Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 42
________________ 40 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23: घर में ही रहती रही, तब उसने “अपने पति शिवभूति व चित्रसेना के परस्पर कुत्सित संबंध हैं" - ऐसा झूठा आरोप लगाकर उसे कलंकित करने का निकृष्ट पाप किया था; बस! इस निकृष्ट परिणाम से उसे ऐसा कर्मबंध हुआ कि तीन भव बाद भी उसे इसका इतना भयंकर दुःख भोगने का योग बना, पर बाहर में योग तो बना, लेकिन अन्तरोन्मुखी वृत्ति की धनी चंदनबाला उससे न जुड़कर स्वभाव से जुड़ने का ही प्रबल पुरुषार्थ करती रही और इस पर्याय को पूर्णकर अच्युत स्वर्ग में देव हुई। तभी चित्रसेना ने भी निदान किया था कि मैं भी अवसर पाकर इसे इसीप्रकार कलंक लगाऊँगी। अरे रे ! यह जीव उत्कृष्ट मनुष्य पर्याय, सर्व सुविधा युक्त जीवन पाकर भी मात्र राग-द्वेष करके उसे व्यर्थ ही बर्बाद कर देता है। चित्रसेना ने यह विचार तो किया कि मैं भी इस पर कलंक लगाऊँगी, पर यह विचार नहीं किया कि अरे ! प्रथम तो मेरे तीव्र पाप का उदय न होता तो मुझे पति का वियोग ही क्यों होता ? अथवा मुझे इतना पराधीन जीवन क्यों जीना पड़ता। मैं तो भाभी को कुछ कष्ट देती नहीं हूँ, फिर भी भाभी मुझे कष्ट का कारण मानती है, वास्तव में इसीप्रकार भाभी भी मुझे कलंक लगाकर स्वयं ही कर्म बंधन कर रही है और मेरे कर्मों का उदय उसमें प्रबल कारण है, अतः मुझे समताभाव पूर्वक इस समय को आराधना में लगाना चाहिए। अरे ! जिसप्रकार मैं यह जान रही हूँ कि भाभी ने मुझ पर कलंक लगाया है और यह कर्म के उदय के कारण ही लगाया जा रहा है। उसीप्रकार मैं यह भी तो जान सकती हूँ कि ये भाभी तथा कर्म का उदय मुझसे भिन्न हैं। वास्तव में हम कहते हैं कि हमें कोई कठोर बात सहन नहीं होती, परन्तु सच्चाई यह है कि बात कठोर नहीं होती, हमारा विचार विपरीत होता है, अतः हमें कठोर लगती है। अरे ! जिन सुकुमाल

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