Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 128
________________ बीड- १६७ तक जीव अपरिग्रही नहीं हो सकता है। विषयों के प्रति रान या लोभ-बुद्धि का होना ही परिग्रह है। उत्तराध्ययन में कहा गया है जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ होता है तथा लोभ के बढ़ने पर परिग्रह भी बढ़ता जाता है। यह वीतरागता अति विस्तृत सुस्पष्ट राजमाग है जिसके समक्ष अज्ञानमूलक जप-तप आदि सोलहवीं कला को भी पा नही सकता है।' जो इन विषयो के प्रति ममत्व नहीं रखता है वह इस लोक में दुखो से अलिस होकर आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है तथा परलोक में देव मा मुक्ति-पद को प्राप्त करता है । परन्तु जो परिग्रह का त्याग नहीं करता है वह पाप कर्मों को करके ससार में भ्रमण करता हुआ नरक में जाता है। इस तरह अपरिग्रह से तात्पर्य यद्यपि पूर्ण वीतरागता से है परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत को इससे पृथक कर देने के कारण यह धन धान्यादि अचेतन द्रव्य और दास पशु आदि सचेतन द्रव्यों के त्यागरूप रह गया है । पंचमहाव्रत श्रमण - जीवन की रीढ़ तथा जैनधम के प्राण हैं । इन व्रतों का सम्यक पालन करनेवाला ही सच्चा श्रमण है । श्रमण धर्माचार मूलत अहिंसाप्रधान है इसलिए कहा जाता है कि पांचों महाव्रत अहिंसास्वरूप हैं और वे अहिंसा से भिन्न नही हैं। रात्रि भोजन विरमण व्रत भी अहिंसा - महाव्रत के अन्तगत ही आ जाता है फिर भी धर्माचार्यों ने इसे छठ व्रत के रूप में प्रतिपादित किया है। और स्वाद्य इन चार प्रकारों में किसी एक प्रकार का भी रात्रि में समझा गया है । अशन पान खाद्य ग्रहण करना गहिव इस प्रकार घम्मपद और उत्तराध्ययन सूत्र के आधार पर उपयुक्त तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि पचशील पचमहाव्रतो एव रात्रि भोजन frषण के अत्यन्त निकट हैं । दोनो परम्परायें उपर्युक्त कार्यों का मन वचन और काय तथा कृत कारित और अनुमोदित की कोटियो का विधान करती हैं। फिर भी दोनो ग्रन्थों में कुछ मौलिक अन्तर है जिसे जानना जरूरी है। उत्तराध्ययमसूत्र के अनुसार १ उत्तराध्ययन १ । ३२ । २ वही १३२ । ३ कल अग्बइ सोलसि ॥ ४ वही २९|३ ३६ ३२।१९ २६ ३९ १४।४४ ७।२६ २७ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू ५ आयाण नरय दिस्स । वही ९१४४ । ४१२ ८०४ ६१५ २८ । उत्तराध्ययन ६।८। ६ मेहता मोहनलाल जैनधर्म-दर्शन पू ५१४ । ७ जैन सागरमल जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ १ २११ ।

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