Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
71
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 तथा अतिशय रूपवती हैं। एकबार इन्द्रसभा में इन्द्राणी ने प्रियमित्रा के गुणों की तथा रूप की प्रशंसा की, जिससे प्रभावित होकर दो अप्सरायें उनका रूप देखने के लिये स्वर्ग से आयीं। उस समय महारानी अलंकार उतारकर सादे वेश में थी। सादा वेश में देखकर भी वे अप्सरायें आश्चर्यचकित हो उनके रूप की प्रशंसा करने लगीं।
अपनी प्रशंसा सुनकर गर्व से महारानी ने कहा -'हे देवियो ! अभी नहीं, कुछ समय पश्चात् जब मैं शृंगार करके वस्त्राभूषण सहित तैयार होऊँगी, तब तुम मेरा अद्भुत रूप देखना।'
कुछ ही समय पश्चात् वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर जब महारानी सिंहासन पर बैठीं, तब उनका रूप देखकर दोनों देवियों ने प्रसन्न होने के बदले निराशा से सिर हिलाया।
रानी ने पूछा - क्यों ? देवी ने कहा - हे सुभांगी ! पहले शृंगार रहित तुम्हारा रूप हमने देखा था, वैसा अब नहीं रहा; क्योंकि यह शरीर ही प्रतिसमय बदल रहा है, क्षीण हो रहा है। मनुष्यों का ज्ञान इतना पैना नहीं होता जिससे वे प्रतिसमय के परिवर्तन को जान सकें, पर देवों का ज्ञान इतना पैना होता है कि वे यह भेद जान लेते हैं; तदनुसार उन देवियों ने कहा कि “अब वह नहीं रहा'।
यह सुनते ही प्रथम तो रानी क्षुब्ध हो गई, पर महाराज मेघरथ के समझाने पर बोध को प्राप्त हुई, फलस्वरूप उसे इस अनित्यता को देखकर वैराग्य आ गया और शरीर के सौन्दर्य की ऐसी क्षणभंगुरता से विरक्त हो वह दीक्षा लेने को तैयार हो गई।
भगवान घनरथ तीर्थंकर का नगरी में आगमन हुआ। मेघरथ व दृढ़रथ दोनों भाई एवं महारानी प्रियमित्रा ने जिनदीक्षा ग्रहण करली
और निर्दोष चर्या का पालन करते हुए सभी समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त कर स्वर्ग सिधारे।