Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 मोक्ष को भूलकर मानो उन्होंने अमूल्य रत्न को पानी के भाव बेच दिया और निदान शल्य से अपने आत्मा को भंयकर दुःख में डाल दिया।
कहा गया तेश बल ?
क्रोधवश उनके नेत्रों से अंगारे झरने लगे और वे बोल उठे-अरे दुष्ट तू मेरे तप की हँसी उड़ाता है, परन्तु देख लेना इस तप के प्रभाव से भविष्य में मैं तुझे सबके सामने छेद डालूँगा। इसप्रकार अज्ञानवश वे निदान कर बैठे कि मुझे भविष्य में विद्याधर की विभूति प्राप्त हो और मैं विशाखनंदि को मारूँ, जिन्होंने अपने तप व सम्यक्त्व रत्न को जला दिया - ऐसे उन विश्वनंदि मुनि का जीव निदान शल्य सहित मरकर महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में देव हुआ।
विशाखनंदि का जीव भी किसी कारणवश वैराग्य प्राप्त कर मुनि हुआ, परन्तु एक बार आकाश मार्ग से जाते हुए विद्याधर की विभूति को देखकर निदान शल्य कर बैठा कि “मुझे ऐसी विभूति प्राप्त हो।" अमृत के फल में विष माँगा और मरकर वह भी दसवें स्वर्ग में देव हुआ।