Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 20
________________ 18 ... जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 'सिद्धार्थ' नामक द्वारपाल ने तुरन्त ही राजा सोमप्रभ तथा श्रेयांसकुमार को बधाई दी कि “मुनिराज ऋषभदेव अपने आँगन की ओर पदार्पण कर रहे हैं।" ___ यह सुनते ही दोनों भाई मंत्री आदि सहित खड़े हुए और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक राजमहल के प्रांगण में आकर दूर से ही मुनिराज के चरणों में भक्तिभावपूर्वक नमस्कार किया। मुनिराज के पधारते ही सम्मानसहित पादप्रक्षालन करके अर्घ्य चढ़ाकर पूजा और प्रदक्षिणा दी। अहा, अपने आँगन में ऐसे निधान को देखकर उन्हें अति सन्तोष हुआ। मुनिराज के दर्शन से दोनों भाई हर्षोल्लास से रोमांचित हो गये। आनन्द एवं भक्ति से नम्रीभूत वे दोनों भाई इन्द्र समान सुशोभित हो रहे थे। जिसप्रकार निषध और नील पर्वतों के बीच उन्नत मेरु पर्वत शोभता है, उसीप्रकार श्रेयांसकुमार और सोमप्रभ के बीच मुनिराज ऋषभदेव शोभायमान हो रहे थे। मुनिराज का रूप देखते ही श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण हुआ और पूर्वभव के संस्कार के कारण मुनिराज को आहारदान देने की बुद्धि प्रकट हुई। पूर्व के वज्रजंघ एवं श्रीमती के भव का सारा वृत्तान्त उन्हें स्मरण हो आया। उस भव में सरोवर के किनारे दो मुनिवरों को आहारदान दिया था, वह याद आया। प्रभात का यह समय मुनियों को आहारदान देने का उत्तम समय है - ऐसा निश्चय करके उन पवित्र बुद्धिमान श्रेयांसकुमार ने ऋषभ मुनिराज को इक्षुरस का आहारदान किया। इसप्रकार ऋषभ मुनिराज को सर्वप्रथम आहारदान देकर उन्होंने इस युग में दानतीर्थ का प्रारम्भ किया। उन्होंने नवधाभक्ति और श्रद्धादि सात गुणों सहित दान दिया। मोक्ष के साधक धर्मात्मा के गुणों के प्रति आदरपूर्वक, श्रद्धासहित जो दाता उत्तम दान देता है वह मोक्षप्राप्ति के लिए तत्पर होता है। अतिशय इष्ट एवं सर्वोत्तम पात्र ऐसे मुनिराज को श्रेयांसकुमार ने पूर्वभव के संस्कार से प्रेरित होकर नवधाभक्ति से प्रासुक

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