Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 137
________________ २१ ड तथा जनधर्म फंसाये रखती है जिस प्रकार मकडी अपने ही जाल बुनती है और अपने ही उसीमें बंधी रहती है । वे लोग तष्णा से नाना प्रकार के विषयो मे राग उत्पन्न करते है और एन्ही राग के बन्धन म जो उनके ही द्वारा उत्पन्न किये हुए है अपने को बांधकर दिन रात बन्धन का कष्ट उठाते हैं। इसलिए ज्ञानी पुरुष उस बन्धन को जो नीचे की तरफ ले जानेवाला है और खोलने म कठिन है मजबत कहते है। ऐसे बन्धन को काट देने के बाद मनुष्य चिन्ताओ से मुक्त हो इच्छाओ और भोगो को पीछे छोड ससार को याग देत ह । ससार के प्राणी तीन प्रकार की तृष्णामओ में फसे हुए है१ कामतृष्णा जो तृष्णा नाना प्रकार के विषयो की कामना करती है।। २ भवतष्णा भव-ससार या जन्म । इस ससार की स्थिति बनाय रखनवाली यही तष्णा है । इस ससार की स्थिति के कारण हमी है । हमारी तृष्णा ही इस ससार को उत्पन्न किए हुए ह । ससार के रहन पर ही हमारी सुखवासना चरिताथ होती है । अत इस ससार की तृष्णा भी तृष्णा का ही एक प्रकार है । ३ विभवतष्णा विभव का अथ है उच्छद ससार का नाश । ससार के नाश की इच्छा उसी प्रकार दु ख उत्पन करती है जिस प्रकार उसके शाश्वत होने की अभिलाषा। यही तष्णा जगत के समस्त विद्रोह तथा विरोध की जननी है। इसीके कारण राजा राजा से लडता है क्षत्रिय क्षत्रिय से ब्राह्मण ब्राह्मण से माता पुत्र से और लडका भी माता से आदि । समस्त पापकर्मों का निदान यही तण्णा है। चोर इसीलिए चोरी करता है कामुक इसीके लिए परस्त्री-गमन करता है पनी इसीके लिए गरीबों को चसता है। यह ससार तृष्णामलक ह । तृष्णा ही दुख का कारण है । तृष्णा का समुच्छेद करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सभी बन्धन अपने-आप नष्ट हो जाते हैं। तृष्णा दुष्पूर्ण है। वे कहते है १ ये रागरन्तानुपतित्ति सोत सय कस मक्कट कोणाल । एतम्पि छेत्वान वजन्ति धीरा अनपेक्खिनो सब्ब दुक्ख पहाय ॥ पम्मपद ३४७ । २ वही ३४६ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ २३६ । ३ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ २३ -३३ ।

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