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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[प्रथम
यह हुआ कि ब्राह्मणवर्ग निरंकुश एवं सत्ताभोगी हो बैठा । यज्ञ, हवन, योगादि की असत् प्रणालियाँ बढ़ने लगीं। यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाने लगी। शूद्रों को हवन एवं यज्ञोत्सवों में भाग लेने से रोका जाने लगा। यह समय इतिहास में क्रियाकाण्ड का युग भी माना जाता है ; परन्तु यह युग अधिक लम्बे समय तक नहीं टिक सका।
महावीर से पूर्व केवल दो संस्थायें ही भारत में रही हैं, एक धर्मसंस्था और दूसरी वर्णसंस्था । आज की शातियों का दुर्ग एवं जाल, श्रेणियों का दुर्भेद उस समय नितान्त ही नहीं था। वर्णसंस्था आज भी है और उसके अनुसार पूर्ववत् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण भी विद्यमान हैं, परन्तु आज ये सुदृढ़ ज्ञातियों के रूप में हैं, जबकि उस समय प्रत्येक पुरुष का वर्ण उसके कर्म के आधीन था।
ब्राह्मणवर्ग की सत्ताभोगी प्रवृत्ति से राजा एवं सामंत भी असंतुष्ट थे, उनके मिथ्याडम्बर से इतरवर्ग भी क्षुब्ध थे, उनके हिंसात्मक यज्ञ, हवनादि क्रियाकाण्डों से भारत का श्वास घुटने लग गया था। इस प्रकार भारत के कलेवर में विचारों की महाक्रांति पल रही थी. ब्राह्मणवर्ग के विरुद्ध अन्य वर्गों में विद्रोह की ज्वाला धधक थी। ब्राह्मणवर्ग को पीछे स्थिति बिगडी अथवा सुधरी, कुछ भी हो, परन्तु इस क्रियाकाण्ड के युग में ज्ञातीयता का बीजारोपण तो हो ही गया, जो आज महानतम वटवृक्ष की तरह सुदृढ़, गहरा और विस्तृत फैला हुआ है।
ब्राह्मणवर्ग की सत्तालिप्सा, एकछत्र धर्माधिकारिता ने भारत के संगठन को अन्तप्रायः कर डाला। चारों वों में जो पूर्व युगों में मेल रहा था, वह नष्ट हो गया। परस्पर द्वेष, मत्सर, विद्रोह, ग्लानि के भाव जाग्रत हो
___ गये । राजागणों की राज्यश्री जैसा ऊपर लिखा जा चुका है ब्राह्मणवर्ग के चरणों में बाहरी आक्रमणों का प्रारंभ
___ लोटने लगी। इस प्रकार ई. सन् से पूर्व छठी शताब्दी में भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक अवनति चरमता को पहुँच गई। उधर पड़ौसी. शकप्रदेश में प्रतापी सम्राट साइरस राज्य कर रहा था। उसने भारत की गिरती दशा से लाभ उठाना चाहा और फलतः उसने पंजाब प्रदेश पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिये और पंजाब का अधिकांश भाग अधिकृत कर लिया। सम्राट् डेरियस ने भी आक्रमण चालू रखे
और उसने मी सिंध-प्रांत के भाग पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली । भारत के निर्बल पड़ते राजा उन आक्रमणों को नहीं रोक सके। भारत के इतिहास में बाहरी आक्रमणों का प्रारम्भ इस प्रकार ई. सन् से पूर्व छवी शताब्दी से होता है । वर्णाश्रम की सड़ान से भारत भीतर से विकल हो उठा और बाहरी आक्रमणों का संकट जाग उठा ।
.. अब से ई० सन् पूर्व नवीं शताब्दी में भगवान पार्श्वनाथ ने सर्व प्रथम ब्राह्मणवर्ग की बढ़ती हुई हिंसात्मक एवं स्वार्थपूर्ण मिथ्यापरता के विरोध में आन्दोलन को जन्म दिया था। उनके निर्वाण के पश्चात् २५० वर्ष पर्यन्त
का समय ब्राह्मणवर्ग को ऐसा मिल गया, जिसमें उनका विरोध करने वाला कोई महान् यहान् अहिंसात्मक क्रान्ति, अवधर्म की स्थापना और प्रतापी पुरुष पैदा नहीं हुआ। इस अन्तर में ब्राह्मणवर्ग का हिंसात्मक क्रियाकाण्ड चरजमवाम् महावीर का दया- मता को लांघ गया। ई० सन् से पूर्व लगभग ५६६ वर्षों के भगवान् महावीर का प्रसार उसका प्रचार । “अक्तरण हुआ। भगवान गौतमबुद्ध भी इसी काल में हुए । इन दो महापुरुषों ने हिंसास्मक क्रियाकाण्ड का अन्त करने के लिए अपने प्राण लगा दिये। उस समय की स्थिति भी दोनों महापुरुषों के