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पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८९ देता है तो सकृदागामी कहलाने लगता है। ऐसा यक्ति इस कामभमि मे अधिक से अधिक एक बार ( सक ) जम लेकर अपने सम्पूण दु ख का प्रहाण कर देता है। ३ अनागामी
इसे अनागामी इसलिए कहत है क्योकि ऐसे व्यक्ति का इस मनुष्य भमि (कामभमि ) म फिर उत्पाद नही होता । कामभूमि म पुन आनेवाला न होन से यह अनागामो कहलाता है । रूप अरूपमि म उत्पन होकर यह अपने दुख का अन्त कर देता है। ४ अहत्
उपयक्त तानो व्यक्ति जिन क्लेशों का प्रहाण करन म असमथ रहते हैं यह यक्ति बाकी के बच हुए ऊर्ध्वभागीय पाँच क्लेशो का भी प्रहाण कर अहत कहलाने लगता ह । अर्थात इसके सम्पण दस सयोजन ( कामराग रूपराग अरूपराग प्रतिष मान दष्टि शीलवत परामश विचिकि सा औद्धत्य एव अविद्या) सर्वथा प्रहीण हो चके हैं । इसे अब कुछ प्रहाण करना शष नही है। इसे जो करना था वह कर दिया जा पाना था वह पा लिया। यह कृतकृय एव पण मनोरथ हो गया है। इसका ब्रह्म चय वास पण हो गया इसे अब फिर जन्म ग्रहण नहीं करना है। यह इसी जम म अनास्रव चित्त विमुक्ति एव प्रज्ञा विमुक्ति का अनुभव करत हुए विहार करता है।
जन-दशन मे नतिक जीवन का परमसाध्य वीतरागता की प्राप्ति रहा है। जन दशन म वीतराग एव अरिहत इसी जीवनादश के प्रतीक है। वीतराग की जीवन-शैली क्या होती है इसका वणन जनागमो म यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। डा सागरमल जन न उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया है जो ममत्व एव अहकार से रहित ह जिसके चित्त में कोई आसक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया है जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है जो लाम-अलाभ सुख-दुख जीवन मरण मान अपमान और निन्दा प्रशसा में समभाव रखता है जिसे न इस लोक और परलोक की कोई अपेक्षा नही है किसीके द्वारा चन्दन का लेप करन पर और किसीके द्वारा बसूले से छिलने पर जिसके मन में राग देष नहीं १ दीपनिकाय प्रथम भाग पृ १३३ १९५ द्वितीय भाग पृ ७४ तृतीय
भाम ५ ८३ १२।। २ वही पृ ८३ ८४ १३ । ३ वही पृ ८३ ८४ । ४ जैन बोस तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन माग ११
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