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ममिया २७
नगर के राजा और रानी पुरोहित और उसकी पत्नी पुरोहित के दोनो पुत्रों के दीक्षा लेने का उल्लेख है।
पन्द्रहवें अध्ययन की १६ गाथाओं में सदभिक्ष के लक्षण बताये गये है। इस अध्ययन म अनेक दार्शनिक और सामाजिक तम्यो का सकलन ह ।
ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान नामक सोलहव अध्ययन में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए दस बातों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है । इसमें १७ गाथाय पद्य रूप म निबद्ध तथा १२ स्त्र गद्य रूप में है।
सत्रहव अध्ययन में पाप श्रमण के लक्षण बतलाये गये हैं। इसम २१ गाथाय हैं । तीसरी से लेकर उन्नीसवी गाथापयन्त प्रत्येक माथा के अन्त में पावसमणित्ति वुच्चई पद आया है।
सजय नामक अठारहवें अध्ययन में सजय राजा का वणन है जिसने मुनि का उपदेश श्रवण कर श्रमण-धम में दीक्षा ग्रहण की । इसमें ५४ गाथाय हैं।
उन्नीसवें अध्ययन में ९९ गाथाओ के अन्तगत मृगापुत्र की दीक्षा का वर्णन ह जिनमें मृगापुत्र और उसके माता पिता के बीच होनवाला सवाद बहुत ही सुन्दर ह । मृगापुत्र को प्रधानता के कारण ही इस अध्ययन का नाम मृगापुत्रीय है।
बीसव अध्ययन का नाम महानिनथीय है। इसम अनापीमुनि और राजा श्रेणिक के बीच हुए रोचक सवाद का वणन है। इसमें ६ गाथायें है।
समुद्रपालीय नामक इक्कीसव अध्ययन में वणिक पुत्र समुद्रपाल का प्रव्रज्या ग्रहण और सयमपूर्ण श्रमण जीवन वर्णित ह । इसम साधओं के आन्तरिक आचार के सम्बध में वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि साध को प्रिय और बप्रिय दोनों बातो में सम रहना चाहिए । इसमें २४ गाथाय है।
बाईसव अध्ययन में अरिष्टनेमि और राजीमती की कथा है। राजीमती का रचनमि को उपदेश म आचार विचार का दिग्दर्शन होता है। विचलित रयनेमि को राजीमती ने इस प्रकार धिक्कारा है-हे कामभोग के अभिलाषी तेरे यश को धिक्कार है त वमन की हुई वस्तु को पुन उपभोग करना चाहता है इससे तो मर जाना अच्छा है।
तेईसवें अध्ययन में ८९ गाथाओं के अन्तर्गत पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार
१ उत्तराध्ययन १४५३॥ २ वही १६३१-१ । ३ वही २२४३ तुलनीय विसवन्त पातक ६९।