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:: प्रस्तावना:
ज्ञाति में गौरवशाली माना जाता है। इस कुल में सुखमलजी नामक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हो गये हैं। सुखमलजी वि० सं० १७६० से ८० तक सिरोही के दीवान रहे हैं ऐसा कहा जाता है। इनके विषय में इतिहास में लिखा गया है। शाह वनेचन्द्र नवलाजी के कुल में श्री संतोषचन्द्रजी बड़े ही सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। हम उनके ही यहाँ जाकर ठहरे । श्री संतोषचन्द्रजी ने हमको अपने पूर्वजों को मिले कई एक पट्टे, परवाने दिखाये । भोजन कर लेने के पश्चात् मैं बाली चला गया, क्योंकि वहाँ कुलगुरु भट्टारक श्री मियाचन्द्रजी से भी मिलना था और धरणाशाह के वंशजों के विषय में उनसे जानकारी प्राप्त करनी थी। वे वहां नहीं मिले और मैं वापिस लौट आया
और फालना से संध्या समय अजमेर की ओर आने वाली यात्रीगाड़ी से स्टे० राणी आ गया। ता० २१ को दिन मर राणी ही ठहरा।
धाणसा -- ता० २१ को चार बजे पश्चात् आने वाली यात्रीगाडी से स्टे. ऐरनपुरा होकर सुमेरपुर पहुँचा और दूसरे दिन प्रातः टेक्सीमोटर से जालोर और जालोर से ट्रेन द्वारा स्टे. मोदरा उतर कर संध्या समय धाणसा ग्राम में पहुँचा । धाणसा में श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज सा. अपनी शिष्य एवं साधुमण्डली सहित विराजमान थे । वहां दो दिन ठहरा और तब तक हुये इतिहास-कार्य से उनको भलीविध परिचित किया।
जोधपुर—ता. २४ अप्रेल को धाणसा से प्रातः की यात्रीगाड़ी से रवाना होकर संध्या समय जोधपुर पहुंचा । दूसरे दिन वयोवृद्ध, अथक परिश्रमी मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी (देवगुमधरि) से मिला। आपने छोटी-बड़ी लगभग १५० से ऊपर पुस्तकें लिखी हैं । 'पार्श्वनाथ-परम्परा' भाग दो अभी आपकी लिखी बड़ी जिल्द वाजी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उसमें आपने उपकेशगच्छीय आचार्यो का क्रमवार जीवन-चरित्र देने का प्रयास किया है। उपकेशगच्छीय प्राचार्यों का जीवन-चरित्र लिखते समय उनकी नीश्रा में श्रावकों द्वारा करवाये गये पुण्य एवं धर्म के कार्यों का भी यथासंभव उल्लेख किया है। आपने उक्त पुस्तकों में के प्रत्येक प्रकरण को संवत् और स्थल से पूरा २ सजाया है। प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं के भी उक्त दोनों पुस्तकों में कईएक स्थलों पर नाम और उनके कार्यो का लेखा है । कई वर्षों पहिले आपश्री जैन जातिमहोदय' नामक एक बड़ी पुस्तक भी लिख चुके थे । उसमें आप श्री ने श्रीमालज्ञाति प्राग्वाटज्ञाति और ओसवालज्ञाति के विषय में ही बहुत कुछ लिखा है । आपसे कईएक प्रश्नों पर चर्चा करके आपके गम्भीर अनुभव का लाभ लेने की मेरे हृदय में कई वर्षों से भावना थी और इतिहासकार्य के प्रारम्भ कर लेने के पश्चात् तो वह और बलवती हो गई । आपसे अच्छी प्रकार बातचीत हुई । आपने स्पष्ट शब्दों में कहा:-'मैंने तो यह सर्व ख्यातों और पट्टालियों के आधार पर लिखा है। जिसको इन्हें प्रामाणिक मानना हो वे प्रामाणिक मानें और जिनको कल्पित मानना हो वे वैसा समझे।' आपने हस्तलिखित उपकेशगच्छपट्टावली देखने को दी, जो अभी तक अप्रकाशित है । उसमें से मैंने प्राग्वाटज्ञाति के उत्पत्तिसम्बंधी कुछ श्लोकों को उद्धृत किया। आपश्री से श्री ताराचन्द्रजी का पत्र-व्यवहार तो बहुत समय पूर्व से ही हो रहा था । मैंने भी आपश्री को २-३ पत्र दिये थे, परन्तु उत्तर एक का भी नहीं मिला था । अब मिलने पर उन सब का प्रयोजन हल हो गया । आपश्री के लिखे हुये कईएक ग्रन्थों का इतिहासलेखन में अच्छा उपयोग हुआ है। आपश्री इस दृष्टि से हृदय से धन्यवाद के योग्य हैं। यहां मैं ता० २६ तक ठहरा।