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प्रस्तावना:
भांडवगढ़तीर्थ-श्रीमद् विजययतीन्द्रसरि महाराज उन दिनों श्री भांडवगढ़तीर्थ में विराज रहे थे। इतिहासकार्य का विवरण देने के लिये उनसे मिलना अत्यावश्यक था । स्टे० एरनपुर होकर, सुमेरपुर, जालोर होता हुआ मैं श्री भांडवगढ़तीर्थ पहुँचा। वहां दो दिन ठहरा और तब तक हुये इतिहास-कार्य एवं गुरुग्रंथ की प्रगति से उनको परिचित किया तथा अनेक विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई। ता० १४ मुलाई को वहां से रवाना होकर बागरा एक दिन ठहर कर ता. १५ जुलाई को सिरोही पहुँचा ।
सिरोही-यहां प्राग्वाटज्ञातीय सं० सीपा का बनाया हुआ चतुर्मुखादिनाथ-जिनालय बड़ा ही विशाल है। उसका शिल्प की दृष्टि से यथासंभव समूचा वर्णन लिखा और उसमें तथा अन्य जिनालयों में प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुओं द्वारा करवाये गये पुण्य एवं धर्म के विविधकार्य जैसे, प्रतिष्ठोत्सव, प्रतिमा स्थापनादि का लेखन करने की दृष्टियों से पूरी २ विज्ञप्ति प्राप्त की । यहां ता० १६ से १६ चार दिवसपर्यन्त ठहरा । सिरोही के प्रतिष्ठित प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुत्रों से मिलकर उनको इतिहासकार्य से अवगत किया।
कुंभारियातीर्थ-ता. २० जून को सिरोही से प्रस्थान करके प्राबृ-स्टेशन पर मोटर द्वारा पहुंचा और वहां से मोटरद्वारा 'अम्बाजी' गया। अम्बाजी देवी के दर्शन करता हुआ ता० २१ जून को प्रातःकाल श्री आरासमतीर्थ वर्तमान नाम श्री कुंभारियातीर्थ को पहुँचा । 'आनन्दजी कन्याणजी की पीढ़ी', अहमदाबाद का मेरे पास में पीढ़ी के मुनीम के नाम पर पत्र था। परन्तु मुनीम विचित्र प्रकृति का निकला। उसने मुझको मंदिरों का अध्ययन करने के लिये कोई सुविधा प्रदान नहीं की। मुझसे जैसा बन सका मैंने कुछ सामग्री एकत्रित की । जिसके आधार पर ही 'आरासणतीर्थ की प्राग्वाट-बन्धुओं द्वारा सेवा' के प्रकरण में लिखा गया है। भी कुंभारियातीर्थ से ता. २१ की संध्या को पुनः अम्बाजी लौट आया और वहां से ता० २२ जून को प्रात: मोटर द्वारा आबू-स्टेशन पर आ गया और उसी समय भावुकप के लिये जाने वाली मोटर तैयार थी, उसमें बैठ कर भाबुकेंप उतरा और वहां से देलवाड़ा पहुँच गया, जहां जागविश्रुत विमलवसहि और लुणसिंहवसहि संसार के विभिन्न २ प्रान्तों, देशों से भारत में आने वाले विद्वानों, पुरातत्ववेत्ताओं, राजनीतिक यात्रियों को आकर्षित करते रहते हैं।
आबू यहां ता२२ जुन से २६ पर्यन्त अर्थात् ७ दिवस ठहरा । जगविश्रुत, शिल्पकलाप्रतिमा विमलवसतिका, लूणसिंहवसतिका का शिल्प की दृष्टियों से पूरा २ अध्ययन एवं मनन करके उनका विस्तृत वर्णन लिखने की दृष्टि से सामग्री एकत्रित की। यहाँ एक रोमांचकारी घटना घटी। ऐसे कार्य करने वालों के भाग्य में ऐसी ही घटनायें लिखी ही होती हैं। पाठकों को इस कठिन मार्ग का कुछ २ परिचय देने के प्रयोजन से उसका यहाँ संक्षिप्त विवरण देना उचित समझता हूँ।
प्राबूगिरि में अनेक छोटी-बड़ी गुफायें हैं। उनमें वैष्णव, सनावनी सन्यासीगण अपनी धूणियां लगा कर बैठे रहते हैं। वहाँ उन दिनों में एक बंगाली सन्यासी की अधिक ख्याति प्रसारित थी। लोग उसको बंगाली बाबा कहते थे। उसके विषय में अच्छे २ व्यक्ति यह कहते सुने गये कि वह सौ वर्ष का है, वह जो कहता है वह होकर ही रहता है, वह जिस पर कृपा दृष्टि कर देता है, उसका जीवन सफल ही समझिये, वह बड़ा शांत, गंभीर और ज्ञानी है आदि अनेक चर्चाओं ने सुझको भी उसके दर्शन करने के लिए प्रेरित किया । यद्यपि मेरे