Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
48
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23.
-
भव्य हाथी पर पड़ी, उस विशालकाय हाथी को कुछ योद्धा अनेक प्रकार से ताड़ना देकर युद्ध की शिक्षा दे रहे थे। चारों ओर शस्त्र प्रहार की प्रतिकूलता के बीच बहादुरी से किसप्रकार लड़ना – यह सिखा रहे थे। वह देखकर राजा को लगा कि अरे, इस दुःखमय संसार में चारों ओर की प्रतिकूलता में भी शूरवीरता पूर्वक आत्मसाधना में किस प्रकार विजय प्राप्त करना उसकी शिक्षा परमगुरु भव्य मुमुक्षुओं को देते हैं । हाथी की वह ताड़ना देखकर राजा का चित्त संसार से अत्यन्त उदास हुआ। इतने में उस हाथी ने एक सिपाही को सूँड में पकड़ लिया और पछाड़ कर उसका चूरा-चूरा कर दिया। बस, जीवन की ऐसी क्षणभंगुरता देखकर और हाथी की ताड़ना देखकर महाराज अजितसेन का चित्त अत्यन्त विरक्त हो उठा और वैराग्य से वे चिन्तन करने लगे कि
-
“करूँगा...करूँगा...करूँगा " - ऐसी चिंता मैं लीन हुआ मूढजीव “मरूँगा...मरूँगा...मरूँगा " - यह बात तो भूल ही जाता है, मानो मृत्यु कभी आनी ही न हो। इसप्रकार निश्चिंतता से मूर्ख जीव बाह्य विषयों में लगा हुआ है और मनुष्य जीवन को प्रतिक्षण बर्बाद कर रहा है।
इसप्रकार निजस्वभाव के वीतरागी चिंतन द्वारा चक्रवर्ती विचारते हैं। जिसप्रकार मैं यहाँ शत्रुओं को जीतकर चक्रवर्ती हुआ हूँ, उसीप्रकार अब मुनिदशा में समस्त परभावरूप शत्रुओं को परास्त करके धर्म चक्रवर्ती बनूँगा और अखण्ड मोक्ष साम्राज्य को प्राप्त करके मैं सदा आत्मा के शुद्ध स्वरूप में निवास करूँगा ।
इसप्रकार चिंतन करते हुए उन्होंने आचार्य श्री गुणप्रभ स्वामी
के पास दिगम्बरी दीक्षा धारण की और ज्ञान, ध्यान एवं तप में लीन रहते हुए समाधिमरण पूर्वक देह त्याग कर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र पर्याय प्राप्त की ।