Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth Publisher: Shailendra Punamchand Shah View full book textPage 8
________________ सम्यग्दर्शन की विधि अनुरोध है। हम किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते; इसलिये जिन्हें यह बात समझ में न आये अथवा न रुचे, वे हमें क्षमा करें। 'मिच्छामि दुक्कडं’। ‘उत्तम क्षमा’। 2 इस काल में जैन समाज दो भागों में विभाजित हो गया है; जिसमें से एक विभाग ऐसा है कि जो मात्र व्यवहार नय को ही मानता है और मात्र उसे ही प्रधानता देता है तथा मात्र उससे ही मोक्ष मानता है। जबकि दूसरा विभाग ऐसा है कि जो मात्र निश्चय नय को ही मानता है और मात्र उसे ही प्रधानता देता है तथा मात्र उससे ही मोक्ष मानता है। परन्तु वास्तविक मोक्षमार्ग निश्चय-व्यवहार की योग्य सन्धि में ही है। यह बात कोई विरले ही जानते हैं। जैसा कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ८ में भी कहा है कि 'जो जीव व्यवहार नय और निश्चय नय को वस्तु स्वरूप द्वारा यथार्थ रूप से जानकर मध्यस्थ होता है, अर्थात् निश्चय नय और व्यवहार नय में पक्षपात रहित होता है, वही उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है (अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है ।) ' वर्तमान काल में बहु भाग जैन समाज व्यवहार नय को ही प्रधानता देता है और निश्चय नय की घोर अवगणना अथवा विरोध करता है, जिससे वह समाज जाने-अनजाने भी एकान्त मतावलम्बी होता है। वह पाखण्डी का मत है। जैन समाज का दूसरा वर्ग जो कि निश्चय नय को ही प्रधानता देता है और व्यवहार नय की घोर अवगणना अथवा विरोध करता है, वह समाज भी जाने-अनजाने में एकान्त मत रूप है, वह भी पाखण्डी का मत ही है। हमने इस पुस्तक में निश्चय - व्यवहार की योग्य सन्धि समझाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया है। उसे सारा जैन समाज योग्य रीति से समझकर आराधन करे तो जैन धर्म में आमूल क्रान्ति आ सकती है और अभी जो एकान्त प्ररूपणायें चलती हैं, जो कि पाखण्ड मत रूप हैं वे रुक सकती हैं। - मात्र व्यवहार नय को ही मान्य करके, उसे ही प्रधानता देता एक उदाहरण है. सम्यग्दर्शन का स्वरूप; मात्र व्यवहार नय को ही मान्य करनेवाले बहुत सारे जैन ऐसा मानते हैं कि सम्यग्दर्शन अर्थात् सात / नौ तत्त्वों की (स्वानुभूति रहित ) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की (स्वानुभूति रहित) श्रद्धा । सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या व्यवहार नय के पक्ष की है परन्तु निश्चय नय के मत से जो एक को अर्थात् आत्मा को जानता है, वही सर्व को अर्थात् सात/ नौ तत्त्वों तथा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र को जानता है क्योंकि एक आत्मा को जानते ही वह जीव सच्चे देव तत्त्व का अंशत: अनुभव करता है और इसीलिये वह सच्चे देव को अन्तर से पहचानता है तथा सच्चे देव को जानते ही अर्थात् (स्वानुभूति सहित की) श्रद्धा होते ही वह जीव वैसा देवPage Navigation
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