Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 कषायों के फलस्वरूप इन्हें ऐसी हलकी गतियाँ प्राप्त हुई हैं, इसलिए यह कषायें छोड़ने योग्य हैं। इस समय यह सिंहादि चारों जीव आहारदान देखकर अति हर्षित हुए हैं और इन चारों को अपने पूर्वभव का जातिस्मरण हुआ है इसलिए ये संसार से एकदम विरक्त हो गये हैं और निर्भय होकर धर्मश्रवण की इच्छा से यहाँ बैठे हैं। तुम दोनों ने आहारदान के फल में भोगभूमि की आयु का बंध किया है और इन सिंहादि चारों जीवों ने भी आहारदान का अनुमोदन करके तुम्हारे साथ ही भोगभूमि की आयु बाँधी है। हे राजन् ! अब यहाँ से आठवें भव में जब तुम ऋषभदेव तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे, तब यह चारों जीव भी उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होंगे। मोक्ष तक के सातों भवों में ये सब जीव तुम्हारे साथ ही रहेंगे। यह श्रीमती का जीव भी तुम्हारे तीर्थ में दानतीर्थ की प्रवृत्ति चलाने वाले श्रेयांस राजा होंगे और उसी भव में मोक्ष प्राप्त करेंगे। आकाशगामी चारणऋद्धिधारी मुनिवरों के ऐसे वचन सुनकर राजा वज्रजंघ का मन हर्ष से रोमांचित हो गया तथा श्रीमती रानी, मतिवर आदि एवं सिंहादि सभी जीवों को भी हार्दिक प्रसन्नता हुई। उन सबने मुनिवरों के चरणों में बारम्बार नमन किया। तत्पश्चात् आकाश ही जिनके वस्त्र हैं ऐसे वे नि:स्पृह मुनिवर आकाशमार्ग से अन्यत्र विहार कर गये। मुनिवरों के विहार कर जाने के पश्चात् राजा वज्रजंघ आदि अपने डेरे में लौट आये और उन्होंने सारा दिन सरोवर के किनारे उन मुनिवरों के गुणों का ध्यान तथा उनकी चर्चा करने में बिताया। पश्चात् क्रमशः प्रयाण करते-करते वे पुण्डरीकिणी नगरी आ पहुँचे और वहाँ कुछ काल रहकर अपने भतीजे पुण्डरीक का राज्य सुव्यवस्थित करके उत्पलखेटक नगरी लौट आये। वज्रजंघ राजा का जीव क्रमशः भोगभूमि आर्य, श्रीधरदेव,

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84