Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 72
________________ ९ बोट तथा जैनधर्म होता जो खान म और अनशन व्रत करने म समभाव रखता है वही महापुरुष है। जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना निमल होता है उसी प्रकार राग द्वेष बोर भ५ आदि से रहित वह निमल हो जाता है। जिस प्रकार कमल कीचड एव पानी म उत्पन होकर भी उसम लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो ससार के कामभोगों में लिम नही होता भाव से सदव ही विरत रहता है उस विरतामा अनासक्त पुरुष को इद्रियो के शब्दादि विषय भी मन म राग द्वेष के भाव उ पन्न नहीं करते। जो विषयरागी व्यक्तियों को दुख देते हैं वे वीतरागी के लिए दुख के कारण नहीं होत है । वह राग द्वष और मोह के अध्यवसायो को दाषरूप जानकर सदव उनके प्रति जागृत रहता हुआ माध्यस्थ भाव रखता है। किसी प्रकार के सकप विक प नहीं करता हुआ तृष्णा का प्रहाण कर देता है । वीतराग पुरुष राग द्वष और मोह का प्रहाण कर शानावरणीय दशनावरणीय और अन्तराय कम का क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है । इस प्रकार मोह अन्तराय और आस्रवो मे रहित वातराग सवज्ञ सवदर्शी होता है । वह शुक्ल ध्यान और सुसमाधि होता है और आयु का भय होन पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। धम्मपद और उत्तराध्ययन के अहत पद-सम्बधी तुलना मक अध्ययन से यह पता चलता है कि बौद्धधम की तरह ही जैनधर्म म भी अहत्-पद को बहुत महत्त्व दिया गया ह । जनधम का महान ध्यय ही वीतरागता की प्रासि ह । दोनो प्रथो में महत शब्द जीवन्मक्त के लिए प्रयक्त है। जिसका चित्त मन सवथा प्रक्षीण हो चका है वीतप्तष्ण हो जाने के कारण उसके कम दग्धबीज की तरह विपाक (फल) उत्पन्न नही करत । शरीर त्याग के बाद फिर जम ग्रहण नही करता आवागमन मक्त हो जाता है । राग द्वेष और मोह सब नष्ट हो जाता है तब अहत-पद प्राप्त होता है । वह पसि कृतकृय हो जाता है। अत सभी के लिए पज्य बन जाता है । त्रिशरण बुद्ध धम और सघ बौद्धधम के तीन रत्न मान गय ह । आचार्य वसुबध ने १ उत्तराध्ययनसूत्र १९४९ -९३ । २ वही २५।२१ २७ ३२।४७ ३५ । ३ वही ३२१६१ ८७ १ । ४ वही ३२।१८। ५ वही १९९४ ३५११९२ २३।७५-७८ ६ खुदकपाठ धमसाह (नागाजुनकृत मवसमलर द्वारा स पावित माक्सफोर १८८५ ) पृ १।

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