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:: महावीर के पूर्व और उनके समय में भारत ::
अनुकूल थी। राजाओं ने, जो ब्राह्मणवर्ग की निरंकुशता एवं सत्तालिप्सा से चिढ़े हुए थे इनके विचारों का समर्थन किया तथा तीनों वर्गों ने इनके विचारों को मान दिया और उन पर चलना प्रारंभ किया। समस्त उत्तर भारत में दयाधर्म का जोर बढ़ गया और बामणवर्ग की प्रमुखता एवं सत्ता हिल गई। यहाँ तक कि स्वयं ब्रामणवर्ग के षड़े-बड़े महान् पंडित, इनके भक्त और अनुयायी बन कर इनके दया-धर्म का पालन और प्रचार करने लगे।
ई. सन् पूर्व की छट्ठी शताब्दी तक आर्यावर्त अथवा भारत में दो ही धर्म थे—जैन और वैदिक । चारों वर्गों के स्त्री पुरुष अपनी-अपनी इच्छानुकूल इन दो में से एक का पालन करते थे। ब्राह्मणवर्ग ने वैदिकमत का औदार्य दिनोंदिन कम करना प्रारंभ किया और उसका यह परिणाम हुआ कि वैदिकमत केवल ब्राह्मणवर्ग की ही एक वस्तु बन गई। फलतः अन्य वर्गों का झुकाव जैनधर्म के प्रति अधिक बढ़ा। इस ही समय बुद्धदेव का जन्म हुआ और उन्होंने तृतीय धर्म की प्रवर्तना की, जो उनके नाम के पीछे बौद्धमत कहलाया। अब भारत में दो के स्थान पर वैदिकमत, बौद्धमत और जैनमत इस प्रकार तीन मत हो गये। जैनमत और बौद्धमत मूल धर्म सिद्धांतों में अधिक मिलते हैं। दोनों मतों में अहिंसा अथवा दया-धर्म की प्रधानता है, दोनों में प्राणीमात्र के प्रति समतादृष्टि है, दोनों में यज्ञ-हवनादि क्रियाकाण्डों का खण्डन है, चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषों को बिना राक्रंक, ऊँरनीच के भेद के दोनों मत एक-सा धर्माधिकार देते हैं। जैनमत से मिलता होने के कारण बौद्धमत को चारों वों के स्त्री और पुरुषों ने सहज अपनाना प्रारंभ किया और जैनमत के साथ-ही-साथ वह भी बढ़ा। फिर भी उदारता, विशालता, क्षमता, सहिष्णुता की दृष्टियों से दोनों मतों में जैनमत का स्थान प्रमुख है। गौतम बुद्ध के अनुयायियों में अधिकतम ब्राह्मण और क्षत्रियवर्ग के लोग थे । परन्तु भगवान महावीर के अनुयायियों में स्वतन्त्र रूप से चारों वर्ण थे। इसने वर्णाश्रम की सड़ान से लोगों का उद्धार किया। भगवान महावीर को सत्यशीख आत्मा ने मानव-मानव के बीच के भेद के विरोध में महान आन्दोलन खड़ा कर दिया और समता के सिद्धांत की स्थापना की और प्रसिद्ध किया कि किसी भी शद्र अथवा अन्य वर्ण का कोई भी व्यक्ति अपना जीवन पवित्र, निर्दोष एवं परोपकारी बना कर मोक्ष-मार्ग में आगे बढ़ सकता है और मोक्षगति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार भगवान ने लोगों में आत्मविश्वास की भावना को जाग्रत किया और उन्हें प्रोत्साहित किया तथा विश्वबन्धुत्व के सिद्धांत का पुनः प्रचार किया । इस प्रकार भगवान् ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषों को समान रूप से धर्माधिकार प्रदान किया और उनमें प्रेम-धर्म की स्थापना की। भगवतीसूत्र के कथनानुसार भगवान महावीर का जैनधर्म अंग, बंग, मगध, मलाया, मालव, काशी, कोशल, अछ (अत्स), वछ (वत्स), कच्छ, पाण्डप, लाड़, बज्जी, मोली, अवह और सम्मुत्तर नामक सोलह महाजनपदों में न्यूनाधिक फैल गया था। इन प्रदेशों के राजा एवं माण्डलिक भी जैनधर्म के प्रभाव के नीचे न्यूनाधिक आ चुके थे। मगधपति श्रेणिक (बिंबिसार) और कौशलपति प्रदेशी (प्रसेनजित) भगवान् के अग्रगण्य नृपभक्तों में शिरोमणि थे । भगवान् के गौतम आदि ग्यारह गणधर थे, जो महान् पंडित, ज्ञानी, तपस्वी एवं प्रभावक थे । ये सर्व ब्राह्मणकुलोत्पन्न थे । और फिर इनके सहस्रों साधु शिष्य थे। चन्दनबालादि अनेक विदुषी साध्वियाँ भी थीं। ये सर्व धर्म-प्रचार, आत्मकल्याण एवं परकल्याण करने में ही दत्तचित्त थे। जैनधर्म का प्रचार करते हुए बहत्तर (७२) वर्ष की आयु भोग कर भगवान् महावीर जैन मान्यतानुसार