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धम्मपद में प्रतिपादित सीमासा ।
राज्य है। जिधर दृष्टि डालिये उपर ही दुख दिखायी पडता है। यह बात मिथ्या कथमपि नहीं हो सकती । पहले बायसत्य में यही तथ्य सूत्ररूप में व्यक्त है। दुख की व्याख्या करते हुए तथागत का कथन है जन्म वृद्धावस्था मरण शोक परिदेवना दौमनस्य उपायास सब दुख है । अप्रिय बस्तु के साथ समागम प्रिय के साथ पियोग और ईप्सित की अप्राप्ति दुख है। सक्षेप म राग के द्वारा उत्पन्न पांचो उपादान
जगत के प्रत्येक काय प्रत्येक घटना म दुख की सत्ता है। प्रियतमा जिस प्रिय के समागम को अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य मानकर नितान्त आनन्दमग्न रहती है उससे भी एक न एक दिन वियोग अवश्यम्भावी है । जिस द्रव्य के लिए मानवमात्र इतना परिश्रम करता है उसको भी प्राप्ति नितान्त कष्टकारक है । जब अथ के उपार्जन रक्षण तथा व्यय सभी म दुख है तब अर्थ को सुखकारक कैसे कहा जाय । यह ससार तो भव ज्वाला से प्रदीप्त भवन के समान है। मूढजन इस स्वरूप को न जानकर तरह-तरह के भोग विलास की सामग्री एकत्र करते हैं परन्तु देखते-देखते बाल की मौत को समान विशाल सौख्य का प्रासाद पृथ्वी पर लोटने लगता है उसके कण-कण छिन्न भि न होकर बिखर बात है । इस प्रकार परिश्रम तथा प्रयास से तैयार की गयी भोग सामग्री सुख न पदा कर दुख ही पैदा करती है। अत दुख प्रथम आर्यसत्य कहा गया है । साधारणजन प्रतिदिन उसका अनुभव करते हैं परन्तु उससे उद्विग्न नहीं होते। उसे साधारण घटना समझकर उसके आगे अपना शिर झुकाते है। परन्तु बुद्ध का अनुभव नितान्त सच्चा है उनका उद्वेग वास्तविक है । इस प्रकार बद की दृष्टि में यह समग्र संसार दुख ही दुख है।
धम्मपद में भी कहा गया है कि सभी सस्कार ( पदाथ ) दुखरूप है इस प्रकार जब प्रज्ञा से मनुष्य देखता है तब वह दुखों से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यही निर्वाण का माग है। अनात्म
अनात्म बोटबम का प्रधान मान्य सिद्धान्त है। इसका अर्थ यह है कि अगर के समस्त पदार्थ स्वस्पर्शून्य है। वे कतिपय धर्मों के समुच्चयमान है उनकी स्वय स्वतत्र सत्ता नहीं है । अनात्म धन्द यही नहीं योक्ति करता है कि बास्मा का अभाव
१ वीषनिकाय द्वितीय भाग पू २२७ । २ सम्बे संखारा दुक्खाति यदा पन्नाय पस्सति । अप निम्विन्दती दुखे एस मग्गो विसुनिया ॥
धम्मपद २७८.