Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 94
________________ ११८ : बौद्ध तथा जैनधर्म कम कहते हैं । चार गतियों के माधार से इसके चार भेद किये गये हैं' ( १ ) का ( २ ) तिर्थगा ( ३ ) मनुष्यायु और (४) देवायु । यहाँ एक बात विशेष ध्यान रखने की है कि ग्रन्थ म सूत्राथ चिन्तन का फल बतलाते हुए लिखा है कि इससे ate आयुकर्म को छोडकर शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन को fee आयुकम का जन्म विकल्प से करता है। कर्मों से कुछ भिन्नता रखता है । शिथिल कर देता है । आयुकम शेष सात इससे स्पष्ट है कि ६ मामकम शरीर आदि की रचना का हेतु जो कम है उसको नामकम कहते हैं । यह दो प्रकार का है शुभनाम और अशुभनाम । इस कर्म के प्रभाव से ही जीव को शुभाशुभ शरीर इन्द्रिय आदि की प्राप्ति होती है । ७ गोजकम जिसके द्वारा जीवात्मा ऊच-नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात ऊच-नीच सज्ञा से सम्बोधित किया जावे उसका नाम गोत्रकम है। इसके उच्च और निम्न दो भेद हैं । ८ अन्तरायकम जो कम दान आदि में विघ्न उपस्थित कर देवे उसकी अन्तराय सज्ञा है । कहने का अर्थ यह है कि देनेवाले की इच्छा तो देन की हो और लेनेवाले की इच्छा लेने की हो परन्तु ऐसी दशा में भी दाता और याचक की इच्छा पूरी न हो यह १ मेरइय तिरिक्खाउ मणुस्सा उत्वतेवय । देवाय चउत्प त आउकम्म चउम्विह । उत्तराध्ययन ३३।१२ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू १६ । २ अणुप्पे हाएण आठयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ पणिय बघणबद्धाबो सिडिलबंघणबद्धाथो पकेरह आउय चणकम्म सियबन्धs सियनो बन्धइ । उत्तराध्ययन २९/२३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू १६ ३ नामकम्म तु दुविह सुहमसुह व आहिय । सुहस्स उबहूमेया एमेव असुहस्सवि ॥ उत्तराध्ययन ३३ । १३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पु १६१ । ४ गोयकम्मं दुविह उच्च नीय व आहिय । उच्च अट्ठविह होइ एव नीय पि आहिय || उत्तराध्ययन ३३।१४ ।

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