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: प्राग्वाट इतिहास :
हुई है। भापश्री की निरमिमानता, सरलता, नवयुवक लेखकों के प्रति बहुत कम पंडितों में मिलने वाली सहृदयता एवं उदारता से मैं इतना प्रभावित हुआ हूँ कि मेरे पास में शब्द नहीं हैं कि मैं आपके इन दुर्लम गुणों का वर्णन कर सकें। ऐसे बहुत ही कम पंक्ति मिलेंगे जो किसी अपरिचित लेखकको ग्यारह दिवसपर्यन्त अपने घर पर पूरे-पूरे आदर के साथ में रक्खे और उसके लेखनकार्य का अपना अमूल्य समय देकर सद्भावना एवं लग्न से अमूल्य अवलोकन करें। इतिहास-कार्य के प्रसंग से मैं कई एक विद्वानों और पंडितों के सम्पर्क में आया हूं, परन्तु आपमें जो गुण मुझको देखने को मिले थे अन्य में बहुत कम दिखाई दिये। 'वि० सं० २००९ आश्विन शु. १३ मंगलवार तदनुसार ता.३० सितम्बर १६५२ को 'श्री प्राग्घाट-इतिहास-प्रकाशक-समिति' के मंत्री श्री ताराचन्द्रजी ने समिति की ओर से समाज के अनुभवी एवं प्रतिष्ठितजनों की सुमेरपुर में विशेष बैठक प्रस्तुत भाग का अवलोकन करने के लिये बुलाई थी। उक्त बैठक में प्रस्तुत भाग को आप और आवश्यकता प्रतीत हो तो मुनि श्री जिनविजयजी को दिखाकर प्रकाशित करवाने का निर्णय किया गया था । एतदर्थ आप निमंत्रित किये और स्टे.राणी में शाह गुलाबचन्द्रजी भभूतमलजी की फर्म के भवन में आपने वि० सं० २००६ पौ० कृ०७ तदनुसार ता०८ दिसम्बर १६५२ से १६ दिसम्बर तक दिन ग्यारह पर्यन्त ठहर कर तत्परता से प्रस्तुत भाग का अवलोकन किया। कई स्थलों पर मंमीर चर्चायें हुई। शेष कुछ अंश रह गया था, उसका अवलोकन आपने बड़ौदा में ता० २४-१२-५२से २-१-५३ तक किया । बड़ौदा मैं भी आपके साथ ही गया था। बडौदा जाने का अन्य हेतु यह था कि वहां के बड़े-बड़े पुस्तकसंग्रहालयों से कई एक मूलग्रन्थ देखने को मिल सकते हैं और संभव है और कुछ सामग्री प्राप्त हो सके । सामग्री तो नहीं मिल सकी, मूलग्रन्थ देखने को मिले' [ये पंक्तियां प्रस्तावना लिखी जाने के पश्चात् ता० ५-१-५३ के दिन लिखी गई] आपने इतिहास के कलेवर को स्वस्थ, प्रशस्त बनाने में जो सुसंमतियां देकर तथा अपने गंभीर अनुभव का लाभ पहुँचा कर मत्सरताविहीन मुक्तहृदय से सहानुभूति दिखाई है और सहयोग दिया है, उसके लिये लेखक आपका अत्यन्त आभारी है।
श्री ताराचन्द्रजी इतिहास लिखने वाले इतिहास लिखते ही हैं। इसमें कोई नवीन बात नहीं। परन्तु मैं तो इतिहासकार था भी नहीं। गुरुवर्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरि महाराज सा० के वचनों पर विश्वास करके आपने प्रस्तुत इतिहासलेखन का कार्य मुझको दिया यह तो आपकी गुरुश्रद्धा का परिणाम है जो शोभनीय और स्तत्य है, परन्त आपने मेरे में जैसा अदभुत और अविचल विश्वास आज तक बनाये रक्खा, यह मान बहत ही कम भाग्यशाली लेखकों को साप्त होता है । इतना ही नहीं मैं बागरा में रहा, जहां इतिहास-कार्य की प्रगति का निरीक्षण करने वाला कोई नहीं था, मैं वहां से सुमेरपुर में आया और वहां इतिहास-कार्य जैसा बनना चाहिए था नहीं बन सका, सुमेरपुर से मैं भीलवाड़ा आ गया, जहाँ आप केवल एक बार ही आ सके, कोई देखने वाला और कहने वाला नहीं-मेरी नेकनियति में आपका यह विश्वास कम आश्चर्य की वस्तु नहीं । आपके इस विश्वास से मेरा जीवन अधिक वेग से ऊपर उठा है-यह मैं स्वीकार करता हूं और आपका हृदय से आभार मानता हूँ ।
धर्मपत्नी श्रीमती लाडकुमारी 'रसलता' आपका एक सच्ची अर्धागिनी का सहयोग और प्रेम नहीं होता, तो निश्चित था कि इतिहासकार्य में मेरी सफलता घट जाती । मुझको हर प्रकार की सुविधा देकर, मेरे समय का प्रतिपल ध्यान रख कर इस अंतर में मेरे