी नहीं भूलता था। सिरोही के प्रतापी राजा सेसमल की राजसभा में इन्हीं गुणों के कारण सं० धरणा का बड़ा मान था। दोनों भ्राता सं० रत्ना और धरणा ने तथा शाह लींबा ने अपने परिवार के सहित वि० सं० १४६५में फाल्गुण शुक्ला प्रतिपदा को पिंडरवाटक में (पींडवाड़ा) श्री तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के द्वारा श्री मूलनायक महावीरस्वामी की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करवाकर राजमान्य विश्वानन्ददायक श्री महावीरजिनालय में स्थापित करवाई। प्राग्वाटज्ञाति में आभूषण समान महणा नामक एक अति प्रसिद्ध व्यवहारी हो चुका था। वह अति श्रीमंत और उदारमना था । उसके जोला(?) नामक पुत्र था । श्रे० जोला का पुत्र भावठ() अति ही सज्जन और नादिया ग्राम का नाम किसी उक्त वंशसम्बन्धी शिलालेख में नहीं मिलता है। पन्द्रहवीं शताब्दी के पश्चात् के अनेक प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध कवि, सूरि एवं मुनियों द्वारा रचे गये राणकपुरतीर्थसंबंधी स्तवनों में नादिया ग्राम का नाम स्पष्टतया वर्णित है। जनश्रति भी इस मत की प्रबल पुष्टि करती है। पिंडरवाटक में श्री महावीरजिनालय के वि० स०१४६५ के सं० धरणा के लेख में सांगा ( सांगण ) का पुत्र पुर्णसिंह की स्त्री जाल्हणदेवी और उनका पुत्र कुरपाल लिखा है। - -श्र० प्र० ० ले० सं० आबू भा० ५ ले० ३७४ प्रा० ० ले०सं०भा०२ के ले० ३०७ में मांगण छपा है। पं० लालचन्द्र भगवानदास गांधी, बड़ौदा और मैं दोनों बड़ौदा जाते समय ता० २१ दिसम्बर सन् १६५२ को श्री राणकपुरतीर्थ की यात्रा करते हुए गये थे। हमने मूल लेख जो प्रमुख देवकुलिका के बाहर एक बड़े प्रस्तर पर उत्कीर्णित है पढ़ा था । उसमें स्पष्ट शब्द में 'सांगण' उत्कीर्णित है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डरवाटक(पीडवाडा) में सं० धरणाशाह द्वारा जीर्णोद्धारकृत प्राचीन श्री महावीर-जिनप्रासाद। वर्णन पृ० २६३ पर देखिये। अजाहरी ग्राम में सं०धरणाशाह द्वारा जीर्णोद्धारकृत प्राचीन श्री महावीर-बावन जिनप्रासाद । वर्णन पृ० २६३ पर देखिये। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतों के मध्य में बसे हुये नांदिया ग्राम में सं० धरणाशाह द्वारा जीर्णोद्धारकृत प्राचीन श्री महावीर-बावन जिनप्रासाद । वर्णन पृ० २६३ पर देखिये। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रान्ना० सद्गृहस्थ-संरत्ना-धरणा:: [२६३ यशस्वी था । श्रे० भावठ के गुणवान्, पवित्रात्मा, पुण्यकर्ता, सत्कर्मरता लींवा नामक पुत्र था । श्रे० लींवा की स्त्री का नाम नयणादेवी था। जैसा श्रे० लींचा गुणवान्, सज्जन एवं धर्मात्मा श्रावक था, श्राविका नयणादेवी भी वैसी ही गुणवती, दयामती एवं धर्मपरायणा सत्ती थी। गुणवती नयणादेवी के लक्ष्मण और हाजा नामक पुत्र हुये थे । श्रे० लक्ष्मण गुरुजनों का परम भक्त और जिनेश्वरदेव का परमोपासक था । श्रे० हाजा भी अति उदार और दीनदयालु पुरुष था। जैसा ऊपर लिखा जा चुका है दोनों भ्राता बड़े ही पुण्यात्मा थे। इन्होंने अजाहरी, सालेर आदि ग्रामों में नवीन जिनालय बनवाये थे। ये ग्राम नांदियाग्राम के आस-पास में ही थोड़े २ अंतर पर हैं । वि० सं० १४६५ में दोनों भ्राताओं के पुण्यकार्य पिंडरवाटक में और अनेक अन्य ग्रामों में भिन्न २ वर्षों में जिनालयों का जीर्णोद्धार और श्री शत्रुञ्जयमहातीर्थ करवाया, पदस्थापनायें, विबस्थापनायें करवाई, सत्रागार (दानशाला) खुलवाये । की संघयात्रा अनेक अवसरों पर दीन, हीन, निर्धन परिवारों की अर्थ एवं वस्त्र, अन्न से सहायतायें की । अनेक शुभाअवसरों एवं धर्मपर्यों के ऊपर संघ-भक्तियाँ करके भारी कीर्ति एवं पुण्यों का उपार्जन किया । इन्हीं दिव्य गुणों के कारण सिरोही के राजा, मेदपाट के प्रतापी महाराणा इनका अत्यधिक मान करते थे। एक वर्ष धरणा ने शत्रुश्चयमहातीर्थ की संघयात्रा करने का विचार किया। उन दिनों यात्रा करना बड़ा कष्टसाध्य था। मार्ग में चोर, डाकुओं का भय रहता था। इसके अतिरिक्त भारत के राजा एवं बादशाहों में द्वंद्वता बरावर चलती रहती थी। और इस कारण एक राजा के राज्य में रहने वालों को दूसरे राजा अथवा बादशाह के राज्य में अथवा में से होकर जाने की स्वतन्त्रता नहीं थी। शत्रश्चयतीर्थ गूर्जरभूमि में है और उन दिनों गूर्जरबादशाह अहम्मदशाह था, जिसने अहमदाबाद की नींव डाल कर अहमदाबाद को ही अपनी राजधानी बनाया था । अहम्मदशाह के दरबार में सं० गुणराज नामक प्रतिष्ठित व्यक्ति का बड़ा मान था । सं० धरणा ने सं० गुणराज के साथ में, जिसने बादशाह अहम्मदशाह से फरमाण (आज्ञा) प्राप्त किया है पुष्कल द्रव्य व्यय करके श्री शत्रुश्चयमहातीर्थादि की महाडंबर और दिव्य जिनालयों से विभूषित सकुशल संघयात्रा की। इस यात्रा के शुभावसर पर संघवी धरणाशाह ने, जिसकी आयु ३०-३२ वर्ष के लगभग में होगी श्री शत्रुञ्जयतीर्थ पर भगवान् आदिनाथ के प्रमुख जिनालय में श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि से संघ-समारोह के समक्ष अपनी पतिव्रता स्त्री धारलदेवी के साथ में शीलव्रत पालन करने की प्रतिज्ञा ग्रहण की । युवावय में समृद्ध एवं वैभवपति इस प्रकार की प्रतिज्ञा लेने वाले इतिहास के पृष्ठों में बहुत ही कम पाये गये हैं । धन्य है ऐसे महापुरुषों को, जिनके उज्ज्वल चरित्रों पर ही जैनधर्म का प्रासाद आधारित हैं । मांडवगढ़ के बादशाह हुसंगशाह का शाहजादा गजनीखाँ अपने पिता से रुष्ट होकर मांडवगढ़ छोड़कर निकल पड़ा था और वह अपने साथियों सहित चलता हुआ आकर नांदिया ग्राम में ठहरा । यहाँ आने तक उसके मांडवगढ के शाहजादा पास में द्रव्य भी कम हो गया था और व्यय के लिये पैसा नहीं रहने पर वह बड़ा गजनीखों को तीन लक्ष दुःखी हो गया था। जब उसने नांदिया में सं० धरणा की श्रीमंतपन एवं उदारता की रुपयों का ऋण देना प्रशंसा सुनी, वह सं० धरणा से मिला और उससे तीन लक्ष रुपये उधार देने की याचना की । सं० धरणा तो बड़ा उदार था ही, उसने तुरन्त शाहजादा गजनीखाँ को तीन लक्ष रुपया उधार दे दिया। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४। :: प्राग्वाट-इतिहास:: . [तृतीय शाहजादा गजनीखाँ ने रुपया इस प्रतिज्ञा पर उधार लिया था कि वह जब माँडवगढ़ का बादशाह बनेगा, सं० थरणा का रुपया पुनः लौटा देगा । सं० धरणा के आग्रह पर शाहजादा गजनीखाँ कुछ दिनों के लिए नांदिया में ही ठहरा रहा । इन्हीं दिनों में मांडवगढ़ से कुछ यवनसामंत शाहजादे को ढूढते २ नांदिया में आ पहुँचे और उन्होंने शाहजादा से मांडवगढ़ चलने के लिये आग्रह किया। सं० धरणा ने शाहजादा गजनीखाँ को समझा बुझाकर माँडवगढ़ जाने के लिये प्रसन्न कर लिया और शाहजादा अपने साथियों सहित माँडवगढ़ अपने पिता के पास में लौट गया । बादशाह हुसंगशाह ने जब यह सुना कि सं० धरणा ने उसके पुत्र गजनीखाँ का बड़ा सत्कार किया और उसको समझा कर पुनः मांडवगढ़ जाने के लिये प्रसन्न किया वह अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ और सं० धरणा को माँडवगढ़ बुलाने का विचार करने लगा। इतने में वह अकस्मात बीमार पड़ गया और सं० धरणा को नहीं बुला सका। . मांडवगढ़ का बादशाह हुसंगशाह कुछ ही समय पश्चात् वि० सं० १४९१ ई. सन् १४३४ में मर गया और शाहजादा गजनीखाँ बादशाह बना * । सं० धरणा को नांदिया ग्राम से उसने मानपूर्वक निमन्त्रित करके बुलगजनीखों का बादशाह बनना वाया और तीन लक्ष के स्थान पर ६ लक्ष मुद्रायें देकर अपना ऋण चुकाया तथा सं० और मांडवगढ़ में धरणाशाह धरणा को राजसभा में ऊच्च पद प्रदान किया । सं० धरणा पर बादशाह गजनीखाँ की को निमंत्रण और फिर कारा- दिनोंदिन प्रीति अधिकाधिक बढ़ने लगी। यह देखकर मांडवगढ के अमीर और उमराव कार का दंड तथा चौरासी ज्ञातिके एक लक्ष सिक्के देकर " सं० धरणा से ईर्ष्या करने लगे । सं० धरणा इन सब की परवाह करने वाला व्यक्ति धरणाका छूटना और नादिया नहीं था । परन्तु कलह बढ़ता देखकर उसने मांडवगढ का त्याग करके नांदिया आना ग्राम को लौटना उचित समझा; परन्तु बादशाह ने सं० धरणा को नांदिया लौटने की आज्ञा प्रदान नहीं की । सं० धरणा बड़ा ही धर्मात्मा एवं जिनेश्वर-भक्त था । उसने शत्रुजयतीर्थ की संघयात्रा करने का विचार किया और बादशाह की आज्ञा लेकर संघयात्रा की तैयारी करने लगा। इस पर सं० धरणा के दुश्मनों को बादशाह को बहकाने का अवसर हाथ लग गया । उन्होंने बादशाह से कहा कि सं० धरणा संघ-यात्रा का बहाना करके नांदिया लौटना चाहता है तथा मांडवगढ़ में अर्जित विपुल सम्पत्ति को भी साथ ले जाना चाहता है । बादशाह गजनीखाँ बड़ा ही दुर्व्यसनी और व्यभिचारी था और वैसा ही कानों का भी अत्यधिक कच्चा था । अतः उसके दरबार में नित नये षड़यन्त्र बनते रहते थे और राजतन्त्र बिगड़ने लग गया था। सं० धरणा के दुश्मनों की यह चाल सफल हो गई और बादशाह ने तुरन्त ही सं० धरणा को कैद में डाल दिया। सं० धरणा के कारागार के दण्ड को श्रवण करके मांडवगढ़ के अति समृद्ध एवं प्रभावशाली श्रीसंघ में अग्नि लग गई । बाली ग्राम की पौषधशाला के कुलगुरु भट्टारकमियाचन्द्रजी के पास में वि०सं० १९२५ में पुनर्लिखित सं० धरणाशाह के वंशजों की एक लंबी ख्यातप्रति है । उसमें सं० कुरपाल के तीन पुत्रों का होना लिखा है। सब से बड़ा पुत्र समर्थमल था। समर्थमल की स्त्री का नाम सुहादेवी था और सुहादेवी का सुजा नामक पुत्र हुआ था। आगे समर्थमल का वंश नहीं चला। हो सकता है सुजा बालवय में अथवा निम्सन्तान मर गया हो और राणकपुर-धरणविहार-त्रैलोक्यदीपक-मन्दिर की प्रतिष्ठा के शुभावसर तक इनमें से कोई जीवितनहीं रहा हो । इसी ख्यात में सं० धरणा का अपर नाम धर्मा भी लिखा है तथा सं० धरणा की द्वितीया स्त्री चन्द्रादेवी नामा और थी, यह भी लिखा है । वह भी प्रतिष्ठोत्सव तक सम्भव है निस्संतान मर गई हो । *History of Mediaeval India by Iswari Prasad P. 388 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण- जीर्णोद्धार करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० रत्ना धरणा : [ २६५ :: श्रीसंघ ने सं० धरणा को कारागार से मुक्त कराने के लिये भरसक यत्न किये, परन्तु दुर्व्यसनी बादशाह गजनीखाँ ने कोई ध्यान नहीं दिया । बादशाह गजनीखाँ ने कुछ ही समय में अपने प्रतापी पिता हुसंगशाह की सारी सम्पत्तिको विषयभोग में खर्च कर डाला और पैसे २ के लिये तरसने लगा। राजकोष एक दम खाली हो गया । बादशाह गजनीखाँ को जब द्रव्य-प्राप्ति का कोई साधन नहीं दिखाई दिया तो उसने सं० धरणा को चौरासी ज्ञाति के एक लक्ष सिक्के लेकर छोड़ना स्वीकृत किया । अन्त सं० धरणा चौरासी ज्ञाति के एक लक्ष रुपये देकर कारागार से मुक्त हुआ और अपने ग्राम नांदिया की ओर प्रस्थान करने की तैयारी करने लगा | उन्हीं दिनों मांडवगढ़ की राजसभा में एक बहुत बड़ा षड़यन्त्र रचा गया । मुहम्मद खिलजी नामक एक प्रसिद्ध एवं बुद्धिमान् व्यक्ति बादशाह का प्रधान मन्त्री था । वह बड़ा ही बहादुर और तेजस्वी था । बादशाह गजनीखाँ की प्रधान के आगे कुछ भी नहीं चलती थी । गजनीखाँ को सिंहासनारूढ़ हुये पूरे दो वर्ष भी नहीं हो पाये थे कि राजकर्मचारी, सामन्त, अमीर और प्रजा उसके दुर्गुणों से तंग आ गई और सर्व उसके राज्य का अन्त चाहने लगे । अन्त में वि० सं० १४६३ ई० सन् १४३६ में मुहम्मद खिलजी ने बादशाह गजनीखाँ को कैद करके अपने को मांडवगढ़ का बादशाह घोषित कर दिया । राजसभा में जब यह घटना चल रही थी सं० धरणा मांडवगढ़ से चुपचाप निकल पड़ा और अपने ग्राम नांदिया में आ गया । नांदिया सिरोही - राज्य का ग्राम था और उन दिनों सिरोही के राजा महाराव सेसमल थे ।१ महाराव सेसमल प्रतापी थे और उन्होंने आस-पास के प्रदेश को जीतकर अपना राज्य अत्यधिक बढ़ा लिया था । सेसमल बड़े सिरोही के महाराव का स्वाभिमानी राजा थे । सं० धरणा सिरोही - राज्य का अति प्रतिष्ठित पुरुष था । सं० प्रकोप और सं० धरणा धरणा का मांडवगढ़ में जाकर कैद होना उन्हें बहुत अखरा और उसमें उनको अपनी का मालगढ़ में बसना मान-हानि का अनुभव हुआ । महाराव सेसमल ऐसा मानते थे कि अगर सं० धरणा शाहजादा को रुपया उधार नहीं देता तो सं० धरणा कभी भी मांडवगढ़ में जाकर कैद नहीं होता। इस प्रकार सं० धरणा को उसके खुद के कैदी बनने का कारण महाराव सेसमल सं० धरणा को ही समझते थे और उसको भारी दण्ड देने पर तुले हुए बैठे थे । सं० धरणा को यह ज्ञात हो गया कि महाराव सेसमल उस पर अत्यधिक कुपित हुये बैठे हैं, वह नांदिया ग्राम को त्याग कर सपरिवार मालगढ़ नामक ग्राम में, जो मेदपाट - प्रदेश के अन्तर्गत था बसा । महाराणा कुम्भा उन दिनों प्रसिद्ध दुर्ग कुम्भलमेर में ही अधिक रहते थे। मालगढ़ और कुम्भलगढ़ एक ही पर्वतश्रेणी कुछ ही कोसों के अन्तर पर आ गये हैं। जब महाराणा कुम्भा ने यह सुना कि सं० धरणा मालगढ़ में सपरिवार आ बसे हैं, उन्होंने अपने विश्वासपात्र सामन्तों को भेजकर मानपूर्वक सं० धरणा को राजसभा में बुलवाया और सं० धरणा का अच्छा मान किया तथा सं० धरणा को अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों में स्थान दिया |२ १. सि० इति० पृ० १६४-६५ २. बाली ( मरुधर ) के कुलगुरु भट्टारक मियाचन्द्रजी की पौषधशाला की वि० सं० १६२५ में पुनर्लिखित सं० धरणा के वंशजों की ख्यातप्रति के आधार पर । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [तृतीय महाराणा कुम्भकर्ण बड़े ही प्रतापी, यशस्वी, गुणी राजा थे। उनके दरबार में सदा गुणवानों और पुण्यात्माओं का स्वागत होता रहता था। ऐसे गुणी राजा की राज्यसभा में अगर संघवी धरणाशाह का मान दिनमहाराणा कुम्भकर्ण की दुगुना रात-चौगुना बढ़ा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। महाराणा कुम्भकर्ण का राज्यसभा में सं० धरणा राज्य अजमेर, मंडोर, नागपुर, गागरण, बंदी तथा खाटू, चाटू तक विस्तृत था। फलतः उनके दरबार में अनेक वीर, योद्धा, श्रीमन्त, सज्जन व्यक्ति रहते थे। सं० धरणा महाराणा कुम्भकर्ण के अति विश्वासपात्र एवं राज्य के अति प्रतिष्ठित श्रीमन्त व्यक्तियों में गिने जाने लगे थे ।* परमार्हत सं० धरणाशाह का राणकपुर में नलिनीगुल्मविमान त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार नामक चतुमुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद का बनवाना जैसा लिखा जा चुका है सं० धरणा बुद्धिमान, चतुर और बड़ा नीतिज्ञ था, वैसा ही वह दृढ़ जैनधर्मी, गुरुभक्त और जिनेश्वरदेव का उपासक भी था । वह बड़ा तपस्वी भी था । उसने बत्तीस वर्ष की युवावस्था में ही शीलवत . ग्रहण कर लिया था और नवीन २ जिनप्रासाद बनवाने की नित्य कल्पना किया सं० धरणा को स्वप्न का होना करता था। एक रात्रि को उसने स्वप्न में नलिनीगुल्मविमान को देखा और नलिनीगुल्मविमान के आकार का एक जिनप्रासाद बनवाने का उसने स्वप्न में निश्चय भी कर लिया और अपने निश्चय की अपने परिजनों के समक्ष चर्चा की । विमान तो उसको स्मरण रह गया, परन्तु उसका नाम उसको स्मरण नहीं रहा; अतः वह यह नहीं समझा सका कि वह कैसा जिनालय बनवाना चाहता है। फलतः उसने दूर २ से अनेक चतुर शिल्पविज्ञ कार्यकरों (कारीगरों) को बुलवाया । आये हुये कार्यकरों ने अनेक मन्दिरों के भांति-भांति के रेखाचित्र बना-बना कर धरणाशाह को दिखाये । उनमें से मुंडाराग्राम के रहने वाले शिल्पविज्ञ देपाक नामक सोमपुरा ने नलिनीगुल्मविमान का रेखाचित्र बनाकर प्रस्तुत किया । सं० धरणा ने देपाक को अपना प्रमुख कार्यकर नियुक्त किया। *सं० धरणा महाराणा कुम्मकर्ण का मन्त्री रहा हो, ऐसा कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है । सं० धरणा महाराणा के दरबार में अति सम्मानित व्यक्ति अवश्य थे, जो राणकपुर की प्रशस्ति से ही स्पष्ट सिद्ध होता है । (१७) महीपति ४० कुल काननपंचाननस्य । विषमतमाभंगसारंग- (१८) पुर नागपुर गागरण नराणकाऽजयमेरु मंडोर मंडलकर बुदि (१६) खाटू चाटू सजानादि नानामहादुर्गलीलामात्रग्रहणप्रमाणि- (३०).........."राणाश्रीकुम्भकर्णसर्वोवीपतिसार्वभौमस्य ४१ विजय(३१) मान राज्ये" ........... .... (३२""" ...... ....." श्रीमदहम्मद(३३) सुरत्राणदत्तपुरमाणसाधुश्रीगुणराजसंघपतिसाहाचर्यकृताश्च- (३४) र्यकारिदेवालयाडम्बरपुरःसरश्रीशत्रजयादितीर्थयात्रेण । अजा(३५) हरी पिंडरवाटकसालेरादि बहुस्थाननवीनजनविहारजीणोंद्धार- (३६) पदस्थापनाविषमसमयसत्रागारनानाप्रकारपरोपकार श्रीसंघस(३७) त्काराद्यगण्यपुण्यमहार्थक्रयाणकपूर्यमाणभवार्णवतारणक्षम प्रा० ० ले० सं० मा० २ ले० ३०७ (राणकपुरतीर्थप्रशस्ति,) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोडवाड (गिरिवाट) प्रदेश की माद्रीपर्वत की रम्य उपत्यका में सं० धरणाशाह द्वारा विनिर्मित श्री नलिनीगल्मविमान त्रैलोक्यदीपक धरणविहार श्री राणकपुरतीर्थ नामक शिल्पकलावतार श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद । देखिये पृ० २६७ पर। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार का पश्चिमाभिमुख त्रिमंजिला सिंहद्वार। देखिये पृ० २७१ पर । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण- जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा सद्गृहस्थ-सं० रत्ना-धरणा :: [ २६७ अली अथवा आड़ावला पर्वत की विशाल एवं रम्य श्रेणियाँ मरुधरप्रान्त तथा मेदपाट प्रदेश की सीमा निर्धारित करती हैं और वे मरुधर से आग्नेय और मेदपाट के पश्चिम में आई हुई हैं। इन पर्वत श्रेणियों में होकर मादड़ी ग्राम और उसका अनेक पथ दोनों प्रदेशों में जाते हैं। जिनमें देसूरी की नाल अधिक प्रसिद्ध है । कुम्भलनाम राणकपुर रखना गढ़ का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग, जिसको प्रतापी महाराणा कुम्भकर्ण ने बनवाया था, इसी आड़ावालापर्वत की महानतम् शिखा पर आज भी सुदृढ़ता के साथ अनेक विपद-बाधा झेलकर खड़ा है । महाराणा कुम्भकर्ण इसी दुर्ग में रहकर अधिकतर प्रबल शत्रुओं को छकाया करते थे । कुम्भलगढ़ के दुर्ग से १०-१२ मील के अन्तर पर मालगढ़ ग्राम आज भी विद्यमान है, जिसमें परमार्हत धरणा और रत्ना रहते थे । कुम्भलगढ़ से जो मार्ग मालगढ़ को जाता है, उसमें माद्रीपर्वत पड़ता है । इसी माद्रीपर्वत की रम्य उपत्यका में मादड़ी ग्राम जिसका शुद्ध नाम माद्रीपर्वत की उपत्यका में होने से माद्री था बसा हुआ था । मादड़ी ग्राम अगम्य एवं दुर्भेद स्थल में भले नहीं भी बसा था, फिर भी वहाँ दुश्मनों के आक्रमणों का भय नितान्त कम रहता था । सं० धरणाशाह को त्रैलोक्यदीपक नामक जिनालय बनवाने के लिये मादड़ी ग्राम ही सर्व प्रकार से उचित प्रतीत हुआ । रम्य पर्वतश्रेणियाँ, हरी-भरी उपत्यका, प्रतापी महाराणाओं के दुर्ग कुम्भलगढ़ का सानिध्य, ठीक पार्श्व में मघा सरिता का प्रवाह, दुश्मनों के सहज भय से दूर आदि अनेक बातों को देखकर सं० धरणाशाह ने मादड़ी ग्राम में महाराणा कुम्भकर्ण से भूमि प्राप्त की और मादड़ी का नाम बदलकर राणकपुर रक्खा । ऐसा माना जाता है कि राणकपुर* महाराणा शब्द का 'राणक' और सं० धरणा की ज्ञाति 'पोरवाल' का 'पोर,' 'पुर' का योग है जो दोनों की कीर्त्ति को सूर्य-चन्द्र जब तक प्रकाशमान् रहेंगे प्रकाशित करता रहेगा । विहार नामक चतुर्मुखआदिनाथ जिनालय शिलान्यास और जिना विशाल संघ समारोह एवं धूम-धाम के मध्य सं० धरणा ने धरणविहार नामक चतुर्मुख-आदिनाथ - जिनालय की नींव वि० सं० १४६५ में डाली । इस समय दुष्काल का भी भयंकर प्रकोप था । निर्धन जनता को यह वरदान श्री त्रैलोक्यदीपक-धरण- सिद्ध हुआ। मुंडारा ग्राम के निवासी प्रसिद्ध शिल्पविज्ञ कार्यकर सोमपुराज्ञातीय देपाक की तत्त्वावधानता में अन्य पच्चास कुशल कार्यकरों एवं अगणित श्रमकरों को रख कर कार्य प्रारम्भ करवाया गया । जिनालय की नींवें अत्यन्त गहरी खुदवाई और उनमें सर्वधातु का उपयोग करके विशाल एवं सुदृढ़ दिवारें उठवाई | चौरासी भूगृह बनवाये, जिनमें से पाँच अभी दिखाई देते हैं। दो पश्चिमद्वार की प्रतोली में एक उत्तर मेघनाथ - मंडप का लय के भूगृहों व चतुष्क का वर्णन (४२) नरेन्द्रेण स्वनाम्ना निवेशिते तदीयसुप्रसादादेशतस्त्रैलोक्यदीपकाराणकपुर - प्रशस्ति अनेक पुस्तकों में मादड़ी ग्राम के विषय में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा है कि यहाँ २७०० सत्ताईसौ घर तो केवल जैनियों के ही थे । और ज्ञातियों के तो फिर कितने ही सहस्रों होंगे। ये सब बातें अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, जो मंदिर के आकार की विशालता को देखकर अनुमानित की गई हैं । लेखक श्री त्रैलोक्यदीपक - धरणविहार के शिलालेखों का संग्रह करने की दृष्टि से वहाँ ३०-५-५० से ३-६-५० तक रहा और पार्श्ववर्त्ती समस्त भाग का बड़ी सूक्ष्मता एवं गवेषणात्मक दृष्टि से अवलोकन किया । उपत्यका में मैदान अवश्य बड़ा है; परन्तु वह ऐसा विषम और टेढ़ा-मेढ़ा है कि वहाँ इतना विशाल नगर कभी था अमान्य प्रतित होता है । दूसरी बात - जीर्ण एवं खण्डित मकानों के चिन्ह आज भी मौजूद हैं, जिनको देखकर भी यह : अनुमान लगता है कि यहाँ साधारण छोटा-सा ग्राम था। विशेष सुदृढ़ शंका जो होती है, वह यह है कि अगर मादड़ी त्रैलोक्यदीपक- जिनालय के बनवाने के पूर्व ही विशाल नगर था तो जैसी भारत में बहुत पहिले से ग्राम और नगरों को संकोच कर बसाने की पद्धति ही रही हैं, इतने विशाल नगर में इतना खुला भाग *(४१) "राणपुरनगरे राणा श्री कुम्भकर्ण(४३) भिधानः श्री चतुर्मुखयुगादीश्वरविहारः कारितः प्रतिष्ठितः Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] :: प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय से लगती हुई भ्रमती में, एक अन्य देवकुलिका में और एक नैऋत्य कोण की शिखरबद्ध कुलिका के पीछे भ्रमती में है। शेष चतुष्क में छिपे हैं। जिनालय का चतुष्क सेवाडीज्ञाति के प्रस्तरों से बना है, जो ४८००० वर्गफीट समानान्तर है। प्रतिमाओं को छोड़कर शेष सर्वत्र सोनाणाप्रस्तर का उपयोग हुआ है। मूलनायक देवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहर उत्तरपक्ष की भित्ति में एक शिलापट्ट पर वि० सं० १४६६ का लम्बा प्रशस्ति-लेख उत्कीर्णित है । इससे यह समझा जा सकता है कि यह मूलनायक देवकुलिका वि० सं० १४६६ में बनकर तैयार हो गई थी और वि० सं० १४६८ तक अन्य प्रथमावश्यक अंगों की भी रचना हो चुकी थी और जिनालय प्रतिष्ठित किये जाने के योग्य बन चुका था । राणकपुर नगर में सं० धरणा ने चार कार्य एक ही मुहूर्त में प्रारम्भ किये थे* । सं० धरणाशाह का प्रथम महान् सत्कार्य तो उपरोक्त जिनालय का बनवाना ही है। अतिरिक्त इसके उसने राणकपुर नगर में निम्न तीन कार्य सं० धरणाशाह के अन्य और किये थे। एक विशाल धर्मशाला बनवाई, जिसमें अनेक चौक और कक्ष (ौरड़ियाँ) तीन कार्य और त्रैलोक्य- थे तथा जिसमें काष्ठ के चौरासी उत्तम प्रकार के स्तम्भ थे। धर्मशाला में अनेक दीपक-धरणविहार नामक प्राचार्यों के एक साथ अपने मान-मर्यादापूर्वक ठहरने की व्यवस्था थी। अलग जिनालय का प्रतिष्ठोत्सव अलग अनेक व्याख्यान-शालायें बनवाई गई थीं। यह धर्मशाला दक्षिणद्वार के सामीप्य में थोड़े ही अन्तर पर बनाई गई थी। कैसे निकल आया ? त्रैलोक्यदीपक-जिनालय का वह प्रकोष्ठ जो व्यवस्थापिका पेढ़ी ने पर्वतों की ढाल से जिनालय की ओर आने वाले पानी को रोकने के लिये जिनालय से दक्षिण तथा पूर्व में लगभग एक या डेढ़ फर्लाग के अन्तर पर बनवाया है पर्याप्त लम्बा और चौड़ा है और समस्त उपत्यका-स्थल में समतल भाग ही यही है । यहाँ नगर का मध्य या प्रमुख भाग बसा होना चाहिए था। मेरी दृष्टि में तो यही उचित मालूम पड़ता है कि यहाँ साधारण ज्ञाति के लोगों का निवास था,जिनसे धरणाशाह ने भूमि खरीद कर ली या फिर वे राजाज्ञा से यह भाग छोड़ कर कुछ दूरी पर जा बसे । यह अवश्य सम्भव है कि त्रैलोक्यदीपक-जिनालय बनने के समय अथवा पीछे जैन आबादी अवश्य बढ़ गई हो, महाराणा और श्रीमन्तों की अट्टारियाँ बन गई हों, ग्राम की रमणीकता बढ़ गई हो; परन्तु मादड़ी एक अति विशाल नगर था सत्य प्रतीत नहीं होता है। - एक कथा ऐसी सुनी जाती है कि एक दिन सं० धरणाशाह ने घृत में पड़ी मक्षिका (माखी) को निकालकर जूते पर रख ली। यह किसी शिल्पी कार्यकर ने देख लिया। शिल्पियों ने विचार किया कि ऐसा कृपण कैसे इतने बड़े विशाल जिनालय के निर्माण में सफल होगा। सं० धरणाशाह की उन्होंने परीक्षा लेनी चाही। जिनालय की जब नीचे खोदी जा रही थी, शिल्पियों ने सं० धरणाशाह से कहा की नीवों को पाटने में सर्वधातुओं का उपयोग होगा, नहीं तो इतना बड़ा विशाल जिनालय का भार केवल प्रस्तरविनिर्मित दिवारें नही सम्भाल पायेंगी। सं० धरणाशाह ने अतुल मात्रा में सर्वधातुओं को तुरन्त ही क्रय करके एकत्रित करवाई। तब शिल्पियों को बड़ी लज्जा आई कि वह कृपणता नहीं थी, परन्तु सार्थक बुद्धिमत्ता थी। ___ *'चतुरधिकाशीतिमितैः स्तंभैरमितेः प्रकृष्टतरकाष्टैः । निचिता च पट्टशालाचतुष्किकापवरकप्रवरा ॥ श्री धरणनिर्मिता या पौषधशाला समस्त्यतिविशाला। तस्यां समवासापुः प्रहर्षतो गच्छनेतारः॥ -सोमसौभाग्यकाव्य सं० धरणा का एक विशाल धर्मशाला के बनाने का निश्चय करना स्वाभाविक ही था, क्योंकि ऐसे महान् तीर्थस्वरूप जिनालय की प्रतिष्ठा के समय अनेक प्रसिद्ध आचार्यों की अपने शिष्यगणों के सहित आने की सम्भावना भी थी और ऐसे तीर्थों में अनेक साधु, मुनिराज सदा ठहरते भी हैं, अतः ठहराने की समुचित व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। यह धर्मशाला जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अभी तक विधमान् थी । वि० सं० २००४-५ में समूलतः नष्ट हो गई और फलतः उठवा दी गई। यह प्रायः प्रथा-सी हो गई है कि तीर्थों में दानशालायें होती ही है। तीर्थों के दर्शनार्थ गरीब अभ्यागत अनेक आते रहते हैं तथा और फिर उन दिनों में तो दानशालायें बनवाने का प्रचार भी अत्यधिक था। अतः धर्मात्मा सं०धरणा का राणकपुरतीर्थ में दानशाला खोलने का विचार भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परन्तु सार्थक बुद्धिमत्ता थी का तुरन्त ही कय करके एकत्रित * चतुरधिकाशीतिमित Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MICROTONE Gautane MARCCCCES श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार के पश्चिम मेघनादमण्डप, रंगमण्डप और मूळनायक-देवकुलिका के स्तंभों की, तोरणों की मनोहर शिल्पकलाकृति । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAR PX Pata RANA श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार के कलामयी स्तंमों का एक मनोहारी दृश्य । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं०रना-धरणा:: [२६६ तृतीय कार्य-दानशाला बनवाई गई और चतुर्थ कार्य-अपने लिये एक अति विशाल महालय बनवाया । वि० सं० १४६८ तक जिनालय, दानशाला, महालय और धर्मशाला चारों कार्य प्रायः बन चुके थे । ___ इस त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार नामक राणकपुरतीर्थ की अंजनशलाका वि० सं० १४६८ फा० कृ० ५ को और बिंबस्थापना फा० कृ० १० को ( राजस्थानी चैत्र कृ० १०) शुभमुहूर्त में सुविहितपुरन्दर, परमगुरु श्री श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के देवसुन्दरसूरिपट्टप्रभाकर, श्रीबृहत्तपागच्छेश श्री सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से, जो कर-कमलों से प्रतिष्ठा श्री जगच्चंद्रसूरि और श्री देवेन्द्रसूरि के वंश में थे, परमाहत सं० धरणाशाह ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सं० रत्नाशाह, भ्रातृजाया रत्नदेवी, भ्रातृज सं० लाखा, सलखा, मना, सोना, सालिग तथा स्वपत्नी धारलदेवी एवं अपने पुत्र जाखा और जावड़ के सहित बड़ी धूम-धाम से करवाई। आज भी उसकी पुण्यस्मृति में च० कृ० १० (गुजराती फा० कृ० १० ) को प्रतिवर्ष मेला होता है और उसी दिन नवध्वजा चढ़ाई जाती है। यह ध्वजा और पूजा सं० धरणाशाह के वंशजों द्वारा जो घाणेराव में रहते हैं चढ़ाई जाती है और उनकी ही ओर से पूजा भी बनाई जाती है। इस प्रतिष्ठोत्सव में दूर २ के अनेक नगर, ग्रामों से ५२ बावन बड़े२ संघ और सद्गृहस्थ आये थे तथा अनेक बड़े २ आचार्य अपने शिष्यगणों के सहित उपस्थित हुये थे । इस प्रकार ५०० साधु-मुनिराज एकत्रित हुये थे । उक्त शुभ दिवस में मूलनायक-युगादिदेव-देवकुलिका में सं० धरणाशाह ने एक सुन्दर प्रस्तर-पीठिका के ऊपर चारों दिशाओं में * अभिमुख युगादिदेव भगवान् आदिनाथ की भव्य एवं श्वेतप्रस्तरविनिर्मित चारसपरिकर विशाल प्रतिमायें स्थापित की। प्रतिष्टोत्सव के प्रथम दिन से ही पश्चिम सिंहद्वार के बाहर अभिनय होने लगे थे। दक्षिणसिंहद्वार के बाहर श्री सोमसुन्दरसूरि तथा अन्य आचार्यों, मुनि-महाराजों के दर्शनार्थ श्रावकों का समारोह धर्मशाला के द्वार पर लगा रहता था. पूर्वसिंह-द्वार के बाहर वैतादयगिरि का मनोहारी दृश्य था, जिसको देखने के लिये भीड़ लगी रहती थी और उत्तरसिंह-द्वार के बाहर श्रावक-संघ दर्शनार्थ एकत्रित रहते थे । प्रतिष्ठावसर पर सं० धरणाशाह ने अनेक आश्चर्यकारक कार्य किये तथा दीनों को बहुत दान दिया और उनका दारिद्रथ दूर किया । सं० धरणाशाह का चतर्थ कार्य अपने लिये महालय बनवाने का है। यह भी उचित ही था। तीर्थ का बनाने वाला तीथे की देखरेख की दृष्टि से, भक्ति और उच्च भावों के कारण अपने बनाये हुये तीर्थ में ही रहना चाहेगा। *'च्यारइ महूरत सामता ऐ लोधा एक ही बार तु, पहिलइ देवल मांडीउ ए बीजइ सत्तु कारतु । पौषधशाला भति भक्ति ए मांडी देउल पासि तु, चतुर्थडे महूरत धरणउं मंडाव्या आवाश तु॥ यह उपरोक्त पद्य मंह कवि के वि० सं०१४६६ में बनाये हुए एक स्तवन का अंश है। मेह कवि ने अपने इसी लम्बे स्तवन में एक स्थल पर इस प्रकार वर्णित किया है 'रलियाइति लखपति इणि घरि, काका हिंव कीजई जगडू परि। __ जगडू कहीयई राया सधार, आपण पे देस्या लोक आधार' । अर्थात् वि० सं० १४६५ में भारी दुष्काल पड़ा। सं० धरणाशाह को उसके भ्रातुज ने जगत्-प्रख्यात महादानी जगडूशाह श्रेष्ठि के समान दुष्काल से पीड़ित,क्षधित, दीन,धनहीन जनता की सहायता करने की प्रार्थना की । भ्रातृज की प्रार्थना को मान देकर सं० धरणा ने त्रैलोक्यदीपकतीर्थ, धर्मशाला, स्वनिवास बनवाना प्रारम्भ किया तथा सत्रालय खुलवाया। उत्तराभिमुख मूलनायक प्रतिमा वि० सं० १६७६ की प्रतिष्ठित है। इससे यह सिद्ध होता है कि सं० धरणाशाह की स्थापित प्रतिमा खण्डित हो गई थी और पीछे प्राग्वाटज्ञातीय विरधा और उसके पुत्र हेमराज नवजी ने उक्त प्रतिमा स्थापित की थी। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] प्रतिष्ठोत्सव के समाप्त हो जाने पर श्री आचार्यपदोत्सव को बहुत द्रव्य व्यय अपने तथा अपने परिजनों के श्रेयार्थ निम्मवत् है: वि० सं० १४६८ फा० कृ० ५ 19 " " १५०७ चै० कृ० ५ १५०८ चै० शु० १३ १५०६ वै० शु० २ १५०६ ० शु० २ 11 :: प्राग्वाट - इतिहास :: तृतीय सोमदेव वाचक को आचार्यपद प्रदान किया गया । सं० धरणाशाह ने करके मनाया । प्रतिष्ठोत्सव के समय तथा पश्चात् संघवी धरणाशाह द्वारा विनिर्मित एवं प्रतिष्ठित करवाई गई प्रतिमाओं और परिकरों की सूची१-२ दिशा " आचार्य प्रतिमा प्रथम खण्ड की मूलनायक - देवकुलिका में सोमसुन्दर आदिनाथसपरिकर 19 99 " रत्नशेखरसूरि 99 19 11 रत्नशेखर "" 17 17 द्वितीय खण्ड की देवकुलिका में. 11 श्रादिनाथसपरिकर " परिकर तृतीय खण्ड की देवकुलिका में परिकर " " पश्चिमाभिमुख दक्षिणाभिमुख पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुख पश्चिमाभिमुख उत्तराभिमुख पूर्वाभिमुख पश्चिमाभिमुख दक्षिणाभिमुख पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुख "" 21 99 इस धरणविहारतीर्थ में सं० धरणाशाह का अन्तिम कार्य मूलनायक देवकुलिका के ऊपर द्वितीय खण्ड में प्रतिष्ठित पूर्वाभिमुख प्रतिमा का परिकर तथा तृतीय खण्ड के परिकर हैं, जिनको वि० सं० १५०६ वै० शु० २ को रत्नशेखरसूरि के करकमलों से स्थापित करवाये थे । इससे यह सम्भव लगता है कि वि० सं० १५१०-११ में सं० धरणाशाह 'स्वर्गवासी हुआ । I १ - उपरोक्त संवतों से यह तो सिद्ध है कि सं० धरणा वि० सं० १५०६ में जीवित था । तथा उक्त तालिका से यह भी सिद्ध होता है कि धरणविहार का निर्माणकार्य धरणाशाह की मृत्यु तक बहुत कुछ पूर्ण भी हो चुका था - जैसे मूलनायक त्रिमंजली युगादिदेवकुलिका का निर्माण और चारों सभामण्डपों की तथा चारों सिंह द्वारों की प्रतोलियों की (पोल) रचना, परिकोष्ठ में अधिकांश देवकुलिकाओं और उनके आगे की स्तंभवतीशाला (वरशाला) तथा अन्य अनिवार्यतः आवश्यक ङ्गों का बनना आदि । २ - मेरे द्वारा संग्रहित लेखों के आधार पर । एक कथा ऐसी भी प्रचलित है कि मुण्डारा निवासी सोमपुरा देपाक एक साधारण ज्ञानवाला शिल्पकार था । सं० धरणाशाह द्वारा निमन्त्रित कार्यकरों में वह भी था । देपाक को रात्रि में देवी का स्वप्न हुआ, क्यों कि वह देवी का परम भक्त था । देवी ने देपाक को कहा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलिनीगुल्मविमान श्री त्रैलोक्यदीपक धरणविहार नामक श्री राणकपुरतीर्थ श्री आदिना जिनप्रासाद का रेखाचित्र । (श्री आनंदजी कल्याणजी की पीढ़ी, अहमदाबाद के सोजन्य से ।) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •BAR 2046 D Toledo20 90,006 श्री 北 106 vadoda. - 00 o á e 210 GO Q ००००० no0000.00 pooooo QO aaoo GOR dog 000,000 ०० C 1000 6. CEL DE 91300.0 GD नलिनीगुल्मविमान श्री त्रैलोक्यदीपक धरणविहार नामक श्री राणकपुरतीर्थ श्री आदिनाथ चतुर्मुख जिनप्रासाद १४४४ सुन्दर स्तंभों से बना है और अपनी इसी विशेषता के लिये वह शिल्पक्षेत्र में अद्वितीय है। उसके प्रथम खण्ड की समानान्तर स्तंभमालाओं का देखाव । देखिये पृ० २७१ पर। (श्री आनंदजी कल्याणजी की पीड़ी, अहमदाबाद के सौजन्य से ।) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० रत्ना धरणा :: [ २७१ श्री राणकपुरतीर्थ की स्थापत्यकला धरणविहार नामक इस युगादिदेव - जिनप्रासाद की बनावट चारों दिशाओं में एक-सी प्रारम्भ हुई और सीढ़ियाँ, द्वार, प्रतोली और तदोपरी मंडप, देवकुलिकायें और उनका प्रांगण, भ्रमती, विशाल मेघमण्डप, रंगमंडपों की रचना, एक माप तथा एक आकार और एक संख्या और ढंग की करती हुई चतुष्क के मध्य में प्रमुख त्रिमंजली चतुष्द्वारवती शिखरबद्ध देवकुलिका का निर्माण करके समाप्त हुई। यह प्रासाद इतना भारी, विशाल और ऊंचा है कि देखकर महान् आश्चर्य होता है । प्रासाद के स्तम्भों की संख्या १४४४ हैं । मेघमण्डप एवं त्रिमंजली प्रमुख देवकुलिका के स्तम्भों की ऊंचाई चालीस फीट से ऊपर है । इन स्तम्भों की रचना संख्या एवं परस्पर मिलती हुई समानान्तर पंक्तियों की दृष्टि से इतनी कौशलयुक्त की गई है कि प्रासाद में कहीं भी खड़े होने पर सामने की दिशा में विनिर्मित देवकुलिका में प्रतिष्ठित प्रतिमा के दर्शन किये जा सकते हैं। प्रमुख देवकुलिका ने चतुष्क का उतना ही समानान्तर भाग घेरा है, जितना भाग प्रतोली एवं सिंह-द्वारों ने चारों दिशाओं में अधिकृत किया है । प्रासाद में चार कोणकुलिकाओं के तथा मूलनायक - कुलिका का शिखर मिलाकर ५ शिखर हैं, १८४ भूगृह हैं, जिनमें पाँच खुले हैं, आठ सब से बड़े और आठ उनसे छोटे और आठ उनसे छोटे कुल २४ मण्डप हैं, ८४ देवकुलिकायें हैं, चारों दिशाओं के चार सिंह द्वार हैं । समस्त प्रासाद सोनाणा और सेवाड़ी प्रस्तरों से बना है और इतना सुदृढ़ है कि आततायियों के आक्रमण को और ५०० पाँच सौ वर्ष के काल को झेलकर भी आज वैसा का वैसा बना खड़ा है । परमाईत सं० धरणाशाह की उज्ज्वल कीर्त्ति का यह प्रतीक सैंकड़ों वर्षों पर्यन्त और तद्विषयक इतिहास अनन्त वर्षों तक उसके नाम और गौरव को संसार में प्रकाशित करता रहेगा । चतुष्क की चारों बाहों पर मध्य में चार द्वार बने हुये हैं । द्वारों की प्रतीलियाँ अन्दर की ओर हैं। द्वारों के नाम दिशाओं के नाम पर ही हैं। पश्चिमोत्तर द्वार प्रमुख द्वार है। चारों द्वारों की बनावट एक-सी है। प्रत्येक जिनालय के चार सिंह द्वारों द्वार के आगे क्रमशः बड़ी और छोटी दो २ चतुष्किका हैं, जिन पर क्रमशः त्रि० और की रचना द्वि० मंजली गुम्बजदार महालय हैं । फिर सीढ़ियाँ हैं, जो जमीन के तल तक बनी हुई हैं। चार प्रतोलियों का वर्णन चारों द्वारों की प्रतोलियों की बनावट एक-सी है। प्रतोलियों का आंगनभाग छतदार है और जिनालय के भीतर प्रवेश करने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। चारों प्रतोलियों का यह भाग खुला हुआ है और भ्रमती से जाकर मिलता है । इस खुले हुये भाग के ऊपर विशाल गुम्बज है । चारों प्रतोलियों के ऊपर के गुम्बजों में बलयाकार अद्भुत कला कृति है, जिसको देखते ही बनता है । कि वह ऐसा चित्र बनाकर ले जावे, जैसा चित्र एक कृषक सीधा और आड़ा हल चलाकर अपने क्षेत्र में उभार देता है, जिसमें केवल समानान्तर सीधी और आड़ी रेखाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। जहाँ ये सीधी और आड़ी रेखायें परस्पर एक दूसरे से मिलती अथवा एक दूसरे को काटती हैं, वहाँ स्तम्भों का श्रारोपण समझना चाहिए। सोमपुरा देपाक देवी के प्रदेश एवं संकेत के अनुसार रेखाचित्र बना कर ले गया | नलिनीगुल्मविमान इसी चित्र के आकार का होता है। बस सं० धरणाशाह ने देपाक का चित्र पसन्द किया और देपाक को प्रमुख कार्यकर बनाकर उसकी देख-रेख में मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय इन वलयों की कला को देखकर मुझको मैन्चेस्टर की जगत्-विख्यात जालियों का स्मरण हो आया, जो मैंने कई बड़े २ अद्भुत संग्रहालयों में देखी हैं । परन्तु इस कला कृति की सजीवता और चिर- नवीनता और शिल्पकार की टांकी का जादू उस यन्त्र कला कृति में कहाँ ? दक्षिण प्रतोली के ऊपर के महालय में एक प्रोत्थित वेदिका पर श्रेष्ठि-प्रतिमा है, जो खड़ी हुई है । उस पर सं० १७२३ का लेख हैं । पूर्व और पश्चिम प्रतोलियों के ऊपर के महालयों में गजारूढ़ माता मरुदेवी की प्रतिमा प्रतोलियों के ऊपर महालयों है, जिसकी दृष्टि सीधी मूल-मन्दिर में प्रतिष्ठित आदिनाथबिंब पर पड़ती है । उत्तरद्वार की का वर्णन प्रतोली के ऊपर के महालय में सहस्रकुटि विनिर्मित है, जिसको राणक-स्तम्भ भी कहते हैं । यह अपूर्ण है | यह क्यों नहीं पूर्ण किया जा सका, उसके विषय में अनेक दन्त कथायें प्रचलित हैं । इस सहस्र-कुटि-स्तम्भ पर छोटे-बड़े अनेक शिलालेख पतली पट्टियों पर उत्कीर्णित हैं। जिनसे प्रकट होता है कि इस स्तम्भ के भिन्न २ भाग तथा प्रभागों को भिन्न व्यक्तियों ने बनवाया था । जैसी दन्तकथा प्रचलित है कि इसका बनाने का विचार प्रतापी महाराणा कुम्भकर्ण ने किया था, परन्तु व्यय अधिक होता देखकर प्रारम्भ करके अथवा कुछ भाग बन जाने पर ही छोड़ दिया । वचनों में सदा अडिग रहने वाले मेदपाटमहाराणाओं के लिये यह श्रुति मिथ्या प्रतीत होती है और फिर वह भी महाप्रतापी महाराणा कुम्भ के लिये तो निश्चिततः । ओर चतुष्क की चारों बाहों पर प्रकोष्ठ । चतुष्क पर बाहर की ओर कुछ इश्च स्थान छोड़कर चारों बनाया गया है, जिसमें चारों प्रमुख द्वार चारों दिशाओं में खुलते हैं द्वारों द्वारा अधिकृत भाग छोड़ कर प्रकोष्ठ प्रकोष्ठ, देवकुलिकाओं और के शेष भाग में देवकुलिकायें बनी हुई हैं, जो श्रमने-सामने की दिशाओं में संख्या भ्रमती का वर्णन और आकार-प्रकार में एक-सी हैं । ये कुल देवकुलिकायें संख्या में ८० हैं । इनमें से छिहत्तर देवकुलिकायें तो एक-सी शिखरबद्ध और छोटी हैं । ४ चार इनमें से बड़ी हैं, जिनमें से दो उत्तर द्वार की प्रतोली के दोनों पक्षों पर हैं- पूर्वपक्ष पर महावीरदेवकुलिका और पश्चिमपक्ष पर समवसरण कुलिका है । इसी प्रकार दक्षिण-द्वार की प्रतोली के पूर्वपक्ष पर आदिनाथकुलिका और पश्चिमपक्ष पर नंदीश्वरकुलिका है । इन चारों की बनावट भी विशालता एवं प्रकार की दृष्टि से एक-सी है । ये चारों गुम्बजदार हैं । इनके प्रत्येक के आगे गुम्बजदार रंगमण्डप हैं, जो छोटी देवकुलिकाओं के प्रांगण-भाग से आगे निकला हुआ है । समस्त छोटी देवकुलिकाओं का प्रांगण स्तम्भ उठा कर छतदार बनाया हुआ हैं । उपरोक्त रंगमण्डपों तथा देवकुलिकाओं के प्रांगण के नीचे भ्रमती है, जो चारों कोणों की विशाल शिखरबद्ध देवकुलिकाओं के पीछे चारों प्रतोलियों के अन्तरमुखों को स्पर्श करती हुई और चारों दिशाओं में बने चारों मेघमण्डपों को स्पर्शती हुई चारों ओर जाती हैं । चारों कोणों में शिखरबद्ध चार विशाल देवकुलिकायें हैं । प्रत्येक देवकुलिका के आगे विशाल गुम्बज - दार रंगमण्डप है । इन देवकुलिकाओं को महाधर- प्रासाद भी लिखा है । ये इतनी विशाल हैं कि प्रत्येक एक अच्छा जिनालय है । ये चारों भिन्न २ व्यक्तियों द्वारा बनवाई गई हैं। इनमें जो लेख कोणकुलिकाओं का वर्णन हैं वे वि० सं० १५०३, १५०७, १५११ और १५१६ के हैं । इस प्रकार धरणविहार में अस्सी दिशाकुलिकायें और चार कोण-कुलिकायें मिलाकर कुल चौरासी देवकुलिकायें हैं । सं० १७२३ का लेख पूरा पढ़ा नहीं जाता है। पत्थर में खड्डे पड़ गये हैं और अक्षर मिट गये हैं । सं० १५५१ वर्षे वैषाख बदि ११ सोमे सं० जावड़ भा० जसमादे पु० गुणराज भा० सुगदाते पु० जगमाल भा० श्री वछ करावित' । एक ही लेख में दो संवत् कैसे ? Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEEEEEEEEEEE::::: Ji श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार की दक्षिण पक्ष पर विनिर्मित श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार की एक देवकुलिका के छत देलकुलिकाओं में श्री आदिनाथ-देवकुलिका के बाहर भीति में का मनोहारी शिल्पकाम । उक्तीर्णित श्री सहस्रफणा-पार्श्वनाथ । Page #459 --------------------------------------------------------------------------  Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राणकपुरतीर्थ धरणविहार का उन्नत एवं कलामयी स्तंभवाला पश्चिम मेघनाद मण्डप | देखिये पृ० २७३ पर। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राणकपुर तीर्थ धरणविहार के पश्चिम मेघनादमण्डप का द्वादश देवियोंवाला अनंत कलामयी मनोहर मण्डप | देखिये पृ० २७३ पर। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्राज्ञा सद्गृहस्थ-सं० रत्ना-धरणा :: [ २७३ चारों दिशाओं में चार मेघमण्डप हैं, जिनको इन्द्रमण्डप भी कह सकते हैं । प्रत्येक मण्डप ऊंचाई में लगभग चालीस फीट से भी अधिक ऊँचा है । इनकी विशालता और प्रकार भारत में ही नहीं, जगत के बहुत कम स्थानों में मिल मेघ-मण्डप और उसकी सकते हैं । दो कोण-कुलिकाओं के मध्य में एक २ मेघ-मण्डप की रचना है। स्तम्भों शिल्पकला की ऊंचाई और रचना तथा मण्डपों का शिल्प की दृष्टि से कलात्मक सौन्दर्य दर्शकों को आल्हादित ही नहीं करता है, वरन् आत्मविस्मृति भी करा देता है। घण्टों निहारने पर भी दर्शक थकता नहीं है । चारों दिशाओं में मूल-देवकुलिका के चारों द्वारों के आगे मेघ-मण्डपों से जुड़े हुये चार रंगमण्डप हैं, जो विशाल एवं अत्यन्त सुन्दर हैं । मेघ-मंडपों के आंगन-भागों से रंगमण्डप कुछ प्रोत्थित चतुष्कों पर विनिर्मित हैं। पश्चिम दिशा का रंगमण्डप जो मूलनायक-देवकुलिका के पश्चिमाभिमुख द्वार के आगे रंग-मण्डप बना है, दोहरा एवं अधिक मनोहारी है । उसमें पुतलियों का प्रदर्शन कलात्मक एवं पौराणिक है। त्रैलोक्यदीपक-धरणविहारतीर्थ की मूलनायक-देवकुलिका जो चतुर्मुखी-देवकुलिका कहलाती है*, चतुष्क के ठीक बीचों-बीच में विनिर्मित है । यह तीन खण्डी है। प्रत्येक खण्ड की कुलिका के भी चार द्वार हैं जो प्रत्येक दिशा राणकपुरतीर्थ चतुर्मख-प्रासाद में खुलते हैं। प्रत्येक खण्ड में वेदिका पर चारों दिशाओं में मुंह करके श्वेतप्रस्तर की क्यों कहलाता है ? चार सपरिकर प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं । कुल प्रतिमाओं में से २-३के अतिरिक्त सर्व सं० धरणाशाह द्वारा वि० सं १४६८ से १५०६ तक की प्रतिष्ठित हैं। इन चतुर्मुखी खण्डों एवं प्रतिमाओं के कारण ही यह तीर्थ चतुर्मुखप्रासाद के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । इस चतुर्मुखी त्रिखण्डी युगादिदेवकुलिका का निर्माण इतना चातुर्य एवं कौशलपूर्ण है कि प्रथम खण्ड में प्रतिष्ठित मूलनायक प्रतिमाओं के दर्शन अपनी २ दिशा में के सिंहद्धारों के बाहर से चलता हुआ भी ठहर कर कोई यात्री एवं दर्शक कर सकता है तथा इसी प्रकार समुचित अन्तर एवं ऊंचाई से अन्य ऊपर के दो खण्डों में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन भी प्रत्येक प्रतिमा के सामने की दिशा में किये जा सकते हैं। इस प्रकार यह श्री धरणविहार-आदिनाथ-चतुर्मुख-जिनालय भारत के जैन-अजैन मन्दिरों में शिल्प एवं विशालता की दृष्टि से अद्वितीय है—पाठक सहज समझ सकते हैं । शिल्पकलाप्रेमियों को आश्वचर्यकारी और दर्शकों को आनन्ददायी यह मन्दिर सचमुच ही शिल्प एवं धर्म के क्षेत्रों में जाज्वल्यमान ही है, अतः इसका त्रैलोक्यदीपक नाम सार्थक ही है। टाड साहब का राणकपुरतीर्थ के विषय में लिखते समय नीचे टिप्पणी में यह लिख देना कि सं० घरणा ने इस तीर्थ की नींव डाली और चन्दा करके इसको पुरा किया-जैन-परिपाटी नहीं जानने के कारण तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा विनिर्मित कुलिकाओं,मण्डपों एवं प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को देख कर ही उन्होंने ऐसा लिख दिया है। प्रथम खण्ड की मूलनायकदेवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहिर दायी ओर एक चौड़ी पट्टी पर राणकपुर-प्रशस्ति वि० सं०१४६६ की उत्कीर्णित है । इससे यह सिद्ध होता है कि राणकपुरतीर्थ की यह देवकुलिका उपरोक्त संवत् तक बन कर तैयार हो गई थी। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] : प्राग्वाट - इतिहास :: वीरप्रसविनी मेदपाटभूमीय प्राग्वाट वंशावतंस सं० रत्ना धरणा का वंश-वृक्ष सं० रत्ना [रत्नादेवी ] सं. लाखा सं० सांगण सं० कुरपाल (कुंवरपाल) [कामलदेवी अपरनाम कपूरदेवी] जीणा सं. सलखा सं. मना सं. सोना सं. सालिग [ १ सुहागदेवी २नायकदेवी] जाखा सं. सहसा [१ संसारदेवी २ अनुपमादेवी ] I देवराज आशा [आसलदेवी] [ सत्त सं० धरणा के वंशज सं धरा [धारलदेवी] T खींमराज [१रमादेवी २ कर्पूरदेवी ] जयमल [ तृतीय मनजी जावड़ राणकपुर नगर कुछ ही वर्षों पश्चात् उजड़ हो गया । सं० धरणा और रत्नाशाह का परिवार सादड़ी में, जो राणकपुर से ठीक उत्तर में ७ मील अन्तर पर बसा है जा बसा । फिर सादड़ी से सं० धरणा का परिवार घाणेराव में और सं० रत्ना का परिवार मांडवगढ़ ( मालवप्रान्त की राजधानी) में जा बसा । घाणेराव में रहने वाले १ शाह नथमल माणकचन्द्रजी, २ चन्दनमल रत्नाजी, ३ छगनलाल हंसाजी, ४ हरकचन्द्र गंगारामजी, ५ नथमल नवलाजी, प्रा० जै० ले० सं० भा० २ लेखांक ३०७ में 'मांगण' छपा है, परन्तु मूललेख- प्रस्तरपट्ट में 'सांगण' है । श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ लेखांक ४६४. अचलगढ़ में विनिर्मित श्री चतुर्मुख-ऋषभदेव मन्दिर के सं० सहसा के वि० सं० १५६६ के लेख सं० ४६४ में सं० रत्ना के पुत्र लाषा के पश्चात् सलधा उल्लिखित है। यह नाम राणकपुरतीर्थ की प्रशस्ति में नहीं है - विचारणीय है । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०मा० सद्गृहस्थ-संरना-धरणा :: [२७५ मेदपाटदेशान्तर्गत ग्राम गुड़ा में रहने वाले ६ स्व० शाह खींमराज रामाजी और केलवाड़ा ग्राम में रहने वाले ७ शाह किस्तूरचन्द्र नन्दरामजी सं० धरणाशाह के वंशज हैं। त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार के ऊपर ध्वजा-दंड चढ़ाने का अधिकार उपरोक्त परिवारों को आज भी प्राप्त है। क्रम-क्रम से प्रत्येक परिवार प्रति वर्ष बिंबस्थापना दिवस फा० क. १० के दिन (राजस्थानी चैत्र कृ. १०) ध्वजा चढ़ाता है और प्रथम पूजा भी इनकी ही ओर से करवाई जाती है । वंशवृक्ष सं० धरणा (धर्मा) [१धारलदेवी रचन्द्रादेवी] जाखा जावड़ [जसमादेवी] गुणराज [गुणादेवी] वनाजी [वजू देवी] वीरम [वीरमति] प्राशपाल पाल गुणपाल गमनाजी तलाजी कानाजी [कौड़मदेवी] गंगाजी रूपा [स्वरूपदेवी] पद्मा । धना हरचन्द्र राजा खेता चांपा माना डाहाजी ऊदा डुङ्गा मना पुरमल मरुधरदेशान्तर्गत बाली एक प्राचीन नगर है। वहाँ के कुलगुरु भट्टारक मियाचन्द्रजी अच्छे वैद्य है । वे ही सं० धरणाशाह के वंशजों के कुलगुरु है। ता०३१-३-१६५२ को मैं श्री छगनलाल हंसराज जी की प्रेरणा एवं निमंत्रण पर बाली गया था और उक्त Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] :: प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय शोभा । जीता अनोपचन्द्र | टीकम तलसा मोती हीरा । । । । । हंसराज नन्दराम गौड़ीदास नवला रामचन्द्र कपूर तिलोकचंद्र रोड़ा | छगनलाल३ किस्तूरचन्द्र गंगाराम नत्थमल५ खीमराज६ माणकचन्द्र रत्नचन्द्र नवला । (मेदपाटान्तर्गत | । (मेदपाटान्तर्गत | | शोभाचन्द्र केलवाड़ा ग्राम हरकचन्द्र४ | | ग्राम गुड़ा में नथमल१ चन्दनमल२ (घाणेराव में रहते हैं) में रहते हैं) (मरुधर- रतनलाल ताराचन्द्र रहते थे) (घाणेराव में । देशांतर्गत । रहते हैं) । घाणेराव केसरीमल पुखराज मांगीलाल में रहते हैं) (घाणेराव में रहते हैं) (घाणेराव में रहते हैं) मालवपति की राजधानी मांडवगढ में सं० रत्नाशाह का परिवार सादड़ी छोड़ कर सं० धरणाशाह का परिवार पाणेराव में जा बसा और सं० रत्नाशाह का परिवार मालवप्रान्त की राजधानी मांडवगढ़ में बसा। मांडवगढ़ में मुहम्मद खिलजी ने वि० सं० १५२६ तक राज्य मालवपति के साथ सं० किया । उसके पश्चात् उसका पुत्र ग्यासुद्दीन शासक बना । ग्यासुद्दीन का राज्य वि० सं० रत्ना के परिवार का संबंध १५५६-५७ तक रहा। सं० सहसा अत्यन्त साहसी और वीर पुरुष था । सं० सहसा सं० कुवर(कुर)पाल के ज्येष्ठ पुत्र सं० रत्ना के पांचवें पुत्र सं० सालिग की ज्येष्ठ स्त्री सुहागदेवी का पुत्र था । इसकी सौतेली माता का नाम नायकदेवी थी । सं० सहसा के संसारदेवी और अनुपमादेवी नामकी दो स्त्रियाँ थीं । कुलगुरु साहब से मिल कर तथा वि० सं०१४२५ में लिखी गई प्रति के ऊपर से, जिसमें सं० धरणा का वृत्त और उसके वंशजों का वृत्त लिखा था, वंश-वृक्ष तयार किया है । उक्त प्रति में यह भी लिखा है कि सं० रत्ना का वंश मालवा में जाकर बस गया था। सं० रत्नाशाह का परिवार घाणेराव में नहीं बस कर अपने निकट संबंधियों एवं परिजनों को छोड़ कर इतना दूर मांडवगढ़ में क्यों जा बमा ? इसका कोई विशेष हेतु होना चाहिए। वि० सं०१४६६ में मेदपाट (मेवाड़) के ऊपर मालवपति मुहम्मद खिलजी ने बड़ा भारी सैन्य लेकर आक्रमण किया था। यवनसैन्य हारा और मुहम्मद खिलजी बंदी हुअा। महाराणा कुम्भकर्ण ने कुछ समय पश्चात् मुहम्मद खिलजी को मुक्त कर दिया । महाराणा की वीरता, उदारता, सौजन्य एवं हिन्दुवीरों का शत्रों के प्रति श्रादर-मान देख कर मुहम्मद खिलजी अत्यंत प्रसन्न हुआ। दोनों अधीश्वरों में फलतः शत्रता घटी और स्नेह-सम्बन्ध बढ़ा । एक दूसरे को एक-दूसरे के सामंत, वीरों और श्रीमंतों से परिचय हुआ। हो सकता हैं सं० रत्नाशाह का होनहार, बुद्धिमान् एवं सद्गुणी कनिष्ठ पुत्र सालिग मालवपति मुहम्मद खिलजी को अधिक पसंद पड़ा हो । Page #466 --------------------------------------------------------------------------  Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतुर्मुखआदिनापशिखरबदजिनालय अचलगढ़ भ्रमती में जानकी गूद द्वारा ऊपर जाने का मार्ग -गूदद्वारा भीनमनाच कुलिका श्रीपार्श्वनाथकुलिका सभा में इप रिहार श्रृंगार चौकी DeAMIN By: AUTHOR सांकेतिक चिहों के अर्थ:दिवार स्तंभ द्वार शाखा मण्डप ९ गूदमण्डप Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० सहसा :: [२७७ संसारदेवी के खीमराज और अनुपमादेवी के देवराज नामक पुत्र हुये। खीमराज के भी रमादेवी और कर्पूर(कपूर)देवी दो स्त्रियाँ थीं । कपूरदेवी के जयमल और मनजी नामक दो पुत्र हुये । सं० सहसा ग्यासुद्दीन का प्रमुख मंत्री बना। सं० सहसा जैसा शूरवीर एवं राजनीतिज्ञ था, वैसा ही दानवीर एवं धर्मवीर भी था । उसने अचलगढ़ में श्री चतुर्मुखआदिनाथ नामक एक अति विशाल जिनालय बनवाया और अपने परिवारसहित बहुत बड़ा संघ निकाल कर उसमें श्री मु० ना० आदिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया। जिनालय और उसकी प्रतिष्ठा का वर्णन नीचे दिया जाता है । सं० सहसा द्वारा विनिर्मित अचलगढ़स्थ श्री चतुमुख-आदिनाथ-शिखरबद्धजिनालय अबुदाचल पर वैसे बारह ग्राम बसे हुए कहे जाते हैं, परन्तु इस समय चौदह ग्राम बसते हैं। भारतवर्ष में वैसे तो अति ऊंचा पर्वत हिमालय है; परन्तु वह पर्वत जिस पर ग्राम वसते हों, वैसा ऊंचे से ऊंचा पर्वत अर्बुदगिरि है। गुरुशिखर नामक इसकी चोटी समुद्रस्तल से ५६५० फीट लगभग ऊंची है । अचलगढ़ ग्रामों के स्थल ४००० फीट से अधिक ऊंचे नहीं है। अर्बुदपर्वत बीस मील लम्बा और आठ मील चौड़ा है। अर्बुदपर्वत के ऊपर जाने के लिए वैसे चारों ओर से अनेक पदमार्ग हैं, परन्तु अधिक व्यवहृत और प्रसिद्ध तथा सुविधापूर्ण मार्ग खराड़ी से जाता है । खराड़ी से आबू-केम्प तक पक्की डामर रोड़ १७॥ मील लंबी बनी है । यहाँ से देलवाड़ा, ओरिया होकर अचलगढ़ को भी पक्की सड़क जाती है जो ५॥ मील लंबी है। ओरिया से गुरुशिखर को पदमार्ग जाता है। ओरिया से अचलगढ़ १॥ मील के अन्तर पर पूर्व-दक्षिण में एक ऊंची पहाड़ी पर बसा है । दुर्ग में वसती बहुत ही थोड़ी है। यहाँ अचलेश्वर-महादेव का अति प्राचीन मन्दिर है तथा महाराणा कुभा का बनाया हुआ पन्द्रहवीं शताब्दी का गढ़ है । इन दोनों नामों के योग पर यह (अचल+गढ़) अचलगढ़ कहलाता है । गुरुशिखर की चोटी तथा उस पर बने हुये मठ और श्री दत्तात्रेय का स्थानादि यहाँ से अच्छी प्रकार दिखाई देते हैं । अचलगढ़ की पहाड़ी का ऊंचाई में स्थान गुरुशिखर के बाद ही आता है। वैसे दोनों पर्वत आमने-सामने से एक दूसरे से ४ मील के अन्तर पर ही आ गये हैं। दोनों पर्वतों का और उनके बीच भाग का दृश्य प्रकृति की मनोहारिणी सुषुमा के कारण अत्यन्त ही आकर्षक, समृद्ध और नैसर्गिक है। ___अचलगढ़ दुर्ग के सात द्वार थे। जिनमें से दो द्वार ही ठीक स्थिति में रह गये हैं। शेष चिह्नशेष रह गये हैं । ये द्वार पोल के नामों से क्रमशः अचलेश्वरपोल, गणेशपोल, हनुमानपोल; चंपा पोल, भैरवपोल, चामुण्डापोल श्री चतुर्मुखा-आदिनाथ- कहे जाते हैं । सातवां द्वार कुंभाराणा के महलों का है । कुंभाराणा के महलों के खण्डर चैत्यालय और उसकी रचना आज भी विद्यमान हैं। श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय भैरवपोल के पश्चात् एक जैसा सं० धरणा का इतिहास लिखते समय यह लिखा जा चुका है कि सं० धरणा बादशाह गजनीखों के समय में दो वर्ष पर्यन्त मांडवगढ़ में रहा था और ज्योहि मुहम्मद खिलजी बादशाह बना,वह नादिया श्रा गया था। अर्थ यह कि मुहम्मद खिलजी सं० धरणा के परिवार Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय ऊंची टेकरी पर बना है । वैसे मन्दिर से संबन्धित जैन कार्यालय, धर्मशाला भी इसी टेकरी पर ठीक भैरवपोल के पास ही एक दूसरे से ऊपर-ऊपर बने हैं। चौमुखा श्रादिनाथ - जिनालय टेकरी के सर्वोपरि भाग पर बना है, जहाँ से पूर्व और दक्षिण में मैदान और मैदान में बसे रोहीड़ा आदि ग्राम स्पष्टतया दिखाई देते हैं । जैन कार्यालय से चौड़ी और लंबी सुदृढ़ पत्थर - शिलाओं की रपट जैन-धर्मशाला तक बनी हुई हैं । जैन धर्मशाला की छत पर होकर चौमुखा श्रादिनाथ चैत्यालय को नाल जाती है । चैत्यालय सुदृढ परिकोष्ठ के भीतर बना है। परिकोष्ठ में एक ही द्वार है और वह पश्चिमाभिमुख है । इस द्वार के भीतर आंगन में आदीश्वरनाथ का एक छोटा पश्चिमाभिमुख चैत्यालय है, इस चैत्यालय के द्वार के पास में उत्तराभिमुख लंबी २३३ सीढियाँ चढ़कर श्री चतुर्मुखाचैत्यालय के उत्तराभिमुखद्वार में प्रविष्ट होते हैं । चैत्यालय द्विमंजिला है । चैत्यालय लंबाई-चौड़ाई में तो मध्यम श्रेणी का ही है, परन्तु स्तंभों की ऊंचाई और उनकी अद्भुत मोटाई पर उसकी विशालता सत्तर वर्ष पूर्व वि० सं० १४६६ में प्रतिष्ठित नलिनिगुल्मविमानश्री राणकपुरतीर्थ-धरणविहार - चौमुखा - आदिनाथ - चैत्यालय का स्मरण करा देती है । मन्दिर का निर्माता संघ सहसा जो राणकपुरतीर्थ के निर्माता संघवी धरणा के ज्येष्ठ भ्राता रत्नाशाह के पुत्र संघवी सालिग का पुत्र था, राणकपुरतीर्थ की बनावट से अवश्य प्रभावित था, ऐसा प्रतीत होता है। दोनों मन्दिरों में कला को उतना ऊंचा स्थान नहीं दिया गया है, जितना सीधी कायिक विशालता को । मूलगंभारा चतुर्मुखी और समचतुर्भुजाकार है और वह बहुत ही सुदृढ़ बना हुआ है | १४ || फीट ऊंचे और ६ फीट परिधि वाले बारह स्तंभों पर इसकी रचना हुई है। गंभारे के ठीक बीच में ६ फीट समचौरस और ४ || फीट ऊंची वेदिका बनी है । इस वेदिका को प्रत्येक कोण पर चार-चार वैसे ही दीर्घकायिक स्तंभों का संयोग करके बनाया गया है । ऐसा करने से वेदिका अत्यन्त ही सुदृढ़ बन गई है। मूलगंभारे के बाहर उत्तर दिशा में गोलगुम्बजवाले गूढ़मण्डप के स्थान पर एक लम्बा कक्ष गंभारे की लम्बाई के बराबर बनाया गया है। मूलगंभारे के द्वार के दोनों ओर इस कक्ष की भित्तियों में ऊंचे और मोटे गवाक्ष बने हैं । ये दोनों गवाक्ष खाली हैं । तत्पश्चात् सभामण्डप की रचना आती है । इस सभामण्डप का मण्डप आठ स्तंभों पर अष्टकोणवाला अति ही सुदृढ़ बना है । इस सभामण्डप के पूर्व और पश्चिम पक्षों पर दो गंभारे हैं। पूर्व दिशा के गंभारे के पास में दक्षिण की ओर केसर घोटने का स्थान है । सभामण्डप के पश्चात् भ्रमती है । पहिले इन तीनों गंभारों के अतिरिक्त मन्दिर के अन्य भाग में दिवारें नहीं बनी हुई थीं । आज भ्रमती के स्तंभों को दिवारों से जोड़कर परिकोष्ठ बना दिया गया है । सभामण्डप के बाहर उत्तर में शृंगारचौकी बनी है, जिसमें से होकर भ्रमती में जाते हैं । 1 मूलगंभारे के अन्य तीनों द्वारों के बाहर एक-एक चौकी बनी हैं। ठीक इसी मूलगंभारे के ऊपर छत पर दूसरा चौमुखा गंभारा बना है | इस गंभारे के उत्तर-द्वार के बाहर शृंगारचौकी बनी है । गंभारे के बीच में वेदिका की रचना है । इस वेदिका के ऊपर मन्दिर का विशाल शिखर है और इसकी शृंगार चौकी के आगे सभामण्डप का विशाल से पूर्व ही परिचित था। राणकपुरतीर्थ - धरणविहार भी वि० सं० १४६६ तक बहुत अधिक बन चुका था और संभव है वि० सं० १४६८ में प्रतिष्ठोत्सव के समय महाराणा और उनके वीर सामंतों के साथ मुहम्मद खिलजी भी उपस्थित हुआ हो और सं० धरणा एवं रला के परिवार से उसका अधिक परिचय बढ़ा हो और फलतः उसने या उसके पुत्र ने सं० रत्ना की मृत्यु के पश्चात् सं० सालिग को मांडवगढ़ में बसने के लिये निमंत्रित किया हो । मुहम्मद के पुत्र ग्यासुद्दीन का सं० सालिग का पुत्र सं० सहसा मंत्री था । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगढ : उन्नत पर्वतशिखर पर सं० सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद । वर्णन पृ० २७७ पर देखिये। अचलगढ : अर्बुदाचल की उन्नत पर्वतमाला एवं मनोहारिणी वृक्षसुषुमा के मध्य सं० सहसा द्वारा विनिर्मित श्री चतुर्मुख-आदिनाथ जिनप्रासाद का रम्य दर्शन । वर्णन पृ० २७७ पर देखिये। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलगढ : श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनप्रासाद में सं० सहसा द्वारा १२० मण (प्राचीन तोल से) तोल की प्रतिष्ठित सर्वाङ्गसुन्दर एवं विशाल श्री मूलनायक-आदिनाथ-धातुप्रतिमा। वर्णन पृ० २७९ पर देखिये । अचलगढ : श्री चतुर्मुख-आदिनाथ जिनप्रासाद के प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर ही प्रतिष्ठित तीन क्षत्रिय वीरों की अश्वारोही धातुप्रतिमायें। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा०सद्गृहस्थ-सं० सहसा :: [ २७६ गुम्बज आ गया है । ऊपर के गंभारे में जाने के लिये भ्रमती में नाल बनी है, जो सभामण्डप के पश्चिमपक्ष पर बने गंभारे के दक्षिणपक्ष पर होकर ऊपर जाती है । कला और कृतकाम यहाँ है ही नहीं। केवल गूढमण्डप के द्वार की ऊपर की पट्टी पर चौदह स्वप्नों का प्रदर्शन और मूलगंभारे के पूर्व, पश्चिम और दक्षिण द्वारों के बाहर के स्तंभों के ऊपर के भागों में और भित्तियों पर कुछ २ कला का काम किया गया है। फिर भी यह श्री चतुर्मुखाआदिनाथजिनालय इतना ऊंचा और विशाल है कि अर्बुदराज के अन्य धर्मस्थानों, मन्दिरों का अधिनायक-सा प्रतीत होता है। संक्षेप में इस द्विमंजिले जिनालय में नीचे के तीन और ऊपर का एक-ऐसे चार गम्भारे, चार नीचे और एक ऊपर ऐसे पाँच शृंगारचौकियाँ और एक विशाल सभामण्डप, एक गुम्बज, एक शिखर तथा सत्रह स्तम्भों की सुदृढ़ और मनोहारिणी रचना संघवी सहसा द्वारा करवाई गई थी। अर्बुदगिरि और उसके आस-पास का प्रदेश लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी से सिरोही के महारावों के आधिपत्य में रहा है। महाराव जगमाल के विजयी राज्य में वि० सं० १५६६ फाल्गुण शुक्ला दशमी सोमवार को संघवी मदिर की प्रतिष्ठा और मू० सहसा ने लगभग १२० मण तोल पीतल की श्री मूलनायक आदिनाथ भगवान् की ना० बिंध की स्थापना सुन्दर प्रतिमा बनवाकर अपने काका-भ्राता आशाशाह द्वारा किये गये प्रतिष्ठोत्सव पर तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि के परिवार में हुये श्री सुमतिसुन्दरसूरिजी के शिष्य श्री कमलकलशसूरि के शिष्यप्रवर श्री जयकल्याणमूरिजी के करकमलों से उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाई तथा इसी शुभावसर एवं शुभ मुहूर्त में अन्य पित्तलमय बिंबों की भी प्रतिष्ठा एवं स्थापना हुई, जिनकी सूची आगे के पृष्ठ पर दी गई है । प्रतिमा की स्थापना के शुभावसरपर सं० सहसा और काका-भ्राता आशाशाह ने दान, पुण्य और स्वामीवात्सल्य में लाखों मुद्राएँ व्यय की । इस शुभ अवसर पर वे बड़ा संघ निकालकर अचलगढ़ गये थे । सं० सहसा के धर्मप्रेम को समझने के लिये मैं इतना ही पाठकों से निवेदन करता हूँ कि वे मन्दिर के दर्शन पधारकर करें तो उनको अनुमान लग जावेगा कि इतने ऊंचे अबुदाचल पर्वत के ऊपर के विषम पर्वतर्ता में भी विषम ओर दुर्गम इस पर्वत पर मन्दिर बनाने में कितना लक्ष द्रव्य व्यय हुआ होगा, निर्माता का उत्साह और भाव कितना ऊंचा और बढ़ा हुआ होगा और उसके ही अनुकूल उसने संघ निकालने में, संघ की भक्ति करने में, प्रतिष्ठोत्सव के समय दान, पुण्य में कितना द्रव्य खुले हृदय, श्रद्धा और भक्तिपूर्वक व्यय किया होगा। श्री मू० ना० उत्तराभिमुख आदिनाथबिंब का लेख 'सवत (त) १५६६ वर्षे फा० शुदि १० ( सोमे) दिने श्री अर्बुदोपरि श्री अचल दुर्गे राजाधिराजश्रीजगमाल विजयराज्ये । प्राग्वाटज्ञाति (तीय) सं० कुवरपाल पुत्र सं० रतना सं० धरणा सं० रतना पुत्र सं० लाषा ।। सं० सलषा सं० सजा सं० सोना सं० सालिग भा० सुहागदे पुत्र सं० सहसाकेन भा० संसारदे पुत्र खीमराज द्वि० [ भा० ] अणुपमादे पु० देवराज खीमराज भा० रमादे कपू पु० जयमल्ल मनजी प्रमुखयुतेन ॥ निजकारितचतुर्मुखप्रासादे उत्तरद्वारे पित्तलमयमूलनायकश्रीआदिनाथबिंब कारितं प्र० तपागच्छे श्री सोमपन्दरसूरिपट्टे श्री मुनिसुन्दरसरि श्री जयचन्द्रसरिपट्टे श्री विशालराजसूरि । पट्टे श्री रत्नशेखरसरि ॥ पट्टे श्री लक्ष्मीसागरसरि श्री सोमदेवसूरिशिष्य श्री सुमतिसुन्दरसूरिशिष्य गच्छनायक श्री कमल कलशसरिशिष्य संपतिविजयमानगच्छनायक श्री जयकल्याणसरिभिः। श्री चरणसुन्दरसूरिप्रमुखपरिवारपरिवृतैः ।। सं० सोना पुत्र सं० जिणा भ्रात सं० श्रासाकेन भा० श्रासलदे पुत्र सत्तयुतेन कारितप्रतिष्ठामहे । श्री रस्तु' ।। सू० बाच्छा पुत्र सू० देपा पुत्र सू० अरबुद पुत्र हरदास ।। अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०४६४ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय प्रतिष्ठोत्सव के शुभ मूर्हत में प्रतिष्ठित प्रतिमायें:- प्रतिमा धातु निर्माता प्रतिमा का स्थान सूत्रधार उत्तराभिमुख मू० ना० श्री आदिनाथ पित्तलमय प्रा० ज्ञा० सं० सहसा मूलगंभारा हरदास दक्षिणाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के वायें पक्ष पर श्री सुपार्श्वनाथ श्री संघ पश्चिमाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के दायें पक्ष पर श्री आदिनाथ सं० श्रीपति पश्चिमाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के सं० सालिगभार्या बायें पक्ष पर श्री आदिनाथ नायकदेवी श्री पार्श्वनाथ समस्त संघ द्वि० गंमारा श्री आदिनाथ सं० कूपा चांडा श्री आदिनाथ ये सात ही चिंब पित्तलमय और अति सुन्दर बने हुये हैं। यहाँ सूत्रधार हरदास जो सूत्रधार अरबुद का पुत्र और देपा का पौत्र तथा जिसका प्रपितामह सू० वाच्छा था अति ही कुशल प्रतीत होता है और उसकी १. अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०४६४, ४७१, ४७३, ४७४, ४८२. ४८३, ४८४ देखिये श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर के जै० ले० सं० भा०२ ले० २०२८ में श्री संघ द्वारा प्रति० श्री आदिनाथबिंब का भी उल्लेख है; परन्तु अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ में इस लेखांक का उल्लेख नहीं है, अतः छोड़ दिया गया है। गुरुपरम्परा सूत्रधारवंश २. तपागच्छीय श्री सोमसुन्दरसूरि ३. सूत्रधार वाछा श्री मुनिसुन्दरमरि श्री जयचन्द्रसूरि श्री विशालराजसूरि , अरबुद श्री रत्नशेखर सूरि ,, हरदास __, देपा श्री लक्ष्मीसागरसरि श्री सोमदेवसूरिशिष्य श्री सुमतिसुन्दरसूरिशिष्य गच्छनायक श्री कमल कलशमूरिशिष्य संप्रतिविजयमानगच्छनायक श्री जयकल्याणमूरि।। प्राग्वाट-इतिहास के सम्बन्ध में ता० ४-६-५१ से ६-७-५१ तक तीर्थ और मंदिरों का पर्यटन करने के लिए यात्रा पर रहा । ता० २६, ३०-६-५१ को मैं अचलगढ़ था। श्रीमद् पूज्य मु० जयंतविजयजी का मैं ही नहीं, इतिहास और पुरातत्त्व का प्रत्येक प्रेमी और शोधक आभारी रहेगा कि उन्होंने जिन २ स्थानों का इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टियों से वर्णन लिखा, पुनः उसी के लिये समय, द्रव्य और श्रम अधिक लगाने की आवश्यकता ही नहीं रक्खी। वैसे शोध कभी भी पूर्ण नहीं होती है। वह जितनी की जावे, आगे ही बढ़ती है। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि पूर्वगामियों के श्रम और अनुभव का लाभ उठाने पर अपेक्षाकृत श्रम और समय, द्रव्य कुछ तो कम ही होगा। अचलगढ़ का मंदिर वैसे विशाल है। परन्तु देलवाड़े के जैनमंदिरों की भाँति गूढ़ और एक दम कलापूर्ण नहीं होने से शीघ्र ही समझा और वर्णित किया जा सकता है । _ मंदिर में चार कायोत्सर्गिकबिंब, २१ प्रतिमायें और एक पादुकापट्ट हैं। पित्तल की बारह प्रतिमायें तथा दो कायोत्सर्गिक मूर्तियाँ और पाषाण के दो कायोत्सर्गिकबिंब तथा नव प्रतिमायें हैं। धातुप्रतिमाओं में मूलगंभारा में चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चार Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं०सहसा:: [२८१ कुशलता, उसकी निर्माणचतुरता का सच्चा और सिद्ध प्रमाण ये बिंब हैं, जिनकी अलौकिक सुन्दरता और सौष्ठवता दर्शकों एवं शिल्पविज्ञों को आश्चर्य में डाल देती हैं। बड़ी प्रतिमायें, दो कायोत्सर्गिकबिंब और तीन मध्यम ऊंचाई की-इस प्रकार प्रतिमायें, ऊपर के गंभारा में प्रायः एक-सी मध्यम ऊंचाई की चारों दिशाओं में अभिमख चार प्रतिमायें और नीचे सभामण्डप के पूर्वपक्ष पर बने हुये गंभारा में मध्यम ऊंचाई की एक प्रतिमा-इस प्रकार इन चौदह घातुप्रतिमाओं का वजन १४४४ मण (कच्चा) होना कहा जाता है और अनेक पुस्तकों में इतना ही होना लिखा भी मिलता है। उत्तराभिमुख प्रतिमा का वजन १२० मण होना लिखा गया है। इस तोल को सत्य मानना ही पड़ता है । देलवाड़े के पित्तलहरभीमवसहिका के मूलनायकबिंब पर१०८ मण वजन में होना लिखा है। दोनों के आकार और तोल के अनुमान पर तो उपरोक्त १४ चौदह प्रतिमाओं का वजन १४०० या १४४४ होना मान्य है। मंदिर की सर्व प्रतिमायें भिन्न २ समय की प्रतिष्ठित हैं । उत्तराभिमुख मूलनायकप्रतिमा पर ही संघवी सहसा का लेख है और उसके विषय में अधिक परिचय देने वाला अन्य लेख कोई प्राप्त नहीं है। चौमुखा-आदिनाथ-जिनालय के अतिरिक्त अचलगढ़ में तीन जैन मंदिर और हैं, जिनका निर्माण और जिनकी प्रतिष्ठायें भित्र २ समयों पर हुई हैं। १-श्री ऋषभदेव-जिनालय चौमुखा-आदिनाथ-जिनालय में जाने के लिये बनी हुई उत्तराभिमुख ३३ सीढ़ियों के पूर्वपक्ष पर नीचे आंगन में यह मंदिर बना हुआ है। इसका सिंहद्वार पच्छिमाभिमुख है। मू० ना० आदिनाथबिंब पर वि० सं०१७२१ ज्ये० शु० ३ रविवार को प्रतिष्ठित किये गये का लेख है । इस मंदिर के उत्तर, पूर्व में चौवीरा छोटी २ देवकुलिकायें विनिर्मित हैं। २-श्री कुंथुनाथ-जिनालय जैन कार्यालय के भवन में पश्चिम भाग पर जैन धर्मशाला के ऊपर की मंजिल में पूर्वाभिमुख यह जिनालय बना हुआ है। मू० ना० कुंथुनाथबिंब पर उसके वि० सं०१५२७ वै० शु०८ को प्रतिष्ठित हुए का लेख है। ३-श्री शांतिनाथ-जिनालय अचलगढ़ में जाते समय यह मन्दिर सड़क के दाहिनी ओर कुछ अंतर पर एक छोटी-सी टेकरी पर बना हुआ है । मन्दिर विशाल और भव्य तथा प्राचीन है । हो सकता है महाराजा कुमारपाल द्वारा अर्बुदाचल पर बनवाया हुआ शांतिनाथ-जिनालय यही जिनालय हो, क्यों कि शांतिनाथ नाम का अन्य कोई जिनालय अर्बुदगिरि पर बने हुए मंदिरों में नहीं है। ओरिया के महावीर-मंदिर के विषय में पूर्व में उसके शांतिनाथ-जिनालय होने का प्रमाण मिलता हैपरन्तु वह तो वि० सं० १५०० की आस-पास में प्रतिष्ठित हुआ था। अचलगढ़तीर्थ रोहिड़ा के श्रीसंघ की देख-रेख में है। रोहिड़ा के श्रीसंघ की ओर से वहाँ एक प्रघान मुनीम और उसके श्राधीन कई एक पुजारी, चौकीदार और अन्य सेवक रहते हैं । व्यवस्था सुन्दर और प्रशंसनीय है । मन्दिर की बनावट तो यद्यपि वैसी ही और वह ही है, परन्तु फिर भी जहाँ २ परिवर्तन-वर्धन करने का अवकाश मिला, वहाँ पीढ़ी ने निर्माणकार्य करवाया है । भ्रमती के सर्व स्तंभ जो पहिले खुले ही थे, अब दीवारों में पटा दिये गये हैं । सभामण्डप को चारों ओर से ढक कर बनी हुई इन दीवारों पर विविध तीर्थ-धर्मस्थानों के सुन्दरपट्ट सहस्रों रुपया व्यय करके बनवा दिये गये हैं । जीर्णोद्धार का कार्य चालु है । यात्रियों और दर्शकों के ठहरने, खाने-पीने श्रादि का सब प्रबन्ध उपरोक्त पीढ़ी के प्रधान मुनीम करते हैं। मन्दिर के नीचे जैन-धर्मशाला है और उसके थोड़े नीचे जैन-कार्यालय और जैन-भोजनशाला के भवन आ गए हैं । कुछ नीचे सड़क के पास में बगीचा बना हुआ है । उपर तक शिलाओं की सड़क बनी है। कार्यालय की व्यवस्था सर्व प्रकार समुचित और सुन्दर है। इस प्रकार इस समय अचलगढ़ में जैनमन्दिर चार, धर्मशालायें दो, कार्यालय का भवन एक और एक कार्यालय का बगीचा है। कार्यालय का नाम 'अचलसी अमरसी' है। अोरिया के जिनालय की देख-रेख भी यही कार्यालय करता है। विशेष परिचय के लिए पाठक म० सा० जयन्तविजयजीकृत 'अचलगढ़' नामक पुस्तक को पढ़े। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास : [ तृतीय सिरोही राज्यान्तर्गत वशंतगढ़ में श्री जैनमन्दिर के जीर्णोद्धारकर्त्ता श्रे० झगड़ा का पुत्र श्रेष्ठ मण्डन और श्रेष्ठ धनसिंह का पुत्र श्रेष्ठि भादा वि० सं० १५०७ वि० सं० १५०७ माघ शु० ११ बुधवार को महाराणा कुम्भकर्ण के विजयीराज्यकाल में वशंतपुर के चैत्यालय का उद्धारकराने वाले प्रा० ज्ञा० शाह झगड़ा (?) की स्त्री मेघादेवी के पुत्र मण्डन ने स्वस्त्री माणिकदेवी, पुत्र कान्हा, पौत्र जोगा आदि के सहित तथा प्रा० ज्ञा० व्य० धनसिंह की स्त्री लींबीदेवी के पुत्र व्य० भादा ने स्वस्त्री ल्हूदेवी, पुत्र जावड़, भोजराज आदि के सहित मूलनायक श्री शांतिनाथबिंब को तपा श्री सोमसुन्दरसूरि के पट्टालंकार श्री मुनिसुन्दरसूरि, श्रीजयचन्द्रसूरि के पट्टप्रभावक श्री रत्नशेखरसूरि के द्वारा महामहोत्सव करके प्रतिष्ठित करवाई । १ पत्तननिवासी प्राग्वाटज्ञातिशृङ्गार श्रेष्ठि सुश्रावक छाड़ाक और उसके प्रसिद्ध प्रपौत्र श्रेष्ठवर खीमसिंह और सहसा विक्रम की सौलहवीं शताब्दी विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अणहिलपुरपत्तन में पुण्यशाली जिनेश्वरभक्त सुश्रावक छाड़ाक नामक श्रेष्ठि रहता था । उसके काबा(?) नामक एक सुयोग्य पुत्र था । श्रे० काबा की स्त्री का नाम कदूदेवी था । कदेवी के श्रे० छाड़ाक और उसके सादा और राजड़ नामक दो बुद्धिमान् पुत्र थे । श्रे० सादा की पत्नी ललितादेवी थी वंशज और उसके देवा नामक पुत्र था । श्रे० राजड़ की स्त्री का नाम गोमती था । श्रे० राजड़ के खीमसिंह और सहसा नामक महापुण्यशाली अति प्रभावक दो पुत्र उत्पन्न हुये । ० खीमसिंह का विवाह धनाई नामक कन्या से हुआ था । श्रा० धनाई के देता और नेता नामक पुत्र हुये । इनकी कनकाई और लालीदेवी नामा दोनों की क्रमशः पत्नियाँ थी । देता के तीन पुत्रियाँ पूरी, जसू, बासू और दो पुत्र सोनपाल और मपाल थे । नोता का पुत्र पुण्यपाल था । श्रे० सहसा का विवाह वारुमती नामा कन्या से हुआ था और उसके समधर, ईसर (ईश्वर) नामक दो पुत्र और मल्लाई नामा पुत्री थी । समधर का विवाह वड़धूदेवी और ईसर का विवाह जीविणी के साथ में हुआ था । समधर के हेमराज और ईसर के धरण नामक पुत्र थे । २ १- जै० ले० सं० भा० १ ले० ६५४ २ - जै० स० प्र० वर्ष ११ अंक १०-११ पृ० २७४ से २७७ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREECOBY 2324 वसंतगढ़ :- वसंतगढ़ आज उजड़ ग्राम बन गया है। प्राचीन खण्डहर एवं भग्नावशेष अब मात्र वहां दर्शनीय रह गये हैं । वहां से लायी हुई दो अति सुन्दर धातुप्रतिमायें, जो अभी पोंडवाड़ा के श्री महावीर जिनालय में विराजमान हैं । पृ० २८२ । Page #477 --------------------------------------------------------------------------  Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ]::न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० खीमसिंह, सहसा :: [ २८३ पूरी जैसा लिखा जा चुका है श्रे० खीमसिंह के पुत्र देता की ज्येष्ठा पुत्री थी। वह महागुणवती थी । धीरे २ वह संसार की सारता को देखकर वैराग्यरंग में रंगने लगी और निदान उसने भागवती दीक्षा ग्रहण की। श्रे० खीमसिंह और सहसा प्रपिता खीमसिंह ने अपनी प्यारी पौत्री पूरी का दीक्षोत्सव अति द्रव्य व्यय करके अति सुन्दर द्वारा प्रवर्त्तिनी - पदोत्सव चिरस्मरणीय किया था। साध्वी पूरी बड़ी ही बुद्धिमती थी । धीरे २ शास्त्रों का अभ्यास करके वह प्रवर्त्तिनीपद के योग्य हो गई । आचार्य जयचन्द्रसूरि ने उसको प्रवर्त्तिनीपद देना उचित समझ कर श्रे० खीमसिंह और श्रे० सहसा द्वारा आयोजित प्रवर्त्तिनीपदोत्सव का समारम्भ करके शुभमुहूर्त में उसको प्रवर्त्तिनीपद प्रदान किया। इस अवसर पर दोनों भ्राताओं ने रेशमी वस्त्रों एवं कम्बलों की भेंट दी और स्वामी वात्सल्यादि से संघ की भारी संघभक्ति की । चांपानेर-पावागढ़ के ऊंचे पर्वत पर चैत्यालय बनवाया और उसमें विशाल जिनप्रतिमाओं को महामहोत्सवपूर्वक वि० सं० १५२७ पौष कृष्णा ५ को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित करवाई । वि० सं० १५३३ में प्रसिद्ध क्षेत्रों दोनों भ्राताओं के अन्य में अनेक सत्रागार खुलवाये । दोनों भ्राताओं ने श्री शत्रुंजयमहातीर्थ और गिरनारतीर्थों पुण्यकार्य की बड़ी २ यात्रायें कीं और बड़े २ उत्सव किये । तपागच्छनायक श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि के प्रमुख शिष्यों में अग्रणी सोमजयगुरु के सदुपदेश से दोनों भ्राताओं ने वि० सं० १५३४ में 'चित्कोश - ज्ञानभण्डार' के लिये समस्त जैनागमों को अति सुन्दर अक्षरों में लिखवाया । इस प्रकार उक्त दोनों भ्राता श्रेष्ठ परिवार वाले, धर्म के धुर, सदाचारी, जिनेश्वरभक्त, विचारशील, उदार और साधु-साध्वियों के परम अनुरागी थे। दोनों भ्राताओं ने अनेक धर्मकृत्य किये, अनेक बार स्वामीवात्सल्यादि करके तथा लाडूओं में रुपयादि रख कर लाभिनियाँ, पहिरामणियाँ देकर प्रशंसनीय संघभक्तियाँ कीं । तीर्थोद्धार, परोपकार, गुरुमहाराज का सत्कार, नगर- प्रवेशोत्सव, प्रतिमा-प्रतिष्ठायें, पदोत्सव आदि अनेक धर्मकृत्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । अनेक बार उत्तम वस्त्रों की भेंटें दीं। इस प्रकार दोनों भ्राताओं ने जैन-धर्म की निरंतर सेवा करके अपना धन और जीवन सफल बनाया । सादा [लितादेवी ] देवा ते० पा० वि० ५० १६ से २१ वंश-वृक्ष छाड़ाक काबा [ कदू ] खीमसिंह [धनाई ] | राजड़ [ गोमतीदेवी ] सहसा [वारुमती ] 1 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [ तृतीय देता [कनकाई] नोता [लाली] समधर [वड़धू] ईसा [जीविणि] मल्लाई पुण्यपाल हेमराज धरण । पूरी जसू (पु त्रि याँ ) । बासु सोनपाल अमीपाल श्री सिरोहीनगरस्थ श्रीचतुमुख-आदिनाथ-जिनालय का निर्माता कीर्तिशाली श्रीसंघमुख्य सं० सीपा और उसका धर्म-कर्म-परायण परिवार वि० सं० १६३४ से वि० सं० १७२१ पर्यन्त राजस्थान की रियासतों में सिरोही-राज्य का गौरव और मान अन्य रियासतों से घटकर नहीं है। क्षेत्रफल और आय की दृष्टि से अवश्य सिरोही का मान द्वितीय श्रेणी की रियासतों में है। उदयपुर के राणाओं का मान __ अगर यवन-सम्राटों को डोला नहीं देने पर ही प्रमुखतया आधारित है, तो सिरोही के सं० सीपा का वंश-परिचय 4 महारावों ने भी यवन-सम्राटों को डोला नहीं दिया और सदा राज्य और अपने वंश को संकट में डाले रक्खा । ऐसे गौरवशाली राज्य के वशंतपुर नामक ग्राम में, जो सिरोही नगर से थोड़े ही अन्तर पर आज भी विद्यमान है प्राग्वाटज्ञातीय सं० सदा अपने फल-फूले परिवार सहित रहता था। सं० सदा की स्त्री का नाम सहजलदेवी था । सहजलदेवी के पांच पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र जयवंत था। सं० श्रीवंत, सं० सोमा, सं० सुरताण और सं० सीपा ये क्रमशः सं० जयवंत के छोटे भ्राता थे। इन सर्व में सं० सुरताण और सं० सीपा के परिवार अधिक गौरवान्वित और प्रसिद्ध हुये। ___ सं० सुरताण के दो स्त्रियाँ थीं, गउरदेवी और सुवीरदेवी । गउरदेवी के यादव नामक पुत्र हुआ। यादव का विवाह लाड़िगदेवी नामा कन्या से हुआ, जिसके करमचन्द्र नामक पुत्र हुआ । करमचन्द्र की स्त्री का नाम - सुजाणदेवी था। सुजाणदेवी की कुक्षी से सं० मोहन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। सं० सुरताण का परिवार "" सुवीरदेवी की कुक्षी से जयमल नामक पुत्र हुआ । जयमल का विवाह जमणादेवी से मूलगंभारा में उत्तराभिमुख श्री आदिनाथप्रतिमा का लेखः 'संवत् १६४४ वर्षे फागण बदि १३ बुधे श्री सिरोहीनगरे महाराजश्रीसुरताणजीविजयीराज्ये । प्राग्वाटज्ञातीय वृद्ध० वसंतपुरवास्तव्य सं० सदा भार्या सहजलदे पुत्र सं० जयवंत सं० श्रीवंत सं० सोमा सं० सुरताण सं० सीपा भार्या सरूपदे पुत्र सं० आसपालेन सं० वीरपाल सं० सचवीर सं० आसपाल भार्या जयवंतदे पुत्र श्रांबा चौपा सं० वीरपाल भार्या विमलादे पुत्र मेहजलादि कुटुबयुतेन Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञासद्गृहस्थ-श्रीसंघमुख्य सीपा :: [२८५ हुआ । जमणादेवी की कुती से हरचन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। हरचन्द की स्त्री का नाम सुखमादेवी था । हरचन्द को सुखमादेवी से धारा, जगा, आणंद और मेघराज नामक चार पुत्रों की प्राप्ति हुई । सं० सीपा की सरूपदेवी नामा स्त्री थी । सरूपदेवी की कुक्षी से सं० आशपाल, सं० वीरपाल और सं० सचवीर नामक तीन प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न हुये । सं० आशपाल की जयवंतदेवी नामा स्त्री थी। जयवंतदेवी की कुक्षी सं० सीपा और उसका से आंबा, चांपा और जसवन्त नामक तीन पुत्र हुये । चांपा की स्त्री का नाम उछरंगपरिवार देवी था । जसवन्त के ऋषभदास नामक पुत्र हुआ । ऋषभदास का विवाह रुखमादेवी से हुआ था । सं० वीरपाल का विवाह विमलादेवी से हुआ था। विमलादेवी के मेहाजल नामक प्रसिद्ध पुत्र हुआ। सं० मेहाजल के मनोरमदेवी, कल्याणदेवी और नीवादेवी नामा तीन स्त्रियाँ थीं। मनोरमदेवी के गुणराज और कल्यादेवी के अति पुण्यात्मा कर्मराज नामक विश्रुत पुत्र पैदा हुये । सं० गुणराज की स्त्री अजबदेवी नामा थी, जिसकी कुक्षी से वीरभाण और राजभाण नामक पुत्र हुये । वीरमाण की स्त्री का नाम जसरूपदेवी था । ___ सं० कर्मराज कर्मा के केसरदेवी और कमलादेवी नामा दो स्त्रियाँ थीं, जिनकी कुक्षी से क्रमशः जइराज और थिरपाल नामक पुत्र हुये । जईराज की स्त्री का नाम महिमा देवी था । सुन्दर प्रस्तर त्रयोमूर्ति निर्मापित श्री चतुर्म खचैत्ये श्री आदिनाथबिंब सयुक्त कारितं प्रतिष्ठितं च श्री तपागच्छधिराज श्री विजयदानसूरीश्वरपट्टालंकार दिल्लीपतिप्रदत्तजगद्गुरुविरुदधारकस्य...... भट्टारिक श्री ६ श्री हीरविजयसूरिभिः । चिरंजयतु ।।' दशाओसवालों के श्री आदीश्वरनाथ-जिनालय में खेलामण्डपस्थ आदिनाथबिंब का लेखांश'सुरताणाख्येन भार्या गउरिदे पुत्र यादवादि' 'सा० यादव भार्या लाड़िगदे सुत सा. करमचन्द भार्या सुजाणदे सुत सं० मोहन' श्री चौमखाजिनालय की उत्तराभिमुख सशिखर बड़ी दे० कु० में 'संघवी सुलतान भार्या सुवीरदे सुत सं0 जयमल भार्या जमणादे सुत सं० हरचन्दकेन भार्या सुखमादे सुत सं० धारा सं० जगा सं० आणंद सं० मेघराज' १- वायव्यकोण की सशिखर देवकुलिका में दक्षिणाभिमुख शांतिनाथबिंब का लेखांश_ 'सं० आसपाल सुत सं० जसा पुण्यार्थ सं० कर्मा केन ... ........., चौ० जिनालय २- दक्षिणपक्ष की पूर्वाभिमख देवकुलिका सं०३ में महावीरबिंब का लेखांश 'सं० चापा भार्या उछरंगदे पुण्यार्थ सं० कर्माकेन' चौ० जिनालय ३- उत्तरपक्ष की दे० कु० सं०२ में शांतिनाथबिब का लेखांश-- ___ सं० ऋषभदास भार्या रूपमादे नाम्न्या श्री शांतिनाथबिंब' चौ० जिनालय ४-द्वि० मंजिल के गंभारा में पार्श्वनाथबिंब का लेखांश संवीरपाल भार्या विमलादे सुत सं० मेहाजल भार्या मनोरमदे स्तन० गुणराजकेन चो० जिनालय ५-नैऋत्य कोण की दे० कु० में श्रादिनाथबिंब का लेखांश___ मेहाजल भार्या कल्याणदे सतसं० कर्माकेन' चौ० जिनालय ६- उत्तरपक्ष की दे० कु० में श्री वासुपूज्यबिंब का लेखांश___ ‘स की पुत्र जइराज भार्या महिमा नाम्न्या' चौ० जिनालय ७- दक्षिणपक्ष की दे० कु०३ में धर्मनाथबिंब का लेखांश 'सं० मेहाजल मार्या नीवादे पुण्यार्थ स० कर्माकेन' चौ० जिनालय Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय सं० सचवीर की श्रृंगारदेवी नामा स्त्री थी । शृंगारदेवी के देवराज, कृष्णराज और केशवराज नामक तीन योग्य पुत्र हुये । कृष्णराज का विवाह कमलादेवी नामा कन्या से हुआ । कमलादेवी के धनराज नामक पुत्र हुआ, जिसका विवाह सारुदेवी से हुआ था । सं० केशव की स्त्री का नाम रूपादेवी था। रूपादेवी की कुक्षी से सं० नाथा का जन्म हुआ । सं० नाथा की स्त्री का नाम कमलादेवी था । कमलादेवी के जीवराज नामक पुत्र हुआ । पश्चिमाभिमुख श्री आदिनाथ चतुर्मुख- जिनप्रासाद सिरोही नगर सिरोही-राज्य की राजधानी है । राजप्रासादों की तलहटी में सशिखर जिनमन्दिरों की हारमाला इतनी लम्बी और इतने क्षेत्र को घेरे हुये है कि इसी के कारण सिरोही 'अर्धशत्रुंजयतीर्थ' कहा जाता है । उपरोक्त सशिखर जिनमन्दिरों में भव्य, विशाल और प्रमुख मन्दिर सं० सीपा का बनाया हुआ श्री आदिनाथ चतुर्मुख - जिनालय है । इस मन्दिर की बनावट को देखकर श्री नलिनीगुल्मविमान- त्रैलोक्यदीपक - धरणविहार - श्री राणकपुरतीर्थ - आदिनाथ– चतुर्मुख जिनप्रासाद सं० सीपा का सिरोही में चौमुखा - जिन चैत्यालय बनाना और उसकी प्रतिष्ठा ८ - द्वि० मंजिल के गंभारा में पूर्वाभिमुख प्रतिमा का लेखांश 'सं० गुणराज भा० अजबदे सु० सं० वीरभाणेन' चौ० जिनालय E - दक्षिण की उत्तराभिमुख बड़ी देवकुलिका में दूसरी आसनपट्टी पर प्रतिमा सं० १०, १२ श्री अजितनाथबिंब और सुविधिनाथबिंबों का लेखाश 'सं० गुणराज सुत सं० वीरभाण भार्याी जसरूपदे नाम्न्या श्री अजितनाथ बिवं' 'सं० गुणराज सुत सं० राजभाणेन श्री सुविधिनाथबिंब' चौ० जिनालय १०- वायव्यकोण की सशिखर दे० कु० में नमिनाथबिंब का लेखांश to कर्मी भार्या केसर दे नान्या श्री नमिनाथबिंब' चौ० जिनालय ११ दक्षिण की एक बड़ी दे० कु० में पूर्वाभिमुख श्रादिनाथबिंब का लेखाto कमी भार्या कमलादे नाम्न्या श्री नमिनाथबिंबं ' चौ० जिनालय १२- श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथचैत्य के खेलामण्डप के उत्तर दिशा के आलय में श्री सम्भवनाथबिंब का लेखाश'सं० कर्मी भार्या कमला पुण्यार्थं सं० थिरपाल केन १३- द्वि० मंजिल के गंभारा में उत्तराभिमुख श्री मुनिसुव्रतबिंब का लेखाश 'सं० सचवीर भार्या सिणगारदे सुत सं० देवराज पुण्यार्थं सं० कर्मकेन' चौ० जिनालय १४- दक्षिण दिशा की उत्तराभिमुख बड़ी दे० कु० में पूर्वाभिमुख श्री श्रेयांसनाथबिंब का लेखांश'सं० सचवीर भार्या सणगारदे पुत्र सं ० कृष्णा पुण्यार्थं सं० कर्मकेन' चौ० जिनालय १५- उत्तर दिशा की दे०कु० सं० १ में श्रेयांसनाथबिंब का लेखा 'सं० सचवीर सुत सं० केशव भार्या रूपादे सुत सं० नाथाकेन' चौ० जिनालय १६- दक्षिणपक्ष की दे०कु० सं० २ में श्री नमिनाथबिंब का लेखाश'सं० कृष्णा भायी कमला पुण्यार्थ सं० कमीकेन' 'सं० कृष्णा सुत सं० धनराजेन' चौ० जिनालय Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरोही : पर्वत की तलहटी में सं० सीपा द्वारा विनिर्मित पश्चिमाभिमुख गगनचुम्बी श्री आदिनाथ चतुर्मुख-बावन जिनप्रासाद । वर्णन पृ० २८६ पर देखिये । सिरोही : पर्वत की तलहटी में सं० सीपा द्वारा विनिर्मित पश्चिमाभिमुख गगनचुम्बी श्री आदिनाथ चतुर्मुख बावन जिनप्रासाद का नगर के मध्य एवं समीपवर्ती भूभाग के साथ मनोहर दृश्य वर्णन पृ० २८६ पर देखिये । Page #483 --------------------------------------------------------------------------  Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्री संघमुख्य सीपा :: [ २८० स्मरण हो आता है । इस मन्दिर की में तो अन्तर प्रतीत होता ही है; परन्तु बनावट में और उसकी बनावट में क्षेत्रफल, विशालता, भव्यता आदि इससे दोनों की समान भाँति में अन्तर नहीं पड़ता । अन्तर केवल इतना ही कि इसमें मण्डपों की रचना नहीं है और देवकुलिकाओं के परिकोष्ठ में वैसे चार द्वार भी नहीं हैं। इसका भी सिंहद्वार पश्चिमाभिमुख हैं । इस भव्य चतुर्मुखा - मूलकुलिका का निर्माण विक्रम संवत् १६३४ में सम्पूर्ण हुआ और सं० सीपा के पुत्र आसपाल ने तपा० पट्टालंकार दिल्लीपति यवनसम्राट् अकबरशाह द्वारा प्रदत्त जगद्गुरुविरुद के धारक श्रीमद् श्री ६ श्री श्री विजय हीरसूरीश्वरजी के करकमलों से विक्रम संवत् १६४४ फाल्गुण कृष्णा १३ बुधवार को सिरोही महाराजाधिराज महाराय श्री सुरतारासिंहजी के विजयी राज्यकाल में राजसी सजध एवं अति ही धूम-धाम से इसकी प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठोत्सव के समय सं० सीपा धन, परिवार और मान की दृष्टि से अधिक ही गौरवशाली था । प्रतिष्ठोत्सव में सं० सीपा ने अत्यन्त द्रव्य व्यय किया था । याचकों को विपुल द्रव्य दान में दिया था और संघ और साधुओं की भक्ति विशाल स्वामीवात्सल्यादि करके अत्यधिक की थी । महाराय सुरताण सिरोही के राज्यासन पर हुये महारायों में सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी और गौरवशाली राजा थे । जगद्गुरु हीरविजयसूरि भी ख्याति और प्रतिष्ठा में अन्य जैनाचार्यों से कितने बढ़ कर हैं - यह भी किसी से सं० सीपा के सुख और अज्ञात नहीं है । सम्राट् अकबर का शासन काल था । सिरोही के समस्त मन्दिरों में गौरव पर दृष्टि यह चतुमुखा - जिनालय अधिकतम् भव्य और प्राचीन है । उपरोक्त समस्त बातें विचार करके यह सहज माना जा सकता है कि जिसका धर्मगुरु और राजा अद्वितीय हों, ऐसे महापुरुषों का कृपापात्र पुरुष भी कितना गौरवशाली हो सकता है, सहज समझा जा सकता है। चौमुखाप्रासाद सं० सीपा के महान् गौरव और कीर्त्ति का परिचय आज भी भलीविध संसार को दे रहा है। सं० सीपा को मन्दिर के लेख में भी 'श्रीसंघमुख्य' पद से अलंकृत किया गया है। समाज में भी उसका अतिशय मान था — यह इस पद से सिद्ध होता है । वसंतपुरवासी सं० सीपा जैसा ऊपर लिखा जा चुका है बहुपरिवारसम्पन्न था । सरूपदेवी नामा उसकी पतिपरायणा धर्मिष्ठा स्त्री थी। उसके आसपाल, वीरपाल और सचवीर जैसे प्रसिद्ध और धर्मसेवक तीन पुत्र थे और सं० मेहाजल, आंबा, चांपा, केशव, कृष्ण, जसवंत और देवराज जैसे होनहार उसके सात पौत्र थेइतने पुत्र, पौत्र, पुत्रवधूयें एवं भ्रातादि से समृद्ध और भरपूरे परिवार वाला, राज्य और समाज में अग्रणी तथा धर्म के क्षेत्र में अपने अतिशय द्रव्य का सदुपयोग करने वाला पुरुष सर्व प्रकार से सुखी और प्रतिष्ठावान् ही निर्वादतः माना जायगा । यह मन्दिर एक ऊंचे चतुष्क पर बना है । चतुष्क के मध्य में अति ऊंची त्रिमंजिली मूलदेवकुलिका बनी है । तीनों मंजिल चतुर्मुखी हैं । मूलदेवकुलिका के चारों दिशाओं में विशाल सभामण्डप बने हैं । पश्चिम, उत्तर और दक्षिण श्री चतुर्मुखा जिनालय की दिशाओं के सभामण्डपों के बीच में नैऋत्य और वायव्य दोनों कोणों में सशिखर विशाल दो-दो द्वारवती दो देवकुलिकायें बनी हैं। नैऋत्य कोण में बनी देवकुलिका की बाहरी बनावट १७- दक्षिणपक्ष की दे०. कु० सं० १ में धर्मनाथबिंब का लेखा'सं० नाथा सुत सं० जीवराजेन' चौ० जिनालय Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय दिवार से लगा कर ऊपर की मंजिल में जाने के लिये पदनाल बनी है । सभामण्डपों के आगे भ्रमती या गई है, जिसमें भक्तगण मन्दिर की परिक्रमा करते हैं । इस भ्रमती से लगकर चारों ओर बनी हुई बावन देवकुलिकाओं की रचना आ जाती है । देवकुलिकाओं के आगे स्तंभवती वरशाला है । देवकुलिकाओं का पृष्ठ भाग सुदृढ़ परिकोष्ठ में विनिर्मित हैं । यह परिकोष्ठ चतुष्क की चारों भुजाओं पर अपनी योग्य ऊंचाई, कुलिकाओं के शिखरों के कारण अति ही विशाल एवं मनोहर प्रतीत होता है । मन्दिर का सिंहद्वार जैसा ऊपर भी लिखा जा चुका है, पश्चिमाभिमुख है और द्विमंजिला है । मन्दिर में कलाकाम नहीं है, फिर भी बावन देवकुलिकाओं से, उनके शिखरों से, नैऋत्य और वायव्य कोणों में बनी हुई विशाल देवकुलिकाओं के ऊंचे शिखर और गुम्बजों से, चारों दिशाओं बने हुये चारों सभामण्डपों के चारों विशाल गुम्बजों की रचना से वह ऊंचाई पर से देखने पर अति ही विशाल, भव्य और मनोहर प्रतीत होता है । मन्दिर की प्रतिष्ठा यद्यपि विक्रम संवत् १६३४ में ही हो चुकी थी। फिर भी जैसा इस मन्दिरगत प्रतिमाओं के प्रतिष्ठासंवतों से प्रतीत होता है, चौमुखी मंजिलों, देवकुलिकाओं में मूर्त्तियों की प्रतिष्ठायें वि० सं० १७२१ तक होती रहीं और तदनुसार मन्दिर का निर्माणकार्य भी प्रतिष्ठोत्सव पश्चात् भी कई वर्षों तक चालू रहा । सं० सीपा के पुत्रों, पौत्रों, प्रपौत्रों द्वारा श्री चतुर्मुखी-आदिनाथचैत्यालय में विभिन्न २ संवतों में प्रतिष्ठित करवाई गयीं प्राप्त मूर्त्तियों का परिचय निम्नवत् है: प्रतिष्ठा-संवत्-तिथि प्रतिष्ठाकर्त्ता ११६४४ फा० कृ० १३ बुध. हीरविजयसूरि. २ ३ १० ११ १२ 17 99 " " ४ १७२१ ज्ये०सु० ३ रवि. विजयराजसूरि. ५ ६ ७ ८ 21 " " "" "" 17 " 11 "" "" १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसूरि. "" 17 प्रतिष्ठापक 17 मूलगंभारा में यशपाल. 19 गूढ़मण्डप की चौपट्टी पर धनपाल (धनराज ). कर्मराज. "" द्वि० चौमुखी मंजिल के गम्भारा में " गुणराज. " कर्मराज. गुणराज . कर्मराज. वीरभाण. कर्मराज. विशेष मू० ना० आदिनाथ पश्चिमाभिमुख. उत्तराभिमुख. पूर्वाभिमुख. प्रतिमा पार्श्वनाथ. " जिनबिंब. वासुपूज्य. पार्श्वनाथ. " सुबाहुस्वामी. संभवनाथ मंत्री वस्तुपाल के श्रेयार्थ. पश्चिमाभिमुख. मुनिसुव्रत. देवराज के पुण्यार्थ उत्तराभिमुख. जिनबिंब. १८- श्री सांखेश्वर - पार्श्वनाथ - जिनालय के उत्तराभिमुख श्रालयस्थ श्री आदिनाथबिंब का लेखांश 'सं० कृष्णा तत्पुत्र धनराज तस्य भार्याी सारू' पूर्वाभिमुख. आदिनाथ. सचवीर के पुण्यार्थ दक्षिणाभिमुख Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा सद्गृहस्थ-सं० सीपा के पुत्र-पौत्रः [ २८६ प्रतिष्ठा - संवत्-तिथि प्रतिष्ठाक प्रतिमा विशेष प्रतिष्ठापक नैऋत्यकोण की सशिखर देवकुलिका में आदिनाथ. धर्मनाथ. १३ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसूरि, कर्मराज. १४ २५ २६ २७ २८ १५ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसूरि. कर्मराज. १६ १७ १८ १६ " ३२ ३३ ३४ 19 "" ३७ ३८ 27 19 " "" 27 " " २० १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि विजयराजसूरि. जीवराज. २१ २२ २३ २४ " 17 २६ १७२१ ज्ये० सु० ३ रवि. ३० ३१ 19 === " 99 "" " वायव्यकोण की सशिखर देवकुलिका में विमलनाथ. सुमतिनाथ. 17 " " "" " 19 " 17 " 27 " 19 "" 11 " 19 19 "" 77 ऋषभदास. कर्मराज. "" 11 "" 22 दक्षिणपक्ष की देवकुलिका में 11 नाथाभार्या कमलादेवी श्रादिनाथ उत्तरपक्ष की देवकुलिका में विजयराजसूरि. महिमादेवी. कर्मराज. "" ३५ - १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसूरि. कर्मराज. ३६ " धनराज. कर्मराज. नाथा. कर्मराज. रुखमादेवी. धनराज. 77 कृष्णराज. दक्षिण दिशा की एक बड़ी देवकुलिका में चन्द्रप्रभ. नमिनाथ. शांतिनाथ. कमलादेवी. कर्मराज. धर्मनाथ. जिनबिंब. अजितनाथ. " नमिनाथ. वासुपूज्य. श्रेयांसनाथ. पूर्वाभिमुख. सं० चापा के पुण्यार्थ. वीरपाल के पुण्यार्थ. पूर्वाभिमुख. अंबा के पुण्यार्थ. केसरदेवी के पुण्यार्थ. जसराज के पु. 17 शीतलनाथ. "" " महावीर उछरंगदेवी के पुण्यार्थ.दे. कु. सं. ३ धर्मनाथ. नीवादेवी के पुण्यार्थ. पद्मप्रभ. शान्तिनाथ. जिनबिंब. अजितनाथ. देवकुलिका सं ० १ में. " 19 21 " कमलादेवी के पुण्यार्थ दे.कु.सं. २ देवकुलिका सं० २० ?? दे० कु० सं० १. 19 99 97 11 19 27 77 97 सं० २ सं० ३ 19 वासुपूज्य आसपाल के पुण्यार्थ पूर्वाभिमुख आदिनाथ. श्रेयांसनाथ. सुमतिनाथ. पूर्वाभिमुख कृष्णराज के पुण्यार्थ मेहाजल के पुण्यार्थ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय , १२ ३६-५६-इसी कुलिका में ऊपर की प्रथम प्रासनपट्टी पर उत्तराभिमुख प्रतिमाओं में से सं० १, २, ३, ४, ६, ७, ८, ६, १०, ११, १३, १४, १६, १७, १८, २०, २१, २२, २३, २४, २५ वी प्रतिमायें संवत् १७२१ फा० शु० ३ रविवार सं० कर्मराज ने विजयराजसूरि के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। ६०-६२ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसरि. गुणराज. महावीरबिंब. प्रतिमा सं० १६ द्वितीय आसनपट्टी पर विराजित प्रतिमाओं में से सं० ४, ७, ८ भी सं० सीपा के ही वंशजों द्वारा सं० १७२१ फा० शु० ३ रविवार को ही प्रतिष्ठित की हुई हैं। ६३-६४ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसरि. कर्मराज. सुमतिनाथ. -- प्रतिमा सं० ५, ६ ६५ गुणराज. जिनबिंब. प्र० सं०६ ६६ जसरूपदेवी. अजितनाथ. राजभाण. सुविधिनाथ. धनराज. जिनबिंब. श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ-जिनालय में ६६ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसरि. थिरपाल. सम्भवनाथ. खेलामण्डप में उत्तराभिमुख - श्री दशा ओसवालों के आदीश्वर-जिनालय में ७० १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. विजयराजसूरि. यादव. नमिनाथ खेलामण्डप में दक्षिणाभिमुख ७१ १६४४ फा० शु० १३ सुरताण. आदिनाथ. " पूर्वाभिमुख ७२ १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि. " नमिनाथ. दे. कु. उत्तराभिमुख कर्मराज. सम्भवनाथ. हरचन्द्र. आदिनाथ. खेलामण्डप " कर्मराज. कुंथुनाथ. दे० कु० दक्षिणाभिमुख नाथाभार्या कमला. नमिनाथ. पश्चिमाभिमुख दे. कु. के खेलामंडप में उपरोक्त सूची से ज्ञात होता है कि सं० सीपा के वंशजों ने वि० सं० १७२१ ज्ये० सु० ३ रविवार को अंजनश्लाका-प्राण-प्रतिष्ठोत्सव अति धूम-धाम से श्रीमद् विजयराजसूरि की तत्त्वावधानता में किया और बहु द्रव्य व्यय करके अनेक बिंबों की प्रतिष्ठायें करवाई। सं० सदा तो वशन्तपुर में ही रहता था। सं० सदा के पाँचवें पुत्र सं० सीपा के पुत्रों तक यह परिवार वशन्तपुर में ही रहा । सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में अथवा अट्ठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह परिवार सिरोही सं० सीपा के परिवार के में ही आकर रहने लग गया । सं० सीपा के वि० सं० १६३४ के लेखों से प्रतीत होता प्रसिद्ध वंशजो का परिचय है कि मन्दिर की मूलनायक देवकुलिका का प्रथम खण्ड उक्त संवत् में पूर्ण हो गया थाऔर मेहाजल का यशस्वी और सं० सीपा ने उसकी प्रतिष्ठा उसी संवत् में श्रीमद् विजयहीरसरिजी के कर-कमलों से जीवन करवाई थी। तत्पश्चात् उसके ज्येष्ठ पुत्र आसपाल ने फिर वि० सं० १६४४ फा० कृ० मंदिर का प्रतिष्ठा-लेख, जो गढ़मंडप के पश्चिम द्वार के बाहर उसके दायी ओर की दीवार में श्रालय के उपर खुदा है निम्न है। ७३ ७६ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं० सीपा के पुत्र-पौत्रःः[ २६१ १३ बुधवार को अंजनश्लाका-प्राणप्रतिष्ठोत्सव करके श्रीमद् विजयहीरसूरि के कर-कमलों से निजमन्दिर में श्री आदिनाथ भगवान् की श्वेत प्रस्तर की विशाल तीन मूलनायक प्रतिमायें पश्चिमाभिमुख, पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाई। सं० सीपा के पौत्रों में वीरपाल का पुत्र मेहाजल अधिक यशस्वी और श्रीमंत हुआ। इसने वि० सं० १६६० में श्री शजयमहातीर्थ की विशाल संघ के साथ में यात्रा की थी और पुष्कल द्रव्य व्यय करके अपार यश एवं मान प्राप्त किया था । मेहाजल की स्त्री मनोरमादेवी की कुक्षी से उत्पन्न गुणराज और द्वितीय स्त्री कल्याणदेवी की कुक्षी से उत्पन्न कर्मराज भी अधिक योग्य और प्रख्यात हुये । प्राप्त बिंबों में आधे से अधिक बिंब कर्मराज के द्वारा तथा अवशिष्ट में से भी अन्य परिजनों द्वारा प्रतिष्ठित बिंबों की संख्या से अधिक गुणराज और उसके पिता मेहाजल द्वारा प्रतिष्ठित हैं। ये सर्व प्रतिमायें वि० सं० १७२१ ज्येष्ठ शुदी ३ रविवार को श्रीमद् विजयराजसूरि द्वारा प्रतिष्ठित की गई थीं। सं० सीपा के तृतीय पुत्र सं० सचवीर के पौत्र सं० धनराज और नत्थमल तथा नत्थमल के पुत्र जीवराज तक अर्थात् सं० सदा से ६ पीढ़ी पर्यन्त इस कुल की कीर्ति बढ़ती ही रही और राज्य और समाज में मान अक्षुण्ण रहा । श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय आज भी इस कुल की कीर्ति को अमर बनाये हुये है। सं० सीपा के परिजन एवं वंशजों ने चौमुखा-जिनालय के अतिरिक्त सिरोही के श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथजिनालय और श्री दशा-ओसवालज्ञाति के श्री आदीश्वर-जिनालय में भी अनेक जिनबिंबों की प्रतिष्ठायें करवाई, जैसा उपरोक्त जिनबिंबों की सूची से प्रकट होता है । 'संवत् १६३४ वर्षे शाके १५०१ प्रवर्त्तमाने हेमंत ऋतौ मार्गशिर मासे शुक्ल पक्षे पंचम्यां तिथौ । महाराय श्री महाराजाधिराज श्री सुरताणजी। कुअरजी श्री राजसिंहजी विजयीराज्ये श्री सीरोहीनगरे श्री चतुर्मुखप्रासाद करापितं ॥ श्री संघमुख्य श्री सं० सीपा भार्या सरुपदे पुत्र सं० आसपाल सं० वीरपाल स० सचबीर । तत्पुत्रा (पौत्र) स० मेहाजल, आंबा, चौपा, केसव, कृष्णा, जसवंत, देवराज । तपागच्छे श्री गच्छाधिराज श्री ६ हीरविजयसरि आचार्य श्री श्री ५ विजयसेनसारिणा श्री आदिनाथ श्री चतुम खं प्रतिष्ठितं ।। श्री ।। सूत्रधार नरसिंघ श्री राइण वु० हाँसा रोपी वु० मना पुत्र वु० हंसा पुत्र शिवराज कमठाकारापितं ॥शुभं भवतु।।' जै० गु० क०भा०२ पृ० ३७४ 'महापुरुष मेहाजल नाम, तीरथ थाप्यु अविचल काम, संवत् ने हुई सोलिवली, शेत्रुजा यात्रा करी मनिरुली।' (शीलविजयकृत तीर्थमाला) Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय सिरोहीनगरस्य श्री चतुर्मुखा - आदिनाथ जिनालय के निर्माता सं० सीपा का वंश-वृक्ष १ सं० सदा [सहजलदेवी ] २ सं० जयवंत सं० श्रीवन्त सं० सोमा सं० सुरताण [गउरदेवी, सुवीरदेवी] I ३ सं० यादव सं० जयमल ३ I [लाड़िगदेवी] [जमणादेवी] सं० श्रशपाल सं० वीरपाल सं० सचवीर 1 [जयवंतदेवी] [विमलादेवी] [शृङ्गारदेवी] 1 ४ सं० करमचंद सं० हरचंद [सुजाणदेवी] [सुखमादेवी ] ४ | 1 ५ सं० मोहन T 1 सं. धारा सं. जगा सं. आणंद सं. मेघराज ६ वीरभाण (वीरपाल) [जसरूपदेवी] ४ । सं० देवराज जसा थांबा चांपा [उछरंगदेवी] | ५ ऋषभदास ५ सं० गुणराज [अजबदेवी] [रुखमा] ४ सं० मेहाजल [मनोरमदेवी, कल्याणदेवी, नीवादेवी ] सं० सीपा [सरूपदेवी] सं० कर्मा [१ केशरदेवी, २कमलादेवी ] | I राजभाग जइराज [महिमादेवी] / सं० कृष्णा [कमलादेवी ] 1 ५ सं० धनराज ( धनपाल ) [सारू] थिरपाल सं० केशव [रूपादेवी] I सं० नाथा [कमलादेवी] I ६ जीवराज Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य--श्री शत्रुजयतीर्थ :: [२६३ तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य श्री शत्रुजयमहातीर्थ पर एवं श्रीपालीताणा में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य प्रेमचन्द्र मोदी की ट्रॅक में प्र० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्र० श्रावक अथवा श्राविका और उसका परिवार सं० १३७८ ......... मल० तिलकसरि ठ० वयजल की पुत्री ने सं० १४४६ वै. अजितनाथ- नागेन्द्र० श्रे० सादा ने पिता धणसिंह और माता हांसलदेवी के श्रेयार्थ कृ. ३ सोम. पंचतीर्थी रत्नप्रभसूरि मोतीशाह की ट्रॅक में सं० १५०३ नमिनाथ तपा० शा० कापा की स्त्री हांसलदेवी के पुत्र झांझण ने स्वस्त्री नागलदेवी, पुत्र ज्ये.शु. ६ जयचन्द्रसूरि मुकुंद, नारद और भ्राता धनराज के श्रेयार्थ जीवादि परिजनों के सहित पालीताणा के मोती सुखियाजी के जिनालय में सं० १५०३ श्रेयांसनाथ तपा० गणवाड़ावासी श्रे० आमा स्त्री सेगू के पुत्र पर्वत ने स्वस्त्री माई आदि ज्ये. शु. १०. जयचंद्रसरि. परिजनों के सहित स्वश्रेयार्थ. सं० १५५६ सिद्धचक्रपट्ट ......... म० वछा (वत्सराज) ने आश्विन शु. ८ बुध. सं. १५७१ नमिनाथ- तपा० वीसलनगरवासी श्रे० चहिता की स्त्री लाली के पुत्र नारद की स्त्री नारिंगमाघ कृ.१ सोम. चौवीशीपट्ट - हेमविमलसरि देवी के पुत्र जयवंत ने स्वस्त्री हर्षादेव्यादि परिवारसहित स्वश्रेयार्थ. . श्रे. नरसिंह-केशवजी के मन्दिर में सं० १६१४ पार्श्वनाथ तपा० दोसी देवराज स्त्री देवमती के पुत्र वनेचन्द्र स्त्री वनदेवी के पुत्र कुधजी वै. शु. २ बुध. धर्मविजयगणि ने पिता के श्रेयार्थ. श्री गौड़ीपार्श्वनाथ के मन्दिर में सं० १५१५ शांतिनाथ आग० सहयालावासी म० राउल स्त्री राउलदेवी द्वि० हांसलदेवी के पुत्र माघ शु. ५ शनि. पनप्रभसूरि मूलराज ने स्वस्त्री अरखूदेवी, पुत्र भोजा, हांसा, राजा स्त्री भकूदेवी ___ के सुत हीरा, माणिक, हरदास के सहित स्वपूर्वजश्रेयार्थ ....... जै० ले० सं० भा० १ ले० ६८४, ६८६, ६०८, ६४७, ६४६, ६५०, ६५१, ६६०, Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय सं० १५१६ वासुपूज्य उदयवल्लभसूरि श्रे० काला स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र अर्जुन ने स्वस्त्री देऊ भ्राता सं० ज्ये.कृ.६.शनि. भीमा स्त्री देवमती पुत्र हरपाल स्त्री टमकू सहित स्वश्रेयार्थ* सं० १५६६ चन्द्रप्रभ द्विवंदनीक श्राविका हेमवती के पुत्र देवदास ने स्त्री देवलदेवी सहित* माष. कृ.६ ग० ककसरि बड़े मन्दिर में सं० १५७२ संभवनाथ नागेन्द्र० जूनागढ़वासी दोसी सहिजा के पुत्र भरणा की स्त्री कूमटी के पुत्र चहु वै.शु. १३ सोम. चौवीशी गुणवर्द्धनमरि ने स्त्री वल्हादेवी के सहित स्वश्रेयार्थ और पितृश्रेयार्थ * जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसरिजी के सदुपदेश से श्री आदिनाथदेव-जिनालय में पुण्यकार्य वि० सं० १६२० श्रेष्ठि कोका श्रीआदिनाथ-मुख्यजिनालय के द्वार के दाँयी ओर जो देवकुलिका है, उसको वि० सं० १६२० वै० शु० २ को गंधारनिवासी श्रे० पर्वत के पुत्र कोका के सुपुत्र ने अपने कुटुम्बीजनों के सहित तपागच्छीय श्रीमद् विजयदानमूरि और जगद्गुरु विजयहीरसूरि के सदुपदेश से प्रतिष्ठित करवाई थी। श्रेष्ठि समरा इसी मुख्य जिनालय के उत्तर द्वार के पश्चिम में दाँयी ओर आई हुई जो शांतिनाथ-देवकुलिका है, उसको वि० सं० १६२० वै० शु० ५ गुरुवार को गंधारनगरनिवासी व्य० श्रे० समरा ने स्वपत्नी भोलीदेवी, पुत्री वेरथाई और कीबाई आदि के सहित तपा० श्रीमद् विजयदानसूरि और श्रीमद् विजयहीरसूरि के सदुपदेश से प्रतिष्ठित करवाई थी। श्रेष्ठि जीवंत इसी मुख्यमंदिर की दीवार के समक्ष ईशानकोण में जो पार्श्वनाथ-देवकुलिका है, उसको वि० सं० १६२० वै. शु० ५ गुरुवार को श्रीमद् विजयदानसूरि और विजयहीरसूरि के सदुपदेश से गंधारवासी सं० जावड़ के पुत्र सं० सीपा की स्त्री गिरसु के पुत्र जीवंत ने सं० काउजी, सं० आढुजी प्रमुख स्वभ्राता आदि कुटुम्बीजनों के सहित प्रतिष्ठित करवाई थी। ____ उपरोक्त संवत् एवं दिन के कुछ अन्य लेख भी प्राप्त हैं। इससे सिद्ध होता है कि गंधारनगर से कई एक सद्गृहस्थ जगद्गुरुविरुदधारक श्रीमद् विजयहीरसूरिजी की अधिनायकता में श्री शत्रुजयतीर्थ की यात्रा करने के ज० ले०सं० भाले०६६१,६६७,६७७ प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०६,८,६ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री शत्रुजयतीर्थ:: [२६५ लिये सपरिवार आये थे और कई दिवस पर्यन्त वहां ठहरे थे तथा उनमें से कई एक ने उपरोक्त प्रकार से निर्माणकार्य करवाये थे। श्रेष्ठि पंचारण ____ इसी मुख्य जिनालय की भ्रमती में दक्षिण दिशा में बनी हुई जो श्री महावीर-देवकुलिका है, उसको वि० सं० १६२० आषाढ़ शु० २ रविवार को श्री गंधारनगरनिवासी श्रे० दोसी गोइत्रा के पुत्र तेजपाल की स्त्री भोटकी के पुत्र दो० पंचारण ने स्वभ्राता दो० भीम, नना और देवराज प्रमुख स्वकुटुम्बीजनों के सहित तपा० श्रीमद् विजयदानसूरिजी और विजयहीरसूरिजी के सदुपदेश से प्रतिष्ठित करवाई थी ।* प्राग्वाटज्ञातीयकुलभूषण श्रीमंत शाह शिवा और सोम तथा श्रेष्ठि रूपजी द्वारा शत्रुञ्जयतीर्थ पर शिवा और सोमजी की हूँक की प्रतिष्ठा वि० सं० १६७५ विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबाद की जाहोजलाली अपने पूरे स्त्र को प्राप्त कर चुकी थी। वहाँ गूर्जरभूमि के अत्यधिक बड़े २ श्रीमंत शाहूकार बसते थे। जैनसमाज का विशेषतया राजसभा में अधिक संमान था, अतः अनेक धनकुबेर जैन श्रावक अहमदाबाद में रहते थे। ऐसे धनी एवं मानी जैन श्रीमंतों में प्राग्वाटज्ञातीय लघुशाखीय विश्रुत श्रे० देवराज भी रहते थे। देवराज की स्त्री रूड़ी बहिन से श्रे० गोपाल नामक पुत्र हुआ । श्रे. गोपाल की स्त्री राजूदेवी की कुक्षी से श्रे. राजा पैदा हुआ । श्रे० राजा के श्रे० साईश्रा नामक पुत्र हुआ और साईश्रा की स्त्री नाकूदेवी के श्रे. जोगी और नाथा दो पत्र उत्पन्न हुये। श्रे. जोगी की स्त्री का नाम जसमादेवी था। जसमादेवी के सं० शिवा और सोम नामक दो पुत्र पैदा हुए। सं० सोमजी का विवाह राजलदेवी नामा गुणवती कन्या से हुआ, जिसकी कुक्षी से रत्नजी, रूपजी और खीमजी तीन पुत्र पैदा हुये । रत्नजी की स्त्री का नाम सुजाणदेवी और रूपजी की स्त्री का नाम जेठी बहिन था। सं० रत्नजी के सुन्दरदास और सखरा, सं० रूपजी के पुत्र कोड़ी, उदयवंत और पुत्री कुअरी तथा खीमजी के रविजी नामक पुत्र उत्पन्न हुये। श्रे० साईआ का लघुपुत्र श्रे. नाथा जो श्रे. जोगी का लघुभ्राता था की स्त्री नारंगदेवी की कुक्षी से सूरजी नामक पुत्र हुआ । श्रे. सूरजी की स्त्री सुषमादेवी के इन्द्रजी नामक दत्तक पुत्र था । वे साइआ के ज्येष्ठ शिवा और सोमजी और पुत्र जोगी के दोनों पुत्र श्रे. शिवा और सोमजी अति ही धर्मिष्ठ, उदारहृदय, दानी उनके पुण्यकार्य एवं धर्मसेवी हुये । इन्होंने अनेक नवीन जिनमन्दिर बनवाये, अनेक नवीन जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई और ग्रन्थ लिखवाये। वि० सं० १५६२ में खरतरगच्छीय श्रीमद् जिनचन्द्रसूरि के सदुपदेश से ज्ञान भण्डार के निमित्त सिद्धान्त की प्रति लिखवाई । प्रतिष्ठाओं एवं साधर्मिकवात्सल्य आदि धर्मकृत्यों में पुष्कल द्रव्य का *प्रा० जैले०स०भा०२ ले०४ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ) :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय सदुपयोग किया । इन्होंने श्री शत्रुजयमहागिरि के ऊपर श्री चतुर्मुखविहार-श्रीआदिनाथ नामक जिनप्रासाद सपाकार बनवाना प्रारंभ किया था, परन्तु काल की कुगति से उसकी प्रतिष्ठा इनके हाथों नहीं हो सकी थी। ___ सं० सोमजी के यशस्वी, महागुणी एवं राजसभा में श्रृंगारसमान पुत्र रूपजी था। उस समय भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली के सिंहासन पर प्रसिद्ध प्रतापी मुगलसम्राट अकबर का पुत्र नूरदी जहांगीर विराजमान था । सोमजी के पुत्र रूपजी और उसके शासनकाल में सं० रूपजी ने एक विराट् संघ निकाल कर शत्रुजयमहातीर्थ की शत्रुजयतीर्थ की संघयात्रा यात्रा की और संघपति का तिलक धारण किया तथा अपने पिता सोमजी और काका शिवजी द्वारा जिस उपरोक्त चतुर्मुख-आदिनाथ जिनालय का निर्माण प्रारम्भ करवाया गया था को पूर्ण करवाकर श्रीमद् उद्योतनसूरि की पाटपरंपरा पर आरूढ़ होते आते हुये क्रमशः आचार्य जिनचन्द्रसूरि, जिनको मुगलसम्राट अकबर ने युगप्रधान का पद अर्पित किया था के शिष्यप्रवर श्रीमद् जिनसिंहसरि के पट्टालंकार आचार्य श्रीमद् जिनराजसूरि के करकमलों से वि० सं० १६७५ वैषाख शु० १३ शुक्रवार को पुष्कल द्रव्य व्यय करके महामहोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठित करवाया तथा उसमें चार अति भव्य आदिनाथबिंब चारों दिशाओं में अभिमुख विराजमान करवाये और एक आदिनाथ-चरण जोड़ी भी प्रतिष्ठित करवाई। सं० रूपजी, सं० सूरिजी, सं० सुन्दरदास और सखरादि ने इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर ५०१ जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई थी। शत्रुजयतीर्थ पर आज भी उपरोक्त चतुर्मुखादिनाथ-मंदिर 'श्री शिवा और सोमजी की ट्रॅक' के नाम से ही प्रसिद्ध है। इस टैक के बनाने में 'मिराते-अहमदी' के लिखने के अनुसार ५८०००००) अटठावन लक्ष रुपयों का व्यय हा था तथा ऐसा भी कहा जाता है कि केवल ८४०००) चौरासी हजार रुपयों की तो रस्सा और रस्सियाँ ही खर्च हो गई थीं। उक्त खरतरवसहिका श्री चतुर्मुखादिनाथ-जिनालय में आज भी निम्न प्रतिमायें सं० रूपजी और उसके कुटुम्बियों द्वारा स्थापित विद्यमान हैं :१-ट्रॅक के वायव्यकोण में विनिर्मित देवकुलिका में सं० रूपजी द्वारा स्थापित श्री आदिनाथ-चरण-जोड़ी एक । २-ट्रॅक के मूलमन्दिर में चारों दिशाओं में मूलनायक के रूप में सं० रूपजी द्वारा स्थापित श्री आदिनाथ भव्य प्रतिमायें चार । ३-ट्रॅक के ईशानकोण में सं० नाथा के पुत्र सं० सूरजी द्वारा स्वस्त्री सुखमादेवी और दत्तक पुत्र इन्द्रजी के सहित स्थापित करवाई हुई श्री शान्तिनाथ-प्रतिमा एक । ४-सं० रूपजी के वृद्धभ्राता सं० रत्नजी के पुत्र सुन्दरदास और सखरा द्वारा स्वपिता के श्रेयार्थ आग्नेयकोण में स्थापित श्री शान्तिनाथ-प्रतिमा एक। उपरोक्त बिंबों के प्रतिष्ठाकर्ता प्राचार्य श्री जिनराजसूरि ही हैं। शोध करने पर सम्भव है इस अवसर पर इनके द्वारा संस्थापित और भी अधिक बिंबों का पता लग सकता है। २. क्षमाकल्याणक की खरतरगच्छ की पट्टावली में श्रे. शिवा और सोमजी दोनों भ्राताओं के विषय में लिखा है कि वे अति दरिद्रावस्था में थे और चीभड़ा (शुष्क शाक-काचरी) का व्यापार करते थे। खरतरगच्छीय श्रीमद् जिनचंद्रसरि के सदुपदेश से इन्होंने चीमड़ा का व्यापार करना छोड़ा और श्रावक के योग्य अन्य धंधा करने लगे। देवयोग से थोड़े ही वों में पुष्कल द्रव्य अर्जित कर लिया और अत्यंत धनवान हो गये। 'अहमदाबादनगरे चिर्भटीब्यापारेणार्जीविका कुर्वाणो मिथ्यात्विकुलोत्पनौ प्राग्वाटज्ञातीयौ सिवा सोमजी नामानौ द्वौ भ्रातरौं (प्रतिबोध्य सकुटुम्बौ श्रावको) वृतवन्तः ॥' Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अबुदगिरितीर्थ : [ २६७ 'शत्रुजयतीर्थस्थ शिवा-सोमजी की हूँक' के निर्माता सं० शिवा और सोमजी का वंश-वृक्ष देवराज [रूढ़ी] गोपाल [राजूदेवी] राजा साइआ [नाकूदेवी] जोगा [जसमादेवी] नाथा [नारिंगदेवी]. सूरजी [सुखमादेवी] शिवा शिवा सोम [राजुलदेवी] बजी सिख इन्द्रजी (दत्तक) रहबी [सुजाणदेवी] रूपजी [जेठीदेवी] खीमजी सुखराम कोड़ीदास उदयवंत कुमरीबाई श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री विमलवसहिकास्य श्री आदिनाथ-जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि विजयड़ वि० सं० १३१६ श्री विमलवसति नामक श्री आदिनाथ-जिनालय की उनचालीसवीं देवकुलिका में मूलनायक के दाहिने पक्ष पर विराजमान श्री पार्श्वनाथ-प्रतिमा वि० सं० १३१६ माघ शु० ११ शुक्रवार को श्री चन्द्रमरिशिष्य श्री जै० सा० सं० इति० पृ० ५६७, प्रा. ० ले० सं० भा० २ ले०१५, १७ से २० Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय वर्द्धमानसरिजी के कर-कमलों से प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० सागर के पुत्र श्रे० पासदेव की स्त्री माधी (माध्वी) की कुक्षी से उत्पन्न पुत्री पाल्ही, पुत्र हरिचन्द्र की स्त्री देवश्री के पुत्र विजयड़ ने अपनी स्त्री विजयश्री और पुत्र प्रहुणसिंह आदि परिवार के साथ में प्रतिष्ठित करवाई थी ।१ ठ० वयजल वि० सं० १३७८ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय की छट्ठी देवकुलिका में प्राग्वाटज्ञातीय बीजड़ के पुत्र ठ० वयजल ने श्रे० धरणिग और जिनदेव के सहित ठ० हरिपाल के श्रेयार्थ श्री मुनिसुव्रतस्वामीबिंब को वि० सं० १३७८ में श्री श्रीतिलकसूरि द्वारा प्रतिष्ठित करवाया ।२।। तीन जिन-चतुर्विशतिपट्ट वि० सं० १३७८ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय की बीसवीं देवकुलिका में संगमरमर-प्रस्तर के बने हुये तीन जिनचतुर्विंशतिपट्ट हैं । इनकी प्रतिष्ठा वि० सं० १३७८ ज्येष्ठ कृ० ५ को निम्न व्यक्तियों के द्वारा करवाई गई थी। प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० महयण की स्त्री महणदेवी का पुत्र गेहल की स्त्री मोहादेवी का पुत्र..... "स्त्रीशृङ्गारदेवी के अभयसिंह, रत्नसिंह और समर नामक पुत्र थे । इनमें से समर ने अपनी स्त्री हंसल और पुत्र सिंह तथा मौकल आदि कुटुम्बीजनों के साथ मूलनायक श्री आदिनाथ आदि चौवीस जिनेश्वरों का एक जिनपट्ट प्रतिष्ठित करवाया ।३ प्राग्वाटज्ञातीय व्य...... की स्त्री मोरादेवी के पुत्र जसपाल, छाड़ा,....."सीहड़ और नरसिंह थे। इनमें से शाह छाड़ा ने अपनी स्त्री वाली और पुत्र के सहित दूसरा जिनपट्ट प्रतिष्ठित करवाया ।४ ।। _श्रे० साधु और उसकी स्त्री सोहगादेवी के कल्याण के लिये इनके पुत्र श्रे० हनु स्त्री सहजल, श्रे० लूणा स्त्री लूणादेवी, श्रे० जेसल स्त्री रयणदेवी और श्रे वीरपाल और उसकी स्त्री आदि कुटुम्ब के समुदाय ने सम्मिलित रूप से तीसरा जिन-चतुर्विंशति-पट्ट प्रतिष्ठित करवाया ।५ श्रेष्ठि जीवा वि० सं० १३८२ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय की नववी देवकुलिका में वि० सं० १३८२ कार्तिक शु० १५ के दिन प्राग्वाटज्ञातीय व्य० रावी के पुत्र ठ० मंतण और राजड़ के कल्याण के लिये राजड़ के पुत्र जीवा ने मू० ना० श्री नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई ।६ ।। अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० १३५० । ३८ माण्डव्यपुरवास्तव्य उपकेशज्ञातीय सा० लल्ल और वीजड़ ने वि० सं०१३७८ ज्येष्ठ शु०६ को श्रीमद् ज्ञानचन्द्रसरिजी न में श्री विमलवसतिका का बहुत द्रव्य व्यय करके जीणोंद्धार करवाया था। ऊपर के तीनों जिनपट्टों की स्थापना ज्येष्ट शु०५ को केवल चार दिवस पूर्व ही हुई थी। हो सकता है जिनपट्टों की प्रतिष्ठा भी श्री ज्ञानचन्द्रसरिजी ने ही की हो। अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०८८,८९,०४६ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ as ] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य - श्री अबु दगिरितीर्थ :: [ २६६ महं० भाण वि० सं० १३६४ श्री विमलवसतिका नामक श्री आदिनाथ - जिनालय की इक्कीसवीं देवकुलिका में वि० सं० १३६४ ज्येष्ठ कृ० ५ शनिश्चर को प्राग्वाटज्ञातीय विमलान्वयीय ठ० अभयसिंह की स्त्री अहिवदेवी के पुत्र महं० जगसिंह, लखमसिंह, कुरसिंह में से ज्येष्ठ महं० जगसिंह की स्त्री जेतलदेवी के पुत्र महं० भाण ने कुटुम्बसहित श्री अंबिकादेवी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया । १ श्रेष्ठि भीला वि० सं० १४७१ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ - जिनालय में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लक्ष्मण की स्त्री रुद्रीदेवी के पुत्र व्य० भीला ने अपने पिता, माता तथा अपनी आत्मा के श्रेय के लिये वि० सं० १४७१ माघ शु० १३ बुधवार को श्रीब्रह्माणगच्छीय श्रीमद् उदयानंदसूरिजी के कर-कमलों से श्री भगवान् पार्श्वनाथ का विंव प्रतिष्ठित करवाया |२ श्रेष्ठ साल्हा वि० सं० १४८५ श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ - जिनालय में प्राग्वाटज्ञातीय व्य० श्रे० डूङ्गर की स्त्री उमादेवी के पुत्र व्य० साल्हा ने अपनी स्त्री माल्हणदेवी, पुत्र कीना, दीना आदि के सहित श्री तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरिजी के कर-कमलों से वि० सं० १४८५ में श्री सुपार्श्वनाथ मू० ना० वाला चतुर्विंशतिपट्ट प्रतिष्ठित करवाया । ३ मं० आल्हण और मं० मोल्हण वि० सं० १५२० श्री विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ - जिनालय के गूढ़मण्डप में प्राग्वाटज्ञातीय सं० वरसिंह की स्त्री मंदोदरी के पुत्र मंत्री आल्हण और मंत्री मोल्हण ने अपने कनिष्ठ भ्राता मंत्री कीका और उसकी स्त्री भोली के कल्याणार्थ श्री पद्मप्रभबिंब को वि० सं० १५२० आषाढ़ शु० १ बुधवार को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित करवाया । ४ श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री लूणसिंहवसहिकाख्य श्री नेमिनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमाप्रतिष्ठादि-कार्य श्रेष्ठ महण श्री लूणवसतिकाख्य (लूणवसहि) श्री नेमिनाथ - जिनालय की देवकुलिका में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वीजड़ की५ श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले ० ६२' 'महं भाग' इस लेख से प्रतीत होता है विमलवसति के मूलनिर्माता महामात्य दंडनायक विमलशाह का वंशज है । श्र० प्रा० जै० ले० सं० भा २ ले० १७, १६,३६,४३१६५ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] :: प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय धर्मपत्नी मोटीबाई के पुत्र महण नामक ने अपने माता, पिता के कल्याणार्थ श्री नेमिनाथ भ० की मूर्ति श्रीमद् माणिकसरि के पट्टधर श्रीमान् देवसूरि के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। श्रेष्ठि झांझण और खेटसिंह श्री गुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-जिनालय की छब्बीसवीं देवकुलिका में हणाद्रावासी प्राग्वाटशातीय शाह घोना की स्त्री हमीरदेवी के पुत्र शा० झांझण और खेटसिंह ने अपने पिता, माता के श्रेय के लिये मू० ना० श्री आदिनाथबिंब को श्रीमद् रामचन्द्रसरिजी के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाया ।१ श्रेष्ठि जेत्रसिंह के भ्रातृगण वि० सं० १३२१ श्री गुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-जिनालय में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० ठ० कुंदा की धर्मपत्नी सहजु के पुत्र श्रे. भुवन, धनसिंह और गोसल ने अपने भ्राता जेत्रसिंह के श्रेय के लिये श्री नेमिनाथबिंब की वि० सं० १३२१ फाल्गुण शु० २ को श्रीमलधारी श्रीमद् प्रभाणंदमुरिजी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा करवाई ।२ श्रेष्ठि आसपाल वि० सं० १३३५ श्री लुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में आरासणवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० गोनासंतानीय श्रे० मामिग की पत्नी रत्नादेवी के तुलहारि, प्रासदेव नामक दो पुत्र थे।आमिग के भ्राता श्रेष्ठि पासड़ के पुत्र श्रीपाल तथा श्रे० आसदेव की स्त्री सहजूदेवी के पुत्र आसपाल ने भ्रा० धरणि भार्या श्रीमती तथा स्वस्त्री आसिणि और पुत्र लिंबदेव, हरिपाल तथा श्रे० धरणि की स्त्री श्रीमती के पुत्र ऊदा की स्त्री पाल्हणदेवी आदि कुटुम्बसहित संविज्ञविहारी श्री चक्रेश्वरसूरिसन्तानीय श्री जयसिंहमूरिशिष्य श्री सोमप्रभसरिशिष्य श्री वर्धमानसरि के द्वारा श्री मुनिसुव्रतस्वामीबिंब को अश्वावबोधशमलिकाविहारतीर्थोद्धारसहित वि० सं० १३३५ ज्येष्ठ शु० १४ शुक्रवार को प्रतिष्ठित करवाया ।३ वंश-वृक्ष गोनासन्तानीय श्रे० आमिग [रत्नावती] पासड़ तुलहारि भासदेव [सहजूदेवी] श्रीपाल आसपाल [आसिणि] धरणि [श्रीमती] ऊदा उदा [पान्हणदेवी] निवदेव लिंबदेव हरिपाल अ० प्रा० जै० ले० सं० मा० २ ले० ३२४, २५३।२६ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : तीर्थ एवं मन्दिरों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थ के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अर्बुदगिरितीर्थ :: [३०१ श्रेष्ठि पूपा और कोला वि० सं० १३७६ __श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में नंदिग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे०..... सिंह के पुत्र पूपा और कोला ने श्री पार्श्वनाथचिंच को वि० सं० १३७९ वैशाख के शुक्लपक्ष में प्रतिष्ठित करवाया ।१ श्रा० रूपी वि० सं० १५१५ श्री गुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय के गूढमण्डप में अर्बुदाचलस्थ श्री देलवाड़ाग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय व्य० झाँटा की स्त्री वन्ही की पुत्री रूपी नामा श्राविका ने, जो व्य. वाघा की स्त्री थी अपने भ्राता व्य० आल्हा, पाचा तथा व्य० आल्हा के पुत्र व्य० लाखा और लाखा की पत्नी देवी तथा देवी के पुत्र खीमराज, मोकल आदि पितृकुटुम्बसहित वि० सं० १५१५ माघ कृ. ८ गुरुवार को तपागच्छीय श्री सोमसुन्दरसूरि के शिष्य श्री मुनिसुन्दरसूरि के पट्टधर श्री जयचन्द्रसूरि के शिष्य श्रीमद् रत्नशेखरसूरि के द्वारा श्री राजिमती की बहुत ही भव्य, बड़ी और खड़ी प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया । श्रीमद् रत्नशेखरसूरि के संग में उनके परिवार के अन्य आचार्य श्रीमद् उदयनंदिसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि, श्री सोमदेवसूरि और श्रीमद् हेमदेवसरि आदि भी थे ।२ श्रेष्ठि ड्रङ्गर . वि० सं० १५२५ श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ चैत्यालय में वि० सं० १५२५ वैशाख शु. ६ को प्राग्वाटज्ञातीय शाह लीला की स्त्री घोघरी के पुत्र शाह डूंगर ने अपनी स्त्री देवलदेवी तथा पुत्र देठा आदि के सहित श्री सुविधिनाथ भगवान् की धातु की छोटी पंचतीर्थी-प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया, जिसकी प्रतिष्ठा जैनाचार्य श्रीसरि के द्वारा सीरोहड़ी नामक ग्राम में हुई थी।३ श्रेष्ठि चांडसी श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० चांडसी ने भगवान् नेमिनाथ की सपरिकर बड़ी प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई ।४ महं० वस्तराज श्री लूणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में प्राग्वाटज्ञातीय मं० सिरपाल की स्त्री संसारदेवी के पुत्र महं० वस्तराज ने अपनी माता के श्रेय के लिये श्री पार्श्वनाथविंव को प्रतिष्ठित करवाया ।५ श्रेष्ठि पोपा श्री लुणवसतिकाख्य श्री नेमिनाथ-चैत्यालय की आठवीं देवकुलिका प्राग्वाटज्ञातीय व्य० पोपा ने अपने श्रेय के लिये अपने पुत्र लापा के सहित प्रतिष्ठित करवाई ।६ अ० प्रा० ० ले०सं०भा० २ ले० ३७६,२५५।२५७,३४०६।२७८,३७८ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय श्री अर्बुदगिरितीर्थस्थ श्री भीमसिंहवसहिकाख्य श्री पित्तलहर-आदिनाथ-जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रीअर्बुदाचलस्थ श्रीभीमसिंहवसहिकाख्य श्री पित्तलहर-आदिनाथ-जिनालय को वि० सं० १५२५ फाल्गुण शु० ७ शनिश्चर रोहणी नक्षत्र में देवड़ा राजधर सायर श्री डूंगरसिंह के विजयीराज्य में गूर्जरज्ञातीय शाह भीमसिंह ने बनवाया था। इस मन्दिर में प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं द्वारा पूर्व प्रतिष्ठित बिंब निम्नवत् विद्यमान हैं। श्रेष्ठि देपाल वि० सं० १४२० गूढमण्डप में श्रीआदिनाथ भ० की छोटी एकतीर्थी-धातु-प्रतिमा विराजित है। इस बिंब को वि० सं० १४२० वैशाख शु० १० शुक्रवार को प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लींबा की स्त्री देवलदेवी के पुत्र देपाल ने अपने माता, पिता और भ्राता के श्रेय के लिये पिप्पलीय श्रीवीरदेवसूरि के द्वारा प्रतिष्ठित करवाया था ।१ श्रा० रूपादेवी वि० सं० १४२३ गृढमण्डप में श्रीसुमतिनाथ भ० की छोटी एकतीर्थी-धातु-प्रतिमा विराजित है। इस बिंब को वि० सं० १४२३ मार्गशिर कृ. ८ बुधवार को प्राग्वाटज्ञातीय थिरपाल की पत्नी सल्हणदेवी की पुत्री रूपादेवी ने अपने प्रात्मकल्याण के लिये श्री गूदा० (गुंदोचीया ?) श्री रत्नप्रभसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित करवाया था ।२ . श्रेष्ठि कालू वि० सं० १४३६ गूढमण्डप में श्री पद्मप्रभ भ. की छोटी एकतीर्थी-धातु-प्रतिमा विराजित है। इस बिंब को वि० सं० १४३६ पौष कृ. ६ रविवार को प्राग्वाटज्ञातीय व्यापारी सोहड़ के पुत्र जाणा की पत्नी अनुपमादेवी के पुत्र कालू ने अपने समस्त पूर्वजों के श्रेय के लिये साधुपूर्णिमागच्छीय श्री धर्मतिलकसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठित करवाया था । श्रेष्ठि सिंहा और रत्ना वि० सं० १५२५ राजमान्य मंत्री सुन्दर और गदा ने वि० सं० १५२५ फाल्गुण शु० ७ शनिश्चर को १०८ मण प्रमाण धातु की प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव की सपरिकर दो नवीन प्रतिमायें पाटण, अहमदाबाद, खंभात, ईडर आदि अनेक ग्राम, नगरों के संघों के साथ में श्रीचतुर्विधसंघ निकाल कर श्री अर्बुदाचलतीर्थ के श्री भीमवसहिकाख्य श्री पिसलहर-आदिनाथ-जिनालय के गूढमण्डप में तपागच्छीय श्री लक्ष्मीसागरसूरि के कर-कमलों से महामहोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठित करवाई थी। श्री भीमवसतिका का निर्माण वि० सं०१५२५ में हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि उपरोक्त तीनों बिंबों की स्थापन किसी संवत् में पीछे से की गई है। अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले०४२४.१ ४२३, ४२५३ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बुदगिरिस्थ पित्तलहरवसहि (भीमवसहि): जैनबंधुओं के अद्भुत प्रभुप्रेम को प्रकट सिद्ध करनेवाली भगवान् आदिनाथ को मण १०८ (प्राचीन तोल) को पंचधातुमयी पित्तलप्रतिमा। देखिये पृ० ३०२ पर। (प्राग्वाट-इतिहास के उद्देश्य के बाहर है; परन्तु पाठकों की भक्ति एवं शिल्पपरायणा अभिरुचि को दृष्टि में रख कर यह प्रतिमाचित्र दिया गया है।) Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बुदगिरिस्थ श्री खरतरवसहि :- अद्भुत भावनाट्यपूर्णा पांच नृत्यपरायणा वराङ्गनाओं के शिल्पचित्र। (प्राग्वाट-इतिहास के उद्देश्य के बाहर है; परन्तु पाठकों की शिल्पपरायणा अभिरुचि को दृष्टि में रख कर शिल्प के ये उत्तम चित्र दिये गये हैं।) Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अर्बुदगिरितीर्थ :: [३०३ सौरोड़ीग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय व्य० पोदा के पुत्र मण्डन की स्त्री वजूदेवी के तीन पुत्र सजन, सिंहा, और रत्ना थे । सजन के फाँफू और वयजूदेवी नामा दो स्त्रियाँ थीं और दूदा नामा पुत्री थी। सिंहा की पत्नी अर्च के गांगा, चांदा और टीन्हा नामक तीन पुत्र थे। रत्ना की स्त्री राजलदेवी के भी सन्तान हुई थी। उसी दिन उपरोक्त समस्त कुटुम्बीजनादि मोटा परिवार युक्त व्य० सिंहा और रत्ना ने श्री तपागच्छीय सोमदेवसूरिजी के उपदेश से पंचतीर्थीमयपरिकरयुक्त श्वेत संगमरमरप्रस्तर का श्री आदिनाथ भ० का मोटा और मनोहर बिंब करवाया, जिसको तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरिजी के पट्टधर श्री मुनिसुन्दरसूरिजी के पट्टधर श्री जयचन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री रत्नशेखरसूरिजी के पट्टधर श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजी ने श्री सुधानन्दसूरि, श्री सोमजयसूरि, महोपाध्याय श्रीजिनसोमगणि प्रमुख परिवार से युक्त प्रतिष्ठित किया ।१ श्रेष्ठि सूदा और मदा वि० सं० १५३१ मालवदेशीय जवासियाग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय जिनेश्वरदेव के परमभक्त ज्ञातिशृङ्गार शाह सरवण की पत्नी पद्मादेवी के मुंभच, सूदा, मदा और हांसा नामक चार पुत्र थे । ज्ये० पुत्र भूभच की पदू नामा स्त्री थी। द्वितीय पुत्र शाह सूदा की रमादेवी नामा धर्मपत्नी थी और उसके ताना, सहजा और पाल्हा नामक तीन पुत्र थे । तृतीय पुत्र मदा के नाई और जइतूदेवी नामा दो स्त्रियाँ थीं। चतुर्थ पुत्र हंसराज की धर्मपत्नी हंसादेवी नामा थी। श्री अर्बुदाचलस्थ भीमसिंहवसतिकाख्य श्री पित्तलहर-श्रादिनाथ-जिनालय के नवचतुष्क के बांयी पक्ष पर वि० सं० १५३१ ज्ये० शु० ३ गुरुवार को शाह सूदा और मदा ने अपने उपरोक्त समस्त कुटुम्ब सहित अपनी माता श्राविका पचीदेवी (पद्मादेवी) के श्रेय के लिये आलयस्था देवकुलिका करवाई और उसमें तपागच्छनायक श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के कर-कमलों से श्री सुमतिनाथ भ० की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाई ।२ वंशवृक्ष शाह सरवण [पद्मादेवी] मुंमच (पदेवी] . बहा रमादेवी] मदा [१ नाई २ जइत्] हांसा [हांच] । ताना सहजा पान्हा सं० भड़ा और मेला वि० सं० १५३१ उपरोक्त मन्दिर के नव चतुष्क के दायें पक्ष पर उपरोक्त दिवस पर ही मालवदेशीय सीणराग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय शाह गुणपाल की पत्नी रांऊ के संघवी लींबा, सं.भड़ा और सं. मेला नामक तीन पुत्र रत्नों में से सं.भड़ा और मेला अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले० ४१८, ४१६ । ४२८ । ४२६। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] प्राग्वाट-इतिहास:: [तृतीय ने सं० लींबा की स्त्री लीलादेवी, उसके ज्ये० पुत्र बडुश्रा और बडुआ की स्त्री जशदेवी, द्वितीय पुत्र कडुआ और उसकी स्त्री देक; संघवी भड़ा और उसकी पत्नी वीरिणी और जीविणी, जीविणी के पुत्र उदयसिंह और उसकी स्त्री चन्द्रावलीदेवी और चन्द्रावलीदेवी के पुत्र रत्ना तथा तृतीय भ्राता मेला और मेला की प्र० स्त्री ऑतिदेवी और द्वि० स्त्री वारु और वारु के पुत्र पाहरु आदि परिजनों के सहित पुष्कल द्रव्य व्यय करके आलयस्था देवकुलिका बनवा कर, उसमें तपागच्छीय श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के कर-कमलों से श्री सुमतिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया। वंशवृक्ष सीसराग्रामवासी शाह गुणपाल [रांऊ] सं० लींबा [लीलादेवी] सं० भड़ा [१ वीरिणी २ जीविणी] सं० मेला [१ शांतिदेवी २ वारूदेवी] उदयसिंह [चन्द्रावलीदेवी] वडा [जशदेवी] कडुवा [देक] रत्ना घाहरू श्री आरासणपुरतीर्थ अपरनाम श्री कुम्भारियातीर्थ और दंडनायक विमलशाह तथा प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि-कार्य पारासणपुर का वर्तमान नाम कुम्भारिया है । यह अभी केवल ८-१० घरों का ग्राम है और दाता-भगवानगढ़ (स्टेट) के अन्तर्गत है। यहाँ आरासण नामक प्रस्तर की खान थी; अतः यह आरासणाकर अथवा आरासणपुर कहलाता था। वहाँ अनेक जैनमन्दिर बने हुये थे; अतः यह आरासणतीर्थ के नाम से विख्यात रहा है । अर्बुदपर्वतों में जो प्रसिद्ध अम्बिकादेवी का स्थान है, वहाँ से लगभग १॥ मील के अन्तर पर यह तीर्थ है । विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के पूर्व तक तो अम्बावजीतीर्थ और कुम्भारियातीर्थ के जैनमन्दिरों की गणना एक ही आरासणपुर नगर में ही होती थी, परन्तु खिलजी सम्राट् अल्लाउद्दीन के सेनापति उगलखखां और नसरतखां ने वि० सं० १३५४ में जब गूर्जर-सम्राट् कर्ण पर आक्रमण किया था, वे चन्द्रावती राज्य में होकर अणहिलपुरपत्तन की ओर बढ़े थे। चन्द्रावती उन दिनों भारत की अति समृद्ध एवं वैभवपूर्ण नगरियों में थी और अति प्रसिद्ध जैन श्रीमंत चन्द्रावती में ही बसते थे। यवन-सेनापतियों ने चन्द्रावती को नष्ट-भ्रष्ट किया और चन्द्रावतीराज्य के समस्त शोभित एवं समृद्ध स्थानों को उजाड़ा। इसी समय आरासणपुरतीर्थ भी उनके निष्ठुर प्रहारों का लक्ष्य बना । पारासणपुर उजड़ गया और फिर नहीं बस पाया । इस प्रकार अम्बावजीतीर्थ और कुम्भारियाग्राम के बीच फिर आवादी नहीं बढ़ने के कारण अलगाव पड़ गया, वस्तुतः दोनों तीर्थ एक ही आरासणपुर के अन्तर्गत रहे हैं। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: तीर्थ एवं मन्दिर में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री कुम्भारियातीर्थ :: [ ३०५ गूर्जर-महाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह ने जब चन्द्रावती के राज्य को जीता था, उसको पुष्कल द्रव्य प्राप्त हुआ था । इतना ही नहीं आरासणपुर के निकट के पर्वतों में सुवर्ण की अनेक खानें भी थीं । उसने उन खानों से प्रचुर मात्रा में सुवर्ण निकलवाया और अनेक धर्मस्थानों में उसका व्यय किया । ऐसा कहा जाता है कि विमलशाह ने आरासणपुरतीर्थ में ३६० तीन सौ साठ जिनमन्दिर बनवाये थे। खैर इतने नहीं भी बने हों, परन्तु यह तो निश्चित है कि आरासणपुर के जैनमंदिरों के निर्माण के समय दण्डनायक विमलशाह विद्यमान था। आरासणपुर अर्थात् कुम्भारियातीर्थ के वर्तमान जैनमन्दिर जो संख्या में पाँच हैं, कोराई और कारीगरी में अबंदाचलस्थ विमलवसतिकाख्य श्री आदिनाथ-जिनालय की बनावट से बहुत अंशों में मिलते हैं । स्तम्भों की बनावट, गुम्बजों की रचना, छत्त में की गई कलाकृतियाँ, पट्टों एवं शिलापट्टियों पर उत्कीर्णित चित्र दोनों स्थानों के अधिकतर आकार-प्रकार एवं वास्तु-दृष्टि से मिलते-से हैं । कुम्भारियातीर्थ के मन्दिरों में विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के कई एक लेख भी हैं। इन कारणों से अधिक यही सम्भावित होता है कि इनका निर्माता सम्भवतः दण्डनायक विमलशाह ही है। इतना अवश्य है कि कुम्भारियातीर्थ के मन्दिरों का निर्माण और उनकी प्रतिष्ठा सम्भवतः विमलवसति के निर्माण और उसकी प्रतिष्ठा के पश्चात् हुई है। ___ इस समय कुम्भारिया में १ श्री नेमिनाथ-जिनालय, २ श्री पार्श्वनाथ-जिनालय, ३ श्री महावीर-जिनालय, ४ श्री शान्तिनाथ-जिनालय और ५ श्री सम्भवनाथ-जिनालय है । प्रथम चार जिनालय तो अति विशाल और चौवीस देवकुलिकायुक्त हैं और कलादृष्टि से विमलवसति और लुणवसति से किसी भी प्रकार कम नहीं हैं । पाँचवा जिनालय छोटा है । पांचों जिनालय उत्तराभिमुख हैं । प्रा० ० ले० सं० भा०२ का अनुवादविभाग पृ०१६५ से १८४ श्री कुम्भारियाजी उर्फे पारासण (जयंतविजयजीलिखित) ता०२१-६-५१ को मैंने श्रीकुम्भारियाजीतीर्थ की यात्रा की थी और वहाँ के कतिपय लेखों को शब्दान्तरित किया था। उनके आधार पर उक्त वर्णन दिया गया है। (अ) श्री महावीरजिनालय के मूना० प्रतिमा के शासनपट्ट का लेख 'ॐ ॥ संवत् १११८.फाल्गुन सुदी : सोमे । आरासणाभिधाने स्थाने तीर्थाधिपस्य प्रतिमा कारिता' ०प्र० ० ले० सं० ले०३ (ब) श्री शांतिनाथ-जिनालय के एक प्रतिमा का लेख ॐ।। संवत् ११३८ धोग (?) वल्लभदेवीसुतेन वीरकश्रावकेन श्रेयांसजिनप्रतिमा कारिता श्र० प्र० ० ले० सं० ले०४ (स) श्री पार्श्वनाथ-जिनालय की एक प्रतिमा के पासनपट्ट का लेख, ॥ संवत् ११६१ थिरापद्रीयगच्छे श्री शीतलनाथबिंबं (कारित) । (द) श्री नेमिनाथजिनालय की एक प्रतिमा का लेख ___'संवत् ११६१ वर्षे......... जबकि अर्बुदाचलस्थ विमलवसति की प्रतिष्ठा वि० सं०१०८८ में हुई है और उसमें भारासणपुर की खान का प्रस्तर लगा है। अतः यह बहुत संभवित है कि श्रारासणपुर के जैनमंदिरों में विमलशाह के ही अधिकतम बनवाये हुये मंदिर हों, क्योंकि वह अनन्त धनी और प्रभुप्रतिमा का अनन्य भक्त था । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: प्राग्वाटज्ञातीयवंशावतंस चैत्यनिर्माता श्रे० बाहड़ और उसका वंश वि० शताब्दी तेरहवीं और चौदहवीं श्रेष्ठ बाहड़ के पुत्र ब्रह्मदेव और शरणदेव विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में प्रा० ज्ञा० ० बाहड़ एक अति प्रसिद्ध एवं धार्मिकवृत्ति का सद्पुरुष हो गया है। उसने श्रीमद् जिनभद्रसूरि के सदुपदेश से पादपरा (संभवतः बड़ोदा के पास में आया हुआ पादराग्राम ) ग्राम में उदेवसहिका (९) नामक श्री महावीरस्वामी का मन्दिर बनवाया । ० बाहड़ के ब्रह्मदेव और शरणदेव नामक दो पुत्र थे । श्रे० ब्रह्मदेव ने वि० सं० १२७५ में श्री आरासणाकर में श्री नेमिनाथचैत्यालय में दादाधर बनवाया । श्र० शरणदेव का विवाह सूहवदेवी नामा परम गुणवती कन्या के साथ हुआ था। सूहवदेवी की कुक्षी से वीरचन्द्र, पासड़, आंबड़ और रावण नामक चार पुत्र हुये थे । इन्होंने श्रीमद् परमानन्दसूरि के सदुपदेश से सं० १३१० में एक सौ सित्तर जिनबिंबवाला जिनशिलापट्ट (सप्ततिशततीर्थजिनपट्ट) प्रतिष्ठित करवाया । वि० सं० १३३८ में इन्होंने इन्हीं आचार्य के सदुपदेश से श्रे० वीरचंद्र की स्त्री सुखमिणी और उसका पुत्र पूना और पूना की स्त्री सोहग तथा सोहगदेवी के पुत्र लूणा और झांझण; श्र े० बड़ की स्त्री अभयश्री और उसके पुत्र बीजा और खेता; रावण की स्त्री हीरादेवी और उसके पुत्र बोड़सिंह और उसकी प्रथम स्त्री कमलादेवी के पुत्र कडुआ और उसकी द्वितीया स्त्री जयतलदेवी के पुत्र देवपाल, कुमारपाल, अरिसिंह और पुत्री नागउरदेवी श्रादि कुटुम्बीजनों के सहित श्री नेमिनाथचैत्यालय में श्री वासुपूज्य देवकुलिका को प्रतिष्ठित करवायी तथा वि० सं० १३४५ में इन्होंने सम्मेतशिखरतीर्थ में मुख्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई और मोटे २ तीर्थों की यात्रा करके अपने जन्म को इस प्रकार अनेक धर्म के सुकृत्य करके सफल किया । ये आज भी पोसीना नामक ग्राम में जो कुम्भारिया से थोड़े ही अन्तर पर रोहिड़ा के पास में है श्री संघ द्वारा पूजे जाते हैं । 1 वंश-वृक्ष बाहड़ वीरचन्द्र [सुखमिणी] पूना [सोहगदेवी ] ब्रह्मदेव I पासड़ बीजा [ तृतीय शरणदेव [सुहवदेवी] बड़ [अभयश्री ] रावण [हीरादेवी ] I | बोड़सिंह [ १ कमला २जयतलदेवी] खेता कडुआ लूणा झांझण देवपाल कुमारपाल अरिसिंह नागउरदेवी जै० ले ० सं ० मा० २ ले० १७६५ । प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० २७६, २६० । अ०प्र०जे० ले ० सं ० ले० ३०, ३२. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० झा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य--श्री कुम्भारियातीर्थ :: [३०७ श्री नेमिनाथ चैत्यालय में श्रेष्ठि आसपाल वि० सं० १३१० वि० सम्वत् १३१० वैशाख कृ. ५ गुरुवार को प्रा०ज्ञा० श्रे० बील्हण और माता रूपिणीदेवी के श्रेयार्थ पुत्र आसपाल ने सिद्धपाल, पद्मसिंह के सहित आरासणनगर में श्री अरिष्टनेमिजिनालय के मण्डप में श्री चन्द्रगच्छीय श्री परमानन्दसरि के शिष्य श्रीरत्नप्रभसूरि के सदुपदेश से एक स्तंभ की रचना करवाई ।१ श्रेष्ठि वीरभद्र के पुत्र-पौत्र वि० सं० १३१४ वि० सं० १३१४ ज्येष्ठ शु. २ सोमवार को आरासणपुर में विनिर्मित श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में बृहद्ग़च्छीय श्री शान्तिमूरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि श्रीहरिभद्रसूरि के शिष्य श्रीपरमानन्दसूरि के द्वारा प्रा०ज्ञा० श्राविका रूपिणी के पुत्र वीरभद्र स्त्री विहिदेवी, सुविदा स्त्री सहजू के पुत्र-पौत्रों ने रत्नीणी, सुपद्मिनी, भ्रा. श्रे. चांदा स्त्री प्रासमती के पुत्र अमृतसिंह स्त्री राजल और लघुभ्राता आदि परिजनों के श्रेयार्थ श्री अजितनाथ-कायोत्सर्गस्थदो प्रतिमा करवाई। श्रेष्ठि अजयसिंह वि० सं० १३३५ वि० सम्वत् १३३५ माघ शु. १३ शुक्रवार को प्राज्ञा. श्रे. सोमा की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र श्रे. अजयसिंह ने अपने पिता, माता, भ्राता और अपने स्वकल्याण के लिये भ्राता छाड़ा और सोढ़ा तथा कुल की स्त्रियाँ वस्तिणी, राजुल, छाबू, धांधलदेवी, सुहड़ादेवी और उनके पुत्र वरदेव, झांझण, आसा, कडुआ, गुणपाल, पेथा आदि समस्त कुटुम्बीजनों के सहित बृहद्गच्छीय श्री हरिभद्रसूरि के शिष्य श्री परमानन्दसूरि के द्वारा नेमिनाथजिनालय में देवकुलिका विनिर्मित करवाकर उसमें श्री अजितनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया ।३ श्रेष्ठि आसपाल वि० सं० १३३८ आरासणाकरवासी प्राज्ञा० श्रे० गोना के वंश में श्रे० आमिग हुआ। आमिग की स्त्री रत्नदेवी थी । रत्नदेवी* के तुलाहारि और आसदेव दो पुत्र थे । आमिग के भ्राता पासड़ का पुत्र श्रीपाल था। आसदेव की स्त्री का नाम सहजूदेवी था । श्रे० प्रासदेव के आसपाल और धरणिग दो पुत्र थे। श्रे० आसपाल ने स्वस्त्री आशिणी, स्वपुत्र लिंबदेव, हरिपाल तथा भ्राता धरणिग के कुटुम्ब के सहित श्री मुनिसुव्रतस्वामीबिंब अश्वावबोधशमलिकाविहारतीर्थोद्धारसहित करवाकर वि० सम्वत् १३३८ ज्येष्ठ शु. १४ शुक्रवार को श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में संविज्ञविहारि श्री चक्रेश्वरसूरिसंतानीय श्री जयसिंहमूरि के शिष्य श्री सोमप्रभसूरि के शिष्य श्री वर्द्धमानसूरि के द्वारा प्रतिष्ठित करवाया। इस आसपाल ने अपने और अपने भ्राता के समस्त कुटुम्ब के सहित श्री अवुदगिरितीर्थस्थ अ०प्र० ० ले.सं० ले०'२४,२६१२८ *०प्र० ० ले०सं०ले०३१और अप्रा० ० ले०सं०भा०२ ले०२६७ में वर्णित वंश एक ही है। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय श्री लूणसिंहवसति की एक कुलिका में वि० सं० १३३५ ज्ये० शु० १४ शुक्र को श्री मुनिसुव्रतस्वामीबिंब को भी आश्वावबोधशमलिकाविहारतीर्थोद्धारसहित इन्हीं आचार्य के द्वारा प्रतिष्ठित करवाया था, जिसका उल्लेख पूर्व हो चुका है। श्रेष्ठि कुलचन्द्र नंदिग्राम के रहने वाले प्रा० ज्ञा० महं० वरदेव के संभवतः पौत्र दुल्हेवी के पुत्र श्रारासणाकर नगर में रहने वाले श्रे० कुलचन्द्र ने स्वभ्राता रावण और उसके पुत्र पासल और पोहड़ी, भ्रातृजाया पुनादेवी के पुत्र वीरा और पाहड़, पाहड़ के पुत्र जसदेव, सुल्हण, पासु और पासु के पुत्र पारस, पासदेव, शोभनदेव, जगदेव आदि तथा वीरा के पुत्र काहड़ और आम्रदेव आदि अपने गोत्र और कुटुम्ब के जनों के संतोष के निमित्त तथा ग्राम के कल्याण के लिये श्री नेमिनाथ-चैत्यालय में श्रीसुपार्श्वनाथ भ० का बिंब भरवा कर प्रतिष्ठित करवाया ।१ श्री जीरापल्लीतीर्थ-पार्श्वनाथ-जिनालय में प्राग्वाटान्वयमण्डन श्रे० खेतसिंह और उसका यशस्वी परिवार वि० सं० १४८१ राजस्थानान्तर्गत सिरोही-राज्य में जीरापल्लीतीर्थ एक अति प्रसिद्ध जैनतीर्थ है । इस तीर्थ की विक्रम की पन्द्रहवीं, सौलहवीं शताब्दी में बड़ी ही जाहोजलाली रही है। तीर्थ का विश्रुत नाम श्री जीरावला-पार्श्वनाथबावनजिनालय है। __विशलनगरवासी प्राग्वाटवंश को सुशोभित करने वाले श्रे० खेतसिंह के पुत्र श्रे० देहलसिंह के पुत्र श्रे० खोखा की भार्या पिंगलदेवी और उसके पत्र सं० सादा.सं० हादा. सं० मादा, सं० लाखा, सं० सिधा ने इस तीर्थे के बावनजिनालय में तीन देवकुलिकायें क्रमशः २, ३, ४ बनवाई और सं० १४८१ वै० शु० ३ के दिन बृहत्तपापक्षीय भट्टारक श्री रत्नाकरसूरि के अनुक्रम से हुये श्री अभयसिंहसूरि के पट्टारूढ़ श्री जयतिलकसूरीश्वर के पाट को अलंकृत करने वाले भट्टारक श्री रत्नसिंहसरि के सदुपदेश से महामहोत्सव पूर्वक उनकी प्रतिष्ठिा करवाई ।२ १-१० प्र० ० ले० सं० ले०४१ २-जै० प्र० ले० सं०ले०२७४, २७५, २७६. श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर एम० ए० बी० एस० द्वारा संग्रहीत 'जैन लेख-संग्रह' प्रथम भाग के लेखांक ६७७ से उक्त तीनों लेखांक बहुत अधिक मिलते हैं। श्री नाहरजी ने 'पिंगलदेवी' के स्थान पर 'पिनलदेवी, 'सं० मादा' के स्थान पर 'सं० मूदा' और 'देहल, 'हादा नहीं लिख कर स्पष्ट 'देवल' और 'दादा' लिखा है और सं० 'लाखा' का नाम भी नहीं है। अ० प्र० ० ले० सं० ले०१२६,१२७,१२८ में उक्त तीनों लेख प्रकाशित हैं। परन्तु उनमें 'देहल' के स्थान पर 'देदल,' 'पांगलदेवी के स्थान पर 'पीतलदेवी, सं० 'हादा' के स्थान पर 'हीदा,' 'मादा' के स्थान पर 'सुद्री' और 'सिधा के स्थान पर 'सिहा' लिखा है। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री राणकपुरतीर्थ :: [३०६ श्रे. जामद की पत्नी वि० सं० १४८७ सं० १४८७ पौ० शु० २ रविवार को अंचलगच्छीय श्रीमद् मेरुतुङ्गसूरि के पट्टधर गच्छनायक श्री जयकीर्तिसूरि के उपदेश से पुंगलनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० भाणा के पुत्र श्रे० जामद की पत्नी ने देवकुलिका विनिर्मित करवाकर प्रतिष्ठित करवाई ।१ श्रे० भीमराज, खीमचन्द्र वि० सं० १४८७ सं० १४८७ पौ० शु० २ रविवार को तपागच्छीय श्री देवसुन्दरसरि के पट्टधर श्री सोमसुन्दरसूरि श्रीमुनि सुन्दरमरि श्री जयचन्द्रसूरि श्री भुवनसुन्दरसूरि श्री जिनचन्द्रसूरि के उपदेश से पत्तनवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लाला के पुत्र श्रे० नत्थमल, मेघराजा के पुत्र भीमराज, खीमचन्द्र ने अपने कल्याणार्थ देवकुलिका विनिर्मित करवाकर प्रतिष्ठित करवाई ।२ श्री धरणविहार-राणकपुरतीर्थ-श्रीत्रैलोक्यप्रासाद-श्रीआदिनाथ-जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य सं० भीमा वि० सं० १५०७ संघवी चापा और संघवी साजण दो भाई थे। सं० चापा ने उक्त प्रासाद में नैऋत्यकोण में सशिरुर महाधर-देवकुलिका बनवाई थी । सं० साजण की भार्या श्रीदेवी का पुत्र सं० भीमा बड़ा यशस्वी हुआ है । सं० भीमा से सं. लक्ष्मण और सारंग दो बड़े भाई और थे । सं० भीमा के तीन स्त्रियाँ थीं-भीमिणी, नानलदेवी और पउमादेवी और यशवंत नामक पुत्र था । भीमा ने अपने काका द्वारा विनिर्मित नैऋत्यकोण की महाधर-देवकुलिका में श्री रत्नशेखरसूरि द्वारा वि० सं० १५०७ चैत्र कृ. ५ को निम्नवत् विबादि प्रतिष्ठित करवा कर स्थापित किये। १-पूर्वाभिमुख श्री महावीरबिंब का परिकर २-अपने चाचा चांपा के श्रेयार्थ उत्तराभिमुख श्री अजितनाथबिंब । इस प्रतिमा का परिकर भी वि० सं० १५११ आषाढ शु. २ को श्री रत्नशेखरसूरि के द्वारा ही प्रतिष्ठित करवाया गया था । १-२-जै० प्र० ले० सं० ले० २७७, २७८ *०प्र० ० ले०सं० के लेखांक १६० में 'भाड़ा' सत सा० 'झामट' लिखा है और १६१ में लेखांक २७८ भी:लिखित है। +मेघराज के एक पुत्र रत्नचन्द्र का होना उससे और पाया जाता है। सन् १९५० के जून के द्वितीय सप्ताह में मैं श्री राणकपुरतीर्थ का अवलोकन श्रीप्राग्वाट-इतिहास की रचना के सम्बन्ध में करने के लिये गया था तथा वहाँ ४ दिवस पर्यंत ठहर कर जो वहाँ के लेख शब्दान्तरित कर सका उनके आधार पर उक्त वर्णन है। -लेखक Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] : प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय ३-वायव्यकोण में विनिर्मित शिखरबद्ध महाधर-देवकुलिका में श्री सीमंधरस्वामीबिंब को स्वस्त्री उमादेवी, पुत्र यशवंत और भ्रातृगण तथा भ्रातृजों के सहित पूर्वाभिमुख प्रतिष्ठित करवाया। श्रेष्ठि रामा वि० सं० १५०१ वि० सं० १५०१ ज्ये० शु. १० को प्रा०ज्ञा० श्रे० करण के पुत्र रामा ने तपा० श्री मुनिसुन्दरसरि के करकमलों से श्री सुमतिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया। श्रेष्ठि पर्वत और सारंग वि० सं० १५११ वि० सं० १५११ मार्ग शु० ५ रविवार को देवकुलपाटकवासी प्रा०ज्ञा० सा० रामसिंह भार्या रत्नादेवी के पुत्र सा. जयसिंह भार्या मेघवती के पुत्र अमरसिंह भार्या श्रीदेवी के पुत्र पर्वत ने स्वस्त्री, पुत्री फली, भ्रात् सा० माला, रामदास और रामदास की पुत्री राणी आदि कुटुम्बियों के सहित तथा राणीदेवी के पुत्र खोगहड़ावासी सा० हीरा स्त्री पाल्हणदेवी के पुत्र सा. सारंग ने पुत्री श्री फली के श्रेयार्थ श्री धरणविहार-चतुर्मुखप्रासाद में पश्चिमप्रतोली के द्वार पर मुख्य देवकुलिका करवा कर उसकी प्रतिष्ठा तपा० श्री रत्नशेखरसरि के द्वारा करवाई। सं० कीता वि० सं० १५१६ वि० सं० १५१६ वैशाख कृ० १ को राणकपुरवासीप्रा०ज्ञा० सं० हीरा भार्या वामादेवी के पुत्र सं० कीता ने स्वस्त्री कल्याणदेवी, मटकुदेवी, भ्राता सं० राजा, नरसिंह तथा इनकी स्त्रियाँ गौरीदेवी, नायकदेवी, और पुत्र दूला आदि के सहित श्री मुनिसुव्रतप्रतिमा को श्री रत्नशेखरसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठित करवाकर स्वविनिर्मित देवकुलिका में स्थापित करवाई। सं० धर्मा वि० सं० १५३६ , वि० सं० १५३६ मार्ग शु० ५ शुक्रवार को राणकपुरवासी प्रा०ज्ञा० सं० खेता भार्या खेतलदेवी के पुत्र मण्डन मार्या हीरादेवी के पुत्र धर्मराज ने स्वभार्या सरलादेवी पुत्र माला और माला की स्त्री रणदेवी आदि कुटुम्बियों के सहित जिनबिंब को प्रतिष्ठित करवाया। श्रेष्ठि खेतसिंह और नायकसिंह वि० सं० १६४७ अहमदाबाद के निकट में उसमापुर में प्रा०ज्ञा० ० रायमल रहता था। वह जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसरि का भक्त था । वह अति धनाढ्य एवं प्रतिष्ठित पुरुष था। अं० रायमल के वरजदेवी और स्वरूपदेवी नामा दो वि० सं०१५१६, १५३६ के वर्णनों से सिद्ध है कि राणकपुर में जैनियों के घर उस समय तक बस गये थे। ०वि०दि. भा०१ पृ०५६ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अचलगढ़तीर्थ :: [३११ स्त्रियाँ थीं । वरजदेवी की कुक्षी से रत्नसिंह और नायकसिंह नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये और स्वरूपदेवी के खेतसिंह पुत्र उत्पन्न हुआ। वि० सं० १६४७ फाल्गुन शु० ५ गुरुवार को श्री तपागच्छाधिराज, सम्राट्झकवरदत्तजगद्गुरुविरुदधारक भट्टारक श्री विजयहीरसूरीश्वर के उपदेश से श्री धरणविहारप्रासाद में सुश्रावक सा० खेतसिंह, नायकसिंह ने ज्येष्ठ पुत्र यशवंतसिंह आदि कुटुम्बीजनों के सहित अड़तालीस (४८) स्वर्णमुद्रायें व्यय करके पूर्वाभिमुख द्वार की प्रतोली के ऊपर का भाग विनिर्मित करवाया। वि० सं० १६५१ वैशाख शु० १३ को उक्त प्राचार्य श्री के सदुपदेश से ही खेतसिंह और नायकसिंह ने अपने कुटुम्बीजनों के सहित पूर्वाभिमुख द्वार की प्रतोली से लगा हुआ अति विशाल, सुन्दर, एवं सुदृढ़ मेघमण्डप अपने कल्याणार्थ सूत्रधार समल, मांडप और शिवदत्त द्वारा विनिर्मित करवाया। - वि० सं० १६५१ ज्येष्ठ शु० १० शनिश्चर को तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से रत्नसिंह और नायकसिंह ने अपने भ्राता सा० खेतसिंह आदि तथा भावज सा० वरमा आदि कुटुम्बियों के सहित श्री महावीरबिंब को श्री महावीरदेवकुलिका का निर्माण करवा कर उसमें प्रतिष्ठित करवाया। श्री अचलगढ़स्थ जिनालयों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्री चतुर्मुख-आदिनाथ-जिनालय में श्रेष्ठि दोसी गोविन्द वि० सं० १५१८ प्राग्वाटज्ञातीय दोसी दूंगर की स्त्री धापुरी के कर्मा, करणा और गोविन्द तीन पुत्र थे । संभवतः श्रे० डूंगर कुम्भलमेर का रहने वाला था। वि० सं० १५१८ वैशाख कृ. ४ शनिश्चर को कुंभलमेरदुर्ग में तपागच्छीय श्री रत्नशेखरसूरि के पट्टधर श्री लक्ष्मीसागरसूरि के द्वारा धातुमय श्री नेमिनाथबिंब की प्रतिष्ठा ज्येष्ठ भ्राता कर्मा की स्त्री करणुदेवी के पुत्र आशा, अखा, अदा तथा द्वि० ज्येष्ठ भ्राता करणा की स्त्री कउतिगदेवी के पुत्र सीधर (श्रीधर) तथा स्वभार्या जयतूदेवी और स्वपुत्र वाछा आदि कुटुम्बीजनों के सहित माता तथा भ्राताओं के श्रेयार्थ कुंभलगढ़ के जिनालय में स्थापित करवाने के अर्थ से करवाई। यह मूर्ति चतुर्मुखप्रासाद के सभामण्डप के दांयी ओर की देवकुलिका में मूलनायक के स्थान पर विराजमान है। श्रेष्ठि वणवीर के पुत्र वि० सं० १६६८ विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में सिरोही (राजस्थान) में प्राग्वाटजातीय वृद्धशाखीय शाह गांगा रहता था। उस समय सिरोही के राजा श्री अक्षयराज थे और उनके श्री उदयभाण नाम के महाराजकुमार थे। शाह अ० प्रा० जै० सं०भा०२ ले०४७५ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय गांगा का परिवार सम्राट् अकबर द्वारा संमानित जगविख्यात तपागच्छेश श्रीमद् हीरविजयसूरिजी के भक्तों में अग्रगण्य था । श्रे० गांगा के मनरंगदेवी नामा धर्मपत्नी थी । मनरंगदेवी के वणवीर नामक पुत्र हुआ । वणवीर की स्त्री का नाम पसादेवी था । पसादेवी के चार पुत्र हुयेये - सा० राउत, लक्ष्मण, कर्मचन्द्र और दुहिचन्द्र । वणवीर के इन चारों पुत्रों ने श्री अचलगढ़तीर्थ की सपरिवार यात्रा की और वहाँ श्री चतुर्मुखविहाराख्य श्री ऋषभदेवजिनालय में वि० सं० १६६८ पौष शु० १५ गुरुवार को श्रीतपागच्छीय भ० श्री हीरविजयसूरि त० भ० श्रीविजयसेनसूरि त० श्री विजयतिलकसूरि भ० श्री विजयाणंदसूरि के कर-कमलों से पं० श्रीमान्विजयगणि शिष्य उ० श्री मृतविजयगणि के सहित पांच जिनेश्वर बिंबों को प्रतिष्ठित करवाये । श्रे० राउत के साहिबदेवी और नापूग नामा दो स्त्रियाँ थीं। इसके धर्मराज, हांसराज और धनराज नामक तीन पुत्र थे । ० राउत ने अपने भ्राता लक्ष्मण, कर्मचन्द्र और दुहिचन्द्र के साथ श्री पार्श्वनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया और इसके तृतीय पुत्र सा० धनराज के पुत्र ने श्री कुंथुनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया । थे श्रे० लक्ष्मण की स्त्री का नाम लक्ष्मीदेवी था । लक्ष्मीदेवी के भीमराज और हरिचन्द्र नामक दो पुत्र श्रे० लक्ष्मण ने अपने आता राउत, कर्मचन्द्र और दुहिचन्द्र के साथ में शांतिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया तथा इसके द्वि० पुत्र हरिचन्द्र की स्त्री ने श्री आदिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया । श्रे० कर्मचन्द्र की स्त्री का नाम अजबदेवी था । अजबदेवी ने श्री नेमिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया |* गांगा [मनरंगदेवी] वणवीर [पसादेवी] ३१२ धर्मराज 1 राउत [साहिबदेवी, नागदेवी ] लक्ष्मण [ लक्ष्मीदेवी ] कर्मचन्द्र [अजबदेवी] भीमराज हरिचन्द्र हांसराज धनराज श्री कुंथुनाथ जिनालय में I दुहिचन्द्र सं० देव के पुत्र-पौत्र वि० सं० १५२७ यह कुंथुनाथ जिनालय श्री अचलगढ़तीर्थ की जैन - पीढ़ी के कार्यालय के पश्चिम में उससे जुड़ती जैनधर्मशाला के ऊपर की मंजिल के दक्षिण पक्ष पर बना है। मंदिर छोटा है, परन्तु चतुर्मुखादिनाथजिनालय से प्राचीन है । ** श्र० प्रा० जे० ले० सं० भा० २ ले० ४७७-७८- ७६-८० Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अचलगढ़तीर्थ:: [३१३ वि० सं० १५२७ वैशाख शु० ८ को प्राग्वाटज्ञातीय संघवी देव की स्त्री नागूदेवी के पुत्र संघवी सिंहा और उसकी स्त्री साहीया, शा० कर्मा और उसकी स्त्री धर्मिणी; उनमें से शा० कर्मा के पुत्र शा० सपदा की स्त्री जिसदेवी की कुक्षि से उत्पन्न पुत्र संघवी खेता और उसकी स्त्री खेतलदेवी; संघवी गोविंद और उसकी स्त्री १ गोगादेवी २ सुहवदेवी, उनमें से संघवी .गोविंद का पुत्र शा० सचवीर और उसकी स्त्रियाँ १ पद्मादेवी २ प्रीमलादेवी आदि कुटुम्बीजनों ने श्री कुंथुनाथ भगवान् की धातुमय सुन्दर प्रतिमा भरवाकर श्री तपागच्छाधिपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित करवाकर उसको शुभ मुहू त में यहाँ स्थापित करवाई। उक्त मूलनायक प्रतिमा का बनाने वाला महेसाणावासी सूत्रधार मिस्त्री देव भार्या करमी के पुत्र मिस्त्री हाजा और काला थे। निम्न धातुप्रतिमाओं के प्रतिष्ठापक प्रा. ज्ञा० श्रेष्ठि और उनका यथाप्राप्त परिचय:प्र. विक्रम संवत् प्र. प्रतिमा प्र. आचार्य प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठि १-१५२० प्रा० शु० २ श्री मुनि- त० लक्ष्मीसागर- चूरावासी प्रा० ज्ञा० व्य० सादा भा० रूपी के पुत्र सुव्रत सूरि काजा ने अपनी स्त्री रूपिणी और पुत्र शोभा, देभा, विक्रमादि के सहित. २-१२६३ फा० कृ. ५ चौवीशी लेऊअगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० रावदेव के पुत्र मं० देवचन्द्र ने स्त्री सोमवार __श्री आम्रदेवसूरि अयहव के तथा अपने श्रेयार्थ. ३-१३६८ आदिनांथ श्री आनंदमूरि- प्रा०ज्ञा० श्रे० आसराज की स्त्री पाईण के पुत्र अभय, पट्टधर श्री हेमप्रभसूरि वीक्रम, गोहण और तेजादि ने पितुश्रेयार्थ. ४-१३७४ ज्ये० शु०१० चौवोशी श्री सूरि ठ० भमरपाल के पुत्र ठ० अभयसिंह के श्रेयार्थ पुत्र बुधवार आमा ने.. ५-१३७५ माघ कृ० ११ आदिनाथ भावदेवसरि प्रा० श्रे० सोना ने पिता वीरपाल, माता मूघी के श्रेयार्थ ६-१३७६ माघ कृ० १२ महावीर जिनसिंहसूरि प्रा०श्रे० काला भार्या कपूरदेवी, धना भार्या बलालदेवी बुधवार ने अपने पिता जशचन्द्र, माता नायकदेवी के श्रेयार्थ. ७-१३७६ वै० कृ. १० शांतिनाथ अभयचन्द्रसरि प्रा० ज्ञा. श्रे. जगपाल भार्या लक्षादेवी के पुत्र सोमवार मेघराज ने. ८-१३७६ ज्ये० शु० ८ आदिनाथ- पासदेवमूरि प्रा०ज्ञा० श्रे० जगपाल भार्या सलूजलदेवी के पुत्र ने शनिश्चर पंचतीर्थी पिता-माता के श्रेयार्थ. ६-१३८२ वै० कु. ८ पार्श्वनाथ पद्मचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० धनपाल भार्या धांधलदेवी की पुत्रगुरुवार वधू चाहिणदेवी ने अपने पति चाचा के श्रेयार्थ. १०-१३८६ फा० शु०८ शांतिनाथ मड़ा. रत्नसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० देपाल ने अपने पिता पूनसिंह, माता सोमवार सूरि नयणदेवी के श्रेयार्थ. अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० ४६१। अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले० (१)५०३, (२)५२२, (३)५४०, (४)५४५, (५)५४६. (६)५४७, (७)५४८, (८)५४६, (E)५५२, (१०)५५८, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] प्र. विक्रम संवत् ११-१४०० वै० शु० ३ बुधवार १२ - १४०४ वै० शु० १२ १३-१४०६ ज्ये० कृ० ६ रविवार १४- १४१४ वै० शु० १० प्र. प्रतिमा आदिनाथ माणिक्यसूरि अजितनाथ कुंथुनाथ महावीर १५ - १४२० वै० शु० १० पार्श्वनाथ मड़ाहड़ीय बुधवार १८- १४२६ वै० शु० १० शांतिनाथ रविवार २१ बुधवार १६- १४२३ ज्ये ० शु० ६ शनिवार १७- १४२५ वै० शु० १० पार्श्वनाथ जयप्रभसूरिपट्टे श्री हेमचंद्रसूरि श्रीसूर १६- १४२६ ज्ये० शु०२ पंचतीर्थी सोमवार २०–१४३६ वै० कृ० ११ मंगलवार 92 :: प्राग्वाट - इतिहास :: प्र. श्राचार्य: २३ - १४४० वै० कृ० १३ सोमवार पूर्णचंद्र शांतिनाथ नड़ी० सर्वदेवसूरि सोमसेण (१) सूरि साधुपूर्णिमा ० जिनसिंह सूरि सोमतिलकसूरि शांतिनाथ - रत्नप्रभसूरि पंचतीर्थी ....... प्रा०ज्ञा० २४ - १४४१ फा० शु० १ शांतिनाथ मड़ा० श्री० सोमवार २५- १४४६ वै० कृ० ३ शांतिनाथ प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठ हरिभद्रसूरि मड़ा० मुनिप्रभसूरि [ तृतीय प्रा०ज्ञा० श्रे० हाना ने पिता के श्रेयार्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० लूंपा ने अपने पिता छारा, माता भलदेवी के श्रेयार्थ. आदिनाथ- मड़ा० विजयसिंह- प्रा० ज्ञा० श्रे० संग्रामसिंह ने पिता चहथ, माता पंचतीर्थी चाहणदेवी के श्रयार्थ. २२- १४४० पौ० शु० १२ आदिनाथ मड़ा० सोनचंद्र सूरि कमलचंद्रसूरि प्रा०ज्ञा० ० झांझण ने अपने पिता श्रशपाल, माता लक्ष्मीदेवी के श्रेयार्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० 'सोनपाल ने स्व भा० पूनी सहित पिता कर्मसिंह, माता माल्हणदेवी के श्रयार्थ. प्रा० ज्ञा० ० भीमसिंह ने पिता रणसिंह तथा माता के श्रेयार्थ प्रा०ज्ञा ० ० जाला ने अपने पिता तिहुणसिंह, माता मुक्तादेवी के श्रेयार्थ. प्रा० ज्ञा० ० राणा ने पिता सहजा, माता सोमलदेवी, काका कुंअर, भ्राता डूंगर आदि के श्रार्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० " "ने पिता वसारा, माता पूनी के श्रेयार्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० राणा ने पिता धनपाल, माता पूजी, पितृभ्राता रामा के श्रयार्थ. प्रा० ज्ञा० ० पाका ने पिता तथा माता पालुदेवी के श्रेयार्थ. प्रा० ज्ञा० ० झाझा, पांचा, दापर आदि ने पिता सहजा, माता गांगी, पितृभ्राता हेमराज के श्र ेयार्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० खेता भार्या खेतलदेवी के पुत्र रणसिंह ने अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० (११) ५६७, (१२) ५६८, (१३) ५६६, (१४) ५७२, (१५) ५७५, (१६) ५८१, (१७) ५८२, (१८) ५८५, (१६) ५८६, (२०) ५६४, (२१) ५६५, (२२) ५६६, (२३) ५६७, (२४) ५६६, (२५) ६०२ प्रा०ज्ञा ० ० झाँटा ने पिता नींदा, माता सुमलदेवी के यार्थ. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका - प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य - श्री अचलगढ़तीर्थ :: २८ - १४५३ फा० शु० ५ शुक्रवार २६-१४५८ वै० शु० २ प्र. आचार्य प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठ जीरा० शालि- प्रा० ज्ञा० ० जयशल ने पिता चाहड़, माता चांपलभद्रसूर देवी के श्रेयार्थ २७–१४५२ वै० शु० ५ शांतिनाथ - देवसुन्दरसूरि प्र. विक्रम संवत् २६-१४४६ वै० शु० ६ शुक्रवार प्रा० ज्ञा० श्रे० भाला ने पिता जीदा, माता फलूदेवी के श्रेयार्थ सोमवार पंचतीर्थी वासुपूज्य - सा० पू० धर्मपंचतीर्थी तिलकसूरि आदिनाथ तपा० श्रीसूरि प्रा० शा ० ० सोमराज भार्या सोनलदेवी ने पुत्र माठवी, धवल, मंशा के श्रयार्थ पार्श्वनाथ सोमसेनरि गुरुवार प्रा० ज्ञा० ० जशराज ने स्वपत्नी पद्मिनी के सहित श्रे० मामत पुत्र श्रे० पाता भार्या पामिणी के श्रयार्थ प्रा० ज्ञा० वाला और आका ने मं० कुरसिंह की स्त्री जयतूदेवी के पुत्र रूपा, कोला, कड्या के श्रेयार्थ ३१ - १४६१ ज्ये० शु० १० आदिनाथ- पासचंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० साल्हा ने अपने पिता राम, माता राजलशुक्रवार पंचतीर्थी देवी, अपने तथा अपने भ्राता वनझला के श्रेयार्थ ३२- १४६७ माघ शु० ५ शान्तिनाथ - चंचल ० मेरु- प्रा० ज्ञा० ० डीडा भार्या रयणादेवी की पुत्री मेची शुक्रवार पंचतीर्थी तुंगमूरि अपने श्रेयार्थ ३३-१४७४ ज्ये० शु० २ नेमिनाथ- पूर्णि० पासचन्द्र प्रा० ज्ञा० श्रे० जशराज भार्या राऊ की पुत्रवधू चांदूदेवी शनिश्चर पंचतीर्थी सूरि ने पति हीरा के श्रेयार्थ ३४-१४७७ मार्ग कृ०४ शान्तिनाथ - देवगुप्तसूर प्रा० ज्ञा० ० झांझण भार्या जालूदेवी के पुत्र धरणा पंचतीर्थी वे स्वयार्थ ३५ - १४७७ मार्ग कृ०४ सुपार्श्वनाथ - तपा० सोमपंचतीर्थी सुन्दरसूरि बुधवार ३०-१४५८ वै ० शु० ५ प्र. प्रतिमा पद्मप्रभ ३६–१४७७ ज्ये. शु० ४ कुंथुनाथपंचतीर्थी ३७-१४७८ माघ शु० ६ सुपार्श्व - चौवीशी ३८-१४८१ आदिनाथपंचतीर्थी 22 11 "" [ ३१५ 99 प्रा० ज्ञा० ० धरणा भार्या पूनी के पुत्र खेता भार्या हाँसलदेवी के पुत्र श्र० सुरसिंह ने स्वभार्या रूपी के सहित प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मसिंह भार्या धारूदेवी के पुत्र सबल ने स्वभार्या वयजलदेवी, पुत्र शिवादि के सहित प्रा० ज्ञा० ० श्रीचन्द्र भार्या सोढ़ी के पुत्र सीहा ने अपने श्रेयार्थ स्वभार्या जसमादेवी, पुत्र वीशल, विमल, देशलादि के सहित जंघुरालवासी प्रा० ज्ञा० श्र े० शेषराज ने स्वभार्या शाणीदेवी, पुत्र कुजा के सहित पिता गोधा, माता माणिकदेवी के श्रेया. श्र० प्रा० ले० जे० सं० भा० २ ले० (२६) ६०३, (२७) ३०४, (२८) ६०६, (२६) ६०७, (३०) ६०८, (३१) ६०६, (३२) ६१०, (३३) ६१३, (३४) ६१४, (३५) ६१५, (३६) ६१६, (३७)६१७, (३८) ६१६ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] . : प्राग्वाट-इतिहास :: . [तृतीय बुधवार प्र. विक्रम संवत् प्र. प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठि २६-१४८२ फा० शु० ३ कुंथुनाथ सोमसुन्दरसरि प्रा० शा० श्रे० सामंत के पुत्र मेघराज की पत्नी मेषा देवी के पुत्र झीझा, मला, रणसिंह में से रणसिंह ने स्वपितामाता के श्रेयार्थ. ४०-१४६१ मा० शु० ५ अभिनंदन सा० पू० प्रा. ज्ञा० नयणा भार्या कांऊ के पुत्र दादा, वाला हीराणंदमूरि ने अपने सर्व पूर्वज एवं अपने श्रेयार्थ ४१-१४६१ मार्ग शु० ५ महावीर जिनसागरसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० मण्डन के पुत्र ईश्वर ने बुधवार चौवीशी ४२-१४६२ फा० शु०६ शांतिनाथ- रत्नप्रभसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० धागा भा० टबी ने पिता मोहन, सोमवार पंचतीर्थी माता माणिकदेवी के श्रेयार्थ. ४३-१४६२ वै० ० ५ , पूर्णि० सर्वाणंद- प्रा० ज्ञा० श्रे० राणा भार्या रयणदेवी के पुत्र लूणा ने शुक्रवार सूरि स्वश्रेयार्थः ४४-१४६६ ............ महावीर- सोमसुन्दरमरि अंबरणीवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० लाषा भार्या राजी के पंचतीर्थी पुत्र शा. पांचा ने स्वभार्या सीतादेवी, पुत्र सामंत आदि के सहित. ४५-१४६६ मार्ग शु० २ अनंतनाथ , प्रा. ज्ञा० श्रे० हेमा ने पिता गोहा, माता पूनी, स्वभार्या चारु तथा पुत्र वीरम आदि के सहित काका सामल के श्रेयार्थ. ४६-१५ विमलनाथ- तपा०जयचंद्र- प्रा० ज्ञा० श्रे० विजयसिंह भार्या वीरुदेवी के पुत्र पंचतीर्थी देपा ने स्वभार्या पूरी, वीरी, पुत्र काहा, रामा, साजर, सवादि के सहित स्वश्रेयार्थ. ४७-१५०२ कुंथुनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० देवड़ भार्या भली की पुत्री श्रा० पंचतीर्थी रही ने स्वश्रेयार्थ. ४८-१५०३ मार्ग० शु०२ धर्मनाथ प्रा० ज्ञा० मं० लूणा भार्या तेजू के पुत्र मं० चांपा पंचतीर्थी ने स्वश्रेयार्थ स्वभा० चांपलादेवी, पुत्र भीड़ा, सांडा, जेसा खेटू पौत्र विमल, नाभा, राघवादि के सहित ४६-१५०३ फा ००२ शांतिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० लाला भार्या सूदी के पुत्र छाड़ा पंचतीर्थी ने स्वभार्यादि कुटुम्बसहित. अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ ले० (३६)६२१, (४०)६२५, (४१)६२६, (४२)६२७, (४३)६२८, (४४)६२६, (४५)६३०, (४६)६३१, (४७)६३२, (४८)६३३, (४६)६३४ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड : तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री अचलगढ़तीर्थ :: [३१७ प्र. विक्रम संवत् प्र. प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठि ५०-१५०४ अभिनन्दन- श्रीपरि प्रा० ज्ञा० श्रे० प्राचा की स्त्री लक्ष्मीदेवी के पुत्र पंचतीर्थी हरिभद्र ने स्वस्त्री लांबी और भ्राता हूगर आदि कुटुम्बीजनों के सहित. ५१-१५०६ फा० शु०६ अजितनाथ- सिद्धाचार्यसंता- प्रा० ज्ञा० श्रे० रामसिंह की स्त्री वर्जू देवी के पुत्र शुक्रवार पंचतीर्थी नीय ककसरि हेमराज ने स्वभार्या के सहित स्वमाता-पिता के श्रेयार्थ. ५२-१५०६ वैशाख सुविधिनाथ- तपा० रनशेखर- वेलगरीवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० टेदा की स्त्री वामादेवी पंचतीर्थी सरि के पुत्र भीला ने स्वभार्या हांसलदेवी आदि सहित. ५३-१५०७ चै० ० ५ सुव्रतस्वामी आरणावासी प्रा०ज्ञा० श्रे० वीका की पत्नी हंसादेवी, पंचतीर्थी के पुत्र खेतमल ने स्वभार्या लाड़ी और पुत्र पर्वत आदि के सहित स्वमातापिता के श्रेयार्थ. ५४-१५०८ माघ कृ०२ वासुपूज्य वीशलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे वीशल की स्त्री पंचतीर्थी वर्जू के पुत्र प्राका, महिपा, जयसिंह ने अपनी अपनी स्त्रियां मृगदेवी, कर्मादेवी, बाजूदेवी और पुत्र भजा आदि के सहित स्वकल्याणार्थ. ५५-१५०८ वै० शु० ५ अभिनन्दन प्रा० ज्ञा० श्रे० वस्तीमल की स्त्री सरस्वतीदेवी के सोमवार पुत्र हापा ने स्वभार्या सुवर्णादेवी आदि कुटुम्बीजनों के सहित माता-पिता के श्रेयार्थ. ५६-१५१६ ज्ये० शु०६ सुमतिनाथ- ब्रह्माण- . प्रा. ज्ञा० श्रे० नरपाल की स्त्री भामलदेवी के पुत्र . शुक्रवार पंचतीर्थी - उदयप्रभसूरि रांमा ने स्वभार्या रांमादेवी पुत्र सालिग,जसराज के सहित ५७-१५२० ज्ये० शु० १३ सुविधिनाथ- तपा० लक्ष्मी- उद्रावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० हूंडा की स्त्री मधुवती के पंचतीर्थी सागरसरि पुत्र भाड़ा ने स्वस्त्री हीरादेवी, पुत्र लीवा आदि के. सहित स्वमाता-पिता के श्रेयार्थ. ५८-१५२० संभवनाथ- तपा० लक्ष्मी- पालड़ीग्राम में प्रा० ज्ञा० सं० राउल की स्त्री पाल्हणचौवीशी सागरसूरि, देवी के पुत्र सं० वीरम ने स्वस्त्री चापलदेवी, स्वपुत्र सोमदेवसूरि सोनराज,प्रतापराज,सांवलराज,लोला के सहित स्वश्रेयार्थ ५४-१५२५ फा० शु० ७ संभवनाथ- तपा० लक्ष्मी- कासहृदाग्राम में प्रा. ज्ञा० श्रे. वीरमल की स्त्री पंचतीर्थी सागरसूरि सलखूदेवी के पुत्र वत्सराज ने स्वभार्या हीरादेवी आदि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयार्थ. अ० प्रा० ० ले० सं० भा०२ ले० (५०)६३७, (५१)६३८, (५२)६३६, (५३)६४०, (५४)६४१, (५५)६४२, - (५६)६४३, (५७)६४४, (५८) ६४५, (५६)६४८ . .. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] प्र. विक्रम संवत् ६०-१५२८ ज्ये० कृ० ११ ६१ - १५३२ ज्ये० शु० २ रविवार ६२-१५३२ ६३-१५३३ फा० ६ प्र. प्रतिमा विमलनाथपंचतीर्थी संभवनाथ पंचतीर्थी शीतलनाथपंचतीर्थी वासुपूज्यपंचतीर्थी ६४ - १५३६ चै० कृ० ५ आदिनाथ गुरुवार पंचतीर्थी ६५ - १५४२ वै० कृ० ११ वासुपूज्यपंचतीर्थी :: प्राग्वाट - इतिहास :: प्र. आचार्य तपा० लक्ष्मीसागरसूरि ६६ - १५५१ माघ शु० ५ मुनिसुव्रतशनिवार पंचतीर्थी 11 " 27 "7 "" श्री सूरि [ तृतीय प्रतिमाप्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्रे० डहामल की स्त्री मधुमति के पुत्र वडआ ने स्वस्त्री मेही, पुत्र खीमराज आदि कुटुम्बीजनों के सहित ० छाला के श्रेयार्थ. सांगवाड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० गोसल की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र श्र े० तोलराज की स्त्री चाहिणदेवी के पुत्र वनराज ने स्वस्त्री अमरदेवी, पुत्र केल्हा आदि कुटुम्बीजनों के सहित स्वयार्थ नीतोड़ावासी प्रा० ज्ञा० मं० लूगराज के पुत्र मं० लांपा की स्त्री वयजूदेवी के पुत्र मं० धर्मराज ने स्व भ्राता सालिग, डूंगर और पुत्र राणा विमलदास, कर्मसिंह, हीरा, वीरमल, ठाकुरसिंह, होला आदि बीजनों के सहित प्रा० ज्ञा० ० डूंगर की स्त्री मेही के पुत्र आसराज स्वस्त्री गांगी, पुत्र धारा और भ्राता जसराज, धनराज आदि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयार्थ कुलिग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० शिवराज ने स्वस्त्री पूरीदेवी, पुत्र सोमादि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयार्थ धनेरीग्राम में प्रा० ज्ञा० ० हेमा की स्त्री मचकूदेवी के पुत्र हीरा स्त्री आपू पुत्र अदा ने स्वस्त्री चमकूदेवी यदि कुटुम्बीजनों के सहित अपने पूर्वजों के श्रयार्थ प्रा०ज्ञा० श्र े० खीमराज ने भीमराज आदि कुटुम्बीजनों के श्रेयार्थ श्र० प्रा० ले ० जे०सं० भा० २ ले० (६०) ६४६, (६१) ६५१, (६२) ६५२, (६३) ६५४, (६४) ६५६, (६५) ६५७, (६६) ६५८. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य--श्री पिण्डरवादक :: [३१६ श्री पिण्डरवाटक (पींडवाड़ा) के श्री महावीर-जिनालय में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि गोविन्द वि० सं० १६०३ सिरोहीराय दुर्जणसिंहजी के राज्यकाल में प्रा० ज्ञा० शाह गोविन्द नामक एक प्रसिद्ध पुरुष हुआ है । उसकी स्त्री का नाम धनीकुमारी था । धनीकुमारी के केन्हा नामक पुत्र हुआ, जिसका विवाह चापलदेवी और गुणदेवी नामा दो कन्याओं से हुआ था । इनके जीवराज, जिनदास और केला नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुये । शा० जीवराज ने वि० सं० १६०२ फाल्गुण कृष्णा ८ को चालीस दिन का अनशन तप करके पारणा किया था। इस महातप के उपलक्ष में शा. गोविन्द ने वि० सं० १६०३ के माघ कृ. ८ शुक्रवार को पिंडरवाटक (पीडवाड़ा) के अति प्रसिद्ध एवं प्राचीन श्री महावीर-जिनालय में शाह जीवराज के श्रेयार्थ देवकुलिका करवा कर उसको तपागच्छीय श्रीमद् कमलकलशसरि के पट्टालंकार श्रीमद् विजयदानसरि के करकमलों से प्रतिष्ठित करवाई ।१ शाह थाथा वि० सं० १६०३ सिरोहीराय श्री दुर्जनसिंहजी के विजयीराज्यकाल में सिरोहीनिवासी शाह थाथा ने अपनी स्त्री गांगादेवी, पुत्र और पुत्रवधू कश्मीरदेवी, पुत्री रंभादेवी के सहित वि० सं० १६०३ माघ कृ. ८ शुक्रवार को पीडवाड़ा के अति प्राचीन एवं महामहिम श्री महावीर-चैत्यालय में स्वस्त्री गांगादेवी के श्रेयार्थ देवकुलिका करवा कर प्रतिष्ठित करवाई।२ कोठारी छाला वि० सं० १६०३ सिरोहीराय श्री दुर्जणसिंहजी के राज्यसमय में सिरोही में कोठारी छाछा नामक श्रीमंत सद्गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्री का नाम हांसिलदेवी था। हांसिलदेवी की कुक्षी से कोठारी श्रीपाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रीपाल के खेतलदेवी, लाछलदेवी और संसारदेवी नाम की तीन स्त्रियाँ थीं, जिनकी कुक्षियों से उसको तेजपाल राजपाल, रत्नसिंह, रामदास, करणसिंह और सहसकिरण नाम के पुत्र प्राप्त हुये थे। शाह छाछा ने तपागच्छीय श्री हेमविमलमूरि के पट्टालंकार श्री आणंदविमलसरि के पट्टधर श्रीमद् विजयदानसूरि के करकमलों से पीडवाड़ा के अति प्राचीन एवं गौरवशाली महावीर-जिनालय में वि० सं० १६०३ माघ कु. ८ शुक्रवार को श्रा० लाछलदेवी और तेजपाल के श्रेयार्थ दो देवकुलिकाओं को प्रतिष्ठित करवाई तथा: वि० सं० १६१२ फाल्गुण कृ० ११ शुक्रवार को सिरोही के महाराजा श्री उदयसिंहजी के राज्य-काल में उपरोक १-० ले० सं०भा०१ ले०६४६। २-० ले०सं०भा०१ले०६४६. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२.] प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय आचार्य श्री विजयदानसरिजी के करकमलों से ही तृतीय देवकुलिका को लाछलदेवी के पुत्र रामदास, करणसिंह और सहसकिरण के श्रेयार्थ प्रतिष्ठित करवाई ।१ उपरोक्त शाह गोविन्द, शाह थाथा और कोठारी छाछा के प्राप्त वर्णनों से सिद्ध होता है कि वि० सं० १६०३ माघ कृ. ८ को पींडवाड़ा में महाप्रसिद्ध विजयदानमूरिजी के कर-कमलों से देवकलिकाओं की प्रतिष्ठा करवाई जाने के निमित्त महामहोत्सव का आयोजन किया गया था और अति धूम-धाम से प्रतिष्ठाकार्य पूर्ण किया गया था। श्री नाडोल और श्री नाङ्कलाई (नडुलाई) तीर्थ में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि कार्य श्रेष्ठि मूला वि० सं० १४८५ वि० संवत् १४८५ बैशाख शु० ३ बुधवार को श्रे० समरसिंह के पुत्र दो० धारा की स्त्री सुहवदेवी के पुत्र महिपाल की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र मूलचन्द्र ने पितृव्य धर्मचन्द्र और भ्राता माइआ तथा पिता महिपाल के श्रेयार्थ श्री सुविधिनाथविंब को श्री तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरिजी के करकमलों से प्रतिष्ठित करवाया। यह प्रतिमा नाडोल के अति भव्य एवं सुप्रसिद्ध श्री पद्मप्रभुजिनालय में स्थापित है ।२ . श्रेष्ठि साल वि० सं० १५०८ १ वि० संवत् १५०८ वैशाख कृ० १३ को श्रे० जगसिंह के पुत्र सं० केन्हा, कडुआ, हेमा, माला, जयंत, रणसिंह और लाखा भार्या ललितादेवी के पुत्र साडूल ने स्वस्त्री वाल्हीदेवी, पुत्र नरसिंह, नगा आदि कुटुम्बीजनों के सहित कई चतुर्विंशति जिनप्रतिमायें करवाई, जिनकी प्रतिष्ठा तपागच्छीय श्रीसोमसुन्दरमरि के पट्टालंकार श्रीमद् रत्नशेखरसरि ने श्री मेदपाटदेशीय देवकुलपाटक में की थी । एक शांतिनाथचौवीसी नाडोल के सुप्रसिद्ध श्री पद्मप्रभुजिनालय में विराजमान है । इसी ही शुभावसर पर अर्बुदगिरि, श्री चंपकमेरु, चित्रकूट, जाउरनगर, कायद्राह, नागहृद, भोसवाल, श्री नागपुर, कुभलगढ़, देवकुलपाटक, श्री कुण्ड आदि सुप्रसिद्ध तीर्थ एवं स्थानों के लिये दो दो प्रतिमायें भेजने के लिये भी इन्होंने प्रतिष्ठित करवाई थीं ऐसा उक्त चौवीसी के लेख से आशय निकलता है ।३ । १-० ले० सं० भा०१ ले०६४७,६४८, ६५०. २-३प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले० ३६८,३७२. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : तीर्थादि के लिये प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संधयात्रायें-सं० सूरा और वीरा: [३२१ श्रेष्ठि नाथा वि० सं० १७२१ नाडोल यह जोधपुर (राजस्थान) राज्य के गोडवाड़प्रांत का एक प्रसिद्ध और प्राचीन नगर है । यहाँ के वासी प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय शाह जीवाजी की स्त्री जशमादेवी की कुक्षी से उत्पन्न शा० नाथा ने महाराजाधिराज श्री अभयराजजी के विजयी राज्य में भट्टारक श्री विजयप्रभसूरि के द्वारा श्री मुनिसुव्रतस्वामी का बिंब वि० सं० १७२१ ज्येष्ठ शु० ३ रविवार को प्रतिष्ठित करवाया । यह बिंब इस समय नाडूलाई के श्री सुपार्श्वनाथमंदिर में विरामान है ।* इस मंदिर के निर्माता भी शाह जीवा और नाथा ही थे ऐसी वहाँ के लोगों में जनश्रुति प्रचलित है। तीर्थादि के लिये प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें संघपति श्रेष्ठि सूरा और वीरा की श्री शत्रुजयतीर्थ की संघयात्रा विक्रम की सोलहवीं शताब्दी विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में माण्डवगढ़ में, जब कि मालवपति ग्यासुद्दीन खिलजी बादशाह राज्य करता था, उस समय में प्राग्वाटज्ञातीय नररत्न श्रे० सूरा और वीरा नामक दो भ्राता बड़े ही धर्मात्मा हो *प्रा० ० ले० सं०भा०२ ले० ३४० इस मन्दिर के निर्माण के सम्बन्ध में एक दन्त-कथा प्रचलित है। सं० जीवा और उसका पुत्र नाथा दोनों ही बड़े उदार-हृदय एवं दयालु श्रीमंत थे । एक वर्ष बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ा और नाडूलाई का प्रगणा राज्यकर देने में असमर्थ रहा । राज्यकर नहीं देने पर राज्यकर्मचारी प्रजा को पीड़ित करने लगे। प्रजा को इस प्रकार सताई जाती हुई देखकर दोनों पितापुत्रों ने समस्त प्रजा का राज्यकर अपनी ओर से देने का निश्चय किया और वे मुख्य राज्याधिकारी के पास में पहुंचे और अपना विचार व्यक्त किया। उनका विचार सुनकर मुख्य राज्यकर्मचारी अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ। उसने भी तुरन्त ही नाडूलाई से राज्यकर को नरेश्वर के कोष में भिजवा दिया। जब राजा को यह ज्ञात हुआ कि नाडूलाई के प्रगणा में अकाल है और फिर भी उस प्रगणा का राज्यकर पूरा उग्रहीत हुआ है और अन्य वर्षों की अपेक्षा भी राज्यकोष में पहिले आ पहुँचा है, उसको बड़ा आश्चर्य हुश्रा। राजा ने साथ में यह भी सोचा कि मुख्य राज्याधिकारी ने दुष्काल से पीडित प्रजा को राज्यकर की प्राप्ति के अर्थ अवश्यमेव संताड़ित किया होगा । सत्य कारण ज्ञात करने के लिये उसने अपने विश्वासपात्र सेवकों को नाडूलाई में भेजा। सेवकों ने नाडूलाई से लौट कर राजा को राज्यकर की इस प्रकार हुई खरायुक्त प्राप्ति का सच्चा २ कारण कह सुनाया । राजा श्रेक जीवा और नत्था की परोपकारवृत्ति पर अत्यन्त ही मुग्ध हुआ। उसने विचारा कि मेरे राज्य का एक शाहूकार मेरी प्यारी प्रजा के दुःख के लिये अपने कठिन श्रम से अर्जित विपुल राशी व्यय कर सकता है तो क्या मैं प्रजा का अधीश्वर कहा जाने वाला एक वर्ष के लिये भी दु:खित प्रजा को राज्यकर क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर राजा ने नाडूलाई से पाया हुश्रा समस्त राज्यकर श्रे० जीवा और नत्था को लौटाने के लिए अपने मुख्य राज्याधिकारी के पास में भेज दिया। राजा की भेजी हुई उक्त धनराशी को जब मुख्य राज्याधिकारी श्रे० जीवा और नत्था को ससम्मान देने के लिये गया, तो दोनों पिता-पुत्रों ने लेने से अस्वीकार किया और कहा कि हम तो इसको धर्मार्थ लिख चुके, अब यह किसी भी प्रकार ग्राह्य नहीं हो सकती है। मुख्य राज्याधिकारी ने यह समाचार राजा को पहुँचा दिये । स्वयं राजा भी जीवा और नत्था की धर्मपरायणता एवं निस्वार्थपरोपकारवृत्ति पर अत्यन्त ही मुग्ध तो हुआ, परन्तु वह भी उस राशी को अपने राज्यकोष में डालने के लिये प्रसच नहीं हुआ। बहुत समय तक दोनों और इस विषय में विचार होते रहे । निदान राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके राजा की सम्मति के अनुसार उन्होंने उक्त राशी को किसी धर्मक्षेत्र में अपनी इच्छानुसार व्यय करना स्वीकृत किया और निदान उस राशी से इस जिनालय का निर्माण करवाया। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: ३२२ ] I गये हैं । ये दोनों भ्राता जिनेश्वरदेव के परम भक्त थे। ये बड़े उदार एवं सज्जनात्मा श्रावक थे । इन्होंने बादशाह ग्यासुद्दीन खिलजी की आज्ञा प्राप्त करके श्रीमद् सुधानन्दसूरि की तत्त्वावधानता में श्री माण्डवगढ़ से श्री शत्रुंजयमहातीर्थ की संघयात्रा करने के लिये संघ निकाला था। संघ जब उबरहड्ड नामक ग्राम में आया तो वहाँ मुनि शुभरत्नवाचक को बड़ी धूम-धाम से सूरिपद प्रदान करवाया गया । मार्ग में ग्राम, नगरों के जिनालयों में दर्शन, पूजन का लाभ लेता हुआ संघ अनुक्रम से सिद्धाचलतीर्थ को पहुंचा । वहाँ दोनों भ्राताओं ने आदिनाथप्रतिमा के दर्शन किये और अतिशय भक्ति भावपूर्वक सेवा-पूजन किया। संघ ने दोनों भ्राताच्चों को संघपतिपद से अलंकृत किया । तत्पश्चात् संघ सिद्धाचल से लौट कर सकुशल माण्डवगढ़ आ गया। दोनों संघवी भ्राताओं ने संघ-भोजन किया और संघयात्रा में सम्मिलित हुये प्रत्येक सधर्मी बन्धु को अमूल्य पहिरामणी देकर अत्यन्त कीर्त्ति का उपार्जन किया । १ [ तृतीय सिरोही के प्राग्वाटज्ञातिकुलभूषण संघपति श्रेष्ठि ऊजल और काजा की संघयात्रायें विक्रम की सोलहवीं शताब्दी विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ काल में सिरोही के राजा महाराव लाखा थे । ये 1 वीर एवं पराक्रमी थे । इनके सम्मानित एवं प्रतिष्ठित जनों में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० ऊजल और काजा नामक दो भ्राता भी थे । ये दोनों भ्राता सिरोही में रहते थे । राजसभा, समाज और राज्य में इनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी । इन्होंने शत्रुंजयमहातीर्थ की बड़े ही धूम-धाम से संघयात्रा की थी । उस संघयात्रा में सिरोही के महामात्य और कई संरक्षक अश्वारोही सम्मिलित हुये थे। दोनों भ्राताओं ने संघयात्रा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया था । 1 एक वर्ष दोनों भ्राताओं ने श्रीमद् सोमदेवसूरि की अध्यक्षता में श्री जीरापल्लीतीर्थ की सात दिवस पर्यन्त यात्रा करी और यात्रा से सिरोही में लौटकर भारी समारोह के मध्य गुरुदेव की शास्त्रवाणी को श्रवण करके ८४ चौरासी आर्य दम्पतियों के साथ में शीलव्रत के पालन करने की प्रतिज्ञा ली। इस प्रकार धन का सदुपयोग करके, तम एवं वैभव, विषय-वासनाओं से विरक्त बन करके दोनों भ्राताओं ने अपने समय में अपनी और अपने कुल की अक्षय कीर्त्ति बढ़ाई |२ संघपति सिंह की बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा वि० सं० १५३१ वि० सं० १५३१ वैशाख शु० २ सोमवार को सारंगपुरनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय आभूषणस्वरूप और तीर्थ यात्राओं के करने वाले और संघयात्राओं के कराने वाले तथा सत्रागार खुलवाने वाले संघवी वेलराज की धर्मपत्नी अरखूदेवी के पुत्ररत्न संघनायक संघवी जेसिंह ने स्वस्त्री माणिकी, पुत्री जीविणी आदि प्रमुख कुटुम्बसहित मालवा के श्री संघ के साथ में श्री अबु दगिरितीर्थ की संघयात्रा की और श्री नेमिनाथ भगवान् के अतिशय भक्ति और भावना से दर्शन किये |३ १- जै० सा० सं० इति पृ० ४६७-६८ २- जै० सा० सं० इति ० पृ० ४६६ ३- प्र० प्रा० जे० ले० सं० भा० २ ले० ३८८ । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: तीर्थादि के लिये प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा की गई संघयात्रायें--श्रे० नथमल :: संघपति हीरा की श्री अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा वि० सं० १६०३ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय शाह जीवराज हो गया है। शाह जीवराज की स्त्री का नाम पाल्हाईदेवी था। इनके श्रे० हीरजी नामक पुत्ररत्न हुआ । श्रे० हीरजी अति श्रीमंत, साधुसाध्वियों का परम भक्त और धर्मात्मा श्रावक था। उसने वि० सं० १६०३ पौष शुक्ला १ गुरुवार को श्री पाल्हणपुरीयगच्छ के पण्डित श्री संघचारित्रगणि के शिष्य श्री महोपाध्याय विमलचारित्रगणि के उपदेश से श्री अर्बुदाचलतीर्थ की यात्रा करने के लिये श्री चतुर्विध संघ निकाला और अपने और पूर्वजों द्वारा न्याय से उपार्जित द्रव्य का सदुपयोग किया । इस संघयात्रा में उपरोक्त पाल्हणपुरीयगच्छ के उपाध्याय श्री विमलचारित्रगणि अपने शिष्य माणिक्यचारित्र, ज्ञानचारित्र, हेमचारित्र, शवधर और धर्मधीर तथा शिष्यिणी प्रवर्तिनी विद्यासुमति, रत्नसुमति प्रमुख परिवार के सहित विद्यमान थे। संघयात्रा में एक सौ से ऊपर वाहन थे। गूर्जरज्ञातीय मंत्री नरसिंह की स्त्री लीखादेवी का पुत्र भाणेज मंत्री थाक्रजी, उसकी स्त्री पकुदेवी तथा उनकी पुत्रियाँ जावणी और लालाबाई, श्रीमालज्ञाति के शृंगारस्वरूप संघवी रूपचन्द्र, संघवी देवचन्द्र, संघवी सहसकिरण, श्रीमल्लमलजी आदि अनेक प्रतिष्ठित श्रावक अपने कुटुम्बसहित सम्मिलित हुये थे। श्रे० हीरा ने अपने पुत्र देवजी और पारू तथा अपने प्रमुख कुटुम्ब के साथ में साधु और साधियों तथा संघ के समस्त श्रावक, श्राविकाओं को श्री अर्बुदाचलतीर्थ की यात्रा करवाई और इस प्रकार बहुत द्रव्य व्यय करके अपने पूर्वज, माता, पिता तथा कुटुम्ब के कल्याणार्थ संघ निकाल कर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया ।१ हरिसिंह की संघयात्रा भीमसिंह लुणिया, प्राग्वाटज्ञातीय हरिसिंह, ब्रह्मदेव ने चतुर्विध श्री श्रमणसंघ के साथ में श्री अर्बुदाचलतीर्थ की यात्रा की थी। श्रेष्ठि नथमल की अर्बुदगिरितीर्थ और अचलगढ़तीर्थ की यात्रा वि० सं० १६१२ प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० नथमल के पुत्र श्रे० भीमराज और चारु ने क्रमशः अपने २ पुत्र पेथड़सिंह, कृष्ण और नरसिंह के साथ में वि० सं० १६१२ मार्गशिर कृष्णा ह शुक्रवार को श्री अर्बुदगिरितीर्थ और अचलगढ़तीर्थ की दुष्काल पड़ने के कारण यात्रा की थी। इस यात्रा में इनके साथ में अन्य श्रावकगण भी थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:____सा० जोधा, कर्मसिंह पुत्र रणसिंह, और देवा, स० भीम, छीतर पुत्र सगण, स० सोना, बालीदास पुत्र पं० कर्मा, काला पुत्र कला, छीतर, देपाल पुत्र नवा, माका और महेश का पुत्र हरिपति । इन सर्व ने समुदाय बना कर बड़ी धूम-धाम से यात्रा की थी।३ अ० प्रा० ० ले० सं०भा० २ ले० २१४-२१५'। २८६ । १७८३ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय संघपति मूलवा की श्री अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा वि० सं० १६२१ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अहमदाबाद में प्राग्वाटज्ञातीय संघवी गंगराज अहमदाबाद के अति संमानित प्रमुख व्यक्तियों में था। उसके सं० जयवंत नामक पुत्र था। सं• जयवंत की स्त्री मनाईदेवी नामा थी। जयवंत की विमाता जीवादेवी की कुक्षी से सं० मूलवा (मूलचन्द्र) नाम का पुत्र हुआ । संघवी मूलचन्द्र उदार और धर्मात्मा था । वह तीर्थयात्रा का बड़ा प्रेमी था। उसने वि० सं० १६२१ माघ कृ. १० शुक्रवार को श्री तपागच्छाधिपति श्री कुतुबपुरीयपक्षगच्छवाले श्री हंससंयमसूरि के शिष्य श्री हंसविमलसरि के उपदेश से श्री अर्बुदगिरितीर्थ की यात्रा करने के लिये संघ निकाला और इस प्रकार संघाधिपतिपद को प्राप्त करके अपनी स्त्री रंगादेवी, पुत्र मूला, भला, मघा तथा संघवी हरिचन्द्र, भाई सीदा, संघवी भीमराज के पुत्र बब (१) के पुत्र नारायण आदि समस्त कुटुम्बसहित और सकलसंधयुक्त श्री अर्बुदतीर्थ की यात्रा करके उसने अपने मनोरथ को सफल किया ।* श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु तपागच्छाधिराज आचार्यश्रेष्ठ श्रीमद् सोमतिलकसूरि दीक्षा वि० सं० १३६६. स्वर्गवास वि० सं० १४२४ तपागच्छपट्ट पर ४७ सेंतालीसवें श्रीमद् सोमप्रभसूरिद्वितीय के पट्ट पर ४८ अड़तालीसवें श्रीमद् सोमतिलकसरि नामक आचार्य हो गये हैं। इनका जन्म प्राग्वाटज्ञातीय कुल में वि० सं० १३५५ के माघ महीने में हुआ था । इन्होंने १४ चौदह वर्ष की वय में वि० सं० १३६६ में भगवतीदीक्षा ग्रहण की थी। सोमतिलकमरि श्रीमद् सोमप्रभसूरि के प्रिय एवं प्रभावक साधुओं में थे। सोमप्रभसूरि के पट्टोत्तराधिकारी युवराज-प्राचार्य श्रीमद् विमलप्रभसूरि का जब असमय में स्वर्गवास हो गया तो वि० सं० १३७३ में सोमप्रभसूरि ने सोमतिलकसरि और परमानन्दसूरि दोनों को आचार्यपदवी प्रदान की। परमानन्दसूरि का भी अल्प समय में ही स्वर्गवास हो गया। सोमप्रभसूरि के स्वर्गवास पर सोमतिलकसरि गच्छनायकपद को प्राप्त हुये । __ श्रीमद् सोमतिलकसरि अत्यन्त उन्नत और विशाल विचारों के प्राचार्य थे । इनके विशाल विचारों के कारण अन्य गच्छाधिपति भी इनका भारी मान करते थे। खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि ने स्वशिष्यों के पठनार्थ रचे हुये ७०० स्तोत्रों के संग्रह को सम्मान पूर्वक इनको समर्पित किया था । इनके श्री पद्मतिलकसरि, श्री चन्द्रशेखरसूरि, श्री जयानन्दसूरि और श्री देवसुन्दरसूरि नामक प्रखर विद्वान् एवं प्रतापी शिष्य थे। इन्होंने अपने उक्त चारों शिष्यों को बड़ी धूमधाम से एवं महोत्सवपूर्वक आचार्यपद प्रदान किया था। पद्मतिलकसूरि का तो आचार्यपद प्राप्ति के एक वर्ष पश्चात ही स्वर्गवास हो गया था । चन्द्रशेखरसूरि को वि० सं० १३६३ में आचार्यपद दिय *० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०१६ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक प्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दसूरि :: [ ३२५ गया था तथा जयानन्दसूरि और देवसुन्दरसूरि दोनों को वि० सं० १४२० में अणहिलपुरपत्तन में प्राचार्यपद प्रदान किये गये थे। जैसे ये प्रखर तेजस्वी थे, वैसे ही विद्वान् भी थे। इनके बनाये हुये ग्रंथ निम्रप्रकार हैं: १-बृहन्नव्यक्षेत्रसमाससूत्र २-सत्तरिसयठाणम् ३-यत्राखिल-जयवृषभशास्ताशर्मवृत्तियाँ ४-५-श्री तीर्थराज. चतुर्था स्तुति तथा उसकी वृत्ति ६-शुभ भावानत ७-श्री मद्वीरस्तवन -कमलबंधस्तवन -शिवशिरसिस्तवन १०-श्री नाभिसंभवस्तवन ११-श्री शैवेयस्तवन इत्यादि उपरांत इनके आपने गुरु द्वारा रची गई अट्ठावीस यमक-स्तुतियों पर वृत्ति लिखी और कई एक नवीन स्तोत्रों की भी रचनायें की हैं। इनके हाथ से अनेक नवीन जिनबिंबों की प्रतिष्ठायें हुई के उल्लेख मिलते हैं। ६६ वर्ष का आयु पूर्ण करके वि० सं० १४२४ में इनका स्वर्गवास हो गया ।* श्री तपागच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि दीक्षा वि० सं० १४३५. स्वर्गवास वि० सं० १४६६ पालणपुर (प्रह्लादनपुर ) में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राग्वाटज्ञातिशृंगार नरश्रेष्ठ श्रेष्ठिवर्य सज्जन मंत्री रहता था। सज्जन मन्त्री बड़ा ही धर्मात्मा, जिनेश्वरभक्त, उदार श्रावक था। राजसभा, समाज एवं नगर में वह अग्रगण्य पुरुष था। उसके दान एवं पुण्य की दूर २ तक वंश-परिचय ___ ख्याति फैली हुई थी । जैसा सज्जन धर्मात्मा था, वैसी ही गुणवती एवं धर्मानुरागिनी उसकी माल्हणदेवी नामा पतिपरायणा स्त्री थी। दोनों स्त्री-पुरुष सदा धर्म-पुण्य में लीन रहकर सुख एवं शांति पूर्वक अपने गृहस्थ-धर्म का पालन कर रहे थे। वि० सं० १४३० में माघ कृष्णा १४ को सज्जन श्रेष्ठि को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र का मुख चन्द्र के समान उज्ज्वल और कान्तियुक्त था, अतः उसने अपने पुत्र का नाम भी सोम ही रक्खा। सोम बड़ा ही चंचल हृष्ट-पुष्ट एवं मनोहारिणी आकृति वाला शिशु था। वह सज्जन मंत्री के घर पुत्र सोम का जन्म का दीपक था और प्रह्लादनपुर का सचमुच चन्द्रमा ही था । उसके रूप एवं लावण्य को निहार कर समस्त नगर मुग्ध रह जाता था । सोम धीरे २ बड़ा होने लगा और अपनी अद्भुत बालचेष्टाओं से प्रत्येक जन को चमत्कृत करने लगा । सोम की बुद्धि, वाकचपलता एवं बाललीला को देख कर बुद्धिमान् जन विचार करते थे कि यह बालक समाज, देश एवं धर्म की महान् सेवा करने वाला होगा। इस प्रकार बाललीला करता हुआ मोम जब सात वर्ष का हुआ ही था कि प्रहादनपुर में तपागच्छनायक श्रीमद् जयानन्दसरि पधारे । .. *?-कवि ऋषभदास कृत हरिसरिरास पृ०२६४. २-० गु० क०भा०२ पृ०७१८. ३-०प० पृ०१८०, Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय सोम की दीक्षा उन दिनों में जैनाचार्यों में श्रीमद् जयानन्दसूरि का मान अत्यधिक था। गुरु का आगमन श्रवण करके समस्त नगर के जैन- जैन जन एवं राजा और उसके अधिकारीजन अति हर्षित होकर गुरु का स्वागत करने के लिये नगर के बाहर गये और गुरु का नगर प्रवेश प्रति धूम-धामपूर्वक करवाया । सज्जन मंत्री भी गुरु के स्वागतार्थ अपने पुत्र और स्त्री सहित गया था । श्रीमद् जयानन्दसूरि के दिव्य तेज एवं वाणी का बालक सोम पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह वैराग्यरस में पगने लगा । गुरु की देशना श्रवण करके सोम जैसे प्रतिभाशाली एवं होनहार बालक के हृदय में एक दम ज्ञान का प्रकाश जगमगा उठा और घर आकर तो वह एकदम गूढ़ विचारों में लीन हो गया। बालक सोम के माता और पिता को सोम के चिंतन का पता नहीं लगा । सज्जन मंत्री नित्य नियमपूर्वक सपरिवार गुरु की शास्त्रवाणी श्रवण करने जाता था । श्रीमद् जयानंदसूरि ने सोम को उसकी दिव्य आकृति से जान लिया कि यह लड़का आगे जाकर महान् तेजस्वी एवं प्रभावक निकलेगा; अतः उन्होंने सज्जन श्रेष्ठ से सोम की मांग की। सज्जन श्रेष्ठि और उसकी स्त्री माल्हणदेवी ने पुत्र-मोह के वश होकर प्रथम तो कुछ आना-कानी की, परन्तु गुरु के समझाने पर उन्होंने अपने प्राणप्रिय पुत्र सोम को स्वयं अपने हाथों दीक्षा देकर गुरु की सेवा में अर्पण करने का निश्चय कर लिया। फलतः अति धूम-धाम से महामहोत्सव पूर्वक वि० सं० १४३७ में सज्जन मंत्री ने अपने पुत्र सोम और एक पुत्री को श्रीमद् जयानंदमूरि के कर कमलों से भगवतीदीक्षा दिलवाकर अपना गृहस्थ-जीवन सफल किया। माल्हणदेवी भी अपने पुत्र एवं पुत्री दोनों को दीक्षित देख कर अपना सौभाग्य मानने लगी। गुरु ने नवदीक्षित बालमुनि का नाम सोमसुन्दर ही रक्खा | श्रीमद् जयानंदसूरि का कुछ ही समय पश्चात् स्वर्गवास हो गया और उनके पाट पर महान् तेजस्वी आचार्य श्री देवसुन्दरसूरि प्रतिष्ठित हुये । श्रीमद् देवसुन्दरसूरि की बालमुनि सोमसुन्दरसूरि पर महती कृपा थी । बाल-मुनि सोमसुन्दर का उन्होंने मुनि सोमसुन्दर को विद्याध्ययन करने के लिये महाविद्वान् मुनिवर्य ज्ञानसागरजी विद्याध्ययन और गणिपद के पास भेज दिया । बालमुनि सोमसुन्दर प्रखर बुद्धिशाली तो थे ही, गुरु जितना तथा वाचक पद की प्राप्ति भी पाठ देते, वे तुरन्त ही याद कर लेते। थोड़े ही वर्षो में उन्होंने व्याकरण, साहित्य, छंद, न्याय, गमों का इतना अच्छा और गहरा अभ्यास कर लिया कि उनकी विद्या की प्रखरता, ज्ञान की विशालता देखकर श्रीमद् देवसुन्दर सूरि अति ही मुग्ध हुये और उन्हें गरि पद प्रदान किया तथा वि० सं० १४५० में तो महामहोत्सव का समारंभ करके बड़ी ही धूमघाम से उनको वाचकपद भी प्रदान कर दिया। आपकी आयु इस समय केवल २० वर्ष की ही थी | ऐसी अल्प आयु में बहुत कम मुनिवरों को वाचकपद जैसे अति उत्तरदायित्वपूर्ण पद की प्राप्ति होती है । गुरु ने श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि को अ सर्व प्रकार योग्य एवं समर्थ समझ कर स्वतंत्र विहार करने की आज्ञा भी प्रदान कर दी। १ - सोमसुन्दरसूरि के पिता माता प्राग्वाटज्ञातीय थे- देखो जे० सा० इति० पृ० ५०१ पर ले० सं० ७२६. २ - ' तत्पट्टे ५० सोमसुन्दर सूरि- प्राग्वंशी राणपुर प्रतिष्ठाकृत, पालापुरे भगिन्या सह संयमं जग्राह ।' प० समु० पृ० १७२. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि :: [ ३२७ वाचक-पद की प्राप्ति के पश्चात् श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने गुरु श्रीमद् देवसुन्दरसरि की आज्ञा लेकर अपने शिष्य एवं साधु-मण्डली के सहित मेदपाट-प्रदेश की ओर विहार किया । अनुक्रम से विहार करते हुये देवकुलपाटक (देलवाड़ा) के सामीप्य में पधारे । उन दिनों मेदपाटनरेश महाराणा लाखा थे, जो मेदपाटदेश में विहार जैनधर्म के प्रति बड़े ही श्रद्धालु थे। महाराणा लाखा के प्रधान श्रेष्ठि रामदेव थे। महाराणा के अद्वितीय प्रीति-भाजन व्यक्ति उनके ही ज्येष्ठ पुत्र चुण्डा थे, जो अति ही प्रभावशाली व्यक्ति और प्रधान रामदेव के परम मित्र एवं स्नेही थे । प्रधान रामदेव के साहचर्य से युवराज चुण्डा भी जैन-धर्म का बड़ा मान करते थे। जब महाराणा लाखा को राजसभा में यह शुभ समाचार पहुंचे कि युवान वाचक श्रीमदू सोमसुन्दरसूरि का पदार्पण मेदपाटप्रदेश के भीतर हो गया है, प्रधान रामदेव और महायुवराज चुण्डा दोनों ही महाराणा की आज्ञा से आपश्री के दर्शन करने के लिये गये और उनकी सेवा में पहुंच कर बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से अभिवंदन किया और उनके साथ विहार में रह कर गुरुभक्ति का लाभ लिया तथा जब श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि का देवकुलपाटक में प्रवेश हुआ तो राजाज्ञा निकाल कर राजसी-शोभा से हर्षोल्लासपूर्वक नगर-प्रवेश करवाया। देवकुलपाटक में आपश्री कुछ दिवस विराजे और विहार करके मेदपाटप्रदेश की भूमि को अपने वचनामृत से प्लावित करने लगे । वन, ग्राम, नगरों में विहार करते हुए उपाध्यायों में मुकुटरूपसूरि अपने महान् प्रताप को प्रसारित करते हुते मिथ्यात्व दुर्मति का नाश करने लगे, पाप का मूलोच्छेद करने लगे, पृथ्वी में दुर्लभ ऐसे समकितरत्न को मुक्तहस्त भव्यजनों को प्रदान करने लगे। किसी को देशविरति, किसी को सर्वविरति, किसी को शीलव्रत, किसी. को दुःख-दरिद्र को नाश करने में समर्थ ऐसी कर्मक्रिया, किसी को भव-भव के पापों का नाश करने वाली देव-गुरु-भक्ति ग्रहण करवाने लगे । बहुत दिनों तक मेदपाटभूमि में इस प्रकार युवान मुनिपति अपनी साधु एवं शिष्य-मण्डली-सहित भ्रमण करके धर्म की ज्योति जगा कर पुनःअणहिलपुरपत्तन की ओर विहार कर चले क्योंकि अति वृद्ध गुरु श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के दर्शन करने की लालपा सर्व साधु एवं स्वयं आपश्री के हृदय में उत्कट जाग्रत हो गई थी और वे अणहिलपुरपत्तन में ही उन दिनों विराज रहे थे। ग्रामानुग्राम एवं दुर्गम पार्वतीय भागों में विहार करते हुये अनुक्रम से अणहिलपुरपत्तन में पहुँचे और गुरु के दर्शन करके अति ही आनंदित हुये । ___ अणहिलपुरपत्तन में नृसिंह नामक एक अति धर्मिष्ठ एवं अत्यंत धनी श्रावक रहता था। वह युवान मुनिपति वाचक सोमसुन्दरसूरि के तेज एवं दृढ़ चारित्र को देख कर अति ही मुग्ध हुआ और गुरुवर्य श्रीमद् देवसुन्दरमरि से अवसर देखकर निवेदन करने लगा कि उसकी ऐसी इच्छा है कि मुनिपति सोमसुन्दरसूरि को आचार्यपद से अलंकृत किया जाय और उसको महोत्सव का समारम्भ करने का आदेश दिया जाय । गुरु देवसुन्दरसूरि ने श्रे. नृसिंह की श्रद्धा एवं भक्तिभरी विनती स्वीकार करली और फलतः वि० सं० १४५७ में अणहिलपुरपत्तन में महामहोत्सवपूर्वक वाचक मुनिपति सोमसुन्दरसरि को २७ सत्ताईस वर्ष की वय में आचार्यपद से अलंकृत किया गया । इस महोत्सव के समारंभ पर श्रे. नृसिंह ने कुंकुम-पत्रिकायें प्रेषित करके दूर २ के संघों को, प्रतिष्ठित . कुलों एवं सद्गृहस्थों को निमंत्रित किया था । श्रे. नृसिंह ने अति हर्षित होकर इस शुभावसर पर बहुत ही द्रव्य याचकों को दान में दिया, विविध मिष्टान्नवाला नगर-प्रीति-भोज किया और सधर्मी बंधुओं की अच्छी सेवा-भक्ति की। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ :: प्राग्वाट-इतिहास:: [तृतीय नृसिंह मंत्री ने इस प्राचार्यपदोत्सव के अवसर पर अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को हर्षपूर्वक इतना अधिक व्यय किया कि जिसका वर्णन और अंकन करना भी कठिन है । इस समय तक श्रीमद् देवसुन्दरसरि अधिक वृद्ध हो गये थे। कुछ ही समय पश्चात् वे स्वर्ग को सिधार गये और गच्छ का भार श्रीमद् सोमसुन्दरपरि के कंधों पर आ पड़ा। श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि सर्व प्रकार से योग्य तो थे ही, र उन्हान जिस प्रकार जैन-शासन की सेवा की, गच्छ का गौरव बढ़ाया वह स्वर्णाक्षरों वास और गच्छपतिपद की में अनेक ग्रंथों के पत्रों में उल्लिखित है। यहाँ तो उसका साधारण शब्दों में स्मरण प्राप्ति तथा मोटा ग्राम में मात्र करना ही बन पड़ेगा । वृद्धनगर अथवा मोटाग्राम, जिसको वड़नगर (गुजरात) श्री मुनिसुन्दरवाचक को भी कहते हैं, उस समय अति समद्ध एवं विशाल नगर था । श्रीमद् सोमसन्दरपरि अपनी सरिपद प्रदान करना साधु एवं प्रखर विद्वान् शिष्य-मण्डली के सहित भ्रमण करते हुये नगर ग्रामों में अनेक प्रकार के सुधार करते हुये उक्त मोटा ग्राम में पधारे । मोटा ग्राम में देवराज नामक अति प्रतिष्ठित श्रीमंत एवं जिनेश्वर और गुरु का परम भक्त सुश्रावक रहता था। उसका छोटा भाई हेमराज था, जो राजा का विश्वासपात्र मंत्री था । मंत्री हेमराज से छोटा घटसिंह नामक तृतीय भ्राता था। तीनों भ्राता अधिकाधिक गुणी, धर्मात्मा एवं सुश्रावक थे। दोनों छोटे भ्राता ज्येष्ठ भ्राता देवराज के पूर्ण भक्त एवं परम आज्ञाकारी थे। नगर में महान् तेजस्वी प्रखर पंडित एवं जैनाचार्यों में मुकुटरूप युगप्रधानसमान आचार्य श्रीमद् सोमसुन्दरमरि का पर्दापण हुआ सोच कर देवराज का मन अत्यंत ही हर्षित हुआ और उसके मन में यह भाव उठे कि वह गुरु की आज्ञा लेकर कोई शुभ कार्य में अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करे। इस प्रकार धर्ममूर्ति देवराज ने अपने मन में निश्चय करके अपने दोनों अनुवर्ती योग्य भ्राताओं की सम्मति ली। वे भला शुभावसर पर द्रव्य का सदुपयोग करने, कराने में और अनुमोदन करने में कब पीछे रहने वाले थे । उन्होंने तुरन्त ही ज्येष्ठ भ्राता देवराज की बात का समर्थन किया और देवराज ने अपने भ्राताओं की इस प्रकार सुसम्मति लेकर गुरु के समक्ष आकर अपनी सद्भावनाओं को व्यक्त किया और निवेदन किया कि आचार्यपदोत्सव जैसे महा पुण्यशाली कार्य का समारम्भ करवा कर वह अपने द्रव्य का सदुपयोग करना चाहता है । श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने श्रे० देवराज की विनती स्वीकार करली और भाचार्यपदोत्सव का शुभमुहूत भी तत्काल निश्चित कर दिया। . श्रे० देवराज और उसके अनुज दोनों भ्राताओं ने कुकुमपत्रिकायें लिख कर दूर २ के संघों को आमंत्रित किया और महामहोत्सव का समारंभ किया। इस प्रकार वि० सं० १४७८ के शुभमुहू त में गच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसरि ने श्रीमुनिसुन्दरखाचक को सरिपद से अलंकृत किया। आचार्यपदोत्सव की शुभसमाप्ति करके श्रे० मुश्रावक देवराज ने गच्छपति की आज्ञा लेकर श्रीमद् मुनिसुन्दरसूरि की अध्यक्षता में शत्रुजय, गिरनारतीर्थों की संघयात्रा की और संघपति के अति गौरवशाली पद को प्राप्त किया । संघ में ५०० गाड़ियाँ थीं और संघ की सुरक्षा के लिये ५०० सुभट थे। आचार्यपदोत्सव और संघयात्रा में सुश्रावक देवराज ने पुष्कल द्रव्य का व्यय याचकों को अमूल्य भेटें दी और सधर्मी बन्धुओं की अच्छी सेवा-भक्ति की एवं अमूल्य पहिरामणियाँ दीं। . एक वर्ष आपश्री का चातुर्मास श्रे० संग्राम सोनी की प्रमुख विनती तथा मांडवगढ़ के श्री संघ की श्रद्धापूर्ण विनती से माण्डवगढ़तीर्थ में हुआ था । उक्त चातुर्मास का व्यय अधिकांशतः संग्राम सोनी ने वहन किया था । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि :: [ ३२६ संग्राम सोनी ने गुरु महाराज से भगवतीसूत्र का वाचन करवाया था और प्रत्येक शब्द पर एक-एक सुवर्ण मुद्रा चढ़ाई थी । संग्राम सोनी ने ३६००० सुवर्ण मुद्रायें, उसकी माताश्री ने १८००० तथा उसकी स्त्री ने ६००० कुल ६३००० सुवर्ण मुद्रायें चढ़ाई थीं। तत्पश्चात् उक्त मुद्राओं में और मुद्रायें सम्मिलित करके कुल १४५००० सुवर्ण मुद्रायें वि० सं० १४७१ में कल्पसूत्र और कालिकाचार्य की कथा की प्रतियाँ सचित्र और सुवर्ण के अक्षरों से लिखवाने में व्यय की गई थीं और उक्त प्रतियाँ साधुओं को वाचनार्थ अर्पित की गई थीं । संग्राम सोनी ने श्री मक्षीजी में श्रीपार्श्वनाथ - जिनालय का निर्माण करवाया था और उसमें श्री पार्श्वनाथचिंब की महामहोत्सव पूर्वक गुरु के कर-कमलों से स्थापना करवाई थी । गिरनारतीर्थ पर भी श्रे० संग्राम ने एक विशाल जिनालय बनवाया था, जो 'संग्राम सोनी' की टँक कहा जाता है । इसकी प्रतिष्ठा भी आपश्री के सदुपदेश से ही संग्राम सोनी ने महामहोत्सव पूर्वक करवाई थी । का करना गच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि विहार करते हुए ईडर (इलादुर्ग) में अपनी साधुमण्डली एवं शिष्यवर्ग सहित पधारे । उस समय ईडर का महाराजा रणमल्ल था, जो अत्यन्त प्रतापी और शूरवीर था । रणमल्ल का पुत्र श्रे० गोविंद का श्री गच्छ- श्रीपुंज भी वैसा ही महापराक्रमी और रणकुशल योद्धा था । उसने अनेक बार संग्राम पति की निश्रा में आचार्यमें जय प्राप्त की थी और वह 'वीराधिवीर' कहलाता था। ऐसे प्रतापी पिता-पुत्र का पदोत्सव का करना और प्रीति-भाजन श्रे० गोविंद था । श्रे० गोविंद जैसा श्रीमन्त था, वैसा ही सद्गुणी, तत्पश्चात् शत्रुञ्जय, गिरधर्मात्मा और उदार सज्जन था । गोविन्द अपने विशुद्ध चरित्र के लिये समस्त जैननार, तारंगतीर्थों की संघयात्रा और अन्य धर्मकार्यो समाज में अग्रणी था । उसने पुष्कल द्रव्य व्यय करके श्री तारंगतीर्थ पर कुमारपालप्रासाद का जीर्णोद्धार करवाया था । श्रे० गोविंद का पुत्र श्रीवीर भी पिता के सदृश ही गुणी, धर्मात्मा और उदार था। नगर में युगप्रधान - समान गच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि का पदार्पण पाकर दोनों पिता-पुत्र अत्यन्त हर्षित हुये और अपनी न्यायोपार्जित पुष्कल संपत्ति का सदुपयोग करने के लिये शुभ अवसर देखकर गुरु की सेवा में उपस्थित होकर दोनों पिता-पुत्र निवेदन करने लगे कि उत्तमसूरिपद की प्रतिष्ठा करवा कर उनको कृतार्थ करिये । सूरिजी महाराज ने श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक उनकी विनती देख कर उसको स्वीकार कर ली और श्री आचार्यपदोत्सव की तैयारियाँ होने लगी । श्रे० गोविन्द ने योग्य गुरु का समागम देखकर पुष्कल द्रव्य का उपयोग करने का निश्चय किया। उसने बहुत दूर तक कुकुमपत्रिकायें भेजीं। महामहोत्सव का समारंभ प्रारम्भ हुआ । अनेक नगर, ग्रामों से अगणित जनमेदनी एकत्रित हुई और ऐसे महासमारोह के मध्य राजा रणमल्ल की उपस्थिति में गच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने श्री जयचन्द्रवाचक को सूरिपद से अलंकृत किया । श्रे० गोविन्द ने याचकों को भरपूर दान दिया और समस्त नगर के श्री संघ को और बाहर से आये हुये सर्व संघों को विविध व्यंजनों वाला साधर्मिक- वात्सल्य दिया । तत्पश्चात् श्रे० गोविन्द ने श्री शत्रुंजयमहातीर्थ, गिरनारतीर्थ, सोपारकतीर्थादि की विशाल संघ के सहित संघयात्रा की और श्री तारंगगिरितीर्थ पर विशाल श्री अजितनाथ - आरसप्रस्तर-बिंब की प्रतिष्ठा गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के करकमलों से वि० सं० १४७६ में करवाई । प्रतिष्ठोत्सव के समय संघ रक्षा एवं व्यवस्था की दृष्टियों से गूर्जर बादशाह अहमदशाह के और ईडरनरेश * 'ऐतिहासिक सझाय माला' by विद्याविजयजी भा० १५० ३२ (सं० १६७३ य० जे० प्र० मा० भावनगर) Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] :: प्राग्वाट-इतिहास: [ तृतीय श्रीपुंज के अनेक सुभट और विश्वासपात्र सामंत कर्मचारी उपस्थित थे। उस शुभावसर पर उटकनगरवासी श्रे० शकान्हड़ ने सातों क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय करके तपस्या ग्रहण की, श्री जिनमण्डनमुनि को वाचक-पद प्रदान किया गया । इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर साधु गोविन्द ने याचकों को स्वर्ण-जिह्वायें प्रदान की थीं। इन्द्रसभा के समान विशाल मण्डप की रचना करवाई गई थी। बड़े २ साधर्मिक वात्सल्य किये गये थे। सधर्मी बन्धुओं को केशरिया रेशमी अमूल्य वस्त्रों की पहिरामणी दी गई थी। इस प्रकार उसने बहुत द्रव्य व्यय करके अमर यश और कीर्ति प्राप्त की । उत्सव के समाप्त हो जाने पर श्रे० गोविन्द गुरुवर्य श्रीमद् सोमसुन्दरसरि के साथ में ईडर पाया । श्रीपुंज राजा ने नगर-प्रवेश का भारी महोत्सव किया और नगर को शृंगार कर संघ ने अपनी गुरु-भक्ति का एवं साधु गोविन्द के प्रति अपनी सम्मान दृष्टि का परिचय दिया। अनुक्रम से विहार करते हुये गच्छनायक सूरीश्वर मेदपाटप्रदेशान्तर्गत श्री देवकुलपाटक नगर में पधारे । देवकुलपाटक में बागहड़ी में जिनप्रासाद का करवाने वाला धर्ममूर्ति सुश्रावक श्रे० निंब रहता था, जो अपनी देवकुलपाटक में श्रीभुवनसुन्दर- धर्मक्रिया एवं महोदारता के लिये दूर २ तक प्रख्यात था। उसने गुरु की आज्ञा. वाचक को सूरिपद देना लेकर आचार्यपदोत्सव का विशाल आयोजन किया । दूर २ के संघों को निमन्त्रित किया और पुष्कल द्रव्य व्यय करके मण्डप की रचना करवाई। गच्छनायक ने श्री भुवनसुन्दरवाचक को शुभ मुहूर्त में महामहोत्सव एवं महासमारोह के मध्य सूरिपद प्रदान किया। संघवी निंब ने गच्छपति को एवं अन्य साधुवर्ग को अमूल्य वस्त्र अर्पित किये एवं सधर्मी बन्धुओं की साधर्मिकवात्सल्यों से और अमूल्य वस्त्रों की पहिरामणी से अच्छी संघभक्ति की। अनुक्रम से विहार करके गच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि कर्णावती में पधारे । कर्णावती में साधु-आत्मा श्रे० गुणराज रहता था, जो अहम्मदशाह बादशाह का अत्यन्त माननीय विश्वासपात्र श्रेष्ठि था। गुणराज की कर्णावती में पदार्पण और राज्य और समाज में भारी प्रतिष्ठा थी। गुरु का शुभागमन श्रवण करके गुणराज ने श्रे० छाम्र की दीक्षा नगर-प्रवेश की भारी तैयारियाँ की और बड़ी धूम-धाम से गुरु का नगर प्रवेश करवाया और दानादि में पुष्कल द्रव्य व्यय किया। श्रे० गुणराज का आम्र नामक एक अति धनपति श्रावक मित्र था। वह श्रीमंत पिता का पुत्र था। श्रे० आम्र भी अत्यन्त सरल, सज्जनात्मा साधु-गृहस्थ था । योग्य गुरु के दर्शन करके श्रे० आम्र के हृदय में वैराग्य भावनायें उत्पन्न हो गई और निदान एक दिन शुभ मुहुर्त में घर, परिवार, अतुल संपत्ति का त्याग करके उसने गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण की। मरिजी महाराज संघ के आग्रह से वहाँ कई दिन तक विराजे और श्री शत्रुजयतीर्थ के माहात्म्य का संघ को श्रवण करवाया। साधु गुणराज ने अनेक महोत्सव किये और दीक्षोत्सव में तथा अन्य उत्सव महोत्सवों में उसने अनंत धनराशि का सदुपयोग करके समकितरत्न की प्राप्ति की। जैसा ऊपर कहा जा चुका है सं० गुणराज अति प्रसिद्ध पुरुष था। वह अति धनवान् था और वादशाह महम्मदशाह का मानीता श्रेष्ठि था । दीदोत्सव समाप्त हो जाने के पश्चात् उसने महातीर्थों की संघयात्रा करने गच्छपति के साथ में सं० का विचार किया । गुरुदेव की स्वीकृति प्राप्त करके सं० गुणराज ने संघयात्रा की गुणराज की शत्रुञ्जयमहा- तैयारियाँ प्रारम्भ की। बादशाह अहमदशाह से राजाज्ञा प्राप्त की। बादशाह ने तीर्थ की संघयात्रा अपने कृपापात्र सं० गुणराज को अमूल्य वस्त्रालंकार भेंट किये और संघ की रक्षार्थ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि :: [३३१ अपने विश्वासपात्र वीर एवं चतुर सहस्त्रों सुभट भेजे और संघ की अन्य प्रकार की विविध सेवायें करने के लिये अनेक घुड़सवार और राजकर्मचारी भेजे । निश्चित् शुभ मुहूर्त में गच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि की अध्यक्षता में संघयात्रा प्रारम्भ हुई । उस समय सं० गुणराज ने याचकों को इतना दान दिया कि उनका दारिद्रय दूर-सा हो गया । संघ थोड़े २ अन्तर पर पड़ाव डालता हुआ, मार्ग में ग्राम, नगरों का आतिथ्य स्वीकार करता हुआ, जिनालयों में जीर्णोद्धार के निमित्त उचित द्रव्य का दान देता हुआ, मार्गणों की अभिलाषाओं की शांति करता हुआ, प्रमुख नगर वीरमग्राम, धंधूका, वलभीपुर होता हुआ श्री शत्रुजयमहातीर्थ पर पहुंचा और आदिनाथ-प्रतिमा के दर्शन करके वह अति हर्षित हुआ। तीर्थाधिराज पर संघपति ने गुरुदेव की निश्रा में संघपति के योग्य सर्व कार्य अत्यन्त हर्ष के साथ पूर्ण किये। संघ शत्रुजयतीर्थ से लौट कर मधुमती आया और वहाँ सं० गुणराज की विनती पर श्रीमद् जिनसुन्दरवाचक को महामहोत्सवपूर्वक श्रीमद् सोमसुन्दरसरि ने परिपद प्रदान किया। सं० गुणराज ने वहाँ विशाल साधर्मिक-वात्सल्य किया और प्रत्येक सधर्मी बन्धु को दिव्य वस्त्रों की भेट दी । मधुमती से प्रस्थान करके संघ देवपुर, मंगलपुर होता हुआ गिरनारतीर्थ पहुँचा । संघ ने वहाँ तीर्थपति भ० नेमिनाथ-प्रतिमा के दर्शन किये, सेवा-पूजा की और वह अति आनन्दित हुआ । सं० गुणराज ने याचकों को अति द्रव्य दान में दिया, जीर्णोद्धार निमिश अति प्रशंसनीय मात्रा में द्रव्य अर्पित किया और बृहद् साधर्मिकवात्सल्य किया। गिरनारतीर्थ से संघ कर्णावती की ओर रवाना हुआ। कर्णावती पहुँच कर सं० गुणराज ने भारी सार्मिक-वात्सल्य किया और सधर्मी बन्धुओं की विविध प्रकार से संघ-पूजायें की। गुरुवर्य सोमसुन्दरमरि एवं उनकी साधु मण्डली को सं• गुणराज ने अमूल्य वस्त्र वहिरायें। इस संघयात्रा में सं० गुणराज ने अतिशय द्रव्य का सद् व्यय करके जैन-शासन की भारी उन्नति की और अमर कीर्ति संपादित की। योग्य गुरु के सुयोग पर भव्य जीवों में स्वभावतः धर्म-भावनायें किस सीमा तक वृद्धिगत हो जाती हैं और वे एक योग्य श्रावक से क्या २ पुण्यकार्य करवा लेती हैं, इसका परिचय पाठक सं० गुणराज के जीवन में देखे ।। ____ अनुक्रम से विहार करते हुए गच्छनायक सूरीश्वर अपनी साधु एवं शिष्य-मण्डली के सहित मेदपाटान्तर्गत देवकुलपाटक में पधारे और वहाँ श्रीमंत शिरोमणि सुश्रावक वत्सराज के पुत्र वीशल द्वारा आयोजित महामहोत्सव आप श्री की तत्वावधानता के साथ शुभ मुहूर्त में मुनिविशालराज को वाचकपद प्रदान किया। श्रे० वीशल ने में देवीशल और उसके भारी साधर्मिकवात्सल्य किया, विस्तारपूर्वक संघपूजा की और संघ को उत्तम पुत्र चंपक ने कई पुण्य कार्य पहिरामणी दी। तत्पश्चात् सूरीश्वर अपनी शिष्य-मण्डली के सहित मेदपाटप्रदेश के किये छोटे-बड़े ग्रामों में जैन-धर्म का उपदेश देते हुए विहार करने लगे । उक्त वाचकपदोत्सव की समाप्ति के पश्चात् श्रे, वीशल ने चित्तौड़ में श्री श्रेयांसनाथ-जिनालय का निर्माण करवाया और गच्छाधिपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के करकमलों से स्वभार्या खीमादेवी जो श्रे० रामदेव की पुत्री थी, के पुत्र श्रे० धीर, चम्पक सहित शुभ मुहूर्त में महामहोत्सव पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करवाई। श्रे० वीशल ने इस प्रकिष्ठोत्सव के शुभावसर पर पुष्कल द्रव्य दान एवं दया में व्यय किया था और बड़े २ सार्मिकवात्सल्य करके संघ की अपार भक्ति की थी। श्रे० वीशल कुछ ही समय पश्चात स्वर्ग को सिधार गया और उसके कार्य का भार उसके पुत्र श्रे० धौर और चम्पक पर पड़ा । चम्पक अधिक धर्म और पुण्यकार्यों का करने वाला हुआ। चम्पक ने माता की इच्छा Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ । :: प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय को तृप्त करने वाला एक विशाल जिनबिंब ६३ तिरानवे अंगुल मोटा करवा कर शुभमुहूर्त में चित्तौड़ के श्री श्रेयांसनाथ-जिनालय में प्रतिष्ठित करवाया तथा फिर आचार्यपदोत्सव का दूसरा समारम्भ रच कर गच्छनायक के करकमलों से पंडितवर्य श्रीमद् जिनकीर्तिवाचक को रिपद प्रदान करवाया। इसी अवसर पर प्राचार्य श्री सोमसुन्दरसूरि ने कितने ही मुनियों को पण्डितपद और कितने ही श्रावकों को दीक्षायें प्रदान की थीं। इन दोनों महोत्सवों में श्रे० चम्पक ने १७७ दूर २ के नगर, ग्रामों के संघों को कुकुमपत्रिकायें प्रेषित करके उनको निमंत्रित किया था । पुष्कल द्रव्य व्यय करके उसने भारी साधर्मिक-वात्सल्य किये, याचकों को बहु द्रव्य दान में दिया तथा प्रत्येक सधर्मी बंधु को तीन २ अमूल्य वस्तुयें भेंट में दीं और इस प्रकार अपने पिता के तुल्य कीर्ति प्राप्त करके कुल का गौरव बढ़ाया। श्रे. चंपक की विधवा माता सुश्राविका खीमादेवी ने पंचमी का उद्यापन किया। जिसमें उसके दोनों पुत्र श्रे० धीर और चंपक ने सुवर्ण, रत्न और रुपयों की भेंटें दीं और विशाल साधर्मिक वात्सल्य किया और अतिशय संघ-भक्ति की। तत्पश्चात् धर्म-मूर्ति चंपक ने सुगुरु श्रीमद् सोमसुन्दरमरि से समकितरत्न ग्रहण किया और इस हर्ष के उपलक्ष में दूर २ के संघों में प्रति घर पांच सेर अति स्वादिष्ट मोदक की लाहणी (लाभिणी) वितरित करवाई। श्री धरणाशाह के प्रकरण में आपश्री की अधिनायकता में श्री शत्रुजयतीर्थ की की गई संघयात्रा का वर्णन तथा श्रीराणकपुरतीर्थसंबन्धी यथासंभव अधिकतर वणन दे दिया गया है। यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि श्री राणकपुरतीर्थ-धरण- गच्छनायक ने देवकुलपाटक से विहार करके सं० रत्ना एवं धरणाशाह की विनती को मान विहार की प्रतिष्ठा देकर श्री राणकपुर की ओर विहार किया और श्री राणकपुर में पहुँच कर सं० धरणाशाह द्वारा विनिर्मित काष्ठमयी चौरासी स्तंभवाली पौषधशाला में आपश्री अपनी योग्य साधुमण्डली सहित विराजे और मंदिर के निर्माणकार्य का अधिकांश भाग अपनी उपस्थिति में विनिर्मित करवाया तथा वि० सं० १४६८ में फाल्गुण कृ. ५ शुभ मुहूर्त में उसको अति राजसी सज-धज एवं महाशोभाशाली विविध रचनायें करवा कर उसको प्रतिष्ठित किया और मूलगर्भगृह में चारों दिशाओं में अभिमुख चार विशाल श्री आदिनाथबिंबों की स्थापना की। उसी महोत्सव के शुभावसर पर श्री सोमदेववाचक को सूरिपद से अलंकृत किया। आपश्री के द्वारा किये गये सर्व कृत्यों का लेखन इतिहास में स्थानाभाव के हेतु कर भी नहीं सकते हैं, फिर भी विविध धर्मकृत्यों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: ___ देवकुलपाटक में देवगिरिवासी श्रीमंत श्रावक द्वारा आयोजित महामहोत्सव के साथ श्री मुनि रत्नशेखरवाचकवयं को सूरिपद प्रदान किया । श्रे० गुणराज के सुयोग्य पुत्र बाला ने चितौड़दुर्ग में कीर्तिस्तंभ के सामीप्य में चार विशाल देवकुलिकाबाला जिनालय विनिर्मित करवाया और उसमें उसने तीन जिनबिंबों की प्रतिष्ठा गच्छनायक भीमद् सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से महामहोत्सवपूर्वक पुष्कल द्रव्य व्यय करके करवाई। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि :: [३३३ श्री विजया नामक ठक्कुर ने कपिलवाटक में जिनालय बनवाया और उसमें आपश्री के कर-कमलों द्वारा श्री शांतिनाथबिंब की शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठा हुई। अहमदाबाद के बादशाह अहमदशाह का प्रीतिपात्र एवं अति प्रतिष्ठित श्रे० समरसिंह सोनी ने गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरमरि के सदुपदेश से श्री शत्रुजयमहातीर्थ की यात्रा की और वहाँ से श्री गिरनारतीर्थ की यात्रा को गया और पुष्कल द्रव्य व्यय करके महामात्य वस्तुपाल के जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया । श्रे० समरसिंह और बेदरनगर के नवाब के मानीता श्रे० पूर्णचन्द्र कोठारी ने श्री गिरनारतीर्थ पर जिनालय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के उपदेश से जिनकीर्तिसूरि ने की। __ गंधारवासी श्रे० लदोवा ने श्री गिरनारतीर्थ पर जिनालय बनवाया और गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि की आज्ञा से उसकी प्रतिष्ठा श्रीमद् सोमदेवसूरि ने की। मूजिगपुरवासी श्रे० मूट नामक सुश्रावक ने अगणित पीतल प्रतिमा और चौवीशी बनवाई और उनकी प्रतिष्ठा स्वयं आपश्री ने अति धूम-धाम से की। अणहिलपुरपत्तन में श्रे० श्रीनाथ अति प्रतिष्ठित एवं श्रीमंत सुश्रावक था । वह आपश्री का अनन्य भक्त था । आपश्री की अधिनायकता में उसने अपने परिवार सहित श्री शत्रुजयमहातीर्थ और गिरनारतीर्थ की स्मरणीय यात्रा की। श्रे० श्रीनाथ के सं० मण्डन, वच्छ, पर्वत, नर्बद और डूंगर पांच पुत्र थे। ये भी गुरुदेव के अनन्य भक्त थे। ये सज्जन पचन में रह कर सदा गुरु का यश बढ़ाने के लिये जैन धर्म की नित नवीन प्रभावना करते रहते थे। आप श्री महाप्रभावक थे। आप श्री के भक्तगण भी समस्त उत्तर भारत में फैले हुये थे। कुछ एक अनन्य भक्तगणों का परिचय तो यथाप्रसंग लिखा ही जा चुका है, जैसे मं० धरणा और रत्ना, संग्राम सोनी, संघवी गुणराज भादि और कुछ प्रसिद्ध भक्तों का नामोलेख नीचे दिया जाता है। १. अणहिलपुरपत्तन के यवन-अधिकारी का बहुमानीता श्रे० कालाक सौवर्णिक (सौनी) २. स्तंभतीर्थवासी लखमसिंह सौवर्णिक का पुत्र यशस्वी मदन तथा उसका भ्राता वीर, जिन्होंने अनेक बार तीर्थयात्रा की, अनेक भाचार्यपदोत्सव, प्रतिष्ठा आदि करवाये । ३. घोषानिवासी श्रे० वस्तुपति विरुपचन्द्र, जिन्होंने अनेक महोत्सव किये और तीर्थयात्रायें की। ४. पंचवारक देश के संघपति महुणसिंह, जिसने गुरुवर्य सोमसुन्दरसूरि के सदुपदेश से ऊंचा शिखरों वाला जैन प्रासाद करवाया, जिसकी प्रतिष्ठा श्रीमद् शीलभद्र उपाध्याय ने की थी। अतिरिक्त इनके भी गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के अनेक अनन्य भक्त थे, जो समस्त भारत भर में . फैले हुए थे । उस समय ऐसा शायद ही कोई प्रसिद्ध नगर होगा, जहाँ का अति प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, धर्मात्मा, . अग्रगण्य श्रावक आपका अनन्य भक्त नहीं रहा हो। आपश्री के सदुपदेश से समस्त उत्तर भारत के प्रसिद्ध नगरों में इतने अधिक संख्या में महामहत्वशाली पुण्यकार्य, जैसे संघयात्रायें, यात्रायें, तप-उद्यापन, सार्मिकवात्सल्य, अंजन-श्लाका-प्राणप्रतिष्ठायें, जीर्णोद्धार, नवीन-मन्दिरों का निर्माणकार्य आदि हुये कि आपश्री का समय आप के नाम के पीछे 'सोमसुन्दरयुग' कहा जाता है। जितने जैन-प्रतिमा-लेख आपके युग के भारत भर में Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] : प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय मिलते हैं, उनमें अधिकांश लेख आप श्री से ही संबंधित पाये जाते हैं । ऐसा संभवतः शायद ही कोई तीर्थ, नगर, ग्राम होगा; जहाँ प्राचीन दश-पाँच प्रतिमाओं में आप के कर-कमलों से या आप श्री के सदुपदेश से प्रतिष्ठित कोई प्रतिमा नहीं हो । आपश्री के गच्छनायकत्व से जैसी धर्मक्षेत्र में जाग्रति हुई, उसी के समकक्ष आप श्री की तत्त्वावधानता में साहित्यक उन्नति भी हुई। अनेक प्रमाण प्राप्त हैं कि आपश्री स्वयं शास्त्रों के पूर्णपंडित थे और आपश्री का शिष्य-परिवार एवं साधुमण्डल भी विद्वत्ता एवं पांडित्य में अपना अग्रगण्य स्थान रखता था । आपश्री की निश्रा में रहने वाले साधुगण शक्तिशाली लेखक, उपदेशक, वादी और ग्रंथकार थे । आपके अति तेजस्वी घरिशिष्यों में अग्रण्य (१) श्री मुनिसुन्दरसूरि, (२) 'कृष्णसरस्वती' विरुदधारक श्री जयसुन्दरसरि, (३) श्री भुवनमुन्दरसूरि, (४) श्री जिनसुन्दरसूरि थे, जिन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे और अनेक प्राचीन ग्रंथों की टीकायें कीं। स्वयं आप श्री ने गुजराती भाषा में-(१) योगशास्त्र-बालावबोध, (२) उपदेशमाला-बालावबोध, (३) षड़ावश्यकवालावबोध, ४ नवतत्त्व-बालावबोध, ५ चैत्यवंदन, ६ भाष्यावचूरि, ७ कल्याणस्तव, ८ नेमिनाथ-नवरसफाग, आराधनापताका बालावबोध, १० षष्ठिशतक बालावबोध, नामक ग्रन्थ लिखे हैं तथा ११ चउशरणपयन्ना पर संस्कृत में अवचूरि और अन्य विविध स्तवनों की रचना की । वि० सं०१४६७ में उन्होंने अष्टादशस्तवी लिखी, जिस पर उनके शिष्य सोमदेव ने अवचूणि लिखी । १३ सप्तति पर अवचूर्णि, १४ आतुरप्रत्याख्यान पर अवचूर्णि आदि छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थ बनाये । - आपश्री के शिष्य-प्रशिष्यों में प्रसिद्ध साहित्यसेवी सर्वश्री मुनि १ विशालराज, २ उदयनन्दी, ३ लक्ष्मीसागर, ४ शुभरत्न, ५ सोमदेव, ६ सोमजय आदि आचार्य ७ जिनमण्डन, ८ चारित्ररत्न, ह सत्यशेखर, १० हेमहंस, ११ पुण्यराज, १२ विवेकसागर, १३ राजवर्धन, १४ चरित्रराज, १५ श्रुतशेखर, १६ वीरशेखर १७ सोमशेखर, १८ ज्ञानकीर्ति, १६ शिवमूर्ति, २० हर्षमूर्ति, २१ हर्षकीर्ति, २२ हर्षभूषण, २३ हर्षवीर, २४ विजयशेखर, २५ अमरसुन्दर, २६ लक्ष्मीभद्र २७ सिंहदेव, २८ रत्नप्रभ, २६ शीलभद्र, ३० नंदिधर्म, ३१ शांतिचन्द्र, ३२ तपस्वी विनयसेन, ३३ हर्षसेन, ३४ हर्षसिंह आदि वाचक-उपाध्याय पण्डित थे। आप श्री के परिवार में १८०० साधु थे। आपश्री के युग में प्राचीन ग्रन्थों का लिखना और उनका संग्रह करना अत्यावश्यक कर्तव्य समझा जाता था। प्राचीन ग्रन्थ अधिकतर ताड़पत्र पर ही लिखे हुए होते थे। आपश्री के युग में आपश्री के शिष्य एवं साधु-मण्डल ने और अन्य गच्छाधिपति एवं उनके विद्वान् आचार्य, साधु, वाचक, पंडित शिष्यों ने कागज पर लिखने का अति ही भगीरथ एवं विशेष व्यापक प्रयास किया। राजपूताना और गुजरात के सर्व ज्ञान-भंडारों के ग्रन्थों को जो ताड़पत्र पर थे कागज पर लिख डाले गये। खंभात के प्रसिद्ध ज्ञान-भण्डार के सर्व ग्रन्थों को तपागच्छीय आचार्य देवसुन्दर और सोमसुन्दरसरि के शिष्य एवं साधु-मण्डली ने कागज पर लिखे। सं० १४७२ में खंभातवासी मोदज्ञातीय श्रे० पर्वत ने पुष्कल द्रव्य व्यय करके आपश्री के कर-कमलों से ग्यारह मुख्य अंगों को कागज पर लिखवायें। सांडेरानिवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० मंडलिक ने श्रीमद् जयानंदसूरि के सदुपदेश से अनेक पुस्तकों का लेखन कागज पर करवाया । आपश्री के सदुपदेश से ताड़-पत्र पर भी लिखे हुये कई ग्रन्थ पत्तन के भंडार में मिलते हैं। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि :: [३३५ आपश्री के समय में आपश्री के प्रभाव एवं प्रताप, सहाय, योग, लगन, तत्परता से जो धर्मोन्नति एवं साहित्योन्नति हुई वह स्वर्णाक्षरों में उपलब्ध है और वह काल सोमसुन्दर-युग' कहा जाता है तो उचित ही है । ऐसे प्रतापी राजराजेश्वरमान्य सूरिसम्राट् प्रातः स्मरणीय गच्छपति का स्वर्गवास वि० सं० १४६६ में हुआ और वह अभाव आज तक अपूर्ण ही रहा ।१ तपागच्छाधिराज श्रीमद् हेमविमलसूरि दीक्षा वि० सं० १५३८. स्वर्गवास वि० सं० १५८४ मरुधर प्रान्तान्तर्गत बड़ग्राम में विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि गंगराज२-३ रहता था। उसकी स्त्री गंगाराणी थी। वि० सं० १५२२ कार्तिक शु० १५ को उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति वंश-परिचय और दीक्षा हुई और उसका नाम हादकुमार रक्खा गया। हादकुमार बचपन से ही विरक्तभावुक था। तथा प्राचार्यपद सोलह वर्ष की वय में तपागच्छाधिपति श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि के कर कमलों से उसने वि० सं० १५३८ में दीक्षा ग्रहण की । उसका नाम हेमधर्ममुनि रक्खा गया । हेमधर्ममुनि प्रखरबुद्धि और गंभीर विद्याभ्यासी थे। आपने थोड़े वर्षों में ही अनेक ग्रंथों का अच्छा अध्ययन कर लिया। आपकी विद्वत्ता से प्रसन होकर श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टालंकार श्रीमद् सुमतिसाधुसरि ने महामहोत्सव पूर्वक पंचालसग्राम में कि सं० १५४८ में श्रापको आचार्यपद प्रदान किया। यह उत्सव श्रीमालज्ञातीय श्रेष्ठि पाताक ने किया था। हेम. विमलसूरि आपका नाम रक्खा गया । वि० सं० १५५० में देवदर के स्वप्नानुसार खंभात के संघ के साथ में आपने शत्रुजयतीर्थ की यात्रा की । वि० सं० १५५२ में खंभात में श्रेष्ठि सोनी बीवा, जागा द्वारा आयोजित प्रतिष्ठोत्सव-कार्य महामहोत्सव पूर्वक किया तथा उसी अवसर पर मुनि दानधीर को सूरिपद प्रदान किया । प्राचार्य दानधीर छः माह जीवित रह कर स्वर्गस्थ हो गये । हेमविमलमूरि कठोर तपस्वी और शुद्ध साध्वाचारी थे। उस समय में साध्वाचार अति शिथिल पड़ चुका था। अनेक महातपस्वी विद्वान् आचार्य शिथिलाचार को नष्ट करने का प्रयत्न कितने ही वर्षों से करते आ रहे थे। आपने शिथिलाचार को नष्ट करने का एक प्रकार से संकल्प किया । आपकी निश्रा में जो साधु शिथिलाचारी थे और शुद्ध साध्वाचार पालने में असमर्थ एवं अयोग्य रहे, आपने उनको संघ से बहिष्कृत कर दिया। श्राप निःस्पृही एवं अखण्ड ब्रह्मचारी थे। वि० सं० १५५२ में आपने क्रियोद्धार किया और वि० सं० १५५६ में ईडरनगर में आपको गच्छनायकपद से संघ ने अलंकृत किया। गच्छनायक-पदोत्सव कोठारी सायर और श्रीपाल ने बड़े धूम-धाम से बहुत द्रव्य व्यय करके किया था। ईडर-नरेश रायभाण आपका प्रशंसक का । उसने भी इस महोत्सव में सराहनीय भाग लिया था। १-सौमसौभाग्य काव्य २-जै० सा० सं इतिः पृ० ४५१ से ४७१। तपागच्छपट्टावली सूत्रम् प०स०। २-ऋषभदेव कृत हीरसरिरास पृ० २६५ पर लिखा है कि ये प्राग्वाटज्ञातीय थे। ३-वीर वंशावली। २-जैन गुर्जर क० भा०२ पृ०७२३ (टि५ ५५) ७४३,७४४।३०प००२०२ .. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] : प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय लालपुर का ठक्कुर श्रेष्ठि थिरपाल जो प्राग्वाटज्ञातीय था, आपका बड़ा भक्त था। उसने हेमविमलसरि का वि० सं० १५६३ में लालपुर चातुर्मास करवाया और समस्त व्यय उसने ही किया तथा गुरु के उपदेश से उसने एक जिनालय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा महोत्सवपूर्वक गुरु के हाथों सुरिमंत्राराधना करवाई। इसी अवसर पर हेमविमलसरि ने सरिमन्त्र की भी आराधना की थी। वि० सं० १५७० में डाभिला नामक ग्राम में आपश्री ने विद्वान् एवं प्रखर तेजस्वी मुनि श्रानंदविमल को प्राचार्यपद प्रदान किया । इस महोत्सव का व्यय खंभात के सोनी जीवा जागा ने बड़ी भाव-भक्तिपूर्वक किया । श्रेष्ठि आनंदविमल मुनि को थिरपाल आनंदविमलसूरि का बड़ा भक्त था। आचार्यपद के दिलाने में उसने अधिक प्राचार्यपद प्रयत्न और श्रम किया था। आप शुद्ध साध्वाचार के पोषक एवं पालक थे। आपश्री ने अपने जीवन में जिन २ को साधु-दीक्षा दी अथवा वाचक, उपध्याय, पंडितपद प्रदान किये, उनकी साध्वाचार की दृष्टि से पूरी परीक्षा लेकर ही उनको उनकी योग्यतानुसार पद प्रदान किये थे। वि० सं० १५७२ में आप विहार करते हुए कर्पटवाणिज्य अर्थात् कपड़वंज नामक ग्राम में पधारे । वहाँ के संघ ने आपका प्रवेशोत्सव अत्यन्त वैभव एवं शोभा के साथ में किया। इस समय अहमदाबाद में महमूदकपड़वंज ग्राम में प्रवेशो- बेगड़ा का पुत्र मुजफ्फर द्वितीय बादशाह था। उसने जब इस शाही प्रवेशोत्सव के त्सव और बादशाह को ईर्ष्या विषय में अत्यन्त प्रसंशायें सुनी तो उसने मरिजी को बंदी करने की आज्ञा दी । मूरिजी बादशाह का प्रकोप श्रवण करके सोजीत्रा होते हुये खंभात पहुँच गये। बादशाह के कर्मचारियों ने सूरिजी को वहाँ बंदी बना लिया। संघ से बारह हजार रुपिया लेकर उनको पुनः मुक्त किया। सूरिजी ने सरि-मंत्र का आराधन किया और उन्होंने पं० हर्षकुलगणि, पं० संघहर्षगणि, पं० कुशलसंयमगणि और शीघ्रकवि पं० शुभशीलगणि को बादशाह मुजफ्फर की राज-सभा में भेजे। बादशाह उस समय चांपानेरदुर्ग में था। ये चारों राजसभा में पहुँचे और बादशाह को अपनी विद्वत्ता एवं काव्यशक्तियों से मुग्ध किया। बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया और बारह हजार रुपयों को वापिस खंभात के संघ को लौटाने की आज्ञा दी तथा हेमविमलसूरि को वंदना लिख कर भिजवाई। - वि० सं० १५७८ में आपने पत्तन में चातुर्मास किया तथा तत्पश्चात् दो चातुर्मास वहाँ और किये । श्रे० दो० गोपाक ने आपश्री के द्वारा जिनपट्ट प्रतिष्ठित करवाये । खंभात में प्रतिष्ठोत्सव किया तथा विद्यानगर में को० सायर श्रीपाल अन्य प्रतिष्ठितकार्य और द्वारा विनिर्मित चैत्यादि की प्रतिष्ठा की। हेमविमलसरि की व्याख्यानकला अमित आपकी शुद्ध क्रियाशीलता प्रभावक थी। आपके सहवास का भी अन्य साधु एवं मुनियों पर भी भारी प्रभाव पड़ता का प्रभाव था। अन्य मतानुयायी साधु भी आपकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे । लुकामतानुयायी ऋषि हाना, ऋषि श्रीपति, ऋषि गणपति ने अपना मत छोड़ कर हेमविमलसरि की निश्रा में शुद्धसाध्वाचार ग्रहण किया था। आपने अपने जीवन में ५०० साधु-दीक्षायें दी थीं। जै० गु० क० भा०२ पृ० ७४३ जै० ए०रा० माना० भा०१ पृ० ३२,३३. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि: [३६७ हेमविमलसूरि की निश्रा में रहने वाले साधु शुद्ध साध्वाचारी एवं प्रखर पंडित और शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। आपके शिष्य-समुदाय ने अनेक नवीन ग्रंथ, धूशियाँ, कथापुस्तकें संस्कृत-प्राकृत-भाषाओं में लिखी हैं। जिनमाणिक्यमुनि, हर्षकुलगणि आदि आपके प्रखर विद्वान् शिष्य थे। आपके शिष्यहभावमल शाखा वर्ग की विशेषता शुद्ध साध्वाचार की थी; अतः आपके नाम पर विमलशाखा पड़ गई। आपके साधुओं को लोग विमलशाखीय कह कर ही संबोधित करते थे। आपके समय में तपगच्छ में कुतुबपुरा, कमलकलशा और पालणपुरा ये तीन शाखायें और पड़ीं । संक्षेप में कि आपके समय में शुद्ध साध्वाचार का पालन करने के पक्ष में बड़े २ प्रयत्न हुये और फलतः कई एक शुद्धाचारी मतों की उत्पत्ति भी हुई। कडवामती नाडूलाईवासी नागरज्ञातीय कडूवा नामक व्यक्ति का वि० सं० १५१४ में १६ वर्ष की वय में अहमदाबाद के आगमीया पन्यास हरिकीर्ति से मिलाप हुआ । कडूवा का मन शास्त्राभ्यास करके साधुदीक्षा ग्रहण करने का हुआ, परन्तु गुरु के मुख से यह श्रवण करके कि वर्तमान में शास्त्रोक्त विधि से साधु-दीक्षा पल सके संभव नहीं है; अतः उसने साधुध्यान में श्रावक के वेष में ही साधुभावपूर्वक रहकर विहार करना प्रारम्भ किया। उसने वि० सं० १५६२ में कडकमत की स्थापना की और इस प्रकार त्रयस्तुतिकमत की आगमोक्त प्रथा का पुनः प्रादुर्भाव किया । बीजामती वि० सं० १५७० में बीजा ने लुकामत का त्याग करके अपना अलग शुद्धाचार के पालन करने में तत्पर रहने वाला मत स्थापित किया और वह मत बीजामत कहलाया ।* पार्श्वचन्द्रगच्छ वि० सं० १५७२ में तपागच्छीय नागोरीशाखीय श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसरि ने शुद्ध साध्वाचार के पालन करने वाले पार्श्वचन्द्रगच्छ की स्थापना की । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हेमविमलसरि का समय शुद्धसाध्वाचार के लिये की गई क्रांति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।* वि० सं० १५८३ में हेमविमलसरि का चातुर्मास विलासनगर में था। सूरि आनन्दविमल को आपने वटपल्ली से बुलवा कर गच्छभार संभलाना चाहा, लेकिन उन्होंने अस्वीकार किया। अंत में सौभाग्यहर्षमुरि को गच्छभार सौंपा और इस प्रकार शुद्धाचार का पालन करते हुये तथा प्रचार करते हुये स्वर्गारोहण आप वि० सं० १५८४ आश्विन शु०१३ को स्वर्गवासी हुये । आपने 'सूयगडांगसूत्र' पर दीपिका और 'मृगापुत्र-चौपाई' (सज्झाय) लिखी। जै० गुरु क० मा० २०७४३,७४४। जै० सा० सं० इति० ० ५१७-१८-१६, ५०६ जै० गु० ० भा० ३ खं०१० ५.३ (६५)। जै० ए०रा० मा०.०३२ (टिप्पणी)। त० श्रवंश-वृत " 'तदानौ वि० द्वाषष्ठयधिक पंचदशशत १५६२ वर्षे "सम्प्रति साधवो न दृग्पथमायाती" त्यादिपरूपण एकुटुकनाम्नो गृहस्थात् त्रिस्तुतिकमतवासितोत् कटुकनाम्ना मतोल चि॥ तथा वि० सात्यधिपचदशशत १५७० वर्षे ल कामतानित्य बाजास्यवेषीत Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] ..... : प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय तपागच्छीय श्रीमद् सोमविमलसूरि गणिपद वि० सं० १५६०. स्वर्गवास वि० सं० १६३७ खंभात के समीप में कंसारी नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय वृद्ध मंत्री समघर के परिवार में मंत्री रूपचन्द्र की स्त्री अमरादेवी की कुषि से वि० सं० १५७० में एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ । अल्पवय में ही उसने हेमविमलवंश-परिचय, दीक्षा और सूरि के करकमलों से अहमदाबाद में दीक्षा ग्रहण की और सोमविमल नाम धारण प्राचार्यपद किया। दीक्षा-महोत्सव सं० भूभच जसदेव ने बड़ी धूम-धाम से सम्पन्न किया था । कुशाग्रबुद्धि होने के कारण आपने थोड़े वर्षों में ही शास्त्रों का अच्छा अभ्यास कर लिया और व्याख्यानकला में भी निपुणता प्राप्त करली । फलस्वरूप आपको खंभात में सं० १५६० फा. कृ. ५ को प्राग्वाटज्ञातीय कीका द्वारा आयोजित महोत्सवपूर्वक गणिपद प्राप्त हुआ। वि० सं० १५६४ फा० कृ. ५ को शिरोही में गांधी राणा जोधा द्वारा आयोजित महामहोत्वपूर्वक श्रीमद् सौभाग्यहर्षसूरि ने आपको पंडितपद प्रदान किया। तत्पश्चात् आपने अजाहरी में शारदा की आराधना की और शारदा को प्रसन्न करके उससे वर प्राप्त किया। वहाँ से विहार करके आप गुरु के साथ में विद्यापुर आये। विद्यापुर में आपको जनमेदनी के समक्ष वि० सं० १५६५ में वाचकपद से अलंकृत किया गया। श्रेष्ठि दो तेजराज मांगण ने उत्सव में बहुत द्रव्य व्यय किया था। विद्यापुर से विहार करके आप वि० सं० १५६७ में अहमदाबाद आये । अहमदाबाद में श्रीमद् सौभाग्यहर्षसरि ने आपको सरिपद प्रदान किया। चतुर्विधसंघ के अधिनायक रूप से आपश्री ने तीर्थों की कई वार यात्रायें की थीं। कुछ एक का यथाप्राप्त संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है । _ विद्यापुरनिवासी दो० तेजराज मांगण ने वि० सं० १५६७ में ही आपश्री के साथ में अनेक ग्रामों के संघों के सहित चार लक्ष रुपयों का व्यय करके प्रमुख तीर्थों की संघयात्रा की थी। इस संघ में भिन्न २ गच्छों के अन्य ३०० साधु सम्मिलित हुये थे। वि० सं० १५६६ में आपका चातुर्मास अणहिलपुरपत्तन में हुआ। वि० सं० १६०० में पत्तन के श्री संघ ने आपश्री के साथ में विमलाचल और रैवंतगिरितीर्थों की यात्रा की । उक्त यात्रा के पश्चात् श्राप विहार करते हुए दीवबंदर पधारे और वहाँ वि० सं० १६०१ चै० शु: १४ को अभिग्रह धारण किया। अभिग्रह के पूर्ण होने पर आपश्री शजय की यात्रा को पधारे। शत्रुजय की तृतीय यात्रा करके आप विहार करते हुये धौलका, खंभात जैसे प्रसिद्ध नगरों में होते हुए गच्छाधीशपद की प्राप्ति कान्हमदेश में वणछरा नामक ग्राम में पधारे। वहाँ आपने आणंदप्रमोद मुनि को "बोजामती" नाम्ना मतं प्रवर्तितं तथा वि० द्विसप्तत्यधिकपंचदशशत १५७२ वर्षे नागपुरीय तपागणानिर्गत्य उपाध्यायपाशवचन्द्रेश स्वनाम्ना मतं प्रादुष्कृतमिति' ॥१॥ त०५० स० पृ० ६७,६८, ६६ (तपा० पट्टावली) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक प्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमविमलसूरि :: [३३६ वाचकपद प्रदान किया । वणछरा के श्रीसंघ ने श्री वाचकपदोत्सव बड़ी ही शोभा और समृद्धि से सम्पन्न किया था। वणछरा से विहार करके आपश्री आम्रपद (ग्रामोद) नामक नगर में पधारे। वहाँ पर श्रे० सं० मांडण द्वारा आयोजित उत्सवपूर्वक मुनि विद्यारत्न और विद्याजय को आपने बिबुध की पदवी प्रदान की । वि० सं० १६०२ में आपका चातुर्मास अहमदाबाद में, वि० सं० १६०३ में बागड़देश के गोलनगर में, वि० सं० १६०४ में ईडर में और तत्पश्चात् वि० सं० १६०५ में आपका चातुर्मास खंभात में हुआ। वि० सं० १६०५ माघ शु. ५ को श्री संघ ने आपको खंभात में बड़ा भारी महोत्सव करके भारी जनसमूह के समक्ष गच्छाधीशपद से अलंकृत किया। वि० सं० १६०८ में आपने चातुर्मास राजपुर में किया और वि० सं० १६०६ में हबिदपुर में किया । हबिदपुर में आपने मासकल्प किया था । वि० सं० १६१० में आपका चातुर्मास अणहिलपुरपत्तन में हुआ । पत्तन अन्य चातुर्मास और गच्छ में आपश्री ने वि० सं० १६१० वै० शु० ३ को चौठिया अमीपाल द्वारा कारित की विशिष्ठ सेवा प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। वि० सं० १६१७ में आपका चातुर्मास अक्षयदुर्ग नामक नगर में हुआ। आश्विन शु. १४ को आपने वहाँ अशुभसूचक शकुन देख कर संघ को चेताया कि दुर्ग का भंग होगा। आपकी बात को स्वीकार करके संघ ने आपके सहित हाथिलग्राम में कुछ दिनों के लिये निवास किया। वहाँ से थोड़े अंतर पर हुँडप्रद नामक ग्राम में मरकी का प्रकोप उठा । आपश्री हुँडप्रद पधारे और मरकीरोग का निवारण किया । वि० सं० १६१६ में आपका चातुर्मास पुनः खंभात में हुआ और सं० १६२० में दरबार नामक ग्राम में हुआ । वहाँ से विहार करते हुये आप अनेक नगरों में विचरे और संघों का रोग, भय दूर करते हुये धर्म का प्रभाव फैलाते रहे । वि० सं० १६२३ में आपका चातुर्मास अहमदाबाद में था। वहाँ आपने छः विगय का अमिग्रह लिया और उनको पूर्ण किया। ____ इस प्रकार धर्म-प्रचार और गच्छ की प्रतिष्ठा बढ़ाते हुये वि० सं० १६३७ मार्गशिर मास में आपका स्वर्गवास हो गया । आपने अपने करकमलों से लगभग २०० दो सौ साधु-दीक्षायें दी और अनेक जिनबिंबों की स्वर्गारोहण और आपका प्रतिष्ठायें की । आपको अनेक पदवियाँ जैसे अष्टावधानी, इच्छालिपिवाचक, महत्व वर्धमानविद्यासरिमंत्रसाधक, चौर्यादिभयनिवारक, कुष्ठादिरोगनिवारक, कल्पसूत्रटबार्थादिबहुसुगम-ग्रन्थकारक, शतार्थविरुदधारक प्राप्त थीं। आपकी लिखी हुई कुछ प्राप्त कृतियों के नाम निम्न प्रकार है :१-श्रेणिकरास-जिसको आपने सं० १६०३ में लिखा था। २-चंपकवेष्ठिरास-जिसको आपने विराटनगर में सं० १६२२ श्रावण शु०७ को लिखा था। ३-क्षुल्लककुमाररास-जिसको आपने अहमदाबाद में वि० सं० १६३३ भाद्र कृ. ८ को लिखा था। ४–धम्मिलकुमाररास, ५ कल्पसूत्र-बालबोध, ६ दक्षदृष्टान्त-गीता आदि । जै० गु०क० भा० २०७४५ पर आपका दीक्षा सं०१५७४ लिखा है। मुझको यह प्रमात्मक प्रतीत होता है। खं० प्रा० ० इति० पृ०६५. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय तपागच्छीय श्रीमद् कल्याणविजयगणि दीक्षा वि० सं० १६१६. स्वर्गवास वि० सं० १६५५ के परचाव गूर्जरभूमि में पलखड़ी नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० आजड़ रहता था। उसका पुत्र जीधर था। जीधर ने संघयात्रा की थी; अतः वह संघवी कहलाता था। सं० जीधर के दो पुत्र थे। दोनों पुत्रों में राजसी वंश-परिवार और प्रसिद्ध अधिक उदार और गुणवान् हुआ। राजसी का पुत्र थिरपाल अति प्रख्यात पुरुष पुरुष थिरपाल हुआ । अहमदाबाद में इस समय मुहम्मद बेगड़ा राज्य करता था। वह थिरपाल पर अधिक प्रसन्न था । श्रे० थिरपाल को उसने लालपुर की जागीर प्रदान की थी । थिरपाल ने तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि के सदुपदेश से वि० सं० १५६२ में एक जिनमन्दिर बनाया था । वि० सं० १५७० में हेमविमलसरि ने थिरपाल के अत्याग्रह से मुनि आनन्दविमल को डाभिलाग्राम में सूरिपद प्रदान किया था। सूरिपदमहोत्सव में थिरपाल ने व्यवस्थासंबंधी पूर्ण भाग लिया था। उसी अवसर पर बिम्बप्रतिष्ठोत्सव भी भारी धूम-धाम से किया गया था। थिरपाल के छः पुत्र थे-मोटा, लाला, खीमा, भीमा, करमण और धरमण । छः ही भ्राताओं ने संघयात्रायें की और वे संघपति कहलाये। __ थिरपाल के चौथे पुत्र संघवी भीमा के पांच पुत्र हुये-सं० हीरा, सं० हरषा, सं० विरमाल, सं० तेजक और एक और । सं० भीमा ने चारों पुत्रों का विवाह करके उनको अपनी जीवितावस्था में ही अलग २ कर दिया कल्याणविजयजी का जन्म और फिर दोनों स्त्री पुरुष स्वर्ग सिधारे । सं० हरषा की स्त्री पूजी की कुक्षि से वि० और दीक्षा सं० १६०१ आश्विन कृ० ५ सोमवार को एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम ठाकुरसी रक्खा गया । छः वर्ष की वय में ठाकुरसी को पढ़ने के लिये पाठशाला में भेजा गया। एक समय जगद् गुरु हीरविजयसूरि का लालपुर में शुभागमन हुआ । ठाकुरसी के कुटुम्बीजन हीरविजयसूरि के भक्त थे। उन्होंने प्राचार्यजी का स्वागतोत्सव बड़े धूम-धाम से किया। ठाकुरसी उस समय योग्य अवस्था को पहुँच गया था। हीरविजयसूरि की वैराग्यभरी देशना श्रवण कर उसके हृदय में वैराग्यभावनायें उत्पन्न हो गई। माता, पिता और परिजनों ने ठाकुरसी को बहुत समझाया, लेकिन उसने एक की नहीं सुनी। अंत में थक कर सबने उसको दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। इस अन्तर में आचार्य हीरविजयसूरि महेसाणा (महीशानक) नगर को पधार गये थे । ठाकुरसी अपने माता, पिता को साथ लेकर अपने नाना चंपक के घर, जो महेसाणा में ही रहते थे आया । श्रे० चंपक ठाकुरसी की माता पूजी का पिता था। श्रे० चंपक के दो पुत्र सोमदत्त और भीमजी थे। दोनों ही प्राताओं का अपनी बहिन और भाणेज ठाकुरसी पर अगाध प्रेम था। ठाकुरसी को उन्होंने भी बहुत समझाया । परन्तु जब ठाकुरसी ने किसी की नहीं मानी; तब सोमदत्त और भीमजी ने दीक्षामहोत्सव का आयोजन अपने व्यय से किया और बहुत धूम-धाम से वि० सं० १६१६ वैशाख कृ. २ को ठाकुरसी को जगद्गुरु श्रीमद् हीरविजयसरि ने दीक्षा प्रदान की और मुनि कल्याणविजय आपका नाम रक्खा । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड ] : श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक प्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् कल्याणविजयगणि:: [३४१ जगद्गुरु हीरविजयसरि लालपुर से विहार कर अन्यत्र पधारे । मुनि कल्याणविजय भी उनके साथ में विहार करने लगे। वि० सं० १६२४ तक आपने वेद, पुराण, तर्कशास्त्र, छंदग्रंथ और चिंतामणि जैसे प्रसिद्ध ग्रंथों का स्वाध्याय और वाचकपद की अध्ययन करके अच्छी योग्यता प्राप्त करली । हीरविजयसूरि ने आपको सब प्रकार से प्राप्ति योग्य समझ कर वि० सं० १६२४ फाल्गुण कृ. ७ को अणहिलपुरपत्तन में महामहोत्सव पूर्वक उपाध्यायपद प्रदान किया । उपाध्याय कल्याणविजयजी व्याख्यानकला में अति निपुण थे। इनकी सरस और सरल भाषा में कठिन से कठिन विषयों को श्रावकगण अच्छी प्रकार समझ जाते थे । सरस व्याख्यानकला के कारण उपाध्याय कल्याणअलग विहार और धर्म की विजयजी की ख्याति अत्यधिक प्रसारित होने लगी। ये भी ग्राम २ भ्रमण करके सेवा धर्मप्रचार करने लगे । जहाँ जहाँ ये गये, वहाँ उग्रतप और बिम्ब-प्रतिष्ठायें अधिक संख्या में हुई। खंभात और अहमदाबाद में बिम्ब-प्रतिष्ठा करवा कर गुरु महाराज के आदेश से बागड़ और मालवप्रान्त में इन्होंने भ्रमण करना प्रारंभ किया । मुँडासा नामक ग्राम में इन्होंने ब्राह्मण पंडितों को वाद में परास्त किया । वहाँ से आपने बागड़देश में अंतरिक्षप्रभु की यात्रा की। कीका भट ने आपके व्याख्यान से रंजित होकर एक जिनालय बनवाया और उपाध्यायजी ने उपरोक्त मन्दिर की प्रतिष्ठा जगद्गुरु हरिविजयहरि के करकमलों से बड़ी सज-धज के साथ करवाई। वहाँ से विहार करके आप अवन्ती पधारे। वहाँ आप में और स्थानकवासी साधुओं में वाद हुआ । वाद में आपकी जय हुई और वहाँ आपने चातुर्मास किया। ___ अवंती से विहार करके आप भारी संघ से श्री मक्षीजीतीर्थ की यात्रा को पधारे । श्रे० सोनपाल ने इस संघ में भारी व्यय किया था। उसने मक्षीतीर्थ में साधर्मिकवात्सल्य किया और उपाध्यायजी की सुवर्ण से पूजा की । तत्पमतीतीर्थ की यात्रा र थात् संघ के समक्ष श्रे० सोनपाल ने अपनी अन्तिम अवस्था जानकर उपाध्यायजी सोनपाल की दीक्षा और महाराज से उसको दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। उपाध्यायजी ने श्रे० सोनपाल उनका स्वर्गारोहण को महामहोत्सव पूर्वक दीक्षा प्रदान की और उसका मुनि सोनपाल ही नाम रक्खा। दीक्षा ग्रहण करते ही मुनि सोनपाल ने उपाध्याय महाराज साहब से अनशनव्रत ग्रहण किया। इस व्रत का महोत्सव श्रे० नाथूजी ने किया था । नव दिन अनशन करके मुनि सोनपाल स्वर्ग गये । ___मक्षीतीर्थ से आप सारंगपुरक्षेत्र की यात्रा करते हुये मण्डपदुर्ग (मांडवगढ़) पधारे और वहाँ आपने चातुमास किया । मांडवगढ़ से चातुर्मास के पश्चात् आप अनेक श्रावक, श्राविकाओं के सहित बड़ी धूम-धाम से अन्यत्र विहार और सूरी- वडवाण पधारे। इस यात्रा का व्यय श्रे० भाईजी, सींघजी और गांधी तेजपाल श्वर का पत्र ने किया था । वड़वाण में बावनगजी जिनप्रतिमा के दर्शन करके आपने खानदेश की ओर विहार किया और बुरहानपुर में आपने चातुर्मास किया। चातुर्मास के पश्चात् बुरहानपुर के श्रेष्ठि भानुशाह ने उपाध्यायजी महाराज की तत्त्वावधानता में अंतरिक्षतीर्थ के लिये संघयात्रा निकाली । अंतरिक्षतीर्थ की यात्रा करके आप देवगिरि पधारे और वहाँ ही आपका चातुर्मास हुआ । देवगिरि से आप प्रतिष्ठानपुर (पेठण) पधारे । यहाँ आपको जगद्गुरु हीरविजयसूरि का मरुधरप्रान्त से पत्र मिला कि तुरन्त विहार करके इधर आवे; क्योंकि उनको दिल्ली जाने के लिये सम्राट अकबर बादशाह का निमंत्रण प्राप्त हो चुका था। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] प्राग्वाट-इतिहास: (तृतीय : प्रतिष्ठानपुर से आपने तुरन्त मारवाड़ की ओर विहार किया और सादड़ी में जाकर जगद्गुरु के दर्शन किये । परीश्वर ने उपाध्यायजी से कहा कि विजयसेनमुनि को सूरिपद दिया गया है। अतः उनकी आज्ञा में सूरीश्वर से भेंट और विराट-, चलना और गूर्जरभूमि में विहार करके धर्म की प्रभावना करना, जिससे शासन की नगर में प्रतिष्ठा सेवा होगी और गच्छ का गौरव बढ़ेगा। तत्पश्चात् हीरविजयसूरि ने दिल्ली की ओर प्रयाण किया । उपाध्याय कल्याणविजयजी गुरु के दिल्ली से लौटने तक मारवाड़ में ही विहार करते रहे । जगद्गुरु हीरविजयसूरि सम्राट अकबर से मिलकर, भारी संमान प्राप्त करके लौटे और नागोर में पधारे । उपाध्यायजी महाराज भी नागोर पहुँचे और गुरु के दर्शन करके तथा दिल्ली राज-दरबार में मिले संभान को श्रवण करके अत्यन्त प्रसन्न हुये । नागोर में विराटनगर के शाही अधिकारी संघपति इन्द्रराज ने आकर जिनालय की प्रतिष्ठा करने की विनती की । गुरुमहाराज ने उपाध्याय कल्याणविजयजी को विराटनगर में जिनालय की प्रतिष्ठा करवाने की आज्ञा दी। संघपति अत्यन्त प्रसन्न हुआ और जब उपाध्याय श्री का विराटनगर में आगमन हुआ तो उसने भारी महोत्सव करके उनका नगर-प्रवेश करवाया । शुभमुहुर्त में प्रतिष्ठाकार्य करके मूलनायक विमलनाथ प्रभु की प्रतिमा स्थापित की तथा सं० इन्द्रराज ने अपने पिता भारहमल के भेयार्य श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा और पुत्र अजयराज के श्रेयार्थ श्री आदिनाथप्रभु की और मुनिसुव्रतस्वामी की प्रतिमायें उपाध्यायजी के पवित्र कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। सं० इन्द्रराज ने बहुत द्रव्य व्यय करके संघ की पूजा की और साधर्मिक-वात्सल्य किया । विराटनगर से विहार करके आप गूर्जरभूमि में पधारे । खंभातवासी सं० उदयकरण ने वि० सं० १६५५ मार्ग क० २ सोमवार को श्रीमद् विजयसेनसरि द्वारा सिद्धाचल पर श्रीमद् विजयहीरसूरिजी की पादुका स्थापित करवाई, उस समय आप भी उपस्थित थे। धर्म की इस प्रकार प्रभावना करते हुये योग्य अवस्था प्राप्त करके इन्हीं दिनों में आप स्वर्ग को पधारे । आपके प्रशिष्य-शिष्य उपा. यशोविजयजी वर्तमान युग में प्रसिद्ध महाविद्वान् हुये हैं ।। १-जै० ऐ० रासमाला पृ० ३२ (कल्याणविजयगणि) 1- " , पृ० २१४ (कल्याणविजयगणि नो रास) शिष्य-परंपरा:जगद्गुरु हीरविजयसूरि उपाध्याय कल्याणविजय पं० लाभविजयगणि जीतविजय नवविजय उपाध्याय यशोविजय ४-D.C. M. P. (G. O. S. Ve. No. CXVI.) P.1 (नयचक्र की पत्तन-भंडार की पुस्तक के प्रारम्भ में) ५-श्री यशोविजयकृत ३५० गाथा की प्रशस्ति के आधार पर ६-जै० गु० क० भा०२० २०, २१ (२६०) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् विजयतिकलसूरि :: [ ३४३ तपागच्छीय श्रीमद् हेमसोमसूरि दीक्षा वि० सं० १६३०. सूरिपद वि० सं० १६३६ पालणपुर के पास में धाणधार नामक प्रान्त में प्रग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि जोधराज की पत्नी रूढ़ी नामा की कुक्षि से वि० सं० १६२३ में आपका जन्म हुआ और हर्षराज आपका नाम रक्खा गया । वि० सं० १६३० में वंशपरिचय, दीक्षा और - बड़ग्राम में सोमविमलसूरि का पदार्पण हुआ । श्रे० जोधराज अपनी पत्नी और पुत्र द सहित गुरु को वंदनार्थ व ग्राम गया। उस समय हर्षराज की आयु आठ वर्ष की ही थी। उसने दीक्षा लेने की हठ ठानी और बहुत समझाने पर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी। अंत में दीक्षा लेने की आज्ञा देनी पड़ी और धूम-धाम सहित सोमविमलसूरि ने हर्षराज को विशाल समारोह में साधु-दीक्षा प्रदान की और हेमसोम नाम रक्खा । वि० सं० १६३५ में तेरह वर्ष की वय में ही आपको पंडितपद प्राप्त हुआ । सं० लक्ष्मण ने पंडितपदोत्सव का आयोजन किया था। एक वर्ष पश्चात् ही वड़ग्राम के श्री संघ ने भारी महामहोत्सवपूर्वक वि० सं० १६३६ में श्रीमद् सोमविमलसूरि के करकमलों से पं० हेमसोम को सूरिपद प्रदान करवाया। इस सूरिमहोत्सव में अधिक भाग श्रे० लक्ष्मण ने ही लिया था । चौदह वर्ष की बालवय में सूरिपद का प्राप्त होना आपके पतिभासम्पन्न, बुद्धिमान्, तेजस्वी एवं शुद्धसाध्वाचार तथा गच्छमार संभालने के योग्य होने जैसे आप में स्तुत्य गुणों के होने को सिद्ध करता है । साधन-सामग्री के अभाव में आपका अधिक वृत्तान्त देना अशक्य है। तपागच्छीय श्रीमद विजयतिलकसूरि दीक्षा वि० सं० १६४४. स्वर्गवास वि० सं० १६७६. विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गुजरात- प्रदेश के प्रसिद्ध नगर वीशलपुर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि देवराज रहता था । उसकी स्त्री का नाम जयवंती था । दोनों स्त्री-पुरुष धर्मप्रेमी एवं उदारमना थे । इनके रूपजी और रामजी नाम दो पुत्र थे। दोनों का जन्म क्रमशः वि० सं० १६३४ और वंश - परिचय और दीक्षा १६३५ में हुआ था । उन दिनों में खंभात श्रति प्रसिद्ध और गौरवशाली नगर था । जैन समाज का नगर में अधिक गौरव एवं मान था । खंभात में श्रोसवालज्ञातीय पारखगोत्रीय राजमल और विजयराज नामक दो धनाढ्य भाई रहते थे । उन्होंने विम्बप्रतिष्ठा करवाने का विचार किया । श्रीमद् हीरविजयसूरिजी की आज्ञा से श्राचार्य विजयसेनसूरि बिम्बप्रतिष्ठा करवाने के लिये खंभात में पधारे। आप श्री का नगर *जै० गु० क० भा० २ पृ० ७४७ (५८) Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] ...... प्राग्वार्ट-इतिहास: . [ तृतीय प्रवेश शाही सज-धज से किया । वि० सं० १६४४ में जिनबिंध-प्रतिष्ठा महामहोत्सव पूर्वक बड़ी धूम-धाम से पूर्ण हुई। इस प्रतिष्ठोत्सव में अनेक समीप एवं दूर के नगर, पुर, ग्रामों से छोटे-बड़े श्रीसंघ और अनेक जैनपरिवार आये थे। वीशलनगर से श्रेष्ठि देवराज भी अपनी पत्नी और दोनों प्रिय पुत्रों को लेकर आया था । देवराज को यहाँ वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने अपने दीक्षा लेने के विचार को अपनी अनुगामिनी धर्मपरायणा स्त्री जयवंती से जब कहा तो उसने भी दीक्षा लेने की अपनी भावना प्रकट की। उस समय तक दोनों पुत्र भी क्रमशः पाठ और नव वर्ष के हो चुके थे। वे भी अपने माता, पिता को दीक्षा लेते देखकर दीक्षा लेने के लिये हठ करने लगे । अन्त में समस्त परिवार को शुभ मुहुर्त में श्रीमद् विजयसेनसूरि ने साधु-दीक्षा प्रदान की । रूपजी और रामजी के क्रमशः साधुनाम रत्नविजय और रामविजय रक्खे गये । इन दोनों बाल-मुनियों को सूरिजी ने विद्याभ्यास में लगा दिये । दैवयोग से बालमुनि रत्नविजय का थोड़े ही समय पश्चात् स्वर्गवास हो गया । मुनि रामविजय उपाध्याय सोमविजयजी की संरक्षणता में विद्याध्ययन करते रहे । सूरिजी ने आपको कुछ वर्षों पश्चात् पण्डितपद प्रदान किया। ___ तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयदानमूरिजी के पट्टालंकार जगद्विख्यात् श्रीमद् विजयहीरसूरिजी और प्रखर विद्वान् स्वतंत्र विचारक उपाध्याय धर्मसागरजी में 'कुमतिकुद्दाल' नामक ग्रंथ को लेकर विग्रह उत्पन्न हो गया। मापन की उत्पत्ति उपाध्यायजी 'कुमतिकुदाल' ग्रन्थ की मान्यता के पक्ष में थे और सरिजी विरोध में । और पं० रामविजयजी को दोनों में कभी मेल हो जाता और कभी विग्रह बढ़ जाता। यह क्रम इसी प्रकार चलता प्राचार्यपद रहा । तपागच्छ में इस विग्रह के कारण दो पक्ष बन गये-विजयपक्ष और सागरपक्ष । श्रीमद् विजयदानसूरिजी ने जब पक्षों के कारण गच्छ की मान-प्रतिष्ठा को धक्का लगने का अनुभव किया, उन्होंने 'कुमतिकुद्दाल' ग्रन्थ को जलशरण करवा दिया और उपाध्याय धर्मसागरजी को समझा-बुझा कर गच्छ में पुनः लिया। उपाध्याय धर्मसागरजी अलग विचरण करके पुनः 'कुमतिकुद्दालग्रंथ' की मान्यतानुसार अपना अलग पंथ चलाने लगे। किसी भी प्रकार फिर भी विजयहीरसूरि सहन करते रहे और उधर उपाध्याय धर्मसागरजी ने भी कभी गच्छ के टुकड़े करने के लिये प्रबल प्रयत्न नहीं किया। दोनों की मृत्यु के पश्चात् जो लगभग साथ साथ ही घटी विजयपक्ष और सागरपक्ष में एक दम द्वंद्वता बढ़ गई। श्रीमद् विजयहीरसूरि विजयसेनसरि इस बढ़ती हुई द्वंद्वता को दबाने में असमर्थ रहे । वि० सं० १६७२ ज्ये० कृ० ११ को विजयसेनसरि का स्वर्गारोहण हुआ और तत्पश्चात् विजयदेवसरि गच्छनायकपद को प्राप्त हुये । ये आचार्य सागरपक्ष में सम्मिलित हो गये। ।। इस पर विजयपक्ष खलभली मच गई । विजयपक्ष में प्रमुख साधु उपाध्याय सोमविजयजी ही थे। इन्होंने अन्य प्रमुख साधुओं को, प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों को साथ लेकर विजयदेवसूरिजी को अनेक बार समझाने का प्रयत्न किया । परन्तु संतोषजनक हल कभी नहीं निकला । अंत में हार कर विजयपक्ष ने अपना संमेलन किया और निश्चित किया कि हीर-परम्परा का अस्तित्व रखने के लिये किसी नवीन आचार्य की स्थापना में वही वलभली ऐ०रा० सं० भा० ४ पृ०२,३,४. ऐ० रा० सं० भा० ४ (निरीक्षण) पु० ५६,१३,१४,१५,१६,१७,१८, २१, २२. ऐ०रा०सं०भा०४ प०७२,७३ तथा (निरीक्षण) प० २२,२३ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् विजयतिलकसूरि :: [ ३४५ करनी चाहिए। निदान परत, खंभात, बुरहानपुर, सिरोही आदि प्रसिद्ध नगरों के श्री संघों के अनुमति-पत्र मंगवाकर राजनगर में वि० सं० १६७३ पौ० शु० १२ बुधवार के दिन शुभ मुहूर्त में उपाध्याय सोमविजयजी, उपाध्याय नन्दीविजयजी, उपा० मेघविजयजी, वाचक विजयराजजी, उपा० धर्मविजयजी, उपा० भानुचन्द्रजी, कविवर सिद्धचन्द्रजी आदि विजयपक्ष के प्रसिद्ध साधुओं ने तथा अनेक ग्राम, नगर, पुरों से आये हुये श्री संघों ने तथा श्री संघों के अनुमति-पत्रों के आधार पर सबने एक मत होकर बृहद्शाखीय विजयसुन्दरसूरि के करकमलों से आपश्री को आचार्यपदवी प्रदान की गई और स्व. विजयसेनसूरिजी के पट्ट पर आपको विराजमान किया और विजयतिलकसरि आपका नाम रक्खा । यह सरिपदोत्सव बड़ी ही सज-धज एवं शाही ठाट-पाट से किया गया था। राजनगर से आप श्री विहार करके प्रसिद्ध नगर शिकन्दरपुर में पधारे । सम्राट् जहाँगीर के उच्च पदाधिकारी मकरुखान के सैनिक तथा कर्मचारियों ने अनेक श्रृंगारे हुये हाथी और घोड़ों के वैभवमध्य आपका नगर-प्रवेश बड़ी ही विजयतिलकसरिजी का श्रद्धा एवं भाव-भक्तिपूर्वक करवाया । सुवर्ण और चांदी की मुद्राओं से आपकी श्रावकों ने शिकंदरपुर में पदार्पण पूजा की और बहुत द्रव्य व्यय किया। वहाँ आपने पं० धनविजय आदि आठ मुनियों को वाचकपद प्रदान किया और समस्त तपागच्छ के प्रमुख व्यक्तियों का एक सम्मेलन करके प्रान्त-प्रान्त में आदेशपत्र भेजे । इस प्रकार विजयतिलकसरि गच्छमार को वहन करने लगे। विजयपक्ष और सागरपक्ष में कलह दिनोंदिन अधिक बढ़ने लगा। इसके समाचार बादशाह जहाँगीर तक पहुंचे । मुगलसम्राट अकबर हीरविजयसूरि का बड़ा ही सम्मान करता था। उसी प्रकार उसका पुत्र जहाँगीर बादशाह जहाँगीर का दोनों भी तपागच्छीय इन सूरियों का बड़ा मान करता था । ऐसे गौरवशाली गच्छ में उत्पन्न पक्षो में मेल करवाना हुये इस प्रकार के कलह को श्रवण कर उसको भी अति दुःख हुआ और उसने अपने दरवार में दोनों पक्षों के प्राचार्य विजयतिलकसरि और विजयदेवसूरि को निमंत्रित किया। उस समय सम्राट माडवगढ़ में विराजमान था । उपयुक्त समय पर दोनों प्राचार्य अपने अपने प्रसिद्ध शिष्यों एवं साधुओं के सहित सम्राट जहाँगीर की राज्यसभा में मांडवगढ़ पहुँचे । सम्राट ने दोनों पक्षों की वार्ता श्रवण की और अन्त में दोनों को आगे से कलह तथा विग्रह नहीं करने की अनुमति दी। दोनों आचार्यों ने सम्राट के निर्णय को स्वीकार किया; परन्तु दो वर्ष पश्चात् पुनः कलह जाग्रत हो गया । दोनों प्राचार्य अलग २ अपना मत सुदृढ़ करने लगे और अपने २ पक्ष का प्रचार करने लगे। वि० सं० १६७६ पौष शु० १३ को सिरोही (राजस्थान) में विजयतिलकसरिजी ने उपाध्याय सोमविजयजी के शिष्य कमलविजयजी को आचार्यपद प्रदान किया और उनका नाम विजयानन्दसरि रक्खा । दूसरे ही दिन चतुर्दशी को आप स्वर्ग को सिधार गये । विजयतिलकसरि का मान तपगच्छ में हुये स्वर्गारोहण साधु एवं आचार्यों में अधिक ऊंचा गिना जाता है। आपश्री धर्मशास्त्रों के अच्छे ज्ञाता और लेखक थे, परन्तु दुःख है कि अभी तक आपश्री की कोई उल्लेखनीय कृति प्रकाश में नहीं आई है। ऐ०रा० सं० भा०४ । जै० गु० क० भा० २१०७४८ विजयतिलकसरिजी का पादुका-लेख वि० सं०१६७६ फा० शु०२ का सिरोही में है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: तपागच्छीय श्रीमद् विजयाणंदसूरि दीक्षा वि० सं० १६५१. स्वर्गवास वि० सं० १७११ मरुधरप्रान्त के वररोह नामक ग्राम में श्रीवंत नामक प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि रहता था । उसकी स्त्री का नाम शृंगारदेवी था । वि० सं० १६४२ में चरित्रनायक का जन्म हुआ और कल्याणमल आपका नाम रखा गया । अतिशय प्रेम और स्नेह के कारण आप को सब कला, कलो कहकर ही सम्बोधित करते वंश - परिचय और दीक्षा थे । आप प्रखर बुद्धि एवं मोहक आकृति वाले थे। आपको होनहार समझ कर नव (ह) वर्ष की अल्प वय में यवन- सम्राट् अकबर-सम्मान्य जगद्विख्यात सूरि-सम्राट् तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयहीरसूरि ने वि० सं० १६५१ माह शु० ६ को दीक्षा दी और आपको उपाध्याय सोमविजयजी के शिष्य बनाये | कमल विजय आपका नाम रक्खा गया । [ तृतीय वि० सं० १६५२ में सूरिसम्राट हीरविजयसूरि का स्वर्गवास हुआ और उनके पट्ट पर श्रीमद् विजयसेनमूरि विराजमान हुये । अकबर सम्राट् आपका भी बड़ा सम्मान करता था । सम्राट् ने आपको 'सूरसवाई' का पद पंडितपद और श्राचार्यपद प्रदान किया था । वि० सं० १६७० में 'सूरिसवाई' विजयसेनसूरि ने चरित्र नायक की प्राप्ति मुनि कमलविजय को उनकी प्रखर बुद्धि और विद्यानुराग को देखकर 'पंडित' पद प्रदान किया । वि० सं० १६७२ में 'सूरसवाई' का स्वर्गवास हो गया और विजयदेवसूरि उनके पट्ट पर विराजे | विजयदेवसूरि प्रखर बुद्धिमान् और तपस्वी थे । ये सागरपक्ष में जा सम्मिलत हुये । इससे तपागच्छ में भारी हलचल मच गई । उपाध्याय सोमविजय, भानुचन्द्र, सिद्धचन्द्र और चरित्रनायक ने इनको समझाने का बहुत प्रयत्न किया; प्ररन्तु कुछ सफलता प्राप्त नहीं हुई । निदान रामविजय नामक मुनिराज को वि० सं० १६७२ में आचार्यपद से सुशोभित करके स्वर्गस्थ आचार्य के पट्ट पर विराजमान किया और उनका विजयतिलकसूरि नाम रक्खा । वि० सं० १६७६ में विजयतिलकरि ने सिरोही ( राजस्थान) में आप श्री को महामहोत्सवपूर्वक श्राचार्यपद प्रदान किया और आपका नाम विजयाणंदसूरि रक्खा । I वि० सं० १६७६ में ही विजयतिलकसूरि का स्वर्गवास हो गया । और उनके पट्ट पर आपश्री विराजमान हुये; परन्तु विजयदेवसूरि के सागरपक्ष में सम्मिलित हो जाने का आपको दुःख हो रहा था । वि० सं० १६८० तक आपने मेवाड़ और मारवाड़-प्रदेशों में विहार किया। आपके साथ में आठ वाचक - मेघविजय, नन्दविजय, उपा० धनविजय, देवविजय, विजयराज, दयाविजय, धर्मविजय और सिद्धिचन्द्र और वाद में कुशल कई वादी पण्डित थे | सागरपक्ष के विरुद्ध आपने खूब प्रचार किया । मेवाड़ और मारवाड़ में अतः सागरपक्ष नहीं बढ़ सका। वि० सं० १६८१ में विजयदेवसूरि अहमदाबाद में विराजमान थे । सागरपच में पड़कर इन्होंने अनेक कष्ट जै० गु० क० भा० १५० ५४४, ५४५ । जै० ऐ० रा०मा० भा० १ पृ० ३० जै० गु० क० भा० ३ ० २ । जै० सा० सं० इति ० पृ० ५६८ (८३१) ऐ० स० [सं० भा० ४ पृ० ८०. । ऐ० रा० सं० भा० ४ के अधिकार २ में सविस्तार वर्णन है । जै० गु० क० भा० २ पृ० ७४६ (६१) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् भावरत्नसूरि :: [ ३४७ देखे और मेल करना चाहते थे । सिरोही का दीवान मोतीशाह तेजपाल उपरोक्त दोनों आचार्यों में मेल कराने का पूर्ण प्रयत्न कर रहा था | चरित्रनायक तो पारस्परिक भेद को नष्ट करने का प्रयत्न कर ही रहे थे । वे इस समय ईडर में थे । संघ और साधुओं की प्रार्थना पर वे अहमदाबाद पधारे। दीवान मोतीशाह तेजपाल भी अहमदाबाद पहुँच गया । साधुओं एवं संघ के प्रयत्नों से दोनों उपरोक्त आचार्यों में वि० सं० १६८१ प्रथम चैत्र शु० ६ नवमीं को मेल हो गया और आपने विजयदेवसूरि को नमस्कार किया । इससे आपकी संघ में अतिशय कीर्त्ति प्रसारित हुई । सिरोही के दीवान मोतीशाह तेजपाल को 'गच्छभेद निवारणतिलक' और संघपतितिलक प्राप्त हुआ । अहमदाबाद के नगर सेठ शांतिदास को जो सागरमति था यह मेल बुरा लगा। उसने दोनों आचार्यों को कैद करवाने का प्रयत्न किया । परन्तु दोनों आचार्य किसी प्रकार बच कर ईडर जा पहुंचे परन्तु दुःख की बात है कि यह मेल अधिक समय तक नहीं ठहर सका । पुनः मेल टूट गया और 'देवसूर' और 'आणंदसूर' नाम के दो प्रबल पक्ष पड़ गये, जिनका प्रभाव आज तक चला आ रहा है । मेल टूट जाने से आपको अतिशय दुःख हुआ । निदान आपको विजयराजसूरि को अपना पट्टधर घोषित करना पड़ा | आपने अनेक तप किये और अनेक यात्रायें कीं और 8 बार जिनबिंबों की प्रतिष्ठायें कीं। सूरत और विजयानन्दसूरि की संक्षिप्त खंभात में आपका अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव रहा । आपने कई प्रकार के तप किये धर्म- सेवा और स्वर्गगमन जैसे तेरहमासिक, बीशस्थानक पद-आराधना, सिद्धचक्र की ओली । आपने अनेक बार ag और अष्टम किये । एक बार आपने त्रैमासिक तप करके ध्यान किया था। आपने तीर्थ यात्रायें भी कई बार श्रीदाचतीर्थ की ६ बार, शंखेश्वरतीर्थ की पांच बार, तारंगगिरितीर्थ की दो बार, अंतरिक्षपार्श्वनाथतीर्थं की दो बार, सिद्धाचलतीर्थ की दो बार, गिरनारतीर्थ की एक बार - इस प्रकार आपने एक २ तीर्थ की कई बार यात्रायें की थीं। आप बड़े ही सरल स्वभावी और निष्कपट महात्मा थे । आप अपने पक्ष में मेल देखना चाहते थे । मेल हो जाने के पश्चात् विजयदेवसूरि की आज्ञा से आपने अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें की थीं। कपरवाड़ा नामक ग्राम में आपने २५० जिनबिंबों की प्रतिष्ठा की थी । अचलगढ़ के छोटे आदिनाथ - जिनालय में आप द्वारा प्रतिष्ठित वि० सं० १६६८ की चार जिनप्रतिमायें विराजमान हैं, जिनको सिरोहीनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय शाह गांगा के पुत्र वणवीर के पुत्र शाह राउल, लक्ष्मण आदि ने प्रतिष्ठित करवाई थीं । इस प्रकार धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुये खंभात में वि० सं० १७११ आषाढ़ कृ० १ मंगलवार को आपका स्वर्गवास हुआ । महाकवि ऋषभदास आपका अनन्य भक्त और श्रावक था । * तपागच्छीय श्रीमद् भावरत्नसूरि दीक्षा वि० सं० १७१४ मरुधरप्रांत के सोनगढ़ (जालोर) से ७ कोस के अन्तर पर गुढ़ा ( बालोतरान) में प्राग्वाटज्ञातीय देवराज की धर्मपत्नी नवरंगदेवी की कुक्षी से भीमकुमार नाम का वि० सं० १६६६ में एक पुत्र उत्पन्न हुआ । उसकी *श्र० प्रा० जे० ले० सं० भा० २ ले० ४७६ -८० । ० का ०म० मौ० तृतीय की प्रस्तावना Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८) :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय दीचा अहमदाबाद में श्रीमद् हीररत्नसूरि के करकमलों से वि० सं० १७१४ में हुई थी और उनका नाम भावरत रक्खा गया था। ये प्राचार्य बड़े ज्ञानी एवं सरल स्वभावी थे । तपागच्छाधिराज श्रीमद् विजयदानसरि के पश्चात् उनके पट्टधर अकबर सम्राट्-प्रतिबोधक जगद्गुरु श्रीमद् विजयहीरसरि थे। विजयहीरसरि के पीछे गच्छ में दो शाखायें प्रारम्भ हो गई थीं। श्रीमद् विजयराजसरि के पट्ट पर अनुक्रम से श्रीमद् विजयरत्नसरि, हीररत्नसरि और हीररत्नसूरि के पट्ट पर जयरनसूरि हुये। जयरत्नसूरि के पश्चात् उनके गुरुभ्राता श्रीमद् भावरत्नसूरि पट्टनायक बने ।ये अत्यन्त तेजस्वी एवं प्रभावक आचार्य थे । ये विक्रम की अट्ठारवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में विद्यमान थे ।१ तपागच्छीय श्रीमद् विजयमानसूरि दीक्षा वि० सं० १७१६. स्वर्गवास वि० सं० १७७० आपका जन्म वि० सं० १७०७ में बुरहानपुर निवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वाघजी की पत्नी श्रीमती विमलादेवी की कुक्षि से हुआ था। आपका जन्मनाम मोहनचन्द्र था । आपके बड़े भ्राता का नाम इन्द्रचन्द्र था । वि० सं० १७१४ में दोनों भ्राताओं ने साध-दीक्षा ग्रहण की। मानविजय आपका नाम रक्खा गया। तीस वर्षे की वय में वि० सं० १७३६ में प्रसिद्ध नगर सिरोही में श्रीमद विजयराजसरि ने आपको सर्व प्रकार योग्य समझ कर बड़ी धूम-धाम एवं उत्सव पूर्वक आपको भारी जनमेदिनी के समक्ष आचार्यपद प्रदान किया। यह उत्सव श्रे० धर्मदास ने बहुत व्यय करके सम्पन्न किया था। वि० सं० १७४२ आषाढ़ कृ. १३ को खंभात में श्रीमद् विजयराजसरि का स्वर्गवास हो गया। उसी संवत् में फागण कृ. ४ को आपको विजयराजसरि के पट्ट पर विराजमान किया गया । साणंद में वि० सं० १७७० माघ शु० १३ को आपका स्वर्गवास हो गया ।२ तपागच्छीय श्रीमद् विजयऋद्धिसूरि दीक्षा वि० सं० १७४२. स्वर्गवास वि० सं० १८०६ मरुधरप्रान्त के थाणा ग्राम में रहने वाले प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० जशवंतराज की धर्मपत्नी श्रीमती यशोदा की३ कृति से वि० सं० १७२७ में आपका जन्म हुआ। वि० सं० १७४२ में श्रीमद् विजयमानसूरि के कर-कमलों से दोनों पिता-पुत्रों ने साधु-दीक्षा ग्रहण की । आपका नाम सूरविजय रक्खा गया। सिरोही में विजयमानसूरि ने १-० गु० क० भा० ३ खण्ड २ पृ० २२६०-६१ २-३-जै० गु० क० मा०२ पृ०७५१ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] : श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् कर्पूरविजयगणि: [३४६. आपको वि० सं० १७६६ में आचार्यपद प्रदान किया। श्रे० हरराज खीमकरण ने सरिपदोत्सव बहु द्रव्य व्यय करके किया था । वि० सं० १७७० में जब विजयमानसूरि का स्वर्गवास हो गया, तो साणंद में महता देवचन्द्र और महता मदनपाल ने पाटोत्सव करके आपको विजयमानसूरि के पाट पर विराजमान किया। वि० सं० १८०६ में सूरत में आप स्वर्ग सिधारे । आपके दो पट्टधर हुये-१. सौभाग्यसूरि और २. प्रतापसरि । तपागच्छीय श्रीमद् कपूरविजयगणि दीक्षा वि० सं० १७२०. स्वर्गवास वि० सं० १७७५ गूर्जरभूमि की राजधानी अणहिलपुरपत्तन के सामीप्य में आये हुये वागरोड़ नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय' सुश्रावक श्रे० भीमजीशाह रहते थे। उनकी स्त्री का नाम वीरादेवी था। वीरादेवी की कुक्षि से कहानजी नाम वंश-परिचय, जन्म और का एक पुत्र वि० सं० १७०६ के लगभग हुआ। कहानजी छोटे ही थे कि उनके माता-पिता का स्वर्गवास माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । भीमजीशाह की एक बहिन का विवाह पचन में हुआ था । छोटे कहानजी को उनके फूफा पत्तन में ले गये। एक समय पं० सत्यविजयजी परान में पधारे । उस समय कहानजी चौदह वर्ष के हो गये थे। पन्यासजी महाराज की वैराग्यपूर्ण देशना श्रवण कर कहानजी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। फूफा आदि संबंधियों के बहुत गुरु का समागम, दीक्षा समझाने पर भी वे नहीं माने । अंत में वि० सं० १७२० मार्ग मास के शुक्ल पक्ष में और पण्डितपद की प्राप्ति पन्यासजी महाराज ने कहानजी को दीक्षा दी और कपूरविजय नाम रक्खा। कपूरविजयमुनि ने शास्त्राभ्यास करके थोड़े वर्षों में ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। योग्य समझकर श्रीमद् विजयप्रभसूरि ने आपको आणंदपुर में पण्डितपद प्रदान किया। ___ गुरु की आज्ञा से आप अलग विहार करके धर्म का प्रचार करने लगे । आपके दो शिष्य थे-वृद्धिविजयगणि और चमाविजय पन्यास । आपका विहार-क्षेत्र प्रमुखतः गूर्जरप्रदेश, सौराष्ट्र और मारवाड़ रहा । वढीआर, विहार-क्षेत्र और स्वर्गवास ... राजनगर (अहमदाबाद), राधनपुर, साचोर, सादरा, सोजिंत्रा और बड़नगर शहरों में आपके अधिक श्रद्धालु भक्त थे। वि० सं० १७५६ के पौष शु. १२ शनिश्चर को उपाध्याय सत्यविजयजी का पत्तन में स्वर्गवास हो गया। आपको स्वर्गस्थ उपाध्यायजी के पट्टधर स्थापित किया गया। लगभग १६ वर्ष पर्यन्त जैन शासन की मूरिपन से सेवा करके वि० सं० १७७५ श्रावण कृ० १४ सोमवार को अनशनव्रत ग्रहण कर पत्तन नगर में आप स्वर्ग सिधारे । जै० ए० रासमाला पृ० ३७-३६ (श्रीमद् सत्यविजयगणि) " " , ४५-४६ (कपूरविजयगणि) , , , ११८-१२५ (करविजयगणिनिर्वाणरास) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय तपागच्छीय पं० हंसरत्न और कविवर पं० उदयरत्न वि० सं० १७४६ से वि० सं० १७६६ खेड़ा नामक ग्राम में विक्रमीय अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वर्धमानशाह रहता था। पानबाई नामा उसकी पतिपरायणा पली थी। पं० हंसरत्न और पं० उदयरत्न दोनों इनके सुपुत्र थे। हंसरत्न बड़े _ और उदयरत्न छोटे सहोदर थे। बड़े होने पर दोनों भ्राताओं ने रत्नशाखा में दीक्षा वंश-परिचय और दीक्षा चय भार दादा ग्रहण की। तपागच्छाधिराज विजयदानसूरि के पट्टधर आचार्य सम्राट अकबर-प्रतिबोधक श्री श्रीमद् विजयहीरसूरि के म्याद विजयराजसूरि से रत्नशाखा उद्भूत हुई । तपागच्छ-परम्परा श्रीमद् विजयराजसूरि रखविजयसरि श्री हीररत्नसूर श्री जयरत्नमरि 40 श्री लघिरत श्री भावरत्नसरि उपा० सिद्धरत्न श्री दोनरनसरि मेघरलगणि पं० राजरत श्री अमररत पं० लक्ष्मीरन 4.शिवरत 40 ज्ञानरल शिष्य उ० उदयरल हंसरत १-त० अ० वंश-वृक्ष पृ०७ २-पट्टावली समुच्चय पृ०१०६ (टिप्पणी) . . ३- श्री राजविजयसरीश्वर सद्गुरु, सकलसरीनि जीपेजी, तास पाटि श्री रलविजयसरि, तेजनो अंबारजी। श्री हीरत्लसरीश्वर जगगुरु, सोहिं तस पटोधारजी, तस पाटिं तरणी तणी परि, प्रतपि श्री जयरलसूरिदोजी । जयवंता श्री भावरत्नसूरी (प्राग्वाटज्ञातोय) भवियण भावे वन्दोजी, श्रीहीररत्नसूरीश्वर केरा, गिरुमा प्रमथ गणधारजी। पंडित लब्धिरल महामुनिवर भवजल तारणहारजी, तस अन्वय वाचकपदधारी, श्री सिद्धरल उवजायाजी। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरड] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक प्राचार्य और साधु-तपागच्छीय पं० हंसरत्न और उदयरत्न :: [३४१ इनका गृहस्थ नाम हेमराज था । पं० उदयरत्न के ये ज्येष्ठ भ्राता तो थे ही, साथ में काका-गुरु-भाई भी के क्यों कि पं० शिवरत्न और पं० ज्ञानरत्न दोनों उपा० सिद्धरत्न के प्रशिष्य-शिष्य होने से गुरु भाई थे। पं० शिवरल के शिष्य उपा० उदयरत्न थे और आप पं० ज्ञानरत्न के शिष्य थे। वि० सं० १७६८ इंसाल चैत्र शु० शुक्रवार को मुनि हंसरत्न का मियाग्राम में स्वर्गवास हो गया। मियाग्राम में आपका एक स्तूप है जो अभी भी विद्यमान है। वि० सं० १७८१ में आपने धनेश्वरकृत 'शत्रुजय माहात्म्य को पन्द्रह सर्गों में सरल संस्कृत गद्य में लिखा और वि० सं० १७६८ के पहिले 'अध्यात्मकल्पद्रुम' पर प्रह प्रकरण रत्नाकर मा० ३ लिखे । । ये गूर्जर-भाषा के प्रसिद्ध कवि एवं अनुभवशील विद्वान् थे । इनकी छोटी-बड़ी लगभग २७ सचाईस कृतियाँ उपलब्ध हैं । गूर्जर-भाषा पर आपका अच्छा अधिकार था। आपकी कविता सरल और सुबोध एवं मनोहर शब्दों में होती थी। सहस्रों स्त्री, पुरुष आपकी कविता को कंठस्थ करने में रुचि प्रकट उपाध्याय उदयरत्न करते थे। आपके समय में आपकी कविताओं का अच्छा प्रचार बढ़ा। आपने प्रसिद्ध आचार्य स्थूलभद्र का वर्णन नवरस में लिखा । आपने समय २ पर जो कृत्तियाँ लिखीं, उनके नाम इस प्रकार है१-जंबूस्वामीरास वि० सं० १७४६ द्वि० भा० शु० १३ खेड़ा हरियालाग्राम में। . २-अष्टीप्रकारी पूजा सं० १७५५ पौ० शु० १० पाटण में । ३-स्थूलभद्ररास-नवरस सं० १७५६ मार्ग शु० ११ उनाग्राम में । ४-श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ नो शलोको सं० १७५६ वै० कृ. ६। ५-मुनिपतिरास सं० १७६१ फा० कृ० ११ शुक्र० पाटण में । ६-राजसिंह (नवकार) रास सं० १७६२ मार्ग शु० ७ सोमवार अहमदाबाद में । ७-बारहव्रतरास सं० १७६५ फा० शु० ७ रवि० अहमदाबाद में । ८-मलयसुन्दरीमहाबल (विनोद-विलास) रास सं० १७६६ मार्ग कृ० ८ खेड़ा हरियालाग्राम में । 8-यशोधररास सं० १७६७ पौ० शु० ५ गुरुवार पाटण के उर्णाकपुरा में (उनाउ)। १०-लीलावती-सुमतिविलासरास सं० १७६७ आश्विन० ० ६ सोम० पाटण के उनाउ में । ११-धर्मबुद्धि अने पापबुद्धिनो रास सं० १७६८ मार्ग शु० १० रवि. पाटण में । १२-शजयतीर्थमाला-उद्धाररास सं० १७६६ १३-भुवनभानु-केवली-रास (रसलहरी-रास) सं० १७६६ पौ० शु० १३ मंगलवार पाटण के उनाउ में । १४-नेमिनाथ शलोको। १५-श्रीशालिभद्रनो शलोको। . १६-भरत-बाहुबलि शलोको सं० १७७० मार्ग शु० १३ आद्रज में । १७-भावरत्नमरि-प्रमुखपांचपाट-वर्णनगच्छ-परम्परारास सं० १७७० खेड़ा में। तस गणधर वंदु गुणवंता, श्री मेघरत्न मुणिरायाजी. तास शिष्य शिरोमणि सुन्दर, श्री अमररल सुपसाईजी। गणि शिवरल तसु शिष्य प्रसीधा, पंडित जेणे हरायारे, ते मई गुरु तिणे सुपसाई, कथा कही थई रागीजी। उदरलकृत 'जंबूस्वामीरास' की ढाल ६६, उदयरल कृत 'अष्टप्रकारीपूजा' पृ०७५, उदयरलकृत 'हरिवंशरास' का अन्तिममाग। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय १८-इंदणमुनिनी सज्झाय सं० १७७२ मा० शु० १३ बुध० अहमदाबाद में । १६-चौवीशी सं० १७७२ भा० शु० १३ बुध० अहमदाबाद में । २०-सूर्ययशा (भरतपुत्र) नो रास सं० १७८२ २१-दामनकरास सं० १७८२ आसो० ० ११ बुध. अहमदाबाद में २२-वरदत्तगुणमंजरी सं० १७८२ मार्ग० शु० १५ बुध० अहमदाबाद में । २३-सुदर्शनश्रेष्ठिरास सं० १७८५ भा० कृ. ५ गुरु० भाजल में । २४-श्री विमलमेतानो शलोको सं० १७९५ ज्ये. शु० ८ खेड़ा हरियालाग्राम में । २५-नेमिनाथ-राजिमती-बारहमास सं० १७६५ श्रा० शु० १५ सोम० उनाउआ में । २६-हरिवंशरास सं० १७६४ चै० शु० ६ गुरु० उमरेठग्राम में । २७-महिपति राजा और मतिसागरप्रधानरास (पूना से प्रकाशित) - उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त सम्भव है आपकी कुछ और कृतियाँ, जब जैन-भंडारों का उद्धार होगा निकल भावेंगी। आप जैसे कवि और विद्वान् थे, वैसे ही महातपस्वी भी थे। आप खेड़ा के गृहस्थ थे। खेड़ा के प्रति आपका मातृ-भूभिराग भी था। वैसे खेडा सुन्दर ग्राम भी है। खेडा के पास में तीन नदियों का संगम होता है। आपने एक बार त्रिवेणी-संगम पर चार माह तक नित्य नियम से कायोत्सर्गतप किया था। इस प्रखर तपस्या के प्रभाव से मुग्ध हो कर पाँच सौ भावसार वैष्णवमतानुयायी जैन बन गये। सोजींचा ग्राम के पटेलों को आपने जैन बनाये । खेड़ा का रहने वाला रत्न नामक भावसार कवि आपके संग में रह कर ही प्रसिद्ध कवि बना था। वि० सं० १७८६ चैत्र शु० १२ को आपने शजयतीर्थ की यात्रा की। आपका स्वर्गवास भी मियाग्राम में ही हुआ । आपकी कृतियों से ज्ञात होता है कि आपका अधिक जीवन पाटण, अहमदाबाद और खेड़ाग्राम में रहते हुये साहित्य की सेवा करते हुये व्यतीत हुआ। वि० सं० १७४६ से वि० सं० १७६६ तक आपका साहित्यकाल रहा । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रापका स्वर्गवास उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ हो ।* तपागच्छीय श्रीमद् विजयलक्ष्मीसूरि दीक्षा वि० सं० १८१४. स्वर्गवास वि० सं० १८६६. मरुधरप्रान्त में अर्बुदाचल के सामीप्य में बसे हुये पालड़ी नामक ग्राम में रहने वाले प्राग्वाटज्ञातीय श्रे. हेमराज की स्त्री श्रीमती आणंदादेवी की कुक्षि से वि० सं० १७६७ चैत्र शु. ५ को आप का जन्म हुआ और घरचन्द्र आपका नाम रक्खा गया। श्रीमद् विजयसौभाग्यसूरि के कर कमलों से वि० सं० १८१४ माघ शु. ५ *जै० गु० क०मा०२ पृ०३८६-४१५ (४०४) जै० गु० क. भा०३ खं० २०१३४६-१३६५ (४०४) जे० सा० सं० इतिहास में मुनि उदयरलकृत ग्रंथों में से कई एक का रचना-संवत् उक्त संवतों से नहीं मिलता है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-अंचलगच्छीय श्रीमद् सिंहप्रभसूरि :: [३४३ शुक्रवार को सिनोर (गुजरात) नामक नगर में आपने दीक्षा ग्रहण की और आपका दीक्षा-नाम सुविधिविजय रक्खा गया । दैवयोग से सिनोर में उसी वर्ष वि० सं० १८१४ चैत्र शु० १० को श्रीमद् विजयसौभाग्यसूरि का स्वर्गवास हो गया । स्वर्गवास के एक दिन पूर्व स्वर्गस्थ आचार्य की मृत्यु निकट आई हुई समझ कर तथा मृत्यु-शय्या पर पड़े हुये प्राचार्य की अभिलाषा को मान देकर सिनोर के श्रीसंघ ने वि० सं० १८१४ चैः शु०६ गुरुवार को महामहोत्सव पूर्वक आपको आचार्य पदवी से अलंकृत किया और आपका नाम विजयलक्ष्मीसरि रक्खा गया। आचार्यपदोत्सव श्रे० छीता वसनजी और श्रीसंघ ने किया था। विजयमानसूरि के स्वर्गवास पर उनके पाट पर दो आचार्य अलग २ पट्टधर बने थे-विजयप्रतापमूरि और विजयसौभाग्यसूरि । विजयसौभाग्यसूरि के स्वर्गवास पर आपश्री पट्टधर हुये । वि० सं० १८३७ पौ० शु०१० को जब विजयप्रतापपरि के पट्टधर विजयउदयसूरि का भी स्वर्गवास हो गया तब दोनों परम्परा के साधु एवं संघों ने मिल कर वि० सं० १८४६ में आपश्री को ही विजयउदयसरि के पट्ट पर विराजमान किया । ऐसा करके दोनों परम्पराओं को एक कर दिया गया । मरुधरप्रान्त के पालीनगर में वि० सं० १८६६ में आपका स्वर्गवास हो गया । इनका बनाया हुआ संस्कृतगद्य में 'उपदेशप्रासार' * नामक सुन्दर ग्रंथ है। इस ग्रन्थ में ३६० हितोपदेशक व्याख्यानों की चौवीस स्तंभों (प्रकरण) में रचना है। इस ग्रंथ के बनाने का लेखक का प्रमुख उद्देश्य यही था कि व्याख्यान-परिषदों में व्याख्यानदाताओं को व्याख्यान देने में इस ग्रंथ से उपदेशात्मक वृत्तान्त सुलभ रहें। और भी कई ग्रन्थ इनके रचे हुये सुने जाते हैं ।* अंचलगच्छीय श्रीमद् सिंहप्रभसूरि दीक्षा वि० सं० १२६१. स्वर्गवास वि० सं० १३१३ गूर्जरप्रदेशान्तर्गत वीजापुर नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि अरिसिंह की धर्मपत्नी प्रीतिमती की कुचि से वि० सं० १२८३ में सिंह नामक पुत्र का जन्म हुआ। सिंह जब पांच वर्ष का हुआ उसके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । अनाथ सिंह का पालन-पोषण उसके काका हराक ने किया । एक वर्ष वीजापुर नगर में वल्लभीशाखीय श्रीमद् गुणप्रभसूरि बड़े आडम्बर से पधारे। सिंह के काका हराक ने विचार किया कि सिंह को आचार्यमहाराज को भेंट कर दूं तो इसका धन मेरे हाथ लग जायगा। लोभी काका ने बालक सिंह को गुणप्रभसरि को भेंट कर दिया । गुणप्रभसूरि ने सिंह को आठ वर्ष की वय में वि० सं० १२९१ में दीक्षा दी और सिंहप्रभ उनका नाम रक्खा । मुनि सिंहप्रभ अल्प समय में ही शास्त्रों का अभ्यास करके योग्य एवं विद्वान् मुनि बन गये । जैन पुस्तक १, अंक ७, सं०१६८२ पृ०२५१ से २५३ जै० गु. क. भा०२ पृ०७५२ * उक्त ग्रंथ जैनधर्म-प्रसारक सभा, भावनगर की ओर से प्रकाशित हो चुका है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] प्राग्वाट-इतिहास: [ तृतीय न्यायशास्त्र के ये अच्छे विद्वान् थे। पत्तन में इन्होंने शैवमती वादियों को परास्त करके अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। वि० सं० १३०६ में खंभात में श्री संघ ने महोत्सव करके इनको मूरिपद प्रदान किया। खंभात से विहार करके आप गांधार पधारे और वहाँ आपने चातुर्मास किया। इधर खंभात में नाणकशाखीय श्रीमद् महेन्द्रसरि का चातुर्मास हुआ। इसी चातुर्मास में महेन्द्रसूरि का देहावसान हो गया। खंभात के संघ ने स्वर्गस्थ श्रीमद् महेन्द्रसरि के तेरह शिष्यों में से किसी को भी योग्य नहीं समझ कर आपश्री को गांधार से बुलाया और महामहोत्सवपूर्वक श्रीमद् महेन्द्रसरि के पट्ट पर आपको विराजमान किया । इस प्रकार बृहद्गच्छ की दोनों शाखाओं में मेल हो गया। सिंहप्रभसरि यौवन, विद्या और अधिकार का मद पाकर परिग्रह धारण करने लगे। वि० सं० १३१३ में ही आपका स्वर्गवास हो गया ।१ अंचलगच्छीय श्रीमद्धर्मप्रभसूरि दीक्षा वि० सं० १३५१. स्वर्गवास वि० सं० १३९३. - मरुधरप्रदेशान्तर्गत प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर भिन्नमाल में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि लिंबा की स्त्री विजयादेवी की कुक्षि से वि० सं० १३३१ में धर्मचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रेष्ठि लिंबा भिन्नमाल छोड़कर परिवार सहित जाबालिपुर (जालोर राजस्थान) में रहने लगा। जाबालिपुर में वि० सं० १३५१ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरिजी का बड़े ठाट-पाट से चातुर्मास हुआ । प्राचार्य के व्याख्यान श्रवण करने से धर्मचन्द्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया और निदान अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वि० सं० १३५१ में उपरोक्त आचार्य के पास में दीक्षा ग्रहण की और वे धर्मप्रभमुनि नाम से सुशोभित हुये । कुशाग्रबुद्धि होने से अल्प समय में ही आपने शास्त्रों का अच्छा अभ्यास कर लिया। आप को योग्य समझ कर वि० सं० १३५६ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने आपको जाबालिपुर में ही सरिपद प्रदान किया । वहाँ से विहार करके आप अनुक्रम से नगर पारकर(?) में पधारे और वहाँ परमारक्षत्रिय नव कुटुम्बों को प्रतिबोध देकर जीवहिंसा करने का त्याग करवाया । इस प्रकार आप प्रामानुग्राम भ्रमण करके अहिंसाधर्म का प्रचार करने लगे। वि० सं० १३७१ में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो गया । गुरु के पट्ट पर आपश्री को गच्छनायकत्व का भार प्राप्त हुआ । लगभग बावीस वर्षे सूरिपन से शासन की सेवा करने के पश्चात् वि० सं० १३६३ माघ शु० १० को आसोटी नामक नगर में आपका स्वर्गवास हो गया ।२ १-म०प० पृ० २१४. २-म०५० पृ०२१८. जै० गुरु क० भा०२ पृ०७६८. जै० गु० क० भा०२ पृ० ७६६ पर भूल से श्रीमाल ज्ञातीय लिखा प्रतीत होता है Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु - चंचलगच्छीय श्रीमद् मेरुतुङ्गसूरि :: [ ३५५ अंचलगच्छीय श्रीमद् मेरुतुङ्गसूरि दीक्षा वि० सं० १४१८. स्वर्गवास वि० सं० १४७३ वंश - परिचय मरुधरप्रान्त के नाना (नाणा) नामक ग्राम में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के अन्त में और पन्द्रहवीं के प्रारम्भ में प्राग्वाज्ञातीय मीठड़ीयागोत्रीय बहरसिंह नामक श्रावक रहता था । उसकी धर्मपत्नी का नाम नाहल - देवी था । वि० सं० १४०३ में चरित्रनायक का जन्म हुआ और उनका नाम भालकुमार रक्खा गया । वि० सं० १४१८ में अंचलगच्छीय श्रीमद् महेन्द्रप्रभसूरि के कर-कमलों से आपने भगवती दीक्षा ग्रहण की और मुनिमेरुतुङ्ग नाम से प्रसिद्ध हुये । आपश्री अत्यन्त ही कुशाग्रबुद्धि थे । थोड़े वर्षों में ही अच्छी विद्वत्ता एवं ख्याति प्राप्त करली । आचार्य श्रीमद् महेन्द्रप्रभसूरि ने आपको अति योग्य समझकर वि० सं० १४२६ में आपको आचार्यपद प्रदान किया । चलगच्छ के महाप्रभावक आचार्यों में आप अग्रगण्य हो गये हैं। आपके विषय में अनेक चमत्कारी कथायें उल्लिखित मिलती हैं । लोलाड़नामक ग्राम में आप श्री एक वर्ष चातुर्मास रहे थे । उक्त नगर पर यवनों ने आक्रमण किया था । श्रपश्री ने नगर पर आयी हुई विपत्ति का अपने तेज एवं प्रभाव से निवारण किया । बड़नगर नामक नगर में नागर ब्राह्मणों के घर अधिक संख्या में बसते थे । एक वर्ष आपश्री का बड़नगर में पदापर्ण हुआ | आपश्री के शिष्य नगर में आहार लेने के आहार प्रदान नहीं किया। इस पर आप ने नगर श्रेष्ठि को जो शुद्धाचार से मुग्ध किया और समस्त ब्राह्मण समाज पर ऐसा प्रभाव लिये गये; परन्तु श्रन्यमती नागर ब्राह्मणों नागर ब्राह्मणज्ञातीय था अपने मंत्रबल एवं डाला कि सर्व ने श्रावकत्रत अंगीकृत किया । एक वर्ष आपश्री ने पारकर - प्रान्त के उमरकोट नगर में चातुर्मास किया था । उमरकोटनिवासी लाल - गोत्रीय श्रावक वेलाजी के सुपुत्र कोटीश्वर जेसाजी ने आपश्री के नगर प्रवेशोत्सव को महाडम्बर सहित किया था तथा चातुर्मास में भी उन्होंने कई एक पुण्यकार्य अति द्रव्य व्यय करके किये थे । चातुर्मास उमरकोट में प्रतिष्ठा के पश्चात् आपश्री के सदुपदेश से उन्होंने बहोत्तर कुलिकाओं से युक्त श्री शांतिनाथ भगवान् का विपुल द्रव्य व्यय करके जिनालय बनवाया था और पुष्कल धन व्यय करके उसकी प्रतिष्ठा भी श्रापश्री के कर-कमलों से ही महामहोत्सव पूर्वक करवाई थी । के समय में हिलपुरपत्तन यवनों के अधिकार में था । यवन सूबेदार जिसका नाम हंसनखान होना लिखा है, आपश्री का परम श्रद्धालु था । उसके अश्वस्थल में से श्री गौड़ीपार्श्वनाथ भगवान् की एक दिन खोदकाम करते समय महाप्रभाविका प्रतिमा निकली। सूबेदार ने उक्त प्रतिमा अपने हर्म्य में संस्थापित 1 हंसनखान ने उक्त प्रतिमा को पारकरदेश से आये हुये मेघाशाह नामक एक श्रीमंत व्यापारी को सवा लक्ष मुद्रा लेकर प्रदान कर दी । श्रीमंत मेघाशाह आपश्री की आज्ञानुसार उक्त प्रतिमा को अपने देश पारकर में लाया और जिनप्रासाद बनवाकर उसको शुभमुहुर्त्त में संस्थापित किया । म०प० पृ० २२३ से २२६ गु० क० भा० २ पृ० ७७०- १. 'प्रबन्धचिंतामणि' के कर्त्ता मेस्तु गसूरि इनसे भिन्न नागेन्द्रगच्छीय मेस्तु गरि है । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राग्वाट - इतिहास :: श्री द्वारा प्रतिष्ठित कुछ मन्दिर और कुछ प्रतिमाओं का विवरण:प्र० वि० संवत् प्रतिष्ठित प्रतिमा तथा जिनालय ३५६ ] १४२६ १४३८ १४३६ १४४५ का० कृ० ११ रविवार १४४५ १४४५ १४४६ माघ शु० १३ रविवार १४४७ फा० शु० ६ सोमवार १४४६ माघ शु० ६ रविवार १४५६ ज्ये० कृ० १३ शनैश्वर नगर लोलाग्राम में १४६६ माघ शु० ६ रविवार 99 वीवाड़ा में १४५६ सिंहवाड़ा में १४६८ का० कृ० २ सोम. शंखेश्वरतीर्थ में १४७० चै० " १४६८ वै० शु० ३ गुरुवार. १४६८ मोढ़ेरग्राम में राजनगर में ० शु० ८ गुरु. - 11 [ तृतीय श्रीमाल ज्ञा. . धांध के पुत्र आसा ने जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई श्रा० तेजू ने जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई । स्थानीय श्रे० पद्मसिंह ने श्री मुनिसुव्रतप्रासाद करवाया तथा एक दानशाला बनवाई | प्रा० ज्ञा० श्रे० भादा ने पार्श्वनाथादि तेवीस जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई । पारकरदेशवासी नागड़गोत्रीय श्रे० मुजा ने श्री पार्श्वनाथबिंब की प्रतिष्ठा करवाई । मोढ़ेरग्रामवासी भादरायणगोत्रीय श्रे० भावड़ ने चौवीशी की प्रतिष्ठा करवाई । प्रा० ज्ञा० ० कोल्हा और आल्हा ने जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई. शानापतिज्ञाति (९ ) के मारू श्रे० हरिपाल की पत्नी सुहवदेवी के पुत्र देपाल ने श्रीमहावीरबिंब की प्रतिष्ठा करवाई । उकेशवंशीय गोखरूगोत्रीय श्रे० नालुण की स्त्री तिहुणदेवी ने तथा उनके पुत्र नागराज ने अपने पिता के श्रेयार्थ श्री शांतिनाथ की प्रतिमा भराई और प्रतिष्ठित करवाई । श्री ० ज्ञा० महन ने श्री चन्द्रप्रभबिंब की प्रतिष्ठा करवाई । ० पाताशाह ने श्री आदिनाथ मन्दिर बनवाया । श्रे० कडूआ ने जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई । श्री० ज्ञा० कडुक ने तेवीस जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई । प्रा०ज्ञा० श्रे० राउल ने श्री शांतिनाथपंचतीर्थी की प्रतिष्ठा करवाई. सलखणपुर में स्थानीय हरियाणगोत्रीय श्रे० सांगशाह ने मनोहर जिनालय बनवाया । प्रा० ज्ञा० उदा की ख्री तथा उसके पुत्र जोला, जोला की स्त्री जमणादेवी और उसके पुत्र मुड़ ने श्री पार्श्वनाथबिंब को भरवाया और उसकी प्रतिष्ठा करवाई । श्री० ज्ञा० ० सांसण ने विमलनाथबिंब की प्रतिष्ठा करवाई । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-अंचलगच्छीय मुनिवर मेघसागरजी :: [ ३५७ इन्होंने १ नाभिवंशकाव्य, २ यदुवंशसंभवकाव्य, ३ नेमिदूतकाव्य आदि काव्य लिखे। एक नवीन व्याकरण और सरिमंत्रकल्प तथा अन्य ग्रंथों की भी रचना की हैं, जिनमें शतपदीसमुद्धार, लघुशतपदी (वि० सं० १४५० में) कंकालय रसाध्याय प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार अनेक धर्मकार्य एवं साहित्यसेवा करते हुये, करवाते हुये आप श्री का स्वर्गवास वि० सं १४७१ में जीर्णदुर्ग में हुआ । श्रीमद् उपाध्याय वृद्धिसागरजी दीक्षा वि० सं० १६८०. स्वर्गवास वि० सं० १७७३ मरुधरप्रदेश के कोटड़ा नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय जेमलजी की श्रीदेवी नामा स्त्री की कुक्षि से वि० सं० १६६३ चैत्र कृ. पंचमी को वृद्धिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। सत्रह वर्ष की वय में वृद्धिचन्द्र ने श्रीमद् मेघसागर उपाध्याय के पक्ष में वि० सं० १६८० माघ कृ. द्वितीया को दीक्षा ग्रहण की और उनका वृद्धिसागर नाम रक्खा गया । मुनि वृद्धिसागर को योग्य समझ कर मेड़ता नगर में उपाध्यायजी महाराज ने उनको उपाध्यायपद वि० सं० १६६३ कार्तिक शु० पंचमी को प्रदान किया। वि० सं० १७३३ ज्येष्ठ शु० तृतीया को श्रीमद् मेघसागरजी उपाध्याय का बाहड़मेर में स्वर्गवास होगया । संघ ने महामहोत्सवपूर्वक उपाध्याय वृद्धिसागरजी को स्वर्गस्थ उपाध्यायजी के पट्ट पर विराजमान किया। दीर्घायु पर्यन्त जैन-शासन की सेवा करके तथा ११० वर्ष का दीर्घायु भोग कर आप वि० सं० १७७३ आषाढ़ शु० सप्तमी को अपने पट्ट पर उपाध्याय हीरसागरजी को मनोनीत करके नलीया नामक ग्राम में स्वर्ग को सिधारे । श्रीमद् हीरसागर एक महाप्रभावक उपाध्याय हुये हैं ।। अंचलगच्छीय मुनिवर मेघसागरजी वि० शताब्दी सत्रहवीं के उत्तरार्ध में प्रभासपत्तन नामक प्रसिद्ध नगर में जो अरबसागर के तट पर बसा हुआ है और जहाँ का वैष्वणतीर्थ सोमनाथ जगद्विख्यात् है, प्राग्वाटज्ञातीय सज्जनात्मा श्रे० मेघजी रहते थे। वे दयावान्, उपकारी, सरल हृदय, सत्यभाषी, गुरु और जिनेश्वरदेव के परम भक्त थे। श्रावक के बारह व्रतों का वे बड़ी तत्परता एवं नियमितता से अखंड पालन करते थे। बचपन से ही वे उदासीन एवं विरक्तात्मा थे। धीरे २ उन्होंने संसार की असारता और धन, यौवन, आयु की नश्वरता को पहिचान लिया और निदान अंचलगच्छीय श्रीमद् कल्याणसागरसूरि के करकमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण करके इस असार, मोहमायामयी संसार का त्याग किया। वे मेघसागरजी नाम से प्रसिद्ध हो कर कठिन तपस्या करके अपने कर्मों का क्षय करने लगे। वे श्रीमद् रत्नसागरजी उपाध्याय के प्रिय शिष्य थे; अतः उक्त उपाध्यायजी की निश्रा में रह कर ही उन्होंने जैनागमों एवं १-म०प० पृ० ३६५। २-म०प० पृ० २६३ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय धर्म ग्रंथों का पूर्ण अध्ययन करके पारंगतता प्राप्त की । इस प्रकार मु० मेघसागरजी साधु-जीवन व्यतीत कर अपने प्रखर पांडित्य एवं शुद्ध साध्वाचार से जैन-शासन की शोभा बढ़ाने वाले हुये । श्रीमद् पुण्यसागरमूरि दीक्षा वि० सं० १८३३. स्वर्गवास वि० सं० १८७० गुर्जरप्रदेशान्तर्गत बड़ौदा में प्राग्वाटज्ञातीय शा० रामसी की स्त्री मीठीबहिन की कुक्षि से वि० सं० १८१७ में पानाचन्द्र नामक पुत्र का जन्म हुआ। पानाचन्द्र श्रीमद् कीर्तिसागरसूरि का भक्त था। पानाचन्द्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने वि० सं० १८३३ में कच्छभुज में कीर्तिसागरसूरि के पक्ष में दीक्षा ग्रहण की । पुण्यसागर उनका नाम रक्खा गया। कीर्तिसागरपरि की सदा इन पर प्रीति रही। वि० सं० १८४३ में कीर्तिसागरमरि का सूरत में स्वर्गवास हो गया । संघ ने पुण्यसागर मुनि को सर्व प्रकार से योग्य समझ कर उक्त संवत् में ही आचार्यपद और गच्छनायक के पदों से अलंकृत किया। श्रेष्ठि लालचन्द्र ने बहुत द्रव्य व्यय करके उपरोक्त पदों का महामहोत्सव किया था । वि० सं० १८७० कार्तिक शु० १३ को आपका पत्तन में स्वर्गवास हो गया ।* श्री लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह वि० सं० १५२८ से वि० सं० १५४१ __राजस्थान के छोटे २ राज्यों में सिरोही का राज्य अधिक उन्नतशील और गौरवान्वित है। सिरोही-राज्य के अन्तर्गत अरहटवाड़ा नामक समृद्ध ग्राम में विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि हेमचन्द्र रहते थे। लोग उन्हें हेमाभाई कहकर पुकारते थे । हेमचन्द्र की स्त्री का नाम गंगाबाई था। श्रीमती गंगाबाई की कुक्षि से विक्रम संवत् १४७२ कार्तिक शुक्ला १५ को एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ; जिसका नाम लुंका या लोंका रक्खा गया। लुका बड़ा चतुर और व्यापार कुशल निकला । छोटी ही आयु में उसने अपने घर का भार सम्भाल लिया और वृद्ध माता-पिता को अति सुख और आनन्द पहुँचाने लगा। लुका जब लगभग २३-२४ वर्ष का हुआ होगा कि दुर्विपाक से उसके माता-पिता विक्रम संवत् १४६७ में स्वर्गवासी हो माता, पिता का स्वर्गवास गये। अरहटवाड़ा यद्यपि समृद्ध और कृषि के योग्य ग्राम था; परन्तु होनहार लुका के लिये वह धन उपार्जन की दृष्टि से फिर भी छोटा क्षेत्र ही था । निदान बहुत कुछ सोच-विचार करने के पश्चात् उसने अरहटवाड़ा को त्याग कर अहमदाबाद में जाकर बसने का विचार किया। धम०प० पृ० ३७३-४ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह :: [ ३५६ माता-पिता का स्वर्गवास होते ही उसी वर्ष होनहार लोकाशाह अरहटवाड़ा का त्याग करके अपनी स्त्री आदि के सहित अहमदाबाद चले गये और वहाँ जवेरी का धन्धा करने लगे । उन दिनों अहमदाबाद में मुहम्मदअहमदाबाद में जाकर बसना शाह 'जार बक्स' नामका बादशाह शासन करता था। कुशल लोकाशाह की जवेहऔर वहाँ राजकीय सेवा रात परखने की कुशलता एवं ईमानदारी की प्रशंसा बादशाह के कर्गों तक पहुँची और करना __ बादशाह ने लोकाशाह को अपने यहाँ नवकर रख लिया। वि० सं० १५०८ में बादशाह मुहम्मदशाह मार डाला गया और उसके स्थान पर उसका पुत्र कुतुबुद्दीन बादशाह बना। राजसभा में खट-पट और षड़यन्त्र चलते ही रहते थे । निदान लोंकाशाह ने भी कुछ वर्षों के पश्चात् राज्यकार्य से त्याग-पत्र दे दिया। लोकाशाह बहुत ही सुन्दर अक्षर लिखते थे। बड़गच्छीय एक यति आपका सुन्दर लेख देख कर आप पर अति ही प्रसन्न हुये और आपको अपने यहां वि० सं० १५२६ में लेखक रख लिया। लोंकाशाह जिस प्रति को लोकाशाह द्वारा लहिया लिखते, उसकी दो प्रतियाँ बनाते थे । एक प्रति आप रख लेते और दूसरी प्रति यतिजी का कार्य और जीवन में को दे देते । लोकाशाह की इस युक्ति का पता किसी प्रकार यतिजी को लग गया परिवतेन और दोनों में अनबन हो गई । फलतः लोंकाशाह ने वहाँ से नवकरी का दो वर्ष पश्चाद ही वि० सं० १५२८ में त्याग कर दिया । प्रतियों के लिखने से बुद्धिमान् लोंकाशाह को शास्त्रों का अध्ययन करने का अच्छा अवसर मिल गया और आपको अच्छा ज्ञान हो गया तथा कर्तव्याकर्तव्य का भान हो गया। स्थानकवासी संप्रदाय के विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में हुये क्रमशः सोलहवें और सत्रहवें पूज्य श्री तेजसिंह और कानजी द्वारा कृत 'गुरुगुणमाला' की ११ ग्यारहवी दाल में लिखा है: 'पोरवाड़ प्रसिद्ध पाटण में 'लका' नामे 'लुका' कहाई-लके' ॥१॥ संवत् पनर अठयावीसे, बड़गच्छ सत्र सिद्धान्त लिखाई। लिखी परति दोई एक आप राखी, एक दी गुरु ने ले जाई ।।२।। दोय वरस सूत्र अर्थ सर्व समजी, धर्म विध संघ ने बताई । 'लके' मूल मिश्यात उथापी, देव गुरु धर्म समजाई ॥३॥ 'त्रीसे वीर' रासी भष्मग्रह उतरता, जिम'वीर' कहयौ तिम थाई । उदे उदे पूज्या जिनशासन नीति दयाधर्म दीपाई ॥४॥ 'ईगत्रीसें भाणजीए' संजम लेई, 'लुकागच्छ' 'आदिजति थाई । 'लुकागच्छ नी उतपति ईण विध, कहे 'तेजसंघ' समझाई' ५ __ जै० गु० क० भा०३ खं० २ पृ० २२०५ मुनि श्री तेजसिंहजी भी स्वीकार करते हैं कि पति और लोकाशाह के मध्य वि० सं०१५२८ में खटपट हुई । लोकाशाह के जीवन में दिशापरिवर्तन का प्रमुख कारण उक्त खटपट ही है यह सिद्ध हो जाता है। 'लोकामत निराकरण' चौ० सं०१६२७ चै०१० ५ रवि. दादानगर में 'अहिल्लपुर पाटण गुजरात, महाजन वसई चउरासी न्यात । लघु शाखी ज्ञाति पोरवाड़, 'लोको' सोठि लीहो छि घाल ॥१॥ ग्रंथ संख्या नई कारणे वढयो, जैन यतिस् बहु चिड़भडियो । 'लोंके लीहे कीधा भेद, धर्म तणा उपजाया छेद ॥२॥ शास्त्र जाणे सेतंबर तणा, कालई बल दीधा आपण।। प्रतिमा पूजा छेद्या दान, धर्मतणी तेणई कीधी हाणि ॥३॥ . संवत् 'पचर सत्तावीस,' 'लोंकामत' उपना कहीस ++ | गाथा पदनो कीधो फेर, विवेकधरी सांभलिज्यो फेर ॥४॥ जै० गु० क० भा० ३ खं०१ पृ०७११. उक्त चौपाई में से यहाँ इतना ही ग्रहण करना है कि लोकाशाह और यति के मध्य वि० सं० १५२७ में खट-पट हुई, लोकाशाह यतिवर्ग के विरोधी बने और समय भी उनको अनुकूल प्राप्त हुआ। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय उस समय जैनसमाज में भी शिथिलाचार एवं आडम्बर बहुत ही बढ़ा हुआ था । शिथिलाचार को अन्तप्रायः करने के लिये पूर्वाचार्यों ने समय २ पर कठोर प्रयत्न किये थे, परन्तु वह तो बढ़ता ही चला जा रहा था । जैन समाज में शिथिलाचार विशेषतः यतिगण बहुत ही शिथिलाचारी हो गये थे । ये मंदिरों में ही रहते थे, सुखाऔर लोकशाह का विरोध सनों में सवारी करते थे, सुन्दर वस्त्र धारण करने लग गये थे, इच्छानुसार खाते-पीते थे । पतिवर्ग ने मंत्र-तंत्र के प्रयोगों से जैनसमाज के ऊपर अपना अच्छा प्रभाव जमा रक्खा था । यतिवर्ग के शिथिलाचार को लेकर समाज में दो पक्ष बनते जा रहे थे । एक पक्ष चैत्यवासी यतिवर्ग के पक्ष में था और दूसरा विरोध में । इसी प्रकार अन्य धार्मिक स्थान जैसे पौषधशाला आदि में भी धार्मिक वर्त्तन शिथिलाचार एवं आडम्बरपूर्ण था। मंदिरों में भी आडम्बर बढ़ा हुआ था । पूजा की सामग्री में भी अति होती जा रही थी । दया का महत्व कम पड़ रहा था । इस सर्व धर्मविरुद्ध वर्त्तन का अधिक उत्तरदायी यतिवर्ग ही था । यतिवर्ग के इस शैथिल्य के कारण तथा उनके चैत्यनिवास के फलस्वरूप मंदिरों में होती हुई आशातनाओं के कारण मंदिर की ओर से लोगों को उदासीनता-सी उत्पन्न होने लग गई थी । इधर जैनसमाज के अंतर में यह सर्व हो रहा था और उधर यवन लोग मंदिरों को तोड़ने और मूर्त्तियों को खण्डित करने में अपना धर्म समझते थे । विक्रम की तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दियाँ जैन और हिन्दू धर्म के लिये बड़े ही संकट का काल रही हैं । यवन - शासक भारत में राज्य करते हुये भी भारतीय प्रजा का धन लूटने में, बहू-बेटियों का मान हरने में पीछे नहीं रहे । जहाँ इन्होंने मंदिरों को तोड़ा, वहाँ की स्त्रियों एवं कुमारी कन्याओं का भी इन्होंने अपहरण किया ही। मंदिर तोड़ कर उसको मस्जिद में परिवर्तित करना ये महान धर्म का कार्य समझते थे । अतः जहाँ २ इनको विश्रुत, समृद्ध मंदिर दिखाई दिये, इन्होंने आक्रमण किये; मंदिरों को तोड़ा, मूर्त्तियों को खंडित किया, वहाँ का धन-द्रव्य लूटा और वहाँ की बहू-बेटियों का मान हरा | जैन और हिन्दूसमाज में मन्दिरों के कारण बढ़ते हुये उत्पात पर मन्दिरविरोधी भावनायें जाग्रत होने लगीं और यह स्वाभाविक भी था । इस प्रकार जैनसमाज भी बाहर से संकटग्रस्त और भीतर से विकल हो रही थी । लोंकाशाह वैसे भी क्रांतिकारी विचारक तो थे ही और फिर लहिया का कार्य करने से आपको शास्त्रों का भी अच्छा ज्ञान हो गया था। जैनसमाज में धर्मविरुद्ध फैले हुये शिथिलाचार एवं आडम्बरपूर्ण धर्मक्रियाओं के विरोध में आपने आवाज उठाई और अपने विचारों का प्रचार करने लगे । आप दया पर अधिक जोर देते थे और दान की अपेक्षा दया का महत्व अधिक होना समझाते थे । पौषध, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान जैसी जैनधर्मक्रियाओं को अमान्य करते हुये आप विचरण करने लगे । अल्पतम हिंसावाली जैनधर्म की क्रियाओं का एवं विधियों का आपने विरोध किया और उनको, जिनमें थोड़ी भी हिंसा होती थी आपने शास्त्रनिषिद्ध बतलायीं । मूर्त्ति पूजन, मन्दिर निर्माण और तीर्थयात्राओं को भी दयादृष्टि से अपने अनागमोक्त बतलाया । चैत्यवासी यतिवर्ग के शैथिल्य के कारण जैनसमाज में विक्षोभ तो बढ़ता ही जा रहा था और मन्दिरों के कारण यवनआततायियों के होने वाले आक्रमणों पर मन्दिरों के प्रति एक विरोधी भावना जन्म ही रही थी; श्रीमान् लोकाशाह को जैनसमाज में इस प्रकार अपने विचारों के अनुकूल बढ़ता हुआ वातावरण प्राप्त हो गया । आप ग्राम- ग्राम भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करने लगे । मेरी समझ में श्रीमान् लोकाशाह की क्रांति पूर्णतः दया स्थापना के अर्थ एवं समाज में फैले हुये अतिशय आडम्बर और धर्मक्रियाओं में बढ़े हुये अतिचार के प्रति ही थी । जहाँ तक दयास्थापना का प्रश्न है आपकी क्रांति उस समय की समाज को प्रथम नहीं खरी; परन्तु पूर्णतः दया स्थापना Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड]: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-लोंकागच्छ-संस्थापक श्रीमान् लोकाशाह:: [३६१ के उद्देश्य के समक्ष तो मूर्तिपूजन, मन्दिर-निर्माण और तीर्थों के लिये की जानेवाली संघयात्राओं की विधियें भी आलोच्य बन गई और उस समय का मन्दिरविरोधी वातावरण भी श्रीमान् लोंकाशाह को स्वभावतः उधर ही खींचने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। हुआ यह है कि श्रीमान् लोकाशाह का विरोधी आन्दोलन अन्य दिशाओं में कम पड़ कर मन्दिरविरोधी दिशा में परिवर्तित होता हुआ बढ़ने लगा । जैसा आगे लिखा जायगा कि श्री भाणजी द्वारा मन्दिरविरोधी आन्दोलन तीव्रतर हो उठा और श्वेताम्बर-जैनसमाज दो खण्डों में विभाजित होता हुआ प्रतीत होने लगा। पत्तननिवासी प्रतिभासम्पन्न लखमसी आपकी ओजस्वी वाणी, तर्कशक्ति, शिथिलाचार-विरोधी-आन्दोलन से बहुत ही आकृष्ट हुये और वि० सं० १५३० में आपके शिष्य बन गये। प्रखर बुद्धिशाली लखमसी जैसे शिष्य को पाकर अब वि० सं०१५३१ से लोंकाशाह ने शिथिलाचारी यतिओं के विरोध में घोर आन्दोलन प्रारम्भ किया और शुद्धाचार एवं दयाधर्म का सबल प्रचार करने लगे। शिथिलाचारी चैत्यावासी यतिओं के कारण मन्दिरों में बढ़े हुये आडम्बर तथा असावधानी और शिथिलाचार के कारण होती हुई आलोच्य प्रक्रियाओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने लगे । लोकाशाह का चरित्र बड़ा ऊंचा था, वैसी ही उनकी बुद्धि भी अतळ थी, फिर समय भी उनके अनुकूल था; लोगों ने लोकाशाह के व्याख्यानों को बड़े ध्यान से सुना और थोड़े ही समय में उनके मत को मानने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हो गये। लोकाशाह आप दीक्षित नहीं हुये थे, परन्तु इनके अनेक भक्त दीक्षित होना चाहते थे । निदान लोकाशाह के वैराग्यरंगरंगित शिष्य सर्वाजी, हमालजी, भानजी, नूकजी, जगमालजी आदि पैंतालीस (४५) जन सिंध हैदराबाद में विराजमान इक्कीस साधुओं से युक्त श्रीमद् ज्ञानजी स्वामी की सेवा में लोकागच्छ की स्थापना पहुंचे और दीक्षा देने के लिये उनसे प्रार्थना की। वि० सं० १५२६ में वैशाख शु० त्रयोदशी को ज्ञानजी स्वामी ने श्रीमान् लोंकाशाह के पैंतालीस भक्तों को साधु-दीक्षा प्रदान करके लोंकागच्छ की स्थापना की। __इस लोंकागच्छ के आदि साधु भाणाजी थे। इन्होंने वि० सं० १५३१ में दीक्षा ग्रहण की थी। ये भी अरहटवाड़ा के निवासी और प्राग्वाटज्ञातीय थे । इन्होंने यतियों के विरुद्ध छेड़े गये आन्दोलन को पूर्णतः मूर्तिपूजा अमूर्तिपूजक आन्दोलन. के विरोध में परिवर्तित कर दिया। इन्होंने मूर्ति-पूजा का प्रचंड विरोध वि० सं० लोकाशाह का स्वर्गवास १५३३ से प्रारंभ किया। वि० सं० १५३७ में ये स्वर्गवासी हुये थे। स्थानकवासीसंप्रदाय के आदि साधु ये ही माने जाते हैं । साधुवर्ग ने भ्रमण करके लोंकाशाह के विचारों का थोड़े ही समय में वि० सं०१५४३ में लावण्यसमयकवि रचित चौपाई का अन्श:'पोसह पडिकमणु पच्चखाण, नवि माने श्रेईस्या++१३, जिनपूजा करिया मति टली, अष्टापद बहु तीरथ वली। नवि माने प्रतिमा प्रासाद,'+ १४ 'लुकई बात प्रकाशी इसी, तेहनु सीस हुउ लखमसी' जै० सा० सं० इति० पृ० ५०७ श्री मेरुतुङ्गाचार्यविरचित 'विचारश्रेणिः' अपरनाम स्थविरावली में मतोत्पत्तियों के संवत् देते समय 'लुकागच्छ' की उत्पत्ति के लिये लिखा है कि 'विरनि० २०३२ व० 'लुका जाता',अर्थात् वि० सं०१५६२ में 'लुकामत' की स्थापना हुई। सं०१५६२ में तो 'लुका' विद्यमान ही नहीं थे, अतः 'लुकामत' की उत्पत्ति का वीर सं०२०३२ या वि० सं० १५६२ मानना असंगत है। ___सं०१५३३ मा सिरोही पासेना अरघट्ट पाटकना (अरहट्टवाटक) वासी प्राग्वाटज्ञातिना भाणाथी प्रतिमानिषेधनो वाद विशेष प्रचार मा श्राव्यो।' जै० सा० सं० इति० पृ०५०८ लेख सं०७३७ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय राजस्थान, मालवा और गूर्जरभूमि में दूर २ तक अच्छा प्रचार कर दिया । लोकाशाह अपनी शिष्य-मंडली सहित प्रमण करते हुये वि० सं० १५४१ में अलवर में पधारे । वहाँ आपको आपके शत्रुओं ने तेले के पारणे के अवसर पर आहार में विष दे दिया, जिसके कारण आपकी मृत्यु हो गई। लोकागच्छीय पूज्य श्रीमल्लजी दीक्षा वि० सं० १६०६. स्वर्गवास वि० सं० १६६६ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अहमदाबाद में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० थावर रहते थे। उनकी स्त्री का नाम कुंवरबाई था । श्रीमल्लजी इनके पुत्ररत्न थे । श्रीमल्लजी बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि और निर्मलात्मा थे । संसार में इनका मन कम लगता था । साधु-संतों की संगत से इनको बड़ा प्रेम था। निदान इन्होंने जीवाजी ऋषि के कर-कमलों से वि० सं १६०६ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ पंचमी को अहमदाबाद में भगवतीदीक्षा ग्रहण की। तप और आचार इनका बड़ा कठिन था। थोड़े ही समय में इन्होंने साध्वाचार के पालन में अच्छी उन्नति की और शास्त्राभ्यास भी खूब बढ़ाया। वि० सं० १६२६ जेष्ठ कृष्णा ५ को इनको पूज्यपद से अलंकृत किया गया । अपनी आत्मा का कल्याण करते हुये, श्रावकों को जैन-धर्म का सदुपदेश देते हुये ये वि० सं० १६६६ आषाढ़ शु० १३ को स्वर्गवासी हुये । ये दशवें आचार्य थे और बड़े प्रभावक आचार्य थे। अतः इनके शिष्यगणों का समुदाय श्रीमल्लजी की सम्प्रदाय के नाम से विख्यात हुआ । स्थानकवासी-सम्प्रदाय में श्रीमल्लजी की सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान है और इसके अनुयायी भी अपेक्षाकृत अधिक संख्या में हैं। लोकागच्छीय पूज्य श्री संघराजजी दीचा वि० सं० १७१८. स्वर्गवास वि० सं० १७५५ गूर्जरभूमि के प्रसिद्ध नगर सिद्धपुर में विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वासा अपनी पतिपरायणा स्त्री वीरमदेवी के साथ में सुखपूर्वक रहते थे। दोनों स्त्री-पुरुष बड़े ही धर्मनिष्ठ, शुद्धप्रकृति एवं निर्मलात्मा थे। वीरमदेवी की कुक्षि से वि० सं० १७०५ आषाढ़ शु० १३ को संघराज नामक पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र संघराज प्रतिभासम्पन्न और होनहार था ।श्रे. वासा जैसे धर्मनिष्ठ थे, उनका पुत्र संघराज भी वैसा ही धर्म के प्रति श्रद्धालु और सद्गुणी था । आखिर दोनों पिता-पुत्रों ने वि० संवत् १७१८ वैशाख कृ० १० गुरुवार को जै० गु०क० मा०३ खण्ड २ पृ०२२०५-६-१२-१३ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक चाचार्य और साधु - लोकागच्छीय मुनिश्री इच्छाजी :: इस असार संसार का त्याग करके दीक्षाव्रत अंगीकार किया । अब मुनि संघराज शास्त्राभ्यास में खूब मन लगाकर तीव्र अध्ययन करने लगे। थोड़े ही वर्षों में आपने शास्त्रों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । वि० सं० १७२५ माघ शु० १४ शुक्रवार को अहमदाबाद में बड़ी धूमधाम से आपको पूज्यपद से अलंकृत किया गया । आचार्य संघराजजी बड़े ही तपस्वी एवं कठिन साध्वाचार के पालक थे । आपका स्वर्गवास वि० सं० १७५५ फा० शु० ११ को प्रसिद्ध नगर श्रागरा में हुआ । स्थानकवासी - सम्प्रदाय के ये चौदहवें श्राचार्य थे । ऋषिशाखीय श्रीमद् सोमजी ऋषि विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी श्री लवजी ऋषि ने लोकागच्छ का त्याग करके अपना अलग गच्छ स्थापित किया था। इनके अनेक सुयोग्य शिष्य थे । उनमें सोमजी ऋषि भी थे और वे प्रमुख थे। श्री लवजी ऋषि को अपने जीवन में अनेक कष्ट भुगतने पड़े थे। श्री सोमजी उनके अधिकांश कष्टों में सहभोगी, सहयोगी रहे थे । श्री सोमजी कालुपुट ग्राम के दशा प्राग्वाटज्ञातीय थे और तेवीस २३ वर्ष की वय में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। बुरहानपुर में श्री लवजी ऋषि अपनी शिष्य-मण्डली के सहित एक वर्ष पधारे थे। श्री सोमजी भी आपके साथ में थे। लोकागच्छ के एक यति की प्रेरणा से श्री लवजी ऋषि को आहार में विष दे दिया गया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। गुरु की मृत्यु से श्री सोमजी को बड़ा दुःख पहुँचा । 'सोमजी के कानजी और पंजाबी हरदासजी नामक दो बड़े ही तेजस्वी शिष्य थे । पंजाबी हरदासजी का परिवार इस समय पंजाबी - संप्रदाय के नाम से विख्यात है, जो अति ही उन्नतावस्था में है और कानजी ऋषि का संप्रदाय मालवा, मेवाड़ में और गूर्जर भूमि में फैला हुआ है। श्री सोमजी ऋषि ऋषिसंप्रदाय के प्रमुख संतों में हुये हैं । १ श्री लीमड़ी-संघाडे के संस्थापक श्री अजरामरजी के प्रदादा गुरु श्री इच्छाजी दीक्षा वि० सं० १७८२. स्वर्गवास वि० सं० १८३२. [ ३६३ विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में गूर्जर भूमि के प्रसिद्ध नगर सिद्धपुर में प्राग्वाटज्ञातीय जीवराजजी नामक श्रेष्ठि संघवी रहते थे । उनकी स्त्री का नाम बालयबाई था । उनके इच्छाजी नामक तेजस्वी पुत्र था | इच्छाजी बचपन से ही वैराग्य भावों में लीन रहते थे । साधु-सेवा और शास्त्र - श्रवण से आपको बड़ा प्रेम था । आप ने वि० सं० १७८२ में साधु-दीक्षा अंगीकार की और अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे । आपने अनेक भविजनों को साधु-दीक्षायें प्रदान की थीं। उनमें हीराजी, नाना कानजी और अजरामरजी अधिक प्रख्यात थे। लींबड़ी - संघाड़े के संस्थापक श्री अजरामरजी पूज्य ही कहे जाते हैं। श्री इच्छाजी का स्वर्गवास वि० सं० १८३२ में लींबड़ी नगर में हुआ था । २ १ - जै० गु० क० भा० ३ ० २५० २२१६-१७ २ - जै० गु० क० भा० ३ ० २५० २२१६ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ-संस्थापक श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसूरि दीक्षा वि० सं० १५४६. स्वर्गवास वि० सं० १६१२ अर्बुदगिरि की पश्चिमीय उपत्यका में हमीरगढ़ नामक प्रसिद्ध पुर में प्राग्वाटज्ञातीय वेलोशाह रहते थे। उनकी स्त्री का नाम विमलादेवी था। चरित्रनायक इन्हीं के पुत्र थे। हमीरगढ़ यद्यपि पार्वतीय भूमि में बसा हुआ था, फिर भी वह अति सम्पन्न एवं समृद्ध नगर था । वहाँ साधु मुनिराजों का आवागमन वंश-परिचय बराबर रहता था। अर्बुदतीर्थ के कारण भी आवागमन में अधिक वृद्धि हो गई थी। सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दियों तक इस दुर्ग की जाहोजलाली बनी रही। चरित्रनायक ने नव वर्ष की वय में, जिनका जन्म वि० सं० १५३७ चैत्र शु० नवमी शुक्रवार को हुआ था श्रीबृहत्तपागच्छीय नागोरीशाखीय श्रीमद् साधुरत्नमरि के करकमलों से वि० सं० १५४६ वैशाख शु० नवमी _ को साधु दीक्षा ग्रहण की । आपका नाम मुनि पार्श्वचन्द्र रखा गया । आप कुशाग्रबुद्धि दीक्षा और उपाध्याय-पद ५ थे अतः अल्प समय में ही अच्छे निष्णात पंडित हो गये । आपकी तर्कशक्ति प्रबल थी। उस समय वाद अधिक होते थे। आपने अनेक वादों में जय प्राप्त की। फलस्वरूप वि० सं० १५५४ में सत्रह वर्ष की वय में ही आपके दादागुरु श्रीमद् पुण्यरत्नसूरि ने आपको उपाध्यायपद से नागोर (नागपुर) में महामहोत्सवपूर्वक विभूषित किया । उपाध्यायपदोत्सव भोसवालज्ञातीय छजलाणीगोत्रीय श्रे० सहसाशाह की ओर से आयोजित किया गया था । कुछ शताब्दियों से साध्वाचार शिथिल होता चला आ रहा था। अनेक विद्वान् श्राचार्यों ने इस शिथिलाचार को मिटाने के लिये भगीरथ प्रयत्न किये थे । उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने भी इस शिथिलाचार को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की। वि० सं० १५६४ में आप क्रियोद्धार करने पर तत्पर हुये और शिथिलाकियोद्धार और सरिपद चार का विरोध करने लगे। वि० सं० १५६५ में आपको जोधपुर नगर में श्रीमद् पुण्यरत्नसरि के शिष्य विजयदेवसूरि के समक्ष श्री संघ ने सरिपद प्रदान किया। उस समय के साधुओं के शिथिलाचार को देखकर आपने जो क्रियोद्धार किया था, उसके फलस्वरूप आपको अनेक कष्ट सहन करने पड़े थे। श्रीमद् साधुरत्नसूरि आपका बड़ा मान करते थे । यहाँ तक कि आपके दिखाये हुये __ मार्ग पर ही चलते थे । परन्तु अन्य बृहत्तपागच्छीय साधुओं के साथ विरोध और पार्थचन्द्रगच्छ की स्थापना ईर्ष्या बढ़ती ही गई । आपने इसकी कुछ भी परवाह नहीं की। फलस्वरूप वि० सं० १५७२ में अलग होकर आपने श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ की स्थापना की और आप अपने मत का प्रचार कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात, मालवा, मेवाड़ और मरुधर-प्रान्तों में भ्रमण करके करने लगे। हमीरगढ़ सिरीही-राज्य में है। सिरोही से नैऋत्यकोण में मील के अन्तर पर, सिंदरथ से दक्षिण नैऋत्य में ३ मील के अन्तर पर, हणाद्रा से ईशानकोण में १३ मील के अन्तर पर, मेडा से ईशानकोण में ३ मील के अन्तर पर मीरपुर नामक ग्राम है। इस ग्राम से पूर्व दिशा में एक मील के अन्तर पर हम्मीरगढ़ का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग अबु दगिरि के पश्चिमीढ़ाल की उपत्यका में वसा हुआ है। इस दुर्ग के तीन ओर पहाड़ और एक ओर मैदान है। हम्मीरगढ़ प्र०२ पृ०४ जै० गु० क० मा०१ पृ०१३९,१५२ (टिप्पणी) ऐ०रा०सं०भा०११०११-१६ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ-संस्थापक श्री पार्श्वचन्द्रसूरि :: [ ३६५ आपके मत की शुद्धता और महत्ता देखकर अनेक जैनेतर कुल भी जैन बनने लगे। जोधपुराधीश राव गंगजी (वि० सं० १५७२-१५८८) और उनके पुत्र युवराज मालदेव को आपने प्रतिबोध दिया और लगभग अनेक कुलों को जैन बनाना । - २२०० बावीससौ क्षत्रियवंशीय मुहणोत गोत्रीयकुलों को जैन बनाकर उन्हें ओसवाल " ज्ञाति में परिगणित किया । इसी प्रकार आपने गूर्जर-प्रदेश में उनावाग्राम में वैष्णवमतानुयायी सोनीवणिकों को तथा अन्य अनेक पुर एवं ग्रामों में ऐसे गृहस्थों को जो महेश्वरी बन चुके थे प्रतिबोध देकर पुनः जैन श्रावक बनाये। आपके समय में समस्त उत्तर भारत में यवनों का जोर था। यवन मन्दिर तोड़ते थे और उनके स्थान पर मस्जिद और मकबरे बनाते थे। वि० सं० १५३० में श्रीमान् लोकाशाह ने शिथिलाचारविरोधी आन्दोलन को जन्म दिया 2 और दयासिद्धान्त का घोर प्रचार करना प्रारम्भ किया। तीर्थयात्रा, प्रतिमापूजा आदि लोकामत और पार्श्वचन्द्रसूरि । की क्रियाओं का भी लोंकाशाह ने दयादृष्टि से खण्डन करना प्रारम्भ किया । इस कार्य में लखमसिंह नामक उनके शिष्य ने उनको पूरी २ सहायता दी थी । तुरन्त ही लोकाशाह के अनेक अनुयायी हो गये; क्योंकि चैत्यवासीयतित्रों के शिथिलाचार से उनको घृणा हो उठी थी और उधर मन्दिरों के प्रति उदासीनता बढ़ चली थी। जैनसमाज में मूर्तिपूजा के खण्डन से भारी हलचल मच गई । फलस्वरूप जाग्रति उत्पन्न हुई और अनेक जैनाचार्यों ने क्रियोद्धार करके मन्दिरों और साधुओं में फैले हुये आडम्बर एवं शिथिलाचार को नष्ट करने का प्रयत्न किया । ऐसे क्रियोद्धारक साधुओं में श्री पार्श्वचन्द्रसूरि भी थे। आपने लोंकाशाह के मत के साधुओं के साथ में प्रतिमासामाचारी आदि विषयों पर तथा एक सौ बावीस बोलों पर चर्चा की थी। __ आप जैसे महान् तपस्वी एवं क्रियोद्धारक थे, वैसे ही महान् साहित्यसेवी विद्वान् भी थे। आपने धार्मिक, सामाजिक एवं नीति सम्बन्धी विषयों पर अनेक छोटे-बड़े ग्रंथ, गीत, रास आदि की रचनायें की हैं। आप संस्कृत, पार्श्वचन्द्रसूरि और उनका प्राकृत के अच्छे विद्वान थे। गुजराती-भाषा पर आपका अच्छा अधिकार था । आपश्री साहित्य ____ द्वारा लिखित जितना साहित्य प्राप्त हुआ है, वह आपके युग के साहित्यसेवियों में आपकी रही हुई प्रमुखता को सिद्ध करता है, जैसा पाठकगण आप द्वारा रचित पुस्तकों की नीचे दी गई सूची से अनुमान कर सकेंगे। आपके रचना-साहित्य की सूची निम्न प्रकार है:१-साधु-वन्दना २-अतिचार-चौपाई गा० १५६ ३-पाक्षिक-छत्रीशी. पृ० ५ गा० ३६ . ४-चारित्र-मनोरथमाला ५-श्रावक-मनोरथमाला ६-वस्तुपाल-तेजपाल रास सं० १५६७ ७-आत्म-शिक्षा ८-आगम-छत्रीशी 8-उत्तराध्ययन-छत्रीशी. (दाल) - १०-गुरु-छत्रीशी. ११-मुहपति-छत्रीशी १२-विवेक-शतक १३-दूहा-शतक १४-ऐषणा-शतक १५-संघरंग-प्रबन्ध जे० गु० क० भा०१ पृ० १३६ ग० प्र० (जैन गीता) पृ०६५ मा०रा०३०प्र०भा० भा० शो० च० (भाराम शोभा चरित्र) प्रस्तावना पृ०६ जै० सा०सं०३० पृ०५०६-७३६, ५२२-७६५, लोका साथे १२२ बोलनीपर्चा Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ । प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय १६-जिनप्रतिमा स्थापनाविज्ञप्ति १७-अमर-द्वासप्तिका १८-नियतानियत-प्रश्नोत्तर-प्रदीपिका १९-ब्रह्मचर्य-दश समाधिस्थान कुल २०-चित्रकूटचैत्यपरिपाटी-स्तवन् २१-सचरभेदी पूजा (विधिगर्भित) २२-११ बोल-सजाय २३-कायोत्सर्ग के १६ दोष. २४-वंदन-दोष २५-उपदेश-रहस्य गीत २६-२४ दंडकगर्मित पार्श्वनाथ-स्तवन. २७-आराधना मोटी २८-आराधना नानी २६-खंधक चरित्र-सज्झाय* ३०-विधि-शतक ३१-आदीश्वर-स्तवन-विज्ञप्तिका ३२-विधि-विचार ३३-निश्चय-व्यवहार ३४-वीतरागस्तवन (दाल) ३५-गीतार्थ-पदावबोध कुल ३६-रास-श्रुतका पक्ष ३७-३४ अतिशय स्त. ३८-वीश विहरमान जिन-स्तुति ३६-शांतिजिन-स्त० ४०--सज्झाय ४१-रूपकमाला सं० १५८६ (राणकपुरतीर्थ में रची) ४२-एकादशवचन द्वात्रिंशिका ४३-दशवैकालिक सूत्र-बाला० पत्र ३३ (जैसलमेर के भंडार में) ४४-आचारांग-बालावबोध ४५-औपपातिक सूत्र-बाला. पत्र १२५ (कच्छी द० ओ० भ० मुंबई) ४६-साधु-प्रतिक्रमणसूत्र-बाला० ४७-सूत्रकृतांग सूत्र-बाला० पत्र ८७ (खंभात) ४८-रायपसेणीसूत्र-बाला० ४६-नवतत्त्व-बाला. ५०-प्रश्नव्याकरण सूत्र-बाला० ५१-भाषा के ४२ भेदों का बाला० ५२-तंदुल वेयालीय पयन्ना-बाला०५३-जंबूचरित्र-बाला० ५४-लोंकासाथे १२२ बोल नी चर्चा ५५-चउसरण-प्रकीर्णक-बाला० सं १५६७ फा० शु० १३ रवि० ५६-जिनप्रतिमा अधिकार (गद्य) ५७-चर्चाओ (प्रतिमा, सामाचारी, पारवी के ऊपर) ५८-देवसी-प्रतिक्रमणविधि-सज्झाय. श्रीपार्श्वचन्द्र ने इस प्रकार धर्म और साहित्य की अतिशय सेवा की । फलस्वरूप वि० सं० १५६६ वैशाख शु० ३ को श्रीमद् साधुरत्नसरि की अध्यक्षता में सलखणपुर में मोदज्ञातीय मंत्री विक्रम और सघर तथा श्रीमालीयुगप्रधानपद की प्राप्ति और ज्ञातीय दोसीगोत्रीय हेमा के पुत्र डबा, वोधा और पासराज ने महोत्सव करके देहत्याग आपको युगप्रधानपद से और उसी अवसर पर आपके प्रमुख शिष्य महाविद्वान् समरचन्द्र को उपाध्यायपद से सुशोभित किया । वि० सं० १६०० वैशाख शु०८ शुक्र० को श्रीमद् साधुरत्नसूरि का स्वर्गवास हुआ । तदनन्तर वि० सं० १६०४ में मालवान्तर्गत खाचरोद नगर में उपाध्याय समरचन्द्र को आपने प्राचार्य-पदवी प्रदान की। श्रेष्ठि भीलग और वत्सराज ने बहु द्रव्य व्यय करके सूरिपदोत्सव किया। वि० सं० १६१२ मार्ग शु० ३ को जोधपुर में आपका स्वर्गवास हुआ और श्रीमद् समरचन्द्रसूरि आपके पाट पर विराजे । *वड़तपगच्छि गुणरयणनिधान, 'साहुरयण' पण्डित सुप्रधान पार्श्वचन्द्र' नामे तस् सीस, तिणि कीघो मनि आणी जगीश-१०० सूत्र थकी कोई अधिको उण, तेय खमो जिनवाणी नृण । खखाम (१६००) चंद वरसे उजली, वइसाखी पाठमि मनरली१०१ शुक्रवार ए पुरो कयों, महा ऋषीवर भवजल तर्यो । खंदकचरित्र-सज्झाय ऐ०रा० से0 भा०१ पृ०१४-१५ । जै० गु० क० भा०१ पृ० १०७ (१६२) पृ०१३६.१४८ जै० गु० क० भा० ३ पृ०२४ (४५)पृ०१५८७-८६ ...... जै० सा० सं०३०३२६ । टि०३७४, ४७५७६५, ७७६, ७८३, ७८५,१०५२ । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु - खरतरगच्छीय कविवर समयसुन्दर :: [ ३६७ खरतरगच्छीय कविवर श्री समयसुन्दर वि० सं० १६३०. से वि० सं० १७०० विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी यवन-शासनकाल में स्वर्ण-युग कही जाती है। इसी शताब्दी में लोकप्रिय, नीतिज्ञ, उदार, वीर एवं धीर सम्राट् अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ हुये हैं। ये ही सम्राट् समस्त यवनकाल के कविवर समयसुन्दर और नभ में जगमगाते रवि और चन्द्र ही नहीं, उसके मस्तिष्क, वक्ष और रीड भी ये ही उनका समय तथा वंश हैं । इनके अभाव में समस्त यवनकाल पाशविक, घृणास्पद, अवांछनीय और भार और गुरु परिचय स्वरूप है | शेरशाह सूर अवश्य एक ध्रुव तारा है। ऐसे लोक-प्रिय सम्राटों के समय में धर्म, समाज, साहित्य, कला-कौशल, व्यापार-वाणिज्य की उन्नति होना स्वाभाविक है । कविवर समयसुन्दरजी इसी समय में हुये हैं । इनका जन्म साचोर (मारवाड़) में लगभग वि० सं० १६२० में प्राग्वाटज्ञातीय कुल में हुआ और लगभग वि० सं० १६३० या १६३२ के आपकी दीक्षा बृहत् खरतरगच्छ में हुई । उस समय खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि अधिक प्रख्यात एवं नामांकित आचार्य थे। उनके ६६ प्रसिद्ध शिष्य थे । इन प्रसिद्ध शिष्यों में प्रथम शिष्य सकलचन्द्र उपाध्याय के कविवर समयसुन्दर शिष्य थे। शत्रुंजयमहातीर्थ का सत्रहवां उद्धार करवाने वाला महामंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत जिनचन्द्रसूरि का अनन्य भक्त था । उसका सम्राट् अकबर की राजसभा में अतिशय मान था । सम्राट् अकबर ने कर्मचन्द्र के मुख से सूरीश्वर जिनचन्द्र की प्रसिद्धि सुन कर, उनको राज्जसभा में निमंत्रित किया था । उस समय जिनचन्द्रसूरि गुर्जर - प्रदेश में विचरण कर रहे थे । वे निमंत्रण पाकर वहाँ से खाना हुये और जाबालिपुर (जालोर - राजस्थान) में आकर चातुर्मास किया । तदनन्तर वहाँ से विहार करके मेड़ता, नागौर होते हुये लाहौर पहुँचे । कविवर समयसुन्दर भी आपके साथ में थे । सम्राट् अकबर ने जिनचंद्रसूरि का भारी संमान किया और 'युगप्रधान ' पद प्रदान किया सम्राट् युवानमुनि कविवर समयसुन्दर की बुद्धि, प्रतिभा एवं चारित्र को देख कर अति मुग्ध हुआ । वि० सं० १६४६ फाल्गुण शु० २ को सम्राट् अकबर के कहने के अनुसार युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने मुनि मानसिंह को आचार्यपद और कविवर समयसुन्दर तथा गुणविनय को उपाध्यायपद प्रदान किये। यह पदोत्सव महामंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने बहु द्रव्य व्यय करके शाही धूम-धाम से किया था । । निवृत्त पुरुषों के प्रमुख दो ही कार्य होते हैं। आध्यात्मिक जीवन और साहित्य-सेवा । वि० सत्रहवीं शताब्दी एक शान्त और सुखद शतक था। इन दोनों प्रकार के कार्यों के उत्कर्ष के लिये भी शान्त और सुखद वातावरण चाहिए । फलस्वरूप वि० सत्रहवीं शताब्दी में धर्माचार्यों की प्रतिष्ठा रही और साहित्य में भी अतिशय उत्कर्ष हुआ । उत्कृष्ट संत-साहित्य इसी काल की देन है । सर्व धर्मों के चारित्रवान् एवं विद्वान् धर्माचार्यों का उत्कर्ष बढ़ा और सर्व देशी भाषाओं में नव साहित्य का सर्जन चरमता पर पहुंच गया । महाकवि तुलसीदास, मध्याह्नपद्धति 'प्रज्ञा प्रकर्षः प्राग्वाटे इति सत्यं व्यधायियैः येषां हस्तात् सिद्धिः संताने शिष्य शिष्यादः । अष्टलक्षानर्थानेकपदे प्राप्य ये तु निर्यथाः संसारसकलसुभगाः विशेषतः सर्वराजानाम् ॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय केशवदास, रसखान, सेनापति, गंग, दादूदयाल, सुन्दरदास, बनारसीदास, बीरबल आदि अनेक प्रसिद्ध कवि एवं विद्वानों को इस शतक ने जन्म दिया । इनके साहित्य से आज हिन्दीभाषा का घर अनुप्राणित हो रहा है और संसार में उसका मुख उज्ज्वल है । कविवर समयसुन्दर भी प्रतिभावान् एवं अध्ययनशील व्यक्ति थे । अनुकूल राजा हो, कृपालु गुरु हो, गौरवशाली कुल या गच्छ हो और सहायक वातावरण हो तो फिर जागरूक एवं प्रतिभाशाली पुरुष को बढ़ने में बाधा भी कौनसी रह जाती है । कविवर समयसुन्दर को सारे उत्तम साधन प्राप्त थे । बस उन्होंने अपना समस्त जीवन धर्म-प्रचार और साहित्य-सेवा में व्यतीत किया और सत्रहवें शतक के प्रधान कवियों एवं मुनियों में पगिने गये। सिंध और पंजाब प्रांतों में आपने जीवदयासंबंधी अच्छा प्रचार किया। सिंध का मखनूम महमद शेख और सम्राट् अकबर आपके चारित्र और उपदेश से सदा आपके प्रशंसक बने रहे । आप एक महान् विद्वान्, टीकाकार, संग्राहक, छंद एवं काव्य मर्मज्ञ, भाषानिष्णात, सुयोग्य समालोचक और जिज्ञासु थे । आपकी कृतियों में संस्कृत की कृतियाँ निम्नवत् हैं: १ - भावशतक. श्लो० १०१. सं० १६४१ | ( सर्वप्रथम कृति) २ - रूपकमाला पर वृत्ति श्लो० ४०० सं० १६६३ चातुर्मासपर्व-व्याख्यान-पद्धति. सं० १६६५ चै० शु० १०. अमरसर में । ३ - कालिकाचार्यकथा. सं० १६६६ । ४- समाचारीशतक. सं० १६७२ । ५ - विशेषशतक. सं० १६७२ । ६ - विचारकशतक. सं० १६७४. मेड़ता में । मेड़ता और मंडोर के राजा आपका बहुत संमान करते थे । फलतः आपने जीवदयासम्बन्धी अनेक सुकृत्य वहाँ पर करवाये थे । ७–अष्टलक्षार्थी. सं० १६७६. 'राजानों ददते सोंख्यम्' इस प्रकार के वाक्यों का आठ लाख अथवाला यह ग्रंथ है। लाहौर में सम्राट् इस अद्भुत ग्रन्थ को देखकर अत्यन्त आश्चर्यान्वित हुआ था और इसको स्वहस्त में लेकर पुनः कविवर को देकर प्रमाणभूत किया था। इस ग्रंथ की रचना वि० सं० १६४६ में प्रारम्भ हो गई थी और वि० सं० १६४६ में जब आप सम्राट् से मिले थे, उस समय तक इसका अधिक भाग तैयार हो चुका था । ८ - विसंवादशतक. सं० १६८५ । ६-विशेषसंग्रह. सं० १६८५. लूणकर्णसर में । १० – गाथासहस्री. सं० १६८६ । ११ - जयतिहुयण नामक स्तोत्र पर वृत्ति. सं० १६८७. पाटण में । १२ - दशवैकालिकसूत्र पर शब्दार्थवृत्ति श्लो० ३३५०. सं० १६६१ । १३ – वृत्तरत्नाकरवृत्ति. सं० १६६४. जाबालिपुर में । १४–कल्पसूत्र पर कल्पलता नामक वृत्ति. श्लो० ७७०० । १५ –नवतत्त्वपर-वृत्ति | १६- जिनवल्लभसूरिकृत वीरचरित्र - स्तवन पर ८०० श्लोकों की टीका । १७ - संवादसुन्दर. १६ – रघुवंशवृत्ति । २० – कल्पलता मध्य भोजन - विच्छित्ति । श्लो० ३३३ | १८-चातुर्मासिक व्याख्यान । २१- कल्याणमंदिरस्तोत्र पर वृत्ति. सं० १६६४. । २२ - जीवविचार, २३ - नवतत्व, २४ - दंडक. सं० १६६८ में अहमदाबाद में हाजा पटेल की पोल में रह कर रचे. गुर्जर-भाषा में पद्यकृतियाँ कवि ने गुर्जर भाषा में अनेक दाल, स्तवन, देशियाँ, रास, काव्य गीत रचे । १ - चौवीशी. सं० १६५८. अहमदाबाद में विजयादशमी के शुभोत्सव पर ( पालीताणा भंडार में ) २–शांबप्रद्युम्न-प्रबंधरच्चा. सं० १६५६ खंभात विजयादशमी के शुभोत्सव के दिन रचा । इसकी रचना उपकेशज्ञातीय Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-खरतरगच्छीय कविवर समयसुन्दर :: [ ३६६ लोढ़ागोत्रीय शाह शिवराज की अभ्यर्थना से हुई। इसमें गाथा ५३५. ढाल २१० श्लो० ८०० प्रमाण हैं (ली० भण्डार में) ३-दान-शील-तप-भावना-संवाद. सं० १६६२. सांगानेर में । ४-चार प्रत्येकबुद्ध का रास. सं० १६६५ ज्ये० शु० १५. आगरा में। प्रत्येक बुद्ध-सिद्ध करकंडु, दुर्मुख, नेमिराज और निर्गति (नग्गति) इन चारों का चार खंड में वर्णन है (भी० मा० बम्बई) ५-पोषधविधि-स्तवन- सं० १६६७ मार्ग शु० १० गुरु०. मरोट में । ६-मृगावतीचरित्र-रास. सं० १६६८. मुलतान में। ७-कर्मछत्रीशी. सं० १६६८. माह शु० ६ मुलतान में । ८-पुण्यछत्रीशी. सं० १६६८. सिद्धपुर में। 8-शीलछत्रीशी. सं० १६६६. । प्रत्येक में ३६ कड़ी हैं. १०-संतोषछत्रीशी. ११-क्षमाछत्रीशी. नागौर में।। १२-प्रियमेलकरास. सं० १६७२ मेड़ता में । प्रियमेलक नाम के एक तीर्थ का इसमें माहात्म्य प्रदर्शित करते हुये कवि ने उत्तम श्रावक कैसे २ उत्तम धर्मकृत्य करके समाधिमृत्यु प्राप्त करता है का दिग्दर्शन कराया है। १३-नलदमयन्तीरास. सं० १६७३. वसंतमास में मेड़ता में । १४-पुण्यसारचरित्र. सं. १६७३ ।। १५-राणकपुरस्वतन. सं० १६७६ मार्गशिर. राणकपुर में। १६-वल्कलचीरीरास. सं० १६८१. जैसलमेर में । १७-मौन एकादशी का बृहत्स्तवन. सं० १६८१. जैसलमेर में। १८-वस्तुपाल तेजपाल का रास. सं० १६८२ तियरीपुर में (प्रकाशित) १६-शत्रुजयरास. सं० १६८२ श्रावण कृ० पक्ष में नागौर में । २०-सीताराम-प्रबंधचौपाई. सं १६८३. मेड़ता में (प्रा० भण्डार में) । २१-बारहव्रतरास. सं० १६८५ । २२-गौतमपृच्छा. सं० १६८६ । २३-थावच्चा चौपाई. सं० १६६१ । २४-व्यवहारशुद्धि चौपाई. सं० १६६३ । २५-चंपक श्रेष्ठिनी चौपाई. सं० १६६५. जाबालिपुर में (प्रा० का० भण्डार में) २६-धनदत्त चौपाई. सं० १६६६. अहमदाबाद में । २७–साधुवंदना. सं० १६९७ (ली. भण्डार में) २८-पापछत्रीशी. सं० १६६८. अहमदपुर में (पूर्णचन्द्रजी नाहर) २६-सुसदरास. (अप्राप्त) ३०-पुण्यादयरास. (र० वि० भण्डार अहमदाबाद में) ३१-पुंजऋषि का रास (१) ३२-आलोयणाछत्रीशी. सं० १६६८ । ३३-द्रुपदीसती सम्बन्ध. सं० १७००। अतिरिक्त उपरोक्त संस्कृत, गूर्जरभाषा कृतियों के कवि ने अनेक सञ्झाय, स्तवन और छोटे २ पदों की रचनायें की हैं । आपकी विविध कवितायें निम्नवत् हैं: १. जंबूरास । २. नेमिराजिमतीरास । ३. प्रश्नोत्तरचौपाई । ४. श्रीपालरास । ५. हंसराज-वच्छराजचौपाई । ६. प्रश्नोत्तरसारसंग्रह। ७. पद्मावतीसञ्झाय । ८. चार प्रत्येक बुद्ध पर सं०। ६. पार्श्वनाथ-पंचकल्याणक-स्तवन । १०. प्रतिमा-स्तवन । ११. मुनिसुव्रत-स्तवन ।। जै० सा० सं० इति० पृ० ५७६ (८४७), पृ०५८८ (८६४), जैनसाहित्य संशोधक अंक ३ खं०२ पृ०१ से १ G. O. S. Vo. no-XXI (जैसलमेर-भंडार की सूची) प्र.पृ०६०,६१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] विविध काव्यगीत१. नलदमयन्ती ५. अक 8. माननिवारण १३. अतिलोभनिवारण १७. निंदानिवारण २१. स्वार्थ २५. घड़ियाला २६. नाव ३३. संदेह ३७. क्रियाप्रेरण ४१. निरंजनध्यान ४२. दुःषमकाल में संयम - पालन भण्डारों का जब शोधन होगा, अनुमान है कि कवि की और कृतियों का पता लगेगा। फिर भी उपलब्ध कृतियों की सूची पूरी २ दी गई है । सं० १६४६ लाहौर सं० १६६२ सांगानेर :: प्राग्वाट - इतिहास :: सं० १६६८ मुलतान सं० १६८१ जैसलमेर, लोद्रवपुर, शत्रुंजय सं० १६६१ खंभात २. जिनकुशलसूर ६. स्थूलभद्रजी १०. मोहनिवारण १४. मनशुद्धि १८. हुँकार निवारण २२. पार की होड़निवारण २६. उद्यमभाग्य ३०. जीवदया ३. ऋषभनाथ ७. गौतमस्वामी ११. मायानिवारण १५. जीव - प्रतिबोध १६. कामिनी - विश्वास २३. जीवव्यापार २७. मुक्तिगमन ३१. वीतराग - सत्यवचन ३५. परमेश्वरपृच्छा ३४. सूता - जगावय ३८. परमेश्वरस्वरूपदुर्लभता ३६. जीवकर्मसम्बन्ध मेवाड़, मरुधर, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, संयुक्त प्रदेश आदि उत्तर भारत के प्रमुख प्रान्तों में उन्होंने गुरु एवं अपनी शिष्यमण्डली के साथ में विहार और चातुर्मास किये थे । वि० सं० १६४६ तक तो वे गुजरातhaar का विहारक्षेत्र एवं भूमि में ही विचरण करते रहे । परन्तु सम्राट् अकबर के निमंत्रण पर जब वे अपने चातुर्मास और विविध प्री- प्रगुरु श्रीमद् जिनचन्द्रसूरि के साथ में सम्राट् अकबर से मिलने के लिये लाहौर गये थे, तीय भाषाओं से परिचय तब उनको मारवाड़, मेवाड़ और आगराप्रान्तों में होकर जाना पड़ा था। वि० सं० १६४६ में जाबालिपुर में गुरु के साथ चातुर्मास रहे थे। इस प्रकार इस यात्रा में अनेक नगर, ग्रामों के श्री संघों से परिचय बढ़ा । फलस्वरूप विहार में रुचि बढ़ी। अनेक तीर्थो कीं यात्रायें कीं और अनेक नगर, ग्रामों में रहकर रचनायें कीं । उन्होंने जिन स्थानों पर रचनायें कीं और रचना के कारण अधिक समय पर्यंत निवास किया, उन स्थलों की सूची मय सम्वत् के इस प्रकार हैं: सं० १६५८ श्रहमदाबाद सं० १६६५ आगरा सं० १६७२-७३-७४ मेड़ता सं० १६८२ नागौर सं० १६८५ लूणकर्णसर सं० १६६६ अहमदाबाद [ तृतीय ४. सनत्कुमार ८. क्रोधनिवारण १२. लोभनिवारण १६. आर्चिनिवारण २०० जीवनट २४. घड़ीलाखीणी २८. कर्म ३२. मरणभय ३६. भणनप्रेरण ४०. परमेश्वरलय सं० १६५६ खंभात सं० १६६७ मरोट सं० १६७६ राणकपुर सं० १६८३ मेड़ता सं० १६८७ पाटण सं० १६६८ अहमदपुर Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु - खरतरगच्छीय कविवर समयसुन्दर :: [ ३७१ कविवर ने संमेतशिखर, चंपा, पावापुरी, फलोधी, नाडोल, बीकानेर, अर्बुदाचल, गौड़ी, वरकाणा, जीरावला, शंखेश्वर, अंतरीक्ष, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रायें की थीं और जैसलमेर में आप कई वर्षों तक रहे थे । जैसलमेर के महा राउल भीम ने आपके सदुपदेश से सांड का वध करना अपने राज्य में बंध किया था । अनेक प्रांतों में अधिक समय तक विचरण और निवास करने से कविवर समयसुन्दर को अनेक प्रान्तीय भाषाओं से परिचय हुआ, जो हम उनकी रचनाओं में स्पष्ट देखते हैं। उनकी रचनाओं में गूर्जर-भाषा के शब्दों कविवर का साहित्यसेवियों के अतिरिक्त राजस्थान, फारसी आदि शब्दों का भी प्रयोग है । कवि यद्यपि साधु थे, में स्थान फिर भी उनका प्रकृतिप्रेम और उससे अद्भुत परिचय जो हमको उनके फुटकल पद्यों में मिलता है सिद्ध करता है कि उनका अनुभव विस्तृत एवं अगाध था और ऐसे चारित्रवान् महान् विद्वान् साधु का प्रकृति से सीधा तादात्म्य सिद्ध करता है कि प्रकृति शुद्ध और सदा मुक्त है, जो आध्यात्मिक जीवन को बढ़ाती और बनाती है । जैसे ये जिनेश्वर के भक्त थे, वैसा ही उनका उत्कृष्ट अनुराग सरस्वती, गुरु, माता-पिता के प्रति भी था । कविवर की भाषा प्रांजल, मधुर, सरल और सुन्दर है । इन्होंने धार्मिक विषयों, तीर्थङ्करों, तीर्थों के अतिरिक्त सामाजिक विषयों पर भी अनेक फुटकल रचनायें की हैं। इनकी रचनाओं में कथा, वार्त्ता और इतिहास है तथा धर्म की प्ररूपणा है । इनकी वसंत विहार, वसंत-वर्णन, अतृप्त स्त्री, नगर-वर्णन, दुकाल-वर्णन रचनायें भी अधिक चित्ताकर्षक हैं । कविवर को देशियों और दालों से भी अधिक प्रेम था । ये संगीत के अच्छे ज्ञाता एवं प्रेमी थे । ये सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न कवि थे एवं व्याख्याता थे । श्रीमद् जिनचन्द्रसूरि ने इनको वाचकपद प्रदान किया था । संस्कृत, प्राकृत, गूर्जरभाषा पर भी इनका अच्छा अधिकार था । स्थानाभाव के कारण तुलनात्मक दृष्टि से इनका पूरा २ साहित्यिक-मूल्यांकन करना यहाँ असम्भव और प्रासांगिक भी प्रतीत होता है । ये श्रावककवि ऋषभदास के समकालीन थे । ऋषभदास इनके प्रबल प्रशंसक थे । कविरचित स्तवनः शत्रुजे ऋषभ समोसर्या भला गुण भर्या रे, सिद्धा साधु अनन्त, तीरथ ते नमु रे । तीन कल्याण तिही यथ, मुगतें गया रे, नमीश्वर गिरनार, तीरथ ते नमु रे । अष्टापद एक देहरो, गिरि-सेहरो रे, भरतें भराव्या चिंब - ती० चौमुख प्रति भलो, त्रिभुवनतिलो रे, विमल-वसई वस्तुपाल. समेत शिखर सोहामणो, रलियामणो रे, सिद्धा तीर्थंकर वीश, नयरीचंपा निरखियेरे, हैये हरखियेरे, सिद्धा श्री वासुपूज्य. पूर्वेदिशे पावापुरी, ऋद्धि भरी रे, मुक्ति गया महावीर, जैसलमेर जुहारिये, दुःख वारी येरै, अरिहंतबिंब अनेक. विकानेर ज वंदीये, त्रिरनंदी येरे, अरिहंत देहरा आठ, सेरिसरो शंखेश्वरो, पंचासरो रे, फलोधी थंमण पास, अंतरिक अंजाव अमीजरो रे, जीरावलो जगनाथ, त्रैलोक्यदीपक देहरो, जात्रा करो रे, राणपुरे रिसदेश. श्री नाडुलाई जादव, गोड़ी स्तवोरे, श्री वरकारणो पास, नंदीश्वर देहरी, बावन भलारे, रुचककुंडले चार चार, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ 1 .: प्राग्वाट-इतिहास :: । तृतीय कविवर की अंतिम कृति वि० सं० १७०० की है। इससे सिद्ध है कि कवि का स्वर्गवास वि० सं० १७०० के लगभग हुआ है । इस प्रकार कविवर लगभग अस्सी वर्ष का श्रायु भोग कर स्वर्ग सिधारे। उनकी साहित्यिक कविवर का शिष्य-समुदाय सेवाओं का प्रभाव उनके शिष्य समुदाय पर भी अमिट पड़ा। उनका हर्षनंदन नामक और स्वर्गारोहण. शिष्य अति विख्यात् विद्वान् एवं प्रभावक हुआ। हर्षनंदन ने ख० सुमतिकल्लोल की सहायता से 'स्थानांग-आगम' की गाथाओं पर १३६०४ श्लोकों की एक वृत्ति रची। इनका प्रशिष्य उपाध्याय हर्षकुशल भी बड़ा विद्वान् था । उन्नीसवीं शताब्दी तक इनकी शिष्य-परंपरा अखंड रूप से विद्यमान रही ।* श्री पूर्णिमागच्छाधिपति श्रीमद् महिमाप्रभसूरि दीक्षा वि० सं० १७१६. स्वर्गवास वि० सं० १७७२ गूर्जरभूमि के धाणधारप्रान्त में आये हुये पालणपुर नगर के पास में गोला नामक एक ग्राम है। वहाँ प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वेलजी रहते थे। उनकी स्त्री का नाम अमरादेवी था। अमरादेवी की कुक्षि से दो पुत्र और __एक पुत्री हुई थी। चरित्रनायक का नाम मेघराज था और ये सब से छोटे पुत्र थे । वंश-परिचय इनका जन्म वि० सं० १७११ आश्विन कृ. ६ मघा नक्षत्र में हुआ था। जब इनकी आयु चार वर्ष की हुई माता अमरादेवी का स्वर्गवास हो गया । श्रे० वेलजी का गृहस्थ-जीवन एकदम दुःखपूर्ण हो गया । बड़ा पुत्र अलग हो गया और पुत्री का विवाह हो जाने से वह अपने श्वसुरालय में चली गई। दुःखी पिता वेलजी और लघु शिशु मेघराज को भोजन बनाकर भी कोई देने वाला नहीं रहा। श्रे० वेलजी अधिकाधिक दुःखी रहने लगा। निदान वेलजी ने दुःख को भूलने के लिये यात्रा करने का निश्चय किया और शिशु पुत्र मेघराज को ले कर वि० सं० १७१७ में यात्रार्थ निकल पड़े। अणहिलपुरपत्तन में पहुँच कर दंदेरवाड़ा के श्री महावीरजिनालय में दोनों पिता-पुत्रों ने प्रभुप्रतिमा के भावपूर्वक दर्शन किये और तत्पश्चात् उपाश्रय में जाकर श्रीमद् ललितप्रभसूरि के पट्टधर श्रीमद् विनयप्रभसरि को सविनय सविधि वंदना की। उक्त आचार्य का उपदेश *शाश्वती अशाश्वती, प्रतिमा छती रे स्वर्ग मृत्यु पाताल, तीरथयात्रा फल तिहा, होजो मुज इहरि, समय सुन्दर कहे ऐम, सेरीसर-गुजरात में कल्लोल के पास में. शंखेश्वर-श्रणहिलपुरपत्तन से २० मील. थंभण-खंभात में, फलोधी-मेडता (मारवाड) रोड़ से १० मीन. अंतरिक्ष-पार्श्वनाथ-आकोला से ४० मील. अजाबरो (अजाहरो)-काठियावाड़ में उनाग्राम के पास में, अमीजरापार्श्वनाथ-दुश्रा में (पालणपुरस्टेट) जीरावला-पार्श्वनाथ । वरकाणा । नाडुलाई। राणकपुरतीर्थ। ] मारवाड़ में भावनगर में हुई गु० सा०प० के सातवें अधिवेशन के अवसर पर श्रीयुत् मोहनलाल दलीचन्द देसाई द्वारा लिखे गये निबंध 'कविवर समयसुन्दर' के आधार पर ही तैयार किया गया है। निबंध प्रति विस्तृत और पूरे श्रम से तैयार किया गया था। मैं निबंधकर्ता का अत्यन्त आभारी हूं कि जिनके श्रम ने मेरे श्रम को बचाया। देखो, जैन साहित्य संशोधक अंक ३ खं०२ पृ०१ से ७१ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-कडुअामतीगच्छीय श्री खीमाजी :: [३७३ श्रवण करके श्रे० वेलजी ने अपने प्यारे पुत्र को सुखी करने की दृष्टि से गुरु महाराज साहब को अर्पित कर दिया। बालक मेघराज अत्यन्त ही कुशाग्रबुद्धि था। दो वर्ष के अल्प समय में उसने सराहनीय अभ्यास कर लिया । श्रीमद् विनयप्रभसूरि मेघराज की प्रतिभा देखकर अति प्रसन्न हुये और वि० सं० १७१६ में उसको आठ वर्ष की वय में ही भगवतीदीक्षा प्रदान कर दी और मेघरत्न नाम रक्खा । बालमुनि विद्याभ्यास और दीक्षा मेघरत्न ने गुरु की सेवा में रह कर हैमपाणिनी-महाभाष्य आदि व्याकरण-ग्रन्थों का अध्ययन किया और तत्पश्चात् बुरहानपुर में भट्टाचार्य की निश्रा में चिन्तामणि-शिरोमणि आदि न्याय-ग्रन्थों का, ज्योतिषग्रंथ सिद्धान्तशिरोमणि, यंत्रराज आदि का, गणित, जैनकाव्य आदि अनेक विषयक ग्रन्थों का परिपक्क अभ्यास किया और बीस वर्ष की वय तक तो आप महाधुरन्धर ज्योतिषपण्डित और शास्त्रों के ज्ञाता हो गये । वि० सं० १७३१ में श्रीमद् विनयप्रभसूरि का स्वर्गवास हो गया और आप श्री को उसी वर्ष फाल्गुण मास में सूरिपद से सुशोभित करके उनके पाट पर आरूढ़ किया गया और महिमाप्रभसूरि आपका नाम रक्खा । उक्त पाटोत्सव श्रे० श्री लाधा सूरजी ने बहुत द्रव्य व्यय करके किया था। आप सरिपद की प्राप्ति अपने समय के जैनाचार्यों में प्रखर विद्वान् एवं महातेजस्वी आचार्य थे । आपके पाण्डित्य एवं तेज से जैन और जैनेतर दोनों अत्यन्त प्रभावित थे। आपने अनेक प्रतिष्ठायें करवाई । अनेक प्रकार के तपोत्सव करवाये। श्रे० वत्सराज के पुत्र चन्द्रमाण विजयसिंह के सहित दोसी उत्तम ने आपश्री के कर-कमलों से प्रतिष्ठोत्सव करवाया। आपने अनेक ग्रन्थों को लिखवाया आपश्री के कार्य और और साहित्य-भण्डार की अमूल्य वृद्धि की । आपने अनेक तीर्थयात्रायें की। अनेक स्वर्गवास श्रावक किये । पत्तनवासी लीलाधर आदि तीन भ्राताओं ने आपश्री के सदुपदेश से सातों क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । इस प्रकार आपश्री ने जैनशासन की भारी शोभा बढाई। वि० सं० १७७२ के मार्गमास के प्रारम्भ में आपश्री बीमार पड़े और थोड़े दिनों का कष्ट सहन करके मार्ग कृ० नवमीं को स्वर्ग सिधार गये ।१ श्री कडुआमतीगच्छीय श्री खीमाजी दीक्षा वि० सं० १५२४ के लगभग. स्वर्गवास वि० सं० १५७१. मरुधरदेशान्तर्गत नडूलाई नगर के निवासी नागरज्ञातीय श्रेष्ठि काहनजी की स्त्री कनकादेवी की कुक्षि से२ वि० सं० १४६५ में उत्पन्न कडुबा नामक पुत्र ने आगमिकगच्छ में साधु-दीक्षा ग्रहण की थी। शुद्धाचारी साधुओं का प्रभाव देखकर कडुआ मुनि ने वि० सं० १५६२ में अपना अलग गच्छ स्थापित किया, जिसका जै० गु० क० भा० ३ खं० २ पृ० १४२५ और २२४१ । २२२३२ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ तृतीय नाम कडुआागच्छ पड़ा । इस गच्छ के दूसरे आचार्य खीमाजी थे । इनके पिता कर्मचन्द्र प्राग्वाटज्ञातीय और पत्तननिवासी थे । इनकी माता का नाम कर्मादेवी था। श्री खीमाजी ने सोलह वर्ष की आयु में श्री कडुआ के करकमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण की थी । चौवीस वर्ष पर्यन्त इन्होंने साधु-पर्याय पाला और ७ वर्ष पर्यन्त ये पट्टधर रहे । ४७ सैंतालीस वर्ष की वय में सं० १५७१ में इनका पत्तन में स्वर्गवास हो गया । कडुआामत का इन्होंने खूब प्रचार किया । थराद (थिरपद्र) में इनके समय में कडुयामत के उपाश्रय की स्थापना हुई थी । श्री साहित्यक्षेत्र में हुए महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण कविकुलभूषण कवीश्वर धनपाल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी वंश - परिचय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब कि गूर्जरेश्वर वीशलदेव का राज्य काल था गूर्जरप्रदेश के पालणपुर नामक प्रसिद्ध नगर में प्राग्वाटज्ञातिकुलशृंगार श्रे० भोवई नामक हो गये है । श्रे० भोवई अत्यन्त गुणवान्, दयाधर्मी एवं दृढ़ जिनेश्वरभक्त थे । श्रे० भोवई के सुहड़प्रभ नामक एक अति गुणाढ्य पुत्र था । सुहड़प्रभ की स्त्री का नाम सुहड़ादेवी था । कवि धनपाल का जन्म इस ही सौभाग्यशालिनी सुहड़ादेवी की कुक्षि से हुआ था । धनपाल से संतोषचन्द्र और हरिराज नामक दो और छोटे भ्राता थे । कवि धनपाल बड़ा प्रतिभाशाली पुरुष था । श्री कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में सरस्वतीगच्छ में हुये भट्टारक श्री रत्नकीर्त्ति के पट्टधर श्रीप्रभाचन्द्रसूरि का वह शिष्य था और इनके पास में रह कर ही उसने विद्याध्ययन किया कवि धनपाल ‘कृतबाहुबलि- था । उक्त प्रभाचन्द्रसूरि फिरोजशाह तुगलक के राज्य-काल में, जो ई० सन् १३५१ चरित्र' वि० सं० १४०८ में शासनारूढ़ हुआ था हो गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि कवि 'गुज्जरदेस - मज्झि पट्टणु, वसई विड़लु पाल्हापुर पट्टणु । वीसलएउ राउ पय-पालउ, कुवलय-मंडगु सयलु व मालउ । तह पुरवाड़वंश जायामल, अगणित पुव्वपुरिस विनिम्मल कुल । पुण हुउ राय सेट्ठि जिण-भत्तउ, भोवई णामे दयागुण - जुत्तउ | सुहडप्पउ तहो गंदणु जायउ, गुरु सज्ज हिंहं भुणि विक्खायउ ।” बाहुबलिचरित्र पत्र २ गुज्जर-पुरवाड़वंस- तिलउ, सिरि सुहड़ सेट्ठि गुणगणणि लउ । तहो मणहर छाया गेहणिय, सुहड़ा एवी णामे भणिय । तहो उवयरि जाउ बहु-विणमजुश्रो घरणवालु विसुउ खाभण हुआ। तहो विशिख तणुष्भव विउल-गुण, संतोषु तह हरिराजय पुरा । - बाहुबलिचरित्र के अंत में लिखित प्रशस्ति से बाहुबलि चरित्र में प्रभाचन्द्रसूरि का वर्णन लिखते हुये धनपाल ने उनके पास में रह कर विद्याध्ययन करना स्वीकार किया है । 'संवत् १४१६ वर्षे चैत्र सुदि पंचम्या सोमवासरे सकलराज शिरोमुकुटमाणिक्यमरिचिपिंजरीकृत- चरणकमलपादपीठस्य पिरोज Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरड :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-कवीश्वर ऋषभदास:: धनपाल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ है। कवि धनपाल ने 'बाहुबलि-चरित्र' की रचना की है। यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में अट्ठारह संधियों में पूर्ण हुआ है और उसकी पत्र-संख्या २७० है । इस प्रन्थ की हस्तलिखित प्रति आमेर (जयपुर राज्य) के भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्ति-भण्डार में विद्यमान है। इससे अधिक धनपाल कवि के विषय में कुछ नहीं मिला है। विद्वान् चण्डपाल प्राग्वाटज्ञातीय यह विद्वान् आचार्य यशोराज का पुत्र था। विद्वान् पिता का पुत्र भी विद्वान् ही होना चाहिए यह कहावत सचमुच चंडपाल ने सिद्ध की थी। यह कवि लुणिग नामक गुरु का शिष्य था। लूणिग भी अति विद्वान् एवं शास्त्रज्ञाता था। महाकवि चंडपाल ने ई० सन् ६१५ में हुये त्रिविक्रमभट्ट नामक विद्वान् द्वारा लिखित 'दमयन्ती-कथा' (चम्पू) पर 'दमयन्त्युदारविवृति' लिखी। गर्भश्रीमन्त कवीश्वर ऋषभदास विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी राजनीति, समाज, धर्म, कला, व्यापार, वाणिज्य, साहित्य की दृष्टियों से यवनशासन-काल में अजोड़ एवं स्मरणीय है । सम्राट अकबर जैसे महान् नीतिज्ञ, लोकप्रिय, प्रजापालक और जहाँगीर जैसे महदुदार, न्यायशील एवं शाहजहाँ जैसे प्रेमी, वैभवशाली शासक इस शताब्दी में कवि का समय हो गये हैं। ये सर्व धर्मों का, सर्व ज्ञातियों का बराबर २ सम्मान करते थे। इनके निकट हिन्दू और मुसलमानों का, हिन्दुधर्म और इस्लामधर्म का भेद नहीं था। ऐसे शासकों के शासन काल में प्रत्येक धर्म, समाज, साहित्य, कला की उन्नति होना स्वाभाविक है । अकबर के दरबार में हीरविजयसरि का, जहाँगीर के दरबार में हीरविजयसूरि के पट्टधर 'सूर-सवाई' विजयसेनमरि और उनके पट्टधर विजयदेवसरि का तथा अन्य साहि सकल साम्राज्य धुरा विभ्राणस्य समये श्री दिल्ल्या श्री कुदकुंदाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री रलकीर्तिपट्टे दयादि तरुणतरणित्वमुर्वी कुर्वाणः भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव तत् शिष्याणां ब्रह्म नाथूराम इत्याराधना पंजिकाया ग्रंथं पढनार्थ लिखापित' (शिवनारायणजी यशलहाके सौजन्य से) अनेकान्त वर्ष ७, अंक ७,८, 'श्रीप्राग्वाटकुलामताधिशशभृत् श्रीमान् यशोराज, इत्याचार्योस्य पिता प्रबन्धसुकविः श्रीचंडपालामजः। . . श्रीसारस्वति सिद्धये गुरूपि श्री लूलिगः शुद्धधी, सोऽ कार्षीत् दमयन्त्युदारविवृति श्रीचण्डपाला सुधीः। जै० सा०सं० इति पृ०५६० Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] :: प्राग्वाट - इतिहास : [ तृतीय जैनाचार्यों का अक्षुण्ण प्रभाव रहा है। जैन धर्म की भी अन्य धर्मों के समान अच्छी उन्नति हुई और जीव- दया सम्बन्धी अनेक महान् कृत्य हुये । उपरोक्त आचार्यों एवं शासकों के मध्य रहे हुये अद्भुत एवं प्रभावक सम्बन्ध का प्रभाव गूर्जर भूमि पर भी अधिक पड़ा । खंभात जिसको खंभनगर, त्रंबावती, भोगवती, लीलावती, कर्णावती भी कहते हैं, उस समय गुर्जरभूमि में धर्म, व्यापार, साहित्य, सुख, समृद्धि की दृष्टि से प्रसिद्ध एवं गौरवशाली नगर था । इस नगर में अधिक प्रभावक, गौरवशाली, समृद्धज्ञाति जैन थी । जिसका प्रभाव समस्त गूर्जर भूमि पर था । खंभात पर जैनाचार्यों एवं शासकों का भी महत्त्वपूर्ण अनुराग था । फलतः खंभात में धर्मात्मा, साहित्यसेवी पुरुषों एवं विद्वानों का उत्कर्ष बढ़ा | कवीश्वर ऋषभदास खंभात में इसी उन्नत काल में हुये । महाकवि ऋषभदास का कुल वीशलनगर का रहने वाला था । इनके पिता सांगण खंभात में आकर रहने लगे थे । वे बृहत्शाखीय प्राग्वाटज्ञातीय थे । माहकवि के पितामह संघवी महिराज थे। महिराज वीशलनगर के कवि का वंश परिचय पिताप्रतिष्ठित पुरुषों में से थे । ये बड़े शीलवान्, उदार एवं परम दयालु दृढ़ जैन-धर्मी थे । मह संघवी महिराज और प्रातः बड़े सवेरे उठते थे और नित्य सांझ और सवेरे सामायिक, प्रतिक्रमण करते थे । पिता सांगण. पूजा, प्रभावना आदि धर्मकार्य इनके जीवन के मुख्य अंग थे । अर्थात् ये शुद्ध बारहव्रतधारी श्वेताम्बर श्रावक थे। जैसे ये दृढ़ धर्मी एवं परोपकारी पुरुष थे, वैसे ही कुशल व्यवहारी भी थे । यद्यपि ये प्रथम श्रेणी के श्रीमंतों में नहीं थे, परन्तु मध्यम श्रेणी के श्रीमंतों में ये अधिक सुखी और समृद्ध थे । गिरनार, शत्रुंजय और अर्बुदाचलतीर्थो की इन्होंने यात्रायें की थीं और संघ भी निकाले थे । इनका पुत्र संघवी सांगण भी गुण और धर्म-कार्यों में इनके समान ही था । उस समय खंभात नगर जैसा ऊपर लिखा जा चुका है अति प्रसिद्ध नगर था । व्यापार, कला, समृद्धि में अद्वितीय था । दिनोंदिन इसकी उन्नति ही होती जा रही थी । वहाँ के व्यापारी भारत के बाहर जा कर व्यापार करते थे । उस समय के प्रसिद्ध बंदरगाहों में से यह एक था और यवन- बादशाहों का इस पर सदा प्रेम रहा। इन सब बातों के अतिरिक्त खंभात की प्रसिद्धि का मुख्य कारण एक और था । वहाँ का श्वेताम्बर - संघ प्रति प्रतिष्ठित, समृद्ध, गौरवशाली एवं महान् व्यापारी था। दिल्लीपति सदा खंभात के जैन - श्री संघ का मान रखते आये हैं । संघवी सांगण खंभात की इस प्रकार 'संघवी श्री महिराज बखाणू, प्रागवंश बड़ वीसोजी। समकीत सील सदाशय कहीई, पुष्प करे निस दीसोजी ॥ पड़कमणु ं पूजा परभावना, पोषध पर उपगाराजी । वीवहार शुद्ध चूके नहीं चतुरा, शास्त्र सुश्रर्थ विचारीजी' ॥ जीवविचार - रास सं० १६७६ 'प्रागवंसि बड़ो साह महीराज जे, संघवी तिलक सिरि सोय घरतो । श्री शत्रुब्जय गिरनारे गिरि श्राबूए, पुण्य जाणी बहु यात्रा करतो ॥ क्षेत्रसमास - रास सं० १६७८ 'प्रागवंशे संघवी महिराजे, तेह धरतो जिनशासन काजे । संघपति तिलक घरावतो सारो, शत्रुञ्जय पूजी करे सफल अवतारो ॥ समकित शुद्ध व्रत बारनो धारी, जिनवर पूजा करे नित्य सारी । दान दया धर्म उपर राग, तेह साधे नर मुक्तिनो माग' ॥ मल्लिनाथ - रास सं० १६८५ 'सोय नयर वसि प्रागवास बड़ो, महिराज नो सुत ते सिंह सरिखो। तेह बावती नगर वासे रहघो, नाम तस संघवी सांगण पेखो' || 'तास पुत्र छई नयन भलेरा, सांगण संघ गण्छ घोरी जी । संघपति-तिलक धराया तेराइ, बांधी पुण्यनी दोरी जी ॥ बार वरतना जे अधिकारी, दान शील तप धारी जी । भावि भगति करइ जिनकेरी, नवि नरखई परनारी जी' ॥ व्रतविचार - रास, कुमार पाल - रास. समकितसार - रास सं० १६७८. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-कवीश्वर ऋषभदास :: [३७७ उन्नति देखकर वीशलनगर छोड़ कर वहाँ जा बसे । दृढ़ एवं शुद्ध बारहव्रतधारी श्रावक होने के कारण ये तुरन्त ही खंभात के प्रसिद्ध पुरुषों में गिने जाने लगे। ये प्रसिद्ध हीरविजयसूरि के अनुयायी थे। ये नित्य सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पौषध करते और ऐसे ही आत्मोन्नति करने वाले परोपकारी कार्य करते तथा दान, शील, तप, सद्भावनाओं में तल्लीन रहते और मृषावाद से अति दूर रहते । पिता के सदृश ये शुद्ध व्यवहारी जीवन व्यतीत करते थे । अपनी स्थिति से इनको परम संतोष था। महाकवि ऋषभदास ऐसे पिता के पुत्र और ऐसे ही, अथवा इनसे भी अधिक सर्वगुणसम्पन्न पितामह के पौत्र थे । इस प्रकार महाकवि ऋषभदास का जन्म, पोषण, शिक्षण समृद्ध एवं दृढ़ धर्मी कुल में, उत्तम धर्म में महाकवि ऋषभदास और प्रसिद्धपुर में, उन्नतकाल में और गौरवशाली, तेजस्वी गुरु-छाया में हुआ-यह जैनसाहित्य उनकी दिनचर्या के सद्भाग्य का लक्षण था । हीरविजयमूरि के पट्टधर शिष्य विजयसेनसूरि के पास में इन्होंने शिक्षण प्राप्त किया था । यद्यपि ये प्राकृत एवं संस्कृत के उद्भट विद्वान् नहीं थे; फिर भी दोनों भाषाओं का इनको संतोषजनक ज्ञान अवश्य था । गूर्जरभाषा पर तो इनका पूरा २ अधिकार था। सरस्वती और गुरु के ये परमभक्त थे । अपने पूर्वजों के सदृश ये भी परम संतोषी, सद्भावी बारहव्रतधारी श्रावक थे। इन्होंने अपनी दिनचर्या अपनी कलम से लिखी है । नित्य शक्ति के अनुसार ये धर्मराधना करते, प्रातः जल्दी उठते, भगवान् महावीर का नाम स्मरण करते, शास्त्राभ्यास करते, सम्यक्त्वव्रत का पालन करते, सामायिक-प्रतिक्रमण, पौषध, पूजा करते और द्वयशन (बे आसणु) करते । नित्य दश जिनालयों के दर्शन करने जाते और अक्षत-नैवेद्य चढ़ाते । अष्ठमी को पौषध करते, दिन में सञ्झाय करते, गुरुदेशना श्रवण करने जाते, कभी मृषावाद नहीं करते, दान, शील, तप, सद्भावना में लीन रहते, बावीस अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से दूर रहते तथा हरी वनस्पति का सेवन प्रायः बहुत कम करते । इस प्रकार ये शुद्ध श्रावकाचार का विशुद्ध परिपालन करते हुये साहित्य की भी महान् सेवा करनेवाले जैन-जगत में एक ही श्रावक हो गये हैं। ____ इन्होंने उत्तम रासों की रचना की हैं । इनकी रास-रचना सूर और तुलसी का स्मरण करा देती है। रासों की रचना सरल एवं मधुर भाषा में है । रासों की धारावाही गति कवि के महान् अनुभव एवं भाषाधिकार को ऋषभदास की कवित्वशक्ति प्रकट करती है। इन्होंने चौंतीस ३४ रासों की रचना की । रासों की सूची रचनाऔर रचनायें __सम्वत्-क्रम से इस प्रकार है । गाथा रचना-संवत् १-व्रतविचाररास ८६२ १६६६ का० १५ (दीपावली) २-श्री नेमिनाथनवरस १६६७ पौष शु०२ रास 'संघवी सांगणनो सुत वारु, धर्म आराधतो शक्तिज सारु | ऋषभ 'कवि' तस नाम कहाये, प्रह उठी गुण वीरना गावे ॥ समज्यो शास्त्रतणा ज विचारो, समकितशुवत पालतो बारो। प्रह उठि पडिकमणु करतो, बेत्रासणु' बत ते अंग धरतो॥ च उदे नियम संभारी संक्षेप,वीर-वचन-रसे अंग मुझ ले । नित्य दश देरी जिन तणा जुहारु, अक्षत मूकि नित पातम तारु॥ आठम पाखी पोषधमाहि, दिवस अति सम्झाय करू त्याहि । वीर-वचन सुणी मनमा भेटु, प्रायें वनस्पति नवि चुटुं॥ मृषा श्रदत्त प्राय नहिं पाप, शील पाल' मन वच काय आप । पाप परिग्रह न मिल महि, दिशितणु मान धरु' मनमाहि॥ अभक्ष्य बावीश ने कर्मादान, प्रायें न जाये त्या मुझ ध्यान ।' -हितशिक्षामास Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राम्बाद-इतिहास: [तृतीय १६६८ का० १५ (दीपावली) शुक्र. १६६८ पौ० शु० २ गुरु १६७० भाद्र शु० २ गुरु १६७६ मारिव० शुरु पूर्णिमा १६७६ का० कु. १५ रवि. १६७७ १६७८ पौ० शु० १० १६७८ माघ शु० २ गुरु १६७८ ज्ये० शु० २ गुरु १६७८ भाद्र शु० २ ३-स्थूलिभद्रसस ७२८ ४-सुमित्रराजारास ४२६ ५-कुमारपालरास ४५०६ ६-जीवविचाररास ७-नवतवरास ८११ ८-प्रजापुत्ररास ५५६ है-श्रीऋषभदेवरास १२७१ १०-श्री भरतेश्वररास १११६ ११-श्री क्षेत्रप्रकाश ५८४ १२-शत्रुजयरास ३०१ १३-समकितरास ८७६ १४-बारा-आरा-स्तवन अथवा गौतम-प्रश्नोत्तर-स्तवन १५-समयस्वरूपरास ७६१ १६-देवस्वरूपरास ७८५ १७-कुमारपालरास (छोटा) २१६२ १८-जीवितस्वामीरास २२३ १६-उपदेशमाला ७१२ २०-श्राद्धविधिरास १६१६ २१-पूजाविधिरास ५७१ २२-आर्द्रकुमाररास 8७२ २३-श्रेणिकरास १८३६ २४-हितशिक्षारास १८४५ २५-पुण्यप्रशंसारास ३२८ २६-कइ(य)वन्नारास २८४६ २७–वीरसेनरास ४४५७ २८-हीरविजयसरि का बारहबोलरास २६-हीरविजयसूरिरास ३०-मल्लिनाथरास ३१-बीसस्थानकतपरास ३२-अभयकुमाररास ३३-रोहिणीरास २५०० ३४-सिद्धशिक्षा १६८० १६८२ वै० शु० ५ गुरु १६८२ आश्वि० शु० ५ गुरु १६८२ माघ शु० ५ गुरु १६८३ १६८३ १६८३ १६८४ श्रा० ० २ गुरु १६८५ आश्वि० शु० १० गुरु १६८५ पौ० शु० १३ रवि० १६८५ १६८७ का० शु० गुरु १६८८ (१६८४) पौ० शु०७ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-कवीश्वर ऋषभदास :: [ ३७६ महाकवि ने उपरोक्त रासों के अतिरिक्त स्तवन ५८ (३३), नमस्कार ३२, स्तुति ४२, सुभाषित ५४००, गीत ४१, हरियाली ५ की रचनायें की। रासों की रचनाओं की पूर्णतिथि देखते हुये यह प्रतीत होता है कि महाकवि का साहित्यिक महाकवि का गुरुवार के प्रति अधिक श्रद्धापूर्ण अनुराग था, जो उनकी गुरु के प्रति स्थान भक्ति का द्योतक है तथा द्वितीया और पंचमी तपतिथियों से भी उनका विशेषानुराग था सिद्ध होता है। प्रकट बात यह है कि महाकवि ने अपनी प्रत्येक रचना की पूर्णाहति शुभ दिवस और शुभ तिथि में ही की। कवि को राग-संगीत एवं देशियों का अच्छा ज्ञान था। जैन-साहित्य से उनका जैसा परिचय था, वैसा जैनेतर-साहित्य से भी था । अपनी रचनाओं में कवि ने अनेक जैनेतर दृष्टान्त एवं कथानों का उल्लेख किया है। महाकवि ऋषभदास सामाजिक कवि थे, जो सुधारवादी और प्राचीन युग के प्रति श्रद्धालु होते हैं । इनके रासों में अधिकतम ऐसे रास हैं जो महापुरुषों के जीवन-चरित्रों, नीति एवं धर्मसिद्धान्तों के आधार पर बने हैं । इन रासों में मुक्तिमार्ग का ही एक मात्र उपदेश है। वैसे कवि अपनी मातृभूमि के प्रति भी अधिक श्रद्धावान् था । खंभात का वर्णन इन्होंने बड़ी श्रद्धापूर्णभावना एवं उत्साह से लिखा है । हर रास में कुछ न कुछ वर्णन खंभात का मिलता ही है । इन्होंने यत्र-तत्र अपने विषय में भी लिखा है । ऐसा लिखने का इनका उद्देश्य यही था कि आगे आनेवाली संतति किसी भी प्रकार से भ्रम में नहीं पड़े । भारत के बहुत कम कवियों ने इस प्रकार अपने विषय में लिखने का साहस किया है । इस प्रकार महाकवि ऋषभदास सुधारवादी, देश और धर्म के भक्त और गूर्जरभाषा के उद्भट विद्वान् थे । गुरु, देव और सरस्वती तीनों के ये परम पुजारी थे। जैसे जिनेश्वर के भक्त थे, वैसे ही ये गुरु के अनन्य अनुयायी थे। विजयसेनसूरि को ये अपना गुरु मानते थे और आयुभर उनके प्रति उत्कट श्रद्धालु रहे थे। सरस्वती के भी ये वैसे ही अनन्योपासक थे। अपनी प्रत्येक रचना के प्रारम्भ में इन्होंने सरस्वती को वन्दन किया है। ____ अपनी स्थिति में इनको संतोष था; अतः ये परम सुखी थे। परिजनों से इनका अनुराग रहा। कवि ने स्वयं लिखा है कि मेरी पत्नी सुलक्षिणी है, मेरे भाई और भगिनी हैं, आज्ञाकारी पुत्र, पुत्रियाँ हैं, दुधारु गाय और __भैंस हैं; मुझ पर लक्ष्मी प्रसन्न है, परिवार में संप है, समाज, लोक एवं राज्य में महाकवि का गाईस्थ्य-जीवन - मान है। वैसे कवि सर्व प्रकार सुखी थे, परन्तु उनकी संघ निकालने की अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई, क्यों कि इतना अधिक द्रव्य उनके पास नहीं था कि तीर्थों का संघ निकालने का व्यय वे सहन कर सकते । यह अपनी अतृप्ति स्वयं अपनी कृतियों में उन्होंने प्रकाशित की है। देखो (१) 'कविवर ऋषमदास' नामक रा० रा० मोहनलाल दलीचन्द देसाई का लेख जो सन् १४२५ में 'जै० श्वे. कान्फरेंस हेरल्ड' को उद्देशित करके प्रकाशित हुए अङ्क में पृ० ३७३ से ४०१ पर प्रकाशित हुआ है। (२) जै० गु० क. भा०१ पृ०४०६-४५८. (३) प्रा० का०म० मौक्तिक ८, (कुमारपाल-रास) प्रवेशक पृ०१-११०. 'ते जयसिंह गुरु माहरोरे, विजयतिलक तस पाट । समता शील विद्या घणीरे, देखाड़े शुभ गति वाट ।। कविजन केरी पोहोती पास, हीर तणो मि जोडची रास । ऋषभदेव गणिधर महिमाय, तृठी शारदा ब्रह्मसुता य॥ सार वचन द्यो सरस्वती, तुछे ब्रह्मसुता य । तुमुज मुख अावी रमे, जगमति निर्मल थाय' । भरतेश्वर-नास. 'सुन्दर घरणी शोभती, म० बहिन बांधव जोड़ि। बाल रमि बहु बारणि, म० कुटुम्ब तणि कई जोड़ि। गाय महिषी दुजता, म० सुरतरु फलीभो बारि । सकल पदारथ नाम थी, म थिर थई लछी नारि ॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैसे वे उद्भट कवि और साहित्यकार थे, वैसे ही उराम श्रेणि के क्रियाशील अर्हद्भक्त श्रावक थे । शत्रुजय, गिरनार, शंखेश्वरतीर्थों की उन्होंने यात्रायें की थीं। अनेक विद्यार्थियों को पढ़ाया था। संक्षेप में वे बहुश्रुत, शास्त्राभ्यासी और उत्तम संस्कारी कवि, पुरुष एवं श्रावक थे और उनका कुटुम्ब भी उत्तम संस्कारी एवं सुसंस्कृत था, तभी वे इतने ऊंचे साहित्यकार भी बन सके । महाकवि की कृतियों के रचना-संवत् से ज्ञात होता है कि संवत् १६६६ से सं० १६८८ उनका रचनाकाल रहा । इस रचना-काल से यह माना जाता है कि कवि का जन्म सं० १६४०, ४१ के लगभग हुआ होगा और निधन १६६० के लगभग या इसके पश्चात् । कवि आध्यात्मिक पुरुष थे। इस पर यह भी अनुमान लग सकता है कि वृद्धावस्था में उन्होंने लिखना बंद कर दिया हो और अहद्भक्ति में ही जीवन बिताने लगे हों ।* जैन साहित्य में गूर्जरभाषा के महाकवि ऋषभदास ही प्रथम श्रावक कवि हैं, जो सत्रहवीं शताब्दी में साहित्य-क्षेत्र में इतने ऊँचे उठे और उस समय के अग्रगण्य साहित्यसेवियों में गिने गये ।* न्यायोपार्जित द्रव्य का सव्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ श्रेष्ठि धीणा (धीणाक) वि० सं० १३०१ वि० सं० १३०१ आषाढ़ शु० १२ (१५), १५ (१२) शुक्रवार को धवलक्कपुरवासी प्राग्वाटज्ञातीय व्य० पासदेव के पुत्र गांधिक श्रे० धीणा ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सिद्धराज के श्रेयार्थ मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिविरचित श्री 'अनुयोगद्वारवृत्ति' और 'श्री सवृत्तिक अनुयोगद्वारसूत्र' की एक एक प्रति ताड़पत्र पर लिखवायी। यह प्रति खंभात के श्री शांतिनाथ-प्राचीन-ताड़पत्रीय जैन-भण्डार में विद्यमान है ।। *नित्य नामु' हूँ साधनि सासो, थानिक आराध्या जे वली वासो। दोय आलोयण। गुरु कन्हइ लीधी, आठिम छठि सुधि श्रातमि कीधी ।। शत्रजय गिरिनारि संषेसर यात्रो, सलशाखा (ख शाता) भणाव्या बहु छात्रो । सुख शाता मनील गणु दोय, एक पगिं जिन भागलि सोय ॥ नित्यं गणु वीस नोकरवालि, उभा रही अरिहंत निहाली'। +प्र०सं०प्र० भा० पृ०२५ (ताड़पत्र) प्र० ३१ (अनुयोगद्वारवृति) ४८ , प्र०५८( सूत्र) जै० पु०प्र०सं० पृ०१२४ प्र०१७ ( , ) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० सज्जन आदि :: [ ३८१ श्रेष्ठि सज्जन और नागपाल और उनके प्रतिष्ठित पूर्वज वि० सं० १३२२ तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अति विश्रुत एवं गौरवशाली प्राग्वाटज्ञातीय एक कुल में श्रेष्ठि सीद नामक दानवीर एवं कुलीन श्रीमन्त हुआ है। वीरदेवी नाम की उसकी सहधर्मिणी थी, जो अत्यन्त गुणवती, पुण्यशालिनी और शीलवती स्त्री थी । वह इतनी गुणाढ्या थी कि मानो वह कमला और विमला का रूप धारण करके ही मृत्युलोक में अवतरित हुई हो । ऐसे गुणवान् स्त्री-पुरुषों के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम पुण्यदेव रक्खा गया । पुण्यदेव भी गुणों का कोष और सर्वथा दोषविहीन नरवर था । उसने श्रीमद् विजयसिंहसूरि के कर-कमलों से जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई और पुत्रद्वय को व्रत विधापन करवा कर अपनी आयु और लक्ष्मी को सार्थक किया । पुण्यदेव की स्त्री बाल्हिवि भी वैसी ही गुणवती, शीलवती, दृढ़धर्म-कर्मरता और जिनेश्वरदेव की परम भक्ता थी । दोनों स्त्री-पुरुषों ने अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सातों क्षेत्रों में प्रशंसनीय सदुपयोग किया, उग्रतपवाला उपधान नामक तप करवाया और श्रीमद् विजयसिंहसूरि की निश्रा में ये सर्व धर्मकार्य भक्ति भावपूर्वक सम्पन्न करवाकर अपना मालाधिरोपण कार्य महोत्सवपूर्वक पूर्ण किया । ऐसे धर्मात्मा स्त्री-पुरुषों के आठ पुत्ररत्न हुये । क्रमशः ब्रह्मदेव, वोहड़ी, बहुदेव, श्रामण, वरदेव, यशोवीर, वीरचन्द्र और जिनचन्द्र उनके नाम हैं । ० पुण्यदेव का प्र० पुत्र श्रे० ब्रह्मदेव प्रति भाग्यशाली एवं वैभवपति हुआ । अपनी आज्ञानुकारिणी गुणगर्भा धर्मपत्नी पोइणी का साहचर्य पाकर उसने चन्द्रावती नामक प्रसिद्ध नगरी में जिनालय में भगवान् महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई तथा श्रीमद् पद्मदेवसूरि के सदुपदेश से त्रिषष्ठिश्लाका चरित्र को लिखवा - कर लक्ष्मी का सदुपयोग किया । ० पुण्यदेव के द्वितीय पुत्र श्रे० वोहड़ी को अपनी आंबी नामा स्त्री से विल्हण आल्हण, जाल्हण और मल्हण नामक चार पुत्रों की और एक पुत्री मोहिनी की प्राप्ति हुई । श्रे० पुण्यदेव के तृतीय पुत्र बहुदेव ने चारित्र - ग्रहण किया । वह कुशाग्रबुद्धि एवं बड़ा प्रतिभा संपन्न था। साधु-दीक्षा लेकर उसने समस्त जैन-शास्त्रों का अध्ययन किया तथा शुद्ध प्रकार से साध्वाचार का परिपालन किया । परिणामस्वरूप उसको गच्छनायक का पद प्राप्त हुआ और वह श्रीमद् पद्मदेवसूरि के नाम से विख्यात हुआ । श्रे० पुण्यदेव का चतुर्थ पुत्र श्रामण, पाँचवा पुत्र वरदेव भी उदार हृदयी और गुणवान् ही थे । छट्ठा पुत्र यशोवीर विद्वान् पंडित हुआ । उसने चारित्र-ग्रहण किया और अंत में सूरिपद प्राप्त करके वह परमानन्दसूरि नाम से प्रसिद्ध हुआ । सातवां पुत्र वीरचन्द्र और आाठवां पुत्र जिनचंद्र भी ख्यातनामा ही निकले । वोहड़ का ज्येष्ठ पुत्र विल्हण भी बड़ा ही धर्मात्मा हुआ । उसने अपने पिता की सम्पत्ति को अनेक धर्मकृत्यों में व्यय किया । विल्हण की स्त्री रूपिणी बड़ी ही धर्मपरायणा सती थी। उसके आसपाल, सीधू, 1 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] : प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय जगतसिंह और पद्मसिंह नामक चार पुत्र और वीरी नामा एक परम सुन्दरा मनोहरा, पवित्रा, सुशीला, सद्गुणाढ्या पुत्री उत्पन्न हुई। श्रे. वोहड़ि का द्वितीय पुत्र आल्हण भी भाग्यशाली एवं सौजन्यता का आगार था। तृतीय पुत्र जाल्हण भी अपने अन्य भ्राताओं के सदृश दृढ़ जैनधर्म-सेवक था। उसकी स्त्री नाऊदेवी थी। नाऊदेवी की कुक्षि से वीरपाल, वरदेव और वैरसिंह नामक तीन पुत्रों की उत्पत्ति हुई। श्रे० विल्हण के ज्येष्ठ पुत्र आसपाल को अपनी खेतूदेवी नामा स्त्री से सज्जनसिंह, अभयसिंह, तेजसिंह और सहजसिंह नामक चार पुत्रों की प्राप्ति हुई । - श्रे० आसपाल प्रसिद्ध पुरुष था। कवि आसड़ द्वारा वि० सं० १२४८ में रचित 'विवेकमंजरीप्रकरण' की प्रति, जिसकी वृत्ति श्री बालचन्द्राचार्य ने बनाई थी, उसने (आसपाल ने) वि० सं० १३२२ कार्तिक कृष्णा ८ को अपने पिता के पुण्यार्थ लिखवाई । इस प्रति के प्रथम एवं द्वितीय पृष्ठों पर श्री तीर्थकर भगवान् एवं प्राचार्य के सुन्दर चित्र हैं । आचार्य के चित्र में व्याख्यान-परिषद का सुन्दर चित्रण किया गया है तथा इसी प्रकार पृ० २३६, २४० पर एक २ देवी के मनोरम चित्र हैं। . विल्हण का द्वितीय पुत्र सीधू भी उदारमना श्रावक था। उसकी स्त्री सोहगा अति पुण्यवती दाक्षिण्यशालिनी और परम स्वभाव-सुन्दरा रूपवती थी। विल्हण का तृतीय पुत्र जगतसिंह बचपन से ही विरक्त भावुक और उदासीनात्मा था। उसने चारित्र-ग्रहण किया और विद्या एवं तप में प्रसिद्धि प्राप्त करके सूरिपद को प्राप्त हुआ। विल्हण के चतुर्थ पुत्र पद्मसिंह को उसकी सद्गृहिणी वालूदेवी से नागपाल नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। . नागपाल परम बुद्धिमान् एवं सत्त्वगुणी पुरुषवर था । उसने श्रीमद् रत्नप्रभसूरि के सदुपदेश से हाड़ापद्रपुर में जिनालय बनवाया तथा उसमें सुमतिनाथबिंब की महामहोत्सवपूर्वक बहुत द्रव्य व्यय करके प्रतिष्ठा करवाई । वि० सं० १३२२ कार्तिक कृ. अष्टमी चन्द्रलग्न में श्रे० आसपाल के पुत्र सज्जनसिंह ने स्वपिता आसपाल के कल्याणार्थ 'विवेकमंजरीवृत्ति' नामक प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाकर ज्ञान की परम भक्ति की तथा लक्ष्मी का सदुपयोग कर अपना यश अमर किया। 'विवेकमंजरीवृत्ति' की प्रशस्ति का शोधन श्रीमद् पूज्य प्रद्युम्नमरि ने किया था। वंशवृक्ष सीद [वीरदेवी] पुण्यदेव (पूर्णदेव) [वान्हिवि] आमण वरदेव । वीरचन्द्र । जिनचन्द्र ब्रह्मदेव वोहड़ी बहुदेव [पाइणी (पोहणी)] [बी] (पद्मदेवसरि) यशोवीर (परमानन्दसरि) प्र०सं०प्र० भा० पृ०३६, ४०,४१ ता०प्र०४५ (श्री विवेकमंजरीवृत्ति) जै० पु०प्र० सं० पृ० ३४.३५ प्र०३० (विवेकमंजरीप्रकरणवृत्ति) वंशा० प्रा० ता० ० ज्ञा० भ० की सूची पृ०६. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रे० सेवा :: [ ३८ I जाम्हण [नाऊ ] विल्हण [रूप] सज्जनसिंह I आल्हण वीरपाल आसपाल [खेतुका] सीधू [ सोहगा ( सोहरा ) ] जगतसिंह T अभयसिंह श्रे० शुभंकर और उसका पौत्र यशोधन वरदेव तेजसिंह 1 सहजसिंह मन्हण वैरसिंह श्रेष्ठि सेवा वि० सं० १३२६ मोहिनी पद्मसिंह [ वालू] | नागपाल वीरी विक्रम की दशवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय शुभंकर नामक अति गौरवशाली पुरुष हो गया है । उसके सेवा नामक पुत्र था । सेवा के यशोधन नामक पुत्र हुआ । यशोधन के उद्धरण, सत्यदेव, सुमदेव, और लीला नामक पांच पुत्र हुये । सुमदेव ने चारित्र ग्रहण किया और अपनी योग्यता एवं प्रखर तपस्या के कारण गच्छनायकपद को प्राप्त हुआ और श्री मलयप्रभसूरि के नाम से विख्यात हुआ । बाहू ० बादू के त्रिभुवन को अलंकृत करने वाले तीन पुत्र हुये। उनमें ज्येष्ठ पुत्र दाहड़ था और लाडस और सलषण छोटे थे । इनके चार बहिनें थीं । लषमिणी सुषमिणि, जसहिणि और जेही। वैसे तो तीनों भ्राता बादू और उसके पुत्र पवित्र, विश्रुत और समाज में अग्रगण्य थे। फिर भी दाहड़ अधिक विख्यात था । दाहड़ का परिवार वैसे दाहड़ ज्येष्ठ भी था । दाहड़ की धर्मपत्नी सिरियादेवी बड़ी तपस्विनी और धर्मपरायणा स्त्री थी। उसके चार पुत्र हुये । सोलाक ज्येष्ठ पुत्र था । सोलाक से छोटा वासल था । वासल से छोटा साधु बन गया था और आगे उन्नति करके श्री मदनप्रभसूरि के नाम से विख्यात हुआ । चौथा पुत्र वीरूक नामक था । सांउदेवी नामा कनिष्ठा पुत्री थी । * जै० पु० प्र० सं० पृ० १५-१६ प्र० १३ (परिशिष्टपर्व पुस्तिका) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] :: प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय श्रे० सोलाक की स्त्री का नाम लक्षणा था । लक्षणा के पांच पाण्डवों के समान महापराक्रमी, धर्मात्मा, महाव्रती एवं परिव्राजक पांच पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र का नाम आंबू था। आंबू से छोटे भ्राता ने चारित्र ग्रहण किया श्रे० सोलाक और उसका और वह उदयचन्द्रसूरि के नाम से प्रख्यात हुआ। तीसरा और चौथा पुत्र चांदा और विशाल परिवार रत्ना थे। पांचवा वान्हाक हुआ। दो पुत्रियाँ थीं। कनिष्ठा पुत्री का नाम थाल्ही था । श्रे० आंबू के पासवीर, बाहड़, छाहड़ नामक तीन पुत्र और वान्ही, दिवतिणि और वस्तिणि नामा तीन पुत्रियाँ हुई। श्रे० चांदा के पूर्णदेव और पार्श्वचन्द्र नामक दो पुत्र और सीलू, नाउलि, देउलि, झणकुलि नामा चार मुख्या पुत्रियाँ हुई । नाउलि नामा पुत्री ने चारित्र ग्रहण किया और वह जिनसुन्दरी नामा साध्वी के नाम से विश्रुता हुई। श्रे० पूर्णदेव की स्त्री पुण्यश्री थी। पुण्यश्री की कुक्षि से धनकुमार नामक पुत्र हुआ और एक पुत्री हुई, जिसने चारित्र ग्रहण किया और वह चंदनवाला नामा गणिनी के नाम से विख्याता हुई। श्रे० रत्ना के पाहल नामा पत्र हुआ । पाहुल के कुमारपाल और महिपाल नामक पुत्र हये। श्रे० सोलाक का कनिष्ठ पत्र ।। बाल्हाक के एक पुत्र हुआ और उसने चारित्र ग्रहण किया और वह साधुओं में अग्रणी हुआ। उसका नाम ललितकीर्ति था। श्रे० आंबू के द्वि० पुत्र बाहड़ की धर्मपत्नी वसुन्धरी नामा थी। इनके गुणचन्द्र नामक पुत्र और गांगी नामा विश्रुता पुत्री हुई । श्रे० छाहड़ की धर्मपत्नी पुण्यमती थी। जो श्रे० कुलचन्द्र की धर्मपत्नी रुक्मिणी की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। पुण्यमती स्त्री शिरोमणि सती थी। इसके धांधाक नामक पुत्र और चांपलदेवी और पाल्हु नामा दो पुत्रियाँ हुई। धांधक की स्त्री माल्हिणी के झांझण नामक पुत्र हुआ। श्रे० आंबू का ज्येष्ठ पुत्र जैसा ऊपर लिखा जा चुका है पासवीर था। पासवीर की पत्नी का नाम सुखमती था। सुखमती गुणनिर्मला और मधुर स्वभाववाली स्त्री थी। उसके गुणों पर जनगण मुग्ध रहते थे। सुखमती के चार पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। ज्येष्ठ पुत्र सेवा नामा अति विख्यात हुआ । द्वि० पुत्र का नाम हरिचन्द्र था। तीसरे पुत्र ने चारित्र ग्रहण किया और वह उन्नति करके गच्छनायक पद को प्राप्त हो कर श्री जयदेवसरि नाम से जगत में विख्यात हुआ । चौथे पुत्र का नाम भोला था । पुत्रियों के नाम लडही और खींवणी थे। श्रे० सेवा की धर्मपत्नी पाल्हदेवी नामा थी। भोला की जाल्हणदेवी नामा स्त्री थी। इस प्रकार पासवीर एक विशाल कुटुम्ब का स्वामी था । श्रे० सेवा ने वि० सं० १३२६ श्रावण शु० ८ को वरदेव के पुत्र लेखक नरदेव द्वारा श्री परिशिष्टपर्वपुस्तिका' मुनिजनों के वाचनार्थ बहुत द्रव्य व्यय करके लिखवाई । वंशवृक्ष शुभंकर सेवा यशोधन Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-वे सेवा :: [३८ उद्धरण सत्यदेव सुमदेव (मलपप्रमशरि) वाढू लीला दाहड़ [सिरियादेवी] लाडण सलखम लखमिणी सुखमिणी जसहिणि जेहि सोलाक सचणा] वासल सोलाक [लक्षणा] वासल महानगइरि बाल सादेवी मदनप्रभसूरि वीरुक साऊदेवी पाहुल ललितकीति (साधु) पासवीर बाहड़ छाड़ वान्ही दिवतिणि वस्तिणि [सुखमती][वसुधरी][पुण्यमती] कुमारपाल हिपाल गुणचंद्र गांगी पूर्णदेव पार्श्वचन्द्र [पुण्यश्री] सीलू नाउल देउलि झणकुलि [जिनसुन्दरी (साध्वी)] धनकुमार चन्दनबाला (साध्वी) धांधांक [माल्हिणी] -चांपलदेवी पान्हुदेवी - झांझण सेवा [पान्दणदेवी हरिचन्द्र जयदेवरि मोला जिन्यदेवी) सहादेवी बापयविकी Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] * प्राग्वाट - इतिहास श्रेष्ठि गुणधर और उसका विशाल परिवार वि० सं० १३३० [ तृतीय विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अंत में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० धनेश्वर हो गया है। उसका कुल प्राचीन कुलों में से था और प्रतिष्ठित एवं गौरवशाली था । श्रे० धनेश्वर के धनदाक नामक एक धर्मात्मा एवं गुणवान् पुत्र हुआ । काशहदग्राम के श्री आदिनाथ - जिनालय में उसने मूलनायक प्रतिमा विराजमान करवाई थी । श्रे० धनदाक के तीन संतान हुई । ब्रह्मदेव और वाग्भट नामक दो पुत्र हुये और लक्ष्मणीदेवी नाम की एक पुत्री हुई । श्रे० ब्रह्मदेव का विवाह मन्दोदरी नामा सुशीला कन्या के साथ हुआ । मन्दोदरी की कुक्षि से चार पुत्र उत्पन्न हुये । आल्हा, साल्हाक, राज्हाक और एक और । श्रे० वाग्भट के गोगाक नामक पुत्र था । गोगाक की स्त्री का नाम समूला था । समूला की कुक्षि से ऊधिग, धांधू, आकड़ ये तीन पुत्र और साल्हू नामक एक पुत्री हुई। तीनों पुत्रों की सुभगादेवी, श्रीदेवी और दाखीबांई नामा क्रमशः स्त्रियाँ थीं । श्रे० आल्हाक निर्मलात्मा, धर्मबुद्धि और सर्वदोष-विहीन नरवर था। उसकी स्त्री स्त्नदेवी भी वैसी ही चतुरा, गुणशीला गृहिणी थी । रत्नदेवी के चार संतान उत्पन्न हुई । गुणधर, यशधर, चाहणीदेवी और समधरइस प्रकार तीन पुत्र और एक पुत्री हुई । श्रे० साल्हाक श्रे० आल्हाक का छोटा भाई था । वह भी गुणवान् और सज्जन था । श्रे० राल्हाक श्रे० साल्हाक से छोटा था । इसकी स्त्री कुमारदेवी थी । कुमारदेवी से इसको ब्रह्मनाग, काल्हूक और रत्नसिंह नामक तीन पुत्रों की और ब्राह्मी और सोहगा नामक दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई । इस प्रकार पांच सन्तान हुई । ० गुणधर जो ० ल्हाक का ज्येष्ठ पुत्र था बड़ा ही न्यायशील एवं तप, दान, शील और भावनाओं में उत्कृष्ट श्रावक था । ऐसी ही उसकी राजिमती नामा गुणगर्भा स्त्री थी । राजिमती के पार्श्वभट, वीरा, अम्बा, , लींबा, सोम, देव, शीलू, हीर और लडुहित नामक संतानें उत्पन्न हुई । द्वितीय पुत्र वीरा का विवाह राजश्री से हुआ था और उससे उसको वि० सं० १३३० तक जगपाल, हरपाल, और देवपाल नामक तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई । तृतीय पुत्र अम्बा की स्त्री ललिता थी और ललिता के नरपाल नामक एक ही उक्त समय तक पुत्र था । श्रे० गुणधर का चौथा पुत्र लीम्बा था । लींबा को अपनी स्त्री कल्याणदेवी से उक्त समय तक विजय, श्रीयश, धरय और नरसिंह नामक चार पुत्र और पाती नामक पुत्री - इस प्रकार पाँच संतानों की प्राप्ति हुई । श्रे० गणधर ने वि० सं० १३३० में निवृत्तिगच्छीय श्रीमद् भुवनरत्नसूरि-आनन्दप्रभसूरि-वीरदेवसूरि के पट्टधर श्रीमद् कनकदेवसूरि के सदुपदेश से अपने चतुर्थ एवं सुयोग्य भ्राता समधर की सुसम्मति से अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मी का सदुपयोग करके अत्यन्त भक्ति-भावपूर्वक 'श्री शांतिनाथ - चरित्र' की प्रति ताड़पत्र पर लिखवायी । श्रे० समधर की स्त्री कर्मणदेवी थी । उसके कोल, आसा, पासल, सेढ़ा, पूना, हरिचन्द्र और वयर नामक पुत्र थे और पासल की स्त्री साजिणी के विजयसिंह और नयशाक नामक दो पुत्र उत्पन्न हो चुके थे । उक्त वि० सं० अर्थात् १३३० में श्रे० गुणधर इतने प्रड़े विशाल एवं प्रतिष्ठित कुल का गृहपति था । प्र० सं० भा० १ पृ० २६ प्र० ता० प्र० ३८ (श्री शांतिनाथ चरित्र) Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर]: न्यायोपार्जित द्रव्य का सव्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-० गुणधर: [१० वंशवृक्ष धनेश्वर २। घनदाक ३] लक्ष्मणीदेवी ब्रह्मदव [मंदोदरी] वाग्भट ४] गोगाक साबहाक राल्हाक ..." सिमला] [कुमारदेवी] . आम्हाक रित्नदेवी] , ऊधिग धांधू आकड सान्हमारी [सुभगादेवी] [श्रीदेवी] [दाखीवाई) ब्रह्मनाग गुणधर (राजिमती] यशवर चाहणीदेवी समर [कर्मणीदेवी] । । । । । कोल मासा सपाल (पासल) सेदा पूना [साजिणी] । हरिचन्द्र । बयर ६ विजयसिंह नयणाक न [राजश्री] [ललिता] [कल्याणदेवी] | नरपाल Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ]. प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय श्रेष्ठि हीरा वि० सं० १३३६ वि० सं० १३३६ आषाढ़ शु० प्रतिपदा रविवार को श्री महाराजाधिराज श्रीमत् सारंगदेव के विजयीराज्य के महामात्य श्री कान्हा के प्रबन्धकाल में प्राग्वाटज्ञातीय ठ० हीरा ने बृहत् श्री 'आदिनाथ-चरित्र' लिखवाया ।१ श्रेष्ठि हलण वि० सं० १३४४ विक्रमीय तेरहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० गोगा की संतति में शाह सपून हो गया है। श्रे० सपून के शाह दुर्लभ, पाहड़, धनचन्द्र, वीरचन्द्र नामक चार पुत्र हुये । वीरचन्द्र के शा० मोल्हा, शा० जाहड़, शा. हेमसिंह, खेड़ा आदि पुत्र हुये। श्रे० खेदा के हलण, देवचन्द्र, कुमारपाल आदि पुत्र हुये । श्रे० हूलण ने वि० सं० १३४४ आश्विन शु० ५ को श्री कन्हर्सिसंतानीय श्री पद्मचंद्रोपाध्यायशिष्य श्रे० हेमसिंह के श्रेयार्थ अपनी पितृव्यभक्ति से 'श्री व्यवहारसिद्धान्त' नामक ग्रन्थ की तीन प्रतियाँ साकंभरीदेश में सिंहपुरी नामक नगरी के अधिवाशी मथुरावंशीय कायस्थ पंडित सांगदेव के द्वारा लिखवाई।२ श्रेष्ठि देदा वि० सं० १३५२ चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दयावट नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि कुमारसिंह हुआ है। वह प्रति धर्मात्मा और शुद्ध श्रावकव्रत का पालने वाला था। वैसी ही गुणवती, स्त्रीश्रृंगार कुमरदेवी नाम की उसकी धर्मपत्नी थी । कुमरदेवी की कुक्षि से पांच पुत्ररत्न उत्पन्न हुये-देदा, सांगण, केसा (किसा), धनपाल और अभय । देदा की स्त्री विशलदेवी थी । सांगण की शृंगारदेवी धर्मपत्नी थी। धनपाल की स्त्री का नाम सलषणदेवी था तथा कनिष्ठ अभय की धर्मपत्नी पाल्हणदेवी नामा थी । देदा के अजयसिंह नामक पुत्र था। एक दिन देदा ने सुगुरु की देशना श्रवण की कि मनुष्य-जीवन का प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इस दुर्लभ जीवन को प्राप्त करके जो सुखार्थी होते हैं वे धर्म की आराधना करते हैं। गृहस्थों के लिये दान-धर्म का अधिक महत्त्व माना गया है । यह दान-धर्म तीन प्रकार का होता है—ज्ञानदान, अभयदान और अर्थदान । इन तीनों दानों में ज्ञानदान का अधिकतम महत्त्व है । ऐसी देशना श्रवण करके देदा ने वि० सं० १३५२ में 'लघुवृत्तियुक्त उत्तराध्ययनसूत्र' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की एक प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई और बड़े समारोह के मध्य एवं कुटुम्बीजनों की सादी में जैन-दीक्षा ग्रहण करके उपरोक्त प्रति को भक्तिपूर्वक ग्रहण की।३ १-जै० पु० प्र०सं० पृ०१३१ १०२६०(आदिनाथचरित्र) २-जै० पु०प्र०सं० पृ०१३२ प्र०२६१ (म्यवहारसूत्रटीका) ३-प्र०सं०भा०१पृ०३१ ता०प्र०३६ (उत्तराध्ययनसत्रलघुवृत्ति) जे०पु०प्र०सं० पृ०५७. ता०प्र० ५६ ( , ) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रा० सरणी : [३८६ श्रेष्ठि चांडसिंह का प्रसिद्ध पुत्र पृथ्वीभट वि० सं० १३५४ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अन्त में संडेरक नामक ग्राम में, जहाँ प्रसिद्ध महावीर-जिनालय विनिर्मित है प्राग्वाटज्ञातिश्रृंगार सुश्रावक श्रेष्ठिवर मोखू रहता था। उसकी धर्मपरायणा स्त्री का नाम मोहिनी था। श्रा. मोहिनी के यशोनाग, वाग्धन, प्रह्लादन और जाम्हण नामक चार अति गुणवान् पुत्र उत्पन्न हुये थे। __ श्रे० वाग्धन का विवाह सीतू (सीता) नामक रूपवती एवं गुणवती कन्या से हुआ था । श्रा० सीता के चांडसिंह नामक अति प्रसिद्ध पुत्र और खेतूदेवी, मजलादेवी, रत्नदेवी, मयणलदेवी और प्रीमलादेवी नामा निर्मलगुणा धर्मप्रिया पाँच पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। श्रे० चाण्डसिंह की गौरीदेवी नामा स्त्री थी । श्रा० गौरीदेवी गुरुदेव की परमभक्ता और पतिपरायणा स्त्री थी। उसके पृथ्वीभट, रत्नसिंह, नरसिंह, चतुर्थमल, विक्रमसिंह, चाहड़ और मुंजाल नामक सात पुत्र उत्पन्न हुये और खोखी नामा एक पुत्री हुई । सातों पुत्रों की स्त्रियाँ स्वसा खोखी की सदा सेवा करने वाली क्रमशः सहवदेवी, सुहागदेवी, नयणादेवी, प्रतापदेवी, भादलादेवी, चांपलादेवी थीं। इनके कई पुत्र और पुत्रियाँ थीं। श्रे० पृथ्वीभट (पेथड़) ने वि० सं० १३५४ में गुरु रत्नसिंहसरि के सदुपदेश से श्री भगवतीस्त्रसटीक' अति द्रव्य व्यय करके लिखवाया था।' इस वंश का विस्तृत परिचय इस इतिहास के तृतीय खण्ड के पृ० २४६ से २५६ के पृष्ठों में आ चुका है ।। महं० विजयसिंह वि० सं० १३७५ श्री 'विवेकविलास' नामक धर्मग्रंथ की एक प्रति प्राग्वाटज्ञातीय महं० विजयसिंह, महं० क्षीमाक ने वि० सं० १३७५ आश्विन शु० ६ बुद्धवार को दिल्लीपति कुतुबुद्दीनखिलजी के प्रतिनिधि साहमदीन के शासनकाल में लिखवाई ।२ श्राविका सरणी वि० सं० १४०० विक्रमीय चौदहवीं शताब्दी में धान्येरक (धानेरा) नामक ग्राम में प्रसिद्ध प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न शोभित नामक श्रेष्ठि रहता था। वह राजा और प्रजा में बहुमान्य था। रूक्ष्मणी नामा उसकी पत्नी अति गुणवती, सुशीला थी। उसके तीन पुत्र और पाँच पुत्रियाँ हुई । ज्येष्ठ पुत्र वीरचन्द्र था, वह निर्मलगुणी एवं ख्यातनामा था । उसका विवाह राजिनी नामा अति गुणवती कन्या के साथ में हुआ था । वीरदेव और पूर्णपाल नामक दो अन्य पुत्र थे। प्रथम पुत्री सरणी नामा थी । सरणी कीर्तिवती एवं सुलक्ष्मी थी। उसका विवाह पासड़ नामक व्यवहारी३ १-D.C.M.P.(G.0.s.vo.LXXVI.)P. 248 (409) २-प्र०सं० द्वि० भा० पृ० २ प्र०४ (विवेकविलास) ३-जै० पु० प्र० सं० पृ० ७१-७२.३०७५ (उत्तराध्ययनसूत्र) D.C.M. P. (G.0. S.VO. LXXV1.) P. 333-5 (287) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.] प्रान्बाट-इतिहास: [तृतीय के साथ हुआ था । अन्य पुत्रियाँ मरुदेवी, संतोषा, यशोमती, विनयश्री थीं। ये सर्व बहिनें असि ही गुणवती, सुशीला थीं। मरुदेवी ज्ञान-दर्शन-चारित्र को धारण करने वाली सुश्राविका थी। श्राविका सरणी ने अनुमानतः वि० सं० १४०० के आस-पास एक दिन गुरुवचन श्रवण करके अपने पुत्र विमलचन्द्र, देवचन्द्र, यशश्चन्द्र की संमति लेकर तथा अपनी बहिन संतोषा की इच्छा को मान्य कर के 'उच्चराध्ययनसूत्र' नामक ग्रंथ की टीका की पुस्तक लिखवाई । श्रा० सरणी के तीनों पुत्रों ने इस कार्य में भूरि २ आर्थिक सहायता की थी। श्राविका वीझी और उसके भ्राता श्रेष्ठि जसा और ड्रङ्गर वि० सं० १४१८ चीबाग्राम में प्राग्वाटज्ञाति में सहदेव नाम का एक सुश्रावक हो गया है। वह कच्छोलिकामण्डनश्रीपार्श्वनाथ का परमोपासक था। उसके गुणचन्द्र नामक पुत्र था । गुणचन्द्र का पुत्र श्रीवत्स हुआ। श्रीवत्सके छाहड़, यशोभट्ट और श्रीकुमार नाम के तीन पुत्र हुये थे। श्रे• छाहड़ के परिवार के गुरु श्रीमाणिक्यप्रभरि हुये तत्पश्चात् श्री कमलसिंहसरि हुये । श्रे० यशोभट्ट के परिवार के गुरु श्री प्रभसरि और प्रज्ञातिलकसरि थे । श्रीकुमार ने श्रीमद् कमलसिंहसरिजी की उत्तम पदस्थापना (सूरिपदोत्सव) अपने वृद्ध ग्राम में करवाई थी। श्रीकुमार की स्त्री का नाम अभयश्री था । अभयश्री के साल्हाक और बोड़का नाम के दो पुत्र हुये थे। श्रे० सान्हाक के सोभा, सोला और गदा नाम के तीन पुत्र हुये । श्रे० गदा के रत्नादेवी और श्रियादेवी दो स्त्रियाँ थीं। माश्रियादेवी के कर्मा और भीमा दो पत्ररत्न हुये। श्रे० भीमा की रुक्मिणी नामा स्त्री से लींबा. सीहर और पेथा नाम के तीन नरवीर उत्पन्न हुये । श्रे० लींवा का विवाह गउरी नामा गुणवती कन्या से हुआ था। श्रा० गउरी के जसा और ड्रङ्गर दो पुत्र थे और वीझिका, तीन्हिका और श्रीनामा तीन पुत्रियाँ थीं। श्रे० लींबा श्री कच्छूलिका (कछोली) पार्श्वनाथ मन्दिर का गोष्ठिक था। श्रा० वीझिका ने स्ववंशगुरु श्रीमद् रत्नप्रभसरि के द्वारा श्री 'उपदेशमाला' पुस्तक का व्याख्यान अपने ज्येष्ठ भ्राता जसा की अनुमति से करवाया । वि० सं० १४१८ कार्तिक कृ० दशमी (१०) गुरुवार को श्रे० जसा, डुङ्गर और उनकी भगिनियाँ वीझी और तीन्ही की सहायता से श्री नरचन्द्रसरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसरि के बंधु पंडित गुणभद्र ने श्री प्रभसरिविरचित 'धर्मविधिप्रकरण' जिसकी वृत्ति श्री उदयसिंहमरि ने लिखी थी सवृत्ति लिखवाया । वंश-वृक्ष सहदेव गुणचन्द्र श्रीवत्स Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर]:: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राशा० सद्गृहस्थ-० स्थिरपाल: [११ 1 श्रीकुमार [अभयश्री] छाड़ यशोमट्ट सान्हाक बोडका सोभा [सौभाग्यवती] सोला गदा [१रनिदेवी रश्रियादेवी] कर्मा भीमा [रुक्मिणी] जसा डूबर वीझी तीन्ही श्री श्रेष्ठि स्थिरपाल वि० सं० १४१८ जाबालिपुर दुर्ग में प्राग्वाटज्ञातिशृंगार धणदेव नामक सुश्रावक हो गया है । उसके सहजलदेवी नाम की 2 स्त्री थी। उसके ब्रह्माक और लींबा नाम के दो पुत्र थे। श्रे० लींबा की स्त्री गौरदेवी थी, जिसके कडुसिंह नाम का पुत्र था । कडुसिंह की स्त्री का नाम भी कडुदेवी ही था । कडुदेवी की कुक्षि से धरणाक नामक पुत्र हुआ। ___ श्रे० ब्रह्माक के झंझण नामक पुत्र था, जो अति गुणी और धर्मात्मा था। वह सचमुच ही प्राग्वाटवंशशिरोमणि था । उसके आशाधर नाम का पुत्र था। श्रे० आशाधर के गोगिल नाम का श्रेष्ठ पुत्र हुआ। श्रे 1D.C.M.P. (G.O. S.VO. LXXVT.) P. 345 2P. 344-345 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] प्राग्वाट इतिहास : . .. [तृतीय गोगिल के पत्रदेव नाम का पुत्र हुआ । श्रे० पद्मदेव सुकृती और सुकृतज्ञ था। श्रे० पद्मदेव की स्त्री का नाम सुरलक्ष्मीदेवी था, जो धर्मक्रिया में दृढ़हृदया और उदारचेता श्रे० रमणी थी। उसके सुभटसिंह, क्षेमसिंह, स्थिरपाल नाम के तीन कीर्तिशाली पुत्र हुये थे। श्रे० सुभटसिंह के सोनिकादेवी नामा अति रूपवती स्त्री थी, जिसकी कुक्षि से तेजा, जयंत, जावड़ और पातल नाम के चार पुत्र हुये और कामी, नामल, चामिका नाम की तीन गुणवती कन्यायें हुई थीं। श्रे० स्थिरपाल की देदिका नामा स्त्री थी। उसके नस्साल, हापाक, त्रिभुवन, काछुक, केन्हाक और पेथड़ नाम के छः पुत्र थे । श्रीमद् नरचन्द्रसरि के शिष्य श्रीमद् रत्नप्रभसरि द्वारा श्रे० स्थिरपाल ने 'धर्मविधि' ग्रन्थ का वाचन करवाया। वंश-वृक्ष धणदेव [सहजलदेवी] ब्रह्माक लींवा [गौरदेवी] कडुसिंह [कडुदेवी] झंझण पाशाधर धरणाक गोगिल पनदेव [सुरलचमी] सुभटसिंह [सोनिका] चेमसिंह स्थिरपाल दिदिका नरपाल हापाक त्रिभुवन काछुक केन्हाक पेथड़ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० झा० सद्गृहस्थ-श्रे० बोड़क के पुत्र :: [ ३४१ श्रेष्ठि बोड़क के पुत्र वि० सं० १४१८ I कच्छूलिपुरी में प्राग्वा ज्ञातीय पार्श्व नाम का एक प्रसिद्ध पुरुष था, जिसका पुत्र देसल था । देसल के बहुदेव चन्द्र दो विश्रुत पुत्ररत्न हुये । श्रे० वीरचन्द्र के मालक नाम का अति पुण्यशाली पुत्र था । श्रे० मालक के आस ( धरमराज), गुणधर, सांब और वीर चार प्रतापी पुत्र थे । थे० श्रासधर का पुत्र सोलक हुआ । श्रे० सोलक की स्त्री का नाम सरस्वतीदेवी था । इसके माल्हण, पार्श्वचन्द्र, बूटरोथ, महिचन्द्र और सेढ़क पांच पुत्र हुये थे । श्रे० सेढ़क की स्त्री जसिणीदेवी थी, जिसके राल्हण, सोहड़, आल्हण, पद्मराज, ब्रह्मा और बोड़क छः पुत्र हुये थे । ० बोड़क की स्त्री का नाम वीरीदेवी था । इसके वीर, धीर, एवं बुद्धिमान् देपाल, देवसिंह, सोम और सलखा नाम के अति प्रसिद्ध चार पुत्र हुये । इन्होंने 'श्री धर्मविधिग्रन्थ' के लिखवाने में अपने द्रव्य से सहायता की । माल्हण बहुदेव आसधर I सोलक [सरस्वती ] T वंश-वृच पार्श्व I देसल I गुणधर पार्श्वचन्द्र बूटरोथ D. C M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 346 (27), वीरचन्द्र 1 मालक I सांब वीर महिचन्द्र सेढ़क [जसिखी] Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] :: प्राग्वाट - इतिहास :: राम्हण सोहड़ म्हण 1 देपाल पद्म श्रेष्ठ अभयपाल वि० सं० १४४० ब्रह्मा बोड़क [वीरी ] देवसिंह सुप्रसिद्ध श्रावक सांगा गांगा और उनके प्रतिष्ठित पूर्वज वि० सं० १४२७ सोम [ तृतीय सलखा ०घाव और उसका परिवार विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में उदयगिरिवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० धांध एक प्रसिद्ध श्रावक था । यह दृढ़ जैन धर्मी, शुद्ध श्रावकव्रतपालक एवं साधु-मुनियों का परम भक्त था । देल्हणदेवी नाम की उसकी पतिपरायणा स्त्री थी । उसके अर्जुन और झड़सिल नामक दो अति प्रसिद्ध पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र अर्जुन बड़ा दानी, उदार था । वह प्रभु-पूजन में बड़ा रस लेता था । उस समय के चोटी के उत्तम श्रावकों में वह गिना जाता था । होने वाले उत्सव, महोत्सवों में उसका अग्रभाग और अधिक सहयोग रहता था । उसका मन सदा धर्म - ध्यान में लीन रहता था । ऐसी ही गुणवती सहजन्लदेवी नाम की उसकी प्रिया थी । सहजन्लदेवी के नामांकिता छः पुत्र हुये । ज्येष्ठ पुत्र मुंजालदेव था । वह अत्यंत विश्वसनीय एवं आज्ञापालक था । दूसरा पुत्र धवर नामक था । धवर प्रखर बुद्धिमान् था । तृतीय पुत्र गुणपल्ल और चतुर्थ धना था । ये दोनों भी गुणवान् थे । पांचवें और छट्ठे पुत्र क्रमश: सांगा और गांगा थे । वि० सं० १४२७ में सांगा गांगा दोनों भ्राताओं ने 'श्री कल्पसिद्धान्त' अर्थात् 'कल्पसूत्र' को ताड़ पत्र पर लिखवा कर सोत्सव एवं भक्ति-भाव पूर्वक पूर्णिमापक्षीय श्रीमद् गुणचन्द्रसूरि-गुणप्रभसूरि-गुणभद्रसूरि के गुरु आता श्रीमद् मतिप्रभ को समर्पित किया । १ आशापल्लीवासी प्राग्वाटज्ञातीवंशभूषण व्य० अयंत की भार्या मटू की पुत्री माझादेवी के पुत्र व्य० अभयपाल और सरवण थे । सरवण ने दीक्षा ग्रहण की थी; अतः उस के श्रेयार्थ श्रे० अभयपाल ने न्यायोपार्जित द्रव्य से ज्ञानाराधना के लिये तपागच्छनायक श्रीमद् जयानन्दसूरि के सदुपदेश से वि० सं० १४४० में श्रीमद् प्रसन्नचन्द्रस्वरिशिष्य श्रीमद् देवभटाचार्यविरचित 'श्री पार्श्वनाथचरित्र' नामक ग्रंथ की प्रति आशापल्लीनिवासी गोडान्वयी arrer कवि सेल्हण के पुत्र वल्लिंग द्वारा ताड़पत्र पर लिखवाई | २ १ - प्र० सं० भा० १ पृ० ३-४ (श्री कल्पसूत्र ता० प्र० ८ ) २ - प्र० सं० भा० १५० ६६ ( ताड़पत्र) प्र० १०७ (पार्श्वनाथ चरित्र) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० शा० सद्गृहस्थ - श्रा० साऊदेवी :: [ ३६५ श्रेष्ठ लींबा वि० सं० १४४१ सलखणपुरवासी प्राग्वाटज्ञातीय मं० भीम की स्त्री खोखटदेवी की कुक्षि से उत्पन्न मं० उ० लींबा ने तपागच्छाधिनायक श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के सदुपदेश से पं० पद्मानन्द द्वारा वि० संवत् १४४१ पौ० कृ० १२ सोमवार को अपनी स्त्री लूणादेवी, भ्राता मं० सारंग आदि कुटुम्बीजनों के सहित श्री 'शब्दानुशासनावचूरि' नामक ग्रंथ की एक प्रति लिखवायी ।१ श्राविका साऊदेवी वि० सं० १४४४ विक्रमीय चौदहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० देदा नामक एक अति प्रसिद्ध व्यवहारी हेरंडकनगर में रहता था । उसके वसा ( वत्सराज ) नामक पुत्र हुआ । श्रे० वसा का पुत्र मोख था । श्रे० मोख की धर्मपत्नी जयतलदेवी की कुक्षि से मलयसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रे० मलयसिंह अधिक प्रख्यात् एवं श्रीमन्त और धर्मप्रिय था । श्रे० मलयसिंह की धर्मपत्नी साऊ नामा अति धर्मपरायणा पतिभक्ता स्त्री थी । साऊ के पिता का नाम भी मलयसिंह ही था और माता का नाम मोहणदेवी था । श्रा० साऊ के पांच पुत्र और सात पुत्रियाँ हुईं । पुत्रों में सब से बड़ा जूठिल था और सारंग, जयंतसिंह, खेतसिंह, मेघा, क्रमशः उससे छोटे भ्राता थे । बड़ी देऊ थी और सारू, धरणू, उष्टमू, पांचू, रूड़ी, मानू क्रमशः उससे छोटी थीं । बहिनों में तपागणाधिप श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के उपदेश को श्रवण करके श्रा० साऊदेवी ने अपने पति श्रे० मलयसिंह के श्रेयार्थ पुत्र-पुत्रियों के सहित शुभ कामनापूर्वक 'ज्योतिः करंडविवृत्ति', 'तीर्थकल्प', 'चैत्यवन्दनचूर्णी' आदि ग्रन्थों को ताड़पत्र पर वि० सं० १४४४ में नागशर्मा द्वारा अहिलपुरपत्तन में श्वसुर मोख और श्वसुरमह वसा की तत्त्वावधानता में बहु द्रव्य व्यय करके लिखवाये |२ वंश-वृक्ष देदा I वसा I मोख [जयतलदेवी] T १- प्र० सं० भा० २ पृ० ४ प्र० १६ ( शब्दानुशासनावचूरि) २ - जै० पु० प्र० सं० पृ० ४३ ता० प्र० ४१. D. C. M. P. (G. 0, S. Vo. LXXVI.) P. 88. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: ___ [तृतीय रतीय मलयसिंह [साऊदेवी] जठिल सारंग जयंतसिंह खेतसिंह मेघा । देऊ । सारू । । । धरणू उष्टम् पांचू । सड़ी । मान् - श्रेष्ठि महणा वि० सं० १४४७. प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० खोखा के पुत्र श्रे० महणा की स्वपत्नी गोनीदेवी की पुत्री विलू श्राविका ने यात्रादि बहुपुण्यकार्य करने वाले सं० हरचन्द्र के साथ खंभात में भट्टारक श्री देवसुन्दरमरिगुरु के सदुपदेश से होने वाले अमयखूला नामा प्रवर्तिनी के पदस्थापनार्थ एवं श्री तीर्थयात्रा आदि के अर्थ आकर वि० सं० १४४७ में (सं० १४४६ फा० शु० १४ सोमवार) श्री सम्मतितर्कवृत्ति' की प्रति श्री स्तंभतीर्थ में ताड़ पत्र पर लिखवाई ।१ श्राविका स्याणी वि० सं० १४५० प्राग्वाटज्ञातीय सुधर्मी व्यवहारी श्रे० देसल के पुत्र संघपति मेघा की स्त्री मिणलदेवी की कुक्षि से उत्पन्न पुण्यवती, गुणवती, श्राविका स्याणी नामा ने सुगुरु तपागच्छनायक श्रीमद् देवसुन्दरमरि के उपदेश से वि० सं० १४५० भाद्रपद शु० २ (कृ० १ शुक्र०) को अपने कल्याणार्थ श्री 'आचारांगसूत्रवृत्ति' नामक ग्रंथ की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई । स्याणी का पाणिग्रहण प्राग्वाटज्ञातीय गांधिक गोत्रीय श्रे० नरसिंह की गागलदेवी नामा स्त्री से उत्पन्न विश्रुत धर्णिग के साथ में हुआ था ।२ श्राविका कडू वि० सं० १५४१ विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी में फीलणी नामक ग्राम में प्राग्वाटवंशीय वैभवशाली श्रे० वज्रसिंह नामक श्रावक हो गया है। उसकी धर्मपत्नी कडूदेवी बड़ी ही धर्मपरायणा और शीलगुणसम्पन्ना स्त्री थी। कडूदेवी की कुक्षि से १-० पु०प्र० सं० पृ०१४० प्र०३२३. D.C. M. P. (G. 0. S. Vo.LAX VI P.) 227 (369) प्र०सं०भा०१पृ०६२ (७) २-प्र०सं०मा०१पृ०८१ (ताड़पत्र) प्र०१२७ (आचारांगसूत्रवृत्ति) जै० पु०प्र०सं०७३-४ प्र०७८ (प्राचारागसूत्रवृत्ति) D.C. M. P. (G.O. S. Vo. LAKVI.) P. 243 (399) Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय को सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रा० आलू :: [ ३३७ उज्ज्वलयशस्वी धांगा, बाबा, पुण्यशाली लखमसिंह और सज्जनाग्रणी रावण नामक चार पुत्र उत्पन्न हुये । श्रा० कडू ने तपागच्छनायक देवसुन्दरपरि के उपदेश से वि० सं० १४५१ श्रा० शु० ५ गुरु० को श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत 'सुदर्शना - चरित्र' नामक ग्रन्थ लिखवाया और उसको अणहिलपुरपत्तन के ज्ञानभण्डार में स्थापित किया । १ श्राविका आसलदेवी वि० सं० १४५३ प्राग्वाटज्ञातीय व्य० आसा की धर्मपत्नी आसलदेवी ने अपने पुत्र व्य० श्राका, धर्मसिंह, वत्सराज, देवराज आदि और शिवराज आदि पौत्रों से युक्त हो कर तपागच्छनायक श्री देवसुन्दरसूरिगुरु के उपदेश से 'विशेषावश्यकवृत्ति (द्वितीय खण्ड)' वि० सं० १४५३ भाद्रपद कृ० १४ गुरुवार को श्री अणहिलपुरपचन में लिखवाई | २ श्राविका प्रीमलदेवी वि० सं० १९४५४ विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय ठक्कुर काला स्तम्भतीर्थ में रहता था । उसकी धर्मपत्नी संभलदेवी नामा धर्मात्मा स्त्री थी । उनके भूभड़ नामक विश्रुत विशदबुद्धि पुत्र हुआ । भूभड़ का पाणिग्रहण महायशस्वी, अतिश्रीमंत, दानवीर गंग नामक व्यक्ति की धर्मपत्नी विशदशीला निःसीमरूपसमल्लक्ष्मी प्राग्वाटकुलावतंसा गउरदेवी की कुक्षि से उत्पन्न गुणाढ्य, सुशीला प्रीमलदेवी नामक पुत्री से हुआ । श्रीमदेवी ति धर्मप्राणा, सती स्त्री थी। उसने तपागच्छनायक देवसुन्दरसूरि का उपदेश श्रवण करके शीलाचार्यकृत 'सूत्रकृतांगटीका' नामक पुस्तक को वि० सं० १५५४ माघ शु० १३ सोमवार को कायस्थज्ञातिभूषण जाना के पुत्र मंत्रीप्रवर भीमा द्वारा स्तंभतीर्थ में बहुत द्रव्य व्यय करके लिखवाई | २ श्राविका आल्हू वि० सं० १४५४ स्तंभतीर्थाधिवासी प्राग्वाटज्ञातीय सुकृती धर्मात्मा श्रेष्ठि लाखण की धर्मपत्नी श्राल्हू नामा ने अपने पुत्र वणवीर, पुत्री चापलदेवी के सहित श्री देवसुन्दरसूरि का सदुपदेश श्रवण करके वि० सं० १४५४ में श्री पंचांगी - सूत्रवृत्ति' नामक ग्रंथ की प्रति अपने द्रव्य का सदुपयोग करके भक्ति-भावना पूर्वक ताड़पत्र पर लिखवाई | ४ १- जै० पु० प्र० सं० पृ० ४३, ४४ ता० प्र० ४२. D. C. M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 208 (341). २-जै० पु० प्र० सं०पृ ० १४१ प्र० ३२८ (विशेषावश्यकवृत्ति ). D. G. M.P. (G.O.S. Vo. LXXV1.)P. 238 (899) ३ - जै० पु० प्र० सं० पृ० ४४ ० ४३. D. C. M. P. (GO. S. Vo. LXXVI) P.260 (46) ४-प्र ० सं० भा० १ पृ० ७७-७८ ता० प्र० ११४ (पंचांगीसूत्रवृत्ति) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास : श्राविका आल्हू वि० सं० १४५४ विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लाषण खंभात नगर में महादयालु, यशस्वी एवं धर्मात्मा पुरुष हो गया है । उसका विवाह रूपगुणसम्पन्ना साऊ नामा कन्या से हुआ था । श्राविका साऊदेवी दृढ़ जैनधर्मी, स्त्रीशिरोमणि थी। उसके आल्हू नामा कन्या उत्पन्न हुई । आल्हू सुशीला, गुणवती कन्या थी । प्रभु-पूजन में उसकी सदा अपार श्रद्धा, भक्ति रही । उसका विवाह स्थानीय प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध व्यवहारी श्रीमंत वादा भार्या चांपलदेवी के पुत्र वीरम नामक अति गुणवान् युवक से हुआ था । श्रा० आल्हू ने तपागच्छनायक श्रीमद् देवसुन्दरसूरि के उपदेश को श्रवण करके तथा धन, वैभव, ऋद्धि-सिद्धि को असार समझ कर वि० सं० १४५४ में खंभातवास्तव्य कायस्थकुलकमलरवि जाना नामक प्रसिद्ध पुरुष के पुत्र मंत्रीवर भीमा से बहुत द्रव्य व्यय करके ‘पञ्चांगीसूत्रवृत्ति' नामक पुस्तक लिखवाई | १ श्राविका रूपलदेवी वि० सं० १४५६ [ तृतीय 1 वि० पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में अणहिलपुरपत्तन में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वीर नामक श्रावक रहता था । वह व्रतनिष्ठ, सदाचारी, सभ्य एवं लब्धप्रतिष्ठ पुरुष था । उसके महापुण्यशाली वयज नामक पुत्र हुआ । श्रे० वयज की धर्मपत्नी माकूदेवी ( माऊदेवी ) थी । माकूदेवी चतुरा और अति सौभाग्यशालिनी स्त्री थी । वह अति उदार - हृदया एवं दयालु थी । उसके चार संतानें हुईं । तेजसिंह, भीमसिंह, पद्मसिंह नामक तीन पुत्र और रूपलदेवी नाम की एक पुत्री । रूपलदेवी गुणाढ़ था, सौभाग्यशालिनी थी । बालपन से ही वह धर्मरता, करुणार्द्रचेता, पुण्यकर्मकर्त्री तथा देव, गुरु में अतिशय भक्ति रखने वाली, नित्य कठोर तपकर्म करने वाली थी । तपागच्छनायक श्री देवसुन्दरसूरिगुरु के उपदेश को श्रवण करके उसने वि० सं० १४५६ में बहुत द्रव्य व्यय करके श्री ' पद्मचरित्र ' नामक ग्रन्थ की प्रति ताड़पत्र पर लिखवा कर पत्तन के ज्ञानभण्डार में स्थापित करवाई | २ श्रेष्ठ धर्म वि० सं० १४७४ विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राग्वाटज्ञातीय नरपाल, धनसिंह, खेता नाम के तीन प्रसिद्ध भ्राता हो गये हैं । उनका लक्ष नामक काका प्रसिद्ध व्यक्ति था । लक्ष की धर्मपत्नी झवकू अति पतिपरायणा एवं सती १ - जै० पु० प्र० सं० पृ० ४५. ता० प्र० सं० ४५. २ - प्र० सं० भा० १५० ६२ ता० प्र०६८ (पद्मचरित्र) D.C.M. P. (G.0.S.Vo.LXXVI.) P. 240 (395) D. C. M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 228 (371) Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्राज्ञा० सद्गृहस्थ-० धर्मा :: [ ३६६ साध्वी स्त्री थी। उसके धर्म नामक पुत्र हुआ । धर्म चतुर, निर्मलबुद्धि एवं धर्ममर्म का जाननेवाला था । धर्म की स्त्री रत्नावती थी । रत्नावती सचमुच ही गुणरत्नों की खान थी । वह विशुद्धहृदया, शुद्धशीला स्त्री थी। उसके अजितचूला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। अजितचूला पापरूपपंक का शोषण करने में समर्थ ऐसा दुस्तप करनेवाली थी। अजितचूला के एक भाई भी था, जिसने साधुदीक्षा ग्रहण की थी और वह विनयानन्द नाम से विख्यात हुआ था । मुनि विनयानन्द भी विनयादिगुणालय, साधुशिरोमणि, परमहंस साधु था। श्रे० धर्म धर्मकृत्यों के करने में सदा तत्पर रहता था। उसने यौवनावस्था में ब्रह्मचर्य का पूर्ण परिपालन किया था । वह नित्य 'पंचशक्रस्तव' करके मनोहारिणी भूरिभक्ति से जिनेश्वरदेवों की प्रतिमाओं के दर्शन और उनका पूजन करता था । उसने विशाल वैभव के साथ में श्री अर्बुदतीर्थ की संघयात्रा की थी। इस संघयात्रा में उसके मामा संघवी कर्मण और लक्ष्मसिंह नामक अति प्रसिद्ध, पुण्यकर्मा व्यक्ति भी अपने प्रसिद्ध पुत्र गोधा और लींबादि के सहित सम्मिलित हुये थे। श्रे० धर्म ने संघ का आतिथ्य बड़ी भक्ति एवं भावनाओं से किया था तथा संघ और गुरु का पूजन तथा अर्चन सोत्साह करके संघयात्रा सफल की थी । धर्म ने देवकुलपाटक (देलवाड़ा) के आदिनाथ-जिनालय में कुल का उद्योत करने वाली देवकुलिका विनिर्मित करवाई थी। तपागच्छाधिपति श्रीमद् सोमसुन्दरमरि का सदुपदेश श्रवण करके उसने लक्षग्रन्थमान (लाख श्लोक-प्रमाण) आगम पुस्तक, जिनमें अभयदेवकृतवृत्तियुक्त 'औपपातिकसूत्र' आदि प्रमुख गण्य हैं वि० सं० १४७३ फा० कृ० ४ बुधवार से वि० सं० १४७४ मार्ग शु० ६ रविवार पर्यन्त विप्रज्ञातीय नागशर्मा से अणहिलपुरपत्तन में लिखवाये और स्वद्रव्य को सप्त क्षेत्रों में व्यय किया ।१ श्राविका माऊ वि० सं० १४७६ ____ श्री अणहिलपुरपत्तन में देवगिरिवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय सा० सलखण भार्या धनू की पुत्री माऊ नामा ने तपाधिराज श्री सोमसुन्दरमरि के उपदेश से संवत् १४७६ वैशाख शु० ५ गुरुवार को 'स्याद्वादरत्नाकर' प्रथम खण्ड लिखवाया २ श्रेष्ठि धर्मा वि० सं० १४८१ हडाद्रनगर का महत्त्व जैनतीर्थों के स्थानों में प्राचीन एवं विशिष्ट है। वहाँ वि० शताब्दी पंद्रहवीं में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० लाखा नाम का एक प्रसिद्ध व्यक्ति रहता था । श्रे० लाखा अति ही सज्जन, उदारहृदय और १-३० पु० प्र० सं० पृ० ४७ प्र० ४७ D.C.M.P. (G. 0. S. Vo. LXXVT.) P. 214 (548) जै० पु० प्र० सं० पृ०१४२ प्र० ३४० (औपयातिकसूत्रवृत्ति) २-जै० पु०प्र० सं० पृ०१४३ प्र० ३४३ (स्थाद्वादरत्नाकर) D. C. M. P. (G.O. S. Vo. LXXVI) P. 202 पर 'माज' के स्थान पर 'भाउ' लिखा है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] : प्राग्वाट - इतिहास : [ तृतीय 1 । उसके एक । वह रात्रि उत्तम कोटि का सज्जन श्रावक था । उसकी ख्री लक्ष्मीदेवी भी वैसी ही गुणवती सदीसाध्वी स्त्री थी पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम धर्मा रक्खा गया । श्रे० धर्मा अपने माता, पिता से भी बढ़कर हुआ दिवस धर्मकृत्यों के करने में तल्लीन रहता था । वह सत्यभाषण, ब्रह्मव्रत एवं शीलत्रत के पालन के लिये दूर २ तक प्रख्यात था । उसने अनेक बिंबों की स्थापना और उद्यापनतप करवाये थे । तपागच्छनायक श्रीमद् देवसुन्दरमूरि के पट्टालंकार श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि का उपदेश श्रवण करके उसने वि० सं० १४७६ वैशाख कृ० ४ गुरुवार से वि० सं० १४८९ पर्यन्त दो लक्षग्रन्थप्रमाण श्री देवसूरिरचित 'प्राकृत- पद्मप्रभस्वामिचरित्र' की प्रति लिखवा कर पतन के ज्ञानभण्डार में अर्पित की। प्रसिद्ध पंचम उपांग ‘श्री सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति' को जो श्रीमद् मलयगिरि ने रची थी। उसने वि० सं० १४८१ में ही ताड़पत्र पर लिखवाई । धर्म की स्त्री का नाम रतू अथवा रत्नावती था । रत्नावती पति की श्राज्ञापालिनी, गृहकर्मदक्षा एवं अति उदारहृदया स्त्रीशिरोमणि महिला थी । १ ० गुणेयक और को० बाघा वि० सं० १४६० चम्पकनेर (चांपानेर) वासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० खेता भा० लाड़ी सा० गुणेयक ने ३८ फीट लम्बा और १२|| इश्व चौड़ा एक पंचतीर्थी - भालेखपट वि० सं० १४६० का० कृ० ३ को करवाया और उसी मुहूर्त में प्राग्वाटज्ञातीय कोठारी मं० तेजमल भा० भावदेवी के पुत्र बाघमल ने भी श्री शांतिनाथप्रासाद में द्वितीय पंचतीर्थीआलेखपट करवाया |२ श्रेष्ठि मारू वि० सं० १५०४ प्राग्वाटज्ञातीय मं० मारू ने जिसकी स्त्री का नाम चमकूदेवी था, अपने पिता-माता मं० धनराज धांधलदेवी के और अपने कल्याण के लिये वि० सं० १५०४ वैशाख शु० ६ मंगलवार को श्री पार्श्वनाथचरित्र' नामक ग्रन्थ लिखवाकर श्री पूर्णिमापक्षीय श्रीमद् पासचन्द्रसूरि के पट्टधर श्रीमद् जयचन्द्रवरि को भेंट किया । १ श्रेष्ठ कर्मसिंह वि० सं० १५११ मालवदेशान्तर्गत खरसउदनगरवासी प्राग्वाटज्ञातीय तपापक्षीय शा० कर्मसिंह ने श्रहिल्लनगर में तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के शिष्य पं० रत्नहंसगणि के वाचन के लिये उदीचज्ञातीय लेखक म० धरणीधरण १-प्र० सं ० भा० १ पृ० ६६-६७ ता० प्र० १०४ (पद्मप्रभुचरित्र) जै० पु० प्र० सं० पृ० ४८ प्र० ४८ (लक्षद्वयप्रथमान) प्र० सं० भा० १ ० ६ ता० प्र० ११ ( सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति) २ - D. C.M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 154 (240) ३ - प्र० सं० भा० २ पृ० १० प्र० ३७ (श्री पार्श्वनाथचरित्र ) Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बण] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रामा० सद्गृहस्थ-० गुणराज :: [४१ द्वारा श्री शांतिनाथचरित्र' नामक ग्रंथ को लिखवा कर वि० सं० १५०६ भाषाढ़ शु. २ सोमवार को उनको शर्मित किया । श्रेष्ठि कर्मसिंह के पिता का नाम गोगा और माता का नाम सावित्रीदेवी था तथा पितामह शा० नान नामा और पितामही राजूदेवी नामा थी। शा० गोगा से शा० पासड़, शा० देन्हा, शा. पेथा क्रमशः बड़े भ्राता थे और शा० डङ्गर छोटा भ्राता था। कर्मसिंह ने अपनी स्त्री लाठीकुमारी, पुत्र बाछा, भ्राता शा० आल्हा भा० नाईदेवी और भगिनी टरकूदेवी प्रमुख स्वपरिजनों के सहित तपागच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि, श्री मुनिसुन्दरमरि, श्रीजयचन्द्रसूरि, श्रीजिनसुन्दरसूरि के पट्टपरंपरागत संप्रति विजयमान श्रीमद् रत्नशेखरसूरि, श्री उदयनंदिसुरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि, श्री सोमदेवसूरिशिष्य पं० रत्नहंसगणि के उपदेश से वि० सं० १५११ में सविस्तार पन्चम्युद्यापन करके 'शांतिनाथचरित्र' की एक प्रति लिखवाई ।। वंश-वृक्ष शा० नानू [राजूदेवी] पासड़ देल्हा पेथा गोगा [सावित्री] इङ्गर कर्मसिंह [लाठीकुमारी] पान्हा [नाईदेवी] टरकूदेवी वाछा श्रेष्ठि पोमराज वि० सं० १५११ उन्नतदुर्गवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० पोमराज ने अपने पुत्र धूला, पुत्रवधु हर्षदेवी और पौत्र अमरादि परिवार के जनों के सहित वि० सं० १५११ चैत्र शु० ११ शुक्रवार को पं० तिष्ठारत्नगणि के उपदेश से श्री 'षडशीतिकावचूरि' नामक ग्रन्थ की एक प्रति लिखवाई ।२ मंत्री गुणराज वि० सं० १५१४ प्राग्वाटज्ञातीय प्रसिद्ध मन्त्रीश्वर केशव की जिनधर्मभक्तिचतुरा स्त्री देमतिदेवी की कुक्षि से उत्पन्न नीति १-प्र०सं० भा०२ पृ०१६ प्र०६३ (शांतिनाथचरित्र) २-प्र०सं०भा०२ पृ०१७प्र०६७ (बड़शीतिकावरि) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] प्राग्वाट-इतिहास: [ तृतीय निपुण मन्त्री गुणराज ने जो अति धनवान् एवं धर्मात्मा था अपनी स्त्री रूपिणीदेवी और पासचन्द्र आदि पुत्रों के सहित अपनी माता देमतीदेवी के प्रमोद के लिये बृहत्तपागच्छीय श्री ज्ञानकलशसरि, विद्यागुरु उपाध्याय चरणकीर्शि की निश्रा में वि० सं० १५१४ माघ शु० २ सोमवार को श्री कल्पसूत्र' की एक प्रति मं० देव द्वारा लिखवाकर श्री पूज्य भ० श्री विजयरत्नसरि गच्छाधिप के विजयराज्य में पं० विजयसमुद्रगणि को अर्पित की।१ श्रेष्ठि केहुला वि० सं० १५१६ अहमदाबादवासी प्राग्वाटज्ञातीय मं० महुणसिंह भार्या महुणदेवी के पुत्र महं० लाखा भार्या वैदेउ, महं. श्री ठाकुरसिंह भार्या झबकूदेवी के पुत्र केहुला भार्या कर्मादेवी, वेला भार्या मेघू-इन में से शा० केहुला ने अपनी स्त्री कर्मादेवी के तथा अपने श्रेय के लिये वि० सं० १५१६ माघ कृ. १४ गुरुवार को श्री 'प्रवचनसारोद्धारसूत्र' नामक ग्रन्थ की एक प्रति लिखवाई ।२ वंश-वृक्ष महं० महुणसिंह [महुणदेवी] महं० लाखा [वैदेउदेवी] महं० ठाकुरसिंह [झवकूदेवी] केहुला [कर्मादेवी] वेला [मघूदेवी श्रेष्ठि निणदत्त वि० सं० १५४३ अहमदाबादनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि जुगपाल के पुत्र वइरसिंह की धर्मपत्नी गउरदेवी के पुत्र संघवी जिणदत्त ने श्री कल्पसूत्र' (सावचूरी) नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की प्रति वि० सं० १५४३ द्वितीय श्रावण १० एकादशी को लिखवाई।३ १-प्र०सं० भा०२ पृ०१८प्र०७५ (श्री कल्पसूत्र) २-प्र०सं० मा०२ पृ० २१ प्र०६१ (प्रवचनसारोद्धारसूत्र) ३-प्र०सं०भा०२ पृ०४३ प्र०१८३ (श्री कल्पसूत्र) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०मा० सद्गृहस्थ-० ठाकुरसिंह: [४.१ श्रेष्ठि ठाकुरसिंह वि० सं० १५४८ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में वीरमग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय ज्ञातिभूषण श्रेष्ठि ठाकुरसिंह हुआ है। वह अति धर्माराधक एवं दृढ़ जैनधर्मी था । उसका विवाह वानूदेवी नाम की एक परम गुणवती कन्या से हुआ था। वानूदेवी के पिता प्राग्वाटज्ञातीय पाँच थे। ये भी वीरमग्राम के ही निवासी थे । पाँचराज के पिता जसराज थे तथा माता का नाम रमाईदेवी था । पाँचराज पाँच भाई-बहिन थे। धारा, वीरा, हीरा नामक तीन छोटे भ्राता और हरदेवी नामक एक बहिन थी । पाँचराज की धर्मपत्नी का नाम बूटीदेवी था। बूटीदेवी की कुक्षि से धनराज और कान्हा नामक दो पुत्र और कीकी, ललतू , अरधू और वानूदेवी नाम की चार पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। यह वानूदेवी श्रे० ठाकुरसिंह की पत्नी हुई। ___ श्रे० ठाकुरसिंह को अपनी पत्नी वानूदेवी से खीमराज और कतइया नामक दो संतानों की प्राप्ति हुई। खीमराज का विवाह श्वेतानूदेवी और नागलदेवी नामक दो गुणवती एवं शीलशालिनी कन्याओं से हुमा । वि० सं० १५४८ में श्रे० ठाकुरसिंह ने श्रीमद् धर्महंसमरि के सदुपदेश से श्री 'शान्तिनाथचरित्र' की प्रति लिखवा कर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया और श्रीमद् ईन्द्रहसमरिगुरुमहाराज को वाचनार्थ अर्पित कर अपार कीर्ति प्राप्त की। वंश-वृक्ष ठाकुरसिंह [वानूदेवी] खीमा [श्वेता-देवी, नागलदेवी] कतइया धारा वीरा हीरा हरदेव पाँचराज [बूटीदेवी] । । । धना कान्हा कीकी ललतू अरधू वान्देवी प्र०सं०भा०२ पृ० ५० प्र०१६६ (शातिनाथचरित्र) Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे प्राचाट-इतिहास [तृतीय श्राविका सदेवी वि० सं० १५४८ भग्वाटशातीय श्रेष्ठि धीरा की धर्मपत्नी सद् नामा ने पुत्र प्रासधर, रूपराज के सहित वि० सं० १५४८ का०शु०३ गुरुवार को श्री अणहिलपुर में तपागच्छीय श्रीमद् जिनरलसरि के शिष्य पं. पुण्यकार्निगणि के शिष्यप्रवर पं० साधुसुन्दरगणि के पठन के लिये श्री ‘उत्तराध्ययनस्त्र' नामक प्रसिद्ध अंथ की प्रति लिखवायी ।१ श्री ज्ञानभण्डार संस्थापक नंदुरवारवासी प्राग्वाटज्ञातीय सुश्रावक श्रेष्ठि कालूशाह वि० सं० १५५१ विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में नंदुरवारवासी प्राग्वाटझातीय श्रेष्ठि भीम अति विख्यात संघपति हुआ है। वह दृढ़ जैनी था। उसका पुत्र डूंगर भी वैसा ही प्रसिद्ध एवं पुण्यशाली हुआ । डूंगर का पुत्र गुणराज था । गुखराज भी अति गुणवान् एवं दृढ़ जैनी था । गुणराज ने पदोत्सव एवं प्रतिष्ठोत्सव करवाये तथा श्री शत्रुजयमहातीर्थ रैवंततीर्थ, जीरापल्लीतीर्थ, अर्बुदतीर्थ की यात्रायें की और अपने न्योयोपार्जित द्रव्य का इस प्रकार व्यय करके अपार कीर्ति प्राप्त की । श्रे० गुणराज का पुत्र कालू हुआ । कालू के तीन स्त्रियाँ थीं-जसमति, ललतादेवी और वीरादेवी । कालू अपने पिता के सदृश ही धर्मात्मा एवं पुण्यशाली हुआ । उसने स्वोपार्जित द्रव्य को तथा पूर्वजों से प्राप्त अतुल द्रव्य को जैनमन्दिरों के निर्माण में, पूजाओं में, पुस्तक-लेखनों में तथा संघ की सेवाओं में व्यय किया । जीवन में उसने अतिशय दान दिया तथा कोश, आगम, सूत्र एवं वृत्तियाँ लिखवाई। श्रे० कालुशाह ने मुनिवर्य वाचक श्रीमद् महीसमुद्र का सदुपदेश श्रवण करके एक विशाल ज्ञान-भण्डार की स्थापना की और समस्त आगम-सिद्धान्तों की सटीक प्रतियाँ लिखवाकर उसमें संस्थापित की। महोपाध्याय श्रीमद् महीसमुद्र के शिष्य पं० कनकविजयगणि के निरीक्षण में उक्त ज्ञान-भण्डार की स्थापना एवं सिद्धान्तों का लेखन-कार्य पूर्ण करवाया गया था। उसने श्री 'पिंडनियुक्ति' की भी प्रति वि० सं० १५५१ आश्विन शु० १० शुक्रवार को लिखवाई थी। यह प्रति मु० श्री० हं० वि० सं० शास्त्रसंग्रह बड़ोदा में विद्यमान है ।२ १-प्र०सं० भा०२ पृ० ५० प्र०१६७ (उत्तराध्ययनसत्र) २-लीबड़ी, भावनगर, पत्तन,जैसलमेर के ज्ञान-भण्डारों में श्रे० कालूशाह द्वारा लिखवाई गई कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं: वि० सं०१५५१ आषाढ शु०१० शुक्रवार को 'व्यवहारभाष्य' की प्रति लिखवाई गई। यह प्रति भावनगर-ज्ञान-भण्डार में विद्यमान है। लीबड़ी के ज्ञान-भण्डार में 'आचारागनियुक्ति' 'सत्रकृतांगवृत्ति की प्रतियाँ विद्यमान हैं। 'श्री जिनभवन-जिनार्चा-पुस्तक-संघादिके सदप्तक्षेत्रे । वित्तव्य यस्य कर्ता दानार्थि जनान् समुद्धर्ता ॥५॥ श्रीमत्कालूनाम्ना निजकर कमलार्जितेन वित्तेन । चित्कोशे सिद्धांताः ससूत्रका वृत्तिसंयुक्ताः॥६॥ श्रीमद्वाचकनायक महीसमुद्राभिधानमुखकमलात् । लब्ध्वा वरोपदेशं नंदंतु लेखिताः सुचिरं ॥७॥' जै० सा०सं० खं०३ अं०२ पृ०१६६.-'व्यवहारभाष्य' की प्रशस्ति । प्र० सं०भा०२ पृ० ५२ प्र०२०५( पडनियुक्ति) Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खस]: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रामा० सद्गृहस्थ-मं० सहसराज: [ Jok श्रेष्ठि नक्षी वि० सं० १५५७ वड़लीनगर निवासी प्राग्वाटज्ञातीय गांधी सोमा के पुत्र सवराज के पुत्र नक्षीराज, महिमराज और अपा ने, जो पत्तन में रहने लग गये थे वि० सं० १५५७ मार्गशिर शु० १४ शुक्रवार को 'श्री शतश्लोकवृत्ति' लिखवाई ।१ श्रेष्ठि जीवराज वि० सं० १५८३ प्राग्वाटज्ञातीय परम श्रावक व्य० जीवराज की धर्मपत्नी जीवादेवी ने पुत्ररत्न छाछा सहित तपागच्छनायक श्री. भ. परमगुरु श्रीमद् हेमविमलसूरि के विजयराज्य में वि० सं० १५८३ चैत्र शु. १४ रविवार को श्री 'अनुयोगद्वारस्त्र' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की प्रति लिखवायी ।२।। श्राविका अनाई वि० सं० १५६० _____ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में चंपकदुर्ग में प्राग्वाटज्ञातीय दोसी धरणा प्रसिद्ध श्रावक हो गया है । उसकी स्त्री का नाम अनाईदेवी था। श्राविका अनाईदेवी ने कुतुबपुरीयशाखीय श्रीमद् हर्षसंयमगणि के शिष्य पंडितवर राणा का उपदेश श्रवण करके वि० सं० १५६० अाशोज शु० १३ बुधवार को श्री 'सूयगडांगसूत्र' (मूल) की प्रति लिखवाई । यह प्रति खंभात के श्री शांतिनाथ-प्राचीन-ताड़पत्रीय जैन-ज्ञानभंडार में विद्यमान है । ३ मं० सहसराज वि० सं० १६१५ आगमगच्छाधिराज श्री विवेकरत्नमरि के पट्टालंकार विद्यमान भट्टारक श्रीमद् संयमरत्नसरि के सदुपदेश से श्री प्राग्वाटज्ञातीय श्रीक्षेत्रनिवासी मं० मणीराज के पुत्र मं० वेलराज की धर्मपत्नी खदकूदेवी के पुत्र मं० शिवराज की धर्मपत्नी चंपादेवी पुत्र, अनेक प्रतिष्ठा एवं यात्रा और अन्य पुण्यकर्म करने वाले सुश्रावक मं० सहसराज ने अपने भ्राता मं० सुरराज, भगिनी कीकादेवी, धर्मपत्नी नाकूदेवी, पुत्री श्री बाई, वीरादेवी, पुरादेवी पुत्र महं० मांकराज और उसकी धर्मपत्नी अहंकारदेवी, धनादेवी, पौत्र बभूराज प्रमुख कुटुम्बसहित वि० सं० १६१५ कार्तिक कृ. ११ रविवार को श्री भगवतीसूत्र' नामक ग्रन्थ की प्रति लिखवाई ।४।। १-प्र०सं० भा०२ १०६० प्र०२३४ (शतश्लोकवृत्ति) २-प्र०सं० मा०२ पृ०८६.प्र.३१६ (अनुयोगदारसूत्र) ३-खं० शा० प्रा० ता० जै० ज्ञा० भ०प०४३ ४-प्र०सं०भा०२ पृ०१११ ०४१८ (भगवतीसत्र) -सं० शा० प्रा० ० ० ० ० ०शक्षाकात ४-५०० सं० भ० २ १८:२१ ५०४२८ (भगवतशहारत) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ] श्रीबाई .: प्राबाट - इतिहास :: वंशवृच मं० मणीराज वीरादेवी | • वेलराज [खदकूदेवी] ० शिवराज [ चंपादेवी ] T मं० सहसराज [नाकूदेवी ] मं० सुरराज कीकादेवी पुरादेवी मांकराज [१ अहंकारदेवी २ धनादेवी ] बभूराज श्रेष्ठि पचकल वि० सं० १६१६ प्राग्वाटज्ञातीय श्रीक्षेत्रनिवासी श्रे० जीवराज की धर्मपत्नी देसाई के पुत्र श्रे० मकरंद की धर्मपत्नी अमरदेवी के पुत्र श्रे० पचकल नामक सुश्रावक ने अपनी धर्मपत्नी लाडकुमारी, भ्राता श्रे० मंगल, कमल, हर्षराज प्रमुख कुटुम्ब सहित सहोदरा मानकुमारी के श्रेयार्थ श्री श्रागमगच्छीय श्री विवेकरत्नसूरि के पट्टालंकार गच्छाधीश श्री संयमरत्नसूरि के सदुपदेश से ज्ञानवृद्धि के निमित्त वि० सं० १६१६ वैशाख शु० ३ रविवार को श्री 'विपाकसूत्र' नामक ग्रंथ की प्रति लिखवाई | वंशवृक्ष जीवराज [देसाई ] मकरंद [अमरादेवी ] पचकल [लाडकुमारी] मंगल कमल हर्षराज मानकुमारी [ तृतीय *प्र० सं० भा० २५० ११२ प्र० ४२३ (विपाकसूत्र ) Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रा० सोनी :: [ ४०७. श्रेष्ठि सूदा वि० सं० १६२७ तपागच्छगगनमणिभट्टारक श्री ६ आनंदविमलसूरि के पट्टधर श्री ६ विजयदानसूरि के पट्टप्रभावक गौतमावतार परमगुरु गच्छाधिराज ६ हीरविजयसूरि के विजयराज्य में पं० श्रीमद् ज्ञानविमलगणि के सदुपदेश से पं० खुदा ने धर्मपत्नी श्रीदेवी, पुत्र शाह संग्राम, धनराज, देवचन्द्र, रूपचन्द्र, दीपचन्द्र आदि प्रमुख कुटुम्ब श्रेयोर्थ श्री ज्ञानभंडार की अभिवृद्धि के निमित्रा श्री 'नंदीसूत्र' नामक धर्मग्रंथ की प्रति प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशास्त्रीय नंदरवारनगर-निवासी ले० खीमराज द्वारा वि० सं० १६२७ मार्गशिर शु० ५ को नंदरवारनगर में लिखवाई । १ मं० धनजी वि० सं० १६७४ प्राग्वाटज्ञातीय मं० देवजी के पुत्र मं० धनजी ने अपने वाचन के लिये वीरमग्रामनिवासी पं० विमलसिंह से वि० सं० १६७४ भाद्रपद कृष्णा ७ गुरुवार को श्री ' राजप्रश्नीयसूत्र' नामक ग्रन्थ की प्रति लिखवायी ।२ श्रेष्ठ देवराज और उसका पुत्र विमलदास वि० सं० १६८० विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में धवन्लकपुर में प्राग्वाटज्ञातीय देवराज नामक एक धर्मप्रवृत्ति श्रावक अपने पुत्र विमलदास के सहित रहता था । वह श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छ का अनुयायी था । दोनों पिता और पुत्र बड़े ही श्रीमन्त और शास्त्रों का अनुशीलन करने वाले थे । इनकी धर्मप्रियता से प्रसन्न होकर ब्रह्मऋषि जिनको विनयदेवसूरि भी कहते हैं ने वि० सं० १६८० चैत्र कृ० ११ रविवार को 'अदारपापस्थानपरिहारभाषा' नामक ग्रन्थ देवराज के पुत्र विमलदास के पठनार्थ लिखकर पूर्ण किया था । श्रीमद् रत्नसिंहरि के समय में श्रीमद् समरचन्द्रशिष्य नारायण ने 'श्रेणिकरास' सं० १७०६ फाल्गु कृ० ११ सोमवार को आर्या सोभा और देवराज के पुत्र विमलदास के पठनार्थ लिख कर पूर्ण किया था । ३ श्राविका सोनी वि० सं० १७२१ पितापक्ष से जूनागढ़ निवासी प्राग्वाटज्ञातीय वृद्ध सं० सोनी श्रीपाल के पुत्र सो० खीमजी के पुत्र सो० रामजी के पुत्र सो० मनजी के पुत्र सो० पासवीर और मातृपक्ष से स्तम्भतीर्थवासी तपापक्षीय श्री हीरविजयसूरि के १-प्र० सं० भा० २ पृ० १२३ प्र० ४७० ( नंदीसूत्र ) २- प्र० सं० भा० २ पृ० १८३ प्र० ७२४ (श्री राज प्रनीयसूत्र) ३ - जै० गु० क० भा० १५० १५६, ५१६ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] प्राग्वाट-इतिहास: [तुतीय राज्य में सो० सोमसिंह भार्या बाई कर्मावती की पुत्री बाई बछाई की पुत्री सोनी ने कर्मों का क्षय करने के लिये तथा मोक्ष के अर्थ पासवीर, सा० राघवजी, धनुश्रा की सांनिध्यता में ४५ आगमों का भण्डार वि० सं० १७२१ पौष कृ. १० को संस्थापित करवाया ।१ श्रेष्ठि रामजी वि० सं० १७२६ तपागच्छीय श्रीमद् विजयदेवसरि की सम्प्रदाय के वाचक श्रीमद् सौभाग्यविजयजी ने वि० सं० १७२६ में अणहिलपुरपत्तन में चातुर्मास किया था । उनकी निश्रा में पण्डित हर्षविजय भी थे । पत्तन में अनेक गर्भश्रीमंत रहते थे । उनमें प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० विसुधा का पुत्र रामजी धनी, समकितधारी, विनयवंत, दानी, धर्मधुरन्धर, श्रावकव्रतधारी और परम साधुभक्त था । श्रे० रामजी के आग्रह से श्रीमद् विजयदेवसूरिशिष्य साधुविजयशिष्य पं० हर्षविजयजी ने 'चैत्यपरिपाटि स्त०' ६ ढाल में रचा ।२ श्रेष्ठि रंगजी वि० सं० १७३६ बुनपुर में प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय रंगजी एक बड़े प्रसिद्ध श्रावक हो गये हैं । रंगजी ने श्रीमक्षीतीर्थ, श्री फलवर्धितीर्थ (फलौदी), श्री राणकपुरतीर्थ, श्री वरकाणातीर्थ, श्री अर्बुदाचलतीर्थ, श्री संखेश्वरपार्श्वनाथतीर्थ, श्री शत्रंजयतीर्थ की संघयात्रायें की और अपनी भजात्रों के बल से न्यायपूर्वक उपार्जित द्रव्य का अति ही सद्व्यय किया तथा वि० सं० १७३६ भाद्रपद शु० सप्तमी मंगलवार को भाग्यनगर में पं० श्री हर्षविजयगणि के शिष्य पं० प्रीतिविजयगणि के द्वारा अपने पुत्ररत्र चतुरशिरोमणि औदार्य, धैर्य, गाम्भीर्यादि गुणों से सुशोभित संघवी श्री गोडीदास के वाचन के अर्थ श्री 'माधवानलचतुष्पदी' नामक ग्रंथ की प्रति लिखवाई ।३ श्रेष्ठि लहूजी वि० सं० १७४३ ये अहमदाबाद में कालू संघवी की पोल में रहते थे। ये वृद्धशाखीय प्राग्वाटज्ञातीय थे । वि० सं० १७४३ श्रा० कृ० १३ गुरु को इनके पुत्र श्रे० वीरा ने 'अठारह-पापस्थानक' सञ्झाय लिखवाई ।४ १-प्र०सं०मा०२ पृ०२३० प्र०८५६ (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्र) और पृ०२३१ प्र०८७० (प्रश्मव्याकरण) २-० गु० क० मा०३ खं०२ पृ०१२७१. ३-प्र० सं० भा०२१०२५१ प्र०६४८ (माधवानलचतुष्पदी) ४-० गु० क०भा०३ खं०२५०१११८. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों के कई नगर एवं ग्रामों में विनिर्मित जिनालयों में विराजमान प्रतिमाओं में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित एवं संस्थापित प्रतिमायें बहुत संख्या में हैं। उनके प्रतिष्ठापक प्रा० ज्ञा० श्रावक श्रेष्ठियों का परिचय देना इतिहास के उद्देश्य के भीतर आ जाता है; श्रतः प्रतिमा के प्रा० ज्ञा० प्रतिष्ठापक का नाम, गोत्र, निवास, पूर्वज, कुटुम्बीजन तथा किन भगवान् की प्रतिमा, किस संवत् में, किस के श्रेयोर्थ, किन आचार्य के द्वारा, किन २ परिजनों की साक्षी एवं साथ में प्रतिष्ठित करवाई का संक्षिप्त परिचय प्रांत एवं ग्राम-नगर के क्रम से निम्न प्रकार दिया जाता है । प्र० वि० संवत् सं० १३६६ वै० शु० १ सं० १४२२ वै० शु० ११ बुघ० सं० १४२३ फा० शु० ८ सोम ० सं० १४५७ आषाढ शु० ५ गुरु० :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - राजस्थान - उदयपुर :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें सं० १४७८ सं० १४८१ वै० शु० २ शनि ० सं० १४८३ द्वि० वै० कृ० ५ गुरु० सं० १४८६ राजस्थान- प्रान्त उदयपुर (मेदपाट) श्री शीतलनाथ - जिनालय में पंचतीर्थयाँ और मूर्तियाँ प्र० प्रतिमा प्र० श्राचार्य भावदेव पार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ प्रा० ज्ञा० श्रे० नरदेव स्त्री गांगी के पुत्र श्रे० भाबट ने स्वस्त्री कडूदेवी, पुत्र वरणादिसहित पितृव्य चांपा के श्रेयोर्थ. मड़ाहड़गच्छीय. प्रा० ज्ञा० ० काला स्त्री कोल्हणदेवी पुत्र सरवण ने उदयप्रभसूर पिता-माता के श्रेयोर्थ. सुव्रतस्वामि अंचलगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० खीमसिंह स्त्री सारूदेवी के पुत्र जसराज ने जयकीर्त्तिरि पुत्र वीका, आशा के सहित. तपा. सोमसुन्दर - प्रा० ज्ञा० श्रे० कल्हा स्त्री उमादेवी के पुत्र सूरा ने स्वस्त्री सूरि नीदेवी, भ्रातृ चांपा, पुत्र सादा, पेथा, पद्मा के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० ले ०सं० भा० २ ले० १०४७, १०५३ (प्रा० ले० सं० ले० ७५), १०५४, १०६१, १०६६, १०६६, १०७१, १०६७ । " कुंथुनाथ [ ४०६ प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० ० छाड़ा ने स्वस्त्री वाल्हू के सहित साधू - पूर्णिमा धर्मतिलकमूरि श्रीसूर कछोलीगच्छीय कछोलीवासी प्रा० ज्ञा० ० तिहूण स्त्री चाहिणीदेवी के रत्नप्रभसूर पुत्र सेगा ने स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ शाली भद्रसूरि प्रा० ज्ञा० ० हरपाल भार्या आल्हणदेवी के पुत्र विजयपाल ने माता-पिता के श्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० श्रे० छाहड़ स्त्री मोखलदेवी के पुत्र त्रिभुवन ने पिता-माता के श्रेयोर्थ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० प्राकार-इतिहास:: [तृतीय सरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४८६ ज्ये० पार्श्वनाथ- तपा. सोमसुन्दर- वीसलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सूरा स्त्री पोमादेवी के पुत्र कृ० ११ चौवीशी मूरि श्राशराज ने स्वस्त्री रूपिणी, पुत्र राउल,माणिकलाल,जोगा आदि के सहित स्वभ्राता गौला और स्वपुत्र सारंग के श्रेयोर्थ. सं० १४६२ ज्ये० नमिनाथ प्रा. ज्ञा० श्रे० अरसिंह स्त्री आम्हणदेवी के पुत्र चाचा ने कृ० ११ स्वभार्या चाहणदेवी, पुत्र तोलराज, बाला, सुहड़, राणा, पांचा आदि के सहित स्वपत्र डोसा के श्रेयोर्थ. सं० १५०८ ज्ये० वर्द्धमान तपा-रत्नशेखर । कूणीगिरि (कूणगिर) वासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सोमराज स्त्री शु० १३ बुध धर्मिणी के पुत्र मालराज ने लालचन्द्र भार्या गेलूदेवी, रंभादेवी के सहित स्वश्रुयोर्थ. सं० १५०६ वै० आदिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० मेघराज भार्या हीरादेवी के पुत्र आशराज पंचतीर्थी डोडा ने भार्या केल्हू, आन्हा पुत्र शिखर आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१७ पौ० शांतिनाथ अहमदाबादवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० डूंगर स्त्री सुहासिनी के कृ. ८ रवि० पुत्र लक्ष्मणसिंह ने स्वस्त्री सोनादेवी, पुत्र नागराज भादि के सहित स्वपिता के श्रेयोर्थ. सं० १५१७ फा० विमलनाथ- स. लक्ष्मी- सीणरवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० चूड़ा स्त्री गउरी के पुत्र देन्हा शु०११शनि० चौवीशी सागरपरि ने स्वस्त्री रूपिणी पुत्र गुरु आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं०१५२३ माघ आदिनाथ आगमियाग्राम में प्रा. ज्ञा० श्रे० घोषा स्त्री जमलू के पुत्र शु०६ रवि० श्रे० रीड़ी भादि बाछलदेवी की पुत्री हलूदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३३ माघ नमिनाथ अंचलगच्छीय- प्रा. ज्ञा० शा० नाऊ स्त्री हंसादेवी के पुत्र ठाकुरसिंह, शु० १३ सोम० जयकेसरिपरि वरसिंह के भ्राता वीशराज ने स्वभार्या सोमादेवी, पुत्र जीणा के सहित. सं० १५४२ फा. तपा-लक्ष्मी- जालोरगढ़वासी प्रा०ज्ञा० शा. पोखर स्त्री पोमादेवी के पुत्र कृ०२ सागरमरि जसराज ने स्वस्त्री जसमादेवी, भ्राता लाखादि के सहित स्वश्रेयोथे. सं० १५६६ फा० पार्श्वनाथ तपा०-नंद- प्रा०ज्ञा० श्रे० तोलाराम स्त्री रुक्मिणी के पुत्र गांगा ने स्वस्त्री कु० ६ गुरु० कल्याणसरि पीबूदेवी, पुत्र लाला, लोला, लाखादि के सहित. ० ले० सं० मा० २ ले० १०२६, १०७६, १०८४, १०८५, १०३०, १०६१, १०६२, १०६७, ११००, ११०३, Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित-प्रतिमायें-राजस्थान-उदयपुर :: [४११ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५६६ वै० धर्मनाथ तपा० हेम- प्रा. ज्ञा० माणकचन्द्र स्त्री रवकूदेवी के पुत्र पार्श्व ने स्वस्त्री कृ० १३ रवि० विमलसरि ईन्दूमती, पुत्र नत्थमल, सोनपाल आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५९६ ज्ये०. श्रेयांसनाथ तपा० विजय- ज्यायपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० हापा स्त्री दानी के पुत्र शा० शु० २ दानसूरि सरवण ने स्वस्त्री मनादेवी, भ्राता शा० सामंत स्त्री कर्मादेवी पुत्र शा० सूरा,सीमा, खेता समस्त परिवारके सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री धर्मशाला में सं १४७७ मार्ग शांतिनाथ पू०प० पद्मा- प्रा० ज्ञा० श्रे० नरसिंह की स्त्री सारूदेवी के पुत्र रामचन्द्र कृ. ४ रवि० करसूरि ने स्वपिता के श्रेयोर्थ. ___ श्री गौड़ी-पार्श्वनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमायें सं० १४२७ ज्ये० चंद्रप्रभ मलधारी मुनि- प्रा० ज्ञा० दउलसिंह ने पिता ठ० पूनसिंह ठ० प्रीमलदेवी । कृ० १ शेखरसूरि के श्रेयोर्थ. सं० १४२७ ज्ये० आदिनाथ प्रा. ज्ञा० ४० गोबल धीणिग ने ठ० पूनसिंह ठ० प्रीमल देवी के श्रेयोर्थ. सं० १४६६ वै. आदिनाथ कोरंटगच्छीय- प्रा. ज्ञा० मं० शोभित भा० लाऊलदेवी के पुत्र भादा शु० ३ सोम० नत्रसूरि ने पिता-माता के श्रेयोर्थ.. सं० १५०१ माघ सुमतिनाथ तपा० मुनि- प्रा० ज्ञा० श्रे० धणसिंह भा० प्रीमलदेवी के पुत्र लाखा कृ. ५ गुरु० सुन्दरसरि भा० लाखणदेवी के पुत्र खीमचन्द्र ने स्वश्रेयोर्थ. सं०१५०५ पद्मप्रभ तपा० जयचंद्र- प्रा० ज्ञा० श्रे० माला की स्त्री भादा के पुत्र गोपीचन्द्र ने सरि भा० सातलदेवी, पुत्र मान्हा, सीहादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०६ माघ आदिनाथ सा० पूर्णिमा- प्रा. ज्ञा. श्रे० मांडण की स्त्री सलखूदेवी के पुत्र भीम___ शु०१० शनि० पुण्यचंद्रसूरि चन्द्र ने स्वभा० सूलेश्री सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१० फा० विमलनाथ आगमग- प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्ना भा० अमकूदेवी की पुत्री देमई में कृ० ३ शुक्र० सिंहदत्तमूरि स्वपति के श्रेयोर्थ. सं० १५१२ का० शन्तिनाथ कालिकाचार्य- प्रा. ज्ञा० मं० विमल के पुत्र मं० माकड़ की स्त्री धारूशु० १ रवि० सं० वीरसूरि देवी के पुत्र पोपा, राघव ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३६ आषाढ़ सुमतिनाथ कालिकाचार्य- तीनाविगोत्रीय मं० माकड़ की स्त्री धारूदेवी के पुत्र राय शु०३ ___ सं० भावदेवपूरि ने स्वस्त्री पूरी, पुत्र धरणा भा० जेठीदेवी, पौत्र सहस किरण, मांगा भार्या पूतली, मनीदेवी के श्रेयोर्थ. __ जै० ले० सं० भा० २ ले० ११०२, ११०४ । प्रा० ले० सं० १ ले. ११७,७८, ७६,१०१,१८०, २१५, २४६, २६०, २७२, ४७८. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] :: प्राग्वाट-इतिहास: [मृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५५७ ज्ये० विमलनाथ मडा. रत्नपुरीय प्रा० ज्ञा० श्रे० साजण स्त्री मान्हूदेवी के पुत्र डगड़ा के शु०१० गुणचन्द्रसरि भ्राता देवराज ने स्वश्रेयोर्थ स्वस्त्री देवलदेवी के सहित. सं० १८०८ ज्ये० पार्श्वनाथ तपा० उदयपुरवासी भण्डारी जीवनदास की स्त्री मटकूदेवी ने. शु०६ बुध० विजयधर्मसरि श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में (सेठों की बाड़ी) पंचतीर्थी-प्रतिमायें सं० १६२८ वै० धर्मनाथ- तपा० हीर- नारदपुरीवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० टोला के पुत्र चूड़ाने स्वभार्या शु० ११ बुध० पंचतीर्थी विजयसूरि पानदेवी, पुत्र लाधु, हीरा आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ श्रीऋषभदेव-जिनालय में (सेठों की हवेली के पास) सं० १५२६ वै० कुंथुनाथ तपा० लक्ष्मी- झाड़ोलीग्रामवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० चापसिंह की स्त्री पोमादेवी कु० ४ शुक्र० सागरसूरि के पुत्र साँगा ने स्वभा० दई, पुत्र करण, भ्राता सहसमल ___आदि के सहित स्वपिता-माता के श्रेयोथ करेड़ा (उदयपुर-राज्य) के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १३३४ वै० शान्तिनाथ- ...... प्राज्ञा० अंचलगच्छानुयायी महं० साजण, महं० तेजपाल के शु० ११ शुक्र० प्रतिमा पुत्र झाँझण ने पुत्र महं० मण्डलिक, महं० मालराज, महं० देवीसिंह, महं० प्रमत्तसिंह के सहित स्वमाता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १३८१ ज्ये. पार्श्वनाथ तपा० सोम- प्रा० ज्ञा० श्रे० धीना की स्त्री देवलदेवी के पुत्र चढूजा ने तिलकसरि स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ सं० १४०८ वै० सैद्धान्तिक प्रा०ज्ञा० श्रे० रीस्तरा(?), पद्म, साहड़, साकल, श्रे० देवसिंह शु० ५ माणिकचंद्रसूरि ने सं० १४८५ ज्ये० मुनिसुव्रत तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० कालू की स्त्री कामलदेवी के पुत्र खेतमल ने शु० १३ सूरि स्वभा० हरमादेवी के सहित* १५०६ माघ शु० वासुपूज्य- अंचल० जय- प्रा. ज्ञा० सं० कर्मट की स्त्री माजू के पुत्र उधरण ने स्वस्त्री ५ शुक्र० पंचतीर्थी केसरिसूरि सोहिनीदेवी, पुत्र आल्हा, वीसा, नीसा के सहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५२५ मार्ग. शांतिनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० वाधा की स्त्री गाऊदेवी के पुत्र माला ने सागरसूरि स्वभा० पान्हूदेवी, पुत्र पर्वत मा० नाई आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ जै० ले० सं० भा० २ ले० ११३०, १११६, १८८१, १६०२, १६१६, १६२४, १६२७, १६११, १६३८. प्रा० ले० सं०भा० ले० ३४. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-राजस्थान-जयपुर : [४१३ जयपुर श्री सुपार्श्वनाथ-पंचायती-जिनालय में पंचतीर्थयाँ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४३७ वै० पार्श्वनाथ रत्नप्रभसरी प्रा. ज्ञा० श्रे० गोहा स्त्री ललितादेवी के पुत्र मुञ्ज ने कृ० ११ सोम० __ स्वपिता-माता एवं' ता के श्रेयोर्थ. सं० १५०२ वै० कुथुनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० लाखा भार्या लाखणदेवी के पुत्र सामन्त ने कृ. ५ सूरि स्वभार्या श्रृंगारदेवी, पु० पान्हा,रत्ना, डीडा आदि के सहित. सं० १५३० माघ नमिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- पालणपुरवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० नरसिंह भा० नामलदेवी कृ०२ शुक्र० सरि के पुत्र कान्हा ने स्वस्त्री सांवलदेवी, पु. खीमा, प्रखू , माणिक भार्या सीचू के श्रेयोर्थ. सं० १५३० माघ मुनिसुव्रत प्रा. ज्ञा० शा. शिवराज भार्या संपूरी के पुत्र पाल्हा कृ०१०बुध० भार्या पाल्हणदेवी के पुत्र नाथा ने भात ठाकुरसिंह के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३४ फा० शीतलनाथ , वासानिवासी प्रा० ज्ञा० व्य० पान्हा भार्या देसू के पुत्र शु० २ पर्वत ने स्वभार्या भर्मी आदि प्रमुख परिवार के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६६ फा० आदिनाथ तपा० हेमविमल- प्रा. ज्ञा० श्रे० जीवा भार्या रंगीदेवी के पुत्ररत्न डाहीमा, शु० ३ सोम० सूरि भ्राता श्रीवंत ने स्वभार्या रत्नादेवी, द्वि. दाडिमदेवी, पुत्र खीमा, भीमादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५८७ पौ०. चन्द्रप्रभ श्रीहरि प्रा. ज्ञा० श्रे० काका भार्या बांकदेवी के पुत्र पहिराज क०६ रवि० भार्या वरवांगदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. श्री सुमतिनाथ-जिनालय में पंचतीर्थयाँ सं० १५१७ चै० पार्श्वनाथ तपा० प्रा० ज्ञा. श्रे० लक्ष्मण की स्त्री साधूदेवी के पुत्र श्रे० शु० १३ गुरु० मुनिसुन्दरमरि गोवल ने स्वभार्या राजूदवी के सहित स्वश्रेयोर्थ . बै० ले० सं० भा० २ ले० ११३६ ११४६, ११६०,११६१,११६४, ११७०, ११७२,११८५। । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [तृतीय प्र० वि० संवत् सं० १५३२ वै० क० २ शुक्र० सं० १५६७ पौ० ० ५ शुक्र० प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि संभवनाथ- पूर्णिःपुण्यरत्न- प्रा० ज्ञा. व्य. मामल भा० काईदेवी के पुत्र पाता चौवीशी सुरि भा० वाऊंदवी के पुत्र देवराज ने भार्या देवलदेवी प्र० भ्रातृ सामंत भा० लाड़ी पुत्र समधर भा० अजीदेवी सु० मांडण भोजराज, राणा, द्वि० भ्राता ऊदा भा० बाई पु० साईबा भा० सहिजादि सहित आदिनाथ जिनसाधुसरि साहआलवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वीरचन्द्र भार्या माणदेवी, भरमादेवी स्वश्रेयोथे. श्री नवीन आदिनाथ-जिनालय में पंचतीर्थयाँ आदिनाथ नागेन्द्रगच्छीय प्रा० ज्ञा० शा० शिवराज भा० सहजलदेवी के पुत्र हर्षचंद्र, हेमसिंहसरि रूपचन्द्र ने हर्षचन्द्र भार्या लाडकुचर, पुत्र, माता, पिता, भृत्य के श्रेयोर्थ. धर्मनाथ हीरविजयसूरि कुमरगिरिवासी अंबाईगोत्रीय वृ० शाखीय प्रा० ज्ञा० श्रे० खीमराज भार्या कनकदेवी पुत्र ठाकुरसिंह मा० सोभागदेवी, पुत्र देवर्ण परिवारसहित स्वश्रेयोर्थ. जोधपुर सं० १५७० माघ शु०१३मंग० सं० १६२८ फा० शु०७ बुध. श्री महावीर-जिनालय में पातु-प्रतिमायें (जूनीमएड़ी) सं० १५०१ अजितनाथ श्रीसरि ... प्रा. ज्ञा० श्रे० डोडा की स्त्री राणी के पुत्र सुपाकने स्वस्त्री सरस्वती, पुत्र साजण आदि के सहित सं० १५६३ माघ सुमतिनाथ पूर्णिमागच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० कला की स्त्री भमणादेवी के पुत्र सदा के शु० १५ गुरु० ...सागरसूरि पुत्र धना ने स्वस्त्री आदि के सहित धर्मनाथ-जिनालय में सं० १५०४ वै० मुनिसुव्रत तपा० जयचंद्र- धारवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० भण्डारी शाणी के पुत्र खीमसिंह शु० ३ सरि साया ने स्व-परिजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ राजवैद्य भ० उदयचन्द्रजी के गृहजिनालय में सं० १५१६ वै० संभवनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० मोखसिंह की स्त्री टमकूदेवी के पुत्र जाणा सूरि हरखू ने पुत्र पुंजारण स्त्री पाहुदेवी के पुत्र जिनदत्त के सहित जै० ले० सं० भा०२ ले० ११६८, ११६३, १२१३, १२१४. जै० ले० सं० भा० १ ले० ५८५, ५६५, ६२१ जै० ले० सं० भा०२ ले०१५८०, Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड:: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित-प्रतिमायें-राजस्थान-नागौर :: [१९५ जसोल (जोधपुर-राज्य) के जिनालय में पंचतीर्थी प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१६ माघ कुंथुनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० श्रे० मीचत की स्त्री नासलदेवी के पुत्र सूचा ने शु० शुक्र० सागरसूरि स्वभा० चांददेवी, माल्हीदेवी, पुत्र मेरा, तोलचन्द्र के सहित स्वश्रेयोर्थ बाडमेर (जोधपुर-राज्य) के यति इन्द्रचन्द्रजी के उपाश्रय में सं० १५१४ सुमतिनाथ तपा रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० रूल्हा ने स्त्री वर्जू, पुत्र वीरा, माणिक, सूरि वत्सादि के सहित पितृव्य शा० चांपा के श्रेयोर्थ. मेडता (जोधपुर-राज्य) के श्री वासुपूज्य-जिनालयमें सं० १५३२ ज्ये० शांतिनाथ बृत्तपा जिनरत्न- प्रा० ज्ञा० श्रे० आशधर ने स्त्री गांगी, पुत्र मदन, दमा, कृ० १३ बुध० सूरि जिनदास, जीवराज पुत्र-पौत्रादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. धर्मनाथ-जिनालय में सं० १५५६ चै० चन्द्रप्रभ अंचलगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्राविका संलखणदेवी के पति ने अपने पुत्र शु०७ सोम० बर्द्धमानगणि लोला, श्रे० पीमा ने स्त्री खेतलदेवी के सहित प्रात्मश्रेयोर्थ. श्री चिंतामणि-पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १५१० ज्ये. मुनिसुव्रत तपा-रत्नशेखर- पीपलियावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० तीरा ने स्त्री वीरदेवी के पुत्र सरि डुङ्गर, भ्रातृ खेतसिंह, सहसा, समरदेवी (बहिन),धारकमी(?) भार्या जासलि तथा भ्राता कर्मसिंह के सहित. सं० १५३२ ज्ये० सुविधिनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० मही स्त्री राणी के पुत्र हीरा की स्त्री भर्मीशु०३ बुध० सागरसूरि नामा ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५२ माघ आदिनाथ कमलकलशसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० पुजा स्त्री रकम के पुत्र सोमराज ने स्वस्त्री गौरी पुत्र हर्षादि के सहित. नागौर (जोधपुर-राज्य) के श्री आदिनाथ-जिनालय में पंचतीर्थयाँ सं० १४८५ ज्ये० संभवनाथ पूर्णिमापक्षीय प्रा० ज्ञा० श्रे० सादा स्त्री भादी के पुत्र सहसा स्त्री सीताशु०७ मंगल. सर्वानंदसूरि देवी के पुत्र पान्हा ने स्वश्रेयोर्थ सं० १५०७ का० संभवनाथ उएसगच्छीय प्रा. ज्ञा० कोठारी लाखा मा० लाखमदेवी के पुत्र पर्वत ने शु०११ शुक्र० ककसरि पुत्र भोला, डाहा, नाना, इङ्गर के सहित जैले० सं०मा०२ ले०१८८४ । भा०१ले०७४२,७५५,७६२,७७५, ७७७,७७६ | मा०२ले०१२४१, १२५०। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास [तृतीय प्र. विक्रम संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १५१० चै० धर्मनाथ तपा० रत्नसागर- प्राज्ञा० श्रे० गोगन मा० सदू के पुत्र जसराज ने स्वभा० शु० १३ गुरु० सूरि राणी, भ्रात जामा भार्या हीरू आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५१२ मार्गः आदिनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा. ज्ञा० श्रे० गोधा भार्या फसीदेवी के पुत्र नरदेव, सहसा, शु. १५ सूरि डाटा, भ्राता धीरज ने स्वभार्या तारादेवी, पुत्र खीमादि के सहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५१६ वै० शांतिनाथ तपा० सक्ष्मी- टौबाचीवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० केशव भा० भोलीदेवी के पुत्र ___ सागरपरि लाडण ने स्वभार्या मृगादेवी, पुत्र जसवीर आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५२१ ज्ये० चन्द्रप्रभ- तपा० लक्ष्मी- मण्डपदुर्ग में प्रा०ज्ञा० सं० अजन भा० टबकूदेवी के पुत्र सं० शु०४ चौवीशी सागरसरि वस्तीमल भा० रामादेवी के पुत्र सं० चाहा ने स्वभा० जीविणी पुत्र सं० सोभाग, आड़ादि के सहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५२१ माघ नेमिनाथ प्रा. ज्ञा० श्रे० नींबा के पुत्र खीमराज ने स्वभा० डुलीकुमारी शु० १३ गुरु० पुत्र भीमराज, हेमराज, पाल्हा के सहित सं० १५२४ वै० शीतलनाथ अंचलगच्छीय जयतलकोटवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० आका भा० ललितादेवी के शु० ३ सोम० श्रीसरि पुत्र धारा ने स्वभा० बीजलदेवी के सहित स्वश्रेयो) सं० १५२७ श्रेयांसनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० प्रथम भा० पाल्हणदेवी के पुत्र सं० पर्वत भा० सागरसूरि चांपादेवी के पुत्र शा० नीसल ने भा० नाईदेवी के श्रेयोर्थ सं० १५३० माघ शांतिनाथ , प्रा० ज्ञा० श्रे० रादा भा० आघू के पुत्र सिरोहीवासी शा० मण्डन ने भा० माणिकदेवी, पुत्र लक्ष्मणादि के सहित सं० १६४३ फा० आदिनाथ तपा० विजय- अहमदाबादवासी प्रा०ज्ञा० बाई कोड़कीदेवी ने पुत्री राजलदेवी .. शु०११ सेनमरि (सेठी मूला की स्त्री) के सहित श्री आदिनाथ-जिनालय में (दफ्तरी-मोहल्ला) सं० १५३४ संभवनाथ तपा० लक्ष्मी- वीशनगर में प्रा. ज्ञा० श्रे० सोमा भा० देऊदेवी के पुत्र सागरसूरि भोटा ने स्वभा० वानरीदेवी, भ्रातृ भोजराज आदि कुटुम्बी जनों के सहित. श्री सुमतिनाथ-जिनालय में पंचतीर्थी सं० १५२७ पौ० कुन्थुनाथ उपकेशगच्छी०- प्रा. ज्ञा० श्रे० हरराज भार्या अमरीदेवी के पुत्र समधर कृ. ५ शुक्र० सिद्धसरि ने स्वभा० नाई आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. ... जै० ले० सं० भा०२ ले० १२५८,१२६०, १२६८, १३१४, १२७२, १२७३, १२७६, १२८३, १३०८, १३१६ १३२२। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ as] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - राजस्थान - जैसलमेर :: श्री शांतिनाथ - जिनालय में (घोड़ावतों की पोल ) o आचार्य प्र० वि० संवत् सं० १५४५ ज्ये० कृ० ११ सं० १४६७ ज्ये० शु० २ सोम ० सं० १५७६ सं० १५३० फा० कृ० २ रवि ० सं० १५१८ सं० १५१३ वै० कृ० ८ प्र० प्रतिमा पार्श्वनाथ श्रीसूरि शीतलनाथ श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथ - जिनालय में पंचतीर्थी श्रेयांसनाथ मुनिप्रभसूर प्रा० ज्ञा० ० जहता भा० वरजूदवी के पुत्र लुंठा ने स्वश्रेयोर्थ. कुंथुनाथचौवीशी श्री सीमंधरस्वामि-जिनालय में (भांडासर) प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि वीरवाड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्नचंद्र भा० माघदेवी के पुत्र भीमराज ने स्वभा० हेमवती आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. बीकानेर संभवनाथ तपा० इन्द्रनंदि सूरि चूरू ( बीकानेर - राज्य) के श्री धर्मनाथ कछोलीवाल- प्रा०ज्ञा० शा ० कर्मा भा० कुनिगदेवी पुत्र दोला ने भा० गच्छीय विद्यासागरसूरि देल्हादेवी, चोलादेवी, भ्रातृ भुंणा के सहित स्वश्रेयोर्थ. तपा० सागरसूरि पत्तन में प्रा० ज्ञा० श्रे० गोगा ने स्वभा० राणीदेवी, पुत्र वरसिंह भा० बीबूदेवी, भ्रातृ अमरसिंह, नरसिंह, लोलादिसहित शांतिनाथ - जिनालय में पंचतीर्थी श्री पार्श्वनाथ - जिनालय में (दुर्ग) लक्ष्मी [ ४१७ जैसलमेर प्रा० ज्ञा० श्रे० सहजा की स्त्री वजू देवी के पुत्र धरणा ने स्वस्त्री कुवरीबाई, ज्येष्ठ भ्राता जावड़, नाकर प्रमुख परिजनों के सहित अहमदाबाद में कालूपुरवासी श्रीसंभवनाथ - जिनालय में पंचतीर्थी तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० हापा की स्त्री रूपादेवी के पुत्र राणा ने स्वभार्या राजूदेवी, पुत्र पेथा आदि परिजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. सूरि जै० ले० सं० भा० २ ले १३२७, १३३१, १३५४, १३६१ । भा० ३ ले० २१२५, २१५२ । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८] प्र० वि० संवत् सं० १५६१ वै० कृ० ६ शुक्र ० सं० १५३३ पौष कृ० १० गुरु ० सं० १५३३ पौष कृ० १० गुरु ० सं० १३४६ सं० १३५५ सं० १३६८ माघ शु० ६ बुध० सं० १३८४ माघ सं० १४४५ फा० क्र० १० रवि ० प्र० प्रतिमा सं० १४८६ माघ शु० ४ शनि ० सं० १४६० वै० शु० ६ शनि ० सं० १४६६ फा० कृ० ८ सुमतिनाथ मिनाथ सुमतिनाथ आदिनाथ महावीर कृ० ८ गुरु० सं० १३६१ माघ पार्श्वनाथ कृ० ११ शनि ० " पार्श्वनाथ मुनिसुव्रत महावीर चंद्रप्रभ :: प्राग्वाट - इतिहास :: संभवनाथ o आचार्य आनंदविमल - सूरि श्री अष्टापद - जिनालय में तपा० लक्ष्मी सागरसूरि सागरसूरि श्री उव० श्री सिद्धमूरि श्री सुपार्श्वनाथ - जिनालय में पञ्चतीर्थी तपा० लक्ष्मी - वीशलनगरवासी प्रा० ज्ञा० ० लूगा की स्त्री लूणादेवी के पुत्र राजमल ने स्वभार्या नीणादेवी पुत्र शकुनराज. श्री चन्द्रप्रभस्वामि-जिनालय में श्री परमचन्द्रसूरि तपा० लक्ष्मी सूरि जिनसिंहमूरि बृ० गच्छीय रत्नाकरर प्रा० ज्ञा० श्रे० श्रीकुमार के पुत्र ने पिता-माता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० जगसिंह की प्रथम स्त्री खेतुदेवी के श्रेयोर्थ सागरसूरि द्वितीया स्त्री जासलदेवी के पुत्र अलक ने. शालिकर्मा तिलक- प्रा० ज्ञा० पिता श्रे० आशचन्द्र, श्रेयोर्थ पुत्र नन सामा ने. माता पारुणदेवी के प्रा० ज्ञा० ० जगधर की स्त्री हांसी बहिन के पुत्र गोसल ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. तपा० सोमसुन्दर - सूरि साधु० पू०गच्छीय हीरागंदसूर तपा० सोम [ तृतीय प्रा० शा ० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सागवाड़ावासी प्रा०ज्ञा० पृ० शा० मंत्री वीसा ने स्वभा० टीबूदेवी, पुत्र मं० विरसा, लीला, देदा और चांदा प्रमुख परिजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. सुन्दरसूरि के उपदेश से सोमचंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० गांधी हीराचन्द्र की स्त्री हेमादेवी के पुत्र चाहित ने स्वभा० लालीबाई, पुत्र समरसिंह, पुत्रवधू लाड़कुमारी के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० पहुदेव की स्त्री देवश्री के श्रेयार्थ उसके पुत्र बुल्हर, झांझण और कागड़ ने. प्रा०ज्ञा० श्राविका साहूदेवी के पुत्र धीणा ने भ्राता धारा के श्रेयोर्थ. प्रा०ज्ञा० मं० दूदा की स्त्री प्रीमलदेवी के पुत्र मं० कान्हा ने स्वभा० बाबूदेवी, पुत्र राजमल के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० पांदा के पुत्र बाहड़ ने. प्रा० ज्ञा० सं० मांडण की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र पासा की भा० वर्जुदेवी के पुत्र बस्तिमल ने काका कोला, काकी मटकूदेवी और स्वाभार्या अधू देवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० ले ० सं ० भा० ३ ० २१५१, २१७३, २१६४, २२३८, २२४०, २२४६, २२५०, २२५८, २२७६, २२६८, २३०६, २३१५ । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ]:: प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १५०३ आषाढ़ कृ० १३ सोम ० सं० १५११ ज्ये० शु० ५ सं० १५१६ मार्ग शु० १ सं० १५१८ माघ शु० १३ गुरु० सं० १५३४ वै० कृ० १० विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - राजस्थान - जैसलमेर :: प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि जयचंद्रसूरि प्रा० शा ० ० मांजू के पुत्र ० खीमा ने भ्रा० रणमल भा० केतश्री के सहित दो बिंब. प्रा० ज्ञा० श्रे भांपर की स्त्री भूनादेवी के पुत्र समर ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३५ माघ कृ० ६ शनि ० सं० १५०८ पद्मप्रम (२) श्रादिनाथ संभवनाथ चन्द्रप्रभ्र सं० १३३३ ज्ये० शु० १३ शुक्र ० सं० १३४६ वै० शु० १. चौवीशी संभवनाथ सुमतिनाथ सुमतिनाथ सं० १४६३ आषाढ़ पार्श्वनाथ शु० १० बुध ० तपा० रत्न शेखरसूरि प्रा० ज्ञा० ० नरसिंह के पुत्र श्रे० राघव की पत्नी के पुत्र कर्मसिंह की स्त्री लींबीबाई की पुत्री श्रीलवी नामा ने आता हरिया, भ्रातृज महिराज, भरण, राजमल के सहित स्वश्रेयोर्थ. पूर्णि० भीमपल्लीय प्रा० ज्ञा० ० मूंजा भा० जासू के पुत्र बाछा ने (वत्सराज) जयचन्द्रसूरि स्वभार्या : : त्सादेवी), पुत्र मेलराज, कुरपाल के सहित स्वश्रेयोर्थ सूरतवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० धर्मचन्द्र की स्त्री राजकुमारी के पुत्र वणवीर स्त्री भूरी के पुत्र महराज ने कुटुम्बसहित 77 तपा० लक्ष्मीसागरसूरि श्री शीतलनाथ - जिनालय में पंचतीर्थी तपा० लक्ष्मीसागरसूरि [ ४१६ तपा रत्नशेखर सूर प्रा०ज्ञा ० व्य० पुण्यपाल के पुत्र लूणवयण ने स्वपिता के श्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० शा ० गेल्हा ककरावासी प्रा०ज्ञा० ० वस्ति ल की स्त्री वील्हणदेवी के पुत्र पूजा ने स्वभा० सोभागदेवी, पुत्र पर्वत, भ्र० लाबा, धूता आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ श्री महावीर जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० रूदा की स्त्री ऊली के पुत्र रणसिंह ने स्वभा० पूरी भ्रा० धणसिंह आदि परिजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ श्री सुपार्श्व - जिनालय में मड़ाहड़गच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० हेमराज की स्त्री भा० हीरादेवी के पुत्र श्रीधनचन्द्रसूरि जयराज ने श्रेयोर्थ जै० ले ० सं० भा० ३ ० २३१८ - २३१६, २३३०, २३३६, २३४२, २३५३, २३८७, २३८८. २३६५, २४१६, २१७८ । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] प्र० वि० संवत् सं० १५७६ ० शु० १२ रवि ० सं० १५३७ वै० शु० ५ बुध० सं० १५१३ सं० १५१६ वै० शु० ३ प्र० प्रतिमा आदिनाथचौवीशी सं० १३६० सुमतिनाथ मिनाथ कुंथुनाथ .: प्राग्वाट - इतिहास :: श्रेष्ठ थी शाह के जिनालय में चौवीशी प्र० श्राचार्य महावीर साधु पू० चन्द्रसूर मानपुरा ग्राम के श्री जिनालय में सं० १५[०]७ आषाढ आदिनाथ तपा० रत्न- प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्नचन्द्र की स्त्री जइतलदेवी के पुत्र श्रे कृ० ८ नया ने. शेखरसूरि मारोल ग्राम के श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि चंपकनगरवासी प्रा० ज्ञा० ० शिवराज ने स्वस्त्री धर्मिणी, पुत्र हंसराज भा० हांसलदेवी, भ्रातृ वच्छराज भा० माणकदेवी पुत्र रवजी भा० हर्षादेवी पुत्र मूलराज के सहित स्वश्रेयोर्थ श्रे० चांदमलजी के जिनालय में तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० पत्तनवासी श्रे० सहसा की स्त्री संपूरी ने पुत्र मेलचन्द्र भा० फदकूदेवी, द्वि० पुत्र सिंहराज आदि के सहित स्वयोर्थ सागरसूरि श्री पार्श्वनाथ - जिनालय में पंचतीर्थी 1 तृतीय तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० मं० केल्हा की स्त्री कील्हणदेवी के पुत्र नाना चंपालाल ने स्वभा० गुरीदेवी, पुत्र मण्डन आदि के सहित स्वपितृव्य मं० कान्हा के श्रेयोर्थ सूरि अर्बुदप्रदेश (गुर्जर - राजस्थान) तपा० रत्नशेखरसूरि के निजामपुर में प्रा० ज्ञा० श्रे० वेलचंद्र की स्त्री धरणूदेवी पुत्र ० सालिग ने स्वभा० श्रीदेवी, भ्रातृ वानर, हलू प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. भटाणा ग्राम के श्री जिनालय में सर्वदेवर प्रा० ज्ञा० ० वीरा की स्त्री कील्हणदेवी के पुत्र नरसिंह ने आ० पासड़ आदि के सहित माता-पिता के श्रेयोर्थ. जै० ले ० सं ० भा० ३ ले० २४५७, २४६६, २५८३ । श्र० प्र० जै० ले० सं० ले० ४२, ६०, ६१ । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - अबु दप्रदेश (गुर्जर राजस्थान ) - सेलवाड़ा :: [ ४२१ मडार ग्राम के श्री जिनालय में प्र० श्राचार्य प्र० वि० संवत् सं १४-८ माघ कृ० सं० १५०५ सं० १५२३ माघ शु० ६ सं० १५२५ फा० शु० ७ सं० १५३३ वै० शु० १२ गुरु० सं० १६२४ फा० शु० ३ रवि ० सं० १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि ० सं० १५०३ मार्ग शु० ६ सं० १५१८ फा० कृ० ५ प्र० प्रतिमा संभवनाथ सुमतिनाथ तपा० जयचन्द्रसूरि सुविधिनाथ तपा० लक्ष्मी सागरसूरि विमलनाथ धर्मनाथ आदिनाथ शांतिनाथ तपा० विशालराजसूरि सुमतिनाथ मिनाथ " "" प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्राविका रूपादेवी के पुत्र वेलराज ने पुत्र साजणादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सिद्धपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० डूगर की स्त्री रूदीबाई के पुत्र महिपाल रत्नचन्द्र ने भा० अमकू देवी, कडूदेवी, पुत्र नगराजादि कुटुम्बसहित. प्रा० ज्ञा० ० देवपाल की स्त्री मलादेवी के पुत्र इङ्गर ने भ्रा० काला, लाखा आदि कुटुम्बसहित. प्रा० ज्ञा० ० चांपा की स्त्री कडूदेवी के पुत्र बहुआ ने भा० झनूदेवी प्रमुखकुटुम्बसहित स्वमाता-पिता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० सं० सोना की स्त्री हर्षू देवी के पुत्र सं० जीखा ने भा० जासलदेवी पुत्र जीवराजादि कुटुम्बसहित सं० पासा के श्रेयोर्थ. हीरविजयसूरि सातसेण ग्राम के श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० मगू की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र श्रे० ठाकुर ने स्वभा० वाकीबाई पुत्र सिधजी प्रमुख कुटुम्बसहित हीरविजयसूरिपड - किसी प्रा० ज्ञा० श्राविका (सिरोही - निवासिनी) ने नायक विजयसेनरि रेवदर ग्राम के श्री जिनालय में तपा० जयचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा श्रे० हापा भार्या हीमादेवी की पुत्री श्रा० मप नामा ने. सेलवाड़ा ग्राम के श्री जिनालय में तपा० लक्ष्मी- पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० रणसिंह की स्त्री वाछूदेवी के सागरसूर पुत्र चांपा ने स्वंभा० मांकड़ पुत्र भोगराज, भोजराज कुटुम्ब सहित स्वश्रेयोर्थ. अ० प्र० जे० ले० सं० ले० ७७, ८०, ८५, ८६, ८८, ६१, १०६, १८४, १८६ । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२२ ] प्र० वि० संत्रत् सं० १५७१ मा० कृ० २ सं० १४८५ बै० शु० ८ सोम ० सं० १५३६ का० शु० २ सं० १५४० वै० शु० ३ सं० १५४५ ज्ये० कृ० ११ रवि ० प्र० प्रतिमा आदिनाथ सं० १४८६ आषाढ़ अजितनाथ कृ० १० आदिनाथ सुमतिनाथ शांतिनाथ पद्मप्रभ अजितनाथ : सं० १४६२ शु० ५ सं० १४६१ माघ आदिनाथ शु० ५ बुध० सं० १५५६ माघ पद्मप्रभ शु० १४ : प्राग्वाट - इतिहास :: लोरल ग्राम के श्री जिनालय में o आचार्य सं० १५३२ वै० शांतिनाथ शु० १२ गुरु० श्रीर saणी ग्राम के पूर्णिमापक्षीय जयचंद्रसूरि ............ कोरंटगच्छीय नभसूरि ब्रह्माण० उदयप्रभसूर तपा० हेमविमल - सूर प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि मेड़ा ग्राम के तपा० लक्ष्मीसागरसूरि रोहीड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्री जिनालय में तपा० सोमसुन्दर वृद्धग्रामवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० गांगा की स्त्री मान्हणदेवी के ० सोनपाल ने स्वभा० साहगदेवी, पुत्र वनराजादि के सहित स्वश्रेयोर्थ सूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० मांडण की स्त्री हांसूदेवी के पुत्र राणा ने भा० लक्ष्मीदेवी, पु० खनादि कुटुम्बसहित तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० श्रे० पांचा की स्त्री शंभूदेवी के पुत्र लांपा ने स्वभ्रातृ चेला, लुंभा, भ्रातृज लाला, शोभा, चाई आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ और पूर्वजों के श्रेयोर्थ सूरि तपा० सुमतिसाधु- प्रा० ज्ञा० सं० सीखरन ने पुण्यार्थ सूरि माल ग्राम के श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० डूङ्गर ने [ तृतीय ० जावड़ की पुत्री जाणी ने. प्रा० ज्ञा० ० लोला की स्त्री बदेवी के पुत्र सारंग ने स्वभा० रत्नादेवी के सहित पिता के श्रेयोर्थ तथा पितृव्य साजण के श्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० श्रे० लक्ष्मण की स्त्री रूदीदेवी के पुत्र सेखा ने स्वस्त्री सहजलदेवी के श्रेयोर्थ श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० गोसल की स्त्री वाहूदेवी के पुत्र मरमाने स्वभा० रुखमिणी पु० लाखा, विजा, गहिंदा आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ ग्रामनिवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सोमचन्द्र की स्त्री सोनलदेवी के पुत्र लखा ने स्वभा० लक्ष्मीदेवी, पुत्र लुपा, लुम्भा, जेसा, पेथा आदि कुटुम्बसहित. ० प्र० जै० ले० सं० ले० १६१, १६८, १६६२०२, २०३, २०४, २१०, २११, २१५, २२५ । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रांतों में प्रा०ज्ञा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - अबु दप्रदेश ( गूर्जर - राजस्थान ) - ब्राह्मणवाड़ा :: [ ४२३ प्र० श्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० ० मूजा के पुत्र सान्हा ने भा० वीरणिदेवी पुत्र नाल्दादि परिवारसहित. प्र० वि० संवत् सं० १५३६ माघ ० कुंथुनाथ कृ० ५ रवि ० सं० १५५६ वै० देवकुलिका शु० १३ रवि ० सं० १५५६ द्वि० देवकुलिका ज्ये० शु० १० शुक्र ० सं० १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि ० प्र० प्रतिमा सं० १६६८ पौ० शु० १५ सं० १७२१ ज्ये० शु० ३ रवि ० शु० ११ (५) सं० १५१६ वै० शु० १३ खतरगच्छीयजिनचन्द्रसूरि हमीरगढ़ के श्री जिनालय में श्रादिनाथ सं० १४८२ का० शु० १३ गुरु० सं० १५१० मार्ग० देवकुलिका देवकुलिका वृ० तपा० उदयसागरसूर विमलसूर प्रा० ज्ञा० सं० वाछा की स्त्री वीजलदेवी के पुत्र सं० कान्हा कुतिगदेवी जांणी देसी के पुत्र सं० रत्नपाल की स्त्री कर्मादेवी ने स्वभ' के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० संघवी समरा की स्त्री समरादेवी के पुत्ररत्न सं० सचवीर ने भार्या पद्मावती, पुत्ररत्न सं० देवीचन्द्र, स्वपरिवार के सहित स्वश्रेयोर्थ. कलर ग्राम के श्री जिनालय में आदिनाथ तपा० विजयराज - सिरोहीनिवासी सं० मेहजल की स्त्री कल्याणदेवी के पुत्र सूर सं० कर्मा की स्त्री केसरदेवी के पुत्ररत्न सं० उदयभाग ने सिरोही के श्री शीतलनाथ - जिनालय में शीतलनाथ तपा० अमृतविजय- सिरोहीनिवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वणवीर की स्त्री पसादेवी गणि ने पुत्र राउत, कर्मचन्द्र के सहित* शीतलनाथ तपा० सिरोहीनिवासी प्रा० ज्ञा० व० शा ० काकरेचा श्रे० रायपाल 3 की धर्मपत्नी कल्याणदेवी के पुत्र जगमाल ने ब्राह्मणवाडा ग्रामस्थ श्री महावीर जिनालय में रत्नप्रभसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मा की स्त्री रूड़ी के पुत्र पिथु और पर्वत ने पिता के श्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० श्रे० नेसा भा० मालदेवी के पुत्र सूरा ने भा० मांगी, देणद, पुत्र मेरा, तोला सहित प्रा० ज्ञा० ० धना श्रे० बाहु के पुत्र सं० मीठालाल ने भा० सरस्वती पुत्र थड़सिंह के सहित अ० प्र० जै० ले० सं० ले० २२६, २३६, २३७, २४३, २५७, २८३, २६३, २६१। *मेरे द्वारा सिरोही नगरस्थ जिनालयों के संग्रहीत लेखों पर (अप्रकाशित) Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: [ तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१६ मार्गः देवकुलिका ......... वीरवाडकवासी प्रा०ज्ञा० श्राविका नलष्मी (?) के पुत्र गदा की स्त्री देवलदेवी के पुत्र देवीचन्द्र ने भा० कीन्हम्पदेवी (?) पुत्र बाबर आदि कुटुम्बसहित प्रा० ज्ञा० सं० सोमचन्द्र की स्त्री मंदोपरि के पुत्र सं० देवीचन्द्र ने भा० दामिड़देवी के सहित प्रा० ज्ञा० श्रे० छाड़ा की स्त्री खेतूदेवी के पुत्र हरपाल लखा ने भा० अलूदेवी, पुत्र गोमा के सहित प्रा० ज्ञा० श्रे० रायमल की स्त्री रामादेवी के पुत्र हीराचन्द्र ने भा० रूयड़, पुत्र देपा, धर्मा, दला, घांधल आदि कुटुम्बसहित प्रा० ज्ञा० श्रे० वरदा ने स्वभा० मानकदेवी, पुत्र पाखा भा० जयतूदेवी पुत्र वरड़ा ने भा० कर्मादेवी, पुत्र पान्हण के सहित सं० १५१६ पनासीत्रावासी प्रा०ज्ञा० म० झांझा की स्त्री थावलदेवी के पुत्र मं० कूपा ने मा० कामलदेवी, पुत्र गहिंदा, कुंभादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ " " तपा० वीरवाटकवासी प्राज्ञा० श्रे० गदा की स्त्री देवलदेवी के पुत्र सोगा ने स्वभा० शृंगारदेवी पुत्र आसराजादि-कुटुम्बसहित सं० १५२१ मा० देवकुलिका ......... तेलपुरवासी प्राज्ञा० श्रे० सोमचन्द्र ने श्रे० वरा पुत्र गांगा शु०१३ सुन्दर,खाखा,वना,देवा, वरस आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२१ माष बड़प्रसाद पाजववासी प्रा०ज्ञा० श्री सोमचन्द्र,मांडण, हेमराज, बिला शु० १३ ने पुत्र पावा, सलखादि कुटुम्व-सहित. सं० १७१६ माघ श्री सिंहविजय- तपा० श्री शील प्रा० ज्ञा० मंत्रीश्वर शाह श्री वणवीर के पौत्र धर्मदास धनराज ने कृ. ८ सोम० गुरुपादुका विजयगणि सिरोही वीरवाड़ा के चतुर्विध-संघ समस्त समुदाय के सहित. झाडोली ग्राम के श्री जिनालय में सं० ११४५ ज्ये० आदिनाथ ......... प्रा. ज्ञा० श्रे० यशदेव ने श्रेयोर्थ. कृ०.२ अ० प्र० ० ले० सं० ले०२८५, २८६, २८६, २६०, २६२,२८७, २८८, २६४, २६५, २६८, ३०७ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० शा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - अबु दप्रदेश (गूर्जर - राजस्थान ) - नांदिया :: [ ४२५ प्रा० शा ० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्र० आचार्य कच्छोलीवाल ग० प्रा० ज्ञा० ० नरपाल की भा० संसारदेवी के पुत्र लाखा सर्वाणंदसूर ने स्वभा० धरण देवी, पुत्र मूंजा, सयणा, सारंग, सिंघा के सहित पिता के श्रेयोर्थ. माल ग्राम के श्री जिनालय में तपा० रत्नशेखरसूरि चामुण्डेरी ग्राम के श्री जिनालय में तपा० लक्ष्मी - सागर मूरि प्र० वि० संवत् सं० १४७५ माघ ० शांतिनाथ शु० २ गुरु० सं० १५३० मा० कृ० ६ सं० १५२७ माघ ० धर्मनाथ कृ० ७ चोवीशी सं० १५२३ वै० ११ बुध० सं० १५४३ ज्ये० शु० ११ शनि ० प्र० प्रतिमा सं० १५२१ मा० शु० १३ महावीर संभवनाथ विमलनाथ अंच० जय पार्श्वनाथ वासुपूज्य नाणा ग्राम के तपा० लक्ष्मी सं० १५२१ भाद्र ० देवकुलिका शु० १ कोलपुरवासी प्रा० ज्ञा० माल्हणदेवी के पुत्र सं० सोमचन्द्र, राणा आदि कुटुम्बसहित. श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० ० चाहड़ की स्त्री राणीदेवी के पुत्र श्रे० वीटा सागरसूरि ने स्वभा बुटीदेवी, पुत्र वेलराजादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. खुड़ाला ग्राम के श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० गांगा की स्त्री कर्पूरदेवी के पुत्र वत्सराज ने स्वस्त्री पांचीबहिन, पुत्र वस्तुपाल के सहित स्वश्रेयोर्थ. विशलनगरवासी प्रा०ज्ञा० ० धर्मचन्द्र की स्त्री नांई के पुत्र जीवा और योगा ने स्त्री गौमती, पुत्र हर्षराज, हीराचन्द्र, व्य० कमला पुत्र काढ़ा, पुत्री गौरी और पुत्री राजू, समस्त संघ के सहित व्य० कमला के श्रेयोर्थ. महावीर जिनालय में नांदिया ग्राम के श्री तपा० लक्ष्मीसागरसूर केसरसूरि श्री ज्ञानसागर - सूरि के पट्टधर श्री - उदयसागर प्रा० ज्ञा० ० देल्हा, श्रे० पाल्हा, श्रे० खेता, श्रे० मेल्हा, ० इङ्गर आदि प्राग्वाटज्ञातीय श्री संघ ने. ० डूङ्गर के पुत्र साल्हा की स्त्री चुडा ने, भा० करणादेवी, पुत्र प्रा० ज्ञा० हापा की स्त्री हीमादेवी के पुत्र श्रे० वीसलदेव की स्त्री तील्हू के पुत्र ऊधरण ने स्वभा० राजदेवी, भ्रातृ ढालादिसहित. नांदिया पुरवासी प्रा० ज्ञा० ० दूल्हा भा० दूलीबाई के पुत्र जूठाने, भा० जसमादेवी, भ्रातृ मउवा, झाला, वरजांग, खेता आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. अ० प्र० जै० ले० सं० ले० ३१२, ३२६, ३३८, ३५६ । प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ४००, ४०१ । ० प्र० जै० ले० सं० ले० ४५६, ४६० । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाह-इतिहास:: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२८ माघ० मुनिसुव्रत तपा० लक्ष्मी. अजाहरीवासी प्रा० शा० श्रे ऊदा की स्त्री पानी के पुत्र कृ०५ सागरसूरि नीसल ने स्वभा० अधू पुत्र नलादि कुटुम्बसहित. सं० १५२६ फा० शांतिनाथ , प्रा. ज्ञा० श्रे० भोजराज ने, स्वभा० अछवादेवी, भ्रात कृ. ३ सोम० रामादि सहित भगिनी राणी, पुत्र लाला के श्रेयोथे. सं० १५२६ मा० देवकुलिका तपा० सोमजय- सीदरथाग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे. ........'कुटुम्बसहित. क०३ गुरु० सूरि सं० १५६५ माघ० पार्श्वनाथ पिप्पलगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० वेलराज की स्त्री धनीबाई के पुत्र नगा शु० १३ शनि० देवप्रभसरि ने स्वभा० नारंगदेवी, पु० जगा, पिता के श्रेयोर्थ. लोटाणा ग्राम के श्री जिनालय में सं० ११४४ ज्ये० वईमान निर्वतक- आम्रदेवगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० प्रासदेव ने. कुलीय दीयाणा के श्री जिनालय में सं० १४११ जिनयुगल ......... प्रा०ज्ञा० श्रे०कुयरा की स्त्री सहजूदेवी के पुत्र श्रे० तिहुणा ने स्वभा० जयतूदेवी, पुत्र रूदा भा० वसंतलदेवी के सहित. पेशवा ग्राम के श्री जिनालय में सं० १७२१ ज्ये० कुंथुनाथ विजयराजसरि पेशुवावासी प्रा० झा० श्री संघ ने. शु० ३ रवि० धनारी के श्री जिनालय में सं० १३४८ आषा० ............ धनारीग्राम में प्रा० ज्ञा० श्री पूनदेव के पुत्र झाला की स्त्री शु० ६ मंगल. रान्हदेवी के पुत्र श्रे०आम्रदेव ने स्वभा०लासदेवी और धार्मिक श्रे० लुबा ने स्वभा० दमिणीदेवी पुत्र श्रे० लाखण, सल खण, विजयसिंह, पद्मसिंह, लाखण के पुत्र मोहन के सहित सं० १४३४ वै० अंबिकादेवी माहडीयगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० भोहण भा० चांपल के पुत्र विरुपाने कृ. २ बुध० सोमप्रभसूरि सं० १५५२ माघ शीतलनाथ तपा० हेमविमल- कुण्डवाड़ावासी प्रा. ज्ञा० श्रे. आल्हा की स्त्री रूपिणी के शु० १२ बुध० सूरि पुत्र श्रे० पाता ने, स्वभा० प्रीमलदेवी, पुत्र जावड़, आस राज भा० लक्ष्मीदेवी प्रमुखकुटुम्बसहित. म०प्र० ० ले० सं० ले० ४६१,४६२,४६३,४६५,४७३, ४६२,५०४, ५०५, ५०८, ५११ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड []:: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें अबुदप्रदेश (गुर्जर - राजस्थान ) - वासा :: [ ४२७ प्र० वि० संवत् सं० १२०० सं० १५२३ वै० शु० ६ सं० १५०७ सं० १३८६ वै० कृ० ११ सोम ० सं० १४१० प्र० प्रतिमा कृ० २ सं० १४६३ श्ररिष्टनेमि विमलनाथ - चोवीशी शांतिनाथ वासा ग्राम के श्री आदिनाथ - जिनालय में धातु-प्रतिमायें शांतिनाथ वीरचन्द्रसूरि वर्द्धमान सं० १४३० शांतिनाथ सं० १४८८ मार्ग • सुविधिनाथ ० चंद्रप्रभ सं० १५०१ ज्ये० अभिनन्दन शु० सं० १५०३ ज्ये० धर्मनाथ शु० ११ सं० १५०८ वै० संभवनाथ शु० ३ नीतोड़ा के श्री जिनालय में प्र० श्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ विजयप्रभरि प्रा० ज्ञा० श्राविका पाल्हणदेवी की पुत्री तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० ० पासड़ की स्त्री टक्कू के पुत्र देवसिंह ने सूर भा० देवलदेवी, पुत्र वीछा, आंबा, लींबा, बंधु, दरपति, बालादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ जहतपुर में भावरी ग्राम के श्री जिनालय में तपा० रत्नशेखर पदू (९) प्रा० ज्ञा० ० धनराज की स्त्री - चमकूदेवी के पुत्र पद् सूरि देवराज भा० देपाल ने श्रे० पद् मोकुल के श्रेयोर्थ सं० १५१६ माघ० संभवनाथ शु० १३ श्रीसूरि तपा० सोमसुन्दर सूरि मुनिसुन्दरसूरि (१) प्रा० ज्ञा० श्रे० साल्हा की स्त्री जमणादेवी के पुत्र पनराज ने स्वभा० चांदू, पुत्र सोभादिसहित. श्रीसूर तपा० मुनिसुन्दरसूर पिष्पलगच्छीय श्री हीरसूरि तपा० रत्न शेखरसूरि प्रा० ज्ञा० माता के ० कुरां भा० कुरदेवी के पुत्र राजड़ ने पिता . तपा० लक्ष्मीसागरसूरि प्रा० ज्ञा० ० आभा की स्त्री हवदेवी के पुत्र प्रा० ज्ञा० ० भादू ने स्वश्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० श्रे० खीदा की स्त्री खेतलदेवी के पुत्र चउथा ने स्वश्रेयोर्थ प्रा० ज्ञा० श्रे० साभा के पुत्र साहणा ने स्त्री, पुत्र सोमद आदि तथा माता छादिबाई के सहित टेलीगोष्ठिक प्रा०ज्ञा० ० वरूत्र की स्त्री मेचू के पुत्र डाडा ने स्वभार्या के सहित स्वश्रेयोर्थ वसंतपुरवासी प्रा० ज्ञा० के पुत्र हुआ ने भार्या कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० शिवा की स्त्री वर्जूदेवी के पुत्र देवा ने स्वभा० वाल्ही श्राविका के पिता कर्मा भा० वान्देवी प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्र० प्र० जे० ले० सं० ले० ५१७, ५१६, ५२५, ५२७, ५२८ ५२६, ५३१, ५३२, ५३३, ५३४, ५३७,५३८ । ० भादा की स्त्री माल्हणदेवी झवकू, पुत्र साचा, सुन्दर आदि Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय कृ०१ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२१ वै० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० म० गोधा की स्त्री मीली के पुत्र मेघराज ने सागरमरि स्वभा० माजू पुत्र हीरा, पर्वतादि के सहित वासा ग्राम में. सं० १५२३ मा० धर्मनाथ , कासदराग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा की स्त्री रूहिणी के पुत्र माल की स्त्री जइतूदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२७ माघ• शीतलनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० नउला की स्त्री मधूदेवी, वइजदेवी के पुत्र पाला, आसा, हासा ने मा० जम्, पुत्र झांझणादि के सहित सिरउत्राग्राम में. सं० १५३२ वासुपूज्ज सांगवाड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नरपाल की स्त्री भट्ट के पुत्र मेघराज ने भा० कर्णदेवी, प्राव राणादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३२ मुनिसुव्रत सांगवाड़ावासी प्रा० ज्ञा. श्रे. सिंघा की स्त्री गौरी के पुत्र कोहा ने स्वभा० राजूदेवी, पुत्र रहिआ, जावड़, भ्रात मेघराज, हेमराज आदि कुटुम्बसहित श्रेयोर्थ. सं० १५३२ का० आदिनाथ सांगवाड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० पूजा की स्त्री चांपलदेवी के पुत्र वेलराज ने स्वभा० सुन्दरदेवी कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३३ शांतिनाथ सांगवाड़ावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० धरणा की स्त्री लाछी के पुत्र लुणा ने स्वभा० कला, पुत्र रामा, रामसिंह, कीका आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोथे. सं० १५३३ वै० महावीर अर्बुदाचलवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० सायर की स्त्री भरमीदेवी शु० १२ के पुत्र झांझण ने भा० वीज , पुत्र जाणा भा० धौरी पुत्र तेजराज, पुत्री सारु प्रमुख कुटुम्बसहित. सं० १५३४ मा० सुविधिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० धर्मराज की स्त्री तेजूदेवी के पुत्र भीमचन्द्र कु. २ सोम० ने भा० चांपूदेवी, पुत्र झांझण भार्या धरणू आदि के सहित स्वश्रेयोथे. सं० १५३५ मा० कुन्थुनाथ ___ तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे. वेलराज ने स्वस्त्री गुदठि(१), पुत्र सांडा स्त्री सागरसरि गंगादेवी पुत्र हीराचन्द्र, उदादिकुटुम्बसहित. सं० १५५२ वै०. वासुपूज्य तपा० हेमविमल- प्राज्ञा श्रा० लाखूदेवी के पुत्र मेरा ने पुत्र भोजराज, ऊग परि डादिकुटुम्बसहित. म०प्र० ० ले० सं० ले० ५४०,५४१,५४२,५४३,५४४, ५४५, ५४६, ५४७, ५४८, ५५०, ५५१ । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड] :विभिन्न प्रांतों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-अर्बुदप्रदेश (गूर्जर-राजस्थान)-रोहिड़ा : [४२६ ................ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १७६८ मार्ग कुन्थुनाथ श्रीसरि प्रा०ज्ञा० श्रे० साल्हा की स्त्री धरण के पुत्र साबा ने मात के पुत्र सिंघा, साहणासहित. सं० १-६६ वै० संभवनाथ पद्माकरसरि प्राज्ञा० श्रे० कडूआ ने पिता-माता के श्रेयोर्थ. शु०६ गुरू० रोहिड़ा के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमायें सं० १३६४ ऋषभदेव अभयचन्द्रसरि प्रा० ज्ञा० श्रे.......... सं० १३६५ वै. सुमतिनाथ- गुणप्रभसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० लूगा की स्त्री वयजलदेवी के पुत्र महणा ने शु. ३ सोम० पंचतीर्थी माता के श्रेयोर्थ. सं० १४०५ वै० शान्तिनाथ सोमतिलकसरि मड़ाहडगच्छानुयायी प्रा० ज्ञा० म० हरपाल के पुत्र मंडलिक शु० २ सोम० ने भ्रात आल्हा भा० सूहवदेवी के श्रेयोर्थ. सं० १४२६ द्वि० पार्श्वनाथ- मडाहड़गच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० मदन की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र देदा ने वै० शु०१० रवि. पंचतीर्थी पूर्णचन्द्रसरि पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १४७७ मा० महावीर तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० पूनसिंह की स्त्री पोमादेवी के पुत्र वासल ने कृ० ११ सूरि स्वश्रेयोर्थ. सं० १४८० ज्ये० आदिनाथ- , प्रा. ज्ञा० श्रे० रत्ना की स्त्री रत्नादेवी के पुत्र देल्हा ने शु० ५ पंचतीर्थी स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १५०३ फा० नमिनाथ- तपा० प्रमोद- रोहिड़ाग्रामवासी प्रा० ज्ञा० गांधी वाछा की स्त्री बूड़ी के पुत्र कृ. २ रवि. पंचतीर्थी सुन्दरसूरि चांपसिंह ने भा० चांपलदेवी, पुत्र वीरम, वीसा, नागा, जीवा, माला. झालादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०७ माघ कुन्थुनाथ- तपा० रत्नशेखर- कासहदग्राम में प्रा. ज्ञा० श्रे० धरणा की स्त्री लाछीदेवी के शु० ५ पंचतीर्थी सरि पुत्र सालिग ने भार्या तोलीदेवी, पुत्र रील्हादिसहित. सं० १५१० ज्ये० संभवनाथ- तपा० रत्नशेखर प्रा० ज्ञा० श्रे० माल्हा की स्त्री मोहणदेवी के पुत्र वरिसिंह शु० ३ पंचतीर्थी ने भा० हर्षदेवी, पुत्र सालिग के सहित स्वश्रेयोथ. सं० १५१५ नमिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० मला की स्त्री मान्हणदेवी के पुत्र श्रे. चांपा ने भ्रातृ सूरा, सिंघा, सहजा, विजा, तेजा, टहकू सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१६ विमलनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० वाछा की स्त्री सेगूदेवी के पुत्र देन्हा ने मा० पंचतीर्थी सुन्दरदेवी, भ्रात चांपा, भ्रातृज धर्मचन्द्रादि कुटुम्बसहित भ्रात देवीचन्द्र के श्रेयोर्थ. प्र० प्र० ० ले० सं० ले० ५५५, ५५६, ५६६, ५६७, ५६८, ५६६, ५७१, ५७२, ५७६, ५८० ५८१, ५८५, ६८६ । परि Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा : प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१६ कुन्थुनाथ- तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० साल्हा की स्त्री चापूदेवी के पुत्र सहजा ने . पंचतीर्थी सूरि भार्या देवल, पुत्र सालिगादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५१८ माघ धर्मनाथ- कछोलीवाला प्रा० ज्ञा० श्रे० कोहा ने मा० कामलदेवी, पुत्र नाल्हा, पंचतीर्थी पूर्णि० गुणसागरसूरि हीदा के सहित वील्हा के श्रेयोर्थ सं० १५२३ मा० आदिनाथ- तपा० लक्ष्मीसागर अाम्रस्थल में प्रा० ज्ञा० श्रे० पनालाल की स्त्री चांददेवी शु०६ पंचतीर्थी ... सूरि के पुत्र सोभालाल ने भा० मानदेवी. भ्रात देवीचन्द आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५२७ पौ० शांतिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० पर्वत की स्त्री साधूदेवी के पुत्र हीराचन्द्र शु० ६ शुक्र० पंचतीर्थी ने भा० जाणी, पुत्री तोली प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ सं० १५३० मा० संभवनाथ प्रा० ज्ञा० श्राविका हजू की पुत्री अरसी की पुत्री श्रा० ४ पंचतीर्थी वीरणि नामा ने सं० १५३२ कुन्थुनाथ सांगवाड़ावासी प्रा०ज्ञा श्रे० पूजा के पुत्र श्रे. मला की स्त्री पंचतीर्थी माल्हणदेवी के पुत्र सहजा ने स्वभा० तोली, भ्रात तेजी(?) वृद्ध भ्रा० पुत्र वीसा, बाघादि कुटुम्ब-सहित स्वश्रेयोथे सं०.१५३६ ज्ये० शांतिनाथ- कलोलीवाल प्रा. ज्ञा० श्रे० कोहा ने स्त्री कामलदेवी पुत्र हीदा भा० कु. ११ शुक्र० पंचतीर्थी विजयप्रभसूरि कर्मादेवी पु० गोपा, जइता, जगमाल के सहित सं० १५७५ फा० कुन्थुनाथ- तपा० हेमविमल- प्रा. ज्ञा० श्रे० भुणा की स्त्री लखूदेवी के पुत्र ईला ने भार्या कु. ५ गुरु० पंचतीर्थी मूरि भाऊ, पुत्र गहिदा, तेजसिंह प्रमुख कुटुम्बसहित. वाटेडा ग्राम के श्री जिनालय में सं० १४६० वै० अजितनाथ- तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० म० ठाकुरसिंह की स्त्री झबकूदेवी के पुत्र वाछादि शु०३ पंचतीर्थी सूरि सहित मं० केल्हा ने स्वयोर्थ. कछोली ग्राम के श्री जिनालय में सं० १५२३ माघ० धर्मनाथ- तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० ऊदा की स्त्री जोगिणि ने पुत्र सहजा सादादि । शु०६ पंचतीर्थी सागरसूरि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. भारजा ग्राम के श्री आदिनाथ-जिनालय में सं० १५०० दो देव- .......... प्राज्ञा० श्रे० लींवा भार्या मांजदेवी के पुत्र देवराज ने पुत्र कुलिकायें मांगा, पिता लींबा के श्रेयोर्थ. .. अ० प्र० जै० ले० सं० ले० ५८७, ५८८, ५८६, ५६०, ५६१, ५६२, ५६३, ५६५, ६१०, ६१२, ६१५- ११६ । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - बनासकांठा - उत्तर गुजरात - थराद :: [ ४३१ .. कासिन्द्रा ग्राम के श्री शांतिनाथ - जिनालय में प्र ० आचार्य प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १२३४ वै० जिनबिंब शु० १३ सोम ० सं० १९८२ ज्ये० पार्श्वनाथ चंद्रगच्छीय कृ० ६ बुध० सं० १२४२ ज्ये० कायोत्सर्गप्रतिमा कायोत्सर्ग शु० ११ प्रतिमा "" प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा०ज्ञा० ० धणदेव की स्त्री जाखूदेवी के पुत्र अमरा ने भा० शांतिदेवी, पुत्र प्रबड़, पुत्री पूनमती सहित पिता के श्रेयोर्थ. देरणा ग्राम के श्री संभवनाथ - जिनालय में कु० ७ बुध ० सं० १५१७ वै० विमलनाथ शु० ३ प्रा० ज्ञा० ० लोकवड़ (१) के पुत्र पासिल ने पुत्र पहुदेव, पामदेव आदि पांच पुत्रों के सहित. चकेश्वरसूरि ओरग्राम के श्री आदिनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० ० सहदेव पुत्र यशोधवल ने. प्रा० ज्ञा० ० सहदेव के पुत्र सद्भ्रात के पुत्र वरदेव के पुत्र यशोधवल ने. बनासकांठा - उत्तर गुजरात पुत्र सद्द्भ्रात के पुत्र वरदेव के थराद (स्थिरपद्र) के श्रीमहावीर जिनालय में धातु - प्रतिमायें सं० १५१३ माघ शांतिनाथ पूर्णिमाक्षीमाणिया प्रा०ज्ञा० श्रे० भोजराज ने स्वभा० लाछीबाई पुत्र नत्थमल, जयकेसरिरि सज्जन के सहित पिता-माता के श्रेयोर्थ तपा० लक्ष्मीसागर- कालुयावासी श्रे० कूपा की स्त्री रूड़ीदेवी के पुत्र देवसिंह सूरि की स्त्री वाल्हीबाई के पुत्र देपाल ने भांडादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ श्री महावीर जिनालयान्तर्गत श्री आदिनाथ - जिनालय में महावीर श्रीपास चंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० ० जसवीर की स्त्री वांसलदेवी के पुत्र मामा स्वपिता के यो सं५ १४३६ वै० कृ० ११ श्र० प्र० जै० ले ० सं० ले ० ६२२, ६३६, ६४१, ६४२ । जै० प्र० ले० सं० ० २८, २०,१७० ॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] प्र० वि० संवत् सं० १४६२ वै० आदिनाथ शांतिनाथ सं० १५१० वै० सुमतिनाथ शु० ३ शु० ६ शुक्र० सं० १४८४ प्र० प्रतिमा प्र० श्राचार्य मड़ाहड़ गच्छीय हरिभद्रसूरि ने. तपा० सोमसुन्दर - सूर तपा० रत्नशेखरश्वरि सं० १५१५ ज्ये० अजितनाथ कृ० १ शुक्र ० सं० १५१६ माघ शीतलनाथ क्र० सोम ० सं० १५२३ वै० श्रभिनन्दन शु० १३ सं० १५२४ मार्ग • सुविधिनाथ कृ० २ सं० १५२७ माघ संभवनाथ कृ० ५ गुरु० सं० १५२८ वै० सुविधिनाथ शु० ५ गुरु० सं० १५३४ वै० श्रेयांसनाथ कृ० १० सोम ० सं० १५३४ ज्ये० शांतिनाथ शु० १० सं० १५३७ ज्ये० अजितनाथ शु० २ सोम० पूर्णिमापक्षीय देवचन्द्रसूरि "" 19 :: प्राग्वाट - इतिहास : "" प्रा० ज्ञा० ० खोखराज की स्त्री कील्हणदेवी के पुत्र देवराज ने भा० सूलेश्री पुत्र भरमादिसहित स्वश्रेयोर्थ. तपा० लक्ष्मीसागर - मूजिगपुर में श्रे० मुंजराज की स्त्री जसदेवी के पुत्र हापा ने स्वभा० रत्नादेवी पुत्र जावड़, जीवराज, जगराजादि सहित स्वश्रेयोर्थ. सूरि [ तृतीय प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्रे० प्रलेपन की स्त्री साथलदेवी के पुत्र माल वृ० तपा० ज्ञानसागरसूरि श्रीसूरि प्रा० ज्ञा० ० सायर के पुत्र गदा ने स्वभ्रातुं पद्मराज के श्रेयोर्थ. ऊढ़ववासी प्रा० ज्ञा० वीरम की स्त्री भानुमती के पुत्र राघव ने भ्रातृ हेमराज, हीराचन्द्र, वीसलराज भा० मचकूदेवी पुत्र अर्जुन, सांगा, सहजादि कुटुम्बसहित पिता के श्रेयोर्थ. अहमदाबादवासी मं० लींबा की स्त्री मधू के पुत्र अदा की स्त्री मांजी नामा ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्ण की स्त्री मापूदेवी के पुत्र वीढ़ा ने स्वभा० राजलदेवी, पुत्र पालादि कुटुम्बसहित. प्रा० ज्ञा० सं० काला की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र सं० रत्नचन्द्र की स्त्री लावूबाई, सं० भीमराज ने स्वभा० देमति पुत्रकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. डीसामहास्थान में प्रा० ज्ञा० श्रे० सेलराज की स्त्री तेजदेवी के पुत्र श्रजराज की स्त्री वमीबाई के पुत्र नरपाल ने पितृव्य वाळा, डाहा, पांचादि कुटुम्बसहित. तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० ० गौपाल ने स्त्री लाखीबाई पुत्र थे० लाखा सूरि स्त्री कीमीबाई, प्रमुखसहित स्वश्रेयोर्थ. तपा० लक्ष्मी लघुशाखीय प्रा० ज्ञा० ० हरदास की स्त्री गोली के पुत्र राणा की स्त्री टबकूदेवी नामा ने स्वपुण्यार्थ. सागरसूरि प्रा० ज्ञा० ० तेजपाल की स्त्री श्रीदेवी के पुत्र पोपा ने स्वभा० पांतीदेवी, पु० वर्जाग, देपाल प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. जै० प्र० ले० सं० ले० १०३, १६६, १४७, १५४, १४१, १२८, ६२, १५१, ४६, ५२, ३८, १६७ । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० झा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें बनासकांठा-उत्तर गुजरात-थराद :: [ ४३३ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५४७ वै० शांतिनाथ अंचलगच्छीय- डीसावासी प्रा. ज्ञा. श्रे. लक्ष्मण ने स्वभा० रमकूदेवी, शु० ३ सोम० सिद्धान्तसागरसूरि पुत्र लींबा भा० टमकूदेवी, तेजमल, जिनदत्त, सोमदत्त सूरा सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५-- माघ विमलनाथ ब० तपा०- सहालावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० धांगा की स्त्री पंगादेवी कृ. २ गुरु० जिनसुन्दरसूरि के पुत्र पर्वत ने स्वभा० मटकूदेवी, पुत्र कर्मादिसहित. सं० (१५) ६५ माष० शांतिनाथ श्रीसूरि माद्रीपुरवासी प्रा. ज्ञा. श्रे. जसराज के श्रेयोर्थ पुत्र शु० १२ शुक्र० पूनचन्द्र ने. सं० १६१८ माघ० आदिनाथ विजयदानसरि प्रा. ज्ञा० ऋ० सोनीगोत्रीय सासा की पुत्री सोनीबाई ने. शु० १३ श्री आदिनाथ के बड़े जिनालय में धातु-प्रतिमा सं० १५१५ वै० चन्द्रप्रभ सिद्धांतीगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० वागमल ने स्वभा० पोमी, पुत्र वेलराज क. २ गुरु० ___ सोमचन्द्रसरि भा० लाबी बाई पुत्र विरूआ सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री विमलनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमा (देसाईसेरी) सं० १५२३ वै० वासुपूज्य तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० मेहा की स्त्री लापु के पुत्र महिमा ने स्वभा० शु० १३ सागरसरि मरघू, पुत्र लटकण, भ्रात नरवदादि कुटुम्बसिहत स्वश्रेयोर्थ. श्री सुपार्श्वनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमा (आमलीसेरी) सं० १५०८ ज्ये० श्रेयांसनाथ जीरापल्लीगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० मोकल ने स्वभा० दूधड़ी, पुत्र हीराचन्द्र, शु० १० सोम० उदयचन्द्रसरि सहज पुत्र ऊतलसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री अभिनंदन-जिनालय में धातु-प्रतिमा (राशियासेरी) सं० १५५३ आषाढ़ मुनिसुव्रत पूर्णिमा० भीमपल्लीय- प्रा० ज्ञा० सं० सेंगा की स्त्री ह देवी के पुत्र सं० अमा ने शु० २ शुक्र० मुनिचन्द्रसरि स्वभा० लीलादेवी, पुत्र खीमचन्द्र, सिंधु, लक्ष्मण, अलवा, धनराजादि सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री विमलनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमा (मोदीसेरी) सं० १५८-वै. श्रेयांसनाथ पूर्णिमा-पक्षीय प्रा. ज्ञा० श्रे० दा ने स्वमा० जाणी, पुत्र जयवंत के कु०५ जिनहर्षसरि सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में धातु-प्रतिमा (सुतारसेरी) सं० १५१६ मार्ग० संभवनाथ अंचलगच्छीय रत्नपुरवासी लघुशाखीय मं० अमरसिंह भा० माई पुत्र सं० शु० ६ शनि० जयकेसरिसरि गोपाल ने भा० सुलेश्रीदेवी, पुत्र देवदास, शिवदास सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० प्र० ले०सं० ले १६४,१२७,७६, ४७, २१२, २४२,२५६, २६०, २६७, २७२ । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावास परमाण के श्री जिनालय में प्रस्तरप्रतिमा वि. सरत् प्रतिमा प्राचार्य प्रा.शा. प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि #. १३५१ भाष पार्श्वनाथ ............... प्रा. शा. श्रे० झामण की स्त्री राउलदेवी के पुत्र सिंह ने कृ० १ सोम० (युगल) स्वभा० पगादेवी,जलालुदेवी,पुत्र पनराज भा० मोहिनीदेवी, पुत्र विजयसिंह के सहित. भीलड़िया के श्री जिनालय में सं० १३६७ वै० आदिनाथ मड़ाहड़० प्रा० ज्ञा० श्रे. तिहुणसिंह की स्त्री हांसलदेवी के अयोथ 'रविकरसूरि . पुत्र सोमचन्द्र ने. सं० १५३५ माघ शांतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- कुतुबपुरवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० काजा की स्त्री देवी के पुत्र क. ६ शनि० 'सरि भोलराज ने, स्वभा० राजूदेवी, पुत्र हंसराज, रतिराजादि कुटुम्बसहित स्वपिता के श्रेयोर्थ. लुआणा (दियोदर) के श्री जिनालय में सं० १५२२ माष मुनिसुव्रत वृ० तपा० जिनरल- प्रा. ज्ञा० ० विरूमा की स्त्री आजीदेवी के पुत्र सं० शु०६ शनि० परिमांकड़ भा० झालीदेवी के पुत्र सं० अर्जुन ने स्क्मा० अहिवदेवी सहित अपरा भा० रामति के श्रेयोर्थ.. सं० १५२३ बै० विमलनाथ पा. लक्ष्मीसागर-बीरमग्रामवासी प्रा० झा० सं० नापा ने स्वमा० लक्ष्मीदेवी पुत्र खोना, ठाइया, हांसा, जावड़, भावड़, इनकी स्त्रियाँ माथीबाई,कन्हाईबाई, मेषादेची, भासूदेवी, इनके पुत्र नाकर, झटका, ला, भूरादि कुटुम्बसहित. गुर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र अमरोहा डमोड़ा के श्री जिनालय में सपरिकर पाषाण-प्रतिमा सं० १३०५ ज्ये० रोहिणीबिंब रत्नप्रभसरि प्राज्ञा० ठ० सांगा की स्त्री सलखणदेवी ने शु०११ सोम० लींच के श्री जिनालय में धातु-प्रतिमा से० १४०४ वै० पार्श्वनाथ रत्नाकरसरि प्रा०ज्ञा० श्रे० मोकल ने पिता भोतू, माता मान्हणदेवी के श्रेयोर्थ. जे०प्र०ले० सं० ले० ३२५, ३३५, ३३४, ३५७, ३५८ । प्रा० ले० सं० मा०१ ले०४१, ६६,। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिक्षित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाद और सौराष्ट्र-पूना : [-] प्र. वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० झा प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १४५७ आपा. पार्श्वनाथ पू०प० धर्मतिलक- प्रा. ज्ञा० ऋ० छाहड़ की स्त्री मोखलदेवी के पुत्र त्रिवणा शु० ५ गुरु० सूरि ने पिता के श्रेयोर्थ... सं० १५२१ माघ सुविधिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे०. रामसिंह की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र भादा ने कृ०५ शुक्र० सरि भा० लक्ष्मीदेवी, भ्रात पाना, देक्स प्रमुख कुटुम्बसहित, कतार के श्रे० लाडूआ के छोटे जिनालय में सं० १४३८ वै० महावीर देवेन्द्रसरि प्रा० ज्ञा० श्राविका मयणलदेवी के पुत्र कर्मसिंह ने स्वमा० ___ लक्ष्मीदेवी और पिता-माता के श्रेयोर्थ. पाटणी के श्री जिनालय में सं० १४४० पौ० शांतिनाथ पिप्पलाचार्य प्रा० ज्ञा० पिता सिंह माता रूपादेवी के श्रेयो) पुत्र तेजमल शु० १२ बुध० उदयानन्दसूरि ने. सं० १४६४ श्रेयांसनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० रत्ना की स्त्री माऊदेवी के पुत्र ताल्हा की सूरि स्त्री सारूदेवी के पुत्र वेलराज ने भा० वानदेवी प्रमुख कुटुम्ब सहित स्वश्रेयोर्थ. पूना के श्री आदिनाथ-जिनालय में सं० १४४६ वै० अजितनाथ उढब(एस)गच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० सावठ की स्त्री पान्हादेवी के श्रेयोर्थ पुत्र कु. ३ सोम० कमलचन्द्रसूरि जगड़ ने. सं० १५१५ माघ अनंतनाथ तपा० रत्ननशेखर- गंधारवासी प्रा. ज्ञा० सं० वयरसिंह भा० जईतूदेवी पुत्र शु०७ सूरि सं० नरगा ने स्वभा० भरमादेवी, पुत्र वर्द्धमान, नान सं० शिवराज भा० कर्मादेवी पुत्र वसुपालादि कुटुम्ब-सहित माता के श्रेयोर्थ. सं० १५२१ वै० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- धीजग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० पूनमचन्द्र की स्त्री लाली शु० १० रवि० सूरि ने पुत्र काजा-जिनदासादि-कुटुम्ब-सहित. ___ श्री पोरवालों के जिनालय में सं० १५२० ज्ये० कुथुनाथ श्रीसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्नचन्द्र की स्त्री प्रभकुनामा ने स्वश्रेयोर्थ. शु० ४ गुरु. सं० १५३७ वै० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मी- इलदुर्गवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० भोजराज की स्त्री भमादेवी शु० १० सोम. सागरसूरि के पुत्र रत्नचन्द्र ने भा० पहुतीदेवी, पुत्र लाषा, वेणा आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा०ले० सं० भा०१ ले०६६, ३५६,८३,१६१,८८,३०१,३५८, ३५२, ४७४ । 'पाटड़ी-बी० बी० एण्ड० सी० आई० वीरमग्राम-वासघोडबास लाईन में जुड स्टेसे तीसस स्टेशन है। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] प्र० वि० संवत् सं० १४६० वै० शु० ३ सं० १५१७ माघ सुमतिनाथ कृ० ८ सोम. सं० १५३१ ज्ये० शु० २ रवि ० सं० १५०३ आषाढ़ सुमतिनाथ शु० २ गुरु. पार्श्वनाथ प्र० प्रतिमा सं० १५१० फा० शु० १२ सं० १४८१ माघ सुविधिनाथ शु० १० नेमिनाथ -:: प्राग्वाट - इतिहास :: राधनपुर के श्री शान्तिनाथ - जिनालय में o आचार्य प्रा० शां० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि तपा० सोमसुन्दर - प्रा० ज्ञा० श्रे० मांडण की स्त्री सरस्वती के पुत्र आह्ना ने सूरि स्वभा० आल्हणदेवी, पुत्र सुगाल, गोविंद, गणपति के सहित. वृ० त० जिनरत्न- प्रा० ज्ञा० ० सांगा की स्त्री मटकू की पुत्री पूरी नामा सूरि ने स्वश्रेयोर्थ. महेसाणा के श्री सुमतिनाथ - जिनालय में तपा० रत्नशेखर- वीसलनगरवासी प्रा०ज्ञा० सं० सादा के पुत्र सं० वाछा की सूरि स्त्री वीसलदेवी के पुत्र सं० कान्हा, राजा, मेघा, जगा, अदा; इनमें से श्रे० मेघा ने स्वभा० मीणलदेवी, पुत्र सूरदास प्रमुख कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सहसाणावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मण ने. सं० १५०३ माघ ० संभवनाथ कृ० ६ सं० १५१३ ज्ये० श्रेयांसनाथ शु० ३ गुरु० वीरमग्राम के श्री शांतिनाथ - जिनालय में तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० ० धांगा की स्त्री धारिणीदेवी के पुत्र तीरा सूरि ने स्वभा० पोमीदेवी, पुत्र सोमचन्द्र, हेमचन्द्र के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० धनराज नगराज ने. [ तृतीय श्रागमगच्छीयदेवरत्नसूर प्रा० ज्ञा० मं० अर्जुन की स्त्री अहिवदेवी के पुत्र मं० पेथा की स्त्री रामतिदेवी के पुत्र हरदास ने स्वश्रेयोर्थ. महुआ (सौराष्ट्र) के श्री जिनालय में सूरि मुनिसुव्रत - तपा० रत्नशेखर- स्तम्भतीर्थवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० लाषा की स्त्री मातृदेवी चोवीशी के पुत्र श्रे० करण ने, भा० कर्मादेवी, पुत्र महिराज, कुरा, ठाकुर भ्रातृ श्रे० आका भा० टबकू पुत्र हेमराज, शिता, श्रे० सायर भा० धनदेवी पुत्र तेजराज, श्रे० राजमल भा० माणिकदेवी पुत्र पत्ता, सहजादि सहित सर्वश्रेयोर्थ. प्रा० ले ० सं ० भा० १ ० १४६, ३०७, १६७ । खं० खं० प्रा० जे० इति ० ले० १५ । प्रा०ले ० सं० भा० १ प्रा० जै० इति० ले० २८ । प्रा० ले० सं० भा० १ ले० १२५ । ० २६२, २५६ / Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा प्र० वि० संवत् सं० १५०४ मा० कृ० ६ रवि ० सं० १५०४ श्र० शु० २ सं० १५३३ ज्ये० शु० १५ सोम० प्र० - प्रतिमा शांतिनाथ सं० १५१५ माघ ० शु० १ शुक्र ० सुपार्श्वनाथ सं० १५०५ . शीतलनाथ सं० १५३३ वै० सुमतिनाथ कृ० ११ शीतलनाथ - चोवीशी सं० १५१२ ज्ये० पार्श्वनाथ शु० ५ सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर- काठियावाड़ और सौराष्ट्र- छोटा बड़ोदा :: [ ४३७ हिम्मतनगर के बड़े जिनालय में प्र० श्राचार्य नेमिनाथ (जीवित) प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि तपा० जयचन्द्र- विराटपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० देवराज भार्या कर्मादेवी के सूरि पुत्र सहसराज ने भार्या चमकूदेवी, पुत्र सायर, रमणायर, माणिक्य, मांडण, धर्मा, पौत्र हराज, भला, ठाकुरसिंह यदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० चांपा की स्त्री हमीरदेवी के पुत्र पूरा ने भार्या मांजूदेवी, पुत्र दलादि कुटुम्बसहित भ्रातृ सायर और स्वश्रेयोर्थ. आदिनाथ - जिनालय में जामनगर के श्री तपा० जयचन्द्र तपा० जयचन्द्र सूर सूरि तपा० लक्ष्मी सागरसूर " कोलीया (भावनगर) के श्री जिनालय में तपा० रत्नसिंह- प्रा० ज्ञा० मं० साजण भा० तिलकूदेवी पुत्र छूटाक, उसकी सूरि स्वसा वारूदेवी नामा- इन सर्व के श्रेयोर्थ भ्रातृ गदा ने. वढ़वाण के श्री जिनालय में बुद्धिसागरपट्ट - धर विमलसूरि वाभईयावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० देटा की स्त्री सारूदेवी के पुत्र वयरा ने भा० फचकू नामा के श्रेयोर्थ. मंगलपुरवासी प्रा० ज्ञा० दो० वरसिंह की स्त्री हषू देवी के पुत्र दो० भीमा ने भा० सूल्हीदेवी, पुत्र सोवा भा० मटू पुत्र कान्ह प्रमुख कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. काकरवासी प्रा० ज्ञा० ० गांधी वीरा भा० झाभूदेवी पुत्र हेमा भा० हीरादेवी, हर्षादेवी पुत्र महिराज ने भा० सोहीदेवी, पुत्र लालादि कुटुम्बसहित स्वर्थ. Water बड़ोदा सं० १५२१ माघ ० शीतलनाथ तपा० लक्ष्मी शु० १३ सागरसूर बह्मनाण (ब्रह्माण ) गच्छानुयायी प्रा० ज्ञा० श्रे० खूंटा ने, भा० लाखणदेवी, पुत्र इङ्गर भा० चांपूदेवी के सहित जीवितस्वाffia आत्मश्रेयोर्थ. के श्री जिनालय में अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० श्रे० हीराचन्द्र भार्या चारूदेवी के पुत्र श्रे० धनराज ने भा० सोनादेवी, भ्रत् चत्रादि सहितंस्वश्रेयोर्थ. प्रा० ले० सं० भा० १ ले ० २०१, २०६, २१६, ४५४, ४५५, २७६, २६८, ३५५ । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास :: मांडल के श्री पार्श्वनाथ जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२२ माघ० अंबिका तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० लूणा भा० लुणादेवी के पुत्र वईरा ने. शु० १३ सागरसूरि सं० १५२३ वै० कुन्थुनाथ वृ० त० ज्ञान- बीबीपुरवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० भूभव भा० लालीदेवी के पुत्र शु० १३ गुरु० सागरसूरि शिवराज ने भा० टबीदेवी, पुत्र वझामुख्य समस्त पुत्रों के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में सं० १५४१ संभवनाथ- तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० म० देवराज भार्या रूपिणी के पुत्र मं० पुजा चोवीशी सागरसूरि ने भार्या चंपादेवी प्रमुख-कुटुम्बसहित. घोघा के श्री जील्लावाला (जीरावाला) जिनालय में सं० १५२३ फा० कुंथुनाथ आगमगच्छीय प्रा. ज्ञा० मं० सदा की भार्या सारूदेवी के पुत्र म. कृ.४ सोम० देवरत्नसरि भोजराज की स्त्री साधू नामा ने स्वश्रेयोथे. श्री नवखण्डा-पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १५२६ फा० धर्मनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० दो० भोटा की स्त्री मांजूदेवी के पुत्र वासण की कु० ३ सोम० सागरसूरि स्त्री जीविणि नामा ने देवर सोढ़ा, कर्मसिंह, पुत्र गोरा, वीरादि सहित स्वश्रेयोर्थ. सादड़ी के श्री जिनालय में सं० १५२३ वै० शांतिनाथ- तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० वासड़ की स्त्री टबकूदेवी के पुत्र श्रे० चोवीशी सागरसूरि हरपति ने भा० हंसीदेवी, पुत्र झाला, रता, झांझण, झांटादि कुटुम्ब-सहित स्वश्रेयोथे. गंधार के श्री जिनालय में सं० १५४७ वै० अंबिका सुमतिसाधुसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० सं० पासवीर की स्त्री पूरीदेवी ने स्वकुटुम्ब शु० ३ सोम० के श्रेयोर्थ. सं० १५६१ वै० अनंतनाथ ....... गंधारवासी प्रा० ज्ञा श्रे० पर्वत के पुत्र श्रे० जकु के पुत्र क ७ शुक्र० धर्मसिंह अमीचन्द्र ने. सोजींत्रा के श्री जिनालय में । सं० १५२३ वै० कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मी- सोजींत्रावासी प्रा. ज्ञा० श्रे० श्रासवीर, श्रीपाल, श्रीरंगादि कु० ४ गुरु० सागरमरि ने कुटुम्ब के श्रेयोर्थ. प्रा०ले० सं० भा० १ ले० ३६३,३७५, ४८०,३७०, ४२२,३७४ । खे० प्रा० ० इति० ले०६,६,२०॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-सोनोर : [४३६ जघराल के श्री जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्राचार्य प्रा. झा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४१५ ज्ये० पार्श्वनाथ- सागरचंद्रसरि जघरालवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वीक्रम ने. कृ० १३ रवि० पंचतीर्थी सांचोसण के श्री जिनालय में सं० १५३० माघ० नेमिनाथ तपा० लक्ष्मी- सांबोसणवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० जटक ने. शु० ४ शुक्र० सागरपरि बड़दला के श्री जिनालय में सं० १६२२ माघ० पद्मनाथ श्री हौरविजय- प्रा. ज्ञा० श्रे० धनराज, हीरजी. कु०२ बुध० सरि जंवूसर के श्री जिनालय में सं० १५६५ वै० सुमतिनाथ 'धर्मरत्नसरि जंबूसरवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० शाणा की स्त्री श्रा० रहितमा ने. कृ. ३ रवि डाभिलाग्राम के श्री जिनालय में सं० १५०६ माष चन्द्रप्रभ तपा० रनशेखस्मरि डाभिलाग्रामवाली प्रा० झा० ऋ० हाबड़, कौता, धना, शु०५ गुरु० भोजा आदि ने. वालींबग्राम के श्री जिनालय में सं० १५६४ ज्ये० अजितनाथ तपा लक्ष्मीसागर- वालींवग्रामवासी प्रा. ज्ञा० श्रे• वरुमा सरुमा ने. १२ शुक्र० सरि भरूच के श्री जिनालय में सं० १६२२ माघ अनंतनाथ हीरविजयसूरि भृगुकच्छवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० दो० लाला की स्त्री बच्छीकु०२ बुध० देवी के पुत्र श्रे० कोका ने. सीनोर के श्री जिनालय में सं० १७१० पौष आदिनाथ विजयसेनसरि प्रा० ज्ञा० श्राविका जीवदेवी गुजुदेवी ने स्वकुटुम्ब एवं कृ०६गुरु० स्वश्रेयोर्थ. खं० प्रा० ० इति० ले० २१, २४, २६, २६३३,३८,५२,१। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० .: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय उदयपुर के श्री जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१० फा० मुनिसुव्रत- ......... प्रा. ज्ञा० श्रे० राजमल भार्या माणिकदेवी, श्रे० सहजादि शु० ११ चोवीशी डभोई (दर्भवती) के श्री साभलापार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १५०६ पौष नमिनाथ साधुपूर्णिमा- प्रा. ज्ञा० सं० श्रे० सारंग भा० सहिजूदेवी ने पुत्री काकी, कु०५रवि० श्री सोमचन्द्रसरि भ्रातादि के सहित. श्री लोढण-पार्श्वनाथ-जिनालय में चोवीशी सं० १५०६ वै० शांतिनाथ श्रीसरि सहुयालावासी प्रा०ज्ञा० श्रे० रत्ना की स्त्री,रत्नादेवी के पुत्र शु०६रवि० मोखु की स्त्री मिणलदेवी के पुत्र धणसिंह, धरणि, गमदा भा० मागलदेवी, सुहीरुदेवी, हीरुदेवी, गलदेवी, धनसिंह भा० हांसलदेवी के पुत्र रामादि के पुत्र चांपा, लापा, नाथु, भूभव ने स्वपितृ-मातृ-पितृव्य-भ्रातृ-श्रेयोर्थ. श्री धर्मनाथ-जिनालय में सं० १३८३ माघ आदिनाथ श्री कनकसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० आसदेव ने स्वस्त्री लुणादेवी के पुत्र चाहड़, कृ.१ शुक्र० ठहरा, खेता, रणमल, वीकल के श्रेयोर्थ. सं० १५०६ वै० शु० शांतिनाथ श्रीसूरि सहुयालावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० मेघराज की स्त्री वीरमति ७ रवि० के पुत्र लापा ने स्वभार्या लीलादेवी के श्रेयोर्थ. सं० १५१२ ज्ये० सम्भवनाथ नागेन्द्रगच्छीय- वलभीपुर-वासी प्रा. ज्ञा० श्रे० पटील हीरा की स्त्री देकुन शु० ५ रवि० श्री विनयप्रभसूरि के पुत्र क्षमा ने पुत्र गदा, सदा, श्रीवंत के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१५ माघ अजितनाथ तपा० श्री रत्न- गंधर-वासी प्रा. ज्ञा० सं० वयरसिंह की स्त्री जसदेवी के शु०७ शेखरसूरि पुत्र सं० नरपाल ने स्वभा० भर्मादेवी, पुत्र वर्द्धमान, भ्राता सं० शीवराज भा० कर्मादेवी पुत्र वस्तुपालादि, पुत्री हर्षादेवी के श्रेयोर्थ. श्री मुनिसुव्रत-जिनालय में सं० १५०१ वै० सुमतिनाथ विजयतिलकसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० बड़ा की स्त्री चापलदेवी पुत्र प्राशधर की स्त्री रमकुदेवी ने पुत्र, पति और स्वश्रेयोर्थ. ___ श्री शांतिनाथ-जिनालय में । #. १५२५ वै० अजितनाथ तपा० लक्ष्मी- वीरमग्राम-वासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सायर मा० डाई लीला सागरसूरि के पुत्र हंसराज ने स्वभार्या रंगादेवी के श्रेयोर्थ. खं० प्रा०० ले० इति० ले०१३ । जै० धा० प्र०ले०सं०भा०१ले०७,४१,५१,४६, ५५, ५२,६७,७० ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र-उंझा :: [ ४४१ गां ग्राम के श्री जिनालय में पंचतीर्थी प्र० आचार्य तपा० लक्ष्मीसागर - सूरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १५१६ ज्ये० पद्मप्रभ शु० ३ सं० १५३५ माघ अभिनंदन कृ० ६ शनि ० सं० १४५७ वै० शांतिनाथ शु० ५ गुरु० सं० १५०३ माघ कुंथुनाथ कृ० ५ शु० ३ सं० १५५३ फा० शांतिनाथ शु० ४ सं० १५५४ माघ सुमतिनाथ कृ० २ सोम ० सं० १५५५ चैत्र सुमतिनाथ कृ० १० गुरु ० "" सं० १५४३ वै० सुमतिनाथ सिद्धांतगच्छीय देवसुन्दरसूरि तपा० कमलकलश सूरि तपा० हेमविमल सूरि श्रीनागेन्द्रगच्छीय सं० १६०८ वै० शांतिनाथ - शु० १३ शुक्र ० चोवीशी चाणस्मा ग्राम के श्री जिनालय में साधु० पू० पक्षीय प्रा० ज्ञा० ० वजान्हा की स्त्री वाम्हणदेवी के पुत्र श्रीधर्मतिलकसूरि टोभा ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि [स] लखण पुरवासी प्रा० ज्ञा० महा० समंधर भा० बाबूदेवी की पुत्री गौरी (गां० भरम की पत्नी) नामा ने पुत्र राउल भा० लखीदेवी पुत्र साजणादि सहित. कुतुबपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० काजा की स्त्री चाई के पुत्र सर्वण ने स्वभा० माणकदेवी, पुत्री वीरमती, पुहूती आदि कुटुम्बसहित स्वपितृश्रेयोर्थ. तपा० जयचंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० ० सरवण की स्त्री सहजलदेवी के पुत्र राजमल ने स्वभा० लक्ष्मीदेवी, पुत्र महिराज, सायरादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. पूर्णिमापक्षीय श्री पुण्यप्रभसूर उंझा ग्राम के पत्तनवासी मं० ठाकुरसिंह भा० धनी के पुत्र उणायग, नारद भा० रजादेवी नामा ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० सं० विजयराज भा० मधुदेवी के पुत्र श्रे० ङ्गरसिंह ने भार्या लीलादेवी, पुत्र हर्षचन्द्र, कान्हादि के सहित. लोहरवाड़ावासी प्रा०ज्ञा० व्य० जयसिंह की स्त्री वत्सदेवी के पुत्र सूरा ने स्वभार्या देवमति, पुत्र लक्ष्मण, भावड़ सकुटुम्ब स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० मं० मेघराज के पुत्र रत्ना ने स्वभा० रही, पुत्र कान्हा, नाना, कूरा के सहित माता-पिता के श्रेयोर्थ एवं स्वश्रेयोर्थ. कुमरगिरि-वासी प्रा० ज्ञा० ० सूरा, मिलुसिंह, श्रे० लडुआ ने भा० हीरादेवी, पुत्र-पौत्र - सहित स्वपुण्यार्थ. श्री जिनालय में प्रा० ज्ञा० ० झांसा की भार्या खेतलदेवी के पुत्र भशाली ने पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १३७६ माघ श्रादिनाथ कृ० १२ बुध० पंचतीर्थी जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ० ७५ ७३, ११७, १२३, १०७, ११५, ११०, १२७, १२४, १५६ । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचा-इतिहास: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४-६ पार्श्वनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० ० पान्म की स्त्री माणकदेवी के पुत्र श्रे० भीम सरि ने स्वभा० चंपादेवी के सहित स्वपितामह कान्हड़ के श्रेयोर्थ. सं० १४५६ शांतिनाथ धर्मतिलकसरि- प्रा. ज्ञा० श्रे० सहसदत्त की स्त्री वीणलदेवी के पुत्र रुदा, रत्ना ने पितादि के श्रेयोथे. सं० १४८६ माघ श्रीवर्धमान तपा० सोमसुन्दर- प्र. ज्ञा० श्रे० खेता की स्त्री तिलकदेवी के पुत्र ने कामशु० ४ शनि० गरि देव ने स्वभार्या धरणदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ.. सं० १४८८ महावीर सुविहितसारि प्रा. ज्ञा० म० कर्मा के पुत्र लींबा की स्त्री ऊनकूदेवी के पत्र कडुना ने पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४६६ माघ कुन्थुनाथ- तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा. श्रे. राजड़ की स्त्री भवकूदेवी के पुत्र श्रे० चोवीशी आका की स्त्री मनीलाई के पुत्र रहिया ने स्वभा० लीला देवी, भ्राता महीप आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०८ प्रा० पत्रप्रभ- इ. तपा० रत्न- वीशलनगरवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० हूदा के पुत्र सं० सायर की शु० २ सोम० पंचतीर्थी सिंहसरि स्त्री प्रासलदेवी के पुत्र हरिराज, नथमल ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५१२ फा० धर्मनाथ- सा० पू० पुराव- उद्ववासी प्रा० बा० ० सूद की स्त्री सहजलदेवी के पुत्र क. १ रवि० पंचतीर्थी चन्द्रमणि चांपा ने स्वभाः यापू, पुन लीकानि के सहित सं० १५१३ वै० संभवनाथ तपा० सुस्सुन्दर- २० ज्ञा० श्रे० सहदेव की स्त्री सलखणदेवी के पुत्र पुंज सरि (राम) ने स्वभार्या पुरि, पुत्र वरजंगादि के सहित. सं०:१५१३ जो शीतलनाथ- सा० पू० विजय. स्तंभतीर्थवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० नल ने स्त्री मागलदेवी, कृ. ७ मं० चोवीशी चन्द्रसूरि पुत्र बाला, माला, देवदास, सूदा आदि कुटुम्बियों के सहित पिता माता के श्रेयार्थ. सं० १५१५ माष श्रेयांसनाथ मलधारीमच्छीय- प्रा. ज्ञा० दोसी श्रा० मटकूदेवी के पुत्र वाछा की स्त्री शु०१ शुक्र० गुणसुन्दरसूरि चंगादेवी के पुत्र पद्मशाह ने पिता, भ्राता सधारण के श्रेयोर्थ. सं० १५२३ माष कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मी- नादियाग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्ना की स्त्री माल्हणदेवी सागरसूरि के पुत्र व्य. समरा ने स्वभार्या सहजलदेवी,पुत्र इङ्गर, जइना, विजय, दादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ फार शांतिनाथ तपा० लसी- उपहसवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० मेघा की स्त्री मटकूदेवी के पुत्र शु०७ शनि. सागरसूरी खींबा ने लाड़ीदेवी के सहित. जै०या० प्र०ले० सं० मा०१ ले० १५०, १४७, २०२, २०७,१६५, २०९,१४८, १७१, १६८, १७२, १६७, १५६ । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] : विभिन्न प्रान्तों में प्रा०शा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गुर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र-उंका : [ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा. ज्ञा. प्रतिभा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ अंटवालवासी प्रा० शा ० मरसिंह की सी चीदेवी के पुत्र लाला ने स्वमा० राजूदेवी, हलूदेवी, फइदेवी, पुत्र पोपटादि सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ वै० शु० ६ सोम ० सं० १५२७ ज्ये० क्र० ७ सोम ० सं० १५२८ फा० शु० ८ सोम ० सं० १५२६ वै० शु० ३ शनि० सं० १५३१ माघ कृ० सोम ० सं० १५३३ माघ कु० १० गुरु ० सं० १५३४ [फा० शु० १० गुरु० सं० १५३४ वै० कृ० १० सं० १५३५ पौष शु० ६ बुध ० आदिनाथ सं० १५६१ माघ कृ० ११ गुरु० नमिनाथ कुन्थुनाथ नमिनाथ आदिनाथ नमिनाथ विमलनाथ सुमतिनाथ शीतलनाथ धर्मनाथ " सागर वृ० पी० ज्ञान- प्रो० ज्ञा० सं० सायर की स्त्री श्रासलदेवी के पुत्र सं० नथमल ने स्वभा० यीताणदेवी, पुत्र शिवराज आदि के सहित. जईतलवसणांवासी प्रा० शा ० ० मूला की स्त्री पूरीदेवी के पुत्र मं० सहिसा ने स्वभा० सुहासिणी, पुत्र जंगा, गपंदि आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. दसावाटक-वासी प्रा० शां० श्रे० नीणा की स्त्री राउदेवी के पुत्र झांझण ने स्वभा० नाथीदेवी, पुत्र मंडन भा० राणीदेवी आदि के सहित पितृव्य मेघा और स्वश्रेयोर्थ. अहमदाबाद-वासी प्रा० ज्ञा० ० कडूआ के पुत्र समस के पुत्र सोमदत्त ने स्वभा० देमाईदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० पर्वत की स्त्री माईदेवी के पुत्र सांडा ने स्वभा० तेजूदेवी, पुत्र रामादि के सहित. प्रा० ज्ञा०० श्रे धर्मसिंह की स्त्री लाड़ीदेवी के पुत्र विनायक ने स्वभा० धनादेवी आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. पीरीवाड़ा-वासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नृसिंह की स्त्री धर्मिणीदेवी के पुत्र गोपा की भार्या माइना ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० सहद की स्त्रीं सलखणदेव के पुत्र पूजा ने स्वभा० मापुरी पुत्र प्रदादेव आदि के सहित पुत्र वज्रङ्गी मा० रहीदेवी के श्रेयोर्थ. 97 तपा० लक्ष्मी सागरसूर श्रागमगच्छीय देवरत्नसूर तपा० लक्ष्मी सागरसूर पू० पक्षीय सिद्ध सूरि तपा० लक्ष्मी सागर श्रीवर पत्तन में प्रा शा ० मं० पूंजा की सी भलीदेवी के पुत्र मं० चांपा व खाली, पुत्र लक्ष्मीदास, भ्राता चांगा मा० सोनादेवी पुत्र अयन्त, भगिमी अधकूदेवी, पुत्र बाछीदेवी आदि सहित. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० १ ० १७७, २०३, १७८, १८४, १५२. २०६. १६५, २६६, १५३, १४८ । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५७६ चैत्र सुविधिनाथ अंचलगच्छीय पत्तननगर में प्रा० ज्ञा० श्रे० लक्ष्मण की स्त्री लक्ष्मीदेवी के कृ. ५ शनि. भावसागरसूरि पुत्र श्रे. जगा की स्त्री कीवाईदेवी, तोहदेवी के पुत्र श्रे० गदा, लघुभ्राता श्रे० सहजा ने स्वभा० सौभाग्यवती संपूदेवी तथा द्वितीयामाता, वृद्ध भ्राता श्रे. रामादि प्रमुख कुटुम्ब के सहित. सं० १५८४ चै० सुमतिनाथ तपा० सौभाग्य- विशलनगर-वासी प्रा० ज्ञा० लघुशाखीय श्रे० नारद की स्त्री कृ. ५ गुरु० हर्षसरि रत्नादेवी के पुत्र श्रे० रामा ने स्वभा० लीलादेवी, पुत्र राजपाल के सहित. , , संभवनाथ तपा० हेमविमलसरि चूड़ीग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नाथा की स्त्री नाईदेवी के पुत्र विरुआ ने भ्राता मटा, लटा स्त्री हासीदेवी पुत्र माधव आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १६२४ माघ ऋषभदेव तपा० हीरविजयसूरि प्रा० ज्ञा० मं० समरा की स्त्री पँहुताईदेवी के पुत्र मं० शु०६ सोम० ठाकर ने स्वभा० कमलादेवी, पुत्र देवचन्द्रादि के सहित. गृह-जिनालय में सं० १४- ज्ये० आदिनाथ घोषपुरीगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० वयरसिंह की स्त्री लादेवी के पुत्र ने हेमचन्द्रसरि सं० १५०६ माघ संभवनाथ वुवू०गच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० रुहा की स्त्री मचकुदेवी के पुत्र देवसिंह देवचन्द्रसरि ने स्वभा० चमकदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. __शान्तिनाथ-जिनालय में सं० १५१५ माघ० शांतिनाथ मलधारीगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे०. मांकड़ की स्त्री मेचूदेवी के पुत्र जाऊआ, शु० १ शुक्र० गुणसुन्दरसरि देऊआ, काला, धरणा ने अपनी माता के श्रेयोर्थ. अणहिलपुरपत्तन के श्री भाभापार्श्वनाथ-जिनालय में पंचतीर्थी सं० १३१० शांतिनाथ पृ. गच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० ऊदा की स्त्री आल्हादेवी के पुत्र ने. मानदेवमूरि सं० १४३४ वै० विमलनाथ कमलचन्द्रसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० सोदा की स्त्री मेपूदेवी के पुत्र महणसिंह ने क०२ शुक्र० माता-पिता के श्रेयोर्थ. ० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ले० १६४, १८६, १६२, १EE, २११, २१२, २१४ । २२६, २३२ । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गुर्जर - काठियावाड़ और सौराष्ट्र-पत्तन :: [ ४४५ प्र० वि० सं० १४८३ माघ कृ० ११ गुरु० सं० १२७१ वत् प्र० प्रतिमा पार्श्वनाथ सं० १३६४ चै० कृ० ६ सं० १४८५ वै० विमलनाथ शु० ८ सोम ० सं० १५३० माघ श्रेयांसनाथ शु० १३ सोम ० सं० १५५२ श्राषा. सुमतिनाथ शु० २ रवि ० सं०१२ (१) ७० फा० अजितनाथ कृ० २ सं० १६६२ वै० शु० १५ सोम ० सं० १५०१ माघ शीतलनाथ शु० १३ गुरु० सं० १५०८ वै० शु० ३ सं० १६६४ फा० शु० ८ शनि ० श्री मनमोहनपार्श्वनाथ - जिनालय के गर्भगृह में (खजूरी-मोहल्ला) श्रीसूरि राजशेखरसूरि पूर्वर उएसगच्छीय सिद्धसूरि चन्द्रप्रभ प्र० श्राचार्य आगमगच्छीय श्रीसूरि तपा० प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्रे० मेघराज की स्त्री मेवूदेवी के पुत्र आम्रसिंह ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० खीमा ने स्वस्त्री अरघूदेवी पुत्र पंचायण, free स्त्री सोही पुत्र वच्छादि सहित. विमल - वड़लीवासी प्रा० ज्ञा० ० डोसा की स्त्री डाही की पुत्री महीनामा ने स्वश्रेयोर्थ. वृ० त० रत्न सिंहसूर तपा० रत्नशेखरसूरि प्रा० ज्ञा० ० तिहुणसिंह ने पिता साजण और माता जाखणदेवी के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० सूर श्री जुने-जिनालय में धातु - प्रतिमा ( लींबड़ी - पाड़ा) भावदेवसूरि प्रा० ज्ञा० ० पातल की स्त्री कोल्हणदेवी के पुत्र देव ने स्वभा० देवलदेवी के सहित माता-पिता के श्रेयोर्थ. विजयहीरसूरि विजयसेनसूरि श्री बड़े जिनालय में विजयसेनसूरि- विजयदेव सूर प्रा० ज्ञा० श्रे० बीजा स्त्री वीन्हदेवी के श्रेयोर्थ पुत्र सोमा ने. प्रा० ज्ञा० मं० वदा भा० रूजी पुत्र मं० ठाकुरसिंह भा० फदू के पुत्र मं० पर्वत ने माता के श्रेयोर्थ. श्री पंचासरा - पार्श्वनाथ - जिनालय में वीरमग्राम वासी प्रा० ज्ञा० श्रे० कद्रमा भा० मटकू के पुत्र भाषा ने स्वभा० फातू (पुत्र) वेला, माणिकादि कुटुम्बसहित सर्वश्रेयोर्थ. पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० वृ० शा० दोसी शंकर की त्री वाल्हीदेवी ने पुत्र कुंवरजी और भातृव्य श्रीवंत भार्या श्राजाईदेवी पुत्र लालजी, पुत्र रत्नजी आदि परिवारसहित स्वश्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० १ ले०, ३१७, २४६, २५५, २४४, २५२, २५४ । प्रा० ले० सं० भा० १ ले० ३१, १७६, २३६ । प्रा० जे० ले ० सं० भा० २ ले० ५११, ५१२ । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *W] प्र० वि० संवत् सं० १७७१ मार्ग० शु० ६ सोम ० सं० १४६५ सं० १४८४ ज्ये० शु० १० बुध ० सं० १४६६ फा० शु० २ सं० १५०३ ज्ये० शु० १० बुध ० . सं० १५०४ सं० १५२२ माघ शु० ६ शनि ० सं० १५३० माघ शु० २ सं० १५३३ पौ० शु० पू० सोम ० प्र० प्रतिमा सहस्रफणापार्श्वनाथ संभवनाथ पत्तन के श्री शांतिनाथ - गर्भगृह में पंचतीर्थी ( लींबड़ी-मोहल्ला) विमलनाथ श्रीवरि शांतिनाथ मुनिसुव्रतस्वामी शांतिनाथ - चोवीशी विमलनाथ पंचतीर्थी संभवनाथ :: प्राबाट - इतिहास :: शाहपुर के श्री जिनालय में प्रo आचार्य आदिनाथ तपा० सोम सुन्दर श्रीसूरि अंचलगच्छीय जयकेसरिरि ० तपा० जिन रत्नसूर तपा० लक्ष्मी - सागरसूरि प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि शाहपुर निवासी प्रा० ज्ञा० ० पुजा पुत्र वजी दोनों पिता-पुत्रों ने स्वश्रेयोर्थ. जै० गु० क० भा० ३ ख० २ पृ० ११६६ । जे० घा० प्र० ले० सं० भा० १ [ तृतीय प्रा० ज्ञा० ० पूना की स्त्री पूनादेवी के पुत्र देवराज ने स्वपितादि के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० विजय के पुत्र माला, देवा ने भार्यां धरणदेवी के श्रेय प्रा० ज्ञा० सं० पद्मा, तिहुण, कीका, गदा की स्त्री वीरु नामा ने स्वपुत्र थावरु के श्रेयोर्थ, तपा० जयचंद्र - प्रा० ज्ञा० सं० देवराज की स्त्री वर्जुदेवी के पुत्र रणसिंह वत्ससिंह, कौर सिंह की स्त्री पूरीदेवी के पुत्र रहिश्रा ने भ्रातृ माणिकादि के सहित स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० सं० चांगा की स्त्री गौरी के पुत्र सं० भावड़ ने स्वभा० धनदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. कुमरगिरि में प्रा०ज्ञा० ० वाघमल ने स्वभा० कपूरदेवी, पुत्र गेला, जावड़, वीरा, हरदास भा० मानदेवी, शाणीदेवी, विजयादेवी, हांसलदेवी, पौत्र वरजांग आदि प्रमुख कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. कुमरगिरि में प्रा० ज्ञा० श्रे० कोठारी भादा की स्त्री सोमादेवी के पुत्र हादा ने स्वभा० राजमती, पुत्र महिपाल जीवराज, जांजल के सहित. प्रा० ज्ञा० श्रे० गांगा की स्त्री गंगादेवी के पुत्र शा० श्राम्रराज की स्त्री उमादेवी के पुत्र श्रे० सहसा नामक सुश्रावक ने स्वभा० संसारदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. ० २६४, २७७, २५६, २६२, २५७, २६७, २८३, २८२ । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड ] : विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर - काठियावाड़ और सौराष्ट्र- पत्तन :: [ ४४० प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ मूलनायक श्री शांतिनाथजी के बड़े जिनालय के गर्भगृह में (कनासा का मोहल्ला ) ऋषभनाथ- नागेन्द्रगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा ने पिता कुरपाल, माता लाच्छा के पंचतीर्थी बोर्थ. रत्नाकरसूरि कमला कस्तूरि प्रा० ज्ञा० ० प्र० वि० संवत् सं० १२६१ सं० १३०५ ज्ये० शु० १५ रवि० सं० १३८० ज्ये० शु० १० सं० १४१७ पे० शु० ६ गुरु० सं० १४४७ फा० शु० ८ सोम ० सं० १४६६ बै० शु० ३ सोम ० सं० १४८८ ० शु० ६ सं० १४६४ वै शु० २ शनि ० सं० १५०७ वै० कृ० २ मुरु० सं० १५०६ माघ शु० १० शनि ० सं० १५११ ज्ये कृ० ६ शनि ० सं० १५१५ ज्ये० fo & आदिनाथ पंचतीर्थी पंचतीर्थी पद्मप्रभ पंचतीर्थी वासुपूज्य सुमतिनाथ - पंचतीर्थी श्रेयांसनाथ नमिनाथ अजितनाथ विमलनाथ " चैत्रीय मानदेवरि नागेन्द्र गच्छीय रत्नप्रभसूर मंडागच्छीय पासचन्द्रसूरि वृ० तपा० रत्नबरि तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० ० सान्हा भा० सहजलदेवी के पुत्र मंडन ने सूर स्वभा० मवीदेवी पुत्र गोधा, देवादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सिद्धान्ति मच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० सांडा या० मोहमदेवी के पुत्र राजा मुनसिंह हा ने पिता-माता और स्वश्रेयोर्थ. सा. पूर्णिमा पुरायचंद्रसूरि ० तपा० रत्नसिंहसूरि प्रा० ज्ञा० ० बूटा पुत्र सान्हा चांगण ने माता पिता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० धरा के पिता ८० हरपाल के श्रेयोर्थ. तपा० रत्नशेखरसूरि प्रा० ज्ञा० सं० मेघराज की स्त्री मीणलदेवी के पुत्र पर्वत ने पिता-माता के वोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० विरपाल ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० सं० सेउ की स्त्री मानदेवी के पुत्र कर्मसिंह ने स्वभा० संपूरी के सहित पिता, माता, भ्राता राउल के श्रेयोर्थ. प्रा० वा० ० भीम की स्त्री भलीदेवी के पुत्र छांछा ने स्वभार्या माणकदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० सामल की स्त्री रांकादेवी के पुत्र पाल्हा ने स्वभा० कुतिंगदेवी पुत्र कुंभा पासण, सूरा के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० श्रीसा (१) ने स्वस्त्री संका पुत्र पुजा, जा मा० जीविणीदेवी, देवदेवी आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० १ ० ३५३, ३३०, ३५६, ३२४, ३५६, ३१८, ३१३, ३२०, २०८, ३२२. ३११, ३७० । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] : प्राग्वाट-इतिहास:: [ तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५५२ माघ आदिनाथ- चन्द्रगच्छीय- पत्तन में प्रा० ज्ञा० श्रे० महिराज की स्त्री अधकूदेवी के कृ० १२ बुध० पंचतीर्थी वीरदेवसूरि पुत्र श्रे० हंसराज ने स्वभा० चंगीदेवी, पुत्री रूपादेवी, सोनादेवी, कोबादेवी,भ्रा० हलदेवादि के सहित सर्वश्रेयोर्थ. सं० १५६३ आषाढ़ पार्श्वनाथ तपा० निगमप्रादु- पत्तनवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० नत्थमल की स्त्री वीरादेवी के शु०७ गुरु० र्भावक इंद्रनंदिसूरि पुत्र सोनमल की स्त्री सोनादेवी के पुत्र व्य० कडूआ ने सकुटुम्ब. श्री आदिनाथ-गर्भगृह में सं० १४०५ वै० महावीर नाणचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा० ४० वीसल ने पिता जांजण माता सहवदेवी तथा शु० ३ मंगल. ठ० वउला के श्रेयोर्थ. माणसा के श्री बड़े जिनालय में पंचतीर्थी सं० १७८५ मार्ग० विमलनाथ अंचलगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० वल्लभदास के पुत्र माणिक्यचन्द्र ने. विद्यासागरसूरि वीजापुर के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १४८८ ज्ये० सुपार्श्वनाथ श्रीसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० नोड़ा की स्त्री रूदी के पुत्र शिवराज ने कु०६ . स्वभा० तेजूदेवी, प्रा० अर्जुनादि के सहित स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ. १५४१ . आदिनाथ तपा० हेमविमल- प्रा० ज्ञा. श्रे. राजमल ने स्वभा० नीणदेवी, पुत्र कला सरि भा० रक्षिमिणीदेवी पुत्र वलादि के सहित. श्री शांतिनाथ-जिनालय में सं० १५१७ माघ पबप्रम- तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० ) पेथा की स्त्री शाणी के पुत्र माला के श्रेयार्थ. पंचतीर्थी सागरसरि भ्राता भीलराज ने भ्रात तेजपाल, मेलराजादि के सहित. श्री गोड़ीपार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १५१० मार्गः आदिनाथ- तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० देवराज भा० रत्नादेवी के पुत्र हाला ने शु०१५ पंचतीर्थी सूरि स्वभा० कर्मिणि, पुत्रादि प्रमुख कुटुम्बसहित स्वमाता के स्वश्रेयोथे. जै० घा०प्र० ले० सं० भा०१ ले०३०३,३७५,३८१,३८८, ४२४, ४२७,४३७,४४६ । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस ] : विभिन्न प्रान्तों में प्राक्षा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-संडेसर :: [४४४ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५३० माघ कुन्थुनाथ- वृ० तपा० जिन- प्रा. ज्ञा० दो० नुला की स्त्री नामनदेवी के पुत्र सालिग शु०१३ रवि. पंचतीर्थी रत्नसरि ने स्वभा० रमी, जसादेवी, भ्रातृपुत्र सधारण के सहित माता श्रीधर के श्रेयोर्थ सलखणपुर के श्री जिनालय में सं० १३११ चै० अजितनाथ ......... मिलग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वयरसिंह की स्त्री जयंताकृ० पक्ष बुध० देवी के पुत्र जयंतसिंह ने माता के श्रेयोर्थ. सं० १३३० चै० संभवनाथ श्री मुनिरत्नसरि प्रा. ज्ञा० महं० राजसिंह के पुत्र चाचा ने पुत्र महं० कृ. ७ रवि० धनसिंह के श्रेयोर्थ. . लाडोल के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में पंचतीर्थी सं० १५१० पार्श्वनाथ तपा० रनशेखर- उंडावासी श्रे० गांगों की स्त्री टीबहिन के पुत्र गहिदा ने सहि स्वश्रेयोर्थ... संडेसर के श्री आदिनाथ जिनालय के गर्भगृह में सं० १४८५ ज्ये० मुनिसुव्रत- तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० भोजराज की स्त्री पान्हदेवी के पुत्र श्रे० शु० १३ स्वामि सरि जयता ने स्वभा० जयतलदेवी आदि कुटुम्ब के सहित.. सं० १५०७ शांतिनाथ तपा० रत्ननशेखर- प्रा. ज्ञा० श्रे० वरसिंह ने स्वस्त्री वील्हणदेवी, पुत्र श्रे सूरि लापा भा० सूदी आदि के सहित स्वमाता-पिता के श्रेयोर्थ. सं. १५२७ श्रेयांसनाथ- तपा० लक्ष्मीसागर- महिगाल (साणा)वासी प्राज्ञा० गां० श्रे० पर्वत के पुत्र परि नरपाल ने भा० नागलदेवी, वृद्धभ्राता झांगट, धर्मिणी, पुत्र सहसादि के सहित. सं० १५६४ ज्ये० संभवनाथ ......... बालीवासी प्रा० ज्ञा० ऋ० गदा की स्त्री हलीदेवी के शु० १३ शुक्र० पुत्र बड़ा की स्त्री कमलादेवी के पुत्र देवदास ने स्वभा० सोनदेवी, भ्राता गेरा आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री चन्द्रप्रभुजी के गर्भगृह में सं० १५३३ पौ० मुनिसुव्रत ......... प्रा० ज्ञा० श्रे० प्राभा ने स्वस्त्री बाई, पुत्र श्रे० धुरकण शु०२ मा० जीविणीदेवी प्रमुखकुटुम्ब के सहित. जै० धा०प्र० ले० सं० भा०१ ले०४५१। प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०४६५,४६३ । जै० घा०प्र०ले०सं०भा०१ले०४५४,४७७,४७६,४७५,४७८,४८०। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५०1 प्राग्वाट-इतिहास [तृतीय हरि करबॅटिया पेपरेंदर के श्री अभिनन्दन-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१४ शीतलनाथ तपा० रनशेखर- मेहतावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सोमचन्द्र की स्त्री वारूदेवी के सरि पुत्र पसराज ने स्वभा० गोमतिदेवी, भ्रा० समधर पुत्र शिवादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में चोवीशी सं० १५२३ माघ सुविधिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर-प्रा. ज्ञा० श्रे० केन्हा की स्त्री हंसादेवी के पुत्र श्रे० खेता शु० ६ रवि० सरि की स्त्री खेतलदेवी के पुत्र भीमसिंह ने. बीसनगर के श्री गोड़ीपार्श्वनाथ-जिनालय के गर्भगृह में सं० १५२५ माघ वासुपूज्य तपा० सुधानंद- प्रा. ज्ञा० श्रे० काजा भा० राजूदेवी के पुत्र श्रे० महणा ने कु०६ सरि स्वभा० माणकदेवी, पुत्र करणादि के सहित. श्री शांतिनाथ-जिनालय में सं० १५२४ वै० पार्श्वनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- अजदरपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वाछा की स्त्री जसमादेवी के पुत्र झूटा मा० हीरादेवी के पुत्र गुणिमा ने स्वभा० रामतिदेवी, भ्रात नाना, वीरादि के सहित. सं० १५३५ माघ अरनाथ उदयसागरसरि प्रा० ज्ञा० मं० रामा की स्त्री हेमादेवी ने पंचम्युद्यापन शु०६ सोम० पर प्रतिमाचक्र करवाया. सं० १५७० माष कुन्थुनाथ नागेन्द्रगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० अमा ने स्त्री उमादेवी, पुत्र जीवराज, सुरा शु०१३मं० हेमसिंहसरि भा० सुहवदेवी पुत्र हरराज के सहित माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं. १५८१ माघ शांतिनाथ निगमप्रभावक- पत्तनवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० आसराज की स्त्री लहिफूदेवी के पुत्र शु० १० शुक्र० आणंदसागरसूरि दो. गांगा ने स्वभा० पद्मावती, द्वितीया भा० हीरादेवी, पुत्र वीसलसिंह भा० विमलादेवी पुत्र श्रीचंद्रादि के सहित. श्री कल्याणपार्श्वनाथ-गर्भगृह में सं० १५२४ वै० शीतलनाथ सलखणपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नरसिंह की स्त्री नागलदेवी के पुत्र जयंत, भ्रात पाना भा० हीरादेवी, पुत्र महीराज, जिनदासादि के सहित श्रे० पाना ने पिता माला प्रमुख स्वपूर्वजों के श्रेयोर्थ. " पार्श्वनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० पातल की स्त्री चांपूदेवी के पुत्र श्रे० गुण राज ने स्वभा० नागनदेवी, पुत्र टीन्हा एवं स्वश्रेयोर्थ. जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ले० ४८२, ४६०, ५०२, ५१७, ५११, ५१५, ५१८, ५२६, ५३२ । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-बड़नगर :: [ ४५१ . . . . . .. . . . .. . मूरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १६१७ ज्ये० श्रेयांसनाथ तपा० विजयदान- पत्तनवासी महं० गोगा ने स्वभा० जयवंती, सुनाबाई आदि शु० ५ सोम० सूरि के एवं स्वश्रेयोर्थ. बड़नगर के श्री आदिनाथ-जिनालय में सं० १५१५ फा० सुपार्श्वनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा. ज्ञा० श्रे०.... शु. १२ सरि सं० १५१६ माष कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० महिपाल की स्त्री माणिकदेवी के पुत्र वेल मूरि राज ने स्वभा० वनादेवी प्रमुख परिवार के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५४ माघ नमिनाथ तपा० हेमविमल- गोलग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० भादा की स्त्री हीरादेवी के कृ २ बुध० मूरि पुत्र श्रे० जांटा ने स्वभा. टीहिकूदेवी आदि प्रमुख कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५५ वै० धर्मनाथ तपा० हेमविमल- गालहउसैण्यग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० गोपाल की स्त्री अघुदेवी शु० ३ शनि० के पुत्र बोवा की स्त्री जाणीदेवी के पुत्र श्रे० जयसिंह ने स्वभा० जसमोददेवी, पुत्र पोपट आदि प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५५ फा० सुमतिनाथ ....... महिसाणा में प्रा० ज्ञा० श्रे० सोढ़ा की स्त्री देवमती के शु० २ सोम० पुत्र श्रे० हापा देपा ने भा० कमोदेवी, पुत्र लटकण, भा० लीलादेवी के सहित. सं० १५५७ वै० पद्मप्रभ प्रा. ज्ञा० श्रे. धर्मपाल की स्त्री लक्ष्मीदेवी के पुत्र कुरा ने शु० १३ शनि० स्वभा० चंपादेवी, पुत्र महिराज के श्रेयोर्थ विसलनगर में. सं० १५८४ चै० शांतिनाथ बृ० तपा० सौभाग्य- वीशलनगरवासीप्रा०ज्ञा० श्रे० धर्मराज की स्त्री नाउदेवी पुत्र कु. ५ गुरु० सागरसूरि जोगा की स्त्री गोमती के पुत्र श्रे धरणा ने वृद्धभ्राता हर्षा के सहित स्वभा० मणकीदेवी, पुत्र जयंत, जसराज, जयवंत, पौत्र जयचन्द्र आदि के सहित. सं० १५६७ वै० आदिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० सिंह की स्त्री तीलूदेवी के पुत्र सेदा ने शु०३ स्वभा० धती, भ्रात जसराज भा० रुपिणी, राजमल, भीमराज आदि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं०१६२८ वै० धर्मनाथ तपा० कल्याणविजय- वटपल्लीवासी प्रा०ज्ञा. श्रे. जगमाल ने स्वमा० अजादेवी, शु०११ बुध० गणि पुत्र पुंजा आदि प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित. जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ले० ५३१, ५५१, ५३६, ५४०, ५४६, ५५४, ५४८, ५४५, ५५५, ५४६ । मूरि Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय ............. __ श्री चतुर्मुख-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४८४ वै० विमलनाथ , तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० श्रे० गणसिंह की स्त्री गच्छरदेवी के पुत्र नरदेव परि ने स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ. . सं० १४८६ आषाढ़ सुपार्श्वनाथ ......... प्रा० ज्ञा० श्रे० हवसरसिंह की स्त्री वर्जुदेवी के पुत्र सारंग शु० २ ने स्वभा० साल्ही के सहित. सं० १५०४ ज्ये० पार्श्वनाथ उपकेशगच्छीय प्रा० ज्ञा० महं० गीला भा० पूरादेवी के पुत्र पालचन्द्र ने १० ११ मंगल. देवगुप्तसरि स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०५ पौ० संभवनाथ वीरचन्द्रसरि प्रा. ज्ञा. श्रे..." क. ३ रवि० श्री मादीवरनाथ के गर्भगृह में सं० १३३६ वै० शांतिनाथ ......... प्रा० ज्ञा० श्रे० भासल के पुत्र सिद्धपाल ने. २०११ शुक्र० श्री कुन्थुनाथ के गर्भगृह में सं० १४६४ कुन्धुनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० श्रे० लाला की स्त्री जासुदेवी के पुत्र प्रासा ने. सरि सं० १५७६ वै० अभिनन्दन तपा० हेमविमल- सदरपुरवासी प्रा० ज्ञा० ० तोड़ा की स्त्री लाछी के शु०६ सोम० सरि पुत्र श्रे० शाणा ने स्वभा० जीवीदेवी, पुत्र राजा, हीरादि, पितृव्य श्रे० नरवदादि के सहित. अहमदनगर के श्री महावीर-जिनालय में सं० १५०४ माघ शांतिनाथ तपा० जयचंद्रसरि प्रा. ज्ञा० श्रे० देवराज भा० कर्मादेवी के पुत्र सहसराज कु.हरवि० ने स्वभा० चमकूदेवी, पुत्र सायर, पारायण, भायर, माणिक, मंडन, धर्मादि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री अजितनाथ-जिनालय में सं० १५०४ आषाढ सुपार्श्वनाथ तपा जयचन्द्रमरि प्राज्ञा ० श्रे० चांपा भा० हमीरदेवी के पुत्र पुरा ने स्वमा० शु०२ माजूदेवी, पुत्र दलादि के सहित प्रात सायर एवं स्वश्रेयोर्थ. सूरत के जिनालय में (मोटी-देसाई पोल) सं० १५४३ ज्ये० संभवनाथ बृ० तपा० उदय- वीसलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० रामसिंह भा० धर्मिणी के शु० ११ शनि० सागरसूरि पुत्र श्रे० आसराज ने स्वभा० कस्तूरदेवी, पुत्र तेजपाल, __ भ्रात थाईश्रा, कुरां, अमीपाल के सहित. जै० घा०प्र०ले० सं० भा०१ले०५६४,५५८, ५६३,५६०,५६८,५६६,५७०, ५८७,५६६,६०५। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र-पेथापुर : [४५३ रायपुर के श्री जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२१ माघ नमिनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० बाबा भा० हāदेवी के पुत्र जिनदास ने शु०१३ सागरसूरि स्वभा० शाणीदेवी, पुत्र हरराज, हेमराजादि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. साणंद के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में पंचतीर्थी सं० १५०६ ज्ये० पार्श्वनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० जसराज की स्त्री पद्मादेवी के पुत्र पोचमल सूरि ने स्वभा० फदकूदेवी पुत्र...... ...."समरादि के सहित. सं० १५२३ माघ नमिनाथ- तपा०लक्ष्मीसागर-प्रा० ज्ञा० श्रे. जयसिंह की स्त्री लंपूदेवी के पुत्र श्रीकाला, कृ. ७ रवि० चोवीशी सूरि धरणा, भ्राता श्रे० गेलराज ने स्वभा० सारु आदि प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. कोलवड़ा के श्री जिनालय में पंचतीर्थी सं० १५३७ ज्ये. शीतलनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- महीशानकनगर में प्रा० ज्ञा० श्रे० काला की स्त्री वानदेवी कु० ११ गुरु० सूरि के पुत्र श्रेधनराज ने स्वभा० मेघमती, पुत्र महीराज, सोड़, जिणदासादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. गेरीता के श्री जिनालय में सं० १५२४ वै० शीतलनाथ तपा०लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० सहसा की स्त्री रानीदेवी के पुत्र प्रयसाधुशु० ६ सरि केसव वेणाजिनदासादि ने प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५४६ प्राषाढ़ वासुपूज्य अंचलगच्छीय कर्णावतीनिवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० सहसा की स्त्री सहसादाद(१) शु० १ सोम० सिद्धान्तसागरसूरि के पुत्र आसधीर ने स्वभा० रमादेवी के श्रेयोर्थ. पेथापुर के श्री बावन-जिनालय में चोवीशी सं० १५०५ चै० विमलनाथ- तपा० जयचंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० शा० चौड़ा(?) की स्त्री गौरादेवी के पुत्र देन्हा शु० १३ चोवीशी ने स्वभा० देल्हणदेवी, भ्रात उगमचंद्र, भ्रावपुत्र कालु, चांपा, रविन्द्रादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ वै० सुविधिनाथ तपा०लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० दोसी महिया की स्त्री लाहु के पुत्र श्रे० शु० ६ सोम० . सरि धरणा ने स्वभा० हंसादेवी आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० धा०प्र०ले०सं०भा०१ले० ६२०,६३७,६३६,६६१, ६६६,६६४,६६५, ६८४। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] प्र० वि० संवत् सं० १५५२ वै० शु० १३ मं० सं० १५५६ आषाढ़ चन्द्रप्रभ शु० ८ बुध० प्र० प्रतिमा विमलनाथ नागेन्द्रगच्छीय हेमरत्नसूर सं० १५६० पौ० आदिनाथ कृ० १२ रवि ० चोवीशी सं० १५६६ मार्ग • आदीश्वर - अंचलगच्छीय शु० ५ शुक्र० जयकेसरिरि चोवीशी सं० १४६६ श्रा० शु० १० सं० १४६५ :: प्राग्वाट - इतिहास :: प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्रे० गोपीचन्द्र की स्त्री सुलेश्री के पुत्र देवदास ने स्वभा० शोभादेवी गुणिया माता के श्रेयोर्थ. तपा० विमलशाखीय राजनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० बीयसव की स्त्री रामबाई ज्ञानविमलसूर के पुत्र श्रे० वीरचन्द्र ने स्वभा० सावित्रीदेवी, पुत्र जेठमला दि के सहित. प्रा० ज्ञा० ० नाउ ने स्वस्त्री हंसादेवी, पुत्र ठाकुरसिंह भा० आल्हादेवी, भ्रातृ वरसिंह भा० सलाखुदेवी पुत्र चांदमल भा० सोमदेवी, ठाकुदेवी पुत्र जयसिंह के सहित. तपा० विमलशास्त्रीय राजनगरवासी प्रा० ज्ञा० सा० बवली की स्त्री रामबाई ने ज्ञानविमल रि पुत्र सविरा भा० सावित्रीदेवी पुत्र जेवादि के सहित. राजनगर में प्रा० ज्ञा० ० सौभाग्यचन्द्र के पुत्र विजयचंद्र गच्छीय धनेश्वरसूरि ने. कलोल सं० १७५१ आषाढ़ चन्द्रप्रभ ० ८ बुध० सं० १७५८ माघ अजितनाथ विजयासंदर शु० १० बुध ० सं० १४६६ माघ शु० ५ प्र० आचार्य सं० १४८१ माघ विमलनाथ श्रीसूरि तपागच्छी लघुशाखीयसौभाग्य कड़ी के मूलनायक श्री संभवनाथ के जिनालय में सूरि तपा० सोम सुन्दरवरि " [ तृतीय विश्वलनगरवासी प्रा०ज्ञा० दो० श्रे० राम की स्त्री रामादेवी के पुत्र ठाकुर ने स्वभा० अळवादेवी, पुत्र हीराचंद्र, भ्रातृ नाकर भा० जीवादेवी पुत्र जयवंत, भ्रा० वत्सराज भा० अवीदेवी पुत्र जागा, भ्रातृ रंगा भा० कनकदेवी आदि के सहित सर्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० ... खेरालु के श्री आदिनाथ - जिनालय में सुविधिनाथ तपा० देवसुन्दर- प्रा० ज्ञा० पुत्र पाहड़ने भ्राता आदि के सहित विमलनाथ प्रा० ज्ञा० ० वकराज ने स्वश्रेयोर्थ. महावीर प्रा० ज्ञा० ० थाबड़ की स्त्री माल्हणदेवी के पुत्र वरसिंह ने पुत्र मूलसिंह, मणोर पुत्र मांकू के सहित स्वभा० हिमदेवी के श्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० १ ० ७०१, ६६६, ६६८, ७०६, ७१०, ७१६. ७३०, ७६१, ७५३ । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद : [ ४५ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५५६ माघ सुमतिनाथ तपा० हेमविमल- गोलवासी प्रा० ज्ञा० श्रे वाघमल की स्त्री ममकूदेवी के पुत्र कृ०२ गुरु० सरि सीहा की स्त्री राणादेवी ने भ्रातृ नाथा भा० जसमादेव के सहित स्वश्रेयोर्थ. कोबा सं० १५०८ वै० शांतिनाथ द्विवंदनीकपक्षीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० करण की स्त्री लीलादेवी के पुत्र लाड़ा शु० ५ शनि देवगुप्तसरि भा० प्रोतम. अहमदाबाद के श्री बावन-जिनालय में (हठीभाई की बाड़ी) सं० १५०४ ज्ये० आदिनाथ- बृ० तपा० रत्न- अहमदाबादवासी प्रा० ज्ञा० म० गेलराज की स्त्री रयकूदेवी शु० १० सोम० पंचतीर्थी सिंहसूरि की पुत्री आपूदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. श्री जिनालय में (सोदागर की पोल) सं० १३०५ ज्ये० ........ नागेन्द्रगच्छीय- प्रा० ज्ञा............. शु०७ उदयप्रभसूरि सं० १४५८ वै० पार्श्वनाथ पूर्णिमापक्षीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० कुदा की स्त्री खांतीदेवी के पुत्र गोवल ने कु०२ बुध. शीतलचन्द्रसूरि माता के श्रेयोर्थ. सं० १४८१ फा. पार्श्वनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० सूरा की स्त्री पोपी के पुत्र प्राशा ने स्वशु०२ सूरि भार्या रूपिणीदेवी पुत्र सारंगादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१० माघ धर्मनाथ तपा० रत्नशेखर- देकावाटवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० सता की स्त्री दीदेवी के मास में सूरि पुत्र जसराज ने स्वस्त्री सइसुदेवी, पुत्र माणक, रंगादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० कुंथुनाथ --- बृ० तपा० जिन- सहुबालावासी प्रा. ज्ञा. श्रे. गांगा की स्त्री रूपिणी की कृ० ४ शुक्र० - रत्नसरि पुत्री वाहू नामा ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ मार्ग० आदिनाथ- तपा. लक्ष्मी- अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० मं० चांपा की स्त्री चापलदेवी शु० १० चोवीशी सागरसूरि के पुत्र मं० सरिया ने स्वमा० सहिजलदेवी, इजलदेवी, पुत्र हेमराज, धनराजादि के सहित पितृव्य धागा के श्रेयोर्थ. सं० १५३० मा० चन्द्रप्रम प्रा. शा. श्रे० पर्वत की स्त्री संपूरीदेवी के पुत्र मान्हा शु० ५शुक्र० पंचतीर्थी ने स्वभा० धनीदेवी, रूहिजादेवी, पुत्र नत्था, हाथी के सहित स्वश्रेयोर्थ. A जै० घा०प्र०ले०सं०भा०१ले०७६२.७५४,७६८,७८८,७८४, ७८६, ७६८, ७८६,८०१। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६] : प्राग्वाट-इतिहास: । तृतीय श्री संभवनाथ-जिनालय में (झवेरीवाड़ा) प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४६६ माघ पार्श्वनाथ श्रीसूरि प्रा. ज्ञा० म० कडूण की स्त्री ललतीदेवी के पुत्र केन्हा, शु०१३ शनि. पान्हा ने. सं० १४७१ माघ शांतिनाथ कवड़गच्छीय- प्रा०ज्ञा० मं० हदा ने भा० वाहणदेवी पुत्र रत्ना भा-रत्नाशु०६ शनि० भावशेखरसरि देवी पुत्र सूरा के सहित सर्वश्रेयोर्थ. सं० १५०१ आषाढ़ आदिनाथ तपा० मुनि- प्रा० ज्ञा० श्रे० ऊगम की स्त्री गरीदेवी के पुत्र धर्मराज ने शु०२ सुन्दरसूरि स्वभा० लीबी के सहित स्वभ्रात देवचन्द्र के श्रेयोथे. सं० १५०८ वै० नमिनाथ तपा० रत्नशेखर- अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० श्रे० भीम की स्त्री बाबूदेवी के सूरि पुत्र मं० गोविंद की स्त्री झबकू नामा ने श्रे० चांपा भा० रूपी की पुत्री के श्रेयोर्थ. सं० १५०८ का. वासुपूज्य साधुपूर्णिमा- प्रा. ज्ञा महं० जीजा के पुत्र पाता की स्त्री हीरादेवी की कु. ५ पक्षीय पुण्यचंद्रसरि · पुत्री अंकीदेवी ने अपने पति चांइया के श्रेयोर्थ. सं० १५१० कुन्थुनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा. ज्ञा० श्रे पर्वत की स्त्री मनीदेवी के पुत्र साजण ने सूरि स्वभा श्रमकू, पुत्र नरपाल, मामा धारादि के सहित. सं० १५१३ फा० सुमतिनाथ तपा० प्रा० ज्ञा० श्रे० पाना की स्त्री नागिनीदेवी के पुत्र श्रे० कृ०११ महिराज, पहिराज ने स्वभा० पद्मादेवी, आसूदेवी पुत्र पूनसिंह के सहित स्वमाता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५१६ माघ संभवनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० श्रे० मून्जराज की स्त्री मांजूदेवी के पुत्र चांपा शु० १३ सागरसूरि ने भ्रातृ गोपा, देवा भा० रामतिदेवी, वजू देवी, नीतूदेवी के सहित सर्वश्रेयोर्थ. सं० , आदिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० केन्हा की स्त्री करेणु के पुत्र खात्रड़ भार्या पंचतीर्थी अHदेवी के पुत्र सोमचन्द्र ने स्वभा० मेघादेवी, पुत्र जइता, खेतादि के सहित. सं० १५२४ मापा० श्रेयांसनाथ- सा. पूर्णिमा- प्रा. ज्ञा० श्रे० गोदा की स्त्री रामतिनामा ने भला, रहिया शु० १० गुरु० चोवीशी पुण्यचन्द्र के सहित. सं० १५३० माघ शांतिनाथ पिष्पल० धर्म- प्रा. ज्ञा० मं० गांगा भा० लहकू के पुत्र मं० वीसा ने 5. ७ बुध० सागरसूरि स्वभा० धरव्वति के सहित माता-पिता, भ्रा० रंगा, भद्रा, महिपा के एवं अपने श्रेयोथे. जै० धा० प्र० ले० सं० भा०१ ले० ७६४, ८२३ । प्रा० ले० सं० भा०१ ले० ११०। जै० धा० प्र० ले० सं० भा०१ले०८१७, ८०६, ८४०,८३५,८१३,८१४,८१५,८४३८०४ । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद ::[५० प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० श्राचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १५३७ वै० वासुपूज्य- द्विवंदनीकगच्छीय-प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्ना ने भा० रामति, पुत्र अदा भार्या शु०१० सोम० पंचतीर्थी सिद्धसरि कर्पूरी पुत्र कुरा के सहित. सं० १५४४ फा० विमलनाथ आगमगच्छीय- पेथड़संतानीय प्रा० ज्ञा० श्रे० गणीा के पुत्र भूपति ने शु० २ शुक्र० विवेकरत्नसरि स्वभा० साधूदेवी, पुत्र सचवीर, दृढादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५८० वै० सुमतिनाथ आगमगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० अर्जुन ने स्वभा० आलूणदेवी, पुत्र देवशु०१२ शुक्र शिवकुमारसरि राज स्त्री लक्ष्मीदेवी पुत्र लडुआ भा० वीरा के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री महावीर-जिनालय में सं० १४८७ मार्ग• शांतिनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० देवड़ भा० देल्हणदेवी के पुत्र हीराचन्द्र ने शु०५ सरि भा० पूरीदेवी, पुत्र राजा, वजादि के सहित. सं० १५०० माघ शीतलनाथ तपा० रत्नशेखर• प्रा० ज्ञा० श्रे० आका भा० धरणीदेवी पुत्र नृसिंह भा० शु० ५ सोम० सरि माकूदेवी के पुत्र पासा ने स्वभा० चंपादेवी, प्रा. सचादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१० चै० सुमतिनाथ उके० सिद्धाचार्य- प्रा० ज्ञा० श्रे० सारंग ने स्वभा० सांरुदेवी, पुत्र जाला, कृ. १० शनि० संतानीय कक्कसरि तलकादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० विमलनाथ- तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० लाखा भा० वयज़ के पुत्र देवराज ने शु० ३ सोम० पंचतीर्थी सागरपरि स्वभा० वानूदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री चतुर्मुखा-शांतिनाथ-जिनालय में पंचतीर्थी सं० १५१२ माघ सुविधिनाथ श्रीसूरि प्रा०ज्ञा० श्रे० महिपाक ने स्वस्त्री महूदेवी, पुत्र पद्मा, वाल्हा, कु. ५ रत्ना, हाला,मका,कपिनादि के सहित स्वपितृ एवं स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५३ माघ कुन्थुनाथ तपा० हेमविमल- प्रा. ज्ञा० श्रे० सरसा की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र श्रे. शु० ५ रवि० सूरि धरणा ने भा० सहजलदेवी, भ्रात् कर्मसिंहादि के सहित. सं० १५५८ फा० विमलनाथ पूर्णिमापक्षीय नृसिंहपुर में प्रा० ज्ञा० को श्रे० पेथा की स्त्री वर्जू के पुत्र शु० ८ सोम० श्रीमरि गेला भा० कीकीदेवी के पुत्र थावर, भाईश्रा, रत्ना-इनमें से थावर ने स्वभा० जामी, पुत्र हरिराज, रामादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् के गर्भगृह में सं० १४४६ वै० मुनिसुव्रत श्रीसरि प्राज्ञा० श्रे० धृधा ने स्वभा० चांपलदेवी, पुत्र देदा, वेला शु० ३ शुक्र० पिता-माता के श्रेयोर्थ. जै० धा०प्र० ले० सं० भा०१ ले०८४४,८२४,८१०,८४५,८५३,८५८,८७१,१४६,८८६, ८८,६०२। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १४६० श्रेयांसनाथ श्रीसरि प्रा०ज्ञा० श्रे० करणराज भा० कर्मादेवी पुत्र खीमसिंह चांपादि ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १४९३ फा० शीतलनाथ अंचलगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० खेता की स्त्री ऊमादेवी के पुत्र भीड़ा, छत्र कु. ११ गुरु० जयकीर्तिरि धरणा ने. सं० १५०७ संभवनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा०ज्ञा० श्रे० सिधा की मा० शृंगारदेवी पुत्र व्य० वसुक सूरि ने स्वभा० लहकू, पुत्र देन्हा, करणा, कर्मादि के सहित. सं० १५२२ धर्मनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० लींबा की स्त्री नांकूदेवी के पुत्र वना की सूरि स्त्री जीविणी नामा ने ज्येष्ठ श्रे० वाघमल, वीरा, देवर धना, देवजाया रूपमती आदि प्रमुख कुटुम्ब के सहित. श्री महावीर-जिनालय में (रीची रोड़ के ऊपर) सं० १४२७ वै० कुलदेवीअंबिका ......... कारटाड़वासी प्रा. ज्ञा. श्रे. जगसिंह की शाखा में शु०१० शुक्र० उत्पन्न श्रे० झांझा के पुत्र दिपा ने. सं० १४७३ ज्ये० विमलनाथ लक्ष्मीचंद्रसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० करणा की स्त्री कश्मीरदेवी के पुत्र देन्हा ने शु० ४ गुरु० माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४८५ शीतलनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० श्रे० झांझण की स्त्री चांपादेवी के पुत्र धनराज सरि ने स्वभा० झमकू, भ्रात गांगा, घेला के सहित. सं० १४९२ वै० वर्धमान , प्रा. ज्ञा० श्रे० नृसिंह की स्त्री हंसादेवी के पुत्र श्रे० पर्वत शु०२ ने स्वभा० छूसी, पुत्र धरणादि के सहित. सं० १४६६ मार्गः सुविधिनाथ प्रा० ज्ञा श्रे० पूना के पुत्र रूदा भा० धाई के पुत्र सं० महिराज ने स्वभा० रामति आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०६ माघ सुमतिनाथ भीमपञ्चीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० धरणा की स्त्री रांका के पुत्र माईया ने शु० ५ सोम० जयचन्द्रसरि प्रातद्धि के श्रेयोर्थ. सं० १५१६ वै० अभिनन्दन श्रीहरि प्रा०मा० श्रे० डूगर ने स्वस्त्री लाड़ीदेवी, पुत्र अमरसिंह शु० ५ गुरु० मा० वान्ही, महिराज मा० कडूदेवी स्वकुटुम्ब के श्रेयोर्थ. सं०१५१६ पार्श्वनाथ तपा० रत्नशेखर- अहमदाबाद में प्रा. ज्ञा० गां० श्रे० जगसिंह की स्त्री परि सोमादेवी, पुत्र मावड़ ने स्वभा० गद्देवी, पुत्र देवदर के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० घा०प्र०ले० सं०भा०१ले०६०६,६०८,१०,६१७,६४८,६७७,६८२,६६४,६६७,६३१, ६३७, ६३४। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद: [४५६ . प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा १० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२० वै० कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० श्रे० अलवा भा० धरणादेवी के पुत्र रामचन्द्र शु० ३ सागरसूरि ने स्वभा० खेतादेवी, पुत्र जाणादि के सहित. सं० १५४७ वै० मुनिसुव्रत ......... वीरमग्रामवासी प्रा. ज्ञा. श्रे. सिंघा की स्त्री अमरीदेवी कृ. ८ रवि० के पुत्र नत्थमल ने स्वभा० टबकूदेवी, पुत्र आना, शाणा, सहुश्रा, भ्रात जावड़ादि के सहित. सं० १५५५ वै० अजितनाथ खरतरगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मा की स्त्री अमरीदेवी के पुत्र श्रे. जिनहर्षसूरि हीराचन्द्र ने स्वभा० हीरादेवी, पुत्र रामचन्द्र, भीमराज आदि के सहित कड़िग्राम में. . सं० १५६४ ज्ये० शीतलनाथ तपा० जय- कर्णपुरवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० केन्हा भा० चांईदेवी के पुत्र शु० १२ कल्याणपरि धरणा ने स्वभा० कडूदेवी, पुत्र, पुत्री के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५७२ फा. वासुपूज्य तपा० हेमविमल- पनानबासी प्रा०ज्ञा० श्रे० रत्नचन्द्र की स्त्री जासूदेवी के पुत्र कु०४ गुरु० सरि माईश्रा ने स्वभा० हर्षादेवी, पु० सांडा के सहित सर्वश्रेयोर्थ. सं० १५७७ ज्ये० शीतलनाथ , अहमदाबादवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० वरसिंह की खी रूडीदेवी शु०५ की पुत्री पूहूती नामा ने स्वपुत्र अजा, भा० धनादेवी प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित. सं० १५८१ पौष संभवनाथ .. शिकंदरपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० धर्मा भा० धर्मादेवी के शु० ५ गुरु० पुत्र पोपट ने स्वभा० प्रीमलदेवी,पु० कूरजी प्रमुख कुटुम्बीजनों के सहित. सं० १६६३ वै० मुनिसुव्रत तपा० विजयदेव- प्रा० ज्ञा० श्रे० तेजपाल के पुत्र सहजपाल ने. शु० ६ बुध० सं० १६६४ माघ श्रेयांसनाथ वृ०खरतरगच्छीय प्रा०ज्ञा० म० वेगढ़ की स्त्री चलहणदेवी के पुत्र देवचन्द्र ने जिनचन्द्रसरि स्वभा० धनदेवी, पुत्र मुरारि, मुकुन्द,माण आदि के सहित. सं० १७२१ ज्ये० नेमिनाथ - तपा० विजयराज- सिरोहीवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० महीजल के पुत्र सं० कर्मा ने. शु०३ सं० १७८३ वै० नमिनाथ व. तपा० भुवन- शिकंदरपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वाघजी की स्त्री नाथाकु० ५ गुरु० कीर्तिरि बाई ने पुत्र पासवीर, समरसिंह के सहित. श्रीअजितनाथ-जिनालय में (शेखजी का मोहन्ला) सं० १४३२ माघ सुविधिनाथ- वृद्धिसागरमरि पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० गोदा झांझण ने करवाया और पूर्णिमा गुरु० पंचतीर्थी श्रे० नाला ने प्रतिष्ठित किया. मूरि जै०धा०प्र० ले० सं० भा०१ले०६६३,६३२,६२८,६४५,६२६,६२७,६८७,६६१,६२३,६६०,६७६,१०.०७॥ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० भाचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५०४ फा० कुन्थुनाथ तपा० जयचंद्रसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० माला की स्त्री रवधू के पुत्र सांडा ने स्वभा० देऊदेवी आदि कुटुम्ब के सहित. सं० १५१७ फा० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- मालवणग्रामवासी प्रा० ज्ञा० मं० माईश्रा के पुत्र रत्नचन्द्र ने सूरि स्वभा० रानदेवी प्रमुखकुटुम्बसहित. सं० १५२५ माघ शांतिनाथ अंचलगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० मोन्हा की स्त्री माणिकदेवी के पुत्र भादा शु०३ सोम० जयकेसरिसरि की स्त्री भावलदेवी के पुत्र दावा, ढाका ने स्वपूर्वजश्रेयोर्थ. सं० १५३८ वै० सुविधिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्राज्ञा० दो० श्रे० शिवदास की स्त्री भली नामा ने पुत्र सरि सहजा, भजा, पुत्री पद्या प्रमुख-कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ अहमदाबाद में श्रीशांतिनाथ-जिनालय में सं० १४२५ वै० शांतिनाथ श्रीमरि प्रा० ज्ञा० श्रे० गोटा ने पिता वरदेव, माता संसारदेवी के शु० १० श्रेयोर्थ. सं० १५०५ पौ० पार्श्वनाथ तपा० जयचन्द्र- प्रा. ज्ञा० श्रे० खेता की स्त्री गांगीदेवी के पुत्र तेजसिंह ने गरि स्वभा० कददेवी. पत्र समथर. मेला. स्वभा० कदेवी, पुत्र समथर, मेला, भादा, चांदादि के सहित भ्रात हाजी के श्रेयोर्थ. सं० १५०५ माघ विमलनाथ पूर्णिमापचीय प्रा. ज्ञा० श्रे० सदा की स्त्री लाड़ीवाई के पुत्र देपा ने शु०८ शनि दयासागरपरि स्वश्रेयोर्थ. सं० १५८४ आषाढ़ आदिनाथ सौभाग्यनंदिगरि प्रा० ज्ञा० श्रे. जयसिंह स्त्री जसमादेवी, जना, हरदास ने. श्री पार्श्वनाथ जिनालय में (देवसा का पाड़ा) सं० १४६० फा० वर्धमान तपा० सोमसुन्दरपरि प्रा० ज्ञा० महं० नरपाल भा० नामलदेवी के पुत्र वीसल ने शु० ११ स्वभा० वीम्हणदेवी पुत्र सादा, भादा, हांसादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०७ ज्ये० मुनिसुव्रत तपा० रत्नसिंहसरि वालिंभावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मण भा० कर्मादेवी के पुत्र शु०२ कांधा ने स्वमा० धारूदेवी, पुत्र हांसा, वानरादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. जे० धा०प्र० ले०सं०भा० १ ले०१०१६,EEE, १००८१०२१,१०२४, १०४६,१०५१, १०२५,१०५५, १०८६॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०क्षा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद:[ ४६५ सरि मूरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१३ वासुपूज्य तपा० रलशेखरसूरि वीसलनगर में प्रा० ज्ञा० श्रे० महिराज की स्त्री वर्जू देवी के पुत्र श्रे० आंबा ने स्वभा० संपूरी, पुत्र हेमराज, देवर्जादि के सहित श्वसुर श्रे. केन्हण भा० किन्हणदेवी के श्रेयोर्थ. सं० १५१६ ज्ये० आदिनाथ , पत्तन में प्रा० ज्ञा० श्रे० सागर की स्त्री सचूदेवी के पुत्र शु०३ हलराज ने स्वभा० मटकूदेवी, पित् देवदास, राघव,भूचरादि कुटुम्ब के सहित-स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ मार्ग शांतिनाथ तपा. लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० मं० गांगा मा० गंगादेवी के पुत्र देवदास ने स्वभा० पूरी, पुत्र दादादि कुटुम्ब के सहित. सं० १५३२ वै० सुमतिनाथ प्रा० शा० श्रे० देवराज की स्त्री रूपिणी के पुत्र पूजा की शु० १५ स्त्री मृगदेवी ने. सं० १५३३ माघ आदिनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० नत्थमल की स्त्री सुलेश्री के पुत्र प्रताप ने कृ. १० स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५० वै० संभवनाथ सा० पू० उदयचंद्र- प्रा. ज्ञा० श्रे० गुणीया की स्त्री धर्मादेवी के पुत्र लालचंद्र शु० ५ रवि० ने स्वभा० खीमादेवी के सहित सं० १५५२ फा० धर्मनाथ तपा० हेमविमलसरि सींहुजवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० का भा० चमकूदेवी के पुत्र शु० ६ शनि. जीतमल ने स्वभा० जसमादेवी, पुत्र मेघराज, वीका, नाई, भामाईयादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६७ ज्ये० आदिनाथ जयकल्याणसरि प्रा. ज्ञा० श्रे मनका की पुत्री श्रे० हरराज भा० कर्मादेवी शु०१ शुक्र० पुत्र जगा की भा० हांसी ने स्वश्रेयोर्थ. श्री धर्मनाथ-जिनालय में (ऊपर के गर्भगृह में) सं० १५२५ फा० श्रेयांसनाथ तपा. लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० सं० देवराज की स्त्री वर्जुदेव के पुत्र वाछा की शु ७ शनि० ____ सागरपरि स्त्री राजूदेवी के पुत्र कान्हा ने स्वमा० रत्नादेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६६ वै० मरनाथ सा० पू० विद्या- पेथापुरवासी प्रा०ज्ञा० दो० श्रे० बालचन्द्र की स्त्री अमरा चन्द्रसरि देवी, पुत्रवधू हेमादेवी पुत्र नत्थमल के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में सं० १५२८ माघ सुविधिनाथ तपा० भीमरि प्रा. ज्ञा० ३० शा० म० रत्ना मा० महयोदलदेवी के पु. कु.४ म० भीमा के श्रेयोर्थ भ्रात म० कीका ने भा० कर्मादेवी, पु० श्रीपाल के सहित. जै. घा०प्र० ले० सं० भा०१ले०१०६७,१०६६,११००, १०५६,११०५,१०६८,१०६६,१०६८, १११७, १११८, ११४२। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: । तृतीय श्री सीमंधरस्वामी के जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५०५ पौष मुनिसुव्रत तपा० जयचंद्रसूरि वड़लीग्राम में प्रा. ज्ञा० श्रे० ऊमा की स्त्री ऊमादेवी के कृष्णपक्ष में पुत्र सं० कोल ने स्वभा जीविणी, पुत्र शवा, नोवा, रत्ना पुत्रवधू, वानदेवी, माणकदेवी कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५११ श्रेयांसनाथ श्रीगुरु प्रा० ज्ञा० मं० भीमराज की स्त्री रमकूदेवी, राजदेवी, उनके पुत्र मं० वछराज ने स्वभा० रामादेवी, पुत्र जिनदास प्रमुख कुटुम्बसहित माता-पिता, भ्राता के श्रेयोर्थ. सं० १५१२ मार्ग. वासुपूज्य तपा० रत्नशेखर- त्रिसीगमावासी प्रा० ज्ञा. श्रे. करण स्त्री रुपिणी के पुत्र सुरि अजा ने स्वभा० श्रांखा(?) के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१६ वै० संभवनाथ फलोधिग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सोहण की स्त्री जीदेवी मास में के पुत्र वेलराज ने स्वभा वीजलदेवी,पुत्र वेला,ठाकुर प्रमुख कुटुम्बसहित. सं० १५१६ वै० कुन्थुनाथ ॥ निजामपुर में प्रा. ज्ञा. श्रे. वेलराज की स्त्री धरणदेवी के पुत्र सातिण ने स्वभा० सिरियादेवी, भ्रात वानर, हलू प्रमुखकुटुम्ब के सहित. सं० १५१८ ज्ये. संभवनाथ तपा० लक्ष्मी- वीसलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे आशराज की स्त्री सागरसरि सरूपिणी के पुत्र सं० राउल ने भ्रातृ मणी,लाला,माला भा० धर्मिणी, वाल्ही, लहूक, कपूरी पुत्र हथी, वर्जाङ्ग, माईश्रा, वीरा, मूड़ा, शाणा आदि कुटुम्ब के सहित पुत्र सं० नत्य मल के श्रेयोर्थ. सं. १५२४ वै० संभवनाथ तपा० , प्रा० ज्ञा० ऋ० जयसिंह की स्त्री पानूदेवी के पुत्र पूजा ने ०७ शुक्र० स्वभा० हदेवी, पुत्र गणपति आदि के सहित. सं० १५२५ मार्ग० चन्द्रप्रम राजपुर में प्रा. ज्ञा. श्रे. देवराज की स्त्री अधकूदेवी के शु० १० गुरु० पुत्र सं० हरराज ने स्वभा० चंपामति,पुत्र सहसमल, रत्न पाल प्रमुख कुटुम्ब के सहित. सं० १५३३ वै० वासुपूज्य द्विवंदनीकगच्छीय कुणजिरावासी प्रा० ज्ञा० लघुमंत्री....'ने भा० बड़ी, पुत्र शु०३ बुध सिद्धसरि महिराज भा० अमकूदेवी, पुत्र जावड़ादि के सहित. सं० १५४८ वै० शीतलनाथ तपा० सुमतिसाधु- अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० श्रे० हेमराज की स्त्री हेमादेवी शु० गुरु० सूरि ने स्वश्रेयोर्थ. जै०या०प्र०ले० सं० भा०१ले०११६३,११५८,११६४,११५७,११६६, ११६१,११६८,११८८,११७३,११५५ । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खस ]: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद :[ ४६३ सुरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० झा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५५३ माघ कुन्भुनाथ तपा० हेमविमल- राजपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० सोढ़ा भा० कपूरी के पुत्र शु० ५ रवि० डाह ने स्वभा० नीमादेवी, भ्रातृ कूपा भा० कमलादेवी प्रमुख कुटुम्ब के सहित लघुभ्राता हेमराज के श्रेयोर्थ. सं० १५७१ माघ संभवनाथ वीशलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० चहिता की स्त्री लीलीदेवी कृ० १ सोम० के पुत्र रूपचन्द ने स्वभा० राजलदेवी, पुत्र वर्धमान मा० नाथीबाई, भटा भा० शाणीदेवी पुत्र कमलसिंह प्रमुख कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १६३२ वै० शांतिनाथ पृ० तपा० हीर- प्रा० ज्ञा० दो० श्रे० श्रीपाल के पुत्र हरजी ने. शु. ३ सोम० विजयसूरि श्री जगवल्लभपार्श्वनाथ-जिनालय में (नीशापोल) सं० १४५४ वै० शांतिनाथ- साधु पू० श्रीमरि प्रा० ज्ञा० श्रे० लोला स्त्री रूपादेवी पुत्र पूनमचन्द्र भा० कृ०११ रवि. पंचतीर्थी सलखणदेवी उनके श्रेयोर्थ पुत्र रूदा ने. सं० १४६६ फा० , प्रा. ज्ञा. ठ० जीजी की स्त्री हीमादेवी के पुत्र ठ. कृ. ३ शुक्र० हीराचन्द्र ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४७३ फा० वासुपूज्य देवचन्द्रसूरि । प्रा० ज्ञा० खेता के पुत्र टुंडा की स्त्री नातादेवी के पुत्र आल्हा ने स्वभ्रात सामंत के स्वश्रेयोर्थ. सं० १४८७ माघ पार्श्वनाथ- आगमगच्छीय- देकावाटकवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० सामंत की स्त्री गुरुदेवी शु० ५ गुरु० चोवीशी हेमरत्नहरि के पुत्र मेघराज ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ फा० आदिनाथ- तपा० लक्ष्मी- प्रा. ज्ञा० श्रे० सारंग की स्त्री चमकूदेवी के पुत्र खेतमल शु० ७ शनि० पंचतीर्थी सागरसूरि ने स्वभा० सारंगदेवी,पुत्र हंसराजादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोथ. सं० १५३३ आषाढ़ शांतिनाथ सिद्धाचार्यसंता- प्रा. ज्ञा० ) तेजमल ने स्वस्नी मनीदेवी, पुत्र रूपचन्द्र शु० २ रवि० नीय देवप्रभसूरि भा० धनीदेवी, पुत्रादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में सं० १५१२ वै० संभवनाथ तपा० हेमविमल- प्रा. ज्ञा० श्रे० सहस्रवीर ने स्वभा० अमरादेवी, पुत्र व्रजंग शु० २ शनि० सरि प्रात् मेघराज, भ्रात संघराज स्वकुटुम्ब एवं स्वश्रेयोथे. सं० १५१६ वै० विमलनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० वेलराज की स्त्री धरणदेवी के पुत्र देवरान ने स्वभा० देवलदेवी, श्राव वानर, हलू प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. जै० धा०प्र० ले० सं० भा० १ ले० ११६२, ११६२,११८७, ११६७,१२१०, ११६८,१२२६, १२२८, १२०५, १२४३, १२४६। सूरि Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] प्र० वि० संवत् सं० १४४० पौ० शु० १२ बुध० सं० १५०५ माघ शु० १० रवि ० सं० १५१६ वै० शु० ३ :: प्राग्वाट - इतिहास : प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि श्री शांतिनाथ - जिनालय में (श्री शांतिनाथजी की पोल) प्र० प्रतिमा o आचार्य अजितनाथ श्री पूर्णचन्द्रपडा- प्रा० ज्ञा० श्रे० श्रीकर्मराज की स्त्री सहजलदेवी के पुत्र लंकार हरिभद्रसूरि मदन ने स्वभा० माल्हणदेवी के सहित पिता-माता के श्रेयोर्थ. सुविधिनाथ- मलधारिगच्छीय- प्रा० ज्ञा० श्रे० नत्थमल की स्त्री रूड़ी के पुत्र डुङ्गर ने चोवीसी गुणसुन्दरसूरि भ्रातृ ० भीमचन्द्र के श्रेयोर्थ. अभिनन्दन तपा० रत्नशेखरसूरि प्रा० ज्ञा० ० ऊधरण की स्त्री वज्रदेवी के पुत्र शिवराज ने स्वभा० गउरी, भ्रातृ धर्मसिंह, मालराज पुत्र सातमण के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१६ मार्ग • सुविधिनाथ श्रीसूरि कृ० १ सं० १५२२ फा० कुन्थुनाथ शु० ३ सोम ० सं० १५२५ मार्ग० वासुपूज्य शु० १० सं० १५२७ पौ० विमलनाथ कृ० ५ शुक्र ० सं० १५४२ वै० शु० १० गुरु ० नमिनाथ अंचलगच्छीय जयकेसरिरि [ तृतीय ?? अहमदाबादवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नत्थमल की स्त्री रूड़ीदेवी के पुत्र ङ्गर के अनुज श्रे० मेघराज भा० मीणलदेवी के पुत्र पर्वत ने स्वभा० सांकूदेवी, भ्रातृ महिपति, हरपति भ्रातृजाया चमकूदेवी, अधकूदेवी, मटीदेवी पुत्र पूनसिंह, भूभच राजपाल, देवपाल, चौकसिंह, जयंतसिंह, ठाकुत्रा, मटकल, मालदेव, कीकादि कुटुम्बसहित भ्रातृ शिवराज भा० सरस्वतीदेवी के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० पासराज की स्त्री वन्हादेवी की धर्मपुत्री श्रृंगारदेवी श्राविका ने समस्त कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ मण्डपमहादुर्ग में. तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० मं० मेघराज की स्त्री मूंजीदेवी के पुत्र वदा ने सूरि स्वभा• लाली, भ्रातृ हरदास भा० धनीदेवी, भ्रातृ धरकणादि कुटुम्ब-सहित सरवण, सांरग, मांडण, पाता, ठुसादि के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० सहदेव भा० चनू के पुत्र देवराज की स्त्री देवलदेवी ने पुत्र अजा, हेमा प्रमुखकुटुम्ब के सहित. तपा० लक्ष्मीसागर - सिद्धपुर में प्रा० शा ० रामचन्द्र भा० मांजूदेवी, रघूदेवी सूरि पुत्र जागा ने स्वभा० रेईदेवी पुत्र पना, पटादि, वृद्धभाव महिराज, जीवादि कुटुम्बसहित श्रात्म एवं धांधलदेवी के श्रेयोर्थ. निजामपुर में प्रा० ज्ञा० श्रे० सहज ने स्वभा० जालूदेवी पुत्र समधर, सालिग, तेजमल, पंचायखादि - सहित. सं० १५४६ माघ कुन्थुनाथ तपा० सुमतिसाधुपूरि शु० ३ जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ० १२७७, १३१३, १३२४, १२६२, १२६०, १२७४, १२६३, १३२८, १३२६ । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरस : विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-पूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-अहमदाबाद:: [४६५ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १५६४ ज्ये. श्रेयांसनाथ उदयचंद्रसरि कड़ीवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० महिराज भा० जीविषी के पुत्र शु० १२ शुक्र० गांगा ने स्वभा० गांगादेवी,पुत्र मेला प्रमुख-कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५७६ माघ नमिनाथ तपा० कुतुबपुरिशाखीय प्राज्ञा श्रे० हरपति ने भा० ठुसीदेवी,पुत्र जाटा स्त्री रंगदेवी, शु. ५ गुरु० सौभाग्यनन्दिसरि पुत्र हंसराज भा० रत्नादेवी, द्वि० भात श्रे० वीसादि सहित. सं० १५८८ ज्ये० विमलनाथ , अहमदावादवासी प्रा०ज्ञा०श्रे० गोरा ने स्वस्त्री रखिमणीदेवी, शु०५ गुरु० पुत्र वर्द्धमान मा० मृगादेवी पुत्र खीमा भा० वछादेवी प्रमुख कुटुम्ब-सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६० वै० शीतलनाथ प्रा०ज्ञा० दो० श्रे० देवदास ने भा० रूपिणी पुत्र थावर,सापा, शु० ६ रवि० थावर भा० चंगादेवी पुत्र पासा भा० रहिदेवी-इनके श्रेयोर्थ. सं० १५६८ वै० कुन्थुनाथ सहुमालीमागच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे. शाणा ने भा० कुअरि पुत्र शिवराज स्वसा जिनकीर्तिमूरि बाई सामाई के पुण्यार्थ, भ्रातृज कीका, मांगा, रत्नपाल के श्रेयोर्थ. सं० १६६७ ज्ये. श्रेयांसनाथ तपा० विजयदानसूरि पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० सं० ठाकर भा० श्रीमाउदेवी ने. श्री अजितनाथ-जिनालय में (सुथार की खिड़की) सं० १५०५ माघ सुमतिनाथ तपा० जयचन्द्रसरि प्रा. ज्ञा० श्रे० कूपा भा० कपूरदेवी के पुत्र मूलू ने स्वभा० सीलुदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२० फा० संभवनाथ- बृ० तपा० ज्ञानसागर- अहमदाबादवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० मउलसिंह भा० वीजलकृ. ३ सोम० चोवीसी सूरि देवी के पुत्र मं० सहसा भा० मृगदेवी के पुत्र धीरा ने स्वभा० जीविणी, पुत्र तेजमल, वेजराज, भ्रात चासण मा० वाली पुत्र हर्षीसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२८ आषा० धर्मनाथ साधु०पूर्णिमा- प्राज्ञा० श्रे० देवधर भा० अमरादेवी के पुत्र महिराज ने पुत्र शु० ५ रवि० श्रीसरि भा० मकूदेवी,द्वि० भा० हीरादेवी पुत्र रथावर,वरजंग सहित. सं० १५५६ वै० चन्द्रप्रभ तपा० कमलकलश- अहमदाबादवासी प्रा. ज्ञा० सं० जिनदत्त के पुत्र सं० शु० १३ सूरि वत्सराज ने प्र० भा० डाट्टीदेवी,द्वि० भा० कदकूदेवी के सहित. सं० १५७७ ज्ये० नमिनाथ तपा० हेमविमल- सरखिजवासी प्रा० ज्ञा० नरदेव की स्त्री मचूयुदेवी, सेंघर सूरि भा० सिरियादेवी के पुत्र कसा ने स्वमा० सपूदेवी, पुत्र रीड़ादि कुटुम्बसहित. जैधा०प्र० ले०सं०भा०१ले०१२८८,१३११,१३२५,१३०२,१२७८,१३१५, १३३७,१३४८,१३५४, १३४१,१३३८। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५८० वै० शांतिनाथ रायकुमारपरि(१) बलासरवासी प्रा० ज्ञा० सेठि श्रे० नारद ने भा० डाही, पुत्र शु० २ शुक्र० सेठि हर्षराज मा० हीरादेवी पुत्र प्रांबा के सहित. श्री श्रेयांसनाथ-जिनालय में (फताशाह की पोल) सं० १४५७ वै० शांतिनाथ साधुपूर्णिमा- प्रा. ज्ञा० श्रे० खेतसिंह के पुत्र छीड़ा भा० पोमादेवी के शु० ३ शनि० धर्मतिलकसरि पुत्र भोजराज ने पितामह खेतसिंह के श्रेयोर्थ. सं० १४७२ मुनिसुव्रत तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० मं० कडादेवी की स्त्री कामलदेवी के पुत्र मूरि कन्हा ने स्वभा० महकूदेवी, पुत्र हमीर,लाला, भ्रातृ मांजा के श्रेयोथे. सं० १४८२ विमलनाथ प्रा० ज्ञा० श्रे० महिपाल की भा० हापादेवी, भा० राऊदेवी के पुत्र नरसिंह ने भा० सोनी के सहित पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५१७ वै० आदिनाथ अंचलगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० मणी. देवपाल भा० सोहासिनी के पुत्र शु० ६ शनि. जयकेसरिसूरि मणी. शिवदास ने स्वमाता के श्रेयोर्थ. सं० १५२४ नमिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर-प्रा. ज्ञा० श्रे० खेतसिंह भा० लाड़ीदेवी के पुत्र गनिश्रा, सरि अमरा, कर्मसिंह, करण, राउल, रीणा, खीमा, इनमें से कर्मसिंह ने स्वभा० अर्चदेवी,पु. लाला, लावा कुटुम्बसहित. सं० १५६५ माघ अनंतनाथ तपा० इन्द्रनंदिसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० नागराज भा० नागलदेवी के पुत्र जीवराज शु० ५ गुरु० पं० विनयहंसगणि मा० उबाई नामा ने. सं० १५८१ ज्ये० शांतिनाथ तपा० हेमविमल- राजपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० मांगराज भा० पुहतीदेवी के कृ. ६ गुरु० सरि पुत्र लटकण भा० लक्ष्मीदेवी के पुत्र लांबा ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १६६७ फा० शांतिनाथ तपा० विजयसिंह- प्रा. ज्ञा० श्रे० वीरचन्द्र भा० वयजलदेवी के पुत्र वच्छ सरि राज ने स्वभा० सतरंगदेवी, भ्रातृ गदाधर प्रमुख कुटुम्ब सहित स्वश्रेयोर्थ. ईडर के श्री कुवावाला-जिनालय में सं० १३२७ माघ नमिनाथ ......... प्रा. ज्ञा. श्रे. जसचन्द्र ने मालदेवी, कुरी के श्रेयोर्थ. शु०५ गुरु० सं० १३६४ आदिनाथ देवेन्द्रसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० साझण ने पिता पुसाराम के श्रेयोर्थ. (नागेन्द्रगच्छानुयायी) जै० धा०प्र० ले० सं०भा०१ ले०१३५५,१३७५,१३७१,१३७६, १३५७,१३८१,१३६३,१३७२,१३८२, १४२६,१४२०॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] : विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-वीरममाम :: [ ४६७ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४८३ माघ चन्द्रप्रभ तपा० सोमसुन्दरसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० परमा की स्त्री सारु के पुत्र गीनाने स्वभा० शु० १० बुध. अमकुसहित स्वश्रेयोर्थ.. सं० १४६१ आषाढ़ अभिनन्दन डीसाग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० पाल्हा भार्या हिमी, अंबु पुत्र चोवीशी हरपति ने भा० प्रामु, भ्रात धरणा आदि कुटुम्बसहित. सं० १५०० ज्ये० पद्मप्रभ कच्छोलीडागच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० धारसिंह ने भा० साहुदेवी, पुत्र काहा भा० कृ० १२ गुरु० सकलचंद्रसरि कामलदेवी पुत्र बाहु, वाल्हा, हीदा के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ पौ० अजितनाथ साधूपूनमिया प्रा० ज्ञा० श्रे० डो० वाहड़ भा० कर्मणी के पुत्र हीरा की शु० १५ गुरु० श्रीसूरि स्त्री हांसलदेवी के पुत्र डो० पर्वत ने पितृव्य के श्रेयोर्थ. सं० १५३३ चौ० चन्द्रप्रभ नागेन्द्रगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० तेजमल भा० पोमीदेवी के पुत्र जावड़, कु० २ गुरु० सोमरत्नसरि जगा ने पिता-माता, पुत्र देहलादि, मित्र एवं स्वश्रेयोर्थ. पोसीना के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १३०२ वै० पार्श्वनाथ नागेन्द्रगच्छीय चांगवासी प्रा० झा० श्रे० वरसिंह ने पिता वस्तुपाल शु० १० श्रीयशो'... "सरि और माता मूलदेवी के श्रेयोर्थ. सं० १४८१ माघ श्रेयांसनाथ तपा० सोमसुन्दरसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० लाखा भा० सुल्ही के पुत्र मोकल ने स्वभा० शु०१० पाविदेवी के सहित श्री. उद्यापन के शुभावसर पर. सं० १६७८ ज्ये० शांतिनाथ विजयदेवेन्द्रसरि शावलीवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० नाना के पुत्र हंसराज ने. क० ६ सोम० पाषाण-प्रतिमा वीरमग्राम के श्री संखेश्वर-पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १३३४ ज्ये० श्रेयांसनाथ द्विवंदनीकगच्छीय वीशलनगरवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० वरसिंह के पुत्र सालिग कृ० २ सोम० - सिद्धमूरि भा० साडूदेवी के पुत्र देवराज ने स्वमा० रलाईदेवी, भ्रा. वानर, अमरसिंहादि के सहित. सं० १५०० वै० वर्धमान श्रीमरि प्रा० ज्ञा० सं० उदयसिंह भा० चांपलदेवी पु० सं० नाथा मा० कड़ी ने पुत्र समधर, श्रीधर, आसधर, देवदत्त, पुत्री कपूरी, कीबाई, पूरी आदि कुटम्ब-सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० कुन्थुनाथ चित्रवालगच्छीय प्रा. ज्ञा० श्रे० कर्मण भा० कपूरी के पुत्र कड़ा ने भा० कृ. ४ गुरु. ___रत्नदेवसरि मानदेवी, पुत्र धर्मसिंह भा० बडु आदि कुटुम्बसहित. जै० घा०प्र० ले० सं० भा० १ ले० १४२६, १४१६, १४२८, १४३१, १४४३, १४७६, १४८२, १४८४, ११५१, १५०६,१५०५। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८] प्राग्वाट-इतिहास: [तीय श्री आदिनाथ-कुलिका में (मणिया का पाड़ा) प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४५२ वै० पार्श्वनाथ जेरंडगच्छीय प्रा० ज्ञा० उ० सीधण भा० सीमारदेवी, पितृव्य इङ्गरसिंह, गु० ३ शुक्र० विजयसिंहसरि भ्रात, मातृ श्रेयोर्थ ठ० चाणक पासड़ ने. सं० १४६४ ज्ये० नमिनाथ- पूर्णिमा० प्रा० ज्ञा० श्रे० महिपाल भा० देवमती पुत्र चदुद्य(१) भा० शु० १० सोम० चोवीशी सर्वाणंदसरि गदी के पुत्र कर्मण धर्मा ने पिता-माता के श्रेयोर्थ.-- पादरा के श्री शान्तिनाथ-जिनालय में सं० १५०३ माघ सुपार्श्वनाथ- जयचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा० सं० लूणा के पुत्र सं० शोभा के पुत्र सं० सिंघा कृ० २ गुरु. चोवीसी भा० गौरादेवी के पुत्र सं० सहदेव ने स्वभा० मदनदेवी, वीरमदेवी प्रमुख कुटुम्बसहित पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १५५६ वै० अभिनन्दन- आगमगच्छीय गंधारवासी पेथड़सन्तानीय प्रा. ज्ञा० श्रे० मंडलीक के पुत्र शु० २ चोवीसी विवेकरत्नसूरि ढाईमा भा० मणकादेवी के पुत्र नरनद ने स्वभा० हर्षादेवी पु. भास्वर प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री सम्भवनाथ-जिनालय में सं० १४३० आषा० शांतिनाथ- चित्रभ० धर्मचन्द्र- सौराष्ट्रप्राग्वाट ज्ञा० ०० पेथा के पुत्र ठा० धाठ के पुत्र शु० ६ शुक्र० पंचतीर्थी सूरि सामल ने. दरापुरा के श्री जिनालय में सं० १३८६ वै० शान्तिनाथ श्री मेरुतुजसरि प्रा० ज्ञा० ठ० राजड़ की भा० राजलदेवी के श्रेयोर्थ उसके शु० २ शनि० शाखीय "प्रभसरि पुत्र नोहण ने. बड़ोदा के श्री कल्याणपार्श्वनाथ-जिनालय में (माया की पोल) सं० १५१५ ज्ये० शान्तिनाथ तपा० रत्नशेखर- गुणवाटकवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० भीमराज की स्त्री भावलदेवी शु०५ परि के पुत्र लींबा ने स्वभा० लींबीदेवी, पु० वरसिंहादिसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१८ ज्ये० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० म० मोइश्रा भा० झवकूदेवी के पु० म० हरपति कृ० १० परि की स्त्री माधूदेवी ने पु० जूठा, सारंग,जोगादि कुटुम्बसहित पु० रामदास के श्रेयोर्थ. सं० १५२६ फा० सुविधिनाथ प्रा० ज्ञा० म० देवचन्द्र भा० झबकूदेवी के पु० पोपट ने कु०३ सोम० भा० मानूदेवी, पु० कण्हा(?) के सहित स्वश्रेयोर्थ. जैधा०प्र०ले०सं०भा०१ ले०१५५१,१५२२। जै०धा०प्र०ले०सं०भा०२ ले०३,८,१४,२०, ३३,३१,३६, Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wa] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-पूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र-बड़ोदा : [४६ श्री महावीर-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० झा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४४५ का. पार्श्वनाथ श्रीसरि प्रा. ज्ञा० महं० सलखण की स्त्री सलखणदेवी के पुत्र कृ० ११ रवि० ___ मं० भादा ने स्वश्रेयोथ. सं० १४६८ वै० शान्तिनाथ , प्रा. ज्ञा० मं० सामन्त की स्त्री ऊमलदेवी के पु० मं० शु० ३ बुध० धर्मसिंह की स्त्री धर्मादेवी के पुत्र मं० राउल बड़ा ने. सं० १५०५ आदिनाथ तपा० जयचन्द्र- प्रा. ज्ञा० श्रे० सांगा की स्त्री श्रृंगारदेवी के पुत्र शिवराज सूरि की स्त्री श्रे० दूदा देवलदेवी की पुत्री धरपू ने पुत्र नाथा के श्रेयोर्थ. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में (कोठीपोल) सं० १४२६ ज्ये० पार्श्वनाथ- श्रीरत्नाकरमरिपट्टधर प्रा० ज्ञा० श्रे० कोका की स्त्री राजलदेवी के पौत्र तिहुण कृ. चोवीशी हेमचन्द्रसरि देवी के पुत्र अमीपाल ने. सं० १५०४ माघ कुन्थुनाथ तपा० जयचन्द्रसूरि वीरमग्रामवासी प्रा०ज्ञा० सं० गेला की स्त्री धारु के पुत्र सं० शु० १३ गुरु० सलखा ने स्वभा कर्मणी, पुत्र धर्मसिंह,नारदादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५३ माष चन्द्रप्रभ अंचलगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० हरदास की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र वर्द्धमान शु० १ बुध. सिद्धान्तसागरपरि की भा० चांपलदेवी के पुत्र श्रे० वीरपाल सुश्रावक ने भा० विमलादेवी, लघुभ्रात मांका सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री मनमोहन-पार्श्वनाथ-जिनालय में (पटोलीआपोल) सं० १२५६ वै० पार्श्वनाथ प्रद्युम्नसरि प्रा. ना. श्रे० कुणपाल ने पिता राणक के श्रेयोर्थ. सं० १४०८ आषाढ़ अजितनाथ तपा० जयशेखर- प्रा. ज्ञा० श्रे० इङ्गर की स्त्री हीरादेवी के पु० वेलराज ने कृ०५ गुरु० सरि स्वभा० वीजलदेवी के सहित माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४७१ माघ मुनिसुव्रत- अंचलगच्छीय प्रा. ज्ञा० दोणशाखीय श्रे० ठ० सोला पु० ठ० खीमा शु० १० शनि० चोवीशी महितिलकसरि पु० ठ० उदयसिंह पु० ठ० लड़ा स्त्री हकूदेवी के पुत्र श्रे. झांबट ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४८८ वै० मल्लिनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा के पुत्र रामचन्द्र, खीमचन्द्र, प्रात मास में सरि मामा की स्त्री जीविणी नामा ने स्वपति के श्रेयोर्थ. जै० धा०प्र० ले० सं० भा० २ ले. ४०, ४३,४६, ५२, ५३, ६१,७२,८८, ६२,८६ । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] प्र० वि० संवत् शु० १३ सं० १५०३ प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १४६६ का० शु० १२ सोम ० प्रा० ज्ञा० ० सोला के पुत्र खीमा के पुत्र उदयसिंह के पुत्र लड़ा के पु० झांबट भा० माल्हदेवी पु० पारा, सापहि (?) राजा ने. सं० १५१२ महावीर तपा० रत्नशेखरसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० खीमचन्द्र की स्त्री जासूदेवी के पुत्र नारद स्वभार्या कुंरि के सहित स्वपिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १५७७ ज्ये० आदिनाथ तपा० हेमविमलसूरि प्रा०ज्ञा० दो० श्रे० वत्सराज ने भा० राजति, पुत्र सीपा, श्रीराज, शु० ५ शनि ० श्रीरंग, शाणा, शिव प्रमुखकुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री आदीश्वर - जिनालय में सं० १५०४ माघ शु० ६ गुरु० : प्राग्वाट - इतिहास : प्र० प्रतिमा सुमतिनाथ अंचलगच्छीय जयकीर्त्तिरि प्र० श्राचार्य सं० १४०८ सं० १३५६ माघ मल्लिनाथ शांतिप्रभसूरि शु० ६ बुध० सं० १३७३ वै० शांतिनाथ • चंद्रसूरि अभिनन्दन तपा० जयचंद्रसूरि प्रा० ज्ञा० लाखा की स्त्री लहकूदेवी के पुत्र धरणा ने स्वभा० शाणी पु० कुरपाल, नरपालादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ, प्रा० ज्ञा० ० हादा की भार्या हांसलदेवी के पुत्र कडूआ, रामसिंह, लालचन्द्र, इनमें से लालचन्द्र ने पिता-माता, पितृव्य चूड़ा के श्रेयोर्थ. पार्श्वनाथ साधुपूर्णिमा - रामचन्द्रसूरि आदिनाथ महावीर [ तृतीय सं० १५१७ माघ शांतिनाथ तपा० रत्नशेखरसूरि पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० पाल्हा की स्त्री वरजूदेवी, क्र० ८ सोम ० कुतिगदेवी, वरजूदेवी के पु० वासण ने स्वभा० अमरादेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री दादा-पार्श्वनाथ जिनालय में (नरसिंहजी की पोल ) प्रा० ज्ञा० ० दयाल के पुत्र ठ० जोगी ठ० धरणा ने भ्राता ठ० सरस के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० पोल (?) की स्त्री देवमती के पुत्र राणा ने. सं० १४८६ तपा० सोमसुन्दर सूरि नं. १५२० मार्ग० सुमतिनाथ अंचलगच्छीयशु० ६ शनि ० जयकेसरिसूरि प्रा०ज्ञा० महं० धरणिग भा० सुहागदेवी के श्रेयोर्थ पुत्र जसादा ने इन सर्वजनों के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मसिंह की स्त्री. कर्मादेवी के पुत्र वरसिंह ने स्वभा० सूदेवी, पुत्र भादादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० मं० राउल की स्त्री फालू के पुत्र नारद की स्त्री म श्राविका ने पुत्र पहिराज, त्रंबकदास के सहित स्वपति के श्रेयोर्थ. जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ७१, ६६, ६०, ११०, १११, १०३, १०५, ११७, १४१, १३५, १३७ । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०वा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर- काठियावाड़ और सौराष्ट्र-बड़ोदा : | Y श्री श्रादीश्वर - जिनालय में ( जानीसेरी ) प्र० श्राचार्य प्र० वि० संवत् सं० १३८६ माघ कृ० २ सोम ० सं० १५११ ज्ये० पार्श्वनाथ तपा० रत्नशेखर कृ० १३ सूरि सं० १५२१ ज्ये० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मीशु० ४ सागरसूरि सं० १५३२ वै० शु० ३ सं० १५१३ वै० शु० १० सं० १६७८ आश्वि० कृ० १४ गुरु० सं० १३३८ चै० कृ० २ शुक्र ० सं० १४०१ वै० कृ० ३ बुध० सं० १४८० ज्ये० शु० ५ सं० १५१५ वै० शु० १३ प्र० प्रतिमा शांतिनाथ चैत्रगच्छीय मानदेवसूरि आदिनाथ तपा० लक्ष्मी सागरसूरि नमिनाथ तपा० रत्नशेखरसूरि ऋषिमंडल उपाध्याय यंत्र चन्द्रप्रभ श्री चिंतामणि- पार्श्वनाथ - जिनालय में (पीपलासेरी) विजयराजगणि पार्श्वनाथ उपाध्याय - वयरसे पार्श्वनाथ माणिक्यसूरि प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० मं० लूणा के श्रेयोर्थ उसके पुत्र नागपाल, धनपाल ने. तपा० सोमसुन्दर सूरि विमलनाथ तपा० रत्नशेखर सूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० देदा की स्त्री रयणीदेवी के पुत्र बहुआ की स्त्री चाईदेवी नामा ने स्वभ्रातृ जावड़ के श्रेयोर्थ. मंडपदुर्ग में प्रा० ज्ञा० मं० कडूआ की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र मं० माधव की स्त्री फदू के पुत्र संग्राम ने स्वभा० पद्मावती, पुत्र सायर, रयण, आयर आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० कडूआ की स्त्री वाळूदेवी के पुत्र हरपाल ने स्वभा० हीरादेवी, पुत्र जीवराज, जयसिंह कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० लूगा की स्त्री लूणादेवी के पुत्र खीमचन्द्र ने स्वभा० खेदेवी, श्रे० जीणादि कुटुम्ब के सहित. श्री नेमिनाथ- जिनालय में (महेतापोल ) प्रा० ज्ञा० दो० ० नानजी पुत्र दवजी भा० श्रासबाई के पुत्र प्राग्वाटवंशभूषण केशवजी ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० वयरसिंह के पुत्र श्रे० लूणसिंह के श्रेयोर्थ उसके पुत्र साजण, तिजण ने. प्रा० ज्ञा० श्रे० आंबड़ की स्त्री आल्हणदेवी ने पुत्र जड़ा के सहित पिता तथा माता नर्मदा के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० सहजा की स्त्री जाणीदेवी के पुत्र चांपा ने स्वभा• 'चांपलदेवी के श्रेयोर्थ पुत्र उधरण के साहित. प्रा० ज्ञा० मं० महिराज भा० वर्ज के पुत्र मं० भांबराज, नागराज ने भा० संपूरीदेवी, सुहासिणिदेवी के सहित स्वमाता के श्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० १५०, १५५, १४६, १५१, १६२, १६७, १८२, १७६, १६८ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रान्बाट-इतिहास: [तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० झा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२३ वै० श्रेयांसनाथ तपा० लक्ष्मी- ओड़ग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० माईआ भा० मेचूदेवी के कु०४ गुरु० सागरसूरि पुत्र नाथा ने स्वभा० नामलदेवी, पुत्र नाकर, धनराजादि सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री चन्द्रप्रभ-जिनालय में (सुलतानपुरा) सं० १४८६ वै० मुनिसुव्रत तपा० सोमसुन्दर- आसापोपटवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० लूणा ने भा० कामलदेवी शु० १० बुध. सरि पुत्र खीमसिंह भा० देऊसहित. सं० १५१६ वै. शान्तिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर. मंटोडावासी प्रा० ज्ञा० को० भीला की स्त्री इसी के पुत्र शु०११ सरि लुभा ने भा० मृगदेवी, भ्रात कड़ा, राजादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५५४ फा० आदिनाथ उदयसागरपरि प्रा० ज्ञा० श्रे० प्रताप मुता, श्रे० सहिसा ने. श्री शीतलनाथ जिनालय में (नवीपोल) सं० १५३६ ज्ये० आदिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- राजपुर में प्रा० शा० मेघराज की स्त्री संपूरीदेवी के पुत्र शु. ११ सूरि हरदास ने स्वभा० हीरादेवी, पुत्र वर्द्धमान, वृद्धिचन्द, भगिनी नेतादेवी, भ्रातृ श्रे० खीमराज, पर्वत, भीमराजादिसहित भ्रातृश्रीधर के श्रेयोर्थ. से० १५४८ वै० पार्श्वनाथ गुणसुन्दरमरि प्रा. ज्ञा० श्रे० चांदमल के पुत्रगण सोमचन्द्र, लघुचन्द्र, शु१० सोम० छोटमल के पुत्र गटा माधव ने पूर्वपूर्वजों के श्रेयोर्थ. श्री गौड़ीपार्श्वनाथ-जिनालय में (बाबाजीपुरा में देरापोल) सं० १६३२ माघ सुमतिनाथ तपा० हीरविजय- प्रा. ज्ञा० श्रे० सहस्रकिरण की स्त्री सौभाग्यदेवी की पुत्री शु० १० बुध. सरि ___ जीवादेवी ने स्वश्रेयोर्थ. श्रे० गरबड़दास वीरचन्द्र घीया के गृह-जिनालय में सं० १२६४ वै० आदिनाथ श्रीसरि प्रा. ज्ञा० श्रे० धरणिग की स्त्री नागलदेवी के पुत्र ने ७ शनि० माता-पिता के श्रेयोर्थ. . श्रे० फूलचन्द्र डाह्याभाई के गृहजिनालय में सं० १५८४ चै० जिनविंव बृहत्तपा० सौभाग्य- वीसनगरवासी प्रा० ज्ञा. श्रे. जीवराज की स्त्री टमकूदेवी २०५ गुरु० सागरसरि के पुत्र सीपा ने स्वभा० वीरादेवी,पुत्र पया, लहुश्रा, पूजा, सामल, वयजा, पौत्र वरसिंह, वासण प्रमुख कुटुम्बसहित. जै० पा०प्र० ले० सं० भा०२ ले०१७८,१२,१४,१६०,२०६,२०८,२१५, २३०,२३४ । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें – गूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र- छायापुरी :: [ ४७३ हिन्दविजय मुद्रणालयवालों के गृहजिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १६४४ ज्ये० शु० १२ सोम ० शांतिनाथ ० लीलाभाई रायचन्द्र के गृहजिनालय में सं० १५२५ मार्ग अजितनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० मं० चांपा भा० चांपलदेवी के पुत्र मं० साईश्र भा० सहजलदेवी, वइजलदेवी, पुत्र हेमराज, धनराजादि के सहित माता के श्रेयोर्थ. शु० १० सं० १६३२ माघ श्रेयांसनाथ तपा० हीरविजय सूर मुनिसुव्रत शु० १० बुध ० सं० १६४४ ज्ये० शु० १२ सोम ० सं० १६८३ फा० कृ० ४ शनि ० सं० १४८६ वै० शु० १० बुध ० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि तपा० विजयसेनसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० जसवीर की स्त्री कीकी के पुत्र धनराज ने. सं० १५२१ ज्ये० शांतिनाथ शु० ४ सं० १५२६ विमलनाथ तपा० विजयसेन सूरि ० मोतीलाल हर्षचन्द्र के गृहजिनालय में सुविधिनाथ तपा० विजयाणंद- जंबूसरवासी प्रा० ज्ञा० ० वोरा उदयकरण भा० ऊभूरिदेवी सूरि पुत्र शान्तिदास ने. के छायापुरी (वाणी) के श्री शांतिनाथ - जिनालय में विमलनाथ - तपा० सोमसुन्दरसूरि प्रा० ज्ञा० ० सरवण की स्त्री सुहवदेवी के पुत्र देदराज पंचतीर्थी ने स्वभा० जासूदेवी, पुत्र लक्ष्मण, अमरसिंह, समधर, धनराजादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. मंडपदुर्ग में प्रा० ज्ञा० सं० अर्जुन की स्त्री टबकूदेवी के पुत्र सं० वस्तीमल की स्त्री रामादेवी के पुत्र चांदमल की स्त्री जी विणी ने स्वपुत्र लांबराज, आकराजादि कुटुम्ब - सहित स्वश्रेयोर्थ. अहमदाबादवासी प्रा० ज्ञा० ० हंसराज ने भा० हांसल - देवी, पुत्री रत्नादेवी एवं स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० जसवीर की स्त्री कीकी के पुत्र कुँवरजी ने. तपा० लक्ष्मीसागर- जयंतपुर में प्रा०ज्ञा० ० तिहुणसिंह की स्त्री करणदेवी के पु० मनोहरसिंह ने स्वभा० चमकूदेवी, पुत्र वरसिंह, पितृव्य मुहणसिंह, लखराजादि के सहित. सूरि जे धा० पु० ले० सं० भा० २ ० २४२, २५२, २५०, २५१, २५४, २६३, २५७, २६४ । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय मीयाग्राम के श्री मनमोहन-पार्श्वनाथ-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्टि सं० १४८१ माघ शांतिनाथ श्रीमरि प्रा. ज्ञा० श्रे० खेतसिंह की खी खेतलदेवी के पुत्र देदल की स्त्री हमीरदेवी के पुत्र खोखराज की स्त्री प्रीमलदेवी के पुत्र सं० सादा की स्त्री सलखणदेवी के पुत्र सं० मुंभुव की स्त्री कर्मादेवी ने स्वश्रेयोर्थ. श्री संभवनाथ-जिनालय में सं० १४७६(८)माघ शांतिनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० पं० महणसिंह ने स्वस्त्री रूपलदेवी, पुत्र पं० शु०७ शुक्र० परि धरणा, गदा, सोभ्रमा(१) माता-पिता के श्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में सं० १४२३ फा० आदिनाथ गुणभद्रसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० झाटा स्त्री लक्ष्मीदेवी, पितृव्य वीक्रम, रावण, भ्रातृ बहुत्रड़ के श्रेयोर्थ श्रे० सीहड़ ने. भरूच के श्री आदिनाथ-जिनालय में सं० १५७८ माघ धर्मनाथ- आगमगच्छीय गंधारवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० डङ्गर के पुत्र श्रे० कान्हा ने क. ५ गुरु० चतुर्मुखा विवेकरत्नसूरि स्वभा० खोखी, मेलादेवी, पुत्र वस्तुपाल आदि के सहित मेलादेवी के प्रमोदार्थ. श्री अनंतनाथ जिनालय में सं० १५२५ वै० धर्मनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० नाथा की स्त्री खेतूदेवी के पुत्र जूठा ने कृ० १० शनि० सरि स्वभा० लाड़ीदेवी, भ्रातृ शाणा, वासण, माइआ प्रमुख . कुटुम्व-सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री पार्श्वनाथ जिनालय में सं० १५०८ चै० चन्द्रप्रभ आगमगच्छीय प्रा. ज्ञा० म० देवा की भार्या देवलदेवी के पुत्र प्रासराज __ शु० १३ रवि. श्रीसिंहदत्तसरि की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र मं० जूठा शाणा ने.. सं० १५१५ फा० कुन्धुनाथ वृद्धतपा० प्रा०ज्ञा० म० मोखा ने भा. माणिकदेवी, पुत्र भीमराज शु० ह रवि० श्रीजिनरत्नसरि मा० चंगादेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२६ आषाढ़ मुनिसुव्रत तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० सं० लखा, सं० गुणिमा पुत्र वीरचन्द्र मा० शु० २ सोम० सूरि नाथीदेवी के देवर सं० कालू ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३३ माघ संभवनाथ भागमगच्छीय पेथड़संतानीय प्रा० शा० श्रे० हरराज पुत्र गुणीमा मा० शु० ५ रवि० देवरत्नसरि लालीदेवी पुत्र भूपति, वस्तीमल, देवपाल, सहजपाल की स्त्री देवमति ने स्वश्रेयोर्थ एवं स्वपति के श्रेयोर्थ. बै० चा०प्र०ले०सं०भा०२ ले०२७२,२८, २९, २६४, ३०, ३१५, ३१४, ३०६, ३०८। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राज्ञा सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-सीनोर :: [४७५ श्री मुनिसुव्रतस्वामि-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४८८ ज्ये० शीतलनाथ- तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० परी० श्रे० कड़ा भा० रूपिणी के पुत्र शिवराज शु० ५ पंचतीर्थी सरि ने स्वमाता के श्रेयोर्थ. सं० १५०८ वै० अभिनंदन तपा०रत्नशेखरसूरि जंहरवारवासी प्रा० ज्ञा० ० खेता भा० खेतलदेवी के पुत्र शु०३ वजयराज की भा० जयतूदेवी के पुत्र हरपति ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०६ वै० कुन्थुनाथ- आगमगच्छीय- भृगुकच्छवासी प्रा०ज्ञा०४० कमलसिंह ने स्वस्त्री कमलादेवी, क०५शनि० चोवीशी देवरत्नसरि पुत्र हरिजन भा० रंगदेवी प्रमुख कुटुम्बसहित माता-पिता और स्वश्रेयोर्थ. सं० १६२२ माघ अनंतनाथ तपा० हीरविजय- भृगुकच्छवासी प्रा०ज्ञा० दो० लाला ने भा० वच्छीबाई,पुत्र कु० २ बुध. सरि कीका के सहित. द्वि० श्री मुनिसुव्रतस्वामि-जिनालय में सं० १५६५ माघ पार्श्वनाथ तपा० विजयदान- प्रा० ज्ञा० श्रे० हिगु, नाना, धीना, धर्मसिंह, भातृजाया, शु० १२ शुक्र० सूरि कीलाई ने. श्री आदिनाथ-जिनालय में (वेजलपुरा ) सं० १५०३ सुमतिनाथ तपा० जयचन्द्र- प्रा०ज्ञा० मं० सायर की स्त्री कपूरी के पुत्र मं० महणसिंह ने सरि स्वभा० वर्जुदेवी, पुत्र खेतादि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१३ वै० धर्मनाथ- आगमगच्छीय- गंधारवासी पेथड़संतानीय प्रा० ज्ञा० श्रे० हरराज की स्त्री शु० १० बुध० चोवीशी देवरत्नसरि हीरादेवी के पुत्र गुणीश्रा ने भा० लालीदेवी, पुत्र भूपति, वस्तीमल,देवपाल, सहजपाल आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० नमिनाथ तपा० लक्ष्मी- सीहुँजग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० झाला मा० मेघदेवी के पुत्र शु० ३ शनि० - सागरमरि श्रे० काला ने स्वभा० हचीदेवी,पुत्र करण, वता(?), वीछा, गांगा आदि कुटुम्बसहित स्वपितृव्य भूणपाल के श्रेयोर्थ. सिनोर के श्री अजितनाथ-जिनालय में सं० १५४२ फा० विमलनाथ तपा० लक्ष्मी. देवासिनगरनिवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० देवसिंह भा० गुरीदेवी कु. ८ शनि० . सारगरि के पुत्र आसराज भा० धाईबाई के पुत्र सं० वचराज ने स्वभा० माणकदेवी, पुत्री नाथी प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. जै० धा०प्र० ले०सं०मा०२ ले०३२८, ३२६,१३१,३३३,३५४, ३५८,३५५, ३५७, ३६६। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] प्र० वि० संवत् सं० १५१२ सं० १५१८ ज्ये० शु० ६ बुध० सं० १५२० गार्ग० कृ० ५ गुरु० सं० १५३० माघ कृ० २ शुक्र० सं० १५२२ फा० मुनिसुव्रत तपा० लक्ष्मीशु० १० सागरसूरि सं० १५५२ ज्ये० शु० १३ बुध० प्र० प्रतिमा प्र० श्राचार्य सं० १५२१ माघ शु० १३ गुरु० शांतिनाथ तपा० रत्नशेखरमूरि सं० १५२७ ज्ये० नमिनाथ कृ० :: प्रास्वाद - इतिहास ; नआिद के श्री आदिनाथ - जिनालय में आदिनाथ चोवीसी श्रेयांसनाथ श्री अजितनाथ - जिनालय में खेड़ा के श्री आदिनाथ - जिनालय में ( प रा ) सुमतिनाथ - तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० ० खेतसिंह ने भा० साधुदेवी, पुत्र मदा भा० पंचतीर्थी मणिकदेवी पुत्र जीवराज, भ्रातृ वालचन्द्र आदि कुटुम्बसहित. सूरि आदिनाथ 11 प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० ० झांझण की स्त्री जसूदेवी के पुत्र रत्नचन्द्र भा० रत्नादेवी के पुत्र लाखा सलखा ने भा० लक्ष्मीदेवी, पुत्र सराजादिसहित. 19 11 [ तृतीय सीहुजग्राम में प्रा० ज्ञा० ० अर्जुन भा० तेजूदेवी के पुत्र नाभराज ने भा० चांददेवी, पुत्र धनराज, भ्रातृ जक्कु, कामता (१) पुत्र भोली आदि सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० दुदा की स्त्री देवलदेवी के पुत्र श्रे० हरदास ने स्वभा० देवमति, पुत्र देव, दावट, सूरादि कुटुम्ब - सहित स्वश्रेयोर्थ. कर्करानगर में प्रा० ज्ञा० सं० मोकल की स्त्री जाणी के पुत्र सं० कर्मसिंह ने स्वभा० रमकूदेवी, पुत्र सं० थिरपाल भा० वाल्ही प्रमुखकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. गोवूवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० राणा ने स्त्री शाणीदेवी, पुत्र नागराज भा० रूड़ीदेवी पुत्र आसराज कुटुम्ब - सहित स्वश्रेयोर्थ. पीपल० देवप्रभ- प्रा० ज्ञा० अंबाईगोत्रीय मं० वीढ़ा ने भा० शाणी पुत्र पदा, गदा, देवा आदि के पुण्यार्थ. सूर श्री मुनिसुव्रतस्वामि- जिनालय में (लांबीसेरी) शीतलनाथ तपा० लक्ष्मीसागर - अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० दो० ० सापल भा० आसूदेवी के पुत्र धीगा ने स्वभा० भरमा, पुत्र सधारण, नाथा, तागादि कुटुम्ब - सहित माता के श्रेयोर्थ. सूरि ० घा० प्र० ले० सं० मा० २ ले० ३८६, ३६४, ४१५, ४०८, ४२५, ४१६, ४१३. ४२८ । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खस] : विभिन्न प्रान्तों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाये-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-मातर :: [४७ मातर के श्री सुमतिनाथ-प्रमुख-बावन-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४११ ज्ये० आदिनाथ श्रीमाणदेवसरि प्रा०ज्ञा० दो० लोला भा० फुरदेवी दोनों के श्रेयोर्थ भाका ने. शु० १२ शनि० (मड़ाहड़) सं० १४२४ वै० महावीर देवचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा० पिता देला,माता लाछि के श्रेयोर्थ सुत नरदेव ने. शु० २ बुध० सं० १४३८ ज्ये० धर्मनाथ - मलयचंद्रसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० मोखट भा० सोमलदेवी के पुत्र झांझप ने कृ० ४ शनि० पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १४७१ माघ शांतिनाथ तपा० सोमसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० सांगा भा० ऊमल के पुत्र लींबा ने स्व सूरि पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १४८० वै० सम्भवनाथ गुणाकरमरि प्रा० ज्ञा० महं० पूनमचन्द्र भा० पूरीदेवी के पुत्र पान्हा ने कृ. ७ शुक्र० माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १४६६ प्रा० मुनिसुव्रत तपा० मुनिसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० सांगण भा० सदी के पुत्र खेतमल ने भा० शु०१० परिवाछा अपरनामा काऊदेवी,पुत्र वस्तीमल, वाघमलादिसहित भ्रा० हकू के श्रेयोथे. सं० १५०५ वै० सम्भवनाथ तपा० जयचन्द्रसूरि प्रा. ज्ञा. श्रे. नरसिंह भा० पूरीदेवी के पुत्र सदा ने भा० शु० ३ रूपिणीदेवी, पुत्र हेमराज, गणीश्रा आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०५ पौ० मुनिसुव्रत , प्रा० ज्ञा० श्रे० महण भा० भर्मीदेवी के पुत्र कर्मराज ने शु. १५ भा० गुरीदेवी, कुन्तीदेवी, पुत्र वस्तीमल, हंसराजादिसहित. सं० १५१५ माघ अजितनाथ पूर्णिमा०प० प्रा० ज्ञा० परी० श्रे० गदा ने भा० वाछू पुत्र हीरा भा० जयशेखरसूरि हीरादेवी के तथा पिता-माता के श्रेयोर्थ एवं स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२२ पौ० वासुपूज्य द्विवंदनीक ग. लोड़ाग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० धनराज भा० मेचूदेवी के पुत्र शु० १३ सिद्धसरि वाला ने स्वभा० साधुदेवी, पुत्र जीवराजसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० सुमतिनाथ तपा०लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० भोजराज की स्त्री हीरादेवी की पुत्री मान सरि देवी (श्रे० नरसार पुत्र हीरा की स्त्री) ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ मार्ग• शीतलनाथ तपा०लक्ष्मीसागर- कौदरवग्राम में प्रा. ज्ञा० म० मंडन की स्त्री भासदेवी के शु० १० शुक्र. सरि पुत्र सोलराज ने भा० माणिकदेवी, पुत्र भचा,तेजादि सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा०२ ले०४६०, ४६६,५२६,५००, ५२२, ४६४,४८२, ४८, ४७६, ४ER, ४१६, ४७८। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८] प्राग्वाट-इतिहास: [ तृतीय प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२७ पौ० कुन्थुनाथ बृ० तपा०जिनरत्न- प्रा. ज्ञा० श्राविका धाईदेवी के पति ने पुत्र अमीपालसहित कृ. १ सोम० सरि पिता-माता के श्रेयोर्थ. सं० १५३१ माघ श्रेयांसनाथ द्विवंदनीक ग० प्रा० ज्ञा० म० मंडलिक ने भा० डाहीदेवी, पुत्र वरसिंह क०८ सोम सिटसरि भावजलोतीति सं० १५४६ मा० आदिनाथ तपा० सुमतिसाधु- आशापल्लीय प्रा० ज्ञा० श्रे० सापा भा० गिरमृदेवी की शु० ३ शनि० सरि पुत्री नाथी ने स्वमाता के श्रेयोर्थ. सं० १५५४ फा० विमलनाथ आगमगच्छीय प्रा० ज्ञा० पेथड़सन्तानीय श्रे० भूपति की स्त्री साधुदेवी विवेकरनसरि की पुत्री पतू नामा ने भ्रात सचवीर ढादिकुटुम्ब-सहित स्वश्रेयोर्थ. खंभात (श्री स्तम्भतीर्थ) के श्री चिंतामणि-पार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १५४७ वै० अम्बिकामूर्ति सुमतिसाधुसरि गंधारवासी प्रा० ज्ञा० महिराज की स्त्री रूड़ीदेवी के पुत्र शु० ३ सोम० पासवीर ने स्वभा० पूरीदेवी स्वकुटुम्ब सहित. सं० १६१२ वै० चन्द्रप्रभ विजयदानसरि जंबूसरग्रामवासी प्रा० ज्ञा० श्राविका दूना की पुत्री चंगाशु० २ देवी के पुत्र बेगड़ ने. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में (आरीपाड़ा) सं० १५०७फा० कुन्थुनाथ- श्रीसरि तईरवाड़ावासी प्रा०ज्ञा०श्रे० कड़ा की स्त्री कमलादेवी के चोवीशी पुत्र इना ने स्वभा० आल्हणदेवी, पुत्री राजूदेवी कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५१७ ज्ये. सुमतिनाथ वृ. ग. सत्यपुरी- झायणाग्राम में प्रा० ज्ञा० पारि० भादा ने स्त्री माकूदेवी, शु० ५ गुरु० (जीवित) पासचन्द्रसरि पु० जीवराज, मूलचन्द्र के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६५ वै० संभवनाथ तपा० हेमविमलसरि वटपद्रवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० गजराज की स्त्री जीविणी के शु० ३ रवि० पुत्र श्रे० लक्ष्मण ने पितृस्वसा श्रा० देमादेवी के श्रेयोर्थ. सं०१५६१ वै० अनन्तनाथ अंचलग० गंधारवासी प्रा. ना. श्रे. लक्ष्मण की स्त्री श्रे० पर्वत ०६ शुक्र० गुणनिधानसरि की पुत्री श्रा० झकू नामा ने पु० धर्मसिंह, अमीचन्द्र प्रमुखकुटुम्ब के सहित. सं० १६०४ वै. धर्मनाथ ......... प्रा० ज्ञा० श्रे० वीरजी की स्त्री गौरीदेवी के पुत्र जयराज, ७ सोम. जीवण ने. जै० घा० प्र० ले० सं० मा०२ ले०५०१, ५०६, ४८१,४६६, ५५३, ५४४, ५७४, ५८४, ५७१, ५६५, ५७२। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरड] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राक्षा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-गूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-संभात :: [ ४४ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १६८३ वै० वासुपूज्य विजयदेवसूरि पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्राविका वच्छाईदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १७६४ ज्ये० पार्श्वनाथ- संविज्ञपक्षीय स्तंभतीर्थवासी प्रा० झा० अ० मेघराज की स्त्री तेजकुँअरशु० ५ गुरु० पंचतीर्थी ज्ञानविमलसरि देवी के पुत्र भूलराज ने. शांतिनाथ- , आदिनाथ-- अजितनाथ श्री पद्मप्रभ-जिनालय में (खड़ाकोटड़ी) सं०१३६१ माघ जिनबिंब ......... प्रा. ना. श्रे. रसने पितामही गोती है गोर्थ कृ० ११ शनि० सं० १५२० वै० तृतीयतीर्थङ्कर- तपा०लक्ष्मीसागर- त्रिपुरपाटकवासी प्रा० ज्ञा० म० भीमराज की स्त्री कांऊदेवी चोवीशी सरि के पुत्र घूघराज ने स्वभा० वानदेवी, पुत्र धनदत्त, झांझण आदि कुटुम्ब के सहित. सं० १६४३ ज्ये० पार्श्वनाथ तपा० विजयसेनसूरि प्रा० ज्ञा० शाह भूति की स्त्री भरमादेवी के पुत्र शाह शु० २ सोम० ' सहसकरण ने स्वभा० धनदेवी, पुत्री वाहालकुंअरी के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय में (खड़ाकोटड़ी) सं० १४८२ फा० सुमतिनाथ आगमगच्छीय प्रा. ज्ञा० पेथड़संतानीय श्रे० भान्हणसिंह की स्त्री शु० ३ रवि० श्रीपरि ऊमादेवी के पुत्र सं० मंडलिक ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२२ माघ आदिनाथ तपा० लक्ष्मी- ओड़िग्राम में प्रा०ज्ञा० श्रे० माईआ की स्त्री मेचूदेवी के पुत्र शु० शनि ___ सागरसूरि नत्थमल ने स्वभा० नामलदेवी आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री आदिनाथ-जिनालय में (मांडवीपोल) सं० १५०३ माघ सम्भवनाथ तपा० जयचन्द्र- वीरमग्रामवासी प्राज्ञा० श्रे० हेमराज की स्त्री रुदौदेवी के पुत्र सूरि नरवद, भ्रात् वत्सराज ने मा० शाणीदेवी, पुत्र धनराज, नगराज आदि के सहित. श्री नेमनाथ-जिनालय में सं० १४३६ पौ० पार्श्वनाथ जयाणंदसरि प्रा. ज्ञा० श्राविका माणकदेवी के पुत्र हापा भार्या जीणीकु. ८ रवि. देवी पुत्र चांपा, सांगा के सहित श्रे• हापा ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. जै० घा०प्र० ले० सं०भा०२ ले०५७८, ५६६,५६७,५६६, ५७०, ५६१,५६५, ५६६,६१३ ०२,६२६, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] :: प्राग्वाट-इतिहास : [तृतीय प्र०वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२१ माष सुमतिनाथ तपा० सोमदेवभरि प्रा० ज्ञा० सं० हापा की स्त्री हांसलदेवी के पुत्र सं० शु० १३ नासण की स्त्री नागलदेवी के पुत्र नारद ने स्वभा० कर्मा देवी प्रमुखकुटुम्वसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री कुन्थुनाथ-जिनालय सं० १५०६ वै० महावीर रत्नशेखरसूरि प्रा. ज्ञा० श्रे० विरुआ की स्त्री विभूदेवी के पुत्र नरसिंह शु० (तपा) ने स्वश्रेयोर्थ. श्री शीतलनाथ-जिनालय में (कुम्भारवाड़ा) सं० १४- संभवनाथ नागेन्द्र० गुणकरसूरि प्रा० ज्ञा० पुत्र पूजा ने स्वपिता के श्रेयोर्थ. सं० १५५३ माघ पार्श्वनाथ तपा० हेमविमल- प्रा० ज्ञा० श्रे० प्रताप की स्त्री सुहामणि के पुत्र गोगराज शु० ५ रवि० सूरि ने स्वभा० मनकादेवी, पुत्र वीपा, फतेह, लका आदि कुटुम्बसहित पिता के श्रेयोर्थ. श्री शांतिनाथ-जिनालय (ऊंडीपोल) सं० १५३२ वै० अभिनंदन तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० हेमराज की स्त्री डबीदेवी के पुत्र शिवराज सरि ने वृ० भ्रातृ पूजादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५६१ वै० वासुपूज्ज आगमगच्छीय गंधारवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० कान्हा की स्त्री खोखीदेवी,मेलादेवी शु० ६ शुक्र० संयमरत्नमरि के पुत्र वस्तुपाल ने स्वभा० वल्हादेवी प्रमुखकुटुम्ब के सहित. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में (दंतालवाड़ा) सं० १५२१ वै० सम्भवनाथ अंचलगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० भरमा की स्त्री छाली के पुत्र दीना जीवा, शु० ६ बुध० जयकेसरिसूरि इनमें से सुश्रावक जीवा (जीवराज) ने स्वभा० कुंअरिदेवी, । भ्रातृ सदा, चांदा, चांगा के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२३ वै० कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- सोजींत्रावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० हापा की स्त्री हांसलदेवी के कृ. ४ गुरु० सूरि पुत्र गुणिया ने भ्रात् राजमल भा० रमादेवी पुत्र आसधीर, श्रीपाल, श्रीरंग आदि कुटुम्ब-सहित. श्री आदिनाथ-जिनालय में सं० १४१५ ज्ये. पार्श्वनाथ नायलशाखीय जघरालवासी प्रा०ज्ञा० श्रे० गाहिस(?) के भ्राता नलराज ने कु. १३ रवि० सागरचन्द्रसूरि मातृ-पितृव्य० वीक्रम के श्रेयोर्थ. श्री चतुर्मुखा-सुमतिनाथ-जिनालय में (चोलापोल) #० १५६१ ज्ये० सुविधिनाथ श्रीककसरि स्तम्भतीर्थ में प्रा० ज्ञा० संघ० कुझा की भार्या गुरुदेवी के शु० २ बुध० पुत्र सं० हंसराज की स्त्री हांसलदेवी ने पुत्र सं० हर्षा आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० धा०प्र०ले० सं०भा०२ ले०६३३,६४०,६५३,६५४,६७७,६७३,६८१,५८५, ६८६,६६१। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण] : विभिन्न प्रान्तों में प्रामा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-पूर्जर-काठियावाड़ और सौराष्ट्र-संभात :: [at श्री महावीर-जिनालय में (गीपटी) प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२० शीतलनाथ तपा० श्रीसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा की स्त्री मेचूदेवी के पुत्र श्रे० धनराज ने भा० रूढी, पुत्र हीराचन्द्र, जूठा प्रमुखकुटुम्ब-सहित. सं० १५४६ माष चन्द्रप्रभ भागमगच्छीय प्रा०ज्ञा० श्रे० कर्मराज की स्त्री थर्मिणीदेवी के पुत्र सुभगिरण विवेकरत्नसरि ने स्वभा० श्रीदेवी, पु० अमीपाल, रत्नपाल, भ्रात वीरपाल __ आदि के सहित. श्री अजितनाथ-जिनालय में सं० १५२८ वै. शीतलनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० रत्नचन्द्र की स्त्री अर्धदेवी के पुत्र धनपति, शु० ३ शनि० सूरि मंडलिक के सहित श्रे. रत्नचन्द्र ने पुत्री कनूदेवी के एवं प्रात्मश्रेयोर्थ. श्री चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-जिनालय में (जीरारपाड़ा) सं० १५८६ वै० सम्भवनाथ द्विवंदनीक-कक- प्रा० ज्ञा० श्रे० गोविन्द ने स्त्री गौरीदेवी, पुत्र नरवाल पुत्र शु० १२ सोम० सरि नाकर भा० पना आदि कुटुम्ब-सहित. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में सं० १५२४ वै० आदिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- स्तम्भतीर्थ में प्रा० ज्ञा० श्रे० गोधराज स्त्री कुंअरिदेवी के शु०५ शनि. .....सरि पुत्र काला ने स्वभा० कुतिगदेवी, मातृ भला, गजा, राजा .. भा० भावलदेवी, भइमादेवी, रंगीदेवी, पुत्र वेजा, सहना, . मांका, श्रीपाल आदि के सहित स्वपितृव्य लापा के श्रेयोर्थ. भूगृह-जिनालय में सं० १५२८ माघ संभवनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्राज्ञा० पंचाणेचागोत्रीय श्रे० सारंग ने स्वस्त्री सुहड़ादेवी, __ - - सूरि पुत्र देहड़ स्त्री देवलदेवी पुत्र नाथा, धना एवं स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३० माघ नमिनाथ सांबोसणवासी प्रा० ज्ञा० ० रामसिंह स्त्री सोमादेवी शु०४ शुक्र पुत्र लालचन्द्र की स्त्री झटकू नामा ने भ्रात कालादि कुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १६१३ वै० मुनिसुव्रत तपा० धर्मविमल- नंदरवारनगर में प्रा० ज्ञा० दो० श्रे० झालण भा० कमलाशु० १३ रवि. गणि देवी पु. कान्हा जीभा ने स्वश्रेयोर्थ सं० १६२२ पौ० धर्मनाथ तपा० हीरविजयसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० पद्मराज ने भा० भलाईदेवी पुत्र सं० मचा कृ० १ रवि० भा० हदेवी पुत्र सं० जीवंत, कीका के सहित. जै० घा०प्र०ले०सं०भा०२ ले०७०८,७०६,७१८,७२१,७३०,७४७,७३८,७४५,७४६। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय __ श्री अमृतजरापार्श्वनाथ-जिनालय में (जीरारवाड़ा) प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० भाचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२० मार्ग. पार्श्वनाथ उपकेशग०- प्रा० ज्ञा० सं० कउमा की स्त्री गुरुदेवी के पुत्र सिंहराज शु०६ शनि० ककसरि सुश्रावक ने स्वभा० ठणकूदेवी, पुत्र जीवराज,भ्रातृ हंसराज, भ्रातृ भोजराज, सं० जसराजसहित स्वमाता के श्रेयोथे. ___ श्रीमरनाथ-जिनालय में (जीरारवाड़ा) । सं० १५५२ वै० शीतलनाथ नागेन्द्रगच्छीय- प्रा. ज्ञा० ) हरपाल भाखर मं० धनराज ने मा० धर्माकृ०१३ सोम० हेमसिंहसरि देवी पुत्र जागु, भूपति, नाथा भा० कर्मादेवी, जीवा भा० लीलादेवी, माद, भ्रात के श्रेयोर्थ. सं. १६५३ का. वासुपूज्य तपा० विजयसेन- प्रा. ज्ञा० श्रे० पोपट की स्त्री वीरादेवी के पुत्र श्रे० सूरि अर्जुन ने. सं० १७२१ ज्ये० पार्श्वनाथ तपा० विजयराज- खंभातवासी प्रा० शा० श्रे० जगराज के पुत्र काहनजी शु० ३ रवि० बरि की स्त्री पाखड़(?) ने. श्री सोमपार्श्वनाथ-जिनालय में (संघवीपाड़ा) सं० १६२२ माष पचप्रम तपा० हीरविजयसरि स्तंभतीर्थ में बड़दलावासी प्रा० झा० म० जिनदास की रु. २ बुध. मा० रहीदेवी पुत्र मं० कीका ने मा० कर्मादेवी, पुत्र हंसराज मा० इन्द्राली पुत्र धनराज, हीरजी, हरजी प्रमुख समस्त कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री विमलनाथ-जिनालय में (चोकसी की पोल) सं० १५२१ वै० कुन्युनाथ- तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० राउल की स्त्री वीदेवी के पुत्र सम चावाशा चोवीशी सूरि राज ने भा० गउरीदेवी, पुत्र धनराज, वनराज, दत्तराज आदि कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५८७ पौ० अजितनाथ तपा० हेमविमल- वीशलनगरवासी प्रा. ज्ञा० पुत्र हरपति भा० हीरादेवी के शु० १३ सूरि . पुत्र पडा हेमराज ने भगिनी कतूदेवी, भा० झमकीबाई प्रमुखकुटुम्ब सहित. • श्री चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-जिनालय में (चोकसी की पोल) सं० १३०६ फा० पार्श्वनाथ- सोमतिलक- प्रा० ज्ञा० श्रे० गहगड़ की स्त्री नायकदेवी के पुत्र पान्हा ०८ पंचतीर्थी सरि ने पिता के श्रेयोर्थ. जै० पा०प्र०ले०सै०भा०२ले०७५३.७६६,७६२,७७१,७८०,७८८,७६,८२०। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खएड] : विभिन्न प्रान्तों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-पूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र-खंभात :: [४५३ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ना० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठ सं० १५०५ सुमतिनाथ तपा० जयचन्द्रसरि उटववासी प्रा. ज्ञा० श्रे. मला ने अपनी भगिनी चम्पा देवी (धनराज की स्त्री) के श्रेयोर्थ. .. सं० १५१२ वै० अजितनाथ विजयधर्म- प्रा. ज्ञा० श्रे० पासड़ के पुत्र पचा की स्त्री पूजादेवी के शु०५ सूरि पुत्र अर्जुन ने मं० सहजा भा० तिली एवं आत्मश्रेयोर्थ. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में (चोकसी की पोल) सं० १५०८ चै० विमलनाथ आगमगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० पंचराज की स्त्री अहिवदेवी के पुत्र अमरशु० १३ रवि० श्रीसिंह सिंह, प्रा० कमलसिंह भा० चमकूदेवी के पुत्र देवराज ने स्वभा० देल्हागदेवी के सहित स्वपूर्वज-श्रेयोथे. सं० १५२४ वै० पमप्रभ तपा० लक्ष्मीसागर- कालूपुरनगर में प्रा० ज्ञा० श्रे० नारद की स्त्री कर्मादेवी सरि के पुत्र लाईया, प्रा. कुँरपाल ने मा० मृगादेवी, पुत्र सूर दास, वर्धमान आदि कुटुम्ब-सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५३१ ज्ये० नमिनाथ तपा० सुमतिसुन्दर- महिसाणावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० गोधराज की स्त्री डाही के शु० २ रवि० सरि पुत्र कर्मराज ने स्वभा० पतीदेवी नामा के श्रेयोर्थ. श्री मुनिसुव्रतस्वामि के जिनालय में (अलिंग) सं० १४९२ चै० आदिनाथ श्रीसर्वसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा ने स्वभा० नागदेवी, पुत्र शिवराज ___० ५ शुक्र० भा० अर्घदेवी सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५०४ आषा० अनन्तनाथ तपा० जयचन्द्रसरि प्रा. ज्ञा. श्रे. राजसिंह की स्त्री मेघूदेवी के पुत्र धरणा शु० २ की स्त्री सारूदेवी के पुत्र हेमराज ने भ्रातृ अमरचन्द्र,पितृव्य सावा स्वकुटुम्ब सहित पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५१६ चै० वासुपूज्य वृ० तपा० विजय- प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मसिंह की भा० फदकूदेवो के पुत्र महि रत्नसरि राज ने स्वभा० सोही के सहित पिता के श्रेयोर्थ. सं० १६३२ द्वि० चन्द्रप्रम तपा० विजयसेन- खम्भातवासी प्रा. ज्ञा. श्रे. सिंह पुत्र लक्ष्मण पुत्र चै० कु. ८ शुक्र. सूरि हेमराज की स्त्री वयजलदेवी के पुत्र श्रे० अमिराज ने भा० तेजलदेवी, पुत्र पुण्यपाल प्रमुख-कुटुम्बसहित. श्री नवखपडापार्श्वनाथ-जिनालय में (भोयरापाड़ा) सं० १५२६ आपा० कुन्धुनाथ · तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० वाच्छा की स्त्री बनीदेवी के पुत्र श्रे० शु०१ रवि० सूरि सांगा ने भा० झाड्देवी, पुत्र वीरा, जयसिंह आदि . कुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. 20५/०प्र० ले०सं०भा०.२ले०७३८,८०२,८४२,८४३,८२६,८५६,८५५,८४६८५४,८७२। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्र० वि० संवत् सं० १५३२ वै० शु० ३ सं० १५६५ वै० कृ० ३ रवि ० प्र० प्रतिमा नमिनाथ सं० १५२३ माघ मुनिसुव्रतकृ० ६ शनि० चोवीशी सुमतिनाथ वृ० तपा० धर्मरत्नसूरि सं० १४६४ मार्ग ० धर्मनाथ शु० ११ शुक्र ० : प्राग्वाट - इतिहास : प्र० श्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० श्रे० नरपाल भा० वर्जूदेवी के पुत्र झांझण ने सागरसूरि भा० जीविणीदेवी, पुत्र विरुत्रा भा० हांसीदेवी प्रमुखकुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. के जंबूसरवासी प्रा०ज्ञा० वृ० शा ० ० राजा भा० राजुलदेवी पुत्र कालू भा० धर्मादेवी के पुत्र शाखा की स्त्री रहीदेवी स्वपति के श्रेयोर्थ. श्री नेमनाथ - जिनालय में (भोंगरापाड़ा) सूरि तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० श्रे० भोला की भा० वयजादेवी के पुत्र श्रे० कान्हा की भार्या विजयादेवी के पुत्र सं० केशव ने स्वभा० जीनादेवी, पुत्र सं० हंसराज, गुणपति, हंसराज की स्त्री सोनादेवी पुत्र झांझण, मांडण प्रमुखकुटुम्व के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री चन्द्रप्रभ - जिनालय में (भोंगरापाड़ा) श्रीवरि सं० १५०८ चै० शांतिनाथ श्रागमगच्छीय १३ रवि ० श्रीसिंहदर [ तृतीय श्री चिंतामणि- पार्श्वनाथ - जिनालय में (शकोपुर) प्रा० ज्ञा० मं० नागड़ की स्त्री हीरादेवी के पुत्र मं० गांगद की स्त्री गंगादेवी के पुत्र मं० कूपा ने स्वभा० रूपिणी, भ्रातृज मं० वीसा, हीरादि सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा०ज्ञा० श्रे० मेला ने स्त्री अमकूदेवी, पुत्र राजा, सामंत, पिता-माता के श्रेयोर्थ. श्री पार्श्वनाथ - जिनालय में (माणिकचौक ) सं० १५२५ माघ अनंतनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० ० पर्वत की स्त्री फलीदेवी के पुत्र श्रे० गेपा, भ्रातृ खीमराज ने स्वभा० रत्नादेवी प्र० कु० सहित. कृ० ६ सूर सं० १५२८ आषा. श्रेयांसनाथ खरतरगच्छीय शु० २ सोम ० प्रा० ज्ञा० श्रे० साहूल के पुत्र शिवराज ने स्वमा० रत्नादेवी, पुत्र श्रीराज, गईया आदि सहित पूर्वज - श्रेयोर्थ. जिनचन्द्रसूरि सं० १५६८ वै० शु० ३ शुक्र० आदिनाथ तपा० हेमविमलसूरि प्रा० ज्ञा० मं० सोमराज की भा० मटकूदेवी के पुत्र जूठा ने स्वभा० वल्हादेवी, पुत्र वच्छा, हर्षा आदि सकल कुटुम्ब के श्रेयोर्थ. जे० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ८७३, ८७६, ८८५, ८६३, ६०६, ६१८, ६३६, ६३६ । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर काठियावाड़ और सौराष्ट्र- खंभात :: [ ४८६५ श्री धर्मनाथ - जिनालय में (माणिकचौक ) o आचार्य प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १५२५ मार्ग आदिनाथ शु० १० सं० १५१७ वै० मुनिसुव्रत शुक्ल पक्ष में से० १४४७ फा० शांतिनाथ श्रीसूरि शु० ८ सोम ० सं० १५१५ ज्ये० नमिनाथ शु० १५ सं० १५०८ वै० कृ० १० रवि ० कुन्थुनाथ सं० १५२० श्रीसूरि श्री पार्श्वनाथ - जिनालय में (माणिकचौक ) चन्द्रप्रभ प्रा०ज्ञा० श्रे० गोलराज के वृद्धभ्राता श्रे० खेतल के पुत्र धरण की स्त्री सहजलदेवी के पुत्र भीलराज ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० कर्मा की स्त्री कपूरीदेवी के पुत्र कडूआ ने स्वभा० मानू, आतृ बहुआ भा० लीलादेवी प्रमुखकुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. अहमदाबाद में प्रा० ज्ञा० ० बादा की स्त्री मनीदेवी के पुत्र श्रे० नाथा ने स्वभा० मान्हादिकुटुम्बसहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शान्तिनाथ - जिनालय में (माणिकचौक ) तपा० रत्नशेखर- पाद्रावासी प्रा० ज्ञा० सूरि पुत्र गलराज ने स्वभा० श्री आदिनाथ - जिनालय में (माणिकचौक ) तपा० रत्नशेखरसूरि सं० १३४७ (६) माघ आदिनाथ मुनिरत्नमूरि शु० १ गुरु ० सं० १५०६ माघ शु० ६ गुरु० 11 प्रा० ज्ञा० प्रतिमा - प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि धवलक्कपुर में प्रा० ज्ञा० ० भीमराज की स्त्री रमकूदेवी के पुत्र काला की स्त्री दूबी नामा ने पुत्र जिनदास, देवदास, शिवदास प्रमुखकुटुम्ब के सहित. तपा० रत्नशेखरसूरि डामिलाग्राम में प्रा० ज्ञा० श्रे० लाड की स्त्री पचीदेवी के पुत्र हीराचन्द्र ने स्वभा० तिलुदेवी, पुत्र हावड़, कीता, धनराज, भोजराजादि के सहित. शीतलनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० वयरसिंह की स्त्री गउरीदेवी के पुत्र श्रे० सूरि, सोमदेवसूरि हेमराज, जिनदत्त के अनुज श्रे० धनदत्त ने स्वभा० वल्हादेवी, पुत्र मालदेवादि कुटुम्बसहित. ० माजा की भार्या फकूदेवी के पुहतीदेवी प्र० कृ० सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० महं० महणसिंह ने पितृव्य रत्नसिंह के श्रेयोर्थ. श्री मुनिसुव्रत - जिनालय में (खारखाड़ा) उपकेशगच्छीय सं० १५०४ फा० पद्म प्रभ शु० १३ शनि ० प्रा० झा० श्रे० गोवल की स्त्री कर्मादेवी के पुत्र पाँचा को, स्त्री नाथीदेवी ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. कक्कुसूरि जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ६५२, ६८१, ६७८, ६७५, ६८६, १०००, १०१३, १०१५, १०२४ । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट-इतिहास: । तृतीय श्री महावीर-जिनालय में (खारवाड़ा) प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५१० माघ आदिनाथ तपा० रत्नशेखर- देकावाटकीय प्रा० ज्ञा० श्रे० पर्वत की स्त्री सलूणि के पुत्र सरि शिवराज ने स्वभा० रामतिदेवी पुत्रप्रमुखपरिवार के सहित. सं० १५३१ माघ मुनिसुव्रत तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० रामचन्द्र की स्त्री गूजरिदेवी के पुत्र नारद शु० ५ शुक्र० सूरि ने भा० मचकूदेवी, वृ० प्रा० भीमराज के सहित स्वश्रेयोर्थ. ___ श्री अनन्तनाथ-जिनालय में (खारवाड़ा) सं० १५२६ पाषा० सुपार्श्वनाथ बृ० तपा० विजय प्रा० ज्ञा. श्रे. वरसिंह ने भा० मानूदेवी, पुत्र देपा भा० रत्नसरि राजूदेवी पुत्र ठाइमा, गांगा भा० मार पुत्र गोपाल राज आदि प्रमुखकुटुम्ब के श्रेयोर्थ. श्री स्तम्भनपार्श्वनाथ-जिनालय में (खारवाड़ा) सं० १३६३ ज्ये० पार्श्वनाथ रत्नचन्द्रसरि सौराष्ट्र प्रा० ज्ञा० ठ० सज्जन के श्रेयोर्थ ठ० गणपत ने. शु०६ शुक्र० सं० १५०८ वै० अनन्तनाथ तपा. रत्नशेखर- प्रा. ज्ञा० म० सूरा की स्त्री सीतादेवी के पुत्र साजणसिंह शु०३ ___ सूरि ने भा० वर्जू देवी, पुत्र सहसकरण भा० रामतिदेवी के श्रेयोर्थ. __ श्री मनमोहन-पार्श्वनाथ जिनालय में (खारवाड़ा) सं० १५०६ माघ धर्मनाथ सा. पूर्णिमा. पक्षी. प्रा. ज्ञा० राणासन्तानीय श्रे० मांडण भा० सलखूदेवी शु० १० शनि० पुण्यचन्द्रसरि के पुत्र सूटा की स्त्री रत्नादेवी के पुत्र उझाने स्वभा० हर्ष. देवी, पुत्र महिपालसहित स्वश्रेयोर्थ. श्रीसीमंधर-स्वामि-जिनालय में (खारवाड़ा) सं० १३६२(३) माघ नेमिनाथ चैत्रगच्छीय प्रा० ज्ञा० ठ० अजयसिंह ने पुत्र केशव के श्रेयोर्थ. कृ.११ शुक्र० मानदेवसरि सं० १४८३ वै० संभवनाथ नागेन्द्रगच्छीय प्रा. ज्ञा. श्रे० पेथा की स्त्री प्रीमलदेवी के पुत्र मांडण शु०३ शनि० . गुणसागरसूरि ने स्वभार्या हदेवी,पुत्र सहिसा, भ्राता कर्मण, धर्मण भार्या आसूदेवी पुत्र महिराज प्रमुख कुटुम्बसहित पिता के श्रेयोर्थ. सं १५१६ ज्ये० मादिनाथ संडेरगच्छीय विपलावासी प्रा०ज्ञा० श्रे० पर्वत की स्त्री कुतिगदेवी के पुत्र शु० १३ सोम. सालिभद्रसरि हरदास, तेजपाल, हरदास की स्त्री लीलादेवी पुत्र आदि. सं० १६३२ वै० पार्श्वनाथ तपा० हीरविजयसूरि स्तंभतीर्थ में प्रा०ज्ञा० ऋ० परीक्षक कीका की स्त्री सहिजल. १०७ रवि० देवी के पुत्र देवराज की स्त्री वीरादेवी के पुत्र तेजपाल ने. जै० धा०प्र० ले० सं० मा० २ ले०१०३६,१०३५,१०४०,१०४५,१०४८,१०५५, १०६८,१०५६, १०६२, १०७८। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें - गूर्जर - काठियावाड़ और सौराष्ट्र-संभात :: [:४७ श्री नवपल्लवपार्श्वनाथ - जिनालय में ( बोलपीपल) प्र० आचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि लक्ष्मीसागर - पत्तन में प्रा० ज्ञा० श्रे० जूठा भा० चकूदेवी के पुत्र वेलचंद्र रि ने स्वभा० धनादेवी, भ्रातृ भीमराज, मांजा, पासादि कुटुम्ब के सहित भ्रातृ पोपट के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० देपा ने भार्या राजूदेवी, पु० गांगा भा० सूदेवी पुत्र गंगराज भा० माकणदेवी प्रमुखकुटुम्ब के श्रेयोर्थ. प्र० वि० संवत् सं० १५२१ वै० शु० ३ सं० १५२६ माघ कृ. १३ सोम ० सं० १५६४ ज्ये ० शु० १२ शुक्र० प्र० प्रतिमा संभवनाथ तपा० अजितनाथ बृ० तपा० लब्धि- वालीबवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० गदा भा० हली के पुत्र भाष ने स्वभा० अहवदेवी, पुत्र वरूथा, सरूच्या प्रमुखकुटुम्ब के सहित स्वश्रेयोर्थ. सागरसूरि श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ - जिनालय में सं० १५६५ माघ श्रादिनाथ तपा० विजयधन- प्रा० ज्ञा० श्रे० जसराज भा० शृंगारदेवी । शु० १२ सूरि शु० ११ सं० १५०६ मा० शु० १० रवि ० वासुपूज्य बृ० तपा० विजयरत्नमूरि सं० १३५० वै० पार्श्वनाथ विमलचन्द्रसूरि सं० १३१५ फा० कृ० ७ शनि ० श्री संभवनाथ - जिनालय में (बोलपीपल) अनंतनाथ तपा० उदयनंदिसूरि सं० १५२६ ज्ये० संभवनाथ श्रागमगच्छीय कृ० १ शुक्र ० अमररत्नसूर सं० १५४६ आषा. अजितनाथ श्रागमगच्छीय शु० ३ सोम ० विवेकरत्नसूर पार्श्वनाथ प्रा० शा ० महं० जगसिंह भार्या शृंगारदेवी । उनके श्रेयोर्थ. चन्द्रगच्छीययशोभद्रसूर प्रा० शा ० महं० घठ (१) की स्त्री देईदेवी के पुत्र सं ० हेमराजं ने स्वभा० कपूरीदेवी, भ्रातृ सं० सुधा मा० कमलादेवी पुत्र पूजा आदि कुटुम्बसहित सर्वश्रेयोर्थ. कावासी प्रा० शा ० ० भीमराज ने स्त्री मटकूदेवी पुत्र डुङ्गर, देवराज, हेमराज, पंचायण, जिनदास, पुत्री पुतली के सहित. शीयालवट (काठियावाड़) के श्री जिनालय में पेथड़संतानी • पर्वत की स्त्री लखीदेवी के पुत्र फोका की स्त्री देमाईदेवी के पुत्र विजयकर्ण ने माता के श्रेयोर्थ. मधुमती के श्री महावीर जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० आम्रदेव के पुत्र सपाल के पुत्र गांधी चिव्वा (१) ने स्वश्रेयोर्थ. जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले ० १०६७, १०६४, १०६६, ११२५, ११३४, ११४८, ११४१, ११३६ । बै० ले० सं० भा० २ ले० १७७६ । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (85) प्र० वि० संवत् सं० १३२० माघ शु० गुरु ० . शु० १० शुक्र ० सं० १५१२ सं० १४३६ सं० १५०३ आषाढ़ मुनिसुव्रत स्वामि सुमतिनाथ सं० १५१८ वै० शु० १३ पालीताणा में माधुलालजी की धर्मशाला के श्री सुमतिनाथ - जिनालय में पार्श्वनाथ तपा० देवचन्द्रसूर तपा० जिनरत्न - सूरि तपा० रत्नशेखर सूरि सं० १५२३ वै० कृ० ७ रवि ० प्र० प्रतिमा आदिनाथ सं• १४८६ श्राषा० शु० ५ सुमतिनाथ चोवीशी सं० १५५२ माघ संभवनाथ कु० १२ बुध ० सं० १७०२ मार्ग ० आदिनाथ शु० ६ शुक्र० सं० १५०४ फा० शु० ६ सोम० सुमतिनाथ : प्राग्वाट - इतिहास :: प्र० श्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि राका (पूर्णिमा)- प्रा० ज्ञा० श्रे० वीरदत्त के पुत्र व्य० जाला की भार्या गच्छीय महीचंद्रसूरि माणिका ने स्वश्रेयोर्थ. तपा० लक्ष्मी सागर रि तपा० लक्ष्मीसागरसूरि बृ० तपा० उदय सागर छरि अंचलगच्छीयकल्याखसागरसूरि तारंगातीर्थस्थ श्री शांतिनाथ - सोमसुन्दरसूरि चोवीसी [ तृतीय अजितनाथ - साधुपूर्णिमापूर्णचन्द्रसूरि चोवीसी प्रा०ज्ञा० ० हाला भा० दानदेवी के पुत्र वींगिरण ने . सहूश्रालावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० पींचा भा० लक्ष्मणदेवी के पुत्र वीरम, धीरा, चींगा ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० आसपाल भा० पाचूदेवी के पुत्र धनराज भा० चमकूदेवी के पुत्र माधव ने स्वभा० वाल्हीदेवी, भ्रातृ देवराज भा० रामादेवी, देवपाल आदि के सहित. सखारिवासी प्रा० ज्ञा० शा ० जावड़ भा० वारुमती के पुत्र हरदास ने स्वभा० गौमती, भ्रातृ देवराज भा० धर्मिणी के सहित श्रेयोर्थ. सीरु' जवासी प्रा० ज्ञा० ० बाला भा० मानदेवी के पुत्र समघर ने स्वभा० जासीदेवी, धर्मदेवी, पुत्री लाली आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० प० सधा भा० श्रमकूदेवी के पुत्र मूलराज ने स्वभा० हंसादेवी, पुत्र हर्षचन्द्र, लक्षराज के सहित स्वश्रेयोर्थ. दीववंदरवासी प्रा० ज्ञा० नागगोत्रीय मं० विमलसंतानीय मं० कमलसिंह के पुत्र मं० जीवराज के पुत्र मं० प्रेमचन्द्र, मं० प्रागचन्द्र, मं० श्राणन्दचन्द्र ने पुत्र केशवचन्द्र आदि के सहित स्वपिता जीवराज के श्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० ० राणा की सन्तान में श्रे० रत्नचन्द्र भार्या धरणी के पुत्र पूर्णसिंह ने भा० देसाई, भ्रातृ हरिदास, स्वपुत्र पासवीर के सहित. जै० ले० सं० भा० २ ले० १७८०, १७५२, १७५३, १७५४, १७५६, १७५१, १७६१, १७४३, १७३१, १७३२ । अजितनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० मंत्रि बाहड़ के पुत्र सिंह भा० पूजलदेवी के पुत्र बहुआ ने भार्या कपूरीदेवीसहित स्वश्रेयोर्थ. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्राक्षा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें भारत के विभिन्न प्रसिद्ध २ नगर-हैदराबाद : [et प्र०वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० आचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५८० वै० धर्मनाथ- हेमविमलसूरि पेथापुरवासी प्रा० ज्ञा० महं० धना के पुत्र महं० जीवा ने शु० १२ शुक्र० पंचतीर्थी। स्वभार्या जसमादेवी, पुत्र गोगा भार्या रूपादेवी के श्रेयोर्थ. सिहोर (काठियावाड) के श्री सुपार्श्वनाथ-जिनालय में सं० १४८० वै० कुन्थुनाथ- हेमविमलसरि वलासरवासी प्रा० ज्ञा० मं० रत्नचन्द्र भा० रजाईदेवी के शु० १२ शुक्र० पंचतीर्थी पुत्र सं० सहस्रकिरण ने स्वभार्या धरणीदेवी पुत्र तजदेव के सहित. भारत के विभिन्न प्रसिद्ध २ नगर बम्बई के श्री आदिनाथ-जिनालय में (बालकेश्वर) सं० १७६४ ज्ये० शांतिनाथ- संविज्ञप० ज्ञान- स्तम्भतीर्थवासी प्रा० ज्ञा० बृ० शा. श्रे. मेघराज की शु० ५ गुरु० चोवीसी विमलसरि स्त्री वैजकुमारी के पुत्र सुसगल ने स्वद्रश्य से. हैदराबाद के श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में (कारबान शाहूकारी) सं० १४५८ फा० पार्श्वनाथ तपा० देवसुन्दर- प्रा. ज्ञा० श्रे० थरणि के पुत्र सिंघा के श्रेयोर्थ उसके भ्राता शु० १ मंगल सूरि श्रे० कान्हड़ ने. सं० १४८१ वै० अभिनन्दन मडाहड़गच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्रे० सामन्त की स्त्री सामलदेवी के पुत्र धर्मचन्द्र शु० ३ शनि० उदयप्रभसूरि ने भ्राता हीराचन्द्र, शिवराज, सहदेव के सहित पिता-माता के श्रेयोथे. श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में ((जिडेन्सी बाजार) सं० १५४१ माघ धर्मनाथ- तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० श्रे० झाटा की स्त्री सुलेश्री के पुत्र जिनदास ने शु० १२ पंचतीर्थी सूरि स्वभा० लक्ष्मीदेवी,पुत्र हरदास,सूरदास के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में (चार कबान) सं० १७०१ मार्गः पार्श्वनाथ- तपा० विजयदेव. प्रा. ज्ञा० श्रे० कान ने. शु० ५ गुरु० पंचतीर्थी परि ० ले० सं०भा०२ ले०१७३०,१७३५,१७६६, २०४८, २०४८, २०५४ २०६०। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] :: प्राम्बाट-इतिहास: [तृतीय श० मद्रास के साहूकारपेठ के श्री जिनालय में प्र० वि संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५२१ ज्ये० पद्यप्रम- तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० सं० अर्जुन की स्त्री टवकूदेवी के पुत्र सं० वस्तीचोवीसी सरि मल ने स्वस्त्रीरामादेवी, पुत्र सं० चांदा स्त्री जीविणीदेवी पुत्र लींबी, भाका आदि प्रमुख परिजनों के सहित. आगरा के श्री सीमंधरस्वामि-जिनालय में (रोशनमोहल्ला) सं० १५३६ ज्ये० आदिनाथ- तपा०लक्ष्मीसागर- सिरोही में प्रा० ज्ञा० सं० पूजा भार्या कर्मादेवी के पुत्र १०५ चोवीशी सरि नरसिंह भार्या नायकदेवी के पुत्र खीमचन्द्र ने भार्या हर्षा देवी, पुत्र पर्वत, गुणराज मादि के सहित. श्री गौड़ी-पार्श्वनाथ-जिनालय में (मोतीकटरा) सं० १५५४ माघ सुविधिनाथ- तपा० हेमविमल- प्रा. ज्ञा० श्रे० अमा ने भार्या लक्ष्मीदेवी, पुत्र मान्हण क. २ पंचतीर्थी सूरि भार्या साम्हणदेवी पुत्र नरवद आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री शान्तिनाथ-जिनालय में (नमकमण्डी) सं० १५५४ माघ सुपार्श्वनाथ- श्रीपरि प्रा० ज्ञा० संघवी सिद्धराज सुश्रावक ने स्वभार्या ठणकदेवी, कु० २ गुरु० पंचतीर्थी पुत्र कृपा भार्या रम्भादेवी प्रमुखकुटुम्ब के सहित. लखनऊ के श्री पद्मप्रभस्वामि-जिनालय में (चूड़ीवालीगली) सं० १५१० वै० सुविधिनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा. ज्ञा० श्राविका राजमती के पुत्र सरमा ने स्वभार्या कु. ५ पंचतीर्थी सूरि चंपादेवी एवं पुत्र के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री आदिनाथ-जिनालय में (चूड़ीवालीगली) सं० १५७७ माघ शांतिनाथ पार्श्वचन्द्रसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० कईखा, भा० वान् , पुत्र मूठा, राला,रांगा शु० ५ बुध० लवरद मा० जीविणी, विरु, मानू, पुत्र घेवर, तेजा, सहिजा के सहित पिता-माता के श्रेयोर्थ. श्री महावीर-जिनालय में पंचतीर्थयाँ (सुन्धिटोला) सं० १५२४ वै० शांतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर-प्रा० ज्ञा. श्रे. धना भा० रांनू के पुत्र सं० वेला भार्या जीविणी के पुत्र सं० समधर संग्राम ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५२५ माघ संभवनाथ भेवग्राम में प्रा० ज्ञा. श्रे. देवसिंह भार्या देल्हणदेवी के पुत्र विजयसिंह ने भार्या वीजलदेवी,पुत्र सांडादि के सहित. सं० १५२६ वै० विमलनाथ मृण्डहटावासी प्राना० श्रे० नरसिंह भार्या शंभूदेवी के पुत्र वड्या ने स्वभा० रहीदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० ले० सं० मा०२ ले० २०७६, १४६५,१४७७,१४६६,१५४६,१५६१,१५६६,१५७०,१५७२ । हरि Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा० शा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें- भारत के विभिन्न प्रसिद्ध २ नगर-लश्कर :: [ ४६१ श्री संभवनाथ - जिनालय में (फूलवाली गली) प्र० श्राचार्य प्र० वि० संवत् सं० १३१३ फा० शु० ६ सं० १५२३ वै० शु० ६ सं० १५२१ वै० कृ० ८ सं० १५३३ माघ शु० १३ सोम ० सं० १५३४ [फा० शु० ६ बुध ० सं० १६८५ वै० शु० १५ प्र० प्रतिमा लाला हीरालाल चुनीलाल का मन्दिर सं० १७१० ज्ये० सुपार्श्वनाथ तपा० विजयराज- प्रा० ज्ञा० लघुशाखीय मं० मनजी ने. सूर सं० १५११ फा० शु० ६ रवि ० शांतिनाथ - पंचतीर्थी 99 मथुरा के श्री पार्श्वनाथ - जिनालय में (घीयामण्डी ) कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मी- प्रा० ज्ञा० ० वस्तीमल भार्या फदेवी के पुत्र 7. सागरवरि सारंग ने स्वभा० मृगादेवी, पुत्रवीका आदि सहित स्वश्रेयोर्थ. लश्कर (ग्वालियर) के श्री पंचायती - जिनालय में पद्मप्रभ- साधुपूर्णिमापंचतीर्थी चंद्रमूरि विमलनाथ साधुपूर्णिमाजयशेखरसूरि वासुपूज्य कछोलीगच्छीयविजयप्रभसूरि संभवनाथ विजयदेवसूरि संभवनाथ सं० १५१३ माघ वासुपूज्य कृ० ५ सं० १५३६ माव धर्मनाथ शु० ६ सोम० प्रा० ज्ञा० प्रतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० श्रे० बोघा भार्या सहजलदेवी के पुत्र सांगण ने, तपा० रत्नशेखर सूरि० "1 प्रा० ज्ञा० शा ० देवसिंह भा० पान्हणदेवी के पुत्र भीम ने स्वभा० माकूदेवी के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० हेमराज भा० मानूदेवी के पुत्र बहुआ ने भा० डाही पुत्र वता (९) भा० मटकू पुत्र डङ्गर के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० शा० मोकल भा० मोहनदेवी के पुत्र मेहा ने स्वभा० कुन्ती, पुत्र लक्ष्मण, श्रासर, वीशल के सहित. इंदलपुरवासी प्रा० ज्ञा० श्राविका वज्रदेवी ने स्वश्रेयोर्थ. श्री पर्श्वनाथ - जिनालय में प्रा० ज्ञा० श्रे० तिहुण भा० कर्मादेवी के पुत्र हांसा की भगिनी श्रे० दड़ा को पत्नी श्रा० मनी ने स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० श्रे० सरवण ने स्वभा० सहजलदेवी, पुत्र बरा पान्हा, जोगा भार्या कर्मदेवी पुत्र द्रसल आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. जै० ले० सं० भा० २ ले १६०२, १६१४, १४३७, १३७, १३८१, १३८२, १३६१, १४०२, १४०३, १४११ । प्रा० ज्ञा० शा० पेथा भार्या राजमती के पुत्र वीढ़ा ने स्वाभा० कर्मादेवी, पुत्र दरपाल टाहा (१) भरकीता, भरमा और कुता आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ. Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] .. प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय अजीमगंज के श्री सुमतिनाथ-जिनालय में प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० भाचार्य प्रा. ज्ञा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १४६६ माघ पार्श्वनाथ श्रीपरि आंचलगच्छीय प्रा० ज्ञा० श्रे० उदा की भार्या चत (१) के शु०६ रवि० पुत्र जोला भार्या डमणादेवी के पुत्र मुंडन ने भ्राता के श्रेयोर्थ. श्री पंचायती नेमिनाथ-जिनालय में सं० १५५३ वै० शांतिनाथ तपा० हेमविमल- सिस्त्रावासी प्रा० ज्ञा० श्रे० खेता भार्या मदी के पुत्र श्रे० सूरि, श्री कमल- भोजराज ने स्वभा० राजूदेवी, प्रात् राजा, रत्ना, देवा के कलशसरि सहित स्वपूर्वजश्रेयोर्थ. बालूचर के श्री विमलनाथ-जिनालय में । सं० १५१५ वै० मुनिसुव्रत तपा० रत्नशेखर- अतरीग्राम में प्रा. ज्ञा० ऋ० पासराज भा० संसारदेवी सूरि के पुत्र श्रे० कर्मसिंह ने स्वभा० सारूदेवी, पुत्र गोविन्द, गोपराज, हापराज आदि कुटुम्बसहित भ्रातृज महिराज के श्रेयोर्थ. श्री सम्भवनाथ-जिनालय में सं० १५२७ ज्ये. वासुपूज्य खरतरगच्छीय- प्रा०ज्ञा० श्रे० गांगा, मुजा पुत्र महिराज की भा० रमाईदेवी शु० ८ सोम० जिनहर्षसरि नामा श्राविका ने श्रेयोर्थ. सं० १५६१ वै० आदिनाथ सौभाग्यनन्दि- पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्रे० पान्हा पुत्र पांचा भार्या देऊदेवी कृ०६ शुक्र० सरि के पुत्र नाथा भार्या नाथीदेवी के पुत्र विद्याधरण ने पुत्र हंसराज, हेमराज, भीमराज, पुत्री इन्द्राणी आदि कुटुम्ब सहित श्रेयोर्थ. श्री किरतचन्द्रजी सेठिया के गृहजिनालय में (चावलगोला) सं० १५३३ वै० वासुपूज्य तपा० लक्ष्मीसार- प्रा० ज्ञा० श्रे० अपा की स्त्री आन्हीदेवी के पुत्र भरसिंह कृ.४ सूरि ने स्वस्त्री और पुत्र साल्हादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री आदिनाथ-जिनालय में (कठगोला) सं० १५३० माघ सम्भवनाथ- तपा० लक्ष्मीसागर- सांबोसणवासी प्रा. ज्ञा० श्रे० सोनमल की स्त्री माऊदेवी शु० ४ शुक्र० पाषाण-प्रतिमा सूरि के पुत्र नारद के भ्राता विरुआ ने स्वस्त्री वील्हणदेवी, पुत्र देवधर, मेला, साईयादि कुटुम्बीजनों के सहित स्वश्रेयोर्थ. श्री जगतसेठजी के जिनालय में (महिमापुर) सं० १५२२ माष कुन्थुनाथ सा० पू० विजय. प्रा. ज्ञा. श्रे. जसराज भार्या सरिदेवी के पुत्र सर्वण ने कु०१गुरु० चन्द्रसूरि स्वस्त्री रूपादेवी, माता-पिता और स्वश्रेयोर्थ. जै० ले० सं०भा०१ले०२,१५, ४०, ५२, ५४, ५८,७०,७२। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०मा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें-भारत के विभिन्न प्रसिद्ध २ नगर-कलकत्ता:: [४६३ प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. आचार्य प्रा०. हा मतिमा प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १५३६ फा० नमिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- पींडरवाटक में प्रा० ज्ञा० मुण्ठलियागोत्रीय श्रे० हीरा शु० १२ परि भार्या रूपादेवी पुत्र देपा भा० गीमतिके पुत्र गांगा ने स्वस्त्री नाथी, पुत्र भेरा, भ्राता गोगादि कुटुम्ब के सहित. कलकत्ता के बड़े बाजार में श्री धर्मनाथ-पंचायती-जिनालय में सं० १३४६ ज्ये० आदिनाथ- ............ प्रा. ज्ञा० महं० सादा के पुत्र महं० राजा के श्रेयोर्थ शु० १४ धातु-प्रतिमा उसके पुत्र महं० मालहिवि ने. सं० १३७५ शान्तिनाथ हेमप्रभसूरि प्रा० ज्ञा० श्रे० आम्रचन्द्र भार्या रत्नादेवी के पुत्र सहजा ने. सं० १४५६ ज्ये० आदिनाथ ........... प्रा. ज्ञा० श्रे० रतना भार्या लच्छलादेवी के पुत्र सोगा ने कु. १३ शनि० माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५२४ वै० . शीतलनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० श्रे० पाता भा० बाबू के पुत्र जोगराज ने स्वस्त्री सरि जावड़ि, पुत्र रामदास, भ्राता अर्जुन भार्या सोनादेवी के सहित. श्री शीतलनाथ-जिनालय में (माणिकतला) सं० १५५७ माघ कुन्थुनाथ श्रीसूरि सीणोतनगरीवासी प्रा० ज्ञा० लीबागोत्रीय श्रे० गेला भा० कु. १३ बुध. चंदर के पुत्र शा. राजा, बना, तपा, हरपाल भार्या जीविणीदेवी, पुत्र हासा, वसुपालादि के सहित. यति श्री पन्नालालजी मोहनलालजी के गृहजिनालय में सं० १५१६ फा० विमलनाथ तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० जोगा की स्त्री मृगदेवी के पुत्र शा• सरि उदयराज ने स्वस्त्री कर्मादेवी, पुत्र प्रह्लाद के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १७७१ वै० शांतिनाथ विजयऋद्धिसरि प्रा० ज्ञा० बृ० शा० श्रे० प्रेमचन्द्र, ग्रामीदास ने स्वश्रेयोर्थ. कृ. ५ गुरु० अजायबघर में पाषाणप्रतिमा सं० १६०८ माघ शांतिनाथ प्रा० ज्ञा० शा० राघव स्त्री रत्नादेवी, शा. नरसिंह की कृ.8 गुरु० सुजलदेवी, शा० रणमल स्त्री वेनीदेवी और पुत्र लाला सीमल ने. जै० ले० सं० भा० १ ले० ७३, ६०,६१,६४,१०६,१२६, ३६२, ३६३, ३६५। Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रान्बाट-तिहास: [तृतीय अजायबघर में मेः लुवार्ड द्वारा मध्य भारत से प्राप्त धातु-प्रतिमा प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र० श्राचार्य प्रा० झा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि 4० १५२७ पौ० कुन्थुनाथ तपा० लक्ष्मीसागर-प्रा. ज्ञा० श्रे० सहजिक के पुत्र ड्रङ्गर की स्त्री सूड़ी ने रु. ५ शुक्र० सरि सपरिवार द्वि० भार्या सहिजलदेवी, धर्मसिंह, कर्मणादि पुत्रों के सहित श्रेयोर्थ. सं० १५३३ वै० , प्रा. ज्ञा० शा० तान्हा स्त्री राजूदेवी के पुत्र लिमपाक (?) शु. १२ गुरु० ने स्वस्त्री रत्नादेवी, रुद्धदेवी, किवालय, (१) भ्राता मेघराज आदि परिजनों के सहित वसंतनगर में. बनारस के श्री बटूजी के जिनालय में सं० १५१२ वै० ......... तपा० रत्नशेखर- प्रा० ज्ञा० श्रे० सिंहा स्त्री लादा के पुत्र शा. हीराचन्द्र ने शु०५ सूरि स्वस्त्री आदि परिजनों के सहित. सिंहपुरी के श्री जिनालय में सं० १५३४ मार्ग• मुनिसुव्रत- बृ० तपा० उदय- प्रा० ज्ञा० शा० राजा स्त्री वीरू के पुत्र शा. आशपति ने १० १० शनि० स्वामि सागरसरि स्वस्त्री प्रासलदेवी, पुत्र गुणराज, सरराज आदि के सहित. चम्पापुरी के श्री जिनालय में धातु-प्रतिमा सं० १५२७ माघ संभवनाथ भीपरि प्रा० ज्ञा० सं० धारा भार्या सलख के पुत्र शा. वेलराज ने क. १ सोम० एवं भ्राता सं० वनेचंद्र ने स्वस्त्री आदि परिजनो के सहित स्वश्रेयोर्थ. सं० १५८१ माघ शांतिनाथ निगमप्रभावक- प्रा. ज्ञा० श्रे० सहिसा के पुत्र समधर, समधर की स्त्री कृ. १० शुक्र० आणंदसागरसरि बड़धू, पुत्र हेमराज और हेमराज की स्त्री हेमादेवी, पुत्र तेज मल, जीवराज, वर्द्धमान इन सर्वो ने पत्तन में... सं० १६०३ मार्ग० सुमतिनाथ तपा० विशाल- प्रा. ज्ञा० ज्येष्ठ भ्रातृजाया रंगादेवी, शा. सूरा स्त्री २०३शुक्र० सोमसूरि परमादेवी, शा० श्रीरंग, सदारंग प्रमीपालादि के सहित शा० सचवीर ने. जै० ले०सं०भा०१ ले० ३९८, ३६६,४०५, ४२४,१५२,१५५,१५७ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड :: विभिन्न प्रान्तों में प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें- -भारत के विभिन्न प्रसिद्ध २ नगर- दिल्ली :: [ ४६४ बिहार (तुड़िया नगरी) के लालबाग के श्री जिनालय में धातु-प्रतिमा प्र० आचार्य तपा० लक्ष्मीसागरसूरि प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा सं० १५३६ वै० शु० ३ सोम ० कुन्थुनाथ सं० १५२४ वै० शु० १३ सं० १५२१ माघ शु० १३ सं० १५३६ माघ शु० ५ सं० १४३३ सं० १४७१ माघ शु० १० सं० १४८६ वै० शु० सं० १५१७ वै० शु० ८ पटना (पाटलीपुत्र) के श्री नगर - जिनालय में धातु- प्रतिमा वासुपूज्य नेमिनाथ चन्द्रप्रभ पार्श्वनाथ श्रादिनाथ धर्मनाथ पद्मप्रभ वासुपूज्य प्रा० ज्ञा० प्रतिमा - प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि प्रा० ज्ञा० मं० माईया स्त्री बरजूदेवी के ! पुत्र श्रीधर स्त्री मांजूदेवी के पुत्र गोरा स्त्री रुक्मिणी के पुत्र वर्द्धमान ने माता-पिता के श्रेयोर्थ. तपा० लक्ष्मीसागरसूरि स्वतन्त्र भारत की राजधानी दिल्ली श्री जिनालय में धातु- प्रतिमा (चेलपुरी) तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा० ज्ञा० ० कटाया स्त्री राऊं के पुत्र धना स्त्री हमकू के सूरि, सोमदेवसूरि- पुत्र चांपा ने स्त्री धर्मिणि, नामाणि आदि के सहित स्वश्रेयोर्थ तपा० लक्ष्मीसागर - प्रा० ज्ञा० श्रे० काजा स्त्री सारूदेवी के पुत्र हापा ने मा० आदि के सहित. गुणभद्रसूरि शांतिनाथ तपा० लक्ष्मी सागरसूर सूर श्री जिनालय में ( नवघरे) तपा० सोमसुन्दर सूरि प्रा० ज्ञा० सं० आमदेव भार्या रातूदेवी के पुत्र शा० आन्हा ने स्वस्त्री सोनीबहिन, पुत्र हासादि के सहित स्वश्रेयोर्थ. प्रा० ज्ञा० लघु० शा ० ० आसा भार्या ललितादेवी. प्रा० शा ० ० रामा ने स्वस्त्री, माता-पिता के श्रेयोर्थ. सं० १५२५ मा० शु० ह सं० १५५६ पौ० कृ० ४ गुरु० जै० ले० सं० भा० १ ० २२२, २८३, ४४४, ४४६, ४५६, ४६३, ४६६, ४८२, ४८४, ४६६ । प्रा० ज्ञा० शा ० साजण स्त्री लाखूदेवी के पुत्र केल्हा ने स्वस्त्री लक्ष्मीदेवी, भ्रातृ भीमराज, पद्मराजादि के सहित. प्रा० ज्ञा० शा ० देवपाल ने पुत्र हरसिंह, करणसिंह स्त्री चन्द्रादेवी, धर्मराज, कर्मराज, हंसराज, कालूमल एवं भ्रातृ हीराचन्द्र ने स्वस्त्री हीरादेवी पुत्र अदा, वरा, लाजादि सहित. तपा० लक्ष्मीसागर - सीपुरावासी प्रा० ज्ञा० शा ० राजा के पुत्र तोपा ने स्वस्त्री सूरि रानूदेवी, पुत्र सधारण, हीराचन्द्र के सहित स्वश्रेयोर्थ. मड़ाहड़गच्छीय मतिसुन्दरसूरि दधालीयावासी प्रा०ज्ञा० शा ० राजा की स्त्री राजुलदेवी ने पुत्र पोमा भा० झमकूदेवी के पुत्र के श्रेयोर्थ. Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय सार प्र० वि० संवत् प्र० प्रतिमा प्र. प्राचार्य प्रा० शा० प्रतिमा-प्रतिष्ठापक श्रेष्ठि सं० १६४३ फा० शीतलनाथ तपा० विजयसेन- पत्तनवासी प्रा० ज्ञा० श्राविका बाई पूराई के पुत्र देवचन्द्र । शु० ११ गुरु० सूरि की स्त्री बाई हांसी के पुत्र रायचन्द्र भीमचन्द्र ने. श्री चीरेखाने के जिनालय में सं० १५-५ फा० सम्भवनाथ सर्वसरि प्रा. ज्ञा. शा. घेरा स्त्री पूजी के पुत्र पूनमचन्द्र भा० कृ. ६ सोम. ललतूदेवी पुत्र तोलचन्द्र के पुत्र कर्मसिंह ने. अजमेर सं० १५२१ ज्ये० सुमतिनाथ तपा० लक्ष्मीसागर- प्रा. ज्ञा० शा. जयपाल की स्त्री वासूदेवी के पुत्र शा० शु०४ हीराचन्द्र स्त्री हीरादेवी के पुत्र शा. मांडण ने स्वस्त्री रंगादेवी के श्रेयोर्थ. सं० १५२५ चै० सुविधिनाथ ............ प्रा० ज्ञा० श्रे० सोमचन्द्र स्त्री रहलादेवी के पुत्र शिवराज ७० ६ शनि० स्त्री सौभागिनी के पुत्र पद्मा ने स्वस्त्री पहूती के सहित. सं० १५२७ पौ० नेमिनाथ तपा० जिनरत्न- प्रा० ज्ञा० म० हेमादेवी के पुत्र बईजा (?) ने स्वसा कलाकृ० १ सरि देवी के श्रेयोथे. श्री सम्भवनाथ-जिनालय में सं० १३७६ वै० शांतिनाथ महेन्द्रसरि प्रा. ज्ञा० महं० कंधा के पुत्र मान्हराज ने. कृ. ५ गुरु० सं० १४८१ मा० पद्मप्रभ सोमसुन्दरसरि प्रा० ज्ञा० श्रे............. शु०१० सं० १४६६ माघ सम्भवनाथ , प्रा० ज्ञा० श्रे० धीरजमल स्त्री धीरलदेवी के पुत्र भीमराज स्त्री भावलदेवी के पुत्र वेलराज की स्त्री वीरणीदेवी ने. सं० १५१७ माघ धर्मनाथ आगमगच्छीय- प्रा. ज्ञा० श्राविका हर्ष के पुत्र नागराज की स्त्री श्राजी के शु० ५ शुक्र० देवरत्नसरि पुत्र श्रे० जिनदास ने स्वश्रेयोर्थ. सं० १५४७ माष वासुपूज्य श्रीसरि प्रा० ज्ञा० श्रे० रूपचन्द्र भा० देदेवी के पुत्र मेरा ने स्वस्त्री हीरादेवी के श्रेयोर्थ. जै० ले०सं०मा०ले०५०४,५११,५३५, ५३७,५३८,५४५, ५४६,५५३, ५५७, ५६३। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] [४६७ :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-रणकुरान वीरवर श्री कालूशाह:: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल रणकुशल वीरवर श्री कालूशाह विक्रम की तेरहवीं शताब्दी राजस्थान में गढ़ रणथंभौर का महत्त्व राणा हमीर के कारण अत्यधिक बढ़ा है। राणा हमीर वीरों का मान करता था और सदा वीरों को अपनी सैन्य में योग्य स्थान देने को तत्पर भी रहता था। उसकी सैन्य में यहाँ तक कि यवन-योद्धा भी बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से भर्ती होते थे और राणा हमीर उनका बड़ा वंश-परिचय विश्वास करता था । राणा हमीर के समय में रणथंभौर का जैन श्रीसंघ भी बड़ा ही समृद्ध एवं गौरवशाली रहा है। अनेक जैन योद्धा उसकी सैन्य में बड़े २ पदों पर आसीन थे । राणा हमीर जैन-धर्म का भी बड़ा श्रद्धालु था तथा जैन यतियों एवं साधुओं का बड़ा मान करता था । यही कारण था कि जैनियों ने राणा हमीर की युद्ध-संकट एवं प्रत्येक विषम समय में तन, मन एवं धन से सेवायें की थीं। राणा हमीर की सैन्य में जो अनेक जैनवीर थे, उनमें प्राग्वाटज्ञातीय प्रतापसिंह की आज्ञाकारिणी धर्मपत्नी यशोमती की कुक्षी से उत्पन्न नरवीर कालुशाह भी थे। कालूशाह के पिता प्रतापसिंह कृषि करते थे और उससे प्राप्त प्राय पर ही अपने वंश का निर्वाह करते थे। कृषि करने वालों में उनका बड़ा मान था। हरिप्रभसूरि के उपदेश से उनमें धर्म की लग्न जगी और वे अत्यन्त दृढ़ धर्मी और क्रियापालक बन गये। एक बार जब हरिप्रभसूरि का रणथंभौर में पदार्पण कालूशाह के पिता प्रतापसिंह । हुआ था, तो उन्होंने सूरि के नगर-प्रवेश का महोत्सव करके पुष्कल द्रव्य व्यय किया था और चातुर्मास का अधिकतम व्यय-भार उन्होंने ही उठाया था। तत्पश्चात् दैवयोग से उनको कृषि में दिनोंदिन अच्छा लाभ प्राप्त होता गया और वे एक अच्छे श्रीमन्त कृपक बन गये। नरवीर कालूशाह अपने पिता की जब सहायता करने के योग्य वय में पहुँच गया तो उसने पिता को समस्त गृहसंबंधी चिंताओं से मुक्त कर दिया और आप कृषि करने लगे और घर की व्यवस्था का चालन करने लगे। कालूशाह बचपन से ही निडर, साहसी और सत्यभाषी थे। ये किसी से नहीं डरते थे । कालूशाह का समय सामंतशाही काल था, जिसमें प्रजा का भोग एवं उपभोग एक मात्र राना, सामंत और ग्रामठक्कुर के लिये ही होता .. था और प्रजा भी इसी में विश्वास करती थी। परन्तु नरवीर कालूशाह ऐसी प्रजा में कालूशाह की साहसिकता " से नहीं थे। वे स्वाभिमानी थे और न्याय एवं नीति के लिये लड़ने वाले थे। ये दिव्य गुण इनमें बचपन से ही जाग्रत थे। एक दिन राणा हमीर के कुछ सेवक अश्वशाला के कुछ घोड़ों को बाहर चराने के लिये ले गये। कालुशाह का खेत हरा-भरा देखकर उन्होंने घोड़ों को खेत में चरने के लिये छोड़ दिया। कालूशाह का एक सेवक खेत की रखवाली कर रहा था। उसने घोड़ों को हांक कर खेत के बाहर निकाल दिया। इस पर Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय राणा के सेवक उसपर अत्यन्त क्रुद्ध हुये और उन्होंने उसको बुरी तरह मारा और पीटा। सेवक रोता २ कालूशाह के पास में पहुँचा । कालूशाह यह अन्याय कैसे सहन कर सकते थे, तुरन्त खेत पर पहुँचे और राणा के सेवकों को एक २ करके बुरी तरह से पीटा और उनको बंदी बनाकर तथा घोडों को पकड़ कर अपने घर ले आये । कालूशाह के इस साहसी कार्य के समाचार तुरन्त नगर भर में फैल गये । परिजनों एवं संबंधियों के अत्यधिक कहने-सुनने पर इन्होंने राणा के सेवकों को तो मुक्त कर दिया, परन्तु घोडों को नहीं छोड़ा। राजसेवकों ने राणा के पास पहुँच कर अनेक उल्टी सीधी कही और कालूशाह के ऊपर उसको अत्यन्त क्रुद्ध बना दिया । राणा हमीर ने तुरंत अपने सैनिकों को भेज कर कालूशाह को बुलवाया । कालूशाह भी राणा हमीर से मिलने को उत्सुक बैठे ही थे । तुरन्त सैनिकों के साथ हो लिये और राजसभा में पहुँच कर राणा को अभिवादन करके निडरता के साथ खड़े हो गये । राणा हमीर ने लाल नेत्र करके कालूशाह से राजसेवकों को पीटने और राजघोड़ों को बंदी बना कर घर में बांध रखने का कारण पूछा और साथ में ही यह भी धमकी दी कि क्या ऐसे उद्दंड साहस का फल कठोर दंड से कोई साधारण सजा हो सकती है ! कालूशाह ने निडरता के साथ में राणा को उत्तर दिया कि जब राजा प्रजा से कृषि - कर चुकता है तो वह कृषि का संरक्षक हो जाता है। ऐसी स्थिति में कोई ही मूर्ख राजा होगा जो कृषि फिर नष्ट, भ्रष्ट कराने के विचारों को प्राथमिकता देता होगा ! अपनी प्यारी प्रजा का पालन, रक्षण करके ही कोई नरवीर राजा जैसे शोभास्पद पद को प्राप्त करता है और प्रजाप्रिय बनता है और प्रजा का सर्वनाश एवं नुकसान करके वह अपने स्थान को लज्जित ही नहीं करता, वरन प्रजा की दुराशीष लेकर इहलोक में अपयश का भागी बनता है और परलोक में भी तिरस्कृत ही होता है । राणा हमीर कालूशाह के निर प्रत्युत्तर को श्रवण करके दंग रह गया । कालूशाह के ऊपर अधिक कुपित होने के स्थान पर उसके ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने सेवकों को बुरी तरह अपमानित करके आगे भविष्य में ऐसे अत्याचार करने से बचने की कठोर आज्ञा दी । राणा हमीर ने अपना कंठ मधुर करके कालूशाह को अपने निकट बुलाया और राजसभा के समक्ष उसको अपनी सैन्य में उच्चपद पर नियुक्त करके उसके गुणों की प्रशंसा की । कालूशाह अब कृषक से बदल कर सैनिक हो गया । धीरे २ कालूशाह ने ऐसी रणयोग्यता प्राप्त की कि राणा हमीर ने कालूशाह को अपना महाबलाधिकारी जिसको दंडनायक अथवा महासैनाधिपति कहते हैं, बना दिया जब दिल्ली के आसन पर अल्लाउद्दीन खिलजी अपने चाचा जल्लालुद्दीन को मार कर बैठा, तो उसने समस्त भारत के ऊपर अपना राज्य जमाने का स्वम बांधा और बहुत सीमा तक वह अपने इस स्वन को सरलता से सच्चा अल्लाउद्दीन खिलजी का भी कर सका। फिर भी राजस्थान के कुछ राजा और राणा ऐसे थे, जिनको वह रणथंभौर पर आक्रमण और कठिनता से अधीन कर सका था । इनमें रणथंभौर के राणा हमीर भी थे । अल्लाउद्दीन कालूशाह की वीरता ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करके तथा गुर्जर जैसे महासमृद्धिशाली प्रदेश पर अधिकार विश्वासपात्र सैनापति उलगखां और नुशरतखां को बहुत बड़ा और चुने हुए सैनिकों का सैन्य देकर वि० सं० १३५६ में रणथंभौर को जय करने के लिये भेजे । आक्रमण करने का तुरन्त कारण यह करके अपने महापराक्रमी, Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :. प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-कीर्तिशाली कोचर श्रावक:: [Yt बना था कि अशरणशरण राणा हमीर ने अल्लाउद्दीन के दरबार से भाग कर आये हुये एक यवन को शरण दी थी। इस पर अल्लाउद्दीन अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने तुरन्त ही रणथंभौर के विरुद्ध सबल एवं विशाल सैन्य को भेजा। इस रण में हमारे चरित्रनायक कालूशाह ने बड़ी ही तत्परता एवं नीतिज्ञता से युद्ध का संचालन किया था। यद्यपि राजपूत-सैन्य संख्या में थोड़ी थी, परन्तु राणा हमीर अपने योग्य महाबलाधिकारी की सुनीतिज्ञता से अन्त में विजयी हुआ। उधर यवनशाही सेनापति प्रसिद्ध उलगखां मारा गया। उलगखां की मृत्यु एवं शाही पराजय से अल्लाउद्दीन को बड़ा दुःख हुआ। वि० सं० १३५८ ई. सन् १३०१ में स्वयं अल्लाउद्दीन अपनी पराक्रमी एवं सुसज्जित सैन्य को लेकर रणथंभौर पर चढ़ आया। इस बार युद्ध लगभग एक वर्ष पर्यन्त दोनों दलों में होता रहा । धीरे २ राणा हमीर के योद्धा मारे गये। यद्यपि यवन-सैन्य अति विशाल था और राजपूत-सैनिक हजारों की ही संख्या में थे । अन्त में महाबलाधिकारी कालूशाह और राणा हमीर अपनी थोड़ी-सी बची सैन्य को लेकर केसरिया वस्त्र पहिन कर जौहरव्रत धारण करके निकले और भयंकरता से रण करते हुये, यवनों को मृत्यु के ग्रास बनाते हुये समस्त दिवस भर भयंकर संग्राम करते रहे और अंत में घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुये । इनके मरने पर राजपूत-सैना का साहस टूट गया और वह भाग खड़ी हुई। रणथंभौर पर यवनशासक का अधिकार हो गया । कालूशाह का नाम आज भी रणथंभौर में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कालूशाह की वीरता एवं कीति में अनेक कवियों ने बड़े २ रोचक कविच बनाये हैं। नीचे का एक प्राचीन पद पाठकों को उसकी वीरता एवं रणनिपुणता का परिचय देने में समर्थ होगा । * 'थम्भ दियो रणथम्भ के शूरो कालुशाह, पत राखी चौहाण की पड़ियो सेन अथाह । काली बज्र कर में धरी, खप्पर भरिया पूर, आठ सहस अड़सठ तणा यवन करिया चूर ।' संभव है यह पद कालूशाह की वीरमति के अवसर पर ही किसी बचे हुये योद्धा ने कहा है। अहिंसाधर्म का सच्चा प्रतिपालक, जीवदयोद्धारक एवं शंखलपुर का कीर्तिशाली शासक कोचर श्रावक विक्रम की चौदहवीं शताब्दी ई. चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में और वि० चौदहवीं शताब्दी के मध्य में शंखलपुर नामक ग्राम में जो अणहिलपुरपत्तन से तीस मील के अंतर पर है, प्राग्वाटज्ञातीय बृहत्शाखीय वेदोशाह नामक एक अति उदार श्रीमन्त वेदोशाह और उसका पुत्र रहते थे । वेदोशाह की स्त्री का नाम वीरमदेवी था। इनके एक ही कोचर नामक पुत्र कोचर और उसका समय हुआ और वह बचपन से ही धर्मप्रवृत्ति, दयालु तथा शांतस्वभावी था। इस समय दिल्ली पर तुगलकवंश का शासन था । मुहम्मदतुगलक उद्भट विद्वान् एवं अत्यन्त भावुक-हृदय सम्राट् था । * श्री शिवनारायणजी की हस्तलिखित 'प्राग्वाट-दर्पण' से । Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय । वह सर्व धर्मों का सम्मान करता था । विद्वानों एवं कवि तथा धर्मज्ञों का वह आश्रयदाता था । उसके दरबार में देश के प्रसिद्ध पण्डित एवं साधु रहते थे । वह विशेष कर जैनधर्म के प्रति अधिक आकृष्ट था। श्रावकों का अत्यन्त मान करता था। प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनप्रभसूरि का वह परम भक्त था आदेश एवं सदुपदेश से सम्राट् मुहम्मद ने शत्रुंजय, गिरनार, फलोधी आदि प्रसिद्ध तीर्थों की रक्षा के लिये राज्याज्ञा प्रचारित की तथा अनेक स्थलों एवं पर्वो पर जीवहिंसायें बंद की। देवगिरिवासी संघपति जगसिंह तथा खंभातवासी संघपति समरा और सारंग की सम्राट् मुहम्मद तुगलक की राजसभा में अति मान एवं प्रतिष्ठा थी । सम्राट् के सामन्त एवं सेवक भी जैनधर्म का सत्कार करते थे तथा जैनाचार्यों एवं श्रावकों का बड़ा मान करते थे । वह जैन साधु एवं इन जैनाचार्य के शंखलपुर' के पास में बहिचर नामक ग्राम है । उस समय बहुचरा नामक देवी का वहाँ एक प्रसिद्ध स्थान था । इस देवी के मन्दिर पर प्रतिदिन हिंसा होती थी। कोचर जैसे दयालु श्रावक को यह कैसे सहन होता ? वह इस हिंसा को बंद करवाने का प्रयत्न करने लगा। कोचर आवक एक समय खंभात बहुचरा देवी और पशुबली गया हुआ था | एक दिन वह जैन- उपाश्रय में किसी प्रसिद्ध जैन आचार्य अथवा साधु महाराज का व्याख्यान श्रवण कर रहा था । उपयुक्त अवसर देखकर कोचर श्रावक ने बहुचर ग्राम में बहुचरादेवी के आगे होती पशुबली के ऊपर गहरा प्रकाश डाला और प्रार्थना की कि पशुबली को तुरन्त बन्द करवाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये । व्याख्यान में खंभात के प्रसिद्ध श्रीमंत श्रेष्ठि साजणसी भी उपस्थित थे । साजणसी स्वयं परम प्रभावक एवं अति प्रसिद्ध श्रीमंत थे । इनके पिता सं० समरा अपने भ्रातृज सारंग के साथ मुहम्मद तुगलक की राज्य सभा में रहते थे । इस कारण से भी इनका मान और गौरव अधिक बढ़ा हुआ था । श्रीसंघ के ग्रह से इस कार्य में सहाय करने के लिये सं० साजणसी तैयार हुये । तुगलक सम्राट् की ओर से एक प्रतिनिधि (स्वादार) खंभात में रहता था, जो समस्त गुजराज पर शासन करता था । श्रावक कोचर एवं सं० साजणसी दोनों शाही प्रतिनिधि के पास गये ! शाही प्रतिनिधि सं० साजणसी कोचर की सम्राट के प्रतिनिधि का बड़ा मान करता था और उनको चाचा कह कर पुकारता था तथा बनता वहां तक से भेंट और कोचर का शंखल- सं० साजणसी की प्रत्येक प्रार्थना और आदेश को मान देता था । सम्राट् के प्रतिनिधि पुरका शासक नियुक्त होना ने सं० साजणसी और कोचर श्रावक का बहुमान किया । बहुचरा ग्राम में बहुचरादेवी के मन्दिर पर होती पशुवली ही बन्द नहीं की, वरन् श्रावक कोचर की जीवदया - भावना से अत्यन्त मुग्ध होकर उसने श्रावक कोचर को शंखलपुर का शासक नियुक्त कर दिया । १ 'शंखलपुर' का वास्तविक नाम 'सलखणपुर' होना चाहिए । २ 'कोचर व्यवहारी रास' के आधार पर - जिसकी रचना तपागच्छनायक श्रीमद् विजय मेनसूरि के समय में डिसा नगर (गुजरात) में वि० सं० १६८७ आश्विन शु० ६ को कविवर कनकविजयजी के शिष्यवर कविवर गुणविजयजी ने की थी । 'कोचररास' के कर्त्ता ने श्री सुमतिसाधुसूरि का नाम लिखा है। 'तपागच्छपट्टावली' के अनुसार ये आचार्य सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुये हैं और कोचर चौदहवीं शताब्दी के अंत में। दूसरी बात सं० समराशाह ने शत्रुंजय का संघ वि० सं० १३७१ में निकाला और उसके पुत्र साजणसी ने कोचर श्रावक को शंखलपुर का शासक बनाने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया का स्पष्ट उल्लेख है । त० प० भा० १५० २०२ प्र० ५४ वि० ती ० क० पृ० ५ तः स्पष्ट है कि उपरोक्त जैनाचार्य श्री सुमतिसाधुसूरि नहीं होकर कोई अन्य प्राचार्य थे । तथा 'वैक्रमे वत्सरे चंद्रहयाग्नीन्द्र (१३७१) मिते सती श्री मूलनायकोद्धार साधुः श्री समरो व्यधात् १२०' । 'श्रीमत् कुतुबदीनस्य राज्यलक्ष्म्या विशेषकः । ग्यासदीनाभिधस्तंत्र पातसाहिस्तदाऽभवत् ॥ ३२४ ॥ तेनातीव प्रमोदेन स्मरसाधु सगौरवम् । सन्मान्य खानवदयं पुत्रत्वे प्रत्यदद्यत ॥ ३२५ ॥ तब सं० समराशाह के पुत्र सं ० साजणसी का सम्मान खंभात का सम्राट् प्रतिनिधि करें, उसमें आश्चर्य ही क्या है । ना० न० प्र० पृ० १६५ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल - कीर्तिशाली कोचर श्रावक :: खण्ड ] शंखलपुर के अधीन निम्न ग्राम थे: २- वड्डावली १- हासलपुर ५-बहिचर ह - मोढ़ेरू ६–टूहड़ १०- कालहर ११ - छमीघु कोचर श्रावक इस प्रकार बारह ग्रामों का शासक बनकर सं० साजणसी के साथ उपाश्रय में पहुँचा और गुरु को वंदना करके वहाँ से राजसी ठाट-बाट एवं सैन्य के साथ शंखलपुर पहुँचा । उपरोक्त बारह ग्रामों में हर्ष मनाया गया तथा शंखलपुर में समस्त प्रजा ने श्रावक कोचर का भारी स्वागत करके उसका नगर में प्रवेश कराया। कोचर के परिजन, माता, पिता एवं स्त्री को अपार आनन्द हुआ । ३ - सीतापुर ७- देलवाड ४ - नाविश्राणी ८-देनमाल [ ५०१ कोचर श्रावक ने ज्यों ही शंखलपुर का कार्यभार संभाला, उसने अपने अधीन के बारह ग्रामों में पशुबली को एक दम बंद करने की तुरंत राज्याज्ञा निकाली । समस्त प्रजा कोचर के दिव्य गुणों पर पहिले से ही मुग्ध ही, कोचर का जीवदया प्रचार इस राज्याज्ञा से कोचर की दयाभावना का प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और स्थान २ तथा शंखलपुर में शासन होती पशुबली बन्द हो गई । कोचर ने बारह ग्रामों में जीवदया - प्रचार कार्य तत्परता से प्रारम्भ किया । पानी भरने के तलावों एवं कुओं पर पानी छानने के लिये कपड़ा राज्य की ओर से दिया जाने लगा, यहाँ तक कि पशुओं को भी उपरोक्त बारह ग्रामों में अन्ना पानी पीने को नहीं मिलता था । उसने अपने प्रांत में आखेट बन्द करवा दी। जंगलों में हिरण और खरगोश निश्चिंत होकर रहने लगे । जलाशयों में मछली का शिकार बन्द हो गया । इस प्रकार आमिष का प्रयोग एकदम बन्द हो गया । शंखलपुर के प्रान्त में इस प्रकार अद्भुत ढंग से उत्कृष्ट जीवदया के पलाये जाने से कोचर श्रावक की कीर्त्ति दूर-दूर तक फैलने लगी। दूर के संघ कोचर का यशोगान करने लगे। कवि, चारण भी यत्र-तत्र सभाओं में व्याख्यानकोचर श्रावक की कीर्त्ति का स्थलों में, गुरु मुनिमहाराजों, साधु-संतों के समक्ष कोचर की कीर्त्ति करने लगे । कोचर प्रसार और सं० साजरा सी श्रावक को शंखलपुर का शासन प्राप्त हुआ था, उसमें खंभात के श्री संघ तथा विशेषको ईर्ष्या कर सं० साजणसी का अधिक सहयोग था, अतः खंभात में कोचर श्रावक की कीर्त्ति धिक प्रसारित हो और खंभात का श्री संघ उसकी अधिक सराहना करे तो कोई आश्चर्य नहीं । खंभात में जब घर-घर और गुरु- मुनिराजों के समक्ष भी कोचर की कीर्त्ति गाई जाने लगी तो सं० साजणसी को इससे अत्यधिक ईर्ष्या उत्पन्न हुई कि उसके सहयोग से बना व्यक्ति कैसे उससे अधिक कीर्तिशाली हो सकता है । वह अवसर देख कर * 'कोचर-व्यवहारी रास' के कर्त्ता ने उपरोक्त वार्ता को देपाल नामक कवि का वर्णन करके चर्चा है। राम के कर्त्ता ने देपाल को समराशाह के कुलका आश्रित कवि होना लिखा है, जो भ्रमात्मक है; क्योंकि देपाल की अनेक कृत्तियाँ उपलब्ध हैं, जो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रची हुई हैं और समराशाह चौदहवीं शताब्दी के अन्त में हुआ है, अतः अघटित है । देपाल समराशाह के वंशजों का समाश्रित भले ही हो सकता है। देपाल के लिये देखो:- (१) ऐ० रा० सं० भा १ पृ० ७ (२) जै० गु० क० भा० १५० ३६-३६ दूसरी बात - स्वयं कोचर और देपाल किसी भी प्रकार समकालीन सिद्ध नहीं किये जा सकते। खरतरगच्छ नायक जिनोदयसूरि का कोचर श्रावक ने पुरप्रवेश बड़े धूमधाम से करवाया था, जिसका उल्लेख सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखी गई खरतरगच्छ की प्राचीन पहावली में इस प्रकार उपलब्ध है 'वर्त्तित द्वादशयामारिघोषणेन सुरत्राण सनाखत सा० कोचर श्रावकेण सलखणपुरे कारित प्रवेशोत्सवाना' जिनोदयसूरि का काल वि० सं० १४१५-३२ है । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय सम्राट् के प्रतिनिधि के पास पहुँचा और उसने कोचर श्रावक के विषय में अनेक झूठी २ बातें बनाई। इतना ही नहीं प्रतिनिधि को इस सीमा तक भड़काया कि उसने तुरन्त कोचर को बुलाकर कारागार में डाल दिया । इस कुचेष्टा से सं० साजणसी का भारी अपयश हुआ और सर्वत्र उसकी निन्दा होने लगी । शंखलपुर की प्रजा और दूर २ के संघ कोचर श्रावक को मुक्त कराने का प्रयत्न करने लगे। अंत में सं० साजणसी को अपने किये पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । उधर सम्राट् के प्रतिनिधि को भी समस्त भेद ज्ञात हो गया, अतः फलतः कोचर श्रावक तुरन्त देखिये- (१) वाडी पार्श्वनाथ - विधिचैत्य-प्रशस्ति शिलालेख । D. C. M. P. (G. O, S. VO. LXXVI.) go 828 (२) जिनकुशलसूर का स्वर्गवास वि० सं० १३८६ में हुआ और जिनोदयसूरि उनके पांचवे पट्टधर थे । 'गच्छमतप्रबंध' पृ० ३७ (३) 'शतक' ॐ ॥ सं० १४१६ भाग व० ५ सा० दाहड़" 'संवत् १४२३ वर्षे सा० मेहासुश्रावकपुत्र सा० उदयसिंहेन पुत्र सा० लूणा-वयराभ्या युतेन स्वपुत्रिकायापुण्यार्थं ।" 'शतकवृति पुस्तकं' मूल्येन गृहीत्वा निजखरतरगुरु श्री जिनोदयसूरिणं प्रादामि । [जैसलमेर बृहद् भंडार ] 'जिनचंद्रसूरि जिनकुशल सूरि - जिनपद्मसूरि गुरवः स्युः । जिनलब्धिजिनचन्द्रो जिनोदयः सूरि जिनराजः ||१६|| ' [ श्रीकल्पसूत्रम् ] प्र० सं० पृ० १५ 'श्री खरतरगच्छे श्री जिनोदयसूरिभिः' जै० ले० २२६७ कोचर-व्यवहारी- रास-कर्त्ता ने रास की रचना संभवतः श्रुति के आधार पर की है प्रतीत होता है। देपाल और सुमतिसाधुसूरि श्रवश्यमेव समकालीन थे । परन्तु कोचर श्रावक को इनका समकालीन मानने में खरतरगच्छपट्टावली का उपरोक्त उद्धरण तथा प्रा० जै० सं० लेखक ३७ बाधक हैं । 'कोचर व्यवहारी-रास' से खरतरगच्छपट्टावली तथा उक्त लेखांक अधिक विश्वसनीय भी है, क्योंकि उक्त रास की रचना वि० सं० १६८७ में हुई है और इनकी सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब कि देपाल कवि भी विद्यमान् था और जैन कवियों में अग्रगण्य महाकवि था । फिर भी रास में वर्णित घटना को पाठकों के विचारार्थं यहां वर्णन कर देता हूँ । देपाल कवि एक समय कोचर की कीर्त्ति श्रवण करके शंखलपुर पहुँचा और कोचर से मिला और उसके अधीन शंखलपुर नगर के अधीन के बारहग्रामों में अद्भुत ढंग से पलायी जाती हुई जीव दया को देख कर वह अत्यन्त मुग्ध हुआ और श्रावक कोचर की कीर्त्ति में उसने कविता रची और कोचर को सुनाई। कोचर ने महाकवि देपाल का बहुत संमान किया और उसको बहुत द्रव्य दान में दिया । देपाल कवि जब खंभात पहुँचा तो उसने गुरु महाराज के समक्ष कीर्त्तिशाली कोचर श्रावक की और उसके शासन प्रबंध तथा जीव- दया-प्रचार की भूरी २ प्रशंसा की। समस्त श्रीसंघ तथा गुरुमहाराज को कोचर की धर्म -श्रद्धा सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । परंतु सं० साजणसी को ईर्ष्या हुई कि मेरी सहायता से उन्नत हुआ कोचर मुझसे भी अधिक कीर्त्ति एवं यश का भाजन बनता है और फिर मेरे ही आश्रित कवि द्वारा उसकी कीर्त्तिकविता की जाती है। सं० साजणसी ने कोचर श्रावक के विरुद्ध षडयंत्र रचने का विचार किया और उसको शासन - कार्य से च्युत कराकर कारागार में डलवाने का दृढ़ संकल्प किया । सं० साजणसी गुजरात के शासक के पास पहुंचा और कोचर श्रावक के विषय में अनेक झूठी २ बातें बनाकर उसको कोचर पर रुष्ट किया । इतना ही नहीं कोचर को बुलवा कर बन्दीगृह में डलवाया । सं० साजणसी के इस कुकृत्य से श्रीसंघ में सं० साजणसी की भारी अपकीर्त्ति हुई तथा देपाल कवि पर भी लोगों की श्रद्धा हुई। यह समस्त घटना घटी, उस समय देपाल कवि वहाँ नहीं था, वह शत्रु जयतीर्थ की यात्रा को गया हुआ था। जब वह लौट कर आया और उसने कोचर श्रावक को कारागार का दंड मिला सुना, उसने तुरन्त सं० साजणसी की स्तुति में कविता रची। कविता को सुनकर सं० साजणसी अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने देपाल का समुचित सत्कार किया । उचित अवसर देख कर देपाल ने सं ० साजणसी से कहा कि आपकी महति कृपा से बहुचरादेवी के पूजारीगण अत्यन्त प्रसन्न हुये हैं तथा बहुचरादेवी के आगे लोग निडरता से पशुबली करते हैं और इस प्रकार बहुचरादेवी का वह पूर्व गौरव पुनः स्थापित हो गया है । यह सुनकर सं० साजणसी अत्यन्त लज्जित हुआ और उसने देपाल कवि को वचन दिया कि वह तुरन्त गुजरात के शासक के पास जाकर कोचर को मुक्त करावेगा और उसको पुनः शंखलपुर का शासन- भार दिलावेगा । देपाल कवि सं० साजणसी की इस हृदय की सरलता पर अत्यन्त मुग्ध होकर अपने स्थान पर चला गया । सुअवसर देखकर सं० साजणसी सम्राट् के प्रतिनिधि ( गुजरात का शासक) के पास पहुँचा । सम्राट् के प्रतिनिधि को भी कोचर को कारागार में डलवाने का भेद ज्ञात हो गया था; अतः अधिक विचार नहीं करना पडा। कोचर मुक्त कर दिया गया और वह पुनः शंखलपुर का शासक नियुक्त किया गया । कीर्त्तिशाली कोचर ने जीव- दया-पालन में अपनी सम्पूर्ण श्रायु व्यतीत की तथा न्याय एवं धर्मं-नीति से शंखलपुर का शासन किया । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-मंत्री श्री चांदाशाह :: ही मुक्त कर दिया गया और उसने पुनः शंखलपुर का शासन बड़ी योग्यता एवं तत्परता से किया और उत्कृष्ट जीवदया का पालन कराया । कोचर श्रावक ने जीवदया एवं धर्मसम्बन्धी अनेक कार्य किये। खरतरगच्छनायक जिनोदयसरि का उसने भारी धूम-धाम से उल्लेखनीय पुरप्रवेशोत्सव किया था। कोचर कवि एवं पण्डितों का सम्मान करता था । कोचर की जीवदयासम्बन्धी कीर्ति सदा अमर रहेगी। प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री कर्मण विक्रम की सोलहवीं शताब्दी विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अहमदाबाद में, जब कि वहाँ महमूदबेगड़ा नामक बादशाह राज्य कर रहा था, जिसका राज्यकाल वि० सं० १५१५ से १५६८ तक रहा है, प्राग्वाटज्ञायीय कर्मण नामक अति प्रसिद्ध पुरुष हो गया है। यह बड़ा बुद्धिमान्, चतुर एवं नीतिज्ञ था। महमूदबेगड़ा ने इसको योग्य समझ कर अपना मंत्री बनाया। मंत्री कर्मण बादशाह के अति प्रिय एवं विश्वासपात्र मंत्रियों में था। मंत्री कर्मण तपागच्छनायक श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि का परम भक्त था। __ श्रीमत् सोमजयसरि के शिष्यरत्न महीसमुद्र को इसने महामहोत्सवपूर्वक वाचक-पद प्रदान करवाया था। इसी अवसर पर उक्त आचार्य ने अपने अन्य तीन शिष्य लब्धिसमुद्र, अमरनंदि और जिनमाणिक्य को भी वाचकपदों से सुशोभित किये थे। इन तीनों का वाचकपदप्रदानमहोत्सव क्रमशः पौत्री कपुरी सहित शत्रुजवतीर्थ की यात्रा करने वाले संघपति गुणराज, दो० महीराज और हेमा ने किया था। १ ।। मंडपदुर्गवासी प्राग्वाटज्ञातीय प्रमुख मंत्री श्री चांदाशाह ___विक्रम की सोलहवीं शताब्दी श्रे० चांदाशाह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में मालवप्रदेश के यवनशासक का प्रमुख मंत्री हुआ है। यह माण्डवगढ़ का वासी था। यह बड़ा राजनीतिज्ञ एवं योग्य प्रबंधक था । यह बड़ा धर्मात्मा एवं जैनधर्म का दृढ़ अनुयायी था। यह हृदय का उदार और वृत्तियों का सरल था। अवगुण इसमें देखने मात्र को नहीं थे। यह नित्य जिनेश्वरदेव के दर्शन करता और प्रतिमा का पूजन करके पश्चात् अन्य सांसारिक कार्यों में लगता था । यह इतना धर्मात्मा था कि लोग इसको 'चंद्रसाधु' कहने लग गये थे । इसने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघयात्रायें करके पुष्कल द्रव्य का व्यय किया था और संघपति पद को प्राप्त किया था। इसने माण्डवगढ़ में बहत्तर ७२ काष्ठमय जिनालय और अनेक धातुचौवीशीपट्ट करवाये थे और उनकी प्रतिष्ठाओं में अगणित द्रव्य का व्यय किया था । यह मालवपति महम्मद प्रथम और द्वितीय के समय में हुआ है । २ १ जै० सा० सं० इति० पृ० ४६८-६E. २० सा० सं० इति० पृ० ४६७. Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय देवासनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री देवसिंह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी देवासराज्य पर जब माण्डवगढ़पति मुसलमान शासकों का अधिकार था, माफर मलिक नामक शासक के श्री देवसिंह प्रमुख एवं विश्वस्त मंत्रियों में थे। यवन यद्यपि जैन एवं वैष्णव मंदिरों के प्रबल विरोधी थे, परन्तु माफर मलिक की मंत्री देवसिंह पर अतिशय कृपा थी; अतः विरोधियों की कोई युक्ति सफल नहीं हुई और मंत्री देवसिंह ने बहुत द्रव्य व्यय करके चौवीस जिनमंदिरों और पित्तलमय अनेक चतुर्विंशतिजिनपट्ट बनवाये और पुष्कल द्रव्य व्यय करके वाचक आगममंडन के कर-कमलों से उनकी प्रतिष्ठा करवाई । १ स्तम्भनपुरवासी परम गुरुभक्त ठक्कुर कीका विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी (१७) के प्रारंभ में दिल्ली सम्राट अकबर की राजसभा में श्रीमद् हीरविजयसूरि का प्रभाव बढ़ता जा रहा था और अन्यत्र भी उनके प्रसिद्ध, यशस्वी, प्रतापी भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही थी। खंभात में भी उक्त प्रभावशाली प्राचार्य के अनेक परम भक्त थे, जिनमें सोनी तेजपाल, सं० उदयकरण, ठक्कुर कीका, परीक्षक राजिया, वजिया आदि प्रमुख थे। ठक्कुर कीका प्राग्वाटज्ञातीय पुरुष था और वह अति धनाढ्य था । श्रीमद् हीरविजयथरि ने अपने साधुजीवन में खंभात में सात चातुर्मास किये थे तथा भिन्न २ संवतों में पच्चीस २५ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें की थीं तथा उनका स्वर्गवास वि० सं० १६५२ में ऊना (ऊना-देलवाडा) में ही हुआ था। उनके पट्टधर श्रीमद् विजयसेनसूरि ने भी खंभात में २२ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें की थीं । उक्त दोनों आचार्यों के प्रति खंभात के श्रीसंघ की अपार भक्ति थी। ठक्कुर कीका ने उक्त दोनों प्राचार्यों द्वारा किये गये चातुर्मासों एवं धर्मकृत्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया था । वि० सं० १५६० फा० कृ. ५ को मुनि सोमविमल को खंभात में गणिपद प्रदान किया गया था, उस शुभोत्सव पर ठक्कुर कीका ने अति द्रव्य व्यय करके अच्छी संघभक्ति की थी। खंभात के पूर्व में लगभग अर्ध कोश के अन्तर पर आये हुये शकरपुर नगर में ठक्कुर कीका, श्रीमल्ल और वाघा ने जिनालय और पौषधशाला बनवाई । ठक्कुर कीका अपने समय के प्रतिष्ठित पुरुषों में अति संमानित व्यक्ति एवं धर्म-प्रेमी और गुरुभक्त श्रावक हुआ है। २ १ जै० सा० सं० इति० पृ० ४६६-५००. २ खे० प्रा० ० इति० पृ.६६,१६०. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-शा०पंजा और उसका परिवार :: शा० पुन्जा और उसका परिवार विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सिरोही नगर में प्राग्वाटज्ञातीय शाह पुंजा रहता था। उसकी स्त्री का नाम उछरंगदेवी था। उसकी कुक्षी से तेजपाल नामक भाग्यशाली पुत्र हुआ। तेजपाल के चतुरंगदेवी शा० पुजा और उसका पुत्र और लक्ष्मीदेवी नाम की दो स्त्रियाँ थीं। चतुरंगदेवी की कुक्षी से वस्तुपाल, वर्धमान तेजपाल और उसका गृहस्थ और धनराज नामक तीन पुत्र और एक पुत्री हुई । पुत्री ने दीक्षा ग्रहण की और वह महिमाश्री नाम से प्रसिद्ध हुई । वस्तुपाल का विवाह अनुपमादेवी के साथ हुआ और उसके सुखमल्ल, इन्द्रमाण और उदयभाण नामक तीन पुत्र हुये । वर्धमान इन तीनों में अधिक प्रभावशाली था। उसके तीन स्त्रियां थीं-केसरदेवी, सरुपदेवी और सुखमादेवी। सुखमादेवी के देवचंद नामक पुत्र हुआ। महिमाश्री ने साध्वी-जीवन व्यतीत करके अपना आत्म-कल्याण किया । चौथा पुत्र धनराज था और रूपवती नामा उसकी स्त्री थी। ___ तेजपाल की द्वितीय स्त्री लक्ष्मीदेवी की कुक्षी से गौड़ीदास नामक पुत्र हुआ। गौड़ीदास की स्त्री अनुरूपदेवी थी और उसके गजसिंह नामक पुत्र हुआ। तेजपाल ने विक्रम संवत् १६६१ श्रावण कृष्णा 8 रविवार को तेजपाल द्वारा प्रतिष्ठित तपगच्छीय भ. श्री विजयप्रभसूरि, प्रा. श्री विजयरत्नसूरि के निर्देश से उपा० प्रतिमायें. । श्री मेघविजयगणि के करकमलों से श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथ-जिनालय के खेलामंडप के उत्तराभिमुख प्रालय में श्री आदिनाथ भगवान् की बड़ी प्रतिमा१ और दशा ओसवालों के श्री आदीश्वर-जिनालय के खेलामंडप में पश्चिमाभिमुख श्री मुनिसुव्रतस्वामीर की बड़ी प्रतिमा बड़ी धूम-धाम से सपरिवार प्रतिष्ठित करवाई। दशा ओसवालों के श्री आदीश्वर-जिनालय के खेलामंडप में शा० पुजा की स्त्री और तेजपाल की माता उछरंगदेवी ने जगद्गुरु सरिसम्राट् श्रीमद् हीरविजयसरिजी की एक सुन्दर प्रतिमा वि० सं० १६६५ वै० शु० ३ तेजपाल की माता उछरंग- बुधवार को तपागच्छीय भ० श्रीविजयसेनमरि के पट्टालंकार भ० श्री विजयतिलकसरि देवी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा के द्वारा अपने पुत्र तेजपाल और तेजपाल के पुत्र वस्तुपाल, वर्धमान, धनराज आदि प्रमुख परिजनों के श्रेय के लिये प्रतिष्ठित करवाई ।३ १-श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथ-मन्दिर के दक्षिण दिशा के श्रालयस्थ श्री आदिनाथबिंब का लेखांश 'श्री तेजपाल भार्या चतुरंगदे पुत्र सा० वस्तुपाल वर्धमान धनराज, तस्य पत्नी रूपी श्री आदिनाथबिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं तःमः श्री विजयप्रभसूरि प्रा० श्री विजयरत्नसूरिनिर्देशात उपा० श्री मेघविजयगणिभिः॥' २-दशा ओसवालों के आदीश्वर-जिनालय के खेला-मण्डपस्थ पश्चिमाभिमुख सपरिकर श्री मुनिसुव्रतबिंब का लेखांशः 'शाह पूजा भार्या उछरंगदे तस्य पुत्र सा तेजपाल तस्य भार्या चतुगदि सपरिकर श्री मुनिसवतबिंब कारापितं ॥श्री।।' ३-'संवत् १६६५ वर्षे वै० सु०३ बुधे भट्टारक श्री हीरविजयसरिसूतिः प्राग्वाटज्ञातीय सा० पुजा भा० बा० उछरंगदे नाम्न्या स्वसुत सा० तेजपाल तत्पुत्र सा० वस्तुपाल वर्धमान धनराज प्रमुखश्रेयसे कारितं प्रति० तपागच्छे भः श्री विजयसेनसारिपट्टालंकार श्री विजयतिलकसूरिभिः ॥ श्रीरस्तुसंघस्य ।। दशा० श्रोस० श्री श्रादी० जिनालय, Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] :: प्राग्वाट इतिहास :: [ तृतीय वर्धमान ने वि० सं० १७३६ मार्ग० शु० ३ बुधवार को भारी प्रतिष्ठोत्सव किया और उस अवसर पर उसने और उसके परिजनों ने अनेक प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई । यह प्रतिष्ठोत्सव श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथ - जिनालय तेजपाल के द्वितीय पुत्र में मूलनायक श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा करवाने के हेतु आयोजित किया वर्धमान द्वारा प्रतिष्ठोत्सव. गया था । शा० वर्धमान ने अपने परिजनों के साथ, जिनमें मुख्य उसका ज्येष्ठ भ्राता शा० वस्तुपाल, कनिष्ठ भ्राता धनराज, गौड़ीदास और उसकी तृतीया स्त्री सुखमादेवी और उसका पुत्र देवचन्द थे श्री मूलनायक शंखेश्वर-पार्श्वनाथ की प्रतिमा महामहोपाध्याय श्री मेघविजयगणि के द्वारा शुभमुर्हत में प्रतिष्ठित करवाई । शा० वर्धमान को इस प्रतिमा के लेख में 'संघमुख्य' पद से अलंकृत किया गया है। इससे सिद्ध होता है वर्धमान का स्थानीय जैनसमाज में अत्यधिक सम्मान था और वह उसके परिवार में अधिक समृद्ध और प्रतिष्ठित था ।१ अतिरिक्त इसके इस शुभ उत्सव पर उसने चौमुखा - आदिनाथ - जिनालय में भी दो प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई । शा० वर्धमान ने श्री चौमुखा श्रादिनाथ - जिनालय की तृतीय मंजिल के चौमुखा गंभारे में तपा० भ० श्री विजयप्रभसूरि, आ० श्री विजयरत्नसूरि के निर्देश से महोपाध्याय श्री मेघविजयगणि द्वारा महिमाश्री के वचनों से सपरिकर पश्चिमाभिमुख श्री सुमतिनाथबिंब और श्रीमद् विजयराजसूरि के करकमलों से भार्या सुखमादेवी और उसके पुत्र देवचंद्र के साथ में इसी गंभारे में दक्षिणाभिमुख श्री आदिनाथ प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई । २ शा० वर्धमान की तीनों स्त्रियाँ केसरदेवी, सरूपदेवी, सुखमादेवी ने भी श्री शंखेश्वर-पार्श्वनाथ - जिनालय के खेलामंडपस्थ श्री अजितनाथ की बड़ी प्रतिमा महोपाध्याय श्री मेघविजयगण द्वारा प्रतिष्ठित करवाई । तेजपाल के तृतीय पुत्र धनराज की स्त्री रूपवती (रूपी) ने भी मेघविजयगणि द्वारा श्री शंखेश्वर - पार्श्वनाथ - जिनालय के खेलामंडप के त्रालय में ऊत्तराभिमुख श्री आदिनाथ की बड़ी प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई । ३ I ४ दशा ओसवालों के श्री आदीश्वर - जिनालय में इसी प्रतिष्ठोत्सव पर शा ० तेजपाल की द्वितीय स्त्री लक्ष्मीदेवी के पुत्र शा ० गौड़ीदास ने अपनी स्त्री अनरूपदेवी और पुत्र गजसिंह के साथ में श्री अजितनाथप्रतिमा को खेलामंडप में त० ग० भ० श्री विजयप्रभसूरि के द्वारा प्रतिष्ठित करवाई। इसी प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर १- 'सा० पुजा भार्या उच्छरंगदे तत्पुत्र सा० तेजपाल भर्या चतुरंगदे तत्पुत्र सा० वस्तुपाल वर्धमान धनराज गौड़ीदास तेषु 'संघ मुख्य ' सावर्धमान नाम्ना भा० सुखमादे पुत्र चिरंजीवी देवचन्द्र प्रमुख परिवारयुतेन श्री शंखेश्वरपाश्र्वनाथबिंबं "मेघविजयगणि प्रमुखपरिकल तैः ॥ मू० ना० प्रतिमालेख - शंखे० जिनालय २ - ' साध्वी महिमाश्री वचनात् स्वपुण्यार्थ श्री सुमतिबिंबं का० प्रतिष्ठितं सं० १७३६ व० मा० सु० ३ बुधे महाराज श्री वयरीसालजी विजयिराज्ये तपा० ग० भः श्री विजयप्रभसूरि आ० श्री विजयरत्नसूरि निर्देशात् महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिभिः प्रतिष्ठितं सा० वर्धमानेन प्रतिष्ठापितं० ॥ चौ० जिनालय 'सा पुंजा भा० उछरंगदे तत्पुत्र सा० तेजपाल भा० चतुरंगदे तत्पुत्र सा० वर्धमान नाम्ना भाग सुखमादे तत्पुत्र देवचन्दयुतेन श्री श्रादिनाथविं का० प्र० त० ग० "विजयराजसूरिभिः ।।' ३- 'श्री तेजपाल भार्या चतुरंगदे पुत्र सा० वस्तुपाल, वर्धमान, धनराज तस्य पत्नीरूपी श्री आदिनाथबिंबं " चौ० जिनालय ..........मेघविजयशंखे० जिनालय. गणिभिः’ 'सा' वर्धमानगृहे भार्या केसरदे सरूपदे सुखमादे नाम्नाभिः मेघविजयगणिभिः’ शंखे० जिनालय ४ - 'सा० पुजा भार्या उछंरदे पुत्र सा० तेजपाल भार्या लखमादे पुत्र सा० गौड़ीदास नाम्ना भार्या अनरूपदे पुत्र गजसिंघयुतेन श्री. अजितनाथबिंबं का० प्र० त० भ० श्री विजयप्रभसूरिभिः ' Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब ] :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल - श्रे० जसवीर :: [ शा० तेजपाल के ज्येष्ठ पुत्र वस्तुपाल की स्त्री अनोपमादेवी की कुक्षी से उत्पन्न ग्रा० सुखमन, इन्द्रभास और उदयभाग नामक तीनों आताओं ने श्री दशा ओसवालों के श्री आदीश्वर - जिनालय के खेलामंडपस्थ उत्तराभिमुख श्री चन्द्रप्रभस्वामी की बड़ी प्रतिमा महोपाध्याय श्री मेघविजय मणिद्वारा प्रतिष्ठित करवाई। शा० पुन्ज के परिवार की कीर्त्ति तब तक स्थायी रहेगी, जब तक उसकी स्त्री उछरंगदेवी, पुत्र तेजपाल और तेजपाल के पुत्र संघमुख्य वर्धमान आदि के द्वारा उपरोक्त तीनों प्रसिद्ध जिनमंदिरों में प्रतिष्ठित प्रतिमायें विद्यमान रहेंगी । वंशवृक्ष शा० पुंजा [ उछरंगदेवी ] I तेजपाल [ चतुरंगदेवी, वर्धमान वस्तुपाल [ अनूपमदेवी ] [केसरदेवी, सरूपदेवी, सुखमादेवी ] I देवचंद सुखमल इन्द्रभाग उदय माण लखमादेवी ] T गौड़ीदास महिमाश्री धनराज [ अनरूपदेवी ] [रूपी] F गजसिंह श्री वागड़देशराजनगर श्री डूंगरपुर के सकलगुणनिधान कृतसुर धर्मभारधुरंधर चैत्यनिर्माता श्रे० जसवीर वि० सं० १६७१ * विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में डूङ्गरपुर के राजसिंहासन पर जब महाराउल श्री पुन्जराज विराजमान थे, उस समय लघुसज्जन प्राग्वाटज्ञातिशृंगारहार श्रेष्ठि मंडन एक बड़े ही सज्जन श्रावक हो गये हैं। इनकी स्त्री का नाम मनरंगदेवी था । मनरंगदेवी सचमुच ही महासती शीलालंकारधारिणी स्त्रीशिरोमणि महिला थी । मनरंगदेवी की कुक्षी से जसवीर और जोगा नामक दो पुत्ररत्न पैदा हुये । प्रथम पुत्र जसवीर समस्त गुणों की खान, महादानी, पुण्यात्मा, धर्मभारधुरंधर सुकृती था। जसवीर के दो स्त्रियाँ थीं । प्रथम जोड़ीमदेवी और द्वितीय पागरदेवी । जोड़ीदेवी की कुक्षी से पुत्ररत्न काहनजी पैदा हुआ था। जसवीर के भ्राता जोगा की स्त्री का नाम भी जोड़ीमदेवी 'वस्तुपाल भार्या अनोपमादे सुत सुखमल्ल, इन्द्रभाण, उदयभाण नामभिः चन्द्रप्रभबिंबं का० प्र० श्री ..........मेघविजयगणि ॥ दशा० आदीश्वर चैत्य, * जै० घा० प्र० ले० सं० भा० १ लेखक १४६२. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] :: प्राग्वाट-इतिहास: [वृतीव जोगा का पुत्र रहिया था। धर्मात्मा जसवीर ने सकल परिवार के श्रेयोर्थ श्री पार्श्वनाथ-जिनालय में मद्रप्रासाद करवाया और तपागच्छनायक श्रीपूज्य श्री ५ श्री सोमविमलसरि के शिष्य कलिकालसर्वज्ञ जगद्गुरु विरुदधारी विजयमान श्री पूज्य श्री ५ हेमसोमसूरीश्वरपट्टप्रभाकर प्राचार्य श्री विमलसोमसूरीश्वर के आदेश से महोपाध्याय श्री आनन्दप्रमोदगणिशिष्य पण्डितश्रेणीशिरोमणी पं० श्री सकलप्रमोदगणिशिष्य पं० तेजप्रमोदगणिद्वारा वि० सं० १६७१ वै० शु० ५ रविवार को शुभमुहूर्त में महामहोत्सवपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करवाई। प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री मालजी विक्रम की अठारहवीं शताब्दी विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दीवबन्दर में प्राग्वाटज्ञातीय जीवणजी नामक प्रसिद्ध एवं गौरवशाली श्रीमंत के पुत्र मालजी नामक श्रावक रहते थे। ये वहां के नरेश्वर के प्रमुख एवं विश्वासपात्र मंत्रियों में थे। चतुर नीतिज्ञ तो थे ही, परन्तु साथ में बड़े धर्मात्मा भी थे; इससे इनका राजा और प्रजा दोनों में बड़ा मान और विश्वास था। मंत्री मालजी बड़े ही गुरुभक्त एवं जिनेश्वरदेव के उपासक थे। वि० सं० १७१६ में दीक्वन्दर में अंचलगच्छाधिपति श्रीमद् अमरसागरसूरि का पर्दापण हुआ था। मंत्री मालजी ने मारी समारोहपूर्वक पुष्कल द्रव्य व्यय करके राजसी ढंग से उनका नगर-प्रवेश करवाया था और विविध प्रकार से उनकी सेवाभक्ति करके गुरुभक्ति का परिचय दिया था। उस वर्ष का चातुर्मास श्रीमद् अमरसागरपरि ने मंत्री माखजी की श्रद्धा एवं भक्तिपूर्ण सत्याग्रह को मान देकर दीववन्दर में ही किया था। उस चातुर्मास में मंत्री मालजी ने गुरुमहाराज से चतुर्थव्रत की प्रतिज्ञा ली और साधर्मिक-वात्सल्य करके सधर्मी बन्धुओं की प्रशंसनीय भक्ति की और अनेक अन्य धर्मकार्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय करके अपार यश की प्राप्ति की। गुरु महाराज के सदुपदेश से मंत्री मालजी ने श्री शांतिनाथ भगवान की एक रौप्यप्रतिमा और अन्य पाषाण की ग्यारह जिनेश्वर-प्रतिमा करवाई और श्री शत्रुजयमहातीर्थ पर एक लघुजिनालय विनिर्मित करवाकर वि० सं० १७१७ मार्गशिर क० १३ को उसमें स्थापित की। ऐतदर्थ चातुर्मास के अनन्तर गुरुमहाराज के सदुपदेश से मंत्री मालजी ने एक लक्ष द्राम व्यय करके श्री शजयमहातीर्थ की भारी संघसहित तीर्थयात्रा की थी। इस प्रकार मंत्री मालजी ने अनेक बार छोटे-बड़े महोत्सव एवं संघभक्तियां करके अपने अगणित द्रव्य का सदुपयोग किया और अमरकीर्ति उपार्जित की। वागड़देशान्तर्गत श्री आसपुरग्रामनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय श्रावककुलशृगार संघवी श्री भीम और सिंह . विक्रम की अठारहवीं शताब्दी वागड़प्रदेश–वर्तमान ढुङ्गरपुर राज्य, बांसवाड़ाराज्य और मेवाड़राज्य का कुछ दक्षिण विभाग जो छप्पनप्रदेश कहलाता है, मिलकर वागड़प्रदेश कहलाता था। म०प०३६२. Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल - संघवी श्री भीम और सिंह :: [ ५०६ वंश - परिचय जब इङ्गरपुरराज्य का स्वामी महारावल गिरधरदास का देहान्त हो गया तो वि० सं० १७१७ के लगभग महारावल गिरधरदास के पुत्र जसवंतसिंह सिंहासनारूढ़ हुये । महारावल जसवंतसिंह का राज्यकाल लगभग वि० सं० १७४८ तक रहा। इनके राज्यकाल में आसपुर नामक नगर में जो इङ्गरपुर से लगभग ८ आठ कोश के अंतर पर विद्यमान है, प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० उदयकरण रहते थे । श्रे• उदयकरण की पतिव्रता पत्नी का नाम अंबूदेवी था । सौभाग्यवती अंबूदेवी की कुक्षी से भीम और सिंह नामक दो यशस्वी पुत्रों का जन्म हुआ । उन दिनों में श्रासपुर के ठाकुर अमरसिंह थे । ठाकुर अमरसिंह के पुत्र का नाम अजबसिंह था । श्रे० ठाकुर अमरसिंह का प्रधान था और ठाकुर साहब तथा कुंवर अजबसिंह दोनों पिता-पुत्रों का ० भीम में अति विश्वास था और वे दोनों भ्राताओं का बड़ा मान करते थे । भीम और सिंह बड़े ही श्रेष्ठिवर्ण्य भीम और सिंह धनाढ्य श्रावक थे । दोनों भ्राता बड़े ही गुणी, दानवीर एवं सज्जनात्मा थे। साधु एवं संतों के परम भक्त थे। जिनेश्वरदेव के परमोपासक थे । उन्होंने अनेक छोटे-बड़े संघ निकाल कर सघर्मी बंधुओं की अच्छी संघभक्ति की थी। दीन और दुखियों की वे सदा सहायता करते रहते थे । भीम के दो स्त्रियाँ थीं, रंभादेवी और सुजाणदेवी तथा ऋषभदास, वल्लभदास और रत्नराज नामक तीन थे। सिंह की स्त्री का नाम हरबाई था, जिसके सुखमल नामा पुत्री थी। इस प्रकार दोनों भ्राता परिवार, धन, मान की दृष्टि से सर्व प्रकार सुखी थे । वागड़देश में उनकी कीर्त्ति बहुत दूर २ तक प्रसारित हो रही थी । एक वर्ष दोनों भ्राताओं ने केसरियातीर्थ की संघयात्रा करने का दृढ़ विचार किया । फलतः उन्होंने वागड़ देश में, मालवा में, मेवाड़ में अनेक ग्राम-नगरों के संघों को एवं प्रतिष्ठित पुरुषों और सद्गृहस्थों को तथा अपने संबंधियों को निमंत्रित किया। शुभ दिन एवं शुभ मुहूर्त में आसपुर संघ निकल श्री केसरियातीर्थ की संघयात्रा कर साबला नामक ग्राम में पहुँचा । स्थल २ पर पड़ाव करता हुआ, मार्ग के ग्रामों एवं नगरों में जिनालयों के दर्शन, प्रभुपूजन करता हुआ, योग्य भेंट अर्पित करता हुआ अनुक्रम से श्री धुलेवा नगर में पहुँचा और श्री केसरियानाथ की प्रतिमा के दर्शन करके अति ही आनंदित हुआ । संघपति भीम और सिंह ने प्रभुपूजन अनेक अमूल्य पूजनसामग्री लेकर किया तथा भिक्षुकों को दान और चुधितों को भोजन और वस्त्रहीनों को वस्त्रादि देकर उन्हें तृप्त किया । चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन दोनों भ्राताओं ने इतना दान दिया कि दान लेनेवालों का सदा के लिए दारिद्र्य ही दूर हो गया । इस प्रकार प्रभुचरणों में दोनों आताओं ने अपनी न्यायोपार्जित सम्पति का सूपयोग किया। समस्त धुलेवा नगर को निमंत्रित करके बहुत बड़ा साधर्मिक वात्सल्य किया। संघ वहां से पांच दिन ठहर कर पुनः आसपुर की ओर रवाना हुआ संघपति जब आसपुर के समीप में सकुशल संघयात्रा करके पहुँचा तो ग्रामपति एवं ग्राम की प्रजा ने संघ का एवं संघपति का भारी स्वागत किया और राजशोभा के साथ में संघ का नगरप्रवेश करवाया । संघपति भीम और सिंह ने मासपुर में बड़ा भारी साधर्मिक वात्सल्य किया, जिसमें ठाकुर साहब का राजवंश, राजकर्मचारी, दास, दासी डूंगरपुर जिसका नाम गिरिपुर भी है के राज्य में एवं बांसवाड़ाराज्य भी वृद्धजन संघपति भीम और सिंह की उदारता की कहानियाँ कहते हैं । डूंगरपुरराज्य का इति० पृ० ११५. एवं संपूर्ण नगर के सर्व कुल निमंत्रित थे। के अधिकांश नगरों में व श्रासपुर में आज ऐ० रा० सं० भा० १५०३०, ४७, ६१. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५१० :: प्राग्वाट-इतिहास :: [तृतीय शाह सुखमल विक्रम की अठारहवीं शताब्दी - सिरोहीनिवासी प्राग्वाटज्ञातीय शाह धनाजी के ये पुत्र थे। ये बड़े नीतिज्ञ, प्रतापी और वीर पुरुष थे। सिरोही के प्रतापी महाराव वैरीशाल, दुर्जनशाल और मानसिंह द्वितीय के राज्यकालों में ये सदा ऊच्चपद पर एवं इन नरेशों के प्रति विश्वासपात्र व्यक्तियों में रहे हैं । इनको सिरोही के दिवान होना कहा जाता है। जोधपुर के महाराजा अजीतसिंहजी, जो औरंगजेब के कट्टर शत्रु रहे हैं, शाह सुखमलजी के बड़े प्रशंसक थे और उनकी इन पर सदा कृपा रही । इस ही प्रकार उदयपुर के प्रतापी महाराणा जयसिंहजी के उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंहजी द्वितीय और संग्रामसिंहजी द्वितीय मी शाह सुखमलजी पर सदा कृपालु रहे हैं। महाराणा अमरसिंहजी ने शाह सुखमलजी पर प्रसन्न होकर उनको वि० सं० १७६३ भाद्रपद शुक्ला ११ शुक्रवार को चैछली नामक ग्राम की रु. ७००) सात सौ की जागीर प्रदान की। तत्पश्चात् महाराणा संग्रामसिंहजी द्वितीय ने प्रसन्न हो कर पुनः छछली के स्थान पर ग्राम टाईवाली की रु. १०००) एक सहस्त्र की जागीर वि० सं० १७७५ चैत्र कृष्णा ५ शुक्रवार को प्रदान की। विक्रम की अठारहवीं शताब्दी भारत के इतिहास में मुगल-शासन के नाश के बीजारोपण के लिये प्रसिद्ध रही है। दिल्ली-सम्राट औरंगजेब की हिन्दू-विरोधी-नीति से राजस्थान के राजा अप्रसन्न होकर अपना एक सबल सुरक्षा-संघ स्व रहे थे । राजस्थान में उस समय प्रतापी राजा जोधपुर, जयपुर और उदयपुर के ही प्रधानतः प्रमुख थे। सिरोही के महाराव भी प्रतापी रहे हैं। इन सर्व राजाओं की शा० सुखमलजी पर अपार कृपा थी। सार्वभौम दिल्लीपति के विरोध में संघ बनाने वाले महापराक्रमी राजाओं की कृपा प्राप्त करनेवाले शाह सुखमलजी भी अवश्य असाधारण व्यक्ति ही होंगे। शाह सुखमलजी के वंशज शाह वनेचन्द्रजी और संतोषचन्द्रजी इस समय खुडाला नामक ग्राम में रहते हैं और उनके पास में उपरोक्त महाराणाओं के प्रदत्त ग्राम छैछली और टाईवाली श्री एकलिंगप्रसादात - --(भाला) सही महाराजाधिराज महाराणा श्री अमरसिंहजी आदेशातु शाह सुखमल धनारा दाव्य "य मया की वीगत रुपया" ७००) गाम छैछली परगनै गोढ़वाड़ रै जागीर राठोड़ सीरदारसीह" "रणोत थी ऊपत रुपया सात सौं ....."पी राय "रानी "देवकरण" "संवत् १७६३ वीषे भादवा सुदी ११ शुक्र (भाला की मही) २- महाराजाधिराज महाराणा श्री संग्रामसिंघजी आदेशातु साह सुषमल सीरोहया....." दाव्य ग्रास मया कीधो वीगत टका . . १०००) गाम टाईवाड़ी ""ड"" गोड़वाड़ पुरेत जागीर रो थो... "द दापोत थी गाम छेछली रे वदले उपत रुपया १०००) रोहे प्रवानगी पचोली वीहारीदास एवं संवत् १७७५ वर्षे चेत वदी ५ सके Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :. प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-महता श्री दयालचंद्र:: [५११ की जागीरों के पट्टे हैं तथा जोधपुर के प्रतापी महाराजा अजीतसिंहजी के और सिरोही के महारावों के भी कई-एक पट्टे-परवाने और पत्र हैं, जिनसे शाह सुखमलजी की प्रतिष्ठा पर पूरा २ प्रकाश पड़ता है। एक पट्टा दिल्ली के मुगल-सम्राट् का भी दिया हुआ है, जिससे यह पता चलता है कि दिल्ली के मुगल-सम्राट् की राज-सभा में भी शाह सुखमलजी का मान था। गूर्जरपति सम्राट भीमदेव प्रथम के महाबलाधिकारी दण्डनायक विमलशाह के वंश में उत्पन्न उत्तम श्रावक वल्लभदास और उनका पुत्र माणकचन्द वि० सं० १७८५ विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ भाग में गूर्जरप्रदेश की राजनगरी अणहिलपुरपत्तन में, जिसकी हिन्दू-सम्राटों के समय में अद्वितीय शोभा एवं समृद्धि रही थी, जो भारत की अत्यन्त समृद्ध नगरियों में प्रथम गिनी जाती थी प्राग्वाटज्ञातीय श्रावक श्रे० वल्लभदास नामक एक प्रसिद्ध व्यक्ति रहते थे। वे बड़े गुणी श्रीमंत थे। उनका पुत्र माणकचन्द्र भी बड़ा धर्मात्मा एवं सद्गुणी था। दोनों पिता और पुत्र गुरु, धर्म एवं देव के परम पुजारी थे। ये गूर्जरसम्राट भीमदेव प्रथम के महाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह के वंशज थे। ये अंचलगच्छीय आचार्य विद्यासागरसूरि के परम भक्त थे । वि० सं० १७८५ में अणहिलपुरपत्तन में उक्त आचार्य का चातुर्मास था । उक्त दोनों पिता-पुत्रों ने गुरु की विवध-प्रकार से सेवा-भक्ति का लाभ लिया था तथा उनके सदुपदेश से माणकचन्द्र ने चौवीस जिनवरों की पंचतीर्थी प्रतिमायें करवा कर उसी वि० संवत् १७८५ की मार्गशिर शु० पंचमी को शुभमुहूत में पुष्कल द्रव्य व्यय करके भारी महोत्सव एवं समारोह के साथ उन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करवाई थीं। इस प्रकार जीवन में दोनों पितापुत्रों ने अनेक धर्मकार्य करके अपना श्रावक-जन्म सफल किया । १ वागड्देश राजनगर ड्रङ्गरपुर के राजमान्य महता श्रीदयालचंद्र वि० सं० १७६६ वर्तमान बांसवाड़ा और डूंगरपुर का राज्य वागड़देश के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध रहा है । विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय महता हीरजी नामक प्रसिद्ध पुरुष हो गये हैं । वे बड़े धर्मात्मा थे। उनकी स्त्री का नाम भी हीरादेवी था । हीरादेवी के रामसिंह नामक पुत्र हुआ, जिसका विवाह रूपवती एवं गुणवती कन्या रायमती से हुआ था। रायमती के सुरजी नामक पुत्र था । सुरजी की स्त्री सुरमदेवी के जादव और महता दो पुत्र थे। जादव के करण, माधव, मदन और मुरार नामक चार पुत्र हुये थे । महता मदन की स्त्री गंभीरदेवी थी । भीरदेवी की कुक्षी से राजमान्य प्राग्वाटज्ञातिशृंगार श्रीदयाल नामक पुत्र हुना। २.. १ म०प० पृ०३६४ २० घा०प्र० ले० सं० मा० १ लेखांक १४६१ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय श्रीदयाल बड़ा ही धर्मात्मा और जिनेश्वरभक्त था। वि० सं० १७६५ वैषाख कृष्णा ५ सोमवार को राजमान्य श्रीदयाल ने स्वभा० रंगरूपदेवी, पुत्र सदाशिव, पुत्री नाथी तथा लघुमातामही बाई लाड़ी और भगिनी गोकुलदेवी प्रमुख कुटुम्ब के सहित श्री गंभीरापार्श्वनाथ-चैत्यालय में देवकुलिका के ऊपर सुवर्णकलशध्वजारोहण एवं कीर्तिस्तंभस्थापना करवाई तथा समस्त संघ को भोज दिया और महामहोत्सव करके पित्तलमय श्री सुखसंपत्ति पार्श्वनाथ-प्रतिमा को देव, गुरु, संघ की अतिशय भक्ति एवं स्तुति करके स्थापित करवाई, जो तपागच्छीय पूज्य भट्टारक श्रीमद् विजयदयासूरि के आदेश से पन्यास केसरसागर के करकमलों से प्रतिष्ठित हुई थी। -- वंश वृक्ष महेता हीरजी [ हीरादेवी] महेता रामसिंह [ रायमती] महेता सुरजी [ सुरमदेवी ] जादवजी करसाजी ___माधवजी मदनजी [गंभीरदेवीं] मुरारजी श्रीदयाली रगरूपदेवकी गोलदेवी सदाशिव नाथी (पुत्री) प्राग्वाटज्ञातीय संघपति महता गोड़ीदास और जीवनदास वि० सं० १७६७ महता गौड़ीदास और जीवणदास दोनों सहोदर थे। दोनों ही बड़े धर्मात्मा श्रावक थे। इनके जीवन का आधार गुरुभक्ति एवं जिनेश्वरदेव की उपासना ही थे। इन दोनों भ्राताओं ने अपने जीवन में अनेक दीनों, हीनों एवं निरनपुरुषों को अनेक बार वस्त्रों का, अन्न का बड़ा २ दान किया था तथा पशु-पक्षी-जीवदयासंबंधी भी Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-श्रे० वोरा डोसा :: [ ५१३ इन्होंने बहुत प्रशंसनीय पुण्यकार्य किये थे । ये सूरतबंदर के निवासी थे । वि० सं० १७६७ कार्त्तिक शु० ३ रविवार को जब ज्ञानसागरमुनि को महोत्सव करके आचार्यपद प्रदान किया गया था, उसमें अधिकतम पुष्कल द्रव्य इन दोनों भ्राताओं ने व्यय किया था । आचार्यपद की प्राप्ति के पश्चात् मुनि ज्ञानसागरजी उदयसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुये । इसी वर्ष की मार्गशिर शु० १३ को श्रीमद् उदयसागरसूरि को गच्छनायक का पद भी सूरत में ही प्रदान किया गया था और इस महोत्सव में भी दोनों भ्राताओं ने प्रमुख भाग लिया था । जीवन में इन दोनों भ्राताओं ने अनेक बार इस प्रकार बड़े २ महोत्सव में स्वतंत्र एवं प्रमुख भाग लेकर सधर्मी बंधुओं की संघभक्ति की थी और अनेक बार वस्त्र एवं अन्न के बड़े २ दान देकर भारी कीर्त्ति का उपार्जन किया था । लीमडी निवासी प्राग्वाटज्ञातिकुल कमलदिवाकरसंघपति श्रेष्ठ वोरा डोसा औरा उसका गौरवशाली वंश विक्रम की अठारहवीं - उन्नीसवीं शताब्दी विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सौराष्ट्रभूमि के प्रसिद्ध नगर लींमड़ी में प्राग्वाटज्ञातीय वोरागोत्रीय श्रेष्ठ रवजी के पुत्र देवीचन्द्र रहते थे । उनके पुन्जा नामक छोटा भ्राता था । उस समय लींमड़ीनरेश हरभमजी राज्य करते थे । श्रे० देवीचन्द्र के डोसा नामक अति भाग्यशाली पुत्र था । श्रे० डोसा की पत्नी का नाम हीराबाई वंश-परिचय और श्रे० था । श्राविका हीराबाई श्रति पतिपरायणा एवं उदारहृदया स्त्री थी। हीराबाई की कुक्षी डोसा द्वारा प्रतिष्ठा महोत्सव से जेठमल और कसला दो पुत्र उत्पन्न हुये थे । जेठमल की पत्नी का नाम पुंजीबाई था और उसके जेराज और मेराज नामक दो पुत्र थे । कसला की पत्नी सोनवाई थी और उसके भी लक्ष्मीचन्द और त्रिकम नामक दो पुत्र थे । ० डोसा ने वि० सं० १८१० में भारी प्रतिष्ठा महोत्सव किया और महात्मा श्री देवचन्द्रजी के करकमलों से उसको सम्पादित करवाकर श्री सीमंधरस्वामीप्रतिमा को स्थापित किया । उक्त अवसर परं श्रे० डोसा ने कुकुमपत्रिका भेज कर दूर २ से सधर्मी बंधुओं को निमंत्रित किये थे । स्वामी - वात्सल्यादि से आगंतुक बंधुओं की उसने अतिशय सेवाभक्ति की थी, पुष्कल द्रव्य दान में दिया था, विविध प्रकार की पूजायें बनाई गई थीं और दर्शकों के ठहरने के लिये उत्तम प्रकार की व्यवस्थायें की गई थीं । वि० सं० १८१० में डोसा के ज्येष्ठ पुत्र जेठमल का स्वर्गवास हो गया । श्रे० ङोसा को अपने प्रिय पुत्र असारता का अनुभव करके अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को पुण्य कार्यों में व्यय करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इतना ही नहीं पुत्र की मृत्यु के पश्चात् तन और मन से भी यह परोपकार में निरत हो गया । वि० सं० १८१४ में श्रे० डोसा ने श्री शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये भारी संघ निकाला और पुष्कल द्रव्य व्यय करके अमर कीर्त्ति उपार्जित की । वि० सं० १८१७ में स्वर्गस्थ जेठमल की विधवा पत्नी पुंजीबाई और ० डोसा की धर्मपत्नी हीराबाई दोनों बहू, सासुओं ने संविज्ञपक्षीय पं० उत्तमविजयजी की तत्त्वावधानता में उपधानतप का आराधन करके श्रीमाला को धारण की। वि० सं० १८२० में श्रे० डोसा ने पन्यास मोहनविजयजी के करकमलों जै० गु० क० भा० २ पृ० ५७४, ५७६ की अकाल मृत्यु से बड़ा धक्का लगा । श्रे० डोसा ने संसार की ज्येष्ठ पुत्र जेठ । की मृत्यु और सं० डोसा का धर्म-ध्यान Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. 1 :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय से प्रतिष्ठामहोत्सव करवा कर श्री अजितवीर्य नाम के विहरमान तीर्थङ्कर की प्रतिमा स्थापित करवाई और तत्पश्चात् श्री शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये संघ निकाला । इस अवसर पर संघपति डोसा ने दूर २ के संधर्मी बन्धुओं को कुकुमपत्रिकायें भेज कर संघयात्रा में संमिलित होने के लिये निमंत्रित किये थे । ० डोसा बड़ा ही धर्मात्मा, जिनेश्वरभक्त और परोपकारी आत्मा था । जीवन भर वह पदोत्सव, प्रतिष्ठोत्सव, उपधानादि जैसे पुण्य एवं धर्म के कार्य ही करता रहा था। उसने 'अध्यात्मगीता' की प्रति स्वर्णाक्षरों में लिखवाई और वह ज्ञान भंडार में विद्यमान है। इस प्रकार धर्मयुक्त जीवन व्यतीत करते हुये उसका स्वर्गवास वि० सं० १८३२ पौ० कृ० ४ को हो गया । श्रे० डोसा के स्वर्गवास हो जाने पर उसी वर्ष में श्राविका विधवा पुंजीबाई ने अपने स्वर्गस्थ श्वसुर के पीछे चौरासी ज्ञातियों को निमंत्रित करके भारी भोज किया। उसी वर्ष में पं० पद्मविजयजी, विवेकविजयजी का लोमड़ी 'जीबाई का जीवन और में चातुर्मास कराने के लिये अपनी ओर से लींमड़ी-संघ को भेज कर विनती करवाई उसका स्वर्गवास और उनका प्रवेशोत्सव अति ही धूम-धाम से करवाया तथा चातुर्मास में अनेक विविध पूजायें, श्रांगी - रचनायें, प्रभावनायें आदि करवाई और अति ही द्रव्य व्यय किया । पुंजीवाई ठेट से ही धर्मप्रेमी और तपस्याप्रिया थी ही। पति के स्वर्मस्थ हो जाने पश्चात् तो उसने अपना समस्त जीवन ही तपस्याओं एवं धर्मकार्यो में लगा दिया । उसने उपधानतप, पांच- उपवास, दश-उपवास, बारह - उपवास, पन्द्रह - उपवास, मास खमण, कर्मसूदनतप, कल्याणकतप, वीसस्थानकतप, आंबिल की ओली, वर्द्धमानतप की तेत्रीस ओली, चन्दनबाला का तप, आठम, पांचम, अग्यारस, रोहिणी आदि अनेक तपस्यायें एक बार और अनेक बार की थीं। तपस्यायें कर कर के उसने अपना शरीर इतना कुश कर लिया था कि थोड़ी दूर चलना भी भारी होता था, परन्तु थी वह देव, गुरु, धर्म के प्रति महान् श्रद्धा एवं भक्तिवाली; अतः शक्ति कम होने पर भी वह प्रत्येक धर्मपर्व एवं उत्सव पर बड़ी तत्परता एवं लग्न से भाग लेती थी । वि० सं० १८३६ में पं० पद्मविजयजी महाराज ने लींमड़ी में अपना चातुर्मास किया। उस वर्ष लींमड़ी में इतनी अधिक तपस्यायें और वे भी इतनी बड़ी २ हुई कि लींमड़ी नगर एक तपोभूमि ही हो गया था । श्रे० डोसा के परिवार में श्रे० कसला की स्त्री ने पैंतीस उपवास, जेराज की स्त्री और मेराज की स्त्री मूलीबाई और अमृतबाई ने मासखमण और पुंजीबाई ने तेरह उपवास किये थे । उस घष लींमड़ी में केवल मासखमय ही ७५ थे तो अन्य प्रकार के उपवास एवं तपस्याओं की तो गिनती ही क्या हो सकती है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है उसकी तेरह उपवास करते हुये वि० सं० १८३६ की श्रावण कृ० ११ को स्वर्गगति हो गई । पुंजीबाई प्रति कृश शरीर हो गई थी, निदान ० डोसा के कनिष्ठ पुत्र श्रे० कसला ने अपनी भातृजाया श्राविका पुंजीबाई के तपस्या करते हुये पंचमति को प्राप्त होने पर, उसके कल्याणार्थ अनेक पुण्य एवं धर्मकार्य किये, संवत्सरीदान दिये, संघभोजन किये, अठारह वर्णों को अलग प्रीतिभोज दिये । इस प्रकार उसने बहुत द्रव्य व्यय किया। कसला और अपने द्रव्य का सद्मार्ग में भी अपने पिता श्रे० डोसा के समान ही पुण्यशाली मुक्तहस्त सदा सद्व्यय करने वाला था । उसने अनेक साधर्मिक वात्सल्य किये, अनेक प्रकार की पूजायें बनवाई, अनेक पदोत्सव प्रतिष्ठोत्सव किये, चौरासी- ज्ञाति-भोजन किया । उसने 'सूत्रकृतांगनियुक्ति' की प्रति वि० सं० १८२१ श्री० ० ८ सोमवार को लिखवाई तथा पं० पद्मविजयजी ने वि० सं० १८३६ में उसके अत्याग्रह पर 'समरादित्य का रास' ० कसला और उसका कार्य Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-अष्टि बोरा खोसा :: [४१५ लिखा । श्रे. कसला कर्म-सिद्धान्त का अच्छा शाता था और उसकी नीमड़ी के संघ में भारी प्रतिष्ठा थी। स्वर्गस्थ श्रे० जेठा और कनिष्ठ कसला का परिवार भी विशाल था, जिसका नामवृक्ष नीचे दिया जाता है। वंश-वृक्ष वजी देवचन्द्र डोसा [हीराबाई] जीवराज कमल याद) कसला सोमवारी ਕੋਰੀਆ) ਜਗਕ ਆਕਾ) ਜਲ ਸੈਕਸ जयचन्द्र . खीमजी | - ठाकरजी । कर्मचन्द्र । हुक्मचन्द्र लाला लखा पानाचन्द्र . जसराज लघु मोती उम्मेद .. वल्लु भोषड़ देवसिंह मनसुख वाड़ीदास गफूल | वनम चन्द्र मोहन । . शिवा - अमोतक । शिवलाल सुखलाल | | जयसिंह शान्ति जगजीवन । पोपट - . जयंतीलाल छगन नानचन्द्र मणिकचन्द्र मगन ।' उगमसिंह मोहन श्रे० डोसा के द्वारा वि० सं०१८६० में श्री पार्श्वनाथबिंब और आदिनाथबिंब प्रतिष्ठित करवाई हुई दो प्रतिमायें लीमड़ी के नवीन और जूने जिनालय में विद्यमान हैं। श्रे० डोसा का स्वर्गवास वि० सं० १८३२ में ही हो गया था। ज्ञात होता है उनके किसी वंशज ने श्रेन्डोसा के नाम से उक्त प्रतिमानों को उनकी मृत्यु के पश्चात् प्रतिष्ठित की है। लीजैज्ञाभह०प्र० सूचीपत्र पृ०१५-१८, Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ 11 :: प्राग्वाट-इतिहास: [तृतीय ग्राम हेमावसवासी श्रे० नगा उनीसवीं शताब्दी विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ग्राम हेमावस में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० वरजांग भार्या कनकदेवी का पुत्र श्रे० नगा प्रसिद्ध पराक्रमी हुआ है । उसकी कीर्ति के कारण ग्राम हेमावस दूर २ तक प्रख्यात हो गया था। श्री गिरनारतीर्थव्यवस्थापक एवं गिरनारगिरिस्थ श्री आदिनाथ-मंदिर का निर्माता प्राग्वाटज्ञातीय श्रीमंत जिनेश्वरभक्त श्रे० जगमाल विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी श्रे० जगमाल विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में जैनसमाज में एक धर्मिष्ठ एवं जिनेश्वरभक्त श्रावक हो गया है । जगमाल ने न्यायनीति से व्यापार में अच्छी उन्नति की और पुष्कल धन का उपार्जन किया। इसके हृदय में गिरनारपर्वत पर एक जिनालय बंधवाने की सद्भावना कभी से जागृत हो गई थी। इसने कई बार तीर्थयात्रायें की थीं। ये उन महापुरुषों की महानता के विषय में सोचा करता था कि जिन्होंने अनंत द्रव्य व्यय करके तीर्थधामों में उत्तमकोटि के विशाल जिनालय बनवाये हैं। संसार की असारता का अनुभव इसको भी भलीविध था। निदान इसने कई लक्ष द्रव्य व्यय करके गिरनारगिरि के ऊपर श्री नेमिनाथटूक में मूलजिनालय श्री नेमिनाथमंदिर के पृष्ठभाग में एक जिनालय का निर्माण करवाया और वि० सं० १८४८ वैशाख कृ० ६ शुक्रवार को महामहोत्सवपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा श्रीमद् विजयजिनेन्द्रसरि के करकमलों से करवाकर उसमें मूलनायक श्री आदीश्वरभगवान् और अन्य प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करवाया। श्रे० जगमाल गोरधन का निवासी था। गोरथन में आज भी इसके वंशज विद्यमान हैं। आज जो श्री गिरनारतीर्थ की व्यवस्था करने के लिए 'शा. देवचंद्र लक्ष्मीचंद्र' नामक पीढ़ी है, इसके पूर्व श्रे० जगमाल और रवजी इन्द्रजी तीर्थ की देख-रेख करते थे। आज भी जहाँ उक्त पीढ़ी है, वहाँ एक चौक है और जगमाल के नाम पर वह जगमाल-चौक कहलाता है। जै० गु० क० भा०३ खं०२ पृ०१३४५ गिती० इति०पृ०३६,५६. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड] :: सिंहावलोकन:: प्राग्वाटज्ञातीय परम जिनेश्वरभक्त श्रे० देवचन्द्र और श्री गिरनारतीर्थ-पीढ़ी 'शा० देवीचन्द लक्ष्मीचन्द' विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बड़नगर (गूर्जर) से प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० देवचन्द्र पाकर जूनागढ़ में बसा था । उसके साथ उसकी बहिन विधवा लक्ष्मीबाई भी आगई थी। दोनों भ्राता और भगिनी बड़े ही उदार, धर्मिष्ठ थे। नित्य जिनेश्वरप्रतिमा की सेवा-पूजा करते और पाठों ही प्रहर प्रभु-भजन में व्यतीत करते थे। देवचन्द्र के कोई संतान नहीं थी और उसकी बहिन लक्ष्मीबाई के भी कोई संतान नहीं थी। दोनों ने अपनी आयु का अंत आया हुआ देख कर उनके पार्श्व में जितना भी द्रव्य था, वह तीर्थाधिराज भगवान् नेमनाथ के अर्पण कर दिया और उससे तीर्थ की व्यवस्था करने के लिए एक जैन पीढ़ी का निर्माण किया और उसका नाम 'देवचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र' रक्खा गया । जूनागढ़ के श्री संघ ने दोनों भ्राता-भगिनी का अति ही अभिनंदन किया और दोनों के नाम की तीर्थपीढ़ी स्थापित करके उनका महान् स्वागत किया। उक्त पीढ़ी के स्थापित होने के पूर्व तीर्थ की देख-रेख गोरधनवासी प्राग्वाटज्ञातीय जगमाल और प्राग्वाटज्ञातीय खजी इन्द्रजी करते थे। आज शा. 'देवचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र पीढ़ी' का कार्य बहुत ही सम्पन्न हो गया है । नगर में इसका विशाल कार्यालय है। इस के आधीन दो विशाल धर्मशालायें हैं। पर्वत पर भी इसकी ओर से पीढ़ी है और यात्रियों के ठहरने के लिये वहाँ भी सर्व प्रकार की सुविधा है। सिंहावलोकन विक्रम की चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक जैनवर्ग की विभिन्न स्थितियाँ और उनका सिंहावलोकन मुहम्मद गौरी की पृथ्वीराज चौहान पर ई. सन् ११९२ वि० सं० १२४६-५० में हुई विजय से यवनों का भारत में राज्य प्रारंभ-सा हो गया । राजपूत राजा सब हताश हो गये । मुसलमान आक्रमणकारी ने सहज ही में इस्लामधर्म और आर्यधर्म सरसुती, समन, कुहरामा, हांसी को जीत लिया और अजमेर पर आक्रमण करके समस्त तथा जैन मत राजस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया । अजमेर में गौरी ने सहस्रों भारतियों को तलवार के घाट उतारा । सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा और उनकी जगह मस्जिद और मकबरे बनवाये। जैन को अजैन और अजैन को जैन बनाने का कार्य जो दोनों मतों के धर्म-प्रचारक कर रहे थे, अब भारत में तीसरी और वह भी महाभयंकर स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण बंद होने लग गया। अब दोनों के मंदिर और मठ तोड़े जाने गि तीर्थ इति पृ०५६ (चरण-लेख) Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ तृतीय लगे । तलवार के बल पर मुसलमान बनाये जाने लगे । फल यह हुआ कि उक्त दोनों मतों में चला आता हुआ द्वन्द्व समाप्त हो गया और धर्म और प्राण बचाने की कठिन समस्या उत्पन्न हो गई । पृथ्वीराज जैसे महाबली सम्राट् की पराजय से कोई भी भारतीय राजा मुहम्मद गौरी से सामना करने का विचार स्वप्न में भी नहीं कर सकता था। गौरी तो अजमेर की जीत करके अपने देश को लौट गया और अपने पीछे योग्य शासक कुतुबुद्दीन को छोड़ गया। कुतुबुद्दीन ने थोड़े ही समय में मीरट, कोल, दिल्ली को जीत लिया और वह दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगा । वह ई० सन् १२०६ वि० सं० बन बैठा । उस समय से ही भारत में यवबराज्य की स्थापना हुई समझी जाती है। १२६३ में स्वतंत्र शासक उधर आर्य ज्ञातियों एवं वर्गों में भी कई एक शाखायें उत्पन्न होना आरंभ हो गई थीं। नीच, ऊँच के भाष अधिक दृढ़ होते जा रहे थे। ज्ञातिवाद भयंकर छूत-अछूत की महामारी की सहायता लेकर श्रार्यज्ञाति को छिन्न-भिन्न कर रहा था । २ अस्तित्व अलग जैसा पूर्व में लिखा जा चुका है कि जैन समाज के भीतर भी रहे हुये वर्ग अपना स्थापित करने लग गये थे और फिर प्रत्येक वर्ग के भीतर भी साधारण प्रश्नों, त्रुटियों को लेकर कई शाखायें उत्पन्न होने के लक्षण प्रतीत होने लग गये थे । अब प्राग्वाट, श्रीमाल, श्रोसवाल जो परम्परा से कन्या - व्यवहार करते थे, जैनाचार्य अन्य धर्मानुयायी उच्च कुलों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर जिनमें संमिलित करने का समाज की वृद्धि करनेवाला कार्य कर रहे थे, अब ये सर्व सामाजिक संबंध शिथिल पड़ने लगे । और जहाँ परस्पर जैनवर्गों में कन्या व्यवहार का करना बंद प्रायः होने लग गया, वहाँ अब नये कुलों को जैन बनाकर नवीनतः स्वीकार करने की बात ही कैसी ? ज्ञातिवाद का भयंकर भूत बढ़ने लगा। थोड़ी भी किसी कुल से सामाजिक त्रुटि हुई, वह ज्ञाति से बहिष्कृत किया जाने लगा । मुसलमानों के बढ़ते हुये अत्याचारों से, बहू-बेटियों पर दिन-रात होने वाले बलात्कारों से समस्त उत्तरी भारत भयभीत हो उठा और धर्म, स्त्री, प्राण, धन की रक्षा करना अति ही कठिन हो गया । यवनों का यह अत्याचार सम्राट् अकबर के राज्य के प्रारंभ तक बढ़ता ही चला गया। बीच में महमूदतुगलक के राज्यकाल में अवश्य थोड़ी शांति रही थी । यवनों के इस्लामीनीति पर चलने वाले राज्य के कारण भारत की सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक, आर्थिक, स्थिति भयंकर रूप से बिगड़ गई। सब प्रकार की स्वतंत्रतायें नष्ट हो गई। जैनसमाज भी इस कुप्रभाव से कैसे बच कर रह सकती थी । इसके भी कई तीर्थों एवं जैन मंदिरों को तोड़ा गया । बिहार और बंगाल में रहे हुये कई सहस्र जैन को धर्म नहीं बदलने के कारण तलवार के पार उतारा गया । राजस्थान कुलगुरुओं की जो पौषधशालायें आज विद्यमान हैं, इनमें से अनेक के यहाँ आकर बसने वाले कुलगुरु बिहार से अपने प्राण और धर्म को बचाने की दृष्टि से भाग कर आने वालों में थे । उनके तेज और तप से प्रभावित होकर राजस्थान के कई एक राजा और सामंतों ने उनको आश्रय दिया और उनको मानपूर्वक बसाया । लिखने का तात्पर्य यही है कि अब नये जैन बनाना बंद-सा हो गया और जैनसमाज का घटना, कई शाखाओं एवं स्वतंत्र वर्गों में विभाजित होकर छिन्न-भिन्न होना प्रारंभ हो गया । जहाँ प्राग्बाट, श्रीमाल, ओसवाल आदि Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड :. सिंहावलोकन :: . [५१६.. जैन वर्ग जैन समाज के भीतर प्रान्तीय वर्ग थे, अब स्वतंत्र झातियों में पूर्णतया बदल गये और प्रत्येक ने अलग अपना अस्तित्व घोषित कर लिया। सम्राट अकबर के समय से कुछ एक यवन-शासकों को छोड़ कर अधिक ने जैन एवं हिन्दुओं के साथ अपने पूर्वजों के सदृश दुर्व्यवहार नहीं किया । परन्तु फिर भी इतना निश्चित है कि यवनों के सम्पूर्व राज्य-काल में भय सदा ही बना रहा और कोई आर्य-धर्म उन्नति नहीं कर सकता। ब्रिटिश-राज्य की स्थापना हो जाने पर धर्म-संकट दूर होने लगा। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी पर्यन्त भारत में यवन-राज्य रहा । तब तक भारत में धर्म-संकट प्रायः बना ही रहा । यह सत्य है कि पिछले वर्षों में वह कम पड़ना प्रारम्भ हो गया धार्मिक जीवन था । यवनराज्य जब अपने पूरे यौवन पर समस्त भारत भर में फैल चुका था, कोई भी आर्यमत नया मन्दिर बिना यवन-शासक की आज्ञा लिये यवनराज्यों में नहीं बनवा सकता था, धर्मसम्मेलन, तीर्थसंघयात्रा में नहीं निकल सकता था। जहां जहां देशी राजाओं की स्वतंत्र सत्ता कहीं रह गई थी, वहाँ वहाँ अवश्य धर्मस्वतंत्रता थी। यही कारण है कि यवनराज्यकाल में नये जैनमन्दिर भी कम ही बनवाये गये । राजस्थान में यवनराज्य कभी पूर्ण रूप से जमने ही नहीं पाया था, अतः जो कुछ धर्मकार्य हुश्रा, वह अधिकांश में राजस्थान के राज्यों में ही हो सका था। मेदपाटसम्राट महाराणा कुम्भा यवनों से सदा लड़ते रहे थे और वे अपने राज्य के स्वतन्त्र शासक रहे थे। अतः उनके राज्यकाल में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठिवर धरणाशाह ने श्री राणकपुर नामक नवीन नगर बसा कर वहां पर श्री राणकपुरतीर्थ नामक त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार आदिनाथ-जिनालय का एक कोटि के लगभग रूपया लगवाकर निर्माण वि० सं० १४१४ में करवाया था तथा उसके ज्येष्ठ भ्राता रत्नाशाह के पुत्र सालिग के पुत्र सहसाशाह ने, जो माण्डवगढ के यवन-शासक का मंत्री था भर्बुदगिरिस्थ श्री अचलगढ़ दुर्ग में, जो उक्त महाराणा के अधिकार में ही था और पीछे भी उसके ही प्रतापी वंशजों के अधिकार में कई वर्ष पर्यन्त रहा था, चतुर्मुखा श्री आदिनाथ-जिनालय का वि० सं० १५५६ में निर्माण करवाया था। इस ही प्रकार सिरोही (राजधानी) में संघवी सिपा ने महारावल सुरताणसिंहजी के पराक्रमी राज्यकाल में श्री चतुर्मुखा-आदिनाथ नामक प्रसिद्ध जिनालय का निर्माण वि० सं० १६३४ में करवाया था। पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यवनराज्य के पाँच सौ वर्षों में ये ही तीन जिनालय नामांकित बनवाये जा सकें थे और ये भी देशी राज्यों में । जैन ठेट से तीर्थयात्रायें, संघयात्रायें करने में धर्म की प्रभावना मानते आये हैं और उन्होंने असंख्य बड़े २ संघ निकाले हैं, जिनकी शोभा और वैभव की समानता बड़े २ सम्राटों की कोई भी यात्रा नहीं कर सकती थी। यवनराज्य में तीर्थयात्रायें, संघों का निकालना प्रायः बंद ही हो गया था । अगर कोई संघ निकाला भी गया, तो जिस २ यवनशासक के राज्य में होकर वह संघ निकला, उससे पूर्व प्राज्ञा-पत्र प्राप्त करना पड़ता था और संघ वह ही निकाल सकता था जिसका यवनशासकों पर कुछ प्रभाव रहा था अथवा यवनों की राज्यसभा में रहने वाले अपने किसी प्रभावशाली सधर्मी बंधु के द्वारा जिसने आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया था । छोटे, बड़े धर्मत्यौहार, पर्वो की आराधना मनाने तक में लोगों को यवनों का सदा भय रहता था। सम्राट अकबर, जहाँगीर, शाहजहां के राज्यकालों में अवश्य भारत के सर्व धर्मों को स्वतंत्रता पूर्वक श्वांस लेने का Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० . ] :: प्राग्वाट - इतिहास : [ तृतीय अवकाश प्राप्त हुआ था। इसी का फल है कि विक्रम की सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दियों में यवन राज्यों में कई छोटे-बड़े जैन मंदिर बने, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण हुये अथवा विधर्मीजनों द्वारा खण्डित किये गये मंदिरों का, तीर्थों का जीर्णोद्धार फिर से करवाया जा सका, अनेक स्थलों में अंजनशलाका - प्राण-प्रतिष्ठोत्सव कराये जा सके तथा जैन साधु अपने २ चातुर्मास में अनेक पुण्य के कार्य करवा सके और नवीन अगणित जैन बिंबों की स्थापनायें की जा सकीं । इसका एक कारण यह भी था कि मुगलसम्राटों की नीति मेल- झोल की थी। वे सर्व ही धर्मों से अपना संबंध बनाये रखना चाहते थे। वैसे उनकी राजसभाओं में भी जैनाचाय्यों का अत्यधिक प्रभाव रहा है । २ ग्रामों में जो यवन- राज कर्मचारी रहते थे, बड़े ही दुष्ट और अत्यात्रस्त ही बनी रहती थी, जिसका रक्षक भगवान् ही होता था । फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि छोटे चारी ही होते थे, अतः ग्राम की जनता तो मुगलराज्यकाल के अन्त में अंग्रेज भारत में अपना राज्य जमाने का सफल प्रयत्न कर रहे थे । उन्होंने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगलराज्य का अन्त करके भारत में बृटिशराज्य की नींव डाली और उनका राज्य धीरे २ बढ़ता ही गया । बृटिशराज्य जमा भेदनीति के आश्रय और कुछ लोकप्रियता की प्राप्ति पर । अंग्रेजों ने मुसलमानों के समान किसी ज्ञाति पर बलात्कार नहीं किया, उनकी बहू-बेटियों का सतीत्व हरण नहीं किया, धर्मस्थानों, मंदिरों को नहीं तोड़ा, धर्मपर्वो', त्यौहारों के मनाने में बाधायें उत्पन्न नहीं कीं, तीर्थयात्राओं, संघों के निकालने में रुकावट नहीं डाली, अतः वे इस दशा में भी लोकप्रिय बनते गये यह सब पुनः हुआ, परन्तु आर्य धर्मों में वह पूर्व-सी जागृति नहीं आ पाई। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि जैनाचाय्यों ने विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी से लगाकर विक्रम की बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक असंख्यक नवीन जिनबिंबों की स्थापनायें करवाई, छोटे-बड़े कई नवीन जिनालय बनवाये, अनेक बढ़ी २ अंजनशलाकार्ये, प्राणप्रतिष्ठोत्सव, अन्य धर्मोत्सव करवाये, संघ निकलवाये और पर्वो की, तपों की आराधनायें करवाई । इन जैनाचाय्यों में महाप्रभावक श्राचार्य भी कई - एक हो गये हैं, जिनमें प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि, आणंद विमलसूरि, कल्याणविजयगणि, विजयतिलकसूरि, विजयानन्दसूरि, लौंकागच्छसंस्थापक श्रीमान्- लोकाशाह, श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ संस्थापक श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसूरि, खरतरगच्छीय उपाध्याय श्रीमद् समयसुन्दर आदि कई नामांकित साधु, आचार्य, श्रावक हुए हैं, जिन्होंने पुनः जैनधर्म में जाहोजलाली लाने का प्राण-प्रण से संकल्प करके कार्य करने वालों में भारी भाग लिया हैं। 1 पूर्व ही लिखा जा चुका है कि यवनसत्ता जब तक भारत में स्थापित रही, भारत में धर्म, धन, प्राण, मान स्त्री सब संकटग्रस्त ही रहे । राज्याधिकारी विधर्मी, अन्यायी, दुराचारी, लंपटी होते थे। ग्रामों की जनता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति बड़ी ही दयनीय थी । व्यापार की दशा बिगड़ चुकी थी । धन को भूमि में स्थिति गाड़ कर रखते थे | विवाहोत्सवों में, धर्मपत्रों में भी आभूषण पहिनते हुये स्त्री और पुरुष डरते थे । अत्याचारी यवन- शासकों, राज-कर्मचारियों की स्त्री और कन्यापहरण की दुर्नीति से बालविवाह और पर्दाप्रथा जैसी समाजघातक प्रथाओं का जन्म हो गया था और सुदृढ़ एवं विस्तृत होती जा रही थीं। मार्गों में सदा चोर, लुटेरों का डर रहता था। युद्ध के समय में खेती नष्ट करदी जाती थी, जिसका कोई सरकार की ओर से मूल्य नहीं चुकाया जाता था। ऐसी स्थिति में जैन समाज भी आर्थिक स्थिति में निर्बल पड़ा । पहिले से ही Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ ५२१ समाज के वर्गों में परस्पर कड़ता तो बढ़ती ही जा रही थी । परस्पर अब कम्या - व्यवहार सर्वथा बंद ही हो गया था। लघुशाखा और बृहदशाखाओं का अस्तित्व पूरा बन चुका था। प्रतिमालेखों, प्रशस्तिग्रन्थों में भी अ 'लघुशाखीय' और 'बृहदशाखीय' शब्दों का ग्रन्थ लिखाने वालों की प्रशस्तियों में लिखा जाना प्रारंभ हो गया था । पहिले के समान अब तो अन्य उच्च कुलीन परिवार जैन नहीं बनाया जारहा था। बल्कि सामाजिक प्रबन्ध इतना कठोर बन रहा था कि साधारण-सी सामाजिक त्रुटि पर कुल समाज से बहिष्कृत कर दिये जाते थे । मेरे अनुमान से दस्सा और बीसा-भेदों के उपरांत जो पांचा, ढाईया और कहीं २ सवाया भेदों का अस्तित्व देखने में आता है, उनकी उत्पत्तियां यवनराज्यकाल में ही हुई हैं, जब कि ज्ञातिवाद का जोर भारी बढ़ चला था। समाज बाहर से संकटग्रस्त और भीतर से छिन्न-भिन्न हो रहा था। समाज में ऐक्य, सौहार्द, पारस्परिक स्नेह जैसे भाव अंतप्रायः हो गये थे । पहिले जैसा प्राग्वाट, श्रोसवाल, श्रीमाल वर्गों में भी स्नेह और भ्रातृभाव नहीं रह गया था । 1 विक्रम की आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के लम्बे समय में प्राग्वाटवर्ग ने जो मान, प्रतिष्ठा, कीर्त्ति, धनवैभव प्राप्त किया था और अपनी समाज के अन्य वर्गो से ऊंचा उठा हुआ था, अपनी समाज में यवनों के राज्यकाल में वह धन में, मान में उतना ही नीचा गिरा । बाल-विवाह और पदप्रथाओं का इसमें भी जन्म हो गया और वे दिनोंदिन दृढ़तर ही बनती रहीं । नगरों को छोड़ कर अन्य कुलों की भांति प्राग्वाटवर्ग के कुल भी दूर जंगल-पर्वतों में, छोटे २ ग्रामों में, रहने लगे, जहां यवन - आततायी एकाएक नहीं पहुँच सकते थे और साधारण जीवन व्यतीत करने लगे । 1 साहित्य और शिल्प यवनराज्यकाल में जैसा धर्म खतरे में था, धर्म का आधारभूत साहित्य भी खतरे में था । यवनों में जैन, वेद और बौद्ध साहित्य को सर्वत्र नष्ट करने में कोई कमी नहीं रक्खी। जैनसाहित्य भी बहुत ही नष्ट किया गया । जैसलमेर के ज्ञान भण्डार की स्थापना भी बहुत संभव है इसी संकटकाल में हुई । प्रावावर्ग के श्रीमंत एवं साहित्यसेवी व्यक्तियों ने अपने धर्म के ग्रन्थों की सुरक्षा में सराहनीय भाग लिया । यद्यपि इस संकटकाल में अधिक संख्या में और विशाल ज्ञान भण्डारों की स्थापना तो नहीं की जा सकीं, परन्तु धर्मग्रन्थों की प्रतियां लिखवाने में उन्होंने पूरा द्रव्य व्यय किया। इस काल के प्रसिद्ध साहित्यसेवियों में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० यशस्वी पेथड़ का नाम उल्लेखनीय है । पेथढ़ का विस्तृत इतिहास इस प्रस्तुत इतिहास में आ चुका है। यहां इतना ही कहना है कि यह बड़ा प्रभावक था, जब ही अल्लाउद्दीन जैसे हिन्दूधर्मविरोधी, अत्याचारी बादशाह के काल में भी वह चार ज्ञानभण्डारों की स्थापना करने में सफल हुआ था । इतना ही नहीं उसने तो लूणसिंहवंसहिका का भी अतुल द्रव्य व्यय करके जीर्णोद्धार करवाया था और उसने कई एक अन्य पुण्य के बड़े २ कार्य किये थे । इस काल में ताड़पत्र अथवा कागज पर धर्मग्रंथों की प्रतियां अपने न्यायोपार्जित द्रव्य को व्यम करके लिखाने वालों में मुख्यतः श्री० धीणा, सज्जन और नागपाल, श्रसपाल, सेवा, गुणधर, हीरा, देदा, पृथ्वीभट, महं० विजयसिंह, श्रा० सरणी, श्रा० विकी, श्रे० थिरपाल, वोढ़कपुत्र, सांगा और गांगा, अभयपाल, महण, श्रा० स्याणी, श्रा० कडू, श्रा० आसलदेवी, श्रा० श्रीमलदेवी, श्रा० आन्हू, श्रा० रूपलदेवी, श्रे० धर्म, श्रा० माऊ, श्रे० धर्मा, गुणेयक, कोठारी बाघा, मारू, कर्मसिंह, मोमराज, मं० गुणराज श्रे० केहुला, जिणदत्त, सदूदेवी Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [ तृतीय कालूशाह, वक्षी, जीवराज, श्रा० अनाई, देवराज और उसका पुत्र विमलदास, मं० सहसराज, श्रे० पचकल, खीमजी, मं० धनजी, सा० सोनी, श्रे० रामजी, लहुजी, रंगजी आदि अनेक श्रेष्ठि व्यक्ति और श्राविका स्त्रियां हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि प्राग्वाटवर्ग के स्त्री और पुरुषों में जैसी देवभक्ति रही है, वैसी साहित्यभक्ति भी रही है। प्रस्तुत इतिहास में उक्त व्यक्तियों द्वारा लिखवाये गये ग्रंथों में उनकी दी गई प्रशस्तियों के आधार पर उनका यथाप्राप्त वर्णन दे दिया गया है, अतः यहां उनके साहित्यप्रेम के ऊपर अधिक लिखना व्यर्थ ही प्रतीत होता है। प्राग्वाटवर्ग के व्यक्तियों की जिनेश्वरभक्ति भी इस धर्म-संकटकाल में भी नहीं दब पाई थी, ऐसा कहा जा सकता है । तब ही तो शिल्प का अनन्य उदाहरणस्वरूप श्री राणकपुरतीर्थ-धरणाविहार नामक आदिनाथ-जिनालय, अर्बुदस्थ अचलगढ़दुर्ग में श्री चौमुखादिनाथ-जिनालय और सिरोही में श्री आदिनाथ-जिनालय के निर्माण संभव हुये थे। इतना ही नहीं अचलगढ़स्थ जिनालय में जो बारह(१२) सर्वधातुप्रतिमायें वजन में लगभग १४४४ मण (प्राचीन-तोल) की संस्थापित करवाई गई थीं, उनमें कई एक तो प्राग्वाट-व्यक्तियों द्वारा विनिर्मित थीं। ये प्रतिमायें और ये उक्त जिनालय इनकी जिनेश्वरभक्ति के साथ में इनका कलाप्रेम भी प्रकट करती हैं । उक्त प्रतिमाओं और तीनों मंदिरों का कला की दृष्टि से प्रस्तुत इतिहास में पूरा २ वर्णन दिया गया है। यहां इतना ही कहना है कि प्राग्वाट-व्यक्तियों का कलाप्रेम ही अन्य समाजों के कला एवं शिल्प के प्रेमियों को भी भूत में और वर्तमान में भी जैन तीर्थों के प्रति आकर्षित कर रहा है और भविष्य में भी करता ही रहेगा। जैनसमाज तो इन धर्म-प्रेमी, शिल्पस्नेही व्यक्तियों से गौरवान्वित है ही। गूर्जरसम्राटों की शोभा और संतति की इति के साथ में प्राग्वाटवर्ग की राजनैतिक ऊंची स्थिति भी गिर गई और नष्टप्रायः हो गई । अब वे बड़े २ साम्राज्यों के, राज्यों के महामात्य, मंत्री, दंडनायक जैसे उच्च पदों पर नहीं रह गये । राजस्थान और मालवा में भी उनकी राजनैतिक स्थिति अपने समाज के राजनैतिक स्थिति वर्गों में परस्पर ईर्षा, मत्सर, द्वेष जैसे फूट के पोषक विकारों के जोर के कारण अच्छी नहीं थी। अब वे केवल छोटे २ ग्रामों में व्यापारीमात्र रह गये थे । धरणाशाह का वंश अवश्य विक्रम की पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में समाज और मेदपाट-महाराणा और माण्डगढ़ के बादशाह की राजसभा में अति ही सम्मानित रहा है, परन्तु ऐसे एक-दो या कुछ ही व्यक्तियों से सारा समाज राजनैतिक क्षेत्र में उन्नत रहा नहीं माना जा सकता। श्री गुरुकुल प्रिं० प्रेस, ब्यावर ता० १६-८-१६५३ लेखकदौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी.ए. 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