Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 अब वह अपने को धिक्कारता है -“अरे ! जिसके पास न्यायनीति से उपार्जित धन-सम्पदा एवं भोग उपलब्ध हैं वह तो उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता और मैं अन्याय एवं चोरी से परधन को लूटना चाहता हूँ, मुझे धिक्कार है, आज से मैं भी चौर्यकर्म आदि पापों को छोड़ता हूँ और अब जो कुमार की गति होगी वही मेरी गति होगी।"
ऐसे विचारों में मग्न विद्युच्चर कुमार के कक्ष की खिड़की पर बैठा हुआ था। माता भी व्याकुल चित्त से घूम रही थी। वह देखती है कि यहाँ कोई व्यक्ति खड़ा हुआ है। वह उसके पास पहुँचती है। विधुच्चर चोर ने पहले ही आकर माता जिनमति के चरणों में प्रणाम किया और बोला – हे माते ! मैं विद्युच्चर चोर हूँ, मैं चोरी करने आपके यहाँ आया हुआ था। मैं पहले भी आपके महल से धन सम्पदा चुरा कर ले गया हूँ, मगर आज कुमार एवं रानियों की चर्चा सुनकर मैंने चौर्यकर्म का त्याग कर दिया है। अब तो मेरी भावना मात्र इतनी ही है कि एकबार मुझे कुमार से मिलवा दीजिए, मैं अवश्य ही उन्हें समझाकर घर में रहने को तैयार कर लूँगा, मुझे ऐसा पूर्ण विश्वास है।
माता जिनमति तो यह चाहती ही थी कि किसी भी प्रकार से पुत्र घर में रह जाये। उन्होंने तुरन्त जम्बूकुमार के पास जाकर युक्तिपूर्वक सम्पूर्ण वार्ता बताई “हे पुत्र ! तुम्हारे मामा, जो कि बहुत दिनों से परदेश गए हुए थे, आज वे आये हुए हैं और तुमसे मिलना चाहते हैं।'
मुक्ति कान्ता के अभिलाषी कुमार उदास चित्त से मामाजी के पास पहुँचे और बोले – “हे मातुल प्रणाम।"
तभी मामा (विद्युच्चर) ने अत्यंत स्नेहमयी दृष्टि डालते हुए कुमार को हृदय से लगाकर कहा – “हे कुमार ! हे बेटे ! आपने वीर प्रभु की दिव्यदेशना तो सुनी ही है। उसमें दो प्रकार के धर्म का वर्णन आया है। एक गृहस्थ धर्म और दूसरा मुनि-धर्म तो तुम गृहस्थ धर्म का पालन क्यों नहीं करते हो ?"