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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[प्रथम
श्रीमालपुर में ६०००० (नेऊ सहस्र) उच्चवर्णीय स्त्री-पुरुषों को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर जैन बनाया था । तत्पश्चात् श्रीमालपुरनगरी से विहार करके वे पुनः पूर्ववाट-प्रदेश में विहार करते हुये इस प्रदेश के राजपाटनगर पद्मावती में पधारे और वहाँ के राजा पद्मसेन ने गुरुश्री के प्रतिबोध पर ४५००० (पैंतालीस सहस्र) पुरुष-स्त्रियों के साथ में जैनधर्म अंगीकृत किया था। ... श्रीमालपुर के पूर्ववाट में बसने के कारण जैसे वहाँ के जैन बनने वाले कुल अपने वाट के अध्यक्ष का जो प्राग्वाट-पद से विश्रत था नैतृत्व स्वीकार करके उसके प्राग्वाट-पद के नाम के पीछे सर्व प्राग्वाट कहलाये, उसी दृष्टि से प्राचार्य श्री ने भी पद्मावती में, जो अलीपर्वत के पूर्ववाटप्रदेश की पाटनगरी थी जैन बनने वाले कुलों को भी प्राग्वाट नाम ही दिया हो । वैसे अर्थ में भी अन्तर नहीं पड़ता है । पूर्ववाड़ का संस्कृत रूप पूर्ववाट है और पूर्ववाट का 'प्राच्या वाटो इति प्राग्वाट' पर्यायवाची शब्द ही तो है । पद्मावतीनरेश की अधीश्वरता के कारण तथा पद्मावती में जैन बने बृहद् प्राग्वाटश्रावकवर्ग की प्रभावशीलता के कारण तथा अक्षुण्ण वृद्धिंगत प्राग्वाट-परंपरा के कारण यह प्रदेश ही पूर्ववाट से प्राग्वाट नाम वाला धीरे २ हुआ हो।
उपरोक्त अनुमानों से ऐसा तो आशय ग्रहण करना ही पड़ेगा और ऐसे समुचित भी लगता है कि अलीपर्वत का पूर्वभाग, जिसको मैंने पूर्ववाट करके लिखा है, उन वर्षों में अधिक प्रसिद्धि में आया और तब अवश्य उसका कोई नाम भी दिया गया होगा। प्राग्वाट श्रावकवर्ग के पीछे उक्त प्रदेश प्राग्वाट कहलाया हो अथवा यह अगर नहीं भी माना जाय तो भी इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति
___'प्राग्वाट' शब्द की उत्पत्ति पर और 'प्राग्वाट' नाम का कोई प्रदेश था भी अथवा नहीं के प्रश्न पर इतिहासकार एकमत
१-श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा का मत:
आप मेरे छः प्रश्नों का ता०१०-१-१९४७ स्थान रोहीड़ा (सिरोहीराज्य) से एक पोस्टकार्ड में उत्तर देते हुये 'प्राग्वाट' शब्द पर लिखते हैं, (१) प्राग्वाट शब्द की उत्पत्ति मेवाड़ के 'पुर' शब्द से है। 'पुर' शब्द से पुरवाड़ और पौरवाड़ शब्दों की उत्पत्ति हुई है। 'पुर' शब्द मेवाड़ के पुर जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिए 'प्राग्वाट' शब्द भी लिखा मिलता है। ... २-श्री अगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर:- . .
श्राप से ता०२६-६-१६५२ को बीकानेर में ही मिला था । प्राग्वाट-इतिहास सम्बन्धी कई प्रश्नों पर अापसे गम्भीर चर्चा हुई। आपने वर्तमान गौड़वाड़, सिरोहीराज्य के भाग का नाम कभी प्राग्वाटप्रदेश रहा था, ऐसा अपना मत प्रकट किया। ३-मुनि श्री जिनविजयजी, स्टे. चंदेरिया (मेवाड़) डब्ल्यु० आर०:
__ आप से मैं ता०७७-५२ को चंदेरिया स्टेशन पर बने हुये आपके सर्वोदय आश्रम में मिला था। प्राग्वाट-इतिहास सम्बन्धी लम्बी चर्चा में आपने अर्बुदपर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक के लम्बे प्रान्त का नाम पहिले प्राग्वाटप्रदेश था, ऐसा अपना मत प्रकट किया।
- उक्त तीनों व्यक्ति पुरातत्व एवं इतिहासविषयों के प्रकांड और अनुभवशील प्रसिद्ध अधिकारी हैं। ४-वि० सं० १२३६ में श्री नेमिचन्द्रसरिकृत महावीर-चरित्र की प्रशस्ति:
'प्राच्या' वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय । तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मितोध्यक्षहेतोः। . .. तत्संतान प्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोयं । प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥.. इस प्राचीन प्रशस्ति के सामने श्री ओझाजी का निर्णय संशोधनीय है और मुनिजी एवं नाहदाजी के मत मान्य हैं। निश्चित शब्दों में वैसे प्राग्वाटप्रदेश कौन था और कितना भू-भाग, कब था और यह नाम क्यों पड़ा-पर लिखना कठिन है। अतः निश्चित प्रमाणों के अभाव में संगन अनुमानों पर ही लिखना शक्य है।