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पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८५ इसका बथ है--योग्य उच्च अदास्पद इत्यादि । इस प्रकार ऋग्वेद के समय में भी इस शब्द से एक उच्चादर्श सूचित होता था। बाद म जैनषम ने इस वैदिक शब्द को अपना लिया और अपुरुष रत्नों के सम्बन्ध म इसे प्रयुक्त किया क्योकि इस शब्द से आदर्श में निहित पूरा-पूरा भाव प्रकट होता था। इस प्रकार अहत जैन तीथरो के लिए प्रयुक्त होने लगा और इसके द्वारा जैनधम के सबश्रेष्ठ आवश पुरुष का बोध होने लगा। बारहवीं शताब्दी के जैन कोषकार हेमचन्द्र ने जैन तीथरो के पर्यायवाची शम्वों का वर्णन किया है। उन्होने बुद्ध के भी पर्यायवाची शब्द दिये हैं। यह सूची तीपर के पर्यायवाली सूची से बहुत लबी है पर इसम अर्हत् शब्द का पता नही है । बौड कोषकार अमरसिंह (छठी शताब्दी ) ने भी अपने अमरकोष में बुद्ध के पर्यायवाची शब्द देते हुए अहत् का कोई उलेख नही किया है। किन्तु हेमचन्द्र और अमरसिंह दोनो ने ही बुद्ध के नामो म जिन शब्द का उल्लेख किया ह । जिन और अहत् से श्रेष्ठ तथा बादश पुरुष का बोध होता है अत ये जनो तथा बौदो दोनो के आदर्श परुषो के सम्बन्ध म लागू हो सकते हैं। पर यहां यह भी याद रखना चाहिए कि जैना और आर्हता से जैनधर्मानुयायियो का बोष होता है और इस प्रकार जिन और अहंत भी जैन आवश पुरुषों के लिए विशेषत प्रयुक्त हुआ है। जिन शब्द जि घातु से बना है जिसका अर्थ होता है जीतने वाला । किसे जोतनेवाला यह यहां गुप्त एव अध्याहृत है। भगवान महावीर को अन्तिम देशना के रूप म माने जानेवाले प्रसिद्ध शास्त्र उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो दुजय सग्राम म सहस्र सहस्र योद्धाओ-शत्रुओ को जीत लेता है वह वास्तविक विजता नही माना जाता । वास्तव म एक आत्मा को जीतना ही परम जय है । इसलिए ह पुरुष | त आत्मा के साथ ही युद्ध कर बाह्य शत्रुओ के साथ युद्ध करन से तुझे क्या लाभ है ? जो आत्मा द्वारा आत्मा को जीतता है वही सच्चा सुख प्रास करता है। १ अहज्जिन पारगतास्त्रकाल वित्लीणा
ष्टकर्मा परमेण्ट्यधीश्वर । शुभ स्पय भूभगवान्जगत्प्रभुस्तीय करस्तीर्थकरो
जिनेश्वर ॥
बभिधान चिन्तामणि ११२४ २५ । २ उत्तराध्ययन ९।३४ ३५ तुलनीय
यो सहस्स सहस्सेन सङ्गामे मानुसे जिने । एक बजेय्यमत्तान स वे सङ्गामजुत्तमो ।।
धम्मपद १४।