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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ प्रथम
भी दिनों-दिन वटने लगी और नवीन जैन बनने बंद-से हो गये । विक्रम की सातवीं और आठवीं शताब्दी में जैन संख्या में ६ और ७ कोटि के बीच में रह गये थे । उक्त प्रदेशों में जैनाचार्यों का विहार बंद पड़ जाने के कारण और वेदमत के पुनर्जागरण के कारण उनमें से कई अथवा अनेक वैष्णवधर्मी बन गये हों । वैष्णवधर्म का प्रचार विक्रम की आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य के समय से ही द्रुतगति से समस्त भारत में पुनः प्रबल वेग से बढ़ने लगा था । जैनाचाय्य को स्वभावतः जैनसमाज की निरन्तर घटती हुई संख्या पर चिन्ता होनी आवश्यक थी । सम्भव है उसी के फलस्वरूप विक्रम की आठवीं, नौवीं शताब्दी में जैनाचार्यों ने नवीनतः श्रजैनकुलों को जैन बनाने का दुर्धर कार्य प्रारम्भ किया । यह निश्चित है कि अब उनका यह कार्य प्रमुखतः राजस्थान, मालवा तक सीमित रहा था और ये प्रदेश ही विक्रम की पाँचवीं-बट्टी शताब्दियों से उनके प्रमुखतः विहार क्षेत्र भी थे । वर्तमान् जैनसमाज बहुत अंसों में पश्चात् की शताब्दियों में जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों की ही सन्तान हैं।
वर्तमान् जैनसमाज अथवा जैनज्ञाति की स्थापना पर विचार और कुलगुरु-संस्थायें
वर्तमान् जैनसमाज का अधिकांश भाग पंजाब, राजस्थान, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र (काठियावाड़) संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, बरार, खानदेश में ही अधिकतर वसता है और जैनेतर वैष्णव वैश्यसमाज उत्तरी भारत में पंजाब से बरार, खानदेश और सिंध से गंगा-यमुना के प्रदेशों में सर्वत्र बसता है । जैनकुलों का वर्णन अथवा इतिहास कुलगुरुओं ने और वैष्णव वैश्यकुलों का वर्णन अथवा इतिहास भट्ट, ब्राह्मणों, चारणों ने लिखा है और अभी तक ये लोग अपने २ श्रावककुल अथवा यजमानकुलों का वर्णन परम्परा से लिखते ही आरहे हैं। जैनकुलगुरुओं के पास में जो जैन श्रावककुलों की ख्यातें हैं, उनमें ऐसी अभी तक कोई भी विश्वसनीय ख्यात बाहर नहीं आई, जो किसी वर्तमान् जैनकुल की उत्पत्ति वि० सं० की आठवीं शताब्दी से पूर्व सिद्ध करती हो । आज तक प्रकाशित हुये अगणित जैनप्रतिमा - लेखों, प्रशस्तियों, ताम्रपत्रों पर से भी यही माना जा सकता है कि वर्तमान् जैनसमाज के कुलों की उत्पत्ति विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में तथा पश्चात् की ही है। यह भी ख्यातों से सिद्ध है। कि वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति अधिकांशतः राजस्थान और मालवा में हुई है । अन्य प्रान्तों में कालान्तर में वे जाकर बसे हैं । इन जैनकुलों के कुलगुरुयों की पौषधशालायें भी अधिकांशतः राजस्थान और मालवा में ही रही हैं और आज भी वहीं हैं । अन्य प्रान्तों में पौषधशालायें कहीं-कहीं हैं । जैनकुल जब किसी परिस्थितिवश अन्य प्रान्त में जाकर बसा, उसके कुलगुरु उसके साथ में जाकर वहां नहीं बसे थे । इस प्रकार जन्म-स्थान को छोड़ कर अन्य • प्रान्त में जाकर बसने वाले जैनकुलों का उनके कुलगुरु से जब से सम्बन्ध-विच्छेद हुआ, तब से उनके कुलों का वर्णन अथवा इतिहास का लिखा जाना भी बन्द हो गया । यतः अतिरिक्त राजस्थान और मालवा में बसने बाले जैनकुलों का और नहीं छोड़कर जाने वाले जैनकुलों का वर्णन अथवा इतिहास उनके कुलगुरु बराबर लिखते