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सम्बन्ध की परम्परा प्रचलित है। इसे ही कर्मबन्ध कहा गया है। नियम एवं प्रतावरण के पालन द्वारा इस कमबन्ध की परम्परा को क्या सयम एवं रूप द्वारा पुराने कर्मबन्ध को रोका जा सकता है और जड तत्व से सर्वथा मुक्त जीव अपने अनन्त मान एव दशनात्मक स्वरूप को प्रास कर लेता है। इस प्रकार की क्रिया द्वारा जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद करके मोक्ष अपवा निर्वाण प्रास किया जा सकता है। जैनषम में मानव-जीवन का यही परमसत्य बताया गया है।
भगवान महावीर ने अपने घम का मलाधार अहिंसा माना है और अहिंसा के ही विस्तार म उन्होंने पचमहावतो को स्थापित किया। ये पांच व्रत है-अहिंसा अमृषा ( सय) अचीय अमैथन (ब्रह्मचय ) एव अपरिग्रह । इन पांच बतो को मुनियो द्वारा पूर्णत पालन किये जाने पर महावत और गृहस्थों द्वारा स्थल पसे पालन किये जाने पर महाव्रत और गृहस्यो द्वारा स्थल रूप से पालन किये जाने पर अणवत नाम दिया गया। जैन-प्रन्थो से ज्ञात होता है कि पाश्वनाथ ने चातुर्यामधम और महावीर न पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। पार्श्वनाथ बादि मध्य के २२ तीर्थकर भिक्षुओ के लिए चार ही व्रतो को आवश्यक मानते थे परन्तु महावीर ने पांचवें ब्रह्मचयक्त को भी आवश्यक बतलाया । दसरा मतभेद भिक्षों के लिए वस्त्र धारण करने पर था। भगवान महावीर ने अचेतनत्व पर बल दिया।
भगवान महावीर समता के पक्षपाती थे। अत उन्होंने जाति एव वण में विश्वास नही किया । उन्होन स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों के यज्ञ-यागादि का विरोध करते हुए कहा है कि हे ब्राह्मणो! अग्नि का प्रारम्भ कर और जल मजन कर बाह्मशुद्धि के द्वारा अन्त शुद्धि क्यों करते हो ? जो माग केवल बाह्मशुद्धि का है उसे कुशल पुरुषों ने इष्ट नही बतलाया ह । कुशा यप तृण काष्ठ और अग्नि तथा प्राता और सायंकाल जल का स्पश कर प्राणी और भतो का विनाश कर हे मन्दबुद्धि पुरुष तुम केवल पाप का ही उपाजन करते हो। इस प्रकार बाह्यशुद्धि एव कर्मकाण्ड को निरथक बतलाकर उहोने शद्ध आचरण की प्रतिष्ठा पर बल दिया । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि षम मेरा जलाशय है ब्रह्मचय मेरा शान्ति-तीथ है मात्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है यहां स्नान कर आत्मा विशुद्ध होता है। बत जो
१ उत्तराध्ययनसूत्र २१।१२ । २ वही २३३२३ । ३ वही २३३१३ । ४ वही १२२३८३९। ५ बही १२०४६ ।