Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
डाला। अंत में विशाखनंदि उसकी शरण में आया और चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।
यह देखकर उदार हृदय विश्वनंदि को दया आई और उसका क्रोध शांत हो गया। अरे ! भाई के साथ युद्ध करके अब में पितातुल्य काका विशाखभूति को क्या मुँह दिखाऊँ? इसप्रकार लज्जित होकर वह राज्य छोड़कर दीक्षा हेतु वन में जाने को तैयार हुआ। दुर्जनों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनों को कभी-कभी उपकार रूप हो जाता है जिस उद्यान के मोहवश विश्वनंदि को युद्ध करना पड़ा, उसे छोड़कर अब वह मुनिदीक्षा ग्रहण करने हेतु वन में संभूत मुनिराज के निकट पहुँच गया, स्वानुभूतिपूर्वक जिनदीक्षा अंगीकार की। राजा विशाखभूति ने भी जिनदीक्षा ग्रहण करली।
इधर राजगृही में उनका पुत्र विशाखनंदि शक्तिहीन तथा पुण्यहीन था, कुछ ही समय पश्चात एक राजा ने उसका राज्य जीत लिया और वह रास्ते पर भटकता हुआ भिखारी बन गया।
यहाँ मुनि विश्वनंदि ने एकबार मासोपवास किये पश्चात् पारणा हेतु मथुरा नगरी में पधारे और जब वे ईयासमिति पूर्वक मार्ग में चल रहे थे, तभी एक बैल ने उन्हें सींग मारा और वे धरती पर गिर पड़े।
ठीक उसी समय राज्य भ्रष्ट विशाखनंदि वहाँ एक वैश्या के घर के पास खड़ा था। उसने वह दृश्य देखा और पूर्व के बैर का स्मरण करके अट्टाहस पूर्वक कटाक्ष किया कि रे विश्वनंदि ! कहाँ गया तेरा वह बल ? तूने तो पूरे वृक्ष को अपने बाहुबल से उखाड़ दिया था उसके बदले आज एक बैल के धक्के से गिर पड़ा है। कहाँ गया तेरा वह बाहुबल ?
विश्वनंदि मुनि की सुषुप्त कषाय जागृत हो उठी, क्रोधावेश में वे अपने मुनिपद को भूल गये। रत्नत्रय का अमूल्य निधान और उसके महाफल