________________
खण्ड]
:: शत्रुञ्जयोद्धारक परमाईत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह ::
[ १७
और मूलनिवास के कारणों का तथा धीरे-धीरे सर्वत्र इस भाग में विस्तारित होती हुई उसकी परंपरा की प्रभावशीलता एवं प्रमुखता का इस देश का नाम प्राग्वाट पड़ने पर अत्यधिक प्रभाव रहा है। आज भी प्राग्वाटज्ञाति अधिकांशतः इस भाग में वसती है और गूर्जर, सौराष्ट्र और मालवा, संयुक्तप्रदेश में जो इसकी शाखायें नामों में थोड़े-कुछ अन्तर से वसती हैं, वे इसी भूभाग से गयी हुई हैं ऐसा वे भी मानती हैं।
शत्रुञ्जयोद्धारक परमाहत श्रेष्ठि सं० जावड़शाह
वि० सं० १०८
सौराष्ट्र में विक्रम की प्रथम शताब्दी में कांपिल्यपुर नामक नगर अति समृद्ध एवं व्यापारिक क्षेत्र था। वहाँ अनेक धनी, मानी, श्रेष्ठिजन रहते थे। प्राग्वाटज्ञातीय भावड़ श्रेष्ठि भी इन श्रीमन्तजनों में एक अग्रणी थे। श्रेष्ठि भावड और उसकी दैववशात् उनको दारिद्रय ने आ घेरा । दारिद्रय यह तक बढ़ा कि खाने, पीने तक को पति-परायणा स्त्री तथा पूरा नहीं मिलने लगा। भावड़शाह की स्त्री सौभाग्यवती भावला अति ही गुणगर्भा, उनकी निर्धनता देवीस्वरूपा और संकट में धैर्य और दृढ़ता रखने वाली गृहिणी थी । भावड़शाह और सौभाग्यवती भावला दोनों बड़े ही धर्मात्मा जीव थे। नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठते और ईश्वर-भजन, सामायिक, प्रतिक्रमण करते थे। तत्पश्चात् सौभाग्यवती भावला गृहकर्म में लग जाती और भावड़शाह विक्री की सामग्री लेकर कांपिल्यपुर की गलियों और आस-पास के निकटस्थ ग्रामों में चले जाते और बहुत दिन चढ़े, कभी २ मध्याह्न में लौटते । सौभाग्यवती भावला तब भोजन बनाती और दोनों प्रेमपूर्वक खाते । कभी एक बार खाने को मिलता
और कभी दो बार । एक समय था, जब भावड़शाह सर्व प्रकार से अति समृद्ध थे, अनेक दास-दासी इनकी सेवा में रहते थे, अनेक जगह इनकी दुकानें थीं और अपार वैभव था । अब भावड़शाह ग्राम २ चक्कर काटते थे, दर-दर
. जावड़शाह का इतिहास अधिकतर श्री धनेश्वरसरिविरचित श्री शत्र'जय-महात्म्य (जिसका रचना-समय वि० सं०४७७ संभावित माना जाता है) के गुजराती भाषान्तर, श्री जैनधर्म-प्रसारक-सभा, भावनगर की ओर से वि० सं०१६६१ में प्रकाशित पर से लिखा गया है। श्री रत्नशेखरसरिरचित श्री श्राद्ध-विधि प्रकरण में भी जावड़शाह का इतिहास ग्रंथित है। वह भी प्रतीत होता है उक्त श्री. शत्रजय-महात्म्य पर ही विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखा गया है। श्री नाभिनन्दन-जिनोद्धार-प्रबन्ध में जिसके कर्ता श्री ककसरि हैं, जिन्होंने उसको वि० स०१३६३ में लिखा है जावड़शाह को 'प्राग्वाटकुलभिव' लिखा है तथा जावड़ को जावड़ी और जावड़ के पिता भावड़ के स्थान पर जावड़ लिखा है । यह अन्तर क्यों कर घटा-समझ में नहीं आता है। (पिता) भावड़ की जगह जावड़ मुद्रित हो गया प्रतीत होता है। (पुत्र) जावड़ के स्थान पर जावड़ी लिखा है। यह अन्तर तो फिर भी अधिक नहीं खटकता है। 'भवित्री भावला नामा, तत्पत्नी तीवशीलभा । धर्माश्रिता क्षातिरिव, रेजे या भावड़ानुगा ॥५॥
-श.म. पृ०८०८ से८२४ १-वि० सं०१३१३ में श्री कमरिविरचित ना० नं० जि० प्र० पृ०१११ से ११६, श्लोक १०३ से १६२ २-वि० पहन्द्रवीं शताब्दी में श्री रत्नशेखरसूरिविरचित श्रा०वि०प्र० पृ० २२६ से २३७ (कर्ज पर भावड़शाह का दृष्टान्त) ३-वि० स० ४७७ में श्री धनेश्वरसरिविरचित-संस्कृतपद्यात्मक श्री श० म० के गुजराती भाषान्तर पर पृ० ५०१ से ५१०