Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 49
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 मृत्युदण्ड दिया था। वह चन्द्र मरकर अनेक भवों में भटकते-भटकते चण्डरुचि नाम का असुर देव हुआ है और वही पूर्वभव के वैर से आपका अपहरण करके आपको यहाँ लाया है। मैं जो सूर्य नाम का किसान था अब हिरण्यदेव हुआ हूँ और अपने पर किये गये आपके उपकार से उपकृत होकर आपकी सेवा में आया हूँ – ऐसा कहकर राजकुमार को उस वन के बाहर छोड़कर वह देव अदृश्य हो गया। उपकार कभी व्यर्थ नहीं जाता। अतः हमें परस्पर में उपकार करने की भावना रखनी चाहिए। अवसर पाकर अपनी भूमिकानुसार उपकार करना भी चाहिए। संसार में कोई भी स्वाधीन नहीं है साधक भी ऐसा करते हुए अपनी साधना पूर्ण करते हैं। राजकुमार ने आश्चर्यपूर्वक एक नगरी में प्रवेश किया, उसका नाम था विपुल नगरी, वहाँ के नगरजन धन-धान्यादि से सुखी थे, परन्तु एक शत्रु राजा के भय से अत्यन्त भयभीत थे। राजकुमार ने उस राजा को पराजित करके उनके भय को निर्मूल कर दिया और वहाँ की राजकुमारी से विवाह करके अपनी कौशल नगरी लौट आये। प्रतापी पुत्र के नगर आगमन से माता-पिता को अपार हर्ष हुआ और पिता महाराज ने राजकुमार का राज्याभिषेक कर दिया, वह अपने महान् पुण्य प्रताप से चक्रवर्ती पद को प्राप्त हुआ। एक दिन चक्रवर्ती अजितसेन राज्यसभा में बैठे थे, हजारों राजा मुकुट झुकाकर उनका अभिवादन कर रहे थे, नगरजन भी उनके दर्शनों से प्रसन्न हो रहे थे, तथापि चक्रवर्ती के अन्तर की गहराई में वैराग्य का चिन्तन चल रहा कि कब इस सब उपाधि से छूटकर निरूपाधि चैतन्य ध्यान में स्थिर होऊँ। कब मुनि होकर वीतरागता प्रगट करूँ और अपने स्वरूप में ही विचरूँ ! राज्यसभा व्यवस्थित चल रही थी। इतने में राजा की दृष्टि एक

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