Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ङ ] गद्य-पद्य का ऐसा सम्मिश्रण है कि साधारणतया उनका भेद भी नहीं जाना जाता है। तुलनात्मक अभ्यासियों का कहना है कि यह शैली अति प्राचीन है और प्राचीन उपनिषदों, ऐतरेय ब्राह्मण और कृष्ण यजुवेद में भी इस शैली का अनुसरण हुआ है । इस पर से यह निष्कर्ष निकलता है कि इसकी भाषा प्राचीन अर्धमागधी है। ध्यानपूर्वक पढ़ने बाले समझदार पाठक को इसकी भाषा में माधुर्य और प्रसाद गुण के दर्शन होते हैं । निष्कर्ष यह है कि आचारांग की भाषा और शैली बड़ी मनोहर, आकर्षक और प्रसादगुणोपेत है। विषय- निर्देश - यह पहले कहा जा चुका है कि प्रथम आचारांग अध्यात्म का और तत्त्वज्ञान का प्रतिपादक ग्रंथ हैं । तदनुसार इसका प्रतिपाद्य विषय वही है जो आत्मा और तत्त्व से सम्बन्ध रखता है । अतः इस ग्रन्थ का आरम्भ ही आत्मा और उसके पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारणा को लेकर हुआ है। प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में आत्मा का अस्तित्व, उसका भवान्तर में गमनागमन और गमनागमन के कारणों की मीमांसा की गई है । उक्त मीमांसा करते हुए आत्मा के शुद्ध स्वरूप और कर्मबन्ध के कारणों का निरूपण किया गया है। हिंसा और ममत्व कर्मबन्धन के मुख्य कारण हैं अतः कर्म-बन्ध से मुक्त होने की अभिलाषा रखने वाले मुमुक्षुओं को हिंसा और ममत्व से दूर रहना चाहिए, यह बतलाने के लिए द्वितीय आदि उद्देशकों में पृथ्वी, अप्, तेजस्, वनस्पति, त्रस और वायुकाय की हिंसा का परिहार करने का उपदेश दिया गया है। पृथ्वी, पानी आदि में भी अव्यक्त चेतना वाली आत्माएँ हैं यह सत्य सर्वप्रथम जैनधर्म ने ही जगत् के सामने रक्खा और उन अव्यक्त आत्माओं के प्रति भी अहिंसक रहने का न केवल उपदेश ही दिया अपितु वैसा अरण करके भी बताया। यह जैनधर्म की अहिंसा की लाक्षणिकता है । जो व्यक्ति इन सूक्ष्म जीवों के प्रति भी श्रहिंसक रह सकता है वह स्थूल जीवों के प्रति तो अहिंसक रहेगा ही । यह बात दूसरी है कि अहिंसा के उद्देश्य और हार्द को न समझने के कारण कोई व्यक्ति केवल रूढ़ि के अनुसार सूक्ष्म जीवों की यतना का तो ध्यान रक्खे और लोभादि कषायों के वश होकर स्थूल जीवों की अहिंसा के प्रति दुर्लक्ष करे। ऐसा करने से उसका अविवेक ही प्रकट होता है। सच्चा मुमुक्षु श्रहिंसा के हार्द को समझ कर उसका पालन करता है । आचारात में जगह २ यह स्पष्ट किया गया है कि कर्मबन्ध या मोक्ष का मुख्य श्राधार बाह्य क्रियाओं पर उतना नहीं है जितना आत्मा की अन्तर वृत्तियों पर । श्रतएव अन्तर वृत्तियों के संशोधन पर मुख्य ध्यान देना चाहिए। हिंसा की आराधना के लिए भी अन्तर वृत्तियों में हिंसा व्याप्त हो जानी चाहिए। बाहर से अहिंसक रहने पर भी वृत्तियों में हिंसा हो सकती है और वह हिंसा कर्म-बन्धन का कारण हो जाती है। इसलिए वृत्तियों में हिंसा, सत्य आदि गुणों को रमाने का प्रयत्न होना चाहिए। दूसरे अध्ययन में 'लोकविजय' का वर्णन है। जब तक साधक बाह्य पदार्थों और बाह्य-सम्बन्धों में उलझा रहता है तब तक वह श्रात्मा के साक्षात्कार और उसकी अनुपम विभूति से बचित रहता है । आत्मदर्शन के लिए बाह्य संसार - धन धान्य, माता-पिता स्त्री आदि परिवार की ममता का परिहार करना आवश्यक होता है । अतएव इस अध्ययन में सांसारिक वस्तुओं से ममता का सम्बन्ध तोड़ लेने का मर्मस्पर्शी उपदेश दिया गया है। यह उपदेश देते हुए भी स्पष्ट किया गया है कि धन-धान्य, माता-पिता आदि परिवार का बाह्यदृष्टि से त्याग कर देने पर भी अन्तर वृत्तियों में उनके प्रति ममता का अंश रह जाता है अतः उसको सर्वथा निर्मूत करने का प्रयास करने में पूर्ण जागरूकता रखनी चाहिए । For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 670