Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ १६१ है क्योंकि प्रमाद से विवेकज्ञान को प्राप्ति नहीं हो सकती है और अब तक विवेक न नहीं होगा तब तक अहिंसा का पालन करना सम्भव नहीं है । उत्तराध्ययन में हंसा-व्रत के पालन करनेवाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इनके पालन न करने फल नरक की प्राप्ति बतलाया गया है। इस प्रकार इस व्रत का स्थान पचमहाव्रतों प्रथम और श्रेष्ठ है । ११ सत्य महाव्रत द्वितीय महाव्रत सर्व-भूषा वाद विरमण है । क्योकि असत्य लिए पतन का कारण और प्राणातिपात का पोषक है जिससे अनेक म पापकम का बन्ध होता है इसलिए श्रमण को प्रमाद क्रोध लोभ हास्य एव य से झठ न बोलकर उपयोगपूर्वक हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए यही सत्य हाव्रत ह । असभ्य वचन जो दूसरे को कष्टकर हो ऐसा भी नही बोलना हिए | इसम भी अहिंसा महाव्रत की तरह कृतकारित अनुमोदना एव मन वचन काय से झूठ न बोलने का अथ सन्निविष्ट है । अच्छा भोजन बना है अच्छी तरह से काया गया है इत्यादि प्रकार के सावध वचन तथा आज में यह कार्य अवश्य कर लंगा अवश्य ही ऐसा होगा इस प्रकार की निश्चयात्मक वाणीबोलने का भी ग्रन्थ में निषेध | सत्य - महाव्रत के पालन करने को भी उत्तराध्ययन में कठिन बतलाया गया है । १ समय गोयम । मापमायए । ६।१३ ४२६-८ २ २२ २१।१४१५२६ । २२ आदि । खिप्प न सक्के विवगमेउ तम्हा समुटठाय पहायकाम । समिच्च लोय समया महेसी अप्पाणरक्खी चरमप्पमतो || २ तसपाण वियाणता सगहेण यथावरे | जो न हिंसइ बिविहण त वय बम माहण || ३ कोहा वाजइ बाहासा लोहा वाजइ वा भया । भाषण आत्मा दोषो का जम्म उत्तराध्ययम १ व अध्ययन तथा मुस न वयइ जो उत वय बम माहण ॥ उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन पू २६४ तथा आगे ४ वयजोग सुच्चा न असबभमाहु । ५ मुस परिहरे भिक्खनय ओहारिण बए । भासा दोसं परिहरे मायं च वज्जए सया | वही ११२४ तथा उत्तराध्ययन सूत्र सुणिटिठए सुलटठेत्ति सावज्ज वज्जए मुणी ॥ ६ निकाल प्पमतण मुसावाय विवजण । भासिय हियं सच्च निच्छा उसेण दुक्कर || वही ४। १ । वही २५।२३ । वही २५|२४ तथा उत्तराध्ययन २१।२४ ॥ एक परिशीलन पू २६५ । उत्तराध्ययन १।३६ । वही १९/२७ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165