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सील समाधि चौर प्रज्ञा जो बौखधर्म के तीन स्तम्भ है अन्तर्भत हो जाते हैं। प्रारम्भ के दो अब प्रज्ञा उसके बाद के तीन अग शील तथा अन्तिम तीन समाधि है। दीघनिकाय के सूत्रों में शीलों की लम्बी सूचियाँ प्रास होती हैं। विशिष्ट प्रयोजन से शीलों की छोटी-बडी सूचियां भी बनायी गयी थी जैसे उपासको के पार पाबाठ शील संध में नये प्रविष्ट हुए व्यक्ति के दस शील या दस शिक्षापद इत्यादि । शील प्राय वे ही है जो अष्टागिक माग में सम्यक वाक से लेकर सम्यक बाजीव तक उल्लिखित है । प्रज्ञा से प्रभावित शील ही वास्तविक शील है। शील से समाधि और समाधि से प्रज्ञा का उत्पाद होता ह । इस तरह एक चक्र बन जाता है जो जीवन को परिशुद्ध सार्थक एव पूण बनाता है।
सक्षप म बद्ध के माग म बाह्य आचरण की शुद्धि और मानसिक अभ्यास दोनों पर बल था । आचरण-शुद्धि को अत्यन्त आवश्यक माना गया है परन्तु मानसिक अभ्यास या ध्यान को किंचित ऊँची कोटि म रखा गया है क्योकि इसीसे ज्ञान की प्राप्ति सम्भव होती है। इसी प्रकार बार-बार आमनिभरता और सत्य के स्वय साक्षात्कार पर बल दिया गया है। जैनधर्म का सामान्य परिचय
जैनधम की उत्पत्ति एव विकास का इतिहास इस धम के प्रचारको के इतिहास के साथ सम्बद्ध है। इस धर्म के प्रचारको को तीथकर कहा गया है। यहां तीथकर का सामान्य अथ ससार-सागर को पार करनवाले माग की शिक्षा देनवाला है । इसी प्रकार जैन शद की उत्पत्ति जिन अर्थात त्रेता या विजय करनवाले से हुई है अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इद्रियो पर विजय प्राप्त कर ली हो । जन धर्म के प्रचारको ने स्वय सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन एव सम्यक चरित्र द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए तपस्या का आचरण कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। इसी कारण उन्हें जिन और सवश कहा गया । उन्होंने प्रथम इन्द्रियो पर विजय प्राप्त की तत्पश्चात् केवल ज्ञान प्राप्त किया और जिन द्वारा प्रशिक्षित बम को जनधम कहा गया है।
१ पाण्डय गोविन्दबद्र स्टडीज इन दि ओरिजिन्स आफ बद्धिज्म १ ५१४ दीघनिकाय सामन्नफलसुत्त तथा थामस इ जे हिस्ट्री ऑफ बद्धिस्ट थाट
पृ ४४। २ वीषनिकाय ब्रह्मजालसुत। ३ सुत्तनिपात धम्मिकसुत्त। ४ बौद्धधर्म के विकास का इतिहास १ १४२ । ५ शास्त्री कैलाश जैनधर्म १ ६५ ।