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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ प्रथम
अथवा भिन्नमाल की स्थापना भगवान् महावीर के समय में ही हो चुकी थी, परन्तु इधर सम्भवतः नहीं तो भगवान् काही विहार हुआ और नहीं अधिकांशतः जैनाचाय्यों का, अतः इस अभिनव वसी हुई नगरी में और इस समीपवर्ती श्रवली -प्रदेश में यज्ञ, हवन और पशुबली का वैसा ही जोर था और राजसभाओं में ब्राह्मण- पण्डितों का गहरा प्रभाव और आतंक था । श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि कठिन विहार करके अपने शिष्य एवं साधु-समुदाय के सहित भिन्नमाल नगरी में पहुंचे । उस समय नगरी की सुख-समृद्धता के लिये राजा जयसेन की राजसभा में भारी यज्ञ के किये जाने का आयोजन किया जा रहा था - ऐसी कथा प्रचलित है । कुछ भी हो सूरिजी ने उस समय राजा को प्रतिबोध दिया और उसने तथा वहाँ बसने वाले नेऊ सहस्र ( ६००००) स्त्री-पुरुषों ने कुलमर्यादा रूप में जैनधर्म अंगीकृत किया ।
श्रीमालपुर उन दिनों में बहुत ही बड़ा और अत्यन्त समृद्ध नगर था । यह अवंती और राजगृही की स्पर्धा करता था । आज दिल्ली और प्रभासपत्तन, सिंधुनदी तथा सोन नदी तक फैला हुआ जितना भूभाग है, उन दिनों में रहे हुये भारतवर्ष के इस भाग में श्रीमालपुर ही सब से बड़ा नगर था । इस नगर में अधिकांशतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बसते थे और वे भी उच्चकोटि के । नगर की रचना श्रीमाल - माहात्म्य में इस प्रकार वर्णित की गई है कि उत्कट धनपति अर्थात् कोटीश जिनको धनोत्कटा कहा गया है, श्रीमालपुर की दक्षिण दिशा में बसते थे और इनसे कमधनी (श्रीमंत) उत्तर और पश्चिम दिशा में बसते थे और वे श्रीमाली कहे गये हैं । स्वयं लक्ष्मीदेवी का क्रीडास्थल ही हो, श्रीमालपुर का ऐसा जो समृद्ध और वनराजि से सुशोभित पूर्व भाग था, जो श्रीमालपुर का पूर्वबाट कहा गया है उसमें बसने वाले प्राग्वाट कहे गये हैं ।
आचार्य स्वयंप्रभसूरि के कर-कमलों से जिन ६०००० (नेऊ सहस्र ) स्त्री-पुरुषों ने जैनधर्म अंगीकृत किया था, वे जो धनोत्कटा थे धनोत्कटा श्रावक कहलाये, जो उनसे कम श्रीमंत थे वे श्रीमालीश्रावक कहलाये और जो पूर्ववाट में रहते थे, वे प्राग्वाटश्रावक कहलाये । इनकी परम्परा में हुईं इनकी सन्तानें भी श्रीमाली, धनोत्कटा और वाट कहलाई ।
श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत श्री महावीरचरित्र की वि० सं० १२३६ में लिखित पुस्तिका की प्रशस्ति में एक श्लोक में कहा गया है कि प्राचीवाट में अर्थात् पूर्वदिशा में लक्ष्मीदेवी के द्वारा क्रीडास्थल बनवाया गया, जिसका नाम प्राग्वाट रक्खा । उस 'प्राग्वाट ' नाम के क्रीड़ास्थल का जो प्रथम पुरुष अध्यक्ष निर्मित किया गया, वह अध्यक्ष प्राग्वाट नाम की उपाधि से विश्रुत हुआ । उस प्राग्वाट - अध्यक्ष की सन्तानें, जो श्रीमन्त रही हैं, ऐसा यह प्राग्वाट - अध्यक्ष का वंश 'प्राग्वाट वंश' के नाम से जग में विश्रुत हुआ ।
प्राग्वाट वंश
प्राच्या वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय, तथाम्नैव प्रथम पुरुषो निर्मितोऽध्यक्ष हेतोः । तत्संतानप्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोऽयं, प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥
दशोनलक्षमेकं हि श्रीमाले वणिजोऽभवन् । यस्य प्रतिगृहे प्राग्वाटा दिशि पूर्वस्था, दक्षिणस्यां धनोत्कटाः । श्रीमालिनः
— श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत महावीरचरित्र की प्रशस्ति योऽभूत्, तद्गोत्रं सोन्वपद्यत ॥२४॥ प्रतीच्या वै उत्तरस्य । तथाविशन् ||२५||
श्री० म० अ० १३ पृ० ६२-६३.