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:: प्रारवाटलेहास:
एवं चैत्यों का ममत्व सभी को प्रभावित कर विशाल जैन संघ की उदार भावना को एक संकुचित बाड़ाबंदी में सीमित कर बैठा । संचिप्त में जैनधर्म के आदर्शों से च्युत होने की यही कथा है । हम में एक समय किसी कारणवश कोई खराबी गई तो उससे चिपटा नहीं रहना है। उसका संशोधन कर पुनः मूल आदर्श को अपनाना है। हमारे आचार्यों ने यही किया। आठवीं शताब्दी के महान् आचार्य हरिभद्रसरि ने चैत्यवासी की बड़ी भर्त्सना की। ग्यारहवीं शताब्दी में खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनेश्वरमरि ने तो पाटण में आकर चैत्यवासियों से बड़ी जोरों से टक्कर ली। इनसे लोहा लेकर उन्होंने उनके सुदृढ़ गढ़ को शिथिल और श्रीहीन बना दिया । चैत्यवास के खण्डहर जो थोड़े बहुत रह सके, उन्हें जिनवल्लभसूरि और जिनपतिसूरि ने एक बार तो दाहसा दिया। 'गणधरसार्धशतकबृहवृत्ति' और 'युगप्रधानाचार्य गुरुवावली' में इसका वर्णन बड़े विस्तार से पाया जाता है। 'संघपट्टकवृत्ति' आदि ग्रंथ भी तत्कालीन विकारों एवं संघर्ष की भलीभांति सूचना देते हैं ।
__हां तो मैं जिस विषय की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता था वह है स्वधर्मी वात्सल्य इसका विशद् निरूपण आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के ग्रंथों में मिलता है और हमारी भेद-भावना को छिन्न-भिन्न कर देने में यह स्वधर्मी वात्सल्य एक अमोघ शास्त्र है। जो जैनधर्म की पावन छाया के नीचे आगया वह चाहे किसी भी ज्ञाति का हो, किसी भी वंश का हो, उसके पूर्वज या उसने स्वयं इतः पूर्व जो भी बुरे से बुरे काम किये हो, जैन होने के बाद वह पावन हो गया, श्रावक हो गया, जैनी हो गया, श्रमणोपाशक हो गया और उससे पूर्व सैकड़ों वर्षों से जैन धर्म को धारण करने वाले श्रावकों का स्वधर्मी बंधु हो गया। अब तो गले से गले मिल गये, एक दूसरे के सुख-दुख के भागी बन गये, परस्पर में धर्म के प्रेरक बन गये, धर्म से गिरते हुए भाई को उठा कर उसे पुनः धर्म में प्रतिष्ठित करने वाले बन गये-वहां भेद-भाव कैसा ?
इस आदर्श के अनुयायियों के लिये अंतरज्ञातीय विवाह का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए । वास्तव में जैनधर्म में अन्तरज्ञाति कोई वस्तु है ही नहीं। जैनधर्म में तो कोई ज्ञाति है ही नहीं । है तो एक जैनज्ञाति । सब के धार्मिक
और सामाजिक अधिकार समान हैं । ज्ञातियों के लेबल तो तीन कारणों से होते हैं । पहला कारण है प्रतिष्ठित वंशज के नाम से उसकी संतति का प्रसिद्ध होना, दूसरा आजीविका के लिये जिस धंधे को अपनाया जाय उस कार्य से प्रसिद्धि पाना जैसे किसीने भएडार या कोठार का कार्य किया तो वे भंडारी या कोठारी हो गये, किसी ने तीर्थयात्रार्थ संघनिकाला तो वे संघवी होगये, याने किसी कार्यविशेष से उस कार्यविशेष की सूचक जो संज्ञा होती है वह आगे चल कर ज्ञाति व गोत्र बन जाते हैं । तीसरा स्थानों के नाम से । जिस स्थान पर हम निवास करते हैं, उस स्थान से बाहर जाने पर हमें कोई पूछता है कि आप कहां के हैं, कहां से आये तो हम उत्तर देते हैं कि अमुक नगर अथवा ग्राम से आये हैं और उसी नगर, ग्राम के नामों से हमारी प्रसिद्धि हो जाती है। जैसे कोई रामपुर से आये तो रामपुरिया, फलोदी से आने वाले फलोदिया । अतः हमें इन भेदों पर अधिक बल नहीं देना चाहिए।
____ जो बातें मूलरूप से हमारी अच्छाई और भलाई के लिये थीं, हमारे उन्नत होने के लिये थीं वे ही हमारे लिये घातक सिद्ध हो गई। आज तो हमारे में खराबी यहाँ तक घुस गई है कि हमारा वैवाहिक संबंध जहां तक हमारे ग्राम और नगर में हो दूसरे ग्राम में करने को हम तैयार नहीं होते। दूसरे प्रान्त वाले तो मानों हमारे से बहुत ही भिन्न हैं। साधारण खान-पान और वेष-भूषा और रीति-रवाजों के अंतर ने हमारे दिलों में ऐसा भेद