Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 112
________________ बौद्ध तथा आचार १४१ उपादान स्कन्ध ( रूप वेदना सज्ञा सस्कार और विज्ञान ) छह नाम्यन्तरिक और बाहरी आयतन । सात बोध्यन' एवं बार आय सत्यों का अर्थ ग्रहण किया गया है । इन धर्मो को उनके यथाथरूप में जानना धर्मानुपश्यना है । इस प्रकार ये चारों ही स्मृत्युपस्थान सस्वों की विशुद्धि का इनसे ही भिक्ष आत्मशरण और अनन्यशरण होकर बिहार करता है। गया है कि स्मृतिमान लोग ध्यान विपश्यना आदि में लगे रहते हैं नही होते । जिस प्रकार हस जलाशय का परित्याग कर चले जाते हैं लोग गृहो को त्याग देते हैं । वे ८ सम्यक समाधि समाधि चित्त की एकाग्रता के अर्थ में प्रयुक्त है । सम्यक समाधि का अर्थ है -- ठीक समाधि यथाथ समाधि । समाधि से चित्त को एकाग्र किया जाता है चित्त का दमन किया जाता है क्योकि एकमात्र चित्त के दमन से सभी दात्त हो जाते हैं । धम्मपद में इसीलिए कहा भी गया है कि चित्त का दमन करना अ छा है चित्त का दान्त होना सुखावह है । चित्त कुशलाकुशल धर्मो म प्रवृत्त होता है । इसलिए भिक्षु कामवासनाओ से अलग हो बराइयो से अलग हो वितक और विचारयुक्त विवेक से उत्पन्न प्रीति सुखवाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहार करता है और इसी प्रकार १ यो वस्स सतजीव अपस्स उदयब्बय ! एकाह जीवितं सेय्यो पस्सतो उदयब्जय ॥ एकमात्र माग है । धम्मपद में कहा आलस्य में रत उसी प्रकार के धम्मपद ११३ | २ चक्ष श्रोत्र घ्राण जिल्ह्वा काय और मन ये भीतरी आयतन हैं वैसे हो रूप शब्द गन्ध रस स्पश और धर्म- ये छ बाहरी । ३ स्मृति धम विचय बीय प्रीति प्रभब्धि समाधि और उपेक्षा । ४ दुख द खसमुदय दु खनिरोष और द खनिरोषणामिनी प्रतिपद । ५ महासतिपटठान ( दीघनिकाय २1९ ) । ६ उय्युम्जन्ति सतीमन्तो न निकेते रमन्ति ते 1 हसा व पल्लल हित्वा ओकमोक जहन्ति ते ।। ७ मज्झिमनिकाय १।३ १ ३७१ । ८ चित्तस्स दमन साधु चित्त दात सुखावह ॥ धम्मपद ९१ । धम्मपद ३५ ॥

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