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पानिक सिवानों से तुलना ARC जिस कर्म के कारण सम्भव होता है उसे जैन-परिभाषा में अन्तरायकर्म कहा गया है। इसके पांच भेद अन्य में निमाये गये है पथा-बानान्तराय सामान्तराम भोया सराय उपभोगान्तराय और बीर्यान्तराय ।
शानावरणीय मावि कर्मों की विभिन्न स्थितियां भी बतायी गयी है जो इस
अधिकतम समय १ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम
अन्समुहूत २ दशनावरणीय ३ वेदनीय
बारह मुहूत ४ मोहनीय सत्तर कोटाकोटि सागरोपम
अन्तर्मुहूत ५ आयु
सैंतीस सागरोपम ६ नाम बीस कोटाकोटि सागरोपम
আত পছু ७ गोत्र । अन्तराय तीस कोटाकोटि सागरोपम
अन्तर्महूर्व उपयक्त स्थितियां कर्मों के मूल भेदों की अपेक्षा से ही है। इस स्थिति की सीमा के अदर कम अपना फल दिखाकर नष्ट हो जाते है और उनके स्थान पर नये नये कम आते रहते है।
इस तरह यद्यपि कर्मों का वणन पूर्ण हो जाता है परन्तु कर्मों के रूपी होने पर भी उन्हें इन नग्न नषों से देखना सम्भव नही है । यह कैसे समझा जाय कि अमुक प्रकार के कम का बन्ध हुआ है इसके लिए ग्रन्थ मे कमलेश्याओं का वर्णन किया गया है जिसका अर्थ होता है बात्मा के बचे हुए कर्मों के प्रभाव से व्यकि में उत्पन्न
१ दाणे लाभे य भोगेय उवभोगे पीरिएकहा।
पचविहमंतराय समासेण वियाहिय ।।
उत्तराध्ययन ३३।१५।
२ उदहीसरिनामाण तीसई कोरिकोडियो ।
नामगोताण उस्कोसा अट्टमहत्तापहाम्नया ।।
वही ३६१९-२३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ १६३ ।