Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Author(s): Haribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 38
________________ 36 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 स्वयमेव सुखी थे। पराधीन इन्द्रियसुख से ठगे जा रहे जगत को प्रभु ने बतला दिया कि आत्मा इन्द्रिय विषयों के बिना ही स्वाधीनरूप से सुखी है; सुख वह आत्मा का स्वभाव है, इन्द्रियों का नहीं।' शुद्धोपयोग के प्रभाव से आत्मा स्वयं परम सुखरूप परिणमता है। ऐसे सर्वप्रकार से निर्दोष और अनंत सुखी परमात्मा के दर्शन कर निकटभव्य जीव तो यह सहज ही समझ लेते हैं कि ऐसा कोई दोष या दुःख नहीं है, जो स्वभाव की आराधना से दूर न हो । हमें भी यही समझ लेना चाहिए। इन्द्रियातीत तथा लोकोत्तम ऐसे वे वीर भगवान केवलज्ञान होते ही पृथ्वी से ५००० धनुष | ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान हुए। अहा, पृथ्वी के अवलम्बन की अब उन्हें जरूरत हो नहीं रही और अब वे फिर mWADI कभी पृथ्वी पर नहीं उतरेंगे। उनका शरीर छायारहित परम औदारिक हो गया; सबको देखनेवाले प्रभु स्वयं भी सर्व दिशाओं से दिखने लगे। प्रभु के केवलज्ञान का महोत्सव करने तथा अरिहन्त पद की पूजा करने स्वर्ग से इन्द्रादि देव पृथ्वी पर आ पहुँचे। इन्द्र ने स्तुति करते हुए कहा - हे देव ! आप वीतरागता एवं सर्वज्ञता द्वारा जगत में सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता को प्राप्त हुए हैं; आप परम इष्ट हैं। इधर कौशाम्बी नगरी में कुमारी चन्दनबाला वीर प्रभु के केवलज्ञान

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