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:: वर्तमान वैनों की उत्पत्ति ::
५ – कुंडालसागोत्र चौहाण, ६ - डीडोलचा गोत्रीय, १३ - गीतगोत्र,
१ - कालिंद्रामत्र चौहाण, २ - कुंडलगोत्रीय देवड़ा चौहाण, ३- हरयगोत्र चौहाण, ६ –तुंगीयानागोत्र चौहाण, १० - श्रानन्दगोत्रीय, १४- धारगोत्रीय |
उक्त गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध समय विक्रम की सातवीं शताब्दी से पूर्व की शताब्दियों के वर्ष बतलाये जाते हैं ।
के कई एक श्रावककुलों का लेखा है:
घाणेराव नाम का नगर मरुधरप्रान्त के गोडवाड़ (गिरिवाट ) नामक भाग में बसा हुआ है। यहाँ एक कुलगुरु पौषधशाला विद्यमान है । यह इस प्रान्त की प्राचीन शालाओं में गिनी जाती है। यह पौषधशाला अभी घाणेराव की कुलगुरु-पौषध- कुछ वर्ष पूर्व हुये भट्टारक किस्तूरचन्द्रजी के नाम के पीछे श्री भट्टारक किस्तूरचन्द्रजी की पौधशाला कहलाती है । इस पौषधशाला के भट्टारक ओसवाल एवं प्राग्वाट ज्ञाति के कुलगुरु हैं । इनके आधिपत्य में प्राग्वाट ज्ञातीय निम्नलिखित २६ (छब्बीस) गोत्रो *
शाला
१ भडलपुरा सोलंकी,
५ दुगड़गोत्र सोलंकी,
७ - कुंडलगोत्रीय, ११ - विशालगोत्रीय,
२ वालिया सोलंकी,
३ कुम्हारगोत्र चौहाण,
६ मुदड़ीया काकगोत्र चौहाण, ७ लांगगोत्र चौहाण, १० वड़ग्रामा सोलंकी, ११ अंबावगोत्र परमार, १५ साकरिया सोलंकी,
बड़वाणिया पंडिया,
१३ कछोलियावाल चौहाण, १४ कासिद्रगोत्र तुमर,
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७- चन्द्रयो परमार ८- प्रविनोत्रीय,
१२ - बाघरेचा चौहाण,
१७ कासबगोत्र राठोड़
२० जावगोत्र चौहाण २३ तवरेचा चौहाण
४ भुरजभराणिया चौहाण, ८ ब्रह्मशांतिगोत्र चौहाय, १२ पोसनेचा चौहाण, १६ ब्रह्मशांतिगोत्र राठोड़ ।
इम उपरोक्त सोलह गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध - समय विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं ।
१८ मखाडिया सोलंकी २१ हरुमात्र सोलंकी २४ बूटा सोलंकी
२५ सपरसी चौहाण
इन ग्यारह गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध समय विक्रम की दशमी शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं ।
१६ स्याणवाल गहलोत २२ निवजिया सोलंकी
२६ खिमाणदी परमार - इस गोत्र के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुष का प्रतिबोध-वर्ष विक्रम की बारहवीं शताब्दी के चतुर्थ भाग में बतलाया गया है ।
यद्यपि आज के युग में जैनयति वैसे तेजस्वी और प्रसिद्ध विद्वान् नहीं भी हों, परन्तु उनका मंत्रबल तो आज भी माना जाता है और अनेक रोग उनके मंत्रबल से दूर होते सुने गये हैं। जब कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के प्रबल विरोध के फलस्वरूप और उनको राजाश्रय जो प्राप्त हुआ था, उसके कारण जब स्थल २ ग्राम, नगर में लोग पुनः वेदमत अथवा वैष्णवधर्म स्वीकार करने लगे, उस समय जैनाचार्यों ने मंत्रबल, देवी सहाय एवं चमत्कार - प्रदर्शन की विद्याओं का सहारा लेकर श्रावककुल की अन्यमती बनने से बहुत अंशों में रक्षा की थी और कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के मरण पश्चात् पुनः अनेक अन्यमती नये कुलों को श्रावकधर्म में दीक्षित किया था, यह बात प्रत्येक जैन, जैन इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं।
* इन गोत्रों की सूची मणिलालजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है।