Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 63
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 गये सिंह को गुफा से बाहर निकाला और झपट्टा मारकर उसे नीचे पछाड़ दिया, तदनुसार सिंह का मुंह फाड़ दिया, जिससे सिंह का तत्काल ही मरण हो गया। अरे रे ! सिंह को मारने के क्रूर परिणामवश अब अगले भवों में इसे सिंह की पर्याय में जाना पड़ेगा। हिंसा में आनंद मनाने रूप 'हिंसानदी आर्तध्यान के परिणाम से नरक गति का बंध होता है। सिंह को मारने से राजकुमार त्रिपृष्ठ के पराक्रम की प्रशंसा चारों ओर फैल गई और कोटिशिला को ऊपर उठाकर उन्होंने महान पराक्रम का प्रदर्शन किया। इस कोटिशिला से करोड़ों मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त किया है। विद्याधरों के राजा ज्वलनजरी ने अपनी पुत्री स्वयंप्रभा का विवाह त्रिपृष्ठ के साथ किया, तब उसके प्रतिस्पर्धी राजा अश्वग्रीव को अपमान लगा। इससे क्रोधित होकर वह त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध करने चला। शस्त्र विद्या साधकर दोनों भाईयों ने युद्ध के लिये प्रस्थान किया। घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ। त्रिपृष्ठ का पराक्रम अद्भुत था प्रथम प्रहार में ही शत्रु सेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया। . विजय और त्रिपृष्ठ द्वारा अपने कितने ही शूरवीर विद्याधरों का नाश होते देखकर अश्वग्रीव ने चक्र हाथ में लेकर गर्जना की, तब भावी महावीर ऐसे त्रिपृष्ठ ने निर्भयरूप से कहा – रे अश्वग्रीव ! तेरी गर्जना व्यर्थ है, जंगली हाथी की गर्जना से हिरन डरते हैं, सिंह नहीं; कुम्हार के चाक जैसे तेरे इस चक्र से मैं नहीं डरता..... चला अपने चक्र को। अन्त में अत्यन्त क्रोधित होकर अश्वग्रीव ने वह चक्र त्रिपृष्ठ पर फेंका मानो चक्र के बहाने उसने अपना पुण्य ही फेंक दिया। भयंकर ज्वाला फेंकता हुआ चक्र ज्यों-ज्यों त्रिपृष्ठ कुमार की ओर बढ़ रहा था, त्यों-त्यों उसकी ज्वालायें शांत होती जा रही थी, कुछ ही क्षणों में वह चक्र त्रिपृष्ठ के दायें हाथ पर आ गया, सभी को बड़ा आश्चर्य

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