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मिल कर यथाशक्ति संतोषजनक स्तर तक जुटा ली । परन्तु प्रथम बात तो दूसरों के हृदय की रही। वे चाहे तो जिज्ञासु को लाभ पहुँचा सकते हैं और चाहे तो नहीं। सर्व प्रथम निम्न छः प्रश्नों को लिखकर मैंने श्री ताराचन्द्रजी को दिये वे इनके उत्तर बड़े २ अनुभवशील व्यक्तियों, आचार्यों से मंगवावें और उनको एकत्रित करें। ६ प्रश्न:
:: प्रस्तावना :
१ - ' प्राग्वाट ' शब्द की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई १
२ - ' पुरु' राजा कहाँ का रहने वाला था, उसका 'प्राग्वाट' शब्द से कितना सम्बन्ध है ? ३–भिन्नमाल से पौरवाड़ों की उत्पत्ति प्राग्वाट ब्राह्मणों से जैन दीक्षित हो जाने पर हुई अथवा क्षत्रियों से १ ४ - विमलशाह ने किन बारह (१२) सुलतानों को कब और कहाँ परास्त किया था ? उस समय मुसलमान बादशाहों का राज्य भी नहीं जमने पाया था, तब एक दम १२ सुलतानों की सम्भावना कहाँ तक मान्य है ?
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५ - मं० वस्तुपाल ने किस बादशाह की माता को मक्के जाते समय सहयोग दिया था ! उस समय दिल्ली की गद्दी पर बादशाह अल्तमश था और वह था गुलाम ( खरीदा हुआ ) । उसकी माता वहाँ ( दिल्ली में) नहीं हो सकती थी १
६ – मुंजाल महता को प्रसिद्ध किया श्री कन्हैयालाल मुन्शी ने । मेरुतुंगाचार्य ने मुंजाल के विषय में अपनी 'प्रबन्ध - चिंतामणि' में केवल एक पंक्ति लिखी और वह भी चलते हुये क्या मुंजाल इतना प्रसिद्ध हुआ है १ (मुंजाल प्राग्वाटज्ञातीय नहीं था, यह मुझको पीछे ज्ञात हुआ)
उक्त प्रश्न जैनाचार्यों में सर्व श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी, श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजी, श्रीमद् उपाध्याय कल्याणविजयजी, श्रीमद् विजयेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् मुनिराज जयंतविजयजी, श्रीमद् विजयरामसूरिजी, श्रीमद् विजयने मिसूरिजी, श्रीमद् मुनिराज विद्याविजयजी (कराची), मुनिराज ज्ञानसुन्दरजी ( देवगुप्तसूरि ) आदि से कई एक पत्र लिखकर अथवा स्वयं मिलकर पूछे। श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी का तो इतिहास - कार्य में प्रारम्भ से ही पूर्ण योग चला आया है। शेष में मुनिराज जयंतविजयजी का उत्तर उत्साहवर्द्धक था और उन्होंने इस कार्य में पूर्ण सहयोग देने की बात लिखी थी । देव का प्रकोप हुआ, वे इसके थोड़े ही समय पश्चात् स्वर्ग सिधार गये ।
उक्त छः प्रश्न विद्वान् एवं इतिहासकारों में सर्व श्री महामहोपाध्याय हीराचन्द्र गौरीशंकर ओझा - अजमेर, अगरचन्द्रजी नाहटा — बीकानेर, पं० लालचन्द्र भगवानदास — बड़ौदा, पं० शिवनारायण 'यशलहा' – इन्दौर से पूछे गये । महामना श्राजी का उत्तर बहुत ही उत्साहवर्द्धक प्राप्त हुआ था; परन्तु वे भी थोड़े समय पश्चात् स्वर्गस्थ होगये । नाहटाजी का उत्तर तो प्राप्त हो गया था; परन्तु पश्चात्ताप है कि उनसे साक्षात्कार करने की भावना इतिहास की पूर्णता होते २ जाग्रत हुई। पं० लालचन्द्र भगवानदास की सहानुभूति हमको खण्ड मिलती रही। जिसके विषय में भ्रमण के प्रकरण में भी कहा जा चुका है। पं० शिवनारायणजी से भी ऐसी ही सराहनीय सहानुभूति मिली ।