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: प्राग्वाट - इतिहास ::
के शौर्य, वीरता, निडरता ने भारत के लेखकों को प्रभावित किया और वे उनकी कीर्त्ति में काव्य, कथा, रास, रासो, नाटक, चंपू लिखने लगे । राजाओं ने अपनी राजसभा में बड़े २ विद्वानों, कवियों एवं लेखकों को आश्रय दिया और उनसे अपनी कीर्त्ति में अनेक प्रशंसाग्रन्थ लिखवाये और उन्होंने स्वतः भी लिखे । भारत में मुसलमानी राज्य लगभग सात सौ वर्षों से भी ऊपर जमा रहा। इस काल में कई राजा हुये, कई राज्य बने और नष्ट हुये; कई प्राचीन राजकुल नष्ट हुये और कई नवीन राजकुल उद्भूत हुये। ऐसी असंबद्ध एवं क्रमभंग स्थिति में बहुत कम राज्य और राजकुल यवनशासन के सम्पूर्ण समय भर में अपनी अक्षुण्ण स्थिति बनाये रखने में समर्थ हो सके । उदयपुर (मेदपाटप्रदेश) के महाराणाओं का ही एक राजवंश ऐसा है, जिसका राज्य उदयपुर ( मेदपाट प्रदेश) पर पूरे एक सहस्र वर्षों से अर्थात् बापा रावल से लगा कर आज तक अनेक विषम परिस्थितियों, कष्टों, विपत्तियों का सामना करके भी अपने कुलधर्म की रक्षा करता हुआ अपना राज्य आज तक विद्यमान रख सका है । जो राजवंश जब तक प्रभावक रहा, उसके यशस्वी पुरुषों, राजाओं का वर्णन लिखा जाता रहा और जब वह उखड़ा, उसके भावी पुरुषों का वर्णन ग्रन्थबद्ध नहीं हो सका और उस राजवंश के वर्णन की श्रृंखला भंग हो गई । नवीन राजवंश ने प्राचीन राजवंश द्वारा संग्रहीत एवं लिखवाये हुवे साहित्य को भी नष्ट करने में अपनी तृप्ति मानी । यवनशासकों ने जहाँ भी अपना राज्य जमाया, वहां पहिले जिस राजवंश का राज्य था उसकी कीर्त्ति को अमर रखने वाली वस्तुओं का सर्वप्रथम नाश किया, उस राज्य के मंदिरों को तोड़ा, उन्हें मस्जिदों में परिवर्तित किया, साहित्य-भंडारों में अग्नि लगाई, ग्रंथों को सरोवरों में प्रक्षिप्त करवाये ! यवन- शासकों के इन अमानुषिक कुकृत्यों से भारत की कला को और भारत के साहित्य को अत्यधिक हानि पहुँची है; जिसकी कल्पना करके भी हमारा हृदय भर आता है । फिर भी हमारे पूर्वजों ने दुर्गम स्थानों में साहित्यभण्डारों को पहुँचा करके बहुत कुछ साहित्य की रक्षा की है। जैसलमेर का जगविश्रुत जैन ज्ञान भण्डार आज भी अपनी विशालता एवं अपने प्राचीन ग्रंथों के कारण देश, विदेश के विद्वानों को आकर्षित कर रहा है । यवनों ने भारत का साहित्य बहुत ही नष्ट किया; परन्तु फिर भी जो कुछ प्राप्त है अगर वह भी निश्चित शैली से शोधा जाय तो विश्वास है कि भारत का क्रमबद्ध इतिहास बहुत अधिक सफलता के साथ लिखा जा सकता है। आज भी अगणित तामपत्र, शिलालेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तिग्रंथ, पट्टावलियां ख्यातें और काव्य, नाटक, कहानियां, चंपू प्राप्य हैं; जिनमें कई एक राजवंशों का, श्रीमंत पुरुषों का, दानवीर, धर्मात्माजनों का एवं कुलों का वर्णन प्राप्त हो सकता है और अतिरिक्त इसके भिन्न २ समय के रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, कला-कौशल, व्यापार आदि के विषय में बहुत कुछ परिचय मिल सकता है ।
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हमारे लिए यह बहुत ही लज्जा एवं दुःख की बात है कि भारत का क्रमबद्ध अथवा यथासंभवित इतिहास लिखने का भाव भी पहिले पहिल पाश्चात्य विद्वानों के मस्तिष्कों में उत्पन्न हुआ और उन्होंने परिश्रम करके भारत का इतिहास जैसा उनसे बन सका उन्होंने लिखा । आज जितने भी भारत में इतिहास लिखे हुये मिलते हैं, वे या तो पाश्चात्य विद्वानों के लिखे हुये हैं या फिर उनकी शोध का लाभ उठाकर लिखे गये हैं अथवा अनुवादित हैं । पाश्चात्य विद्वान् संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं और भारत का अधिकांश साहित्य प्राकृत और संस्कृत में उल्लिखित है और अवशिष्ट प्रान्तीय भाषाओं में । कोई भी विदेशी विद्वान् जो किसी अन्य देश की प्रचलित एवं प्राचीन भाषाओं में अनिष्यात रह कर उस देश का इतिहास लिखने में कितना सफल हो
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