Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 9
________________ लेखक के हृदयोद्गार बनने के मार्ग में गतिशील सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसा देव बनने का मार्ग बतानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहचानता है। निश्चय सम्यग्दर्शन की सच्ची व्याख्या ऐसी होने पर भी व्यवहार नय के पक्षवालों को सम्यग्दर्शन की ऐसी सच्ची व्याख्या मान्य नहीं होती अथवा वे ऐसी व्याख्या का ही विरोध करते हैं और इसलिये वे सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की कही जाती (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की कही जाती (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा इतना ही मानते होने से उन्हें 'स्वात्मानुभूति रहित की श्रद्धा' और 'स्वात्मानुभूति सहित की श्रद्धा' के बीच के अन्तर की ख़बर ही नहीं होती अथवा ख़बर करना ही नहीं चाहते ; इसलिये वे सम्यग्दर्शन, जो कि धर्म की नींव है उसके विषय में ही अनजान रहकर सम्पूर्ण ज़िन्दगी क्रिया-धर्म उत्तम रीति से करने पर भी संसार का अन्त करनेवाला धर्म प्राप्त नहीं करते। इसी प्रकार जो मात्र निश्चय नय को ही मान्य कर के उसे ही प्रधानता देते हैं, वे मात्र ज्ञान की शुष्क (कोरी) बातों में ही रह जाते हैं और आत्मा की योग्यता के विषय में अथवा मात्र नींव रूप सदाचार के विषय की भी घोर उपेक्षा कर के, वे भी संसार का अन्त करनेवाले धर्म से तो दूर ही रहते हैं। तदुपरान्त ऐसे लोगों को प्राय: स्वच्छन्दता के कारण अर्थात् पुण्य को एकान्तत: हेय मानने के कारण पुण्य का भी अभाव होने से भव का भी ठिकाना नहीं रहता। उक्त दोनों ही बातें दयनीय हैं। इसी प्रकार जैन समाज में एक छोटा वर्ग ऐसा भी है जिसने वस्तु व्यवस्था को ही विकृत कर दिया है; वह द्रव्य और पर्याय को इस हद तक अलग मानता है जैसे वे दो अलग द्रव्य ही हो! वे एक अभेद द्रव्य में उपजा (कल्पना) करके बतलाये हुए गुण-पर्याय को भी भिन्न समझते हैं अर्थात् द्रव्य का सम्यक् स्वरूप समझाने को द्रव्य को अपेक्षा से गुण और पर्याय से भिन्न बतलाया है, उसे वे वास्तविक रूप से भिन्न समझते हैं; द्रव्य और पर्याय को दो भाव न मानकर वे उसे दो भाग रूप मानने तक की प्ररूपणा करते हैं। आगे उसमें भी सामान्य-विशेष ऐसे दो भाग की कल्पना करते हैं। इस प्रकार वस्तु व्यवस्था की विकृत रीति से प्ररूपणा करके वे भी मोक्ष देनेवाले धर्म से दूर ही रहते हैं। ऐसे लोगों के भी प्रायः स्वच्छन्दता के कारण पुण्य का अभाव होने के कारण भव का ठिकाना नहीं रहता। यह बात भी दयनीय ही है। अभी जैन समाज में प्रवर्तमान तत्त्व की ऐसी गलत समझ को दर करने के लिये हम अपनी आत्मा के अनुभूत विचार, शास्त्र के आधार सहित इस पुस्तक में प्रस्तुत करते हैं, जिन पर विचार-चिन्तन-मनन आप खुले मन से और अच्छा वही मेरा' और 'सच्चा वही मेरा' ऐसा अभिगम अपनाकर करेंगे तो अवश्य आप भी तत्त्व की प्रतीति निःसन्देह कर सकेंगे ऐसा हमें

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