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-:: प्राग्वाट - इतिहास
[ प्रथम
दीर्घ काल में भारत पर यवन, योन, शक अथवा शिथियम पल्ल्लबाज आदि बाहरी ज्ञातियों ने अनेक बार आक्रमण किये थे और वे ज्ञातियाँ अधिकांशतः भारत के किसी न किसी भाग पर अपनी राज- सत्ता कायम करके वहीं बस गई थीं और धीरे २ भारत की निवासी ज्ञातियों में ही संमिश्रित हो गई थीं। ये ज्ञातियाँ पश्चिम और उत्तर प्रदेशों से भारत में आक्रमणकारी के रूप में आई थीं और इन वर्षों में भारत के पश्चिम और उत्तर प्रदेशों में
धर्म की प्रमुखता थी । अतः जितनी भी बाहर से आक्रमणकारी ज्ञाति भारत में प्रविष्ट हुईं, उन पर भी जैनधर्म का प्रभाव प्रमुखतः पड़ा और उनमें जो राजा हुये, उनमें से भी जैनधर्म के श्रद्धालु और पालक रहे हैं। यह श्रेय पंचमहाव्रत के पालक, शुद्धव्रतधारी, महाप्रभावक, दर्शनत्रय के ज्ञाता जैनाचार्यों और जैनमुनियों को है कि जो भगवान् महावीर के द्वारा जाग्रत किये गये जैनधर्म के प्रचार को प्राणप्रण से विहार, आहारादि के अनेक दुःखकष्ट फेल कर बढ़ाते रहे और उसके रूप को अक्षुण्ण ही नहीं बनाये रक्खा वरन् अपने आदर्श आचरणों द्वारा जैनधर्म का कल्याणकारी स्वरूप जनगण के समक्ष रक्खा और विश्वबन्धुत्व रूपी प्रवाह राव के प्रासादों से लेकर निर्धन, कंगाल एवं दुःखीजन की जीर्ण-शीर्ण झौंपड़ी तक एक-सा प्रवाहित किया, जिसमें निर्भय होकर पशु, पक्षी तिर्यच तक ने अवगाहन करके सच्चे सुख एवं शान्ति का आस्वादन किया ।
स्थायी श्रावक -समाज का निर्माण करने का प्रयास
जैसा पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि भगवान् महावीर ने श्री चतुर्विध-श्रीसंघ की पुनः स्थापना की और यह भी पूर्व लिखा जा चुका है कि भारत में अनादिकाल से दो धर्म— जैन और वैदिक चलते आ रहे हैं। और प्रत्येक वर्ण का कोई भी व्यक्ति अपने ही वर्ण में रहता हुआ अपनी इच्छानुसार
स्थायी श्रावक समाज का निर्माण करने का प्रयास उपरोक्त दोनों धर्मों में से किसी एक अथवा दोनों का पालन कर सकता था । परन्तु इस अहिंसात्मक क्रांति के पश्चात् धर्मपालन करने की यह स्वतन्त्रता नष्ट हो गई । अतः भगवान महावीर ने जो चतुर्विध श्रीसंघ की पुनः स्थापना की थी, वह सर्वथा वर्णविहीन और ज्ञातिविहीन अर्थात् वर्णवाद ज्ञातिवाद के विरोध में थी । जैसा पूर्व के पृष्ठों से आशय निकलता है कि वर्णवाद और ज्ञातिवाद मौर्य सम्राटों के राज्यकाल पर्यन्त दबा अवश्य रहा था, परन्तु उसका विष पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ था । भगवान् महावीर के पश्चात्वर्त्ती जैनाचार्यों ने इसका भलीविध अनुभव कर लिया कि किसी भी समय भविष्य में वर्णवाद एवं ज्ञातिवाद का जोर इतना बढ़ेगा कि वह अपना स्थान जमा कर ही रहेगा, अतः जैनधर्म के पालन करने के लिये एक स्थायी समाज का निर्माण करना परमावश्यक है |
भावक के बारह-बत - "पाच अणुव्रत” १. स्थूल प्राणातिपात विरमणत्रत २. स्थूलमृषावादविरमणवत २. स्थूल प्रदत्तादानfarayan ४. स्थूलमंथुनविरमणवत ५. स्थूलपरिग्रह विरमणव्रत " तीन गुणवत" ६. दिग्वत ७, भोगोपभोग विरमणव्रत ८. अनर्थदण्ड विरमरणत्रत "चार शिक्षावत" ६ सामायिक व्रत १०. देशावकासिकवत ११. पौषधमत और १२. अतिथिसंविभागवत ।